Sunday 30 June 2013

एक पाठक की आपबीती



एक पाठक को हिंदी और अंग्रेजी का एक बहुचर्चित उपन्यास खरीदना था, उन्होंने दोनों स्थितियां इस प्रकार बयान कीं ...

हिंदी
१. किताब किसी भी वेबसाइट पर उपलब्ध नहीं
२. प्रकाशक के वेबसाइट पर गया, परन्तु इधर-उधर हेकड़ी मारता रहा और हाथ कुछ न आया
३ . अंत में फिर से खोजबीन करने पर एक वेबसाइट मिली जो सिर्फ हिंदी किताबों का क्रय-विक्रय करती है
४ . वेबसाइट देख कर लगा कि पता नहीं वास्तविक है या बस यूँ ही । उनके वेबसाइट और हिंदी कि वर्तमान स्तिथि में कोई फर्क न था
५. खैर, सोचा जोखिम ले ही लूं । आश्चर्य तो तब हुआ जब ३-४ ऐसी कृति जो कही और उपलब्ध न था, उनके स्टॉक में दिखाई दे रहा था । दुविधावश मैंने उन्हें फ़ोन लगाकर पुछा तो कहा आप हमे पुस्तकों के नाम ईमेल कर दीजिये, हम पुनः निश्चय करके आपको सूचित कर देंगे ।
६. दुसरे दिन उत्तर आया (मूल्य और भुगतान माध्यम के साथ )
७. मैंने भुगतान कर दिया और इंतज़ार शुरू (न कोई छूट या मुफ्त शिपिंग)
८. ३-४ दिन तक कोई खबर न आने के बाद मैंने उनके दोबारा फ़ोन लगाया तो पता चला कि वह अमुक कूरियर द्वारा प्रेषित किया जा चूका है । कूरियर भी वह जिसका नाम मैंने पहले कभी नहीं सुना ।
९ . १-२ और प्रतीक्षा करने के बाद मैंने कूरियर वाले को फ़ोन लगाया तो जानकारी दी गयी की वो हमारे क्षेत्र में 'डिलीवर' नहीं करते , उपाय यह कि मुझे हि जाना होगा
१० . दुसरे दिन चिलचिलाती गर्मी में २१ km मोटरसाइकिल चलाकर गया और प्राप्त किया (भाग्य से)
११ . घर आकर खोला तो पुस्तके तो सही थी परन्तु मुझसे मूल्य गलत लिया गया। अंकित मूल्य कुछ और था और मुझसे लिया गया कुछ और
१२ . मैंने फिर से उन्हें ईमेल किया (दाम का जितना फर्क नहीं, उतना मोबाइल बिल आ जाता उन्हें समझाने में )
१३ . उत्तर अपेक्षित है
नौ की मुर्गी तो नहीं कहूँगा क्युकी वो किताबें मेरे लिए अमूल्य है, परन्तु नब्बे का मसाला अवश्य लग गया (पैसा हि नहीं, समय भी )

अंग्रेजी
१. flipkart से लेकर snapdeal पर उपलब्ध
२. २० - ४० प्रतिशत कि छूट और ख़ास दाम के बाद शिपिंग मुफ्त
३. परेशानी तब हुई जब एक हि पुस्तक के कई संस्करण मौजूद थे (वास्तव में चुनाव के लिए ढेर सारा विकल्प)
४. भुगतान के बाद पुस्तके ३-४ दिन में मेरे निजी पुस्तकालय में थीं !
माँ (हिंदी) से रूठा नहीं जाता, अन्यथा भाषा को छोड़ एक भी ऐसा कारण नहीं कि लोग हिंदी क्यों ख़रीदे और पढ़े ... ?

मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति, इन्दौर


श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति इन्दौर, हिन्दी के प्रचार, प्रसार और विकास के लिये कार्यरत देश की प्राचीनतम सन्स्थाओ मे से एक है। समिति की स्थापना सन् १९१० में महात्मा गांधी की प्रेरणा से हुई थी। सन १९१८ मे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने समिति के इन्दौर स्थित परिसर से ही सबसे पहले हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का आव्हान किया था. यहा हुए हिन्दी साहित्य सम्मेलन के दौरान ही पूज्य बापु ने अहिन्दी भाषी प्रदेशो मे हिन्दी के प्रचार के लिये अपने पुत्र देवदत्त गांधी सहित पान्च लोगो को हिन्दी दूत बनाकर तत्कालीन मद्रास प्रान्त मे भेजा था. इसी अधिवेशन मे तत्कालीन मद्रास प्रान्त मे "हिन्दी प्रचार सभा" की स्थापना का संकल्प लेकर इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु धन संग्रह किया गया था. वर्धा स्थित राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना में भी हिन्दी साहित्य समिति की ऐतिहासिक भूमिका निभाई है. इस तरह देश के अहिन्दी भाषी राज्यो मे हिन्दी के प्रचार के पहले प्रयास मे श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति की भूमिका अत्यन्त उल्लेखनीय और प्रभावशाली रही है।
सन १९३५ मे समिति मे पुनः हिन्दी साहित्य सम्मेलन का आयोजन किया गया था. इस अधिवेशन की अध्यक्षता भी गांधीजी ने की. समिति द्वारा प्रकाशित मासिक पत्रिका "वीणा" देश की एकमात्र पत्रिका है जो सन १९२७ से निरन्तर प्रकाशित हो रही है. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हजारीलाल द्विवेदी, 'निराला','दिनकर' सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा,प्रेमचन्द,जयशन्कर प्रसाद, व्रन्दावन लाल वर्मा, अम्रतलाल नागर तथा माखनलाल चतुर्वेदी सहित देश के लगभग सभी शीर्षस्थ लेखक, कवि, निबन्धकार, कहानीकार और आलोचक नियमित रूप से "वीणा" मे लिखते रहे है. यही कारण है कि विख्यात कवियत्री महादेवी वर्मा अक्सर ये कहा करती थी कि "हिन्दी भाषा और साहित्य का इतिहास समिति और वीणा के जिक्र के बिना सदैव अपूर्ण रहेगा".
समिति की स्थापना एक पुस्तकालय के रूप मे हुई थी. अभी भी समिति का पुस्तकालय मध्यप्रदेश के सबसे सम्रद्ध पुस्तकालयो मे से एक है. इसमे लग्भग २५ हजार किताबे सन्ग्रहित है. इस पुस्तकालय का कम्पुटरीकरण कर इसे ई लायब्रेरी के रूप मे विकसित करने के प्रयास किये जा रहे है. हिन्दी भाषा और साहित्य मे उच्च स्तरीय शोध कार्यो को बढावा देने के उद्देश्य से समिति द्वारा डा. पी.डी.शर्मा शोध केन्द्र की स्थापना की गई है. देवी अहिला वि.वि. से मान्यता प्राप्त इस केन्द्र से अप्रेल २०१० तक 55 शोधार्थी अपना शोध पूरा कर पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त कर चुके है.
संस्कृत के वैज्ञानिक आयामो पर शोध को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से समिति ने संस्कृत शोध संस्थान की स्थापना की है। इस शोध केन्द्र का शुभारम्भ भारत के महामहिम राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने मध्यप्रदेश के मुख्यमन्त्री शिवराज सिन्ह चौहान, राज्यपाल बलराम जाखड, और इन्दौर की सान्सद श्रीमती सुमित्रा महाजन की उपस्थिति मे किया था. .
समिति के एक विभाग "समसामयिक अध्ययन केन्द्र" द्वारा ज्ञान-विज्ञान, तकनीक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र मे आ रहे नये बदलावो की जानकारी लोगो तक हिन्दी मे पहुचाने का प्रयास किया जाता है. केन्द्र द्वारा आयोजित कार्यक्रमो मे अब तक देश के वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. सन्दीप बसु और डा. माशेलकर, न्यायमूर्ति श्री, जे.एस.वर्मा, श्री वी. डी. ज्ञानी, और श्री वी.एस.कोगजे, वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जी, वेद प्रताप वेदिक, श्री बी.जी.वर्गीज और श्री राहुल देव सान्सद श्री नवीन जिन्दल, पूर्व प्रधानमन्त्री, श्री चन्द्रशेखर, पूर्व उपराष्ट्रपति श्री, क्रष्णकान्त, श्री भैरोसिन्ह शेखावत,पूर्व लोकसभा अध्यक्ष श्री सोमनाथ चटर्जी तथा पूर्व उपप्रधानमन्त्री श्री लालक्रष्ण आडवाणी सहित देश के कई गणमान्यजन समिति के कार्यक्रमो मे भाग ले चुके है.
वर्तमान सन्दर्भो मे समिति, हिन्दी के प्रसार के साथ साथ सभी भारतीय भाषाओ के बीच सम्वाद प्रक्रिया आरम्भ कर भाषायी समन्वयन तथा कम्पुटर एवम सूचना तकनीक के क्षेत्र मे हिन्दी के प्रयोग को बढावा देने की दिशा मे काम कर रही है. इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु समिति ने हिन्दी ब्लागिन्ग के प्रशिक्षण हेतु कई कार्यशालाए आयोजित की है. जिनमे श्री रवि रतलामी और श्री प्रतीक श्रीवास्तव ने हिन्दी मे ब्लाग बनाने की विधा का प्रशिक्षण दिया है.


भारत की प्रमुख हिन्दी सेवी संस्थाएँ

नागरी प्रचारिणी सभा । हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग । श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति, इन्दौर । अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन । भारतीय भाषा सम्मेलन । दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा । दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, चेन्नई । महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी । राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा । नागरी लिपि परिषद् । सराय । हिन्दी सेवा । महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय । जनभारती । हिंदी कम्प्यूटिंग फाउंडेशन । हिंदी विद्यापीठ, देवघर । महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा, पुणे । हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद । बम्बई हिंदी विद्यापीठ, मुंबई । गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद । असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, गुवाहाटी । हिंदुस्तानी प्रचार सभा, मुंबई । मैसूर हिंदी प्रचार परिषद, बंगलुरु । केरल हिंदी प्रचार सभा, तिरुवनंतपुरम । मणिपुर हिंदी परिषद, इम्फाल । कर्नाटक महिला हिंदी सेवा समिति, बंगलुरु । मैसूर रियासत हिंदी प्रचार समिति, बंगलुरु । सौराष्ट्र रचनात्मक समिति, राजकोट । केंद्रीय सचिवालय, हिंदी परिषद, नई दिल्ली । राष्ट्रभाषा महासंघ, मुंबई । विदर्भ हिंदी साहित्य सम्मेलन, नागपुर । भारतीय भाषा प्रतिष्ठापन परिषद, वाशी, नवी मुंबई । हिंदी अकादमी, दिल्ली । हिंदी साहित्य परिषद, अंबावाड़ी, अहमदाबाद । सृजन सम्मान, छत्तीसगढ़ । अखिल भारतीय राष्ट्रभाषा विकास संगठन, गाजियाबाद । अखिल भारतीय हिंदी संस्था संघ, दिल्ली । हिंदी सेवी महासंघ, इंदौर । राष्ट्रभाषा प्रचार नवयुवक समिति, हैदराबाद । उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ । भारतीय भाषा न्यास, मुंबई । आशीर्वाद, मुंबई । कर्नाटक महिला हिंदी सेवा समिति, बंगलुरु । हिंदी साहित्य सरिता मंच, नासिक । राजस्थानी जागृति समिति, हैदराबाद । हिंदी प्रेमी समिति, हैदराबाद । छत्तीसगढ़ राष्ट्रभाषा प्रचार समिति । अंग्रेजी अनिवार्यता विरोधी समिति । भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता। हिन्दी भवन, नई दिल्ली । हिन्दी प्रचार सभा, मथुरा । साहित्य मण्डल, नाथद्वारा । विज्ञान परिषद् प्रयाग । राष्ट्रभाषा विचार मंच, अम्बाला । मातृभाषा विकास परिषद । अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन । श्री हिन्दी साहित्य समिति, भरतपुर
अमेरिकाः अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति, सेलम । हिंदी यूएसए । अखिल विश्व हिन्दी समिति । विश्व हिंदी न्यास समिति ।
कनाडाः हिंदी साहित्य सभा, टोरंटो । अलबर्टा हिंदी परिषद ।
संयुक्त राजशाही
गीतांजलि मल्टीलिंग्वल लिटरेरी सर्किल, ट्रेंट । हिन्दी यूके । कथा यू.के.
नीदरलैंड
हिंदी परिषद, नीदरलैंड्स ।
नेपाल
नेपाल हिन्दी साहित्य परिषद ।
मॉरीशस
हिन्दी प्रचारिणी सभा, मॉरीशस । विश्व हिन्दी सचिवालय । हिन्दी संगठन । हिन्दी लेखक संघ
सिंगापुर
हिन्दी सोसायटी, सिंगापुर
आस्ट्रेलिया
हिन्दी समाज, सिडनी
दक्षिण अफ्रीका
दक्षिण अफ्रीका हिन्दी शिक्षा संघ

हिंदी शब्दसागर

हिंदी शब्दसागर हिन्दी भाषा के लिए बनाया गया एक वृहत शब्द-संग्रह है। प्रथम मानक कोश 'हि‍न्‍दी शब्‍दसागर' का नि‍मार्ण नागरी प्रचारिणी सभा, काशी ने कि‍या था। इसका प्रथम प्रकाशन १९२२ - १९२९ के बीच हुआ। यह वैज्ञानिक एवं विधिवत शब्दकोश मूल रूप में चार खण्डों में बना। इसके प्रधान सम्पादक श्यामसुन्दर दास थे तथा बालकृष्ण भट्ठ, लाला भगवानदीन, अमीर सिंह एवं जगन्मोहन थे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल एवं आचार्य रामचंद्र वर्मा ने भी इस महान कार्य में सर्वश्रेष्ठ योगदान किया। इसमें लगभग एक लाख शब्द थे। बाद में सन् १९६५ - १९७६ के बीच इसका का परिवर्धित संस्काण ११ खण्डों में प्रकाशित हुआ।
संक्षिप्त इतिहास
    हिंदी में सर्वागपूर्ण और बृहत् कोश का अभाव नागरीप्रचारिणी सभा के संचालकों को १८९३ ई० में ही खटका था और उन्होंने एक उत्तम कोश बनाने के विचार से आर्थिक सहायता के लिये दरभंगानरेश महाराजा सर लक्ष्मीश्वर सिंह जी से प्रार्थना की थी । महाराजा ने भी शिशु सभा के उद्देश्य की सराहना करते हुए १२५ रूपये उसकी सहायता के लिये भेजे थे और उसके साथ सहानुभूति प्रकट की थी ।
    २३ अगस्त, सन् १९०७ को सभा के परम हितैषी और उत्साही सदस्य श्रीयुक्त रेवरेंड ई० ग्रीव्स ने सभा की प्रबंधकारिणी समिति में यह प्रस्ताव उपस्थित किया कि हिंदी के एक बृहत् और सर्वागपूर्ण कोश बनाने का भार सभा अपने ऊपर ले; और साथ ही यह भी बतलाया कि यह कार्य किस प्रणाली से किया जाय । सभा ने मि० ग्रीव्स के प्रस्ताव पर विचार करके इस विषय में उचित परामर्श देने के लिये निम्नलिखित सज्जनों की एक उपसमिति नियत कर दी - रेवरेंड ई० ग्रीव्स, महामहोपाध्याय पंडित सुधाकर द्विवेदी, पंडित रामनारायण मिश्र बी० ए०, बाबू गोविंददास, बाबू इंद्रनारायण सिंह एम० ए०, छोटेलाला, मुंशी संकटाप्रसाद, पंडित माधवप्रसाद पाठक और श्यामसुन्दर दास ।
    ९ नवंबर, १९०७ को इस उपसमिति ने अपनी रिपोर्ट दी, जिसमें सभा को परामर्श दिया गया कि सभा हिंदीभाषा के दो बड़े कोश बनवावे जिनमें से एक में तो हिंदी शब्दों के अर्थ हिंदी में ही रहें और दूसरे में हिंदी शब्दों के अर्थ अँगरेजी में हों ।
    सभा ने इस कार्य के लिये अनेक राजा महाराजों से आर्थिक सहायता प्राप्त की।
    सभा ने निश्चित किया कि शब्दसंग्रह का काम वेतन देक कुछ लोगो से कराया जाय । तदनुसार प्रायः १६—१७ आदमी शब्दसंग्रह के काम के लिये नियुक्त कर दिए गए और एक निश्चित प्रणाली पर शब्दसंग्रह का काम होने लगा ।
    आरंभ में कोश के सहायक संपादक पंडित बालकृष्ण भट्ट, पंडित रामचंद्र शुक्ल, लाला भागवानदीन और बाबू अमीर सिंह के अतिरिक्त बाबू जगन्मोहन वर्मा, बाबू रामचंद्र वर्मा, पंडित वासुदेव मिश्र, पंडित रामवचनेश मिश्र, पंडित ब्रजभूषण ओझा, श्रीयुत वेशी कवि आदि अनेक सज्जन भी इस शब्दसंग्रह के काम में संमिलित थे। आरंभ में सभा ने यह निश्चित नहीं किया था कि कोश का संपादक कौन बनाया जाय, पर दूसरे वर्ष सभा ने श्यामसुन्दर दास को कोश का प्रधान संपादक बनाना निश्चित किया ।
    सन् १९१० के आरंभ में शब्दसंग्रह का कार्य समाप्त हो गया । जिन स्लिपों पर शब्द लिखे गए थे, उनकी संख्या अनुमानतः १० लाख थी, जिनमें से आशा की गई थी कि प्रायः १ लाख (बिना दुहराये) शब्द निकलेंगे, और प्रायः यही बात अंत में हुई भी ।
    मई, १९१२ में छपाई का कार्य आरंभ हुआ और एक ही वर्ष के अंदर ९६-९६ पृष्ठों की चार संख्याएँ छपकर प्रकाशित हो गई, जिनमें ८६६६ शब्द थे । सर्वसाधारण में इन प्रकाशित संख्याओं का बहुत अच्छा आदर हुआ ।
    इस प्रकार १९१७ तक बराबर काम चलता रहा और कोश की १५ संख्याएं छपकर प्रकाशित हो गई तथा ग्राहकसंख्या में बहुत कुछ वृद्धि हो गई ।
    सन् १९२४ में कोश के संबंध मे एक हानिकारक दुर्घटना हो गई थी । आरंभ में शब्दसंग्रह की जो स्लिपें तैयार हुई थी, उनके २२ बंडल कोश कार्यालय से चोरी चले गए । उनमें 'विव्वोक' से 'शं' तक की और 'शय' से 'सही' तक की स्लिपें थी ।
    जनवरी, १९२९ को यह कार्य समाप्त हुआ।
    इस प्रकार यह बृहत् आयोजन २० वर्ष के निरंतर उद्योग, परिश्रम और अध्यवसाय के अनंतर समाप्त हुआ। इससें सब मिलाकर ९३,११५ शब्दों के अर्थ तथा विवरण दिए गए थे और आरंभ में हिंदी भाषा और साहित्य के विकास का इतिहास भी दे दिया गया था जिसे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने तैयार किया था। इस समस्त कार्य में सभा का तबतक १०,२७,३५ रूपये हुए, जिसमें छपाई आदि का भी व्यय संमिलित है।

हिन्दी विश्वकोश

हिन्दी विश्वकोश, नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा हिन्दी में निर्मित एक विश्वकोश है। यह बारह खण्डों में पुस्तक रूप में उपलन्ध है। इसके अलावा यह अन्तरजाल पर पठन के लिये भी नि:शुल्क उपलब्ध है। यह किसी एक विषय पर केन्द्रित नहीं है बल्कि इसमें अनेकानेक विषयों का समावेश है।
इतिहास
भारतीय वाङमय में संदर्भग्रंथों - कोश, अनुक्रमणिका, निबंध, ज्ञानसंकलन आदि की परंपरा बहुत पुरानी है। भारतीय भाषाओं में सबसे पहला आधुनिक विश्वकोश श्री नगेंद्र नाथ बसु द्वारा सन् 1911 में संपादित बाँगला विश्वकोश था। बाद में 1916-32 के दौरान 25 भागों में उसका हिंदी रूपांतर प्रस्तुत किया गया। मराठी विश्वकोश की रचना 23 खंडों में श्रीधर व्यकंटेश केतकर द्वारा की गई।
स्वराज्य प्राप्ति के बाद भारतीय विद्वानों का घ्यान आधुनिक भाषाओं के साहित्यों के सभी अंगों को पूरा करने की ओर गया और आधुनिक भारतीय भाषाओं में विश्वकोश निर्माण का श्रीगणेश हुआ। इसी क्रम में नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी ने सन् 1954 में हिंदी में मौलिक तथा प्रामाणिक विश्वकोश के प्रकाशन का प्रस्ताव भारत सरकार के सम्मुख रखा। इसके लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया और उसकी पहली बैठक 11 फरवरी 1956 में हुई और हिंदी विश्वकोश के निर्माण का कार्य जनवरी 1957 में प्रांरभ हुआ। सन् 1970 तक 12 खंडों में इस विश्वकोश का प्रकाशन कार्य पूरा किया गया। सन् 1970 में विश्वकोश के प्रथम तीन खंड अनुपलब्ध हो गए। इसके नवीन तथा परिवर्धित संस्करण का प्रकाशन किया गया।
राजभाषा हिंदी के स्वर्णजयंती वर्ष में राजभाषा विभाग (गृह मंत्रालय) तथा मानवसंसाधन विकास मंत्रालय ने केन्द्रीय हिंदी संस्थान, आगरा को यह उत्तरदायित्व सौंपा कि हिंदी विश्वकोश इंटरनेट पर पर प्रस्तुत किया जाए। तदनुसार केन्द्रीय हिंदी संस्थान,आगरा तथा इलेक्ट्रॉनिक अनुसंधान एवं विकास केंद्र, नोएडा के संयुक्त तत्वावधान में तथा मानव संसाधन विकास मंत्रालय तथा सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के संयुक्त वित्तपोषण से हिंदी विश्वकोश को इंटरनेट पर प्रस्तुत करने का कार्य अप्रैल 2000 में प्रारम्भ हुआ। उपलब्ध प्रस्तुत योजना के अंतर्गत हिंदी विश्वकोश के मूलरूप को इंटरनेट पर प्रस्तुत करता है। अगले चरण में हिंदी विश्वकोश को अद्यतन बनाने का कार्य किया जाना प्रस्तावित है। इंटरनेट पर उपलन्ध हिन्दी विश्वकोश का यह अभी शून्य संस्करण है।


नागरी प्रचारिणी सभा का पुस्तक संसार


नागरीप्रचारिणी सभा, हिंदी भाषा और साहित्य तथा देवनागरी लिपि की उन्नति तथा प्रचार और प्रसार करनेवाली भारत की अग्रणी संस्था है। भारतेन्दु युग के अनंतर हिंदी साहित्य की जो उल्लेखनीय प्रवृत्तियाँ रही हैं उन सबके नियमन, नियंत्रण और संचालन में इस सभा का महत्वपूर्ण योग रहा है।
काशी नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना १६ जुलाई, १८९३ ई. को श्यामसुंदर दास जी द्वारा हुई थी। यह वह समय था जब अँगरेजी, उर्दू और फारसी का बोलबाला था तथा हिंदी का प्रयोग करनेवाले बड़ी हेय दृष्टि से देखे जाते थे। नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना क्वीन्स कालेज, वाराणसी के नवीं कक्षा के तीन छात्रों - बाबू श्यामसुंदर दास, पं. रामनारायण मिश्र और शिवकुमार सिंह ने कालेज के छात्रावास के बरामदे में बैठकर की थी। बाद में १६ जुलाई, १८९३ को इसकी स्थापना की तिथि इन्हीं महानुभावों ने निर्धारित की और आधुनिक हिंदी के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र के फुफेरे भाई बाबू राधाकृष्ण दास इसके पहले अध्यक्ष हुए। काशी के सप्तसागर मुहल्ले के घुड़साल में इसकी बैठक होती थीं। बाद में इस संस्था का स्वतंत्र भवन बना। पहले ही साल जो लोग इसके सदस्य बने उनमें महामहोपाध्याय पं. सुधाकर द्विवेदी, इब्राहिम जार्ज ग्रियर्सन, अंबिकादत्त व्यास, चौधरी प्रेमघन जैसे भारत ख्याति के विद्वान् थे।
तत्कालीन परिस्थितियों में सभा को अपनी उद्देश्यपूर्ति के लिए आरंभ से ही प्रतिकूलताओं के बीच अपना मार्ग निकालना पड़ा। किंतु तत्कालीन विद्वन्मंडल और जनसमाज की सहानुभूति तथा सक्रिय सहयोग सभा को आरंभ से ही मिलने लगा था, अतः अपनी स्थापना के अनंतर ही सभा ने बड़े ठोस और महत्वपूर्ण कार्य हाथ में लेना आरंभ कर दिया। सभा का यह पुस्तकालय देश में हिंदी का सबसे बड़ा पुस्तकालय है। स्व. ठा. गदाधरसिंह ने अपना पुस्तकालय सभा को प्रदान किया और उसी से इसकी स्थापना सभा में सन् १८९६ ई. में हुई। विशेषतः १९वीं शताब्दी के अंतिम तथा २०वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षो में हिंदी के जो महत्वपूर्ण ग्रंथ और पत्रपत्रिकाएँ छपी थीं उनके संग्रह में यह पुस्तकालय बेजोड़ है। इस समय तक लगभग १५,००० हस्तलिखित ग्रंथ भी इसके संग्रह में हो गए हैं। मुद्रित पुस्तकें डयूई की दशमलव पद्धति के अनुसार वर्गीकृत हैं। इसकी उपयोगिता एकमात्र इसी तथ्य से स्पष्ट है कि हिंदी में शोध करनेवाला कोई भी विद्यार्थी जब तक इस पुस्तकालय का आलोकन नहीं कर लेता तब तक उसका शोधकार्य पूरा नहीं होता। स्व. पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी, स्व. जगन्नाथदास 'रत्नाकर', स्व. पं. मयाशंकर याज्ञिक, स्व. डा. हीरानंद शास्त्री तथा स्व. पं. रामनारायण मिश्र ने अपने अपने संग्रह भी इस पुस्तकालय को दे दिए हैं जिससे इसकी उपादेयता और बढ़ गई हैं।
स्थापित होते ही सभा ने यह लक्ष्य किया कि प्राचीन विद्वानों के हस्तलेख नगरों और देहातों में लोगों के बेठनों में बँधे बँधे नष्ट हो रहे हैं। अतः सन् १९०० से सभा ने अन्वेषकों को गाँव-गाँव और नगर-नगर में घर-घर भेजकर इस बात का पता लगाना आरंभ किया कि किनके यहाँ कौन-कौन से ग्रंथ उपलब्ध हैं। उत्तर प्रदेश में तो यह कार्य अब तक बहुत विस्तृत और व्यापक रूप से हो रहा है। इसके अतिरिक्त पंजाब, दिल्ली, राजस्थान और मध्यप्रदेश में भी यह कार्य हुआ है। इस खोज की त्रैवार्षिक रिपोर्ट भी सभा प्रकाशित करती है। सन् १९५५ तक की खोज का संक्षिप्त विवरण भी दो भागों में सभा ने प्रकाशित किया है। इस योजना के परिणामस्वरूप ही हिंदी साहित्य का व्यवस्थित इतिहास तैयार हो सका है और अनेक अज्ञात लेखक तथा ज्ञात लेखकां की अनेक अज्ञात कृतियाँ प्रकाश में आई हैं।
उत्तमोत्तम ग्रंथों और पत्रपत्रिकाओं का प्रकाशन सभा के मूलभूत उद्देश्यों में रहा है। अब तक सभा द्वारा भिन्न-भिन्न विषयों के लगभग ५०० ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। त्रैमासिक 'नागरीप्रचारिणी पत्रिका' सभा का मुखपत्र तथा हिंदी की सुप्रसिद्ध शोधपत्रिका है। भारतीय इतिहास, संस्कृति और साहित्य विषयक शोधात्मक सामग्री इसमें छपती है और निर्व्यवधान प्रकाशित होती रहनेवाली पत्रिकाओं में यह सबसे पुरानी है। मासिक 'हिंदी', 'विधि पत्रिका' और 'हिंदी रिव्यू' (अंगरेजी) नामक पत्रिकाएँ भी सभा द्वारा निकाली गई थीं किंतु कालांतर में वे बंद हो गई। सभा के उल्लेखनीय प्रकाशनों में हिंदी शब्दसागर, हिंदी व्याकरण, वैज्ञानिक शब्दावली, सूर, तुलसी, कबीर, जायसी, भिखारीदास, पद्माकर, जसवंसिंह, मतिराम आदि मुख्य मुख्य कवियों की ग्रंथावलियाँ, कचहरी-हिंदी-कोश, द्विवेदी अभिनंदनग्रंथ, संपूर्णानंद अभिनंदनग्रंथ, हिंदी साहित्य का इतिहास और हिंदी विश्वकोश आदि ग्रंथ मुख्य हैं।
अपनी समानधर्मा संस्थाओं से संबंधस्थापन, अहिंदीभाषी छात्रों को हिंदी पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति देना, हिंदी की आशुलिपि (शार्टहैंड) तथा टंकण (टाइप राइटिंग) की शिक्षा देना, लोकप्रिय विषयों पर समय-समय पर सुबोध व्याख्यानों का आयोजन करना, प्राचीन और सामयिक विद्वानों के तैलचित्र सभाभवन में स्थापित करना आदि सभा की अन्य प्रवृत्तियाँ हैं।
सुप्रसिद्ध मासिक पत्रिका सरस्वती का श्रीगणेश और उसके संपादनादि की संपूर्ण व्यवस्था आरंभ में इस सभा ने ही की थी। अखिल भारतीय हिंदी साहित्य संमेलन का संगठन और सर्वप्रथम उसका आयोजन भी सभा ने ही किया था। इसी प्रकार, संप्रति हिंदू विश्वविद्यालय में स्थित भारत कला भवन नामक अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त पुरातत्व और चित्रसंग्रह का एक युग तो संरक्षण, पोषण और संवर्धन यह सभा ही करती रही। अंततः जब उसका स्वतंत्र विकास यहाँ अवरुद्ध होने लगा और विश्वविद्यालय में उसकी भविष्योन्नति की संभावना हुई तो सभा ने उसे विश्वविद्यालय को हस्तांतरित कर दिया।
हिन्दी विश्वकोश तथा हिन्दी शब्दसागर
उपर्युक्त कार्यों के अतिरिक्त हिन्दी विश्वकोश का प्रणयन सभा ने केंद्रीय सरकार की वित्तीय सहायता से किया है। इसके बारह भाग प्रकाशित हुए हैं। हिंदी शब्दसागर का संशोधन-परिवर्धन केंद्रीय सरकार की सहायता से सभा ने किया है जो दस खंडों में प्रकाशित हुआ है। यह हिंदी का सर्वाधिक प्रामाणिक तथा विस्तृत कोश है। दो अन्य छोटे कोशों 'लघु शब्दसागर' तथा 'लघुतर शब्दसागर' का प्रणयन भी छात्रों की आवश्यकतापूर्ति के लिए सभा ने किया है। सभा देवनागरी लिपि में भारतीय भाषाओं के साहित्य का प्रकाशन और हिंदी का अन्य भारतीय भाषाओं की लिपियों में प्रकाशित करने के लिए योजनाबद्ध रूप से सक्रिय हैं। प्रेमचंद जी के जन्मस्थान लमही (वाराणसी) में उनका एक स्मारक भी बनवाया है। (विकी पीडिया से साभार)

उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ


उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिये कार्यरत प्रमुख संस्था है। यह उत्तर प्रदेश शासन के भाषा विभाग के अधीन है। अन्य कार्यक्रमों के अलावा हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिये विभिन्न क्षेत्रों में योगदान के लिये साहित्यकारों को यह कई पुरस्कार प्रदान करती है। साहित्यिक केन्द्रों की स्थापना, छात्रों/विदेशी छात्रों को शोध कार्यो हेतु सहायता, फेलोशिप योजना, साहित्यकार कल्याण कोष, स्मृति संरक्षण योजना, बाल साहित्य, संवर्धन योजना। चिकित्सा विज्ञान एवं तकनीकी पुस्तकों का लेखन, भारतीय भाषाओं की प्रमुख कृतियों का अनुवाद, साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन। अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में भारतीय भाषाओं को प्रोत्साहन, विश्व हिन्दी सम्मेलन एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संस्थान की सहभागिता। भारत भारती, हिन्दी गौरव, महात्मागांधी, अवन्तीबाई, साहित्य भूषण सम्मानों सहित कुल 83 पुरस्कार ( 52 लाख रू0 धनराशि से ) उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान साहित्य, कला, विज्ञान के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए पुरस्कार प्रदान करती है। यह विदेशों में हिंदी के प्रसार में योगदान के लिए भी पुरस्कार देती है। पत्रकारिता के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार प्रदान करती है। इसके अलावा भारत-भारती सम्मान, लोहिया साहित्य सम्मान, महात्मा गांधी सम्मान, हिंदी गौरव सम्मान, बालकृष्ण भट्ट पुरस्कार, पत्रकारिता भूषण पुरस्कार, प्रवासी भारतीय हिंदी भूषण सम्मान, हिंदी विदेश प्रसार सम्मान आदि कई पुरस्कार दिये जाते हैं।

अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन


अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन हिन्दी भाषा एवं साहित्य तथा देवनागरी का प्रचार-प्रसार को समर्पित एक प्रमुख सार्वजनिक संस्था है। इसका मुख्यालय प्रयाग (इलाहाबाद) में है जिसमें छापाखाना, पुस्तकालय, संग्रहालय एवं प्रशासनिक भवन हैं। हिंदी साहित्य सम्मेलन ने ही सर्वप्रथम हिंदी लेखकों को प्रोत्साहित करने के लिए उनकी रचनाओं पर पुरस्कारों आदि की योजना चलाई। उसके मंगलाप्रसाद पारितोषिक की हिंदी जगत् में पर्याप्त प्रतिष्ठा है। सम्मेलन द्वारा महिला लेखकों के प्रोत्साहन का भी कार्य हुआ। इसके लिए उसने सेकसरिया महिला पारितोषिक चलाया। सम्मेलन के द्वारा हिंदी की अनेक उच्च कोटि की पाठ्य एवं साहित्यिक पुस्तकों, पारिभाषिक शब्दकोशों एवं संदर्भग्रंथों का भी प्रकाशन हुआ है जिनकी संख्या डेढ़-दो सौ के करीब है। सम्मेलन के हिंदी संग्रहालय में हिंदी की हस्तलिखित पांडुलिपियों का भी संग्रह है। इतिहास के विद्वान् मेजर वामनदास वसु की बहुमूल्य पुस्तकों का संग्रह भी सम्मेलन के संग्रहालय में है, जिसमें पाँच हजार के करीब दुर्लभ पुस्तकें संगृहीत हैं।
हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना १ मई १९१० ई. में नागरी प्रचारिणी सभा के तत्वावधान में हुआ।
१ मई, सन् १९१० को काशी नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी की एक बैठक में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का एक आयोजन करने का निश्चय किया गया। इसी के निश्चयानुसार १० अक्टूबर, १९१० को वाराणसी में ही पण्डित मदनमोहन मालवीय के सभापतित्व में पहला सम्मेलन हुआ। दूसरा सम्मेलन प्रयाग में करने का प्रस्ताव स्वीकार हुआ और सन् १९११ में दूसरा सम्मेलन इलाहाबाद में पण्डित गोविन्दनारायण मिश्र के सभापतित्व में सम्पन्न हुआ। दूसरे सम्मेलन के लिए प्रयाग में 'हिन्दी साहित्य सम्मेलन' नाम की जो समिति बनायी गयी, वही एक संस्था के रूप में, प्रयाग में विराजमान है। हिन्दी साहित्य सम्मेलन, स्वतन्त्रता-आन्दोलन के समान ही भाषा-आन्दोलन का साक्षी और राष्ट्रीय गर्व-गौरव का प्रतीक है। श्री पुरुषोत्तम दास टंडन सम्मेलन के जन्म से ही मन्त्री रहे और इसके उत्थान के लिए जिये; इसीलिए उन्हें 'सम्मेलन के प्राण' के नाम से अभिहित किया जाता है। इस संस्था ने हिन्दी में उच्च कोटि की पुस्तकों (विशेषतः, मानविकी से सम्बन्धित ) का सृजन किया। गांधीजी जैसे लोग भी इससे जुड़े । उन्होने सन १९१७ में इन्दौर में सम्मेलन की अध्यक्षता की।
हिंदी साहित्य संमेलन अधिनियम, १९६२ के द्वारा इसे राष्ट्रीय महत्व की संस्था घोषित किया गया।
अखिल भारतीय स्तर पर हिंदी की तात्कालिक समस्याओं पर विचार करने के लिए देश भर के हिंदी के साहित्यकारों और प्रेमियों के प्रथम सम्मेलन की अध्यक्षता महामना पं. मदनमोहन मालवीय ने की थी। इस अधिवेशन में यह निश्चय हुआ कि इस प्रकार का हिंदी के साहित्यकारों का सम्मेलन प्रतिवर्ष किया जाए, जिससे हिंदी की उन्नति के प्रयत्नों के साथ साथ उसकी कठिनाइयों को दूर करने का भी उपाय किया जाए। सम्मेलन ने इस दिशा में अनेक उपयोगी कार्य किए। उसने अपने वार्षिक अधिवेशनों में जनता और शासन से हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाने के संबंध में विविध प्रस्ताव पारित किए और हिंदी के मार्ग में आनेवाली बाधाओं को दूर करने के भी उपाय किए। उसने हिंदी की अनेक परीक्षाएँ चलाई, जिसने देश के भिन्न भिन्न अंचलों में हिंदी का प्रचार और प्रसार हुआ।
हिंदी साहित्य सम्मेलन के इन वार्षिक अधिवेशनों की अध्यक्षता भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध साहित्यिकों, प्रमुख राजनीतिज्ञों एवं विचारकों ने की। महात्मा गांधी इसके दो बार सभापति हुए। महात्मा गांधी के प्रयत्नों से अहिंदीभाषी प्रदेशों में इस संस्था के द्वारा हिंदी का व्यापक प्रचार हुआ। श्री पुरुषोत्तमदास टंडन सम्मेलन के प्रथम प्रधान मंत्री थे। उन्हीं के प्रयत्नों से इस संस्था की इतनी उन्नति हुई।
हिंदी साहित्य सम्मेलन की शाखाएँ देश के निम्नलिखित राज्यों में हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली, पंजाब, मध्यप्रदेश, विदर्भ, बंबई, तथा बंगाल। अहिंदीभाषी प्रदेशों में कार्य करने के लिए इसकी एक शाखा वर्धा में भी है, जिसका नाम "राष्ट्रभाषा प्रचार समिति" है। इसके कार्यालय महाराष्ट्र, बंबई, गुजरात, हैदराबाद, उत्कल, बंगाल तथा असम में हैं। इन दोनों संस्थाओं द्वारा हिंदी की जो विविध परीक्षाएँ ली जाती हैं, उनमें देश और विदेश के दो लाख से अधिक परीक्षार्थी प्रतिवर्ष लगभग 700 परीक्षाकेंद्रों में भाग लेते हैं। ये प्रवेशिका, प्रथमा, मध्यमा तथा उत्तमा कहलाती हैं। हिंदी साहित्यविषय के अतिरिक्त आयुर्वेद, अर्थशास्त्र, राजनीति, कृषि, एवं शिक्षाशास्त्र में उपाधिपरीक्षाएँ सम्मेलन द्वारा ली जाती हैं। हिंदी साहित्य सम्मेलन और उसकी प्रादेशिक शाखाओं द्वारा हिंदी का जो सार्वदेशिक प्रचार हुआ, उसके परिणामस्वरूप देश की स्वतंत्रता के आंदोलन के साथ साथ हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किए जाने का आंदोलन तीव्रतर हुआ, और फिर स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद भारतीय संविधान में हिंदी को राष्ट्रभाषा का पद दिया गया।
सम्मेलन रूपी इस विशाल वटवृक्ष की अनेक शाखाऍं, प्रशाखाऍं पूरे देश में हिन्दी प्रचार में लगी हुई हैं। इनमें से कुछ संस्थाऍं सम्मेलन से सीधे सम्बद्ध हैं और कुछ राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के माध्यम से जुड़ी हैं। उत्तरप्रदेशीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन; मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, भोपाल; हरियाणा प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन, गुड़गॉंव; बम्बई प्रान्तीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन, बम्बई; दिल्ली प्रान्तीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन, दिल्ली; विन्ध्य प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन, रीवा; ग्रामोत्थान विद्यापीठ, सॅंगरिया, राजस्थान; मैसूर हिन्दी प्रचार परिषद्, बैंगलूर; मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति, इंदौर; भारतेन्दु समिति कोटा, राजस्थान तथा साहित्य सदन, अबोहर भी सम्मेलन से सीधे सम्बद्ध हैं।
प्रकाशित किताबें
हरिशचन्द्र मैगजीन भारतेंदु हरिशचन्द्र
करुनाभरण नाटक (लच्छीराम) डॉ ० योगेन्द्रप्रताप सिंह
डगवै कथा तथा चक्रव्यूह कथा (भीम कवि) डॉ० शिवगोपाल मिश्र
गोरखबानी (गोरखनाथ) डॉ० पीताम्बरदत्त बडथ्वाल
दूषणोंल्लास (गोविन्ददास ) बेनी बहादुर सिंह
देव शब्द रसायन (महाकवि देवदत्त ) जानकीनाथ सिंह 'मनोज'
नवरसरंग (लोक्मणि मिश्र ) हरी मोहन मालवीय
प्रागन कृत भंवरगीत (प्रागन कवि ) हरी मोहन मालवीय
बालचंद बत्तीसी (मुनि बालचंद) हरी मोहन मालवीय
माधवानल नाटक (राजकवि केस) डॉ सत्येन्द्र वर्मा
रतन हजारा (महाराज पृथ्वी - सिंह 'रसनिधि') हरी मोहन मालवीय
विद्वन्मोद तरंगिणी (संकलनकर्त्ता श्री सुब्बासिंह 'श्रीधर') डॉ किशोरीलाल
जोरावर प्रकास डॉ योगेन्द्रप्रताप सिंह
बिहारी सतसई : अनवर चंद्रिका टीका हरी मोहन मालवीय
कबीर और कबीर पंथ डॉ केदारनाथ द्विवेदी
अनुराग-बांसुरी आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, चन्द्रबलि पाण्डेय
भारतीय भाषा-साहित्य विभूति मिश्र
लोमश संहिता डॉ गिरिजाशंकर शास्त्री
कृष्ण चंद्रिका(वीर कविकृत) डॉ योगेन्द्रप्रताप सिंह

जेएनयू पुस्तकालय


यह पुस्तकालय शैक्षिक परिसर के बीचोबीच स्थित है तथा विश्‍वविद्यालय की सभी शैक्षिक गतिविधियों का केन्द्र है। इसके भूतल और 9 मंज़िला टावर का कारपेट एरिया लगभग 1 लाख वर्ग फुट है। परिसर के मध्य में स्थित पुस्तकालय में परिसर की चारों दिशाओं से पहुँचा जा सकता है। पुस्तकालय वर्ष भर प्रात: 9.00 बजे से सांय 19.00 बजे तक खुला रहता है तथा परीक्षा के दिनों में यह प्रत्येक सत्र में 45 दिन के लिए मध्य रात्रि तक खुला रहता है। वर्ष के दौरान पुस्तकालय में 4 अवकाश (3 राष्‍ट्रीय अवकाश और होली) होते हैं।
 विश्‍वविद्यालय में लगभग 5 लाख पुस्तकों का संग्रह है जिसमें पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएँ, सीरियल और गै़र पुस्तक संबंधी सामग्री शामिल है। पुस्तकालय के संग्रहों को पारम्परिक पद्धति का अनुसरण करते हुए लगभग विषय-वार नियोजित किया गया है जैसे - सामाजिक विज्ञान, विज्ञान और मानवविज्ञान। विश्‍वविद्यालय लगभग 800 पत्र-पत्रिकाएं और कुछ आन लाइन डाटाबेसिस मंगा रहा है। पुस्तकालय सभी सरकारी प्रकाशनों और कुछ प्रसिद्ध अन्तरराष्‍ट्रीय एजेंसियों - जैसे विश्‍व स्वास्थ्य संगठन, विश्‍वबैंक, अंतरराष्‍ट्रीय मुद्रा कोष, अन्तरराष्‍ट्रीय न्यायालय, यूनेस्को आदि का न्यासी है। यह यूरोपीय आर्थिक आयोग के लिए रेफरल केंद्र के रूप में भी काम करता है। पुस्तकालय ने भारत के प्रसिद्ध विद्वानों जैसे - श्री जान मथाई, प्रो. ज्ञानचन्द आदि की बहुमूल्य पुस्तकें प्राप्‍त की हैं। जापानी दूतावास जापान में प्रकाशित पुस्तकें नियमित रूप से पुस्तकालय को दान करता है। पुस्तकालय का विश्‍व भर में कई भारतीय, अन्तरराष्‍ट्रीय एजेंसियों और राष्ट्रीय पुस्तकालयों के साथ विनिमय संबंध हैं और चैनल के माध्यम से वह अपने प्रकाशनों को जेएनयू के प्रकाशनों से विनिमय करते हैं। पुस्तकालय भविष्य में और अधिक संस्थानों के साथ विनिमय संबंध स्थापित करेगा।

केन्द्रीय सन्दर्भ पुस्तकालय


केन्द्रीय सन्दर्भ पुस्तकालय वर्तमान समय में संस्कृति विभाग, संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के अधीनस्थ एक कार्यालय है। इस संस्था की स्थापना का मुख्य उद्देश्य भारतीय राष्ट्रीय ग्रंथसूची का संकलन है। अर्थात, जो पुस्तकें राष्ट्रीय पुस्तकालय में पुस्तकों के अधिनियम, 1954 के तहत आतीं हैं, उनकी राष्ट्रीय ग्रंथसूची तैयार करना।
भारतीय राष्ट्रीय ग्रंथसूची अगस्त, 1955 से 'राष्ट्रीय पुस्तकालय', कोलकाता के अन्तर्गत कार्यरत थी।
राष्ट्रीय पुस्तकालय के पुस्तकाध्यक्ष 1970 तक इस कार्यालय के पुस्तकाध्यक्ष (प्रभारी) एवं 'भारतीय राष्ट्रीय ग्रंथसूची' के साधारण संपादक के पद पर कार्यरत रहे। इसके बाद इस कार्यालय में एक स्वतन्त्र पुस्तकाध्यक्ष सह-साधारण संपादक ने कार्यभार संभाल लिया।
उद्देश्य और लक्ष्य
'केन्द्रीय सन्दर्भ पुस्तकालय' के लक्ष्य और उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
    'भारतीय राष्ट्रीय ग्रंथसूची' का संकलन करना, जो कि मुद्रित भारतीय भाषाओं और अंग्रेज़ी भाषा में प्रकाशित पुस्तकों का प्राधिकारिक रिकार्ड है। यह रोमन लिपि में एवं भारतीय भाषाओं में भी प्रकाशित किया जाता है।
    भारतीय पत्रिका लेखसूची का रोमन लिपि में संकलन, जो कि वर्तमान भारतीय भाषाओं की पत्रिकाओं मे छपे चयनित लेखों का एक सूचकांक है।

राष्ट्रीय क्रीड़ा संस्थान का विशिष्ट पुस्तकालय



राष्ट्रीय क्रीड़ा संस्थान का विशिष्ट पुस्तकालय एक विशेष/तकनीकी वर्ग का पुस्तकालय है। पुस्तकालय में खेल एवं क्रीड़ाओं की पुस्तकें हैं जैसे-तीरंदाजी, एथलेटिक्स, बैडमिन्टन, बास्केटबाल ,मुक्केबाजी, शतरंज, साइक्लिंग, क्रिकेट, टबाल, जिम्नास्टिक्स्, गोल्फ, हाकी, हैंडबाल, घुड़सवारी, जूडो, खो-खो, कबड्डी, लान-निस, पर्वतारोहण, रोइंग, तैराकी, शूटिंग, स्नूकर, टेबल-टेनिस, वालीबाल, भारोत्तोलन, कुश्ती,योगा और याचिंग। मुख्य खेलों के अतिरिक्त पुस्तकालय में अन्य विषयों पर भी अलग से पुस्तकें उपलब्ध हैं, जैसे - बायोकैमिस्ट्री, स्पोर्टस,बायोमकैनिक्स, स्पोर्टस बायोलोजी, स्पोर्टस मैडीसन, शरीर विज्ञान, मानवमिति, खेल विश्वकोष, पौष्टिक आहार,किनसियोलोजी,स्पोर्टस सोसियोलोजी,शारीरिक क्षमता एवं शारीरिक शिक्षा इत्यादि।
पुस्तकालय में संदर्भ अनुभाग भी है जिसमें विश्व के सभी भागों से प्राप्त किये तकनीकी जरनलों के पिछले खण्डों के साथ-साथ वर्तमान खण्ड भी उपलब्ध हैं। हमें अन्तर्राष्ट्रीय खेल महासंघों/खेल संघों से जरनल प्राप्त होते हैं। इसके साथ ही पुस्तकालय अन्तर्राष्ट्रीय खेल प्रलेखन केन्द्रों से निरन्तर सम्पर्क में रहता है।
पुस्तकालय में 20,000 के लगभग पुस्तकों का संग्रह है जोकि खेल वैज्ञानिकों,प्रशिक्षकों,प्रशिक्षणार्थियों तथा अन्य पाठकों को तकनीकी जानकारी प्रदान करती है। इस पुस्तकालय को शिक्षण एवं विज्ञान संकाय की रीड़ की हड्डी कहा जाता है और विभिन्न विश्वविद्यालयों-स्नातकोत्तर काॅलेजों से, जो शोध-छात्र इस पुस्तकालय में विभिन्न संदर्भों के लिये खेलों में, अपनी उच्च शिक्षा एवं अनुसंधान के लिये आते हैं, के लिये यह पुस्तकालय खेल जानकारी हेतु नामिक केन्द्र है।
संस्थान का पुस्तकालय खेल विकसित देशों से बहुमूल्य खेल साहित्य प्राप्त करता है। 300 के लगभग पाठक प्रतिदिन यहां अध्ययन करते हैं। पुस्तकालय का उद्देश्य खेल विशेषज्ञों और वह प्रतियोगी जिन्होंने राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रमों में भाग लिया है,को मल्टी-मिडिया खेल जानकारी की सेवायें उपलब्ध करवाना है। खेल जानकारी के लिये राष्ट्रीय स्त्रोत केन्द्र के रूप में पुस्तकालय द्वारा उचित सेवायें उपलब्ध करवायी जाती हैं। पटियाला में केन्द्रीय पुस्तकालय स्थापित होने के अतिरिक्त तीन अन्य शैक्षणिक केन्द्रों बंगलौर,कोलकाता तथा गांधीनगर में भी पुस्तकालय है। इन पुस्तकालयों को धीरे-धीरे विकसित किया जा रहा है।
सारे देश के शोध छात्र खेलों में अपने शोध कार्यक्रम के संदर्भ में राक्रीसं के पुस्तकालय से लाभ उठाते हैं। अनुरोध के आधार पर त्र्'इन्टर लाईब्रेरी लान' सुविधायें दी जाती हैं। जब कभी सम्भव हो तो फोटोकापी की सुविधा भी प्रदान की जाती है।
ओलिम्पिक्स् और एशियन खेलों की शुरूआत से संबंधित बहुमूल्य पुस्तकों का संग्रह पुस्तकालय में उपलब्ध है। यह पुस्तकें बहुत ही कम पुस्तकालयों में उपलब्ध हैं इन पुस्तकों में खेलों के आयोजन संबंधी विस्तृत जानकारी है। प्रथम एशियन खेलों की मेज़बानी भारत द्वारा 1951 में दिल्ली में की गई थी और अन्य एशियन खेलें 1954 में मनीला में करवाई गयी,1962 में जकार्ता,1966,1970,1978 में बैंगकोक,1974 में तेहरान,1982 में दिल्ली, 1986 में सियोल,1990 में बिजिंग,1994 में हीरोशिमा और 1998 में बैंगकोक। पुस्तकालय में इन महत्वपूर्ण खेल इवेंटस् से संबंधित उचित साहित्य उपलब्ध है, इसी प्रकार ओलिम्पिक खेलों का संग्रह,जोकि बहुत कम मिलता है, इस पुस्तकालय में उपलब्ध है। इसी प्रकार ओलिम्पिक खेलों का भी बहुमूल्य संग्रह है जोकि अनुसंधान छात्रों एवं प्रशिक्षकों द्वारा उल्लिखित किया गया है।
खेल प्रलेखन सेवा
प्रलेखन सेवा राष्ट्रीय क्रीड़ा संस्था का एक द्वि-मासिक प्रकाशन है जिसमें 18 खेलों को शामिल किया गया है,जैसेः- तीरंदाजी, मुक्केबाजी, एथलेटिक्स, साइक्लिंग, जिम्नास्टिक, तैराकी,जूडो, भारोतोलन,कुश्ती, बास्केटबाल, हाकी,वालीबाल, क्रिकेट,फुटबाल,हैंडबाल,बैडमिन्टन, लान-टेनिस और टेबल टेनिस,इनका हिंदी-अंग्रेजी में प्रकाशन किया जाता है। खेल प्रलेखन सेवा एक महत्वपूर्ण योगदान रहा है। सम्पूर्ण भारत के खेल प्रेमियों के साथ-साथ कुछेक एशियन देशों जैसे-बंगलादेश,नेपाल,श्रीलंका एवं मोरिशियस इत्यादि द्वारा यह द्वि-मासिक पत्रिका प्राप्त की जाती है। इसमें बहुमूल्य जानकारी प्रदान की जाती है। समय-समय पर अन्तर्राष्ट्रीय खेल संघों द्वारा अपनाये गये खेल एवं क्रीड़ाओं के नवीनतम अन्तर्राष्ट्रीय नियमों के साथ विशेषज्ञों द्वारा लिखे गये नवीनतम तकनीकी आलेखों को इसमें सम्बद्ध किया जाता है।
वर्ग-क: एथलेटिक्स,जिम्नास्टिक्स एवं तैराकी
वर्ग-खः तीरंदाजी,मुक्केबाजी एवं साइक्लिंग
वर्ग-गः जूडो,भारोत्तोलन एवं कुश्ती
वर्ग-घः बास्केटबाल,हाकी एवं वालीबाल
वर्ग-डः क्रिकेट,फुटबाल एवं हैंडबाल
वर्ग-चः बैडमिन्टन,लान-टेनिस एवं टेबल-टेनिस
(www.nsnis.org)

भारतीय पर‌िषद अनुसंधान पुस्तकालय


भारत के बेहतरीन और सबसे प्रतिष्ठित अनुसंधान पुस्तकालयों में से एक, दुनिया के मामलों लाइब्रेरी की भारतीय परिषद नई दिल्ली के हृदय में स्थित है. यह अच्छी तरह से अंतरराष्ट्रीय मामलों पर सुसज्जित है और राजनीतिक इतिहास और भारत में विकास सहित धाराओं संबद्ध.
लाइब्रेरी पुस्तकों के 65,000 से अधिक संस्करणों, उनमें से कुछ दुर्लभ, बाध्य पत्रिकाओं, दुर्लभ नक्शे, microfiches और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के विशेष संदर्भ में, अंतरराष्ट्रीय कानून और अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के साथ के बारे में 7 लाख की कतरनों का एक खजाना trove है. यह एक पाठक सुसंस्कृत एक शांत और शांत वातावरण में दिन के किसी भी समय में 150 से अधिक पाठकों के लिए दृष्टिकोण के साथ एक अनुकूल वातावरण प्रदान करता है. यह 384 के बारे में प्रतिष्ठित राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रमुख पत्रिका प्रकाशन से अनुसंधान पत्रिकाओं और बाध्य फार्म 28 हजार घरों पत्रिकाओं के लिए subscribes. हिन्दू (मद्रास) 1933 से 1979 तक के अख़बार फाइलें, टाइम्स ऑफ इंडिया (मुंबई) to1975 1945 से और भारत के टाइम्स (नई दिल्ली) 1969 से 2004 तक भी एशियन एज, नवभारत टाइम्स के आवारा संस्करणों के पास संरक्षित कर रहे हैं , वित्तीय (लंदन) टाइम्स, हेराल्ड ट्रिब्यून इंटरनेशनल, राष्ट्र (लाहौर), समाचार पाकिस्तान टाइम्स और जापान टाइम्स (टोक्यो).
संयुक्त राष्ट्र और यूरोपीय संघ खंड
आईसीडब्ल्यूए लाइब्रेरी संयुक्त राष्ट्र और यूरोपीय संघ दस्तावेजों, पत्रिकाओं और अपने अन्य प्रकाशनों के लिए एक रिपोजिटरी है. पुस्तकालय लगभग सभी 1945 के बाद से संयुक्त राष्ट्र के दस्तावेजों की है. उन के बीच महत्वपूर्ण सुरक्षा परिषद और महासभा बहस और उनके संकल्प हैं. इन दस्तावेज़ों में उपयोग के प्रभार से मुक्त है. इसी तरह, लाइब्रेरी लगभग सभी एक रिपोजिटरी योजना के तहत यूरोपीय संघ दस्तावेजों के प्रकाशन है.
पत्रिकाओं अनुक्रमण सेवा
लाइब्रेरी भी पाठकों के लिए ग्रन्थसूची समर्थन प्रदान करता है. यह वर्तमान जागरूकता सेवाओं के अनुसंधान अंतरराष्ट्रीय मामलों में भारत और भारतीय राजनीति पर काम कर रहे विद्वानों को भाग के रूप में 202 पत्रिकाओं अनुक्रमित. अनुक्रमण सेवाओं 1956 के बाद से उपलब्ध हैं. (www.icwa.in)

साहित्य अकादेमी का पुस्तकालय भारत



पुस्तकालय : साहित्य अकादेमी का पुस्तकालय भारत के प्रमुख बहुभाषिक पुस्तकालयों में से एक है, यहाँ पर अकादेमी द्वारा मान्यता प्राप्त चौबीस भाषाओं में विविध साहित्यिक और संबध्द विषयों की पुस्तकें उपलब्ध हैं। यह पुस्तकालय समालोचनात्मक पुस्तकों, अनूदित कृतियों, संदर्भ ग्रंथों तथा शब्दकोशों के समृध्द संग्रह के लिए जाना जाता है।
पुस्तकालय के अंग्रेजी और हिन्दी संग्रहों को लगभग संगणीकृत किया जा चुका है। अंग्रेजी, हिन्दी और तमिषष् के पाठकों के लिए ऑनलाइन पुस्तकसूची सेवा अब कंप्यूटर पर उपलब्धा है। इसके साथ ही अन्य भाषाओं की कंप्यूटर कैटलॉगिंग का कार्य भी प्रारंभ किया जा चुका है। तत्पश्चात् अन्य भागों को भी संगणीकृत किया जाएगा।
पुस्तकालय में सजिल्द साहित्यिक आवधि प्रकाशनों का भी एक छोटा-सा संग्रह है। पुस्तकालय में प्राप्त हुए आवधिाक1988 से चल रहा है, इंडियन लिटरेरी इंडेक्स की सन् 1989-90, 1996 तथा 1997 से अब तक की सूचनाएँ कंप्यूटर में उपलब्ध हैं। वर्ष 1991-95, 98 तक सूची-निर्माण का कार्य ऑन लाईन उपलब्धा है, शेष कार्य प्रगति पर है। साहित्यिक घटनाओं की कतरनें, साहित्य तथा साहित्यिक व्यक्तियों पर फश्ीचर लेख भी यहाँ उपलब्धा हैं।
पुस्तकालय सभी कार्यदिवसों और शनिवार को पूर्वाह्न 9.30 से शाम 6.00 बजे तक खुला रहता है।
पुस्तकालय परामर्श तथा उधार दोनों के लिए अपनी सदस्यता प्रदान करता है। अंग्रेजी भाषा को छो़डकर भारतीय भाषा खंड से पुस्तकें उधाार लेने हेतु 500/-रु. की प्रतिदेय सुरक्षा राशि सदस्य से ली जाती है। समस्त भाषाओं के खंडों के लिए 1000/-रु. लिए जाते हैं। विद्यार्थियों से रियायती दरों पर 500/-रु. सुरक्षा राशि के रूप में लिए जाते हैं। दीर्घकालीन परामर्श हेतु सदस्यों से 200/-रु. की प्रतिदेय सुरक्षा राशि ली जाती है।
अकादेमी के बंगलुरु और कोलकाता स्थित क्षेत्रीय कार्यालयों के पुस्तकालयों में भी पुस्तकों का अच्छा-़खासा संग्रह है। क्षेत्रीय कार्यालय के पुस्तकालयों को संबंधिात क्षेत्रीय भाषाओं के केन्द्रों के रूप में स्थापित किया गया है और उन क्षेत्राों में महत्त्वपूर्ण भाषा पुस्तकालयों के लिए यह संपर्क संस्था के रूप में कार्य करता है।
14 फरवरी 2007 को साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली के रवीन्द्र भवन परिसर में एक स्थायी किताब-घर का उद्धाटन किया गया।
27 जुलाई 2007 को पुदुचेरी में एक पुस्तक बिक्री पटल का उद्धाटन किया गया।
10 अक्तूबर 2007 को रवीन्द्र सरोवर स्टेडियम, डायमंड हार्बर रोड, कोलकाता में एक स्थायी बिक्री पटल का उद्धाटन किया गया।
प्रवेश और सदस्यता के नियम
पुस्तकालय 9.30 से खुला सोमवार से 6:00 के लिए शनिवार रविवार हूँ राजपत्रित अवकाश को छोड़कर है.
सुविधाएं
   कार्ड सूची सभी वर्गों के लिए उपलब्ध हैं. कैटलाग रोमन लिपि में हैं.
    OPAC सुविधा अंग्रेजी और हिंदी वर्गों के लिए उपलब्ध है.
    लाइब्रेरी की संसाधन परामर्श के लिए कमरे की सुविधा पढ़ना.
    फोटोकॉपी सुविधा उपलब्ध है.
    प्रवेश संघ सूची DELNET है.
प्रवेश और सदस्यता के नियम
    पुस्तकालय केवल पंजीकृत सदस्यों के लिए खुला है.
    पुस्तकालय केवल व्यक्तिगत सदस्यता अनुमति देता है.
    सदस्यता वापस एक सुरक्षा जमा के भुगतान पर दिया जाता है.
    लोगों की मांग सदस्यता आवश्यक संचलन काउंटर और विधिवत एक पासपोर्ट आकार के फोटो के साथ भर ही जमा पर उपलब्ध फार्म जमा कर सकते हैं.
    के लिए छात्र एम. फिल तक सदस्य. स्तर, प्रकार विभागों के प्रमुखों द्वारा सत्यापित किया जाना चाहिए. अन्य रूपों राजपत्रित अधिकारी द्वारा अनुप्रमाणित हो सकता है, notaries सार्वजनिक आदि के लिए
    पता, टेलीफोन नंबर और मोहर छाप सुपाठ्य होना चाहिए. अन्यथा फार्म स्वीकार नहीं किया जाएगा.
    सदस्यता नामांकन मंगलवार और शुक्रवार को किया, 10:00 से है 4:00 पर हूँ
    सदस्यता राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में रहने वाले लोगों के लिए खुला है. डाक सदस्यता उपलब्ध नहीं है.
    पता और टेलीफोन नंबर के परिवर्तन असफल बिना सूचित किया जाना चाहिए.
सुरक्षा जमा का विवरण
    बनाया करने के लिए पुस्तकालय की भाषा वर्गों, अंग्रेजी, 800 की जमा सहित किसी से उधार ले पुस्तकों की जानी चाहिए.
    बनाया करने के लिए भारतीय भाषाओं वर्गों, 500 रुपये के एक जमा से उधार लेना चाहिए.
    स्नातकोत्तर में छात्र और एम. फिल. स्तर 500 रुपये के एक रियायती दर का आरोप उनके रूप प्रदान विभागों के प्रमुखों ने अपने अनुप्रमाणित हो रहे हैं.
    व्यक्तियों को सेवा से सेवानिवृत्त भी है कि सुरक्षा जमा के रूप में 500 रुपये का भुगतान.
    पुस्तक के बिना है पुस्तकालय संसाधनों के परामर्श के लिए उधार सुविधा, 200 की सुरक्षा जमा के लिए दिया जाता है.
    भुगतान नकद में किया जाता है.
    सुरक्षा जमा की वापसी के लिए अपेक्षित फार्म का विधिवत को भरा जाना चाहिए और नकदी रसीद के साथ प्रस्तुत की.
अस्थायी प्रवेश
    एक महीने के 50 से ऊपर एक अवधि के लिए पुस्तकालय परामर्श के लिए के लिए भुगतान करना होगा. किताबें ऐसी उपयोगकर्ताओं के लिए जारी नहीं किया जाएगा.
    संदर्भ पुस्तकें, महंगी किताबें, दुर्लभ पुस्तकों और किताबों 1970 से पहले मुद्रित उधार के लिए उपलब्ध नहीं होगा.
    केवल दो पुस्तकों व्यक्ति प्रति जारी किए हैं.
    किताबें एक महीने के लिए जारी किए गए हैं. वे नए सिरे से अगर कोई अन्य सदस्यों से उनके लिए कोई मांग है जाएगा.
    अगर किताबों के कारण तारीख को वापस नहीं कर रहे हैं, रे के ठीक है. 1 पुस्तक के अनुसार प्रति दिन चार्ज किया जाएगा.
    अगर किताबों दो महीने या अधिक के लिए बनाए रखा, नवीकरण के बिना, 50 रुपए का जुर्माना भी हैं सदस्यता जारी रखने का आरोप लगाया जाएगा. यह देर से ठीक करने के अलावा में है.
    किताबें सिर्फ 5:30 तक जारी किए जाएंगे
पुस्तक पराजय और बेकार पुस्तकें
पाठकों की किताबें अगर उन्हें या खराब द्वारा खो रहे हैं की जगह चाहिए.
अस्वीकार्य हानि या नुकसान के लिए नकद पैसे की वापसी के लिए नीचे उल्लिखित दर प्रति किए जा रहे हैं:
प्रकाशन वर्ष प्रतिपूर्ति की दर
1970-1979 - लागत मूल्य और अतिरिक्त 125%
1980-1990 - लागत मूल्य और अतिरिक्त 75%
1990-2000 - लागत मूल्य और अतिरिक्त 50%
2000 - लागत मूल्य और अतिरिक्त 25%
फोटो
Completebooks केवल असाधारण मामलों में नकल की जाएगी. पाठकों के लिए इस तरह की मांग नहीं कर रहे हैं.
एक किताब की नकल की जा सकता है के पृष्ठों की कुल संख्या का केवल 10%.
फोटोकॉपी 5:30 तक होगा किया जाएगा.
फोटोकॉपी
ए4 और एफएस प्रति रु. 1
ए3 आकार के लिए रु. 2
कंप्यूटर प्रिंटआउट के लिए शुल्क
रु. प्रति पृष्ठ 3
सामान्य नियम
    पुस्तकालय उपयोगकर्ताओं को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पुस्तकालय के संसाधनों का ठीक से इस्तेमाल किया और अपनी गरिमा और पर्यावरण ठीक तरह से बनाए रखा है.
    पाठकों दुरुपयोग नहीं होना चाहिए किताबें. पाठ में Underscoring और पुस्तकों के भीतर निजी टिप्पणियां scribbling की अनुमति नहीं है.
    क्षेत्र और पढ़ने के कमरे में ढेर में चर्चा को अस्वीकार कर रहे हैं.
    पढ़ने के कमरे में केवल पढ़ने के लिए है. यह एक बैठक या बात नहीं है एक आराम या कमरे में सो रही. लोगों को पढ़ने के कमरे का दुरुपयोग हो पाया बाहर कर दिया जायेगा.
    पाठकों तक किताबें पढ़ने के मेज पर नहीं ढेर चाहिए.
    सेल फोन के लिए पुस्तकालय में नहीं कर रहे थे. वे बंद किया जाना चाहिए.
150 प्रयोक्ताओं की एक कम से कम किसी भी कार्य दिवस पर पुस्तकालय यात्रा के क्षेत्र में सबसे अधिक आबादी वाले पुस्तकालयों में से एक बना.
सभी 1988 के बाद से भारतीय साहित्य अकादमी में प्राप्त पत्रिकाओं का अनुक्रमण वर्तमान में किया जा रहा है. (sahitya-akademi.gov.in)

केंद्रीय सचिवालय पुस्तकालय



केंद्रीय सचिवालय पुस्‍तकालय (बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं) की स्‍थापना वर्ष 1891 में कोलकाता में इंपीरियल सेक्रेटेरिएट लाइब्रेरी के नाम से की गई थी और 1969 से यह नई दिल्‍ली के शास्‍त्री भवन में काम कर रहा है। इसमें सात लाख से अधिक दस्‍तावेज़ों का संग्रह है जो मुख्‍य रूप से समाजशास्‍त्र और मानवशास्‍त्र के विषयों पर हैं। यहां भारत के सरकारी दस्‍तावेज तथा केंद्र सरकार के दस्‍तावेज़ संग्रहीत किए जाते हैं और राज्‍य सरकारों के दस्‍तावेज़ों का भी विशाल संग्रह इसमें है।
इसके क्षेत्र अध्‍ययन डिवीज़न में अनूठासंग्रह है, वहां भौगोलिक क्षेत्र के अनुसार पुस्तकें रखी गई हैं। साथ ही, इसका ग्रंथ सूची संग्रह भी बहुत विशाल है और इसमें अत्‍यधिक दुर्लभ पुस्‍तकों का खासा संग्रह है।
केंद्रीय सचिवालय पुस्‍तकालय का माइक्रोफिल्‍म संग्रह भी है जो माइक्रोफिल्‍मिंग ऑफ इंडियन पब्‍लिकेशन प्रोजेक्‍ट के अंतर्गत काम करता है और इसमें बहुत बड़ी संख्‍या में माइक्रोफिल्‍में संग्रहीत हैं।
केंद्रीय सचिवालय पुस्‍तकालय की मुख्‍य जिम्‍मेदारी है नीति निर्णय लेने की प्रक्रिया के लिए उपयोगी सभी विषयों के सकल संग्रह एकत्र करना और उन्‍हें विकसित करना तथा विकासपरक साहित्‍य का संग्रह एकत्र करना भी इसाक दायित्‍व है। यह पुस्‍तकालय केंद्र सरकार के अधिकारियों और कर्मचारियों तथा देशभर से आने वाले शोधार्थियों को वाचन संबंधी सभी सेवा-सुविधाएं उपलब्‍ध कराता है। हाल में ही पुस्‍तकालय ने भारत के राजपत्र तथा समितियों और आयोगों की रिपोर्टों का डिजिटलीकरण करके सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) आधारित उत्‍पादों का विकास शुरू किया है और अपने संग्रह-कार्य के लिए ओपाक (ओपीएसी) प्रणाली भी विकसित की है।
पुस्‍कालय की दो शाखाएं हैं। पहली है नई दिल्‍ली के बहावलपुर हाउस में स्‍थित क्षेत्रीय भाषाओं की शाखा जो तुलसी सदन लाइब्रेरी के नाम से मशहूर है। इसमें हिंदी तथा संविधान में स्‍वीकृत 13 अन्‍य भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं की पुस्‍तकें हैं। दूसरी शाखा पाठ्यपुस्‍तकों की है और नई दिल्‍ली के रामाकृष्‍णापुरम में स्‍थित है। यह केंद्र सरकार के कर्मचारियों के स्‍नातक-स्‍तर तक के बच्‍चों की जरूरतों को पूरा करती है।
पुस्‍तकालय ने हाल ही में 'इंडिया इंफोर्मेशन गेटवे' पोर्टल शुरू किया है। 21 मार्च, 2005 को सचिव, संस्‍कृति मंत्रालय ने पुस्तकालय की वेबसाइट www.csl.nic.in (बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं) का उद्घटान किया।

राष्ट्रीय डिजिटल लाइब्रेरी
पुस्‍तकालय ज्ञान का भंडार है, क्‍योंकि यहां पुस्‍तकें तथा ज्ञान के अन्‍य संसाधन उपलब्‍ध हैं – जो अधिकांशत: मुद्रित रूप में हैं। जबकि डिजिटल प्रौद्योगिकी और इंटरनेट जुड़ाव के आविष्‍कार के साथ पुस्‍तकालय का परिदृश्‍य अब तेजी से बदल रहा है। डिजिटल प्रौद्योगिकी, इंटरनेट जुड़ाव और भौतिक सामग्री को अब डिजिटल पुस्‍तकालय में बदला जा सकता है। भौतिक रूप में उपलब्‍ध विवरण डिजिटल पुस्‍तकालय में डिजिटल रूप में बदल कर रखा जा सकता है। इससे डिजिटल पुस्‍तकालयों में सूचना और ज्ञान तक पहुंच बढ़ाई जा सकती है। ये समय और स्‍थान की बाधा को भी दूर करते हैं। विभिन्‍न मंत्रालयों / विभागों / संगठनों द्वारा भौतिक रूप में उपलब्‍ध विवरण का डिजिटल रूप तैयार करने और संरक्षण के अनेक प्रयास किए गए हैं। जबकि यह गतिविधि संगठन के कार्य / हित के क्षेत्र तक सीमित रही है। पिछले दिनों सूचना प्रौद्योगिकी विभाग ने भी डिजिटल पुस्‍तकालय प्रयास के क्षेत्र में परियोजनाओं को समर्थन दिया है। ये प्रयास अनिवार्यत: दो प्रकार के रहे हैं।
    भारतीय विज्ञान संस्‍थान, बैंगलोर और कार्नेगी मेलन यूनिवर्सिटी, यूएसए के साथ सहयोग से प्रमुख केन्‍द्रों और स्‍कैनिंग केन्‍द्रों की स्‍थापना एक सहयोगात्‍मक कार्यक्रम के तहत करना, इन केन्‍द्रों के लिए स्‍कैनर ''मिलियन बुक यूनिवर्सल डिजिटल लाइब्रेरी कार्यक्रम'' के तहत कार्नेगी मेलन यूनिवर्सिटी द्वारा प्रदान किए गए। भारतीय विज्ञान संस्‍थान, बैंगलोर द्वारा प्रो. एन बालकृष्‍णन, एसो. निदेशक के मार्गदर्शन में इस कार्यक्रम का समन्‍वय किया जा रहा है। इन स्‍कैनिंग केन्‍द्रों द्वारा इस गतिविधि के तहत तैयार डिजिटल विवरण ''डिजिटल लाइब्रेरी ऑफ इंडिया'' वेबसाइट http://www.new.dli.ernet.in पर वेब समर्थित रूप से उपलब्‍ध कराया गया है। यह साइट उपरोक्‍त स्‍कैनिंग केन्‍द्रों के अलावा अन्‍य स्‍कैनिंग केन्‍द्रों के विवरण भी उपलब्‍ध कराती है, जिन्‍हें आईआईएससी, बैंगलोर / सीएमयू, यूएसए द्वारा समर्थन दिया गया था।
अन्य डिजिटल लाइब्रेरी साइटें
    इंजीनियरिंग विज्ञान और प्रौद्योगिकी में भारतीय राष्ट्रीय पुस्तकालय कंसोर्टियम (INDEST) , आईआईटी दिल्ली www.indest.iitd.ac.in
    इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (आईजीएनसीए), नई दिल्ली - www.ignca.gov.in
    विद्यार्थी डिजिटल लाइब्रेरी, मैसूर विश्वविद्यालय. - www.vidyanidhi.org.in
    अर्नेट इंडिया नई दिल्ली, डिजिटल लाइब्रेरी - www.digitallibrary.ernet.in
    सूचना एवं लाइब्रेरी नेटवर्क केंद्र, अहमदाबाद - गुजरात - www.inflibnet.ac.in
    नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस कम्‍यूनिकेशन और इनफार्मेशन रिसोर्स(एनआईएससीएआईआर), डा. कृष्‍णन मार्ग, नई दिल्ली 110012 - www.niscair.res.in
    वी वी गिरी राष्ट्रीय श्रम संस्थान, नोएडा: www.vvgnli.org
पूर्वोत्तर राज्‍यों में उपलब्‍ध कॉपीराइट रहित पुस्‍तकों का डिजिटल रूप तैयार करना, संरक्षण और वेब समर्थित प्रति बनाना वेबसाइट www.dli.gov.in
राजस्‍थान वेबसाइट www.dli.gov.in
गुजरात www.new.dli.ernet.in
पूर्ण परियोजना।
स्‍कैन किए गए आंकड़े वेब समर्थित www.new.dli.ernet.in
पूर्ण परियोजना।
डेटा वेब समर्थित बनाकर वनस्‍थलीय विद्यापीठ की वेबसाइट और www.new.dli.ernet.in
उत्तर प्रदेश http://www.new.dli.ernet.in
महाराष्‍ट्र http://www.new.dli.ernet.in
कोलकाता www.new.dli.ernet.in
दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय www.library.du.ac.in/dspace
हैदराबाद http://dli.iiit.ac.in/phase2.html
हैदराबाद विश्‍वविद्यालय www.new.dli.ernet.in
भारतीय कला और संस्‍कृति www.ignca.gov.in
आयुर्वेदिक चिकित्‍सा, www.dli.cdacnoida.in
नोएडा द्वारा राष्‍ट्रपति भवन में डिजिटल पुस्‍तकालय का सृजन www.new.dli.ernet.in
मराठी और संस्‍कृत भाषाओं में दुर्लभ पुस्‍तकों का डिजिटाइजेशन  www.new.dli.ernet.in
जैन विरासत संस्‍कृति www.new.dli.ernet.in
पुर्तगाली, मराठी, कोंकड़ी भाषाओं में दुर्लभ पुस्‍तकों का डिजिटाइजेशन www.new.dli.ernet.in
ताड़ के पत्तों पर लिखी पांडुलिपियों, कदिता, कागज की पांडुलिपियों और वेदों पर मुद्रित पुस्‍तकों का विरासत संग्रह और डिजिटाइजेशन www.new.dli.ernet.in
दुर्लभ पांडुलिपियों www.new.dli.ernet.in
''कलासंपाद'' डिजिटल पुस्‍तकालय www.ignca.gov.in/dlrich/welcome.html
दुर्बल पांडुलिपियों और 19वीं शताब्‍दी में 1960 के बाद से नागरी प्रचारणी सभा, वाराणसी में उपलब्‍ध पुरानी पत्रिकाओं का डिजिटल आर्काइवल संग्रहालय www.dli.cdacnoida.in
अद्वैत शरद परियोजना www.new.dli.ernet.in
(www.csl.nic.in से साभार)

यहां जिंदगी संवरती है


रश्मि माहेश्वरी

किताबें बेहतर जिंदगी का रास्ता बनाती हैं। किताबों के घर यानी पुस्तकालय की इसमें अहम भूमिका है। नीदरलैंड्स में लीडन यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी की शुरूआत 1587 में 31 अक्टूबर को हुई थी। इस पुस्तकालय को यूरोप की सभ्यता के विकास में महत्वपूर्ण दर्जा दिया जाता है। सांस्कृतिक विकास और ज्ञान-विज्ञान के प्रसार में जिन केंद्रों ने अपना योगदान दिया, उनमें इस पुस्तकालय का महत्व बहुत अधिक माना जाता है। पुस्तकालय की विशालता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि यहां 35 लाख पुस्तकों के साथ 10 लाख ई-बुक्स, करीब 30 हजार ई-जर्नल्स, 60 हजार पांडुलिपियां और 12 हजार ड्रॉइंग्स आदि का व्यापक संग्रह मौजूद है।
16वीं शताब्दी में हुए डच विद्रोह के बाद सांस्कृतिक अवधारणाओं में कई स्तरों पर बदलाव देखने को मिले।
जल्द ही शिक्षा के विस्तार के बारे में सोचा जाने लगा और 1575 में लीडन यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई। इसके बाद लेक्चर हॉल्स के करीब पुस्तकालय की अहमियत का अनुभव हुआ। स्पेन के खिलाफ हुए डच विद्रोह के अग्रणी नेता प्रिंस ऑफ ऑरेंज, विलियम प्रथम, जो लीडन यूनिवर्सिटी की स्थापना में निर्णायक साबित हुए, ने पुस्तकालय के लिए पहली पुस्तक दान में दी। इतिहास के ऎसे ही महत्वपूर्ण पड़ाव में 1595 में आए "नॉमनक्लेटर" का जिक्र भी किया जाता है। यह इस पुस्तकालय का प्रथम कैटलॉग (सूचीपत्र) था। इसे दुनिया भर में किसी संस्थागत पुस्तकालय का पहला प्रकाशित सूचीपत्र भी माना जाता है।
यह पुस्कालय अपने वर्तमान स्थान विटे सिंजेल, लीडन की नई इमारत में वर्ष 1983 में शिफ्ट हुआ। इस विशाल इमारत की स्थापना का श्रेय वास्तुकार बार्ट वान कास्टील को दिया जाता है। 1988 में पुस्तकालय का प्रथम ऑनलाइन सूचीपत्र उपलब्ध हुआ। इतिहासकारों की नजर में इस पुस्तकालय को पुस्तकों के समृद्ध संग्रह के साथ ही इनकी सालों साल उचित सार-संभाल आदि और शैक्षिक विकास में मददगार होने के चलते अहम धरोहर का दर्जा दिया जाता रहा है। "फस्ट्र्स" नाम से यहां जो सूचीपत्र बनाया गया, उसकी तुलना आज के पुस्तकालयों के "स्पेशल कलेक्शंस" से की जाती है।
इस पुस्तकालय का उद्देश्य महज पुस्तकों का संग्रह ही नहीं रहा, बल्कि ज्ञान-विज्ञान के हर सरोकार से इसका जुड़ाव रहा है। डिजिटल प्रकाशन के मामले में भी इसकी खूब चर्चा होती है। 400 से अधिक डाटाबेस के साथ 30 हजार से अधिक ई-जर्नल्स, करीब 5 हजार न्यूजपेपर्स और मैगजीन्स के साथ ई-बुक्स और रेफरेंस वर्क इसका सहज उदाहरण पेश करते हैं। "लीडन यूनिवर्सिटी डिजिटल रिपॉजिटरी" के जरिए सभी शोध निबंधों को ऑनलाइन उपलब्ध करवाया जाता है। वर्ष 2007 से पुस्तकालय ने सुविधाओं के नवीकरण के लिए विशेष प्रयास किया है।
दिसम्बर 2007 से संपूर्ण पुस्तकालय में वायरलैस एक्सेस का लाभ उठाया जा सकता है। मार्च 2008 में पूर्ण नवीकरण के बाद स्पेशल कलेक्शंस रीडिंग रूम की शुरूआत हुई। इस साल मार्च माह में यहां पुस्तक प्रदर्शनी के लिए नए एग्जिबिशन स्पेस का आरंभ हुआ है। लीडन यूनिवर्सिटी पुस्तकालयों में आज के दौर में यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी, सोशल एंड बिहेवियरल साइंसेज लाइब्रेरी, लॉ, मैथमेटिक्स एंड नेचुरल साइंसेज लाइब्रेरी और ईस्ट एशियन लाइब्रेरी को शुमार किया जाता है। योजना के अनुसार वर्ष 2015 में ईस्ट एशियन लाइब्रेरी को इसके वर्तमान स्थान से यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी की शीर्ष मंजिल पर बनने वाले नए फ्लोर पर शिफ्ट किया जाएगा।
पुस्तकालय के विशेष संग्रह में पाश्चात्य पांडुलिपियों के साथ बॉडेल निजेन±युइस कलेक्शन अहम है, जिसमें पुराने नक्शों और ड्रॉइंग्स आदि का संग्रह है। एशियाई संग्रह में वर्तमान में करीब 30 हजार पांडुलिपियां और विभिन्न विषयों पर करीब 2 लाख किताबें शामिल हैं। इस क्रम में डच सोसाइटी ऑफ लैटर्स की स्थापना 1766 में हुई, जिसके जरिए भाषायी विषयों के अध्ययन का उद्देश्य रखा गया। सोसाइटी का 1876 में इस पुस्कालय से जुड़ाव हुआ। 1822 में यहां पिं्रट रूम की स्थापना हुई। इसमें 16वीं शताब्दी से वर्तमान तक की कई कलाकृतियों का समावेश है।
बड़े पोर्ट्रेट्स, ड्रॉइंग्स और करीब 80 हजार फोटोग्राफ्स आदि यहां की खासियतों में शुमार हैं। गॉल्जियस, विशेर, रैंबे्रंड्ट, ट्रूस्ट, मॉरिस आदि कई चर्चित डच कलाकारों की कलाकृतियों के साथ दुनिया के कई अन्य नामचीन कलाकारों के बेहतरीन आर्ट वर्क को भी यहां देखा जा सकता है। पुस्तकालय में वर्ष 2000 में स्थापित स्केलिजर इंस्टीट्यूट के जरिए लेक्चर्स, सिम्पोजिया और स्पेशल कोर्स आदि की व्यवस्था के साथ कनिष्ठ और वरिष्ठ शोधार्थियों के लिए स्कॉलरशिप का इंतजाम भी किया जाता है। संस्थान की स्थापना लीडन के विद्वान जोसेफस जस्टस स्केलिजर के नाम पर की गई है। पुस्तकालय में पुरातत्व विज्ञान, मानव विज्ञान, कला, खगोल विज्ञान, दर्शन, राजनीति, धर्म व विज्ञान सहित कई विषयों पर बेहतरीन पुस्तकों का संग्रह किया गया है। यहां कुछ व्यक्तिगत संग्रहों के समावेश के साथ संस्थागत संग्रहों का भी उल्लेखनीय योगदान रहा है।

भारत का सूचना और पुस्तकालय नेटवर्क


सूचना और पुस्तकालय नेटवर्क ( इनफ्लिबनेट ) केन्द्र विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ( यूजीसी ) का एक स्वायत्त अंतर विश्वविद्यालय केन्द्र ( IUC ) है । 1991 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा शुरू किया गया यह एक प्रमुख राष्ट्रीय कार्यक्रम है जिसका प्रधान कार्यालय गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद के परिसर में है । IUCAA के तहत इसकी शुरूआत एक परियोजना के रूप में हुई, और 1996 में यह एक स्वतंत्र अंतर विश्वविद्यालय केन्द्र बना ।
इनफ्लिबनेट भारत में विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों के आधुनिकीकरण और सूचना के इष्टतम उपयोग के लिए अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हुए देशव्यापी उच्च गति डेटा नेटवर्क के द्वारा देश में सूचना केंद्रों को जोड़ने में शामिल है । इनफ्लिबनेट भारत में शोधकर्ताओं और शिक्षाविदों के बीच विद्वानों के संचार को बढ़ावा देने में एक प्रमुख खिलाड़ी है ।
मिशन और दृष्टिकोण
    नवीनतम प्रौद्योगिकी पर जोर देना, सरंक्षण, नवाचार और सहयोग के माध्यम से ज्ञान का प्रभावी और कुशल उपयोग करने के उद्देश्य से लिए शैक्षणिक संस्थानों में लोगों और संसाधनों आभासी नेटवर्क बनाना ।
    सभी शिक्षा संस्थानों में शैक्षिक समुदाय को विद्वतापूर्ण और समकक्ष समीक्षित इलेक्ट्रॉनिक संसाधनों सहज, विश्वसनीय सर्वव्यापक पहुँच उन सेवाओं और उपकरण, प्रक्रियाओं और प्रथाओं को ध्यान में रखकर प्रदान करना जो इसके प्रभावी उपयोग की सहायता कर सके और इस जानकारी के महत्व में वृद्धि कर सके ।
    शिक्षा संस्थानों में मूल्य वर्धित सेवाओं के साथ आईसीटी बुनियादी सुविधाओं को बनाना और मजबूत करना ।
    प्रयोक्ताओं को कहीं भी, कभी भी इलेक्ट्रॉनिक स्वरूप में जानकारी तक सुरक्षित और सुविधाजनक पहुँच के लिए उपकरण प्रबंधन सक्रिय करना, तकनीक और प्रक्रियाओं का विकास करना ।
    ई-संसाधनों के प्रभावी प्रदाय और उपयोग के लिए संसाधन चयन गाइड और ऑनलाइन ट्यूटोरियल का विकास ।
    इन संस्थाओं द्वारा निर्मित शिक्षा और अनुसंधान के सामग्री होस्टिंग के लिए हर शिक्षण संस्थानों में डिजिटल खजाने खुले की पहुँच का निर्माण करना ।
लक्ष्य
    शैक्षिक संस्थाओं के पुस्तकालयों में पूर्ण स्वचालन करना
    ऑनलाइन और वास्तविक समय माहौल में पुस्तकालयों में उपलब्ध दस्तावेजों का संघ कैटलॉग बनाना ।
    विश्वविद्यालयों के लिए विद्वतापूर्ण, समकक्ष समीक्षा की इलेक्ट्रॉनिक संसाधनों की सर्वव्यापी और सहज पहुँच प्रदान करना ।
    विश्वविद्यालयों में विरासत दस्तावेजों के डिजिटलीकरण और ई- प्रारूप में सामग्री (इलेक्ट्रॉनिक शोध निबंध और शोध प्रबंध, शोध लेख, काम पत्र, तकनीकी रिपोर्टें, अवधारणा पत्र, तकनीकी रिपोर्ट, वार्षिक रिपोर्ट, सांख्यिकीय आंकड़ों, आदि का इलेक्ट्रॉनिक संस्करण सहित) के निर्माण को बढ़ावा देना ।
    ऊपर वर्णित प्रक्रिया में बनाई गई सामग्री को होस्ट करने के लिए विश्वविद्यालयों में डिजिटल खुले खजाने की पहुँच को बढ़ावा देना ।
    निम्न में विशेषज्ञता विकसित करना-
        डिजिटल सामग्री निर्माण ;
        डिजिटलीकरण की प्रक्रिया, और
        डिजिटल निक्षेपगारों का प्रबंध ।

पुस्तकालय विज्ञान


डा शंकर सिंह

पुस्तकालय विज्ञान वह विज्ञान है जो प्रबंधन, सूचना प्रौद्योगिकी, शिक्षाशास्त्र एवं अन्य विधाओं के औजारों का पुस्तकालय के सन्दर्भ में उपयोग करता है।
पुस्तकालय विकासशील संस्था है क्योंकि उसमें पुस्तकों और अन्य आवश्यक उपादानों की निरंतर वृद्धि होती रहती है। इस कारण इसकी स्थापना के समय ही इस तथ्य पर ध्यान देना आवश्यक होता है।
आधुनिक पुस्तकालय विज्ञान पुस्तकालय एवं सूचना विज्ञान कहलाता है क्यूँ की यह केवल पुस्तकों के अर्जन, प्रस्तुतीकरण,वर्गीकरण,प्रसुचीकरण , फलक व्यस्थापन तक ही सीमित नहीं है क्यूँ की इसके अंतर्गत सूचना की खोज ,प्राप्ति ,संसाधन,सम्प्रेषण,तथा पुनर्प्राप्ति भी सम्मिलित है॥ अब यह विषय सूचना संचार प्रोद्योगिकी के व्यापक आधार पर अव्यस्थित है. आधुनिक पुस्तकालय अद्यतन सूचना संचार प्रोद्योगिकी का बहुत अच्छा उपयोग कर रहें हैं .
पुस्तकालय एवं सूचना विज्ञान पुस्तकालय विज्ञान वह विज्ञान है जिसके अंतर्गत पुस्तकालयों में संपन्न किये जाने वाले कार्यप्रणालियों से सम्बंधित विशिष्ट प्रविधियों ,तकनीकियों, एवं प्रक्रियायों का अध्ययन एवं अध्यापन किया जाता है. पुस्तकालय एवं सूचना विज्ञान की शिक्षा के माध्यम से ही पुस्तकालयों का व्यस्थापन तथा संचालन हेतु योग्य और कुशल कर्मचारियों को तैयार किया जाता है .पुस्तकालय विज्ञान तकनीकी विषयों की श्रेणी में आता है तथा एक सेवा सम्बन्धी व्यवसाय है. यह प्रबंधन, सूचना प्रौद्योगिकी, शिक्षाशास्त्र एवं अन्य विधाओं के सिद्धान्तो एवं उपकरणों का पुस्तकालय के सन्दर्भ में उपयोग करता है। पुस्तकालय विकासशील संस्था है क्योंकि उसमें पुस्तकों और अन्य आवश्यक उपादानों की निरंतर वृद्धि होती रहती है। इस कारण इसकी स्थापना के समय ही इस तथ्य पर ध्यान देना आवश्यक होता है।यह संचरण इकाइयों के इतिहास ,संगठन, प्रबंधन ,विभिन्न तकनीको ,सेवाओं ,समाज के प्रति उनके कर्तव्यों तथा सामान्य कार्य कलापों का सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक अध्ययन पर आधारित एक वृहद् विषय है .इसका आकार - प्रकार तथा परिसीमा विषय व् सूचना जगत के साथ निरंतर बदलता रहता है .इसलिए पुस्तकालय विज्ञान की शिक्षा में पुस्तकालय की विभिन्न तकनीकियों एवं प्रविधियों के साथ -साथ पुस्तकालय सम्बन्धी विभिन्न सेवाओं का भी पर्याप्त ज्ञान एवं जानकारी प्रदान की जाती है।१९ वीं शताब्दी के प्रारंभ होने तक पुस्तकालय शिक्षा प्रदान करने की कोई आवश्यकता नहीं समझी जाती थी क्योंकि तब यह माना जाता था कि पुस्तकालय की व्यवस्था एवं संचालन के लिए किसी विशेष रूप से शिक्षित अथवा प्रशिक्षित व्यक्ति की आवश्यकता नहीं है । थॉमस जेफरसन, के संग्रह मोंतिसल्लो में हजारों पुस्तकें थी । उसने विषय पर आधारित वर्गीकरण प्रणाली का प्रयोग किया. जेफरसन संग्रह संयुक्त राज्य अमेरिका का पहला राष्ट्रीय संग्रह था जो की अब कांग्रेस के पुस्तकालय के रूप में विश्व विख्यात है. पुस्तकालय विज्ञान पर मार्टिन स्च्रेत्तिन्गेर की पहली पाठ्यपुस्तक. १८८० में प्रकाशित हुयी थी इसके बाद जोहान्न जेओर्ग सेइज़िन्गेर की दूसरी पुस्तक प्रकाशित हुयी.
 डा मेलविल ड्युई के प्रयासों से कोलंबिया कालेज में पुस्तकालय विज्ञान का पहला अमेरिकन स्कूल १ जनवरी १८८७ को आरम्भ किया गया तथा इसे लाइब्रेरी इकोनोमी का नाम दिया गया जो की १९४२ तक अमेरिका में इसी नाम से प्रचलित रहा. इसके पाठ्यक्रमों में पुस्तकालय तकनीको तथा पुस्तकालय सेवा के व्यावहारिक पक्षों पर अधिक जोर दिया गया था. इस प्रकार १९वी शताब्दी के अंत तक अमेरिका में अनेक स्थानों पर पुस्तकालय विज्ञान की शिक्षा का कार्य प्रारम्भ हो गया था. अमेरिका ही पहला देश है जहाँ पुस्तकालय विज्ञान की स्नातक तथा डॉक्टर की उपाधियों से सम्बंधित  पाठ्यक्रम सर्वप्रथम प्रारंभ किये गए। अमेरिका के बाद इंग्लेंड दूसरा देश है जहाँ पुस्तकालय विज्ञान का पहला विद्यालय लन्दन में १९२१ में लन्दन स्कूल आफ लैब्रेरिंशिप प्रारंभ किया गया.
अंग्रेजी में पुस्तकालय विज्ञान शब्द का प्रयोग १९१६ में पंजाब विश्विद्यालय लाहोर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “ पंजाब लाइब्रेरी “ में किया गया. पंजाब विश्विद्यालय लाहोर एशिया में पहला विश्विद्यालय था जो की पुस्तकालय विज्ञान की शिक्षा प्रदान कर रहा था. यह अंग्रेजी में प्रकाशित पहली पाठ्य पुस्तक थी. इसी प्रकार अमेरिका में १९२९ में पहली पाठ्य पुस्तक “Manual of Library Economy “ . इसके बाद शियाली रामामृत रंगनाथन की "The Five Laws of Library Science (1931)“ प्रकाशित हुयी जिससे पुस्तकालय विज्ञान का प्रचलन आरंभ हुआ. रंगनाथन नें पुस्तकालय के कार्य एवं उद्देश्य भी स्पष्ट किये . रंगनाथन द्वारा १९३१ में पुस्तकालय विज्ञानं हेतु पांच सूत्र प्रतिपादित किये. इसके अनुसार : १. पुस्तक उपयोग के लिए हैं. २.प्रत्येक पाठक को उसकी पुस्तक मिले . ३.प्रत्येक पुस्तक को उसका पाठक मिले. ४.पाठक का समय बचाएं. ५. पुस्तकालय वर्धनशील संस्था है. वस्तुत: भारत में पुस्तकालय विज्ञान की शिक्षा को स्थापित करने का महत्वपूर्ण कार्य डॉक्टर रंगनाथन द्वारा ही किया गया. उन्हें भारतीय पुस्तकालय विज्ञान का जनक भी कहा जाता है.
आधुनिक पुस्तकालय विज्ञानं पुस्तकालय एवं सूचना विज्ञानं कहलाता है क्यूँ की यह केवल पुस्तकों के अर्जन, प्रस्तुतीकरण,वर्गीकरण,प्रसुचीकरण , फलक व्यस्थापन तक ही सीमित नहीं है , इसके अंतर्गत सूचना की खोज , सूचना प्राप्ति , सूचना संसाधन, सूचना सम्प्रेषण,तथा सूचना पुनर्प्राप्ति भी सम्मिलित है. अब यह विषय सूचना संचार प्रोद्योगिकी के व्यापक आधार पर अव्यस्थित है. आधुनिक पुस्तकालय अद्यतन सूचना संचार प्रोद्योगिकी का बहुत अच्छा उपयोग कर रहें हैं . सूचना की प्राप्ति ,सूचना का संसाधन ,सूचना का भण्डारण,तथा सूचना का सम्प्रेषण करने के लिए पुस्तकालयों तथा सूचना केन्द्रों में अब कंप्यूटर तथा सूचना प्रोद्योगिकी का व्यापक रूप से उपयोग किया जा रहा है. इससे पुस्तकालयों की कार्य प्रणाली में बहुत परिवर्तन हो रहा है. विस्तृत तथा विशेष ज्ञान प्रदान करने में पुस्तकालयों की भूमिका को व्यापक रूप में स्वीकार जाता है .आज के सन्दर्भ में पुस्तकालयों को दो विशिष्ट भूमिकाओं का निर्वहन करना है .पहली सूचना तथा ज्ञान के स्थानीय केंद्र के रूप में कार्य करने की और दूसरी राष्ट्रीय एवं विश्व ज्ञान के स्थानीय श्रोत के रूप में .इस सन्दर्भ में भारतीय संस्कृति विभाग ने एक केन्द्रीय क्षेत्र योजना के रूप में एक राष्ट्रिय पुस्तकालय मिशन स्थापित करने का प्रस्ताव किया है. इसके अंतर्गत इन्टरनेट की सुविधा युक्त कंप्यूटर वाले ७००० पुस्तकालय भारत में स्थापित करने का प्रस्ताव है. पुस्तकालय विज्ञानं शिक्षा के द्वारा पुस्तकालय से सम्बंधित तकनीकियों एवं सेवाओं के बारे में प्रशिक्षण दिया जाता है .जिससे पुस्तकालय का संगठन और सञ्चालन कुशलता पूर्वक किया जा सके. पुस्तकालय एवं सूचना विज्ञान में स्नातक,परास्नातक तथा पी एच डी पाठ्यक्रम भारत के लगभग ८० विश्विद्यालयों में संचालित है .सुदूर अध्ययन पद्यति द्वारा भी यह सभी पाठ्य क्रम उपलब्ध हैं. पुस्तकालय विज्ञानं के स्नातक डिग्री पाठ्यक्रम के अंतर्गत -पुस्तकालय एवं समाज, पुस्तकालय प्रबंध, पुस्तकालय वर्गीकरण सैधांतिक तथा प्रायोगिक, पुस्तकालय प्रसूचिकरण सैधांतिक तथा प्रायोगिक,सन्दर्भ तथा सूचना सेवाएँ ,सूचना सेवाएँ, सूचना प्रोद्योगिकी के मूलाधार विषय सम्मिलित हैं. पुस्तकालय विज्ञानं के स्नातकोत्तर डिग्री पाठ्यक्रम में सूचना, संचार तथा समाज,सूचना स्रोत प्रणालियाँ तथा सेवाएँ, पुस्तकालय तथा सूचना केन्द्रों का प्रबंधन ,सूचना संचार प्रोद्योगिकी के मूल आधार, सूचना संचार प्रोद्योगिकी के अनुप्रयोग ,पुस्तकालय सामग्री का अनुरक्षण, अनुसन्धान प्रणाली , शैक्षिक पुस्तकालय प्रणाली, तकनीकी लेखन, सार्वजानिक पुस्तकालय प्रणाली तथा सेवाएँ तथा इन्फोर्मत्रिक्स तथा सैएन्त्रोमेत्रिक्स मुख्य रूप से पढाये जाते हैं. ज्ञान के इस युग में सूचनाओं का विस्तार तीव्र गति से हो रहा है .जिसके फलस्वरूप वर्तमान समाज ,ज्ञान समाज के रूप में परिवर्तित हो चूका है और पाठकों की सूचना आवश्यकता में व्यापक परिवर्तन आ रहा है जिसका प्रभाव पुस्तकालय विज्ञानं के शिक्षण तथा प्रशिक्षण पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. सामाजिक एवं शैक्षिक आवश्यकता की पूर्ती हेतु ही पुस्तकालयों की स्थापना प्राचीन कल से की जाती रही है. वस्तुत: ज्ञान का भण्डारण ,सरक्षण, और उपयोग हेतु उपलब्धता की सम्पूर्ण प्रक्रिया पुस्तकालयों द्वारा ही प्रदान की जाती रही है. विविध प्रकार की अध्ययन सामग्री का चयन ,अर्जन, प्रक्रियाकरण और व्यस्थापन करने के पश्चात् ही पाठकों को उनकी आवश्यकतानुसार पठनीय सामग्री सुलभ करने का कार्य इसमें सम्मिलित है.पाठ्य सामग्री में निहित महत्वपूर्ण ज्ञान का सम्प्रेषण भी इन्हीं के द्वारा किया जाता है. व्यक्ति की सभ्यता ,संस्कृति, तथा शिक्षा के उन्नयन में इन संस्थानों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है तथा इनके द्वारा ही सामाजिक परिवर्तन एवं सामाजिक विकास संभव है.समाज के बोद्धिक एवं मानसिक विकास का श्रेय इन्हें दिया जाता है. आधुनिक पुस्तकालय ,पुस्तकालय विज्ञानं के नवीन सिधान्तों तथा प्रक्रिया का पूर्ण उपयोग करते हैं.जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है की पुस्तकालय विज्ञानं आज के पुस्तकालयों के परिवर्तित परिवेश में उन सब गतिविधियों में सम्मिलित है जिसमें - सूचना प्रोद्योगिकी पर आधारित माध्यमों से प्रलेख सूचना संग्रहण, सूचना प्रक्रियाकरण, व् लक्ष्य प्रयोक्ता तक सम्प्रेषण, सूचना की खोज एवं मूल्याकन हेतु प्रोद्योगिकी का प्रयोग, पुस्तकालय प्रणाली के अनुरूप आवश्यक उपकरणों का प्रयोग, प्रणाली विश्लेषण एवं अभिकल्पन, डेटाबेस का उपयुक्त सॉफ्टवेर के माध्यम से सृजन, इलेक्ट्रोनिक माध्यमों पर सूचनाओं का भण्डारण, पुस्तकालय नेटवर्क द्वारा संघ प्रसुचियों का अभिगम, इन्टरनेट के द्वारा सूचना अभिगम एवं खोज,बाह्य पुस्तकालयों से पुस्तक प्राप्ति हेतु पुस्तकालय नेटवर्क का उपयोग, मुद्रित के स्थान पर डिजिटल सूचनाओं का आदान प्रदान, इन्टरनेट पर आधारित सूचनाओं का संकलन एवं प्रबंधन, प्राप्त सूचनाओं का मूल्यांकन एवं संग्रह को अद्यतन रखना, इ-मेल ,वार्ता फोरम का निरंतर प्रयोग, डिजिटल पुस्तकालय, पुस्तकालय समूह ,वेब साईट का सृजन तथा निरंतर अद्य्नता , विषय वास्तु प्रबंधन, पुस्तकालय तथा सूचना सेवाओं का विपणन , सूचना साक्षरता का प्रसार, प्रयोक्ता समूह की सूचना आवश्यकता की पहचान, सूचना के सृजन ,संग्रहण, संगठन, पुनर्प्राप्ति तथा प्रसार विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. परिवर्तित परिवेश में विभिन्न विश्विद्यालयों द्वारा प्रदान की जा रही पुस्तकालय विज्ञानं की शिक्षा का शोध के आधार पर पुन: आकलन करने की आवश्यकता है जिससे पुस्तकालय एवं सूचना के क्षेत्र में कार्यरत जनशक्ति को सम्पूर्ण रूप से सक्षम बना सकें तथा वे दक्षता के साथ कुशलता पूर्वक आपने कार्यों का निष्पादन कर सकें. पुस्तकालय विज्ञानं को उसी दिशा में सक्रीय होना चाहिए जो की आज के सन्दर्भ में आवश्यक रूप से अपेक्षित है. (विकिपीडिया से साभार)

पुस्तकें और पुस्तकालय


आधुनिक शैली का एक पुस्तकालय

पुस्तकालय वह स्थान है जहाँ विविध प्रकार के ज्ञान, सूचनाओं, स्रोतों, सेवाओं आदि का संग्रह रहता है। पुस्तकालय शब्द अंग्रेजी के लाइब्रेरी शब्द का हिंदी रूपांतर है। लाइबेरी शब्द की उत्पत्ति लेतिन शब्द ' लाइवर ' से हुई है , जिसका अर्थ है पुस्तक। पुस्तकालय का इतिहास लेखन प्रणाली पुस्तकों और दस्तावेज के स्वरूप को संरक्षित रखने की पद्धतियों और प्रणालियों से जुड़ा है। पुस्तकालय दो शब्दों से मिलकर बना है- पुस्तक + आलय। जिसमें लेखक के भाव संगृहीत हों, उसे पुस्तक कहा जाता है और आलय स्थान या घर को कहते हैं। इस प्रकार पुस्तकालय उस स्थान को कहते हैं जहाँ पर अध्ययन सामग्री (पुस्तकें, फिल्म, पत्रपत्रिकाएँ, मानचित्र, हस्तलिखित ग्रंथ, ग्रामोफोन रेकार्ड एव अन्य पठनीय सामग्री) संगृहीत रहती है और इस सामग्री की सुरक्षा की जाती है। पुस्तकों से भरी अलमारी अथवा पुस्तक विक्रेता के पास पुस्तकों का संग्रह पुस्तकालय नहीं कहलाता क्योंकि वहाँ पर पुस्तकें व्यावसायिक दृष्टि से रखी जाती हैं।
विभिन्न पुस्तकालयों का अपना क्षेत्र और उद्देश्य अलग अलग होता है और वह अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनुकूल रूप धारण करते हैं। इसी के आधार पर इसके अनेक भेद हो जाते हैं जैसे- राष्ट्रीय पुस्तकालय, सार्वजनिक पुस्तकालय, व्यावसायिक पुस्तकालय, सरकारी पुस्तकालय, चिकित्सा पुस्तकालय और विश्वविद्यालय तथा शिक्षण संस्थाओं के पुस्तकालय आदि।
जिस पुस्तकालय का उद्देश्य संपूर्ण राष्ट्र की सेवा करना होता है उसे राष्ट्रीय पुस्तकालय कहते हैं। वहाँ पर हर प्रकार के पाठकों के आवश्यकतानुसार पठनसामग्री का संकलन किया जाता है। अर्नोल्ड इस्डैल के मतानुसार 'राष्ट्रीय पुस्तकालय का प्रमुख कर्तव्य संपूर्ण राष्ट्र के प्रगतिशील विद्यार्थियों को इतिहास और साहित्य की सामग्री सुलभ करना, अध्यापकों, लेखकों एवं शिक्षितों को शिक्षित करना है'। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय पुस्तकालय के निम्नलिखित कर्तव्य होते हैं:
1- राष्ट्रीय ग्रंथसूची के प्रकाशित कराने का दायित्व।
2- इस पुस्तकालय से संबद्ध पुस्तकालयों की एक संघीय सूची का संपदान करना।
3- पुस्तकालयों में संदर्भ सेवा की पूर्ण व्यवस्था करना और पुस्तकों कें अंतर्राष्ट्रीय आदान-प्रदान की सुविधा दिलाना।
4- अंतर्राष्ट्रीय ग्रंथसूची के कार्य के साथ समन्वय स्थापित करना और इय संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी रखना।
5- संपूर्ण राष्ट्र में स्थापित महत्वपूर्ण संदर्भकेंद्रों की सूची तैयार करना।
प्रसिद्ध भारतीय विद्वान्‌ डाक्टर रंगनाथन के अनुसार देश की सांस्कृतिक अध्ययनसामग्री की सुरक्षा राष्ट्रीय पुस्तकालय का मुख्य कार्य है। साथ ही देश के प्रत्येक नागरिक को ज्ञानार्जन की समान सुविधा प्रदान करना और जनता की शिक्षा में सहायता देने के विविध क्रियाकलापों द्वारा ऐसी भावना भरना कि लोग देश के प्राकृतिक साधनों का उपयोग कर सकें। यह निश्चय है कि यदि देश के प्रत्येक व्यक्ति का मस्तिष्क सृजनशील नहीं होगा तो राष्ट्र का सर्वांगीण विकास तीव्र गति से नहीं हो सकेगा।
कापीराइट की सुविधा से राष्ट्रीय पुस्तकालयों के विकास में वृद्धि हुई है। वास्तव में पुस्तकालय आंदोलन के इतिहास में यह क्रांतिकारी कदम है। ब्रिटेन के राष्ट्रीय पुस्तकालय, ब्रिटिश म्यूजियम को 1709 में यह सुविधा प्रदान की गई। इसी प्रकार फ्रांस बिब्लियोथेक नैशनल पेरिस को 1556 और बर्लिन लाइब्रेरी को 1699 ई. में एवं स्विस नैशनल लाइब्रेरी को 1950 ई. में वहाँ के प्रकाशन नि:शुल्क प्राप्त होने लगे। कापीराइट की यह महत्वपूर्ण सुविधा भारतीय राष्ट्रीय पुस्तकालय को सन्‌ 1954 ई. में प्रदान की गई। डिलीवरी आंव बुक्स सन्‌ 1954 के कानून के द्वारा प्रत्येक प्रकाशन की कुछ प्रतियाँ राष्ट्रीय पुस्तकालय को भेजना प्रकाशकों के लिए कानून द्वारा अनिवार्य कर दिया गया है।
आधुनिक सार्वजनिक पुस्तकालयों का विकास वास्तव में प्रजातंत्र की महान्‌ देन है। शिक्षा का प्रसारण एवं जनसामान्य को सुशिक्षित करना प्रत्येक राष्ट्र का कर्तव्य है। जो लोग स्कूलों या कालेजों में नहीं पढ़ते, जो साधारण पढ़े लिखे हैं, अपना निजी व्यवसाय करते हैं अथवा जिनकी पढ़ने की अभिलाषा है और पुस्तकें नहीं खरीद सकते तथा अपनी रुचि का साहित्य पढ़ना चाहते हैं, ऐसे वर्गों की रुचि को ध्यान में रखकर जनसाधारण की पुस्तकों की माँग सार्वजनिक पुस्तकालय ही पूरी कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त प्रदर्शनी, वादविवाद, शिक्षाप्रद चलचित्र प्रदर्शन, महत्वपूर्ण विषयों पर भाषण आदि का भी प्रबंध सार्वजनिक पुस्तकालय करते हैं। इस दिशा में यूनैसको जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठन ने बड़ा महत्वपूर्ण योगदान किया है। प्रत्येक प्रगतिशील देश में जन पुस्तकालय निरंतर प्रगति कर रहे हैं और साक्षरता का प्रसार कर रहे हैं। वास्तव में लोक पुस्तकालय जनता के विश्वविद्यालय हैं, जो बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक नागरिक के उपयोग के लिए खुले रहते है।
उस संस्था को कहते हैं जो ऐसे लोगों की सहायता एवं मार्गदर्शन करती है जो ज्ञान की सीमाओं को विकसित करने में कार्यरत हैं। ज्ञान की विभिन्न शाखाएँ हैं और उनकी पूर्ति विभिन्न प्रकार के संग्रहों से ही संभव हो सकती है, जैसे कृषि से संबंधित किसी विषय पर अनुसंधानात्मक लेख लिखने के लिए कृषि विश्वविद्यालय या कृषिकार्यों से संबंधित किसी संस्था का ही पुस्तकालय अधिक उपयोगी सिद्ध होगा। ऐसे पुस्तकालयों की कार्यपद्धति अन्य पुस्तकालयों से भिन्न होती है। यहाँ कार्य करनेवाले कार्मिकों का अत्यंत दक्ष एवं अपने विषय का पंडित होना अनिवार्य है, नहीं तो अनुसंधानकर्ताओं को ठीक मार्गदर्शन उपलब्ध न हो सकेगा। संग्रह की दृष्टि से भी यहाँ पर बहुत सतर्कतापूर्वक सामग्री क चुनाव करना चाहिए। संदर्भ संबंधी प्रश्नों का तत्काल उत्तर देने के लिए पुस्तकालय में विशेष उपादानों का होना और उनका रखरखाव भी ऐसा चाहिए कि अल्प समय में ही आवश्यक जानकारी सुलभ हो से। विभिन्न प्रकार की रिपोर्टे और विषय से संबंधि मुख्य-मुख्य पत्रिकाएँ, ग्रंथसूचियाँ, विश्वकोश, कोश और पत्रिकाओं की फाइलें संगृहीत की जानी चाहिए।
इन पुस्तकालयों का उद्देश्य किसी विशेष व्यावसायिक संस्था अथवा वहाँ के कर्मचारियों की सेवा करना होता है। इनके आवश्यकतानुसार विशेष पठनसामग्री का इन पुस्तकालयों में संग्रह किया जाता है, जैसे व्यवसाय से संबंधित डायरेक्टरोज, व्यावसायिक पत्रिकाएँ, समयसारणियाँ, महत्वपूर्ण सरकारी प्रकाशन, मानचित्र, व्यवसाय से संबंधित पाठ्य एवं संदर्भग्रंथ, विधि साहित्य इत्यादि।
वैसे तो सरकार अनेक पुस्तकालयों को वित्तीय सहायता देती है, परंतु जिन पुस्तकालयों का संपूर्ण व्यय सरकार वहन करती है उन्हें सरकारी पुस्तकालय कहते हैं, जैसे राष्ट्रीय पुस्तकालय, विभागतीय पुस्तकालय, विभिन्न मंत्रालयों के पुस्तकालय, प्रांतीय पुस्तकालय। संसद और विधानभवनों के पुस्तकालय भी सरकारी पुस्तकालय की श्रेणी में आते हैं।
यह पुस्तकालय किसी चिकित्सा संबंधी संस्था, विद्यालय, अनुसंधान केंद्र अथवा चिकित्सालय से संबद्ध होते हैं। चिकित्सा संबंधी पुस्तकों का संग्रह इनमें रहता है और इनका रूप सार्वजनिक न होकर विशेष वर्ग की सेवा मात्र तक ही सीमित होता है।
शिक्षण संस्थाओं के पुस्तकालयों को इस प्रकार विभाजित किया जा सकता है, जैसे विश्वविद्यालय पुस्तकालय, विद्यालय पुस्तकालय, माध्यमिक शाला पुस्तकालय, बेसिक शाला पुस्तकालय एवं प्रयोगशालाओं, अनुसंधान संस्थाओं और खोज संस्थाओं के निजी पुस्तकालय आदि। हर विश्वविद्यालय के साथ एक विशाल पुस्तकालय का होना प्राय: अनिवार्य ही है। बेसिक शालाओं एवं जूनियर हाई स्कूलों में तो अभी पुस्तकालयों का विकास नहीं हुआ है, परंतु माध्यमिक शालाओं एवं विद्यालयों के पुस्तकालयों का सर्वांगीण विकास हो रहा है।
इसके अतिरिक्त पुस्तकालयों के और भी अनेक भेद हैं जैसे ध्वनि पुस्तकालय, जिसमें ग्रामोफोन रेकार्डों और फिल्मों आदि का संग्रह रहता है, कानून पुस्तकालय, समाचारपत्र पुस्तकालय, जेल पुस्तकालय, अन्धों का पुस्तकालय, संगीत पुस्तकालय, बाल पुस्तकालय एवं सचल पुस्तकालय आदि।
ये पुस्तकालय विशिष्ट प्रकार के होते हैं और संग्रह की दृष्टि से तो इनका रूप प्राय: अन्य पुस्तकालयों से भिन्न होता है। प्रथम विश्वयुद्ध के समय ऐसे पुस्तकालयों की आवश्यकता की ओर ध्यान दिया गया था और द्वितीय विश्वयुद्ध के समय तो सेना के अधिकारियों को पठन-पाठन की सुविधा देने हेतु मित्र-राष्ट्रों ने अनेकानेक पुस्तकालय स्थापित किए। अकेले अमरीका में नभ सेना के लिए 1600 पुस्तकालय हैं जिनमें नभ सेना के उपयोग के लिए नई से नई सामग्री का संग्रह किया जाता है। ये पुस्तकालय बहुत से जलपोतों और सैनिक छावनियों के साथ स्थापित किए गए है। इसी प्रकार वायुसेना और स्थल सेना के भी अनेक पुस्तकालय विश्व के अनेक देशों में हैं। अमेरिकन पेंटागेन में सेना का एक विशाल पुस्तकालय है। भारत में रक्षा मंत्रालय, सेना प्रधान कार्यालय एवं डिफेंस साइंस ऑर्गनाइज़ेंशन के विशाल पुस्तकालय हैं।

भारत के प्रमुख पुस्तकालय
यूनेस्को और भारत सरकार के संयुक्त प्रयास से स्थापित दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी का उद्घाटन स्वर्गीय जवाहरलाल नेहरू ने 27 अक्टूबर 1951 को किया। 15 वर्ष की इस अल्प अवधि में इस पुस्तकालय ने अभूतपूर्व उन्नति की है। इसमें ग्रंथों की संख्या लगभग चार लाख है। नगर के विभिन्न भागों में इसकी शाखाएँ खोल दी गई है। इसके अतिरिक्त प्रारंभ से ही चलता-फिरता पुस्तकालय भी इसने शुरू किया। पुस्तकालय के संदर्भ और सूचना विभाग में नवीनतम विश्वकोश, गजट, शब्दकोश और संदर्भ साहित्य का अच्छा संग्रह है। बच्चों के लिए बाल पुस्तकालय विभाग है। पुस्तकों के अतिरिक्त इस विभाग में तरह-तरह के खिलौने, लकड़ी के अक्षर, सुंदर चित्र आदि भी हैं। सामाजिक शिक्षा विभाग समय समय पर फिल्म प्रदर्शनी, व्याख्यान, नाटक, वादविवाद प्रतियोगिता का आयोजन करता है। इसके अतिरिक्त इस विभाग के पास आधुनिकतम दृश्यश्रव्य उपकरण भी हैं। इस पुस्तकालय के सदस्यों की संख्या लगभग एक लाख है।
राष्ट्रीय पुस्तकालय, कलकत्ता
इस पुस्तकालय की स्थापना श्री जे. एच. स्टाकलर के प्रयत्न से 1836 ई. में कलकत्ता में हुई। इसे अनेक उदार व्यक्तियों से एवं तत्कालीन फोर्ट विलियम कालेज से अनेक ग्रंथ उपलब्ध हुए। प्रारंभ में पुस्तकालय एक निजी मकान में था, परंतु 1841 ई. में फोर्ट विलियम कालेज में इसे रखा गया। सन्‌ 1844 ई. में इसका स्थानांतरण मेटकाफ भवन में कर दिया गया। सन्‌ 1890 ई. में कलकत्ता नगरपालिका ने इस पुस्तकालय का प्रबंध अपने हाथ में ले लिया। बाद में तत्कालीन बंगाल सरकार ने इसे वित्तीय सहायता दी। 1891 ई. में इंपीयिल लाइब्रेरी की स्थापना की गई और लार्ड कर्जन के प्रयत्न से कलकत्ता पब्लिक लाइब्रेरी तथा इंपीरियल लाइब्रेरी को 1902 ई. में एक में मिला दिया गया। उदार व्यक्तियों ने इसे बहुमूल्य ग्रंथों का निजी संग्रह भेंट स्वरूप दिया। सन्‌ 1926 ई. में रिचे सीमित ने इस पुस्तकालय के विकास के संबंध में भारत सरकार को अपना प्रतिवेदन दिया। सितंबर, 1948 में यह पुस्तकालय नए भवन में लाया गया और इसकी रजत जयंती 1 फरवरी, 1953 ई. को मनाई गई। स्वतंत्रता के पश्चात्‌ इसका नाम बदलकर 'राष्ट्रीय पुस्तकालय' कर दिया गया। इसमें ग्रंथों की संख्या लगभग 12 लाख है। 'डिलीवरी ऑव बुक्स ऐक्ट 1954' के अनुसार प्रत्येक प्रकाशन की एक प्रति इस पुस्तकालय को प्राप्त होती है। वर्ष 1964-65 में इस योजना के अतंर्गत 18642 पुस्तकें इसे प्राप्त हुई एवं भेंट स्वरूप 7000 से अधिक ग्रंथ मिले।  (विकिपीडिया से साभार)

डॉक्टर डू लिटिल


देवेन्द्रकुमार/रमेश तैलंग

एक थे डॉक्टर जान डू लिटिल. वह इंग्लैण्ड के छोटे से कस्बे पद्लबाई में रहते थे. अत्यंत कुशल डॉक्टर थे डू लिटिल. वह लालची नहीं थे. बड़े ध्यान से रोगियों की जांच करके दवाई देते. रोगी जल्दी ही स्वस्थ हो जाते. डॉक्टर साहब कम फीस लेते और गरीबों का मुफ्त इलाज करते. पद्ल्वाई के सभी निवासी डॉक्टर डू लिटिल का बहुत सम्मान करते थे.
डॉक्टर डू लिटिल के घर की देखरेख उनकी बहन सारा करती थी. डॉक्टर को पशु-पक्षियों से बहुत प्यार था. डॉक्टर ने अपने मित्रों के अनोखे नाम रखे थे -जैसे डब-डब बत्तख, कुत्ता ज़िप, गब-गब सूअर, टू-टू उल्लू और पोलिनेशिया तोता. सारा को डॉक्टर भैया के पालतू पशु-पक्षियों से चिढ थी. वह कहती-विचित्र शौक है तुम्हारा, तुम्हारे पशु-मित्र सारा दिन घर को गन्दा रखते हैं. इस पर डू लिटिल मुस्कराकर चुप रह जाते, वह मानते थे कि उनके घर पर उनके मित्र पशु-पक्षियों को भी उतना ही अधिकार था जितना खुद उनका या बहन सारा का.मरीज़ आते तो पूरे घर में पशु-पक्षियों को घूमते देख घबरा जाते.
धीरे-धीरे कुछ लोगों ने दवाखाने में आना बंद कर दिया. वे लोग चाहते थे कि डॉक्टर डू लिटिल अपने पालतू पशु-पक्षियों को घर से भगा दें, पर डॉक्टर ने वैसा नहीं किया. एक दिन कोई औरत दवा लेने आई तो उसने देखा सोफे पर कुछ पशु बेठे हैं. वह डर कर भाग खड़ी हुई. तब दूसरे रोगी भी बिना दिखाए चले गए. इस तरह डॉक्टर डू लिटिल के दवाखाने में आने वाले रोगियों के संख्या बहुत कम हो गई. पर डॉक्टर डू लिटिल ने इस बात की चिंता नहीं की. फिर भी मुश्किलें बढ़ती जा रही थीं. डॉक्टर की आमदनी तो कम हो गई लेकिन पालतू पशु-पक्षियों पर होने वाला खर्च बढ़ता गया. ऐसा भला कितने दिन चल सकता था.
लोग डॉक्टर डू लिटिल के घर को चिड़ियाघर कहने लगे. एक दिन डू लिटिल का एक परिचित उनसे मिलने आया. वह हँस कर बोला-डॉक्टर साहब, जब आप मनुष्यों का इलाज़ करना छोड़ दीजिए और पशु पक्षियों के डॉक्टर बन जाइए. शायद तब आपको थोड़ी-बहुत आमदनी होने लगे. वह तो अपनी बात कहकर चला गया पर डॉक्टर डू लिटिल सोच में डूब गए. तभी पोलिनेशिया तोता बोला, “डॉक्टर साहब, मैंने उस आदमी की बात ध्यान से सुनी थी. उसका आइडिया बुरा नहीं है.”
डू लिटिल बोले-”पोलिनेशिया, शहर में पहले ही जानवरों के कई डॉक्टर हैं. और फिर भला मैं जानवरों की बातें कैसे समझूंगा, तुम ठहरे चतुर. मनुष्यों की बोली समझते हो और बोलते हो. मैं भी तुम्हारी बात का मतलब समझ जाता हूँ. लेकिन भला बताओ तो अगर कोई बिल्ली, भालू, बंदर, हाथी आकर मुझसे बोलने लगे तो मैं उनका मतलब कैसे समझूंगा? किसी बीमार का इलाज करने के लिए यह जरूरी है कि डॉक्टर उसकी बात सुनकर अपनी बात उनसे कह सके.”
इस पर पोलिनेशिया ने कहा-”डॉक्टर साहब, आज अपने बारे में मैं आपको एक नई बात बता रहा हूँ. मैं दुनिया के लगभग सभी पशु-पक्षियों की बोलियां समझता हूँ. हर जानवर से उसकी बोली में बात कर सकता हूँ. यदि आप कहें तो मैं आपको भी पशु-पक्षियों की बोलियां समझा सकता हूँ. इसमें आपको ज्यादा परेशानी नहीं होगी. भला ऐसे डॉक्टर कहाँ मिलेंगे जो जानवरों से उनकी बोली में बात करें.”
डॉक्टर डू लिटिल को पोलिनेशिया की बातें मजेदार लग रही थीं. बोले-”वाह! पोलिनेशिया, तुम मेरे गुरु बन जाओ. अगर मैं पशु-पक्षियों की बोलियां सीखकर उनका इलाज़ कर सका तो मुझे खुशी होगी. वैसे भी मुझे पशु-पक्षियों के साथ रहना अच्छा लगता है.”
बस उसी दिन से पोलिनेशिया तोता डॉक्टर डू लिटिल को जानवरों की बोलियां सिखाने लगा. शुरू-शुरू में उन्हें कठिनाई अवश्य हुई पर वह मन लगाकर सीखते रहे. उन्होंने निश्चय कर लिया था कि वह हर पशु-पक्षी से उसकी बोली में बात कर सकने वाले डॉक्टर बनकर रहेंगे. इस तरह गुरु पोलिनेशिया अपने शिष्य बने डॉक्टर डू लिटिल को जानवरों की बोलियां सिखाता रहा. और फिर एक दिन डॉक्टर डू लिटिल के दरवाजे पर एक नया बोर्ड दिखाई दिया. उस पर लिखा था-डॉक्टर डू लिटिल. जानवरों के डॉक्टर
इस नए बोर्ड ने तो डॉक्टर साहब के रहे-सहे रोगियों को भी डरा दिया. अब लोग उनके पास अपने पालतू पशु-पक्षियों को इलाज के लिए लाने लगे. एक दिन एक घोडा डॉक्टर साहब के दवाखाने में आया. डॉक्टर डू लिटिल को अपनी बोली में बोलते सुन घोडा बहुत खुश हुआ. उसने कहा-”डॉक्टर साहब, तकलीफ मेरी आँखों में है, पर दवा मुझे पेट-दर्द की दी जा रही थी. मुझे आँखों से कम दिखाई देता है. मैंने मनुष्यों को चश्मा लगाए देखा है. क्या आप मेरे लिए हरे-लेंस वाला चश्मा बना देंगे?”
डॉक्टर साहब ने घोडे के लिए हरा चश्मा बना दिया. घोडा बहुत खुश हुआ. फिर तो शहर में कई घोड़े हरा चश्मा पहने दिखाई देने लगे. डॉक्टर डू लिटिल के पास इलाज़ के लिए आने वाला हर पशु-पक्षी उनके पक्का दोस्त बन जाता था. धीरे-धीरे सारे जानवर इस अनोखे डॉक्टर के बारे में जान गए. पक्षियों ने उनकी खबर दूसरे देशों में भी पहुंचा दी..
अफ्रीका से आया सन्देश: एक दिन डॉक्टर के मोहल्ले में एक मदारी आया. उसके साथ एक बंदर था. मदारी बंदर का खेल दिखाने लगा. देखने वालों की भीड़ लग गई. भीड़ में खड़े बच्चे तालियाँ बजा रहे थे. डॉक्टर डू लिटिल ने बंदर को देखा तो जान गए कि बंदर खुश नहीं है. और फिर मदारी तो बंदर से भीख मंगवाता था. डू लिटिल ने बंदर से उसकी भाषा में बात की तो पता चल गया कि बंदर कितना परेशान था. वह मदारी की कैद से छुटकारा पाना चाहता था. डॉक्टर और बंदर के बीच हुई बातचीत को कोई नहीं समझ पाया. उन्होंने मदारी को कुछ पैसे देकर बंदर को खरीद लिया. पैसे लेकर जाते समय मदारी झगडा करने लगा. डू लिटिल ने कहा-”जानवरों को दुःख देना बुरी बात है. मैं अभी पुलिस को बुलवाता हूँ.” पुलिस का नाम सुनते ही मदारी डरकर भाग गया.
घर में रहने वाले दूसरे जानवरों ने बंदर का नाम चीची रख दिया. चीची बंदर के करतबों से सभी खुश रहते थे. उन्हीं दिनों शहर में सर्कस लगा. सर्कस में था एक मगरमच्छ. उसका नाच दर्शकों को बहुत पसंद आता था. लेकिन इधर कई दिनों से मगरमच्छ के दांत में दर्द था. वह खेल दिखाए तो कैसे? उसे जानवरों के डॉक्टर का पता चला तो रात के अँधेरे में डॉक्टर डू लिटिल के दवाखाने में आ पहुंचा. डॉक्टर डू लिटिल ने मगरमच्छ के दांतों में दवा लगा दी. उसका दांत दर्द ठीक हो गया. उसने डॉक्टर डू लिटिल से कहा -”मैं सर्कस में वापस नहीं जाना चाहता. वे लोग मुझसे जबरदस्ती करते हैं. क्या मैं आपके बाग के तालाब में रह सकता हूँ. मैं वादा करता हूँ कि यहाँ रहते हुए किसी जानवर को नहीं खाऊंगा.डॉक्टर डू लिटिल ने मगरमच्छ को अपने घर में रहने की अनुमति दे दी. सर्कस वालों ने भागे हुए मगरमच्छ को बहुत ढूँढा पर वे उसका पता नहीं लगा सके.
लेकिन अब एक नई समस्या खड़ी हो गई. लोग अपने बीमार पशु-पक्षियों को दवाखाने लाने से घबराने लगे. हालांकि घड़ियाल ने डॉक्टर से किसी जानवर को न खाने का वादा किया था, लेकिन यह बात दूसरे लोग भला कैसे समझ सकते थे.
धीरे-धीरे पशु-पक्षी रोगियों की संख्या भी कम हो गई. डॉक्टर डू लिटिल जानते थे कि यह आफत मगरमच्छ के कारण आई है, पर वह अपने दयालु स्वभाव के कारण मगरमच्छ से घर छोड़कर जाने के लिए नहीं कह सके. डॉक्टर डू लिटिल की बहन सारा अब और बर्दाश्त नहीं कर सकी. एक दिन वह कहीं और रहने चली गई. डॉक्टर साहब ने सारा को समझाना चाहा, लेकिन वह नहीं माना. डॉक्टर डू लिटिल अपने जानवर मित्रों के साथ अकेले रह गए. अब कोई भी उनसे मिलने नहीं आता था.एक रात डॉक्टर साहब सो रहे थे, तो चीची बंदर, पोलिनेशिया तोता और टूटू उल्लू आपस में बात करने लगे कि अब क्या किया जाए. क्योंकि उन्ही के कारण
डॉक्टर डू लिटिल पर मुश्किल आई थी. डॉक्टर के पालतू जानवरों ने फैसला किया कि घर के सभी काम वे खुद करेंगे. लेकिन काम सिर्फ चीची ही कर सकता था, जिसके दो हाथ थे. फिर सर्दी का मौसम आ गया. खूब बर्फ गिरी. ऐसे में तो भोजन मिलना भी दुर्लभ हो गया.
सर्दियों की ठंडी और अँधेरी रात थी. डॉक्टर और उनके मित्र रसोईघर में बैठे बातें कर रहे थे. पूरे मकान में रसोईघर ही कुछ गरम था. लेकिन चीची बंदर का पता नहीं था. डॉक्टर डू लिटिल ने कहा-”चीची कहाँ हो इस समय? तभी दरवाजा खुला और चीची बंदर अंदर आया. वह हांफ रहा था. इससे पहले कि डू लिटिल उसे सर्दी में घर से बाहर रहने के लिए डांटते, चीची घबराए स्वर में बोला-”डॉक्टर साहब, अफ्रीका में आफत आ गई है.
“क्या मतलब?” डॉक्टर साहब ने पूछा-”आफत अफ्रीका में आई है, पर तुम इतना क्यों घबरा रहे हो?”
“वहाँ बंदरों में एक विचित्र महामारी फ़ैल गई है. हजारों बंदर बीमार हैं, अनेक हर रोज मर रहे हैं. आपको वहाँ चलना होगा.” कहकर चीची ने डॉक्टर डू लिटिल का हाथ थाम लिया. डॉक्टर डू लिटिल ने महसूस कर लिया कि चीची का हाथ कांप रहा है.
“सन्देश कहां से मिला, किसने दिया?” उन्होंने पूछा.
“एक अफ्रीकी चिड़िया यहाँ सन्देश लेकर आई है. मेरे चचेरे भाई ने सन्देश भेजा है.” चीची बोला.
“चिड़िया कहाँ है?”
“बाहर.”
“पहले उसे अंदर तो लाओ, नहीं तो वह सर्दी में ठिठुर कर मर जाएगी.” डू लिटिल बोले.
चीची अफ्रीका से आई चिड़िया को अंदर बुला लाया. चिड़िया सचमुच ठण्ड से कांप रही थी. अंगीठी के गरमाई से उसके गीले पंख सूख गए. फिर उसने डॉक्टर को अफ्रीका के समाचार सुनाए. सचमुच अफ्रीका में बंदरों की स्थिति बहुत खराब थी. डॉक्टर डू लिटिल ने चिड़िया से कहा-”देखो, तुमसे क्या छिपाना. मैं वहाँ जरूर जाना चाहता हूँ, पर आजकल पैसों का संकट है. बिना पैसों के मैं कैसे यात्रा करूँगा.”
तभी पोलिनेशिया ने कहा-”डॉक्टर साहब, एक नाविक आपका मित्र है. एक बार आपने उसकी बुलबुल का बुखार ठीक किया था. आपको उससे बात करनी चाहिए, शायद वह कोई प्रबंध कर सके.” डू लिटिल बोले-”अब तो कल दिन में ही कुछ हो सकेगा .” फिर उन्होंने चिड़िया से कहा-”तुम इतनी लंबी यात्रा करके आई हो, अब आराम करो. कल आगे का कार्यक्रम बनायेंगे.” इसके बाद डू लिटिल सोने चले गए, पर उनके पशु-पक्षी मित्र जागते ही रहे. वे सभी अफ्रीका की यात्रा पर जाना चाहते थे.
दिन निकलते ही डॉक्टर साहब अपने नाविक मित्र से मिलने गए. पूरी बात सुनकर उसने कहा-”जैसे भी होगा आपकी अफ्रीका यात्रा के लिए एक जहाज और दूरी आवश्यक सामग्री का प्रबंध कर दूंगा.” डू लिटिल ने नाविक को वचन दिया-”मैं अफ्रीका से लौटकर तुम्हारे सारे पैसे चुका दूंगा.” इस तरह बात बन गई. अफ्रीका जाने की सबसे ज्यादा खुशी मगरमच्छ, तोते पोलिनेशिया और चीची बंदर को थी. क्योंकि वे तीनों ही अफ्रीका से आए थे. पोलिनिशिया तो इससे पहले भी कई लंबी यात्राएं कर चुका था. पर एक समस्या थी-अफ्रीका तक की यात्रा में रास्ता कौन बताएगा? डॉक्टर डू लिटिल तो पहले कभी अफ्रीका गए नहीं थे. तब अफ़्रीकी चिड़िया ने कहा-”रास्ता मैं दिखाऊंगी. मैं जहाज के आगे-आगे उडती चलूंगी.”
यात्रा शुरू हुई. मौसम अच्छा था. जहाज चिड़िया की पीछे-पीछे समुद्र में चलता रहा. जब चिड़िया कुछ थक जाती तो आराम करने के लिए जहाज पर उतर आती. दिन ढलने लगा. तभी पोलिनेशिया ने कहा-”रात में भला हम चिड़िया को कैसे देख पाएंगे? इस तरह तो रास्ता भटक सकते हैं.
चिड़िया ने हंसकर कहा-”मैंने इस समस्या पर पहले ही सोच लिया है.” किसी की समझ में नहीं आया कि आखिर चिड़िया रात के अँधेरे मैं उन सबको कैसे दिखाई देगी. पर चिड़िया थी समझदार. योजना के अनुसार उसके पंखों से चिपककर कुछ जुगनू उड़ने लगे. उनकी रौशनी बार-बार जल-बुझ रही थी. लगता था जैसे चिड़िया अपनी चोंच में एक नन्ही लालटेन लेकर उड़ रही हो. बस, इस तरह अँधेरे में भी दिशा ज्ञान बना रहा. डॉक्टर डू लिटिल तथा उनके साथी चिड़िया को आसानी से देख सकते थे.
जहाज आगे बढ़ा तो मौसम गरम हो गया. पोलिनेशिया, चीची और मगरमच्छ को यह मौसम पसंद था लेकिन सूअर. कुत्ता और टूटू उल्लू परेशान थे. वे हर समय छाया में ही दुबके रहते थे. दब-दब बत्तख थोड़ी-थोड़ी देर में पानी में कूद जाती. कुछ देर तैरती और फिर ऊपर आ जाती. उसे इस खेल में खूब मजा आ रहा था. डब-डब ने डॉक्टर से कहा-”मुझे पता नहीं था कि अफ्रीका यात्रा में इतना आनंद आएगा. डब-डब ने डॉक्टर से कहा-”मुझे पता नहीं था कि अफ्रीका यात्रा में इतना आनंद आएगा.” डू लिटिल कुछ बोले नहीं. वह आकाश की ओर देख रहे थे, जहां काले-काले बदल उमड़-उमड़ रहे थे.
कुछ देर बाद बड़ी-बड़ी मछलियों का एक झुण्ड जहाज की तरफ आया. मछलियों ने जहाज को घेर लिया. फिर एक मछली पानी से मुंह निकलकर बोली-”क्या इस जहाज में डॉक्टर डू लिटिल यात्रा कर आहें हैं?”
पोलिनेशिया ने कहा-”हां, कहो क्या बात है?”
मछली बोली-”असल में बंदरों के सरदार ने हमें यह देखने भेजा था कि डॉक्टर डू लिटिल कहाँ तक आ पहुंचे हैं? कुछ बंदरों को संदेह हो रहा है कि क्या डॉक्टर साहब उनका इलाज करने के लिए सचमुच अफ्रीका आएँगे?”
तब डॉक्टर डू लिटिल ने मछली से कहा-”मैं तो किसी बीमार पशु-पक्षी का इलाज करने के लिए दुनिया में कहीं भी जा सकता हूँ. तुम सब जाकर बंदरों से कह दो कि मैं जल्दी ही पहुँचने वाला हूँ.”
थोड़ी देर बाद डॉक्टर का सन्देश लेकर मछलियों का झुण्ड वापस चला गया. उन्होंने डॉक्टर डू लिटिल से कहा था कि अफ्रीका महाद्वीप का तट बस ढोडी ही दूर है.
लेकिन क्या सच में अफ्रीका इतना पास था? क्योंकि थोड़ी देर बाद ही आकाश में बिजली कौंधने लगी, फिर तेज बारिश शुरू हो गई. समुद्र में ऊंची-ऊंची लहरें उठ रही थीं. डॉक्टर डू लिटिल का जहाज ऊंची लहरों पर तिनके की तरह डोलने लगा. फिर अँधेरा घिर आया. बारिश उसी तरह तेजी से हो रही थी. डॉक्टर डू लिटिल नहीं जानते थे कि जहाज किधर जा रहा है. क्योंकि उस तूफानी बारिश में चिड़िया भी आकाश में उनकर उन्हें रास्ता नहीं दिखा सकती थी.


सआदत हसन मंटो की रचना 'बू'

बरसात के यही दिन थे. खिड़की के बाहर पीपल के पत्ते इसी तरह नहा रहे थे सागवन के स्प्रिन्गदार पलंग पर, जो अब खिड़की के पास थोड़ा इधर सरका दिया गया, एक घाटन लड़की रणधीर के साथ लिपटी हुई थी. खिड़की के पास बाहर पीपल के पत्ते रात के दुधिया अंधेरे में झुमरों की तरह थरथरा रहे थे, और शाम के समय, जब दिन भर एक अंग्रेजी अखबार की सारी खबरें और इश्तहार पढ़ने के बाद कुछ सुस्ताने के लिये वह बालकनी में आ खड़ा हुआ था तो उसने उस घाटन लड़की को, जो साथवाले रस्सियों के कारखाने में काम करती थी और बारिश से बचने के लिये इमली के पेड़ के नीचे खड़ी थी, खांस-खांसकर अपनी तरफ आकर्षित कर लिया था और उसके बाद हाथ के इशारे से ऊपर बुला लिया था. वह कई दिनों की बेहद तनहाई से उकता गया था. विश्वयुद्ध के चलते मुम्बई की लगभग तमाम ईसाई छोकरियां, जो अमूमन सस्ते दामों में मिल जाया करती थीं, वैसी जवान औरत और कमसीन लड़की अंग्रेजी फौज में भरती हो गई थीं. उनमें से कईयों ने फोर्ट के इलाके में डांस स्कूल खोल लिये थे, वहां सिर्फ फौजी गोरों को जाने की इजाजत थी. इन हालत के चलते रणधीर बहुत उदास हो गया था. जहां उसकी उदासी का कारण यह था कि क्रिश्चियन छोकरियां दुर्लभ हो गई थीं वहीं दुसरा यह कि फौजी गोरों के मुकाबले में कहीं ज्यदा सभ्य, पढ़ा-लिखा और खूबसूरत नौजवान होने के बावजूद रणधीर के लिये फोर्ट के लगभग तमाम दरवाजे बंद हो चुके थे, क्योंकि उसकी चमड़ी सफेद नहीं थी. जंग के पहले रणधीर नागपाड़ा और ताजमहल होटल की कई मशहूर क्रिश्चियन छोकरियों से जिस्मानी रिश्ते कायम कर चुका था, उसे अच्छी तरह पता था कि इस किस्म के संबंधों के आधार पर वह उन क्रिश्चियन लड़कों के मुकाबले क्रिश्चियन लड़कीयों के बारे में कहीं ज्यदा जानकारी रखता था जिनसे ये छोकरियां फैशन के तौर पर रोमांस लड़ाती हैं और बाद में उन्हीं में से किसी बेवकूफ से शादी कर लेती हैं. रणधीर ने महज हैजल से बदला लेने की खातिर उस घाटन लड़की जो अलह्ड़ मस्त जवानी से भरी हुई जवान लड़की थी को ऊपर बुलाया था. हैजल उसके फ्लैट के नीचे रहती थी. वह रोज सुबह वर्दी पहनकर कटे हुए बालों पर खाकी रंग की टोपी तिरछे कोण से जमा कर बाहर निकलती थी और ऎसे बांकापन से चलती थी, जैसे फुटपाथ पर चलने वाले सभी लोग टाट की तरह उसके कदमों में बिछते चले जाएंगे. रणधीर सोचता था कि आखिर क्यों वह उन क्रिश्चियन छोकरियों की तरफ इतना ज्यदा रीझा हुआ है. इस में कोई शक नहीं कि वे मनचली लड़कियां अपने जिस्म की तमाम दिखाई जा सकने वाली चीजों की नुमाइश करती हैं. किसी किस्म की झिझक महसूस किये बगैर मनचली लड़की अपने कारनामों का जिक्र कर देती हैं. अपने बीते हुए पुराने रोमांसों का हाल सुना देती हैं. यह सब ठीक है, लेकिन किसी दूसरी जवान औरत में भी ये खूबियां हो सकती हैं. रणधीर ने जब घाटन लड़की को इसारे से ऊपर बुलाया था तो उसे इस बात का कतई अंदाज नहीं था कि वह उसे अपने साथ सुला भी लेगा. वह तो इसके वहां आने के थोड़ी देर के बाद उसके भीगे हुए कपड़े देखकर यह शंका मन में उठी थी कि कहीं ऎसा न हो कि बेचारी को निमोनिया हो जाए. सो रणधीर ने उससे कहा था, “ ये कपड़े उतार दो, सर्दी लग जाएगी ”. वह रणधीर की इस बात का मतलब समझ गई थी. उसकी आखों में शर्म के लाल डोरे तैर गए थे. फिर भी जब रणधीर ने अपनी धोती निकालकर दी तो कुछ देर सोचकर अपना लहंगा उतार दिया, जिस पर मैल भीगने के कारण और भी उभर आया था. लहंगा उतारकर उसने एक तरफ रख दिया और अपनी रानों पर जल्दी से धोती डाल ली. फिर उसने अपनी भींची-भींची टांगों से ही चोली उतारने की कोशिश की जिसके दोनों किनारों को मिलाकर उसने एक गांठ दे रखी थी. वह गांठ उसके तंदुरुस्त सीने के नन्हे लेकिन सिमटे गड्ढे में छिप गई थी. कुछ देर तक वह अपने घिसे हुए नाखूनों की मदद से चोली की गांठ खोलने की कोशिश करती रही जो भीगने के कारण बहुत ज्यदा मजबूत हो गई थी. जब थक हार के बैठ गई तो उसने मरठी में रनधीर से कुछ कहा, जिसका मतलब यह था, “ मैं क्या करुं, नहीं निकलती ”. रणधीर उसके पास बैठ गया और गांठ खोलने लगा. जब नहीं खुली तो उसने चोली के दोनों सिरे दोनों हाथों से पकड़कर इतनी जोर का झटका दिया कि गंठ सरसराती सी फैल गई और इसी के साथ दो धड़कती हुई छातियां एकाएक उजागर हो गईं. क्षणभर के लिये रण्धीर ने सोचा कि उसके अपने हाथों से उस घाटन की लड़की के सीने पर नर्म-नर्म गुंथी हुई मिट्टी को कमा कर कुम्हार की तरह दो प्यालियों की शक्ल बना दी है. उसकी भरी-भरी सेहतमंद उरोजों में वही धड़कन, वही गोलाई, वही गरम-गरम ठंडक थी, जो कुम्हार के हाथ से निकले हुए ताजे बरतनों में होती है. मटमैले रंग की उन कुंवारी और जवान औरत की उरोजों ने एक अजीब किस्म की चमक पैदा कर दी थी जो चमक होते हुए भी चमक नहीं थी. उसके सीने पर ये उभार दो दीये मालूम होते थे जो तालब के गंदेले पानी पर जल रहे होने का आभास दे रहे थे. बरसात के यही दिन थे. खिड़की के बाहर पीपल के पत्ते इसी तरह कंपकंपा रहे थे. उस घाटन लड़की के दोनों कपड़े, जो पानी से सराबोर हो चुके थे, एक गंदेले ढेर की सूरत में फर्श पर पड़े थे और वह घाटन की नंगी लड़की रणधीर के साथ चिपटी हुई थी. उसके नंगे बदन की गर्मी रणधीर के बदन में हलचल पैदा कर रही थी, जो सख्त जाड़े के दिनों मेम नाइयों के गलीज लेकिन गरम हमामों में नहाते समय महसूस हुआ करती है. दिन भर वह रणधीर के साथ चिपटी रही. दोनों एक दूसरे के साथ गड्डमड्ड हो गए थे. उन्होंने मुश्किल से एक दो बातें की होंगी, क्योंकि जो कुछ भी कहना सुनना था, सांसों, होंठों और हाथों से तय हो रहा था. रणधीर के हाथ सारी रात उसकी नर्म-नर्म उरोजों पर हवा के झोंकों की तरह फिरते रहे. उन हवाई झोंकों से उस घाटन लड़की के बदन में एक ऎसी सरसराहट पैदा होती थी कि खुद रणधीर भी कांप उठता था. इस कंपकंपाहट से रणधीर का पहले भी सैकड़ों बार वास्ता पड़ चुका था. वह काम वासना से भरी हुई लड़की के मजे भी बखूबी जानता था. कई लड़कियों के नर्म और नाजुक लेकिन सख्त स्तनों से अपना सीना मिलाकर वह कई रातें गुजार चुका था. वह ऎसी बिलकुल अल्हड़ लड़कियों के साथ भी रह चुका था जो उसके साथ लिपट कर घर की वे सारी बातें सुना दिया करती थीं जो किसी गैर कानों के लिये नहीं होतीं. वो ऎसी कमीनी लड़की से भी जिस्मानी रिश्ता कायम कर चुका था जो सारी मेहनत खुद करती थीं और उसे कोई तकलीफ नहीं देती थीं. उसे कई समाजिक रुप से बदचलन लड़की और बदचलन औरत का भी अनुभव था जिसे वह बहुत ही रुहानी मानता था. लेकिन यह घाटन की लड़की, जो इमली के पेड़ के नीचे भीगी हुई खड़ी थी और जिसे उसने इशारे से ऊपर बुला लिया था, बिलकुल भिन्न किस्म की लड़की थी. सारी रात रणधीर को उसके जिस्म से एक अजीब किस्म की बू आती रही. इस बू को, जो एक हीं समय में खुशबू थी और बदबू भी, वह सारी रात पीता रहा. उसकी बगलों से, उसकी छातियों से, उसके बालों से, उसकी चमड़ी से, उसके जवान जिस्म के हर हिस्से से यह जो बदबू भी थी और खूशबू भी, रणधीर के पूरे शरीर में बस गई थी. सारी रात वह सोचता रहा था कि यह घाटन लड़की बिलकुल करीब हो कर भी हरगिज इतनी करीब नहीं होती, अगर उसके जिस्म से यह बू न उड़ती. यह बू उसके मन-मस्तिष्क की हर सल्वट में रेंग रही थी. उसके तमाम नए-पुराने अनुभवों में रच-बस गई थी. उस बू ने उस लड़की और रणधीर को जैसे एक-दूसरे से एकाकार कर दिया था. दोनों एक-दूसरे में समा गए थे. उन अनंत गहराईयों में उतर गए थे जहां पहुंच कर इंसान एक खालिस इंसान की संतुष्टि से सरबोर होता है. ऎसी संतुष्टि, जो क्षणिक होने पर भी अनंत थी. लगातार बदलती हुई होने पर भी द्र्ढ और स्थायी थी, दोनों एक ऎसा जवाब बन गए थे, जो आसमान के नीले शून्य में उड़ते रहने पर भी दिखाई देता रहे. उस बू को, जो उस घाटन लड़की के अंग-अंग से फूट रही थी, रणधीर बखूबी समझता था, लेकिन समझे हुए भी वह इनका विश्लेषण नहीं कर सकता था. जिस तरह कभी मिट्टी पर पानी छिड़कने से सोंधी-सोंधी बू निकलती है, लेकिन नहीं, वह बू कुछ और हीं तरह की थी. उसमें लेवेंडर और इत्र की मिलावट नहीं थी, वह बिलकुल असली थी, औरत और मर्द के शारीरिक संबंध की तरह असली और पवित्र. रणधीर को पसीने की बू से सख्त नफरत थी. नहाने के बाद वह हमेशा बगलों वैगेरह में पाउडर छिड़कता था या कोई ऎसी दवा इस्तेमाल करता था, जिससे वह बदबू जती रहे, लेकिन ताज्जुब है कि उसने कई बार, हां कई बार, उस घाटन लड़की की बालों भरी बगलों का चुम्मा लिया. उसने चूमा और उसे बिलकुल घिन नहीं आई, बल्कि एक अजीब किस्म की तुष्टि का एहसास हुआ. रणधीर को ऎसा लगता था कि वह इस बू को जानता है, पहचानता है, उसका अर्थ भी पहचानता है, लेकिन किसी को समझा नहीं सकता. बरसात के यही दिन थे. यूं ही खिड़की के बाहर जब उसने देखा तो पीपल के पत्ते उसी तरह नहा रहे थे. हवा में फड़फड़ाहटें घुली हुई थी. अंधेरा थ, लेकिन उसमें दबी-दबी धुंधली – सी रोशनी समाई हुई थी. जैसे बरिश की बुंदों के सौ सितरों का हल्का-हल्का गुब्बारा नीचे उतर आया हो. बरसात के यही दिन थे, जब रणधीर के उस कमरे में सागवान का सिर्फ़ एक ही पलंग था. लेकिन अब उस से सटा हुआ एक और पलंग भी था और कोने में एक नई ड्रेसिंग टेबल भी मौजूद थी. दिन यही बरसात के थे. मौसम भी बिलकुल वैसा ही था. बारिश की बूंदों के साथ सितारों की रोशनी का हल्का-हल्का गुब्बार उसी तरह उतर रहा था, लेकिन वातावरण में हिना की तेज खूशबू बसी हुई थी. दूसरा पलंग खाली था. इस पलंग पर रणधीर औंधे मुंह लेटा खिड़की के बाहर पीपल के झुमते हुए पत्तों का नाच देख रहा था. एक गोरी – चिट्टी लड़की अपने नंगे जिस्म को चादर से छुपाने की नाकाम कोशिश करते करते रणधीर के और भी करीब आ गई थी. उसकी सुर्ख रेशमी सलवार दूसरे पलंग पर पड़ी थी जिसके गहरे सुर्ख रंग के हजार्बंद का एक फुंदना नीचे लटक रहा था. पलंग पर उसके दूसरे कपड़े भी पड़े थे. सुनहरी फूलदार जम्फर, अंगिया, जांधिया और मचलती जवानी की वह पुकार, जो रणधीर ने घाटन लड़की के बदन की बू में सूंघी थी. वह पुकार, जो दूध के प्यासे बच्चे के रोने से ज्यादा आनंदमयी होती है. वह पुकार जो स्वप्न के दायरे से निकल कर खामोश हो गई थी. रणधीर खिड़की के बाहर देख रहा था. उसके बिलकुल करीब पीपल के नहाये हुए पत्ते झूम रहे थे. वह उनकी मस्तीभरी कम्पन के उस पार कहीं बहुत दूर देखने की कोशिश कर रहा था, जहां गठीले बादलों में अजीब किस्म की रोशनी घुली हुई दिखाई दे रही थी. ठीक वैसे ही जैसे उस घाटन लड़की के सीने में उसे नजर आई थी ऎसी रोशनी जो पुरैसरार गुफ्तगु की तरह दबी लेकिन स्पष्ट थी. रणधीर के पहलू में एक गोरी – चिट्टी लड़की, जिसका जिस्म दूध और घी में गुंथे आटे की तरह मुलायम था, उस जवान औरत की उरोजों में मक्खान सी नजाकत थी. लेटी थी. उसके नींद में मस्त जवान लड़की के मस्त नंगे बदन से हिना के इत्र की खुशबू आ रही थी जो अब थकी-थकी सी मालूम होती थी. रणधीर को यह दम तोड़ती और जुनून की हद तक पहुंची हुई खुशबू बहुत बुरी मालूम हुई. उसमें कुछ खटास थी, एक अजीब किस्म की खटास, जैसे बदहजमी में होती है, उदास, बेरंग, बेचैन. रणधीर ने अपने पहलू में लेटी हुई लड़की को देखा. जिस तरह फटे हुए दूध के बेरंग पानी में सफेद मुर्दा फुटकियां तैरने लगती हैं, उसी तरह इस लड़की के दूधिया जिस्म पर खराशें और धब्बे तैर रहे थे और … हिना की ऊटपटांग खुशबू. दरअसल रणधीर के मन – मस्तिष्क में वह बू बसी हुई थी, जो घाटन लड़की के जिस्म से बिना किसी बहरी कोशिश के स्वयं निकल रही थी. वह बू जो हिना के इत्र से कहीं ज्यदा हल्की – फुल्की और रस में डूबी हुई थी, जिसमें सूंघे जाने की कोशिश शामिल नहीम थी. वह खुद – ब – खुद नाक के रास्ते अंदर घुस अपनी सही मंजिल पर पहुंच जाती थी. लड़की के स्याह बालों में चांदी के बुरादे के कण की तह जमे हुए थे. चेहरे पर पाउडर, सुर्खी और चांदी के बुरादे के इन कणों ने मिल – जुल कर एक अजीब रंग पैदा कर दिया था. बेनाम सा उड़ा – उड़ा रंग और उसके गोरे सीने पर कच्चे रंग की अंगिया ने जगह – जगह सुर्ख ध्ब्बे बना दिये थे. लड़की की छातियां दूध की तरह सफेद थी. उनमें हल्का – हल्का नीलापन भी थी. बगलों में बाल मुंड़े हुए थे, जिसकी वजह से वहां सुरमई गुब्बार सा पैदा हो गया था. रणधीर लड़की की तरफ देख-देख्कर कई बार सोच चुका था, क्यों ऎसा नहीं लगता, जैसे मैने अभी-अभी कीलें उखाड़कर उसे लकड़ी के बंद बक्से से निकाला हो? अमूमन किताबों और चीनी के बर्तनों पर जैसी हल्की हल्की खराशें पड़ जाती हैं, ठीक उसी प्रकार उस लड़की के नंगी जवान जिस्म पर भी कई निशान थी. जब रणधीर ने उसके तंग और चुस्त अंगिया की डोरियां खोली थी तो उसकी पीठ और सामने सीने पर नर्म – नर्म गोश्त की झुर्रियां सी दिखाई दी थी और कमर के चारों तरफ कस्कर बांधे हुए इजार्बद का निशान भी. वजनी और नुकीले नेक्लेस से उसके सीने पर कई जगह खराशें पड़ गई थीं, जैसे नाखूनों से बड़े जोर से खुजलाया गया हो. बरसात के यही दिन थे, पीपल के नर्म नर्म पत्तों पर बारिश की बूंदें गिरने से वैसी ही आवाज पैदा हो रही थी, जैसी रण्धीर उस दिन सारी रात सुनता रहा था. मौसम बेहद सुहाना था. ठंडी ठंडी हवा चल रही थी . उसमें हिना के इत्र की तेज खुशबू घुली हुई थी. रणधीर के हाथ देर तक उस गोरी लड़की के क्च्चे दूध की तरह सफेद स्तनों पर हवा के झोंकों की तरह फिरते रहे थे. उसकी अंगुलियों ने उस गोरे गोरे बदन में कई चिनगारियां दौड़ती हुई महसूस की थीम. उस नाजुक बदन में कई जगहों पर सिमटे हुए क्म्पन का भी उसे पता चला था. जब उसने अपना सीना उसके सीना के साथ मिलाया तो रणधीर के जिस्म के हर रोंगटे ने उस लड़की के बदन के छिड़े तारों की भी आवाज सुनी थी, मगर वह आवाज कहां थी? रणधीर ने आखिरी कोशिश के तौर पर उस लड़की के दूधिया जिस्म पर हाथ फेरा, लेकिन उसे कोई कपंकंपी महसूस नहीं हुई. उसकी नई नवेली दुल्हन, जो कमशीन कली थी, जो फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट की बेटी थी और जो अपने कालेज के सैकड़ों दिलों की धड़कन थी, रणधीर की किसी भी चेतना को छू न सकी. वह हिना की खुशबू में उस बू को तलाश रहा था, जो इन्हीं दिनों जब खिड़की के बाहर पीपल के पत्ते बारिश में नहा रहे थे, उस घाटन लड़की के मैले बदन से आई थी.