Thursday 31 October 2013

एनडीटीवी में भी काफी पक्षपात : राजेंद्र यादव


राजेंद्र यादव के साथ मेरी यह बातचीत वैसे तो वर्ष  2009 में भड़ास4मीडिया में प्रकाशित हुई थी लेकिन आज भी वह बेमुद्दे की नहीं।

-पूंजीवादी मीडिया के खिलाफ आज के दौर में जनता का पक्ष किस तरह सामने आना चाहिए? जैसा कि चुनाव के दिनों में काफी हल्ला रहा, लाखों-करोड़ों रुपये लेकर विज्ञापन को खबरों के रूप में छापने वाला क्या यह 'दलाल' मीडिया है? क्या उसके खिलाफ व्यापक जनाधार वाली मोरचेबंदी जरूरी नहीं होती जा रही है?
-देखिए, एक चीज है, ये सही है कि इस समय मीडिया का वर्चस्व है, खास तौर से दृश्य-मीडिया का। टीवी चैनल्स बिल्कुल छाए हुए हैं। सैकड़ों चैनल हैं और सैकड़ों आ भी रहे हैं। चैनलों की भीड़ में लोगों को समझ में नहीं आएगा कि कौन-सा देखें, कौन-सा नहीं देखें। इस समय सही बात ये है, जैसाकि अखबारों में निकला, हमारे यहां ('हंस' में) भी छपा, टीवी पर दिखा कि जब पैसा लेकर खबर बनाएंगे, दिखाएंगे तो बात बिल्कुल उल्टी हो जाएगी। जिससे जितना पैसा लिया, उसको उतना कवरेज दिया। प्रिंट मीडिया में भी, दृश्य में भी। लोगों ने अपने विरोधियों की खबर दबाने के लिए पैसे दिए। एक तरह से वो चुनाव का दंगल हो गया। सवाल ये है कि ये जो अंधेरगर्दी चल रही है, ये जो धुंआधार हो रहा है, तो अब इसके खिलाफ होना क्या चाहिए? एक तो ये जानिए कि दृश्य मीडिया मुख्य रूप से मध्यम वर्ग का है। वही इसका दर्शक और श्रोता है। तो उनका मीडिया है। यदि कोई अनहोनी हो जाए, तो ये राजेंद्र यादवमध्यवर्गीय लोग कभी भी भीड़ बनाकर टीवी चैनलों के दफ्तरों पर नहीं जाएंगे। ये घरों में रहेंगे, गाली देते रहेंगे और सोते रहेंगे। लेकिन कहते हैं न कि बाजार मजबूर कर देता है। आप अभिशप्त हैं, चीजें खरीदने के लिए। और वो निर्लिप्त हैं बेंचने के लिए।
देखिए कि मीडिया सिर्फ खबरें नहीं बेच रहा है, ये मीडिया सिर्फ मीडिया नहीं है, ये विज्ञापनों के माध्यम से कंज्यूमर्स को हजारों चीजें बेच रहा है। जो हम चाहते नहीं, जिसकी हमे जरूरत नहीं, वह भी हमे खरीदने के लिए ललचाता रहता है। ऐसे में या तो आपके पास एक समानांतर या पैरलल किस्म का मीडिया हो,  जो इसलिए संभव नहीं है कि ऐसे एक-एक मीडिया संस्थान स्थापित करने में सैकड़ो-सैकड़ो करोड़ की पूंजी लग रही है। वह संस्थान, चाहे प्रिंट का हो या दृश्य का। इतना कॉस्टली हो गया है कि जब तक आपके पास दो-तीन सौ करोड़ न हों, आप चैनल चलाने की बात ही नहीं सोच सकते हैं। अखबार तो भी सौ-पचास लाख में चला सकते हैं, लेकिन चैनल नहीं। इतनी पूंजी लगाने के बावजूद आप में क्षमता होनी चाहिए कि दो-तीन साल घाटा भी बर्दाश्त करें।
ऐसी स्थिति में दो ही विकल्प बचते हैं। क्योंकि पैरलल हम चला नहीं सकते। आज मैं जो चैनल देखता हूं, जो मुझे सबसे विश्वसनीय चैनल लगता है, एनडीटीवी है। वहां भी काफी पक्षपात दिखाई देता है। हो सकता है, वह विज्ञापन के रूप में प्रायोजित खबरों का पैसा न लेते हों। आपको शायद याद होगा। दो-तीन साल पहले हमने 'हंस' का एक विशेषांक खबरिया चैनलों पर प्रकाशित किया था। उसके बाद चैनल में काम करने वाले लेखकों की कहानियों पर एक किताब निकाली थी। उन कहानियों से जो सच सामने आया, पहली बार जान पड़ा कि चैनलों के भीतर अद्भुत कहानियां है। चैनलों के भीतर हालात भयानक हैं। कि कैसे एक घटना को बनाया जाता है, और उसको कवर करके उस पर हंगामा क्रिएट किया जाता है। जैसे चैनल्स के रिपोर्टर्स ने एक दूध वाले से कहा कि पहले हम तुम्हारे कपड़ों में आग लगा देंगे। इसके बाद फोटो खींचकर आग बुझा देंगे। आग लगा दी, बुझाया नहीं, उस पर फिल्म बनाने लगे और वह देखते ही देखते जिंदा जल गया। मर गया।
ऐसा पहले अमेरिकी मीडिया कर चुका है। पंद्रह-बीस साल पहले वहां का एक अखबार व्यवसायी था। बाद में उसका बेटा उसके साथ काम करने लगा। अखबार निकालने लगा। उसने नए धंधे का नया तोड़ निकाला। सत्य कथाओं का प्रकाशन। उसका बचपन का एक दोस्त था। उसने दोस्त से कांटेक्ट किया कि वह उसे सच्ची-ताजी अपराध कथाएं बताए, वह उन्हें ही छापेगा। सच्ची घटनाएं छपने लगीं। अखबार की मांग आसमान छूने लगी। फिर उससे कहा कि एक्सक्लूसिव खबरों के लिए तुम अपराध आयोजित करो। हम उनकी फोटो लेंगे, अब सचित्र छापा करेंगे। अब हुआ ये कि वे घटनाएं सबसे पहले उसके अखबार में छपने लगीं। धीरे-धीरे वह इतना पॉवरफुल हो गया कि उसकी तूती बोलने लगी। घटनाएं भी खूब होने लगीं। जो भी घटना होती, सबसे पहले उसके ही अखबार में छप जाती। उसी दौरान वहां किसी राष्ट्राध्यक्ष का प्रोग्राम बना। उसकी एक्सक्लूलिव खबर बनाने के लिए उन्होंने उसकी हत्या की साजिश रची। होता यह था कि उधर घटना होती, इधर पहले से खबर बना ली जाती। राष्ट्राध्यक्ष की हत्या की साजिश सफल नहीं हो सकी लेकिन मर्डर की पहले से तैयार खबर अखबार में छप गई। उसके बाद वह अखबार ऐसा ध्वस्त हुआ कि फिर कभी न उठ सका। जो अपने को सर्वशक्तिमान मान लेता है, किसी समय वह भी इसी तरह ध्वस्त होता है। यही हाल आज भारतीय मीडिया का होता जा रहा है। इनकी आपसी प्रतिद्वंद्विता से सूचनाओं को लेकर जिस तरह की मनमानी बढ़ती जा रही है, यही उनके विनाश का कारण भी बनेगी। ये पूंजीवादी मीडिया बाहरी नहीं, अपने आंतरिक कारणों से कभी बेमौत मरेगा। क्योंकि यह इतना बलवान हो चुका है कि किसी बाहरी मार से नहीं मरेगा। ये अपने ही अंतरविरोधों, आपसी 'युद्ध-प्रतिद्वंद्विता' या अपने बोझ से मरेगा। जैसाकि मार्क्स ने भी कहा है, पूंजीवाद अपनी मौत मरेगा, तो इस वैभवशाली मीडिया पर भी वही बात लागू होती है। तो इस खबरफरोश मीडिया के खिलाफ जनता की ओर से बस यही उम्मीद की जा सकती है। जहां तक इस मीडिया के जनता के साथ खड़े होने की बात है, यह किसी आंदोलन को खड़ा कर सकता है, लेकिन उसके साथ खड़ा नहीं हो सकता। यही इसके बाजार और अस्तित्व का तकाजा है।

-उदय प्रकाश सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करने लगे हैं। उनके खिलाफ लेखकों ने बहिष्कार का ऐलान किया। वह हर तरह की राजनीतिक विचारधारा से अपने को मुक्त घोषित कर रहे हैं? इस पर आपका क्या सोचना है?
जब उदय प्रकाश के खिलाफ लेखकों की सूची जारी की गई थी, मुझसे भी समर्थन मांगा गया था। मैं उस समय तक कुछ जानता नहीं था। मैंने उनसे पूछा था और कहा था कि जब तक कोई बात मैं पूरी तरह न जान लूं, उस पर कुछ कहने की स्थिति में नहीं हूं। मैं पहले पता करूंगा कि आखिर सही बात क्या है?  जो लोग उस सूची में मेरा नाम भी शामिल करना चाहते थे, बाद में उनकी बातों की पुष्टि हो गई।
देखिए, उदय प्रकाश बहुत बेजोड़ साहित्यकार हैं। यदि इस समय हिंदी कथाकारों में कोई एक नाम लेना हो, तो वह हैं उदय प्रकाश। लेकिन जरूरी नहीं है कि व्यक्तिगत रूप से भी वह वैसे ही बेजोड़ हों। वह इस समय 'आत्म-प्रताड़ना' जैसी बीमारी के शिकार हैं। उन्हें लगता है कि उनके खिलाफ सब लोग षड्यंत्र करते हैं, उन्हें सब लोग सताते हैं, उन्हें पुरस्कार नहीं देते, उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार नहीं मिला, उन्हें कोई नौकरी नहीं दे रहा, आदि-आदि। बराबर, चौबीसो घंटे उनकी यही शिकायतें रहती राजेंद्र यादवहैं। ये जो चीजें हैं, हमेशा आत्म-दया, आत्म-करुणा, कुंठा कि सारी दुनिया उनके खिलाफ है, उसका कारण वो ये मानते हैं कि बाकी जो हिंदी वाले लोग हैं, बहुत टुच्चे हैं, अनपढ़ लोग हैं, बेवकूफ हैं और सिर्फ वे (उदय प्रकाश) ही एक महान लेखक हैं। सिर्फ उन्होंने ही अच्छी किताबें लिखी हैं, बाकी सब उल्लू के पट्ठे हैं, उनसे जलते और उनके रास्ते की बाधा हैं। जब वह इस तरह सोचेंगे, इस तरह की बातें करेंगे तो क्या कहा जाए!
गोरखपुर वाले प्रकरण पर एक बार मेरे पास भी उनका फोन आया। छूटते ही उन्होंने मुझसे सवाल किया कि ये सब क्या हो रहा है? मैंने कहा, हो क्या रहा है, जैसा कर रहे हो, वैसा हो रहा है। वे कहने लगे, मेरा वह पारिवारिक मामला था, मेरे भाई की स्मृति में वह कार्यक्रम हुआ था। उनकी बरसी का आयोजन था। मैं उसमें गया था। तो, मैंने उनसे पूछा कि जब वह निजी कार्यक्रम था तो सार्वजनिक तरीके से क्यों आयोजित किया गया। यदि सार्वजनिक तरीके से हुआ तो पर्सनल कैसे रहा? क्या आप जानते नहीं थे कि वह योगी आदित्यनाथ 'वहां का भयंकर हत्यारा, गुंडा, बीजेपी का बदमाश' भी वहां मंच पर बैठा था? और आपने उसके हाथ से पुरस्कार ले लिया, क्यों? क्या यह सब अनजाने में हो गया?  इतने मासूम, इतने दयनीय मत बनो। मैंने उस दिन उदय प्रकाश को बहुत डांटा था। तुम्हारे भीतर एक ऐसी कुंठा है, जो लगता है कि हर आदमी तुम्हारे खिलाफ षड्यंत्र करता है। मेरा खयाल है कि तुम खुद अपना कोई रास्ता तलाश लो। मुझे लगता भी है कि वह कोई नया रास्ता तलाश रहे हैं।
वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करते हैं। सवाल उठता है कि उदय प्रकाश जैसा प्रबुद्ध लेखक क्या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का मतलब नहीं जानता? वह उसका समर्थन कर रहा है तो उसका क्या मतलब है? या तो उसे अवसरवादी कहेंगे या कुछ और। मैं कहना नहीं चाहता, लेकिन गांव का एक बड़ा वैसा मुहावरा है कि 'सबसे सयाना कौवा, सबसे ज्यादा गू खाता है'। पक्षियों में सबसे सयाना। गंदी चीजों पर सबसे ज्यादा चोंच मारता फिरता है, हर जगह।
सुना है कि अब वह अपने समस्त राजनीतिक सरोकार खत्म कर लेने की बातें भी करने लगे हैं....कि किसी राजनीतिक विचारधारा के लिए प्रतिबद्ध नहीं, कि किसी भी तरह की राजनीतिक तानाशाही के खिलाफ हैं, आदि-आदि। तो राजनीतिक विचारधारा और राजनीतिक तानाशाही, दोनों अलग-अलग दो बाते हैं। एक बाहर से है, दूसरी खुद की। लेखक के साथ कोई राजनीतिक तानाशाही न हो, यह एक ठीक बात है, लेकिन लेखक कहे कि मेरी कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं है, ये अलग बात हो गई। और ये दोनों परस्पर विरोधी बातें हैं। जब वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करते हैं तो क्या वह उनके राजनीतिक विचारों का संकेत नहीं? क्या वह नहीं जानते कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद राजनीतिक बात है, और किस तरह के लोगों की राजनीतिक विचारधारा की बात है?  अगर मैं उदय प्रकाश के बारे में इन बातों को सही मानूं तो मैं उनसे एक बात कहना चाहूंगा कि 'कोई भी नया कपड़ा पहनने से पहले अपने सारे कपड़े उतार कर नंगा होना पड़ेगा'!

-विचारधारा को लेकर एक सवाल आप पर भी बनता है। आपने कहीं कहा है कि विचारधारा नृशंस बनाती है। कैसे?
देखिए, उस बातचीत के दौरान मुझे ऐसा लगा था। अभी भी लगता है। लड़ने के लिए, युद्ध के लिए, और उसके बाद उन विचारों के हिसाब से जो शासन प्रणाली बनती है, तो वह उस राज्य के माध्यम से अपने विचारों को लोगों पर लागू करने की अवांछित कोशिशें ज्यादा करती है। जिन विचारों की दृढ़ता के साथ आप कोई संघर्ष करते हैं, लड़ते हैं, युद्ध करते हैं, युद्ध जीत जाने के बाद जब आप शासन में आएंगे, तो उसी एक-पक्षीय वैचारिक नृशंसता के साथ अपनी शासन प्रणाली चलाना चाहेंगे। जैसे आज माओवादी, जिस साहस, एकता और हिम्मत से लड़ रहे हैं, शासन में आ जाने के बाद वह उसी मजबूती से अपने विचारों को लागू करना चाहेंगे। जहां-जहां इस्लामी शासन प्रणाली आई, वहां भी ऐसा हुआ। उनकी नजर में, उनके विचारों के हिसाब से जो काफिर थे, दमन का शिकार हुए। लेकिन हमारे यहां बात दूसरी है। जब संग्राम होता है तो उसके नायक दूसरे होते हैं, सत्ता में आ जाने के बाद दूसरे। जैसे महात्मा गांधी। जब स्वतंत्रता सेनानी गांधीवादी तरीके से संग्राम जीत कर राजसत्ता में आगे तो गांधी चले गए। हमने जो प्रजातंत्र की शासन प्रणाली अपनाई, वो शब्दशः वैसी नहीं थी, जैसा गांधी जी चाहते, कहते थे। गांधी जी व्यक्ति-केंद्रित थे। वह उस समय की पैदाइश थे, जब सारी चीजें व्यक्ति-केंद्रित होती थीं। अहिंसा तो सिर्फ कहने को उनका राजनीतिक अस्त्र था।

-गांव के प्रश्न 'हंस' से नदारद क्यों रहते हैं? वहां के प्लेटफॉर्म से स्त्री-प्रश्न, दलित-प्रश्न, अश्लीलता के प्रश्न ज्यादा हावी दिखते हैं, जबकि प्रेमचंद की स्मृति-धरोहर होने के नाते भी, 'हंस' को आज के गांवों की दशा पर सबसे ज्यादा तल्ख और मुखर होना चाहिए। यह तटस्थता, गांवों के प्रति यह उदासीनता क्यों?
बात सही है। चूंकि मैं गांव का सिर्फ रहा भर हूं, लेकिन सचेत जीवन शहरी रहा है। सीधे संपर्क नहीं रहा। मेरे संपादक होने के नाते हंस के साथ एक बात यह भी हो सकती है। हालांकि ऐसी कोई बात नहीं कि अपने समय के गांव को रचनाकार के रूप में मैंने महसूस नहीं किया है। पैंतालीस सालों शहर में रह रहा हूं। हंस के साथ सबसे बड़ा कंट्रीब्यूशन भी शहरी मध्यवर्ग का है। अब सवाल उठता है कि हम गांव के बारे में लिखें या गांव के लोग लिखें। यदि गांव से कोई गांव के बारे में लिखे तो बहुत ही अच्छा, लेकिन ऐसा हो कहां रहा है? ऐसा संभव भी नहीं लगता है। प्रेमचंद ने होरी के बारे में लिखा। किसी होरी को पता ही नहीं कि उसके बारे में भी किसी ने कुछ लिखा है। ये तो शहरों में बैठकर हम लोग न उसकी करुणा और दुर्दशा की फिलॉस्पी गढ़ रहे हैं। आज गांवों से कुछ लोग लिख रहे हैं। वे कौन-से लोग हैं? वे, वह लोग हैं, जो गांव में फंसे हैं, किसी मजबूरी या अन्य कारणों से। या कहिए कि जिन्हें शहरों में टिकने की सुविधा नहीं मिल पाई, गांव लौट गए और वहीं रह गए हैं। मजबूरी में वही गांव में रह राजेंद्र यादवकर गांव के बारे में लिख रहे हैं। और ये वे लोग नहीं हैं, जो गांवों में रम गए हैं।
फिर भी, हमारे यहां हंस में आज भी सत्तर फीसदी कहानियां गांव पर होती हैं। मैं अपने को प्रेमचंद, टॉलस्टॉय और गोर्की की परंपरा में मानता हूं। तो मुझे तो रूसी समाज पर लिखना चाहिए। क्यों? या मेरे समय में प्रेमचंद का गांव तो नहीं? मेरे लिए अपने समय के मानवीय संकट ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, वह गांव के हों या शहर के। प्रेमचंद ने गांव पर लिखा। यहां प्रेमचंद के गांव से ज्यादा बड़ी और महत्वपूर्ण होती है 'प्रेमचंद की चिंता' गांव के बारे में। यशपाल ने गांव पर नहीं लिखा, लेकिन मैं उन्हें प्रेमचंद की परंपरा का मानता हूं, क्योंकि उनकी रचना में जो मानवीय संघर्ष, मानवीय स्थितियां परिलक्षित होती हैं, हमे सीधे उसी गांव के सरोकारों तक ले जाती हैं। तो हंस के साथ गांव की बात जोड़कर एक लेखक के विषय को लेकर हम कंफ्यूज कर रहे हैं। आज मेरा समाज वो नहीं है, जो प्रेमचंद का था। मैंने 'प्रेमचंद की विरासत' के नाम से एक किताब भी लिखी है। आज आवागमन दोनों तरफ से है। गांव शहर में बढ़ता जा रहा है, शहर गांव में घुसता जा रहा है।

-'हंस' के संपादक के रूप में आपको वेब मीडिया, ब्लॉगिंग, न्यूज पोर्टल का कैसा भविष्य दिखता है? क्या पूंजीवादी मीडिया के दायरे पर एक बड़ा हस्तक्षेप नहीं है?
नहीं। कोई हस्तक्षेप नहीं। इसका भविष्य तभी मजबूत होगा, जब ये एकजुट हो जाएंगे। तभी हस्तक्षेप संभव हो सकता है। अलग-अलग रहकर नहीं। पैरलल तभी बनेंगे, जब एकजुट होंगे। हजारों-लाखों ब्लॉग, पोर्टल देखना किसी एक के लिए संभव नहीं। न किसी के पास इतना समय है। लेकिन हां, पैरलल हस्तक्षेप बहुत जरूरी है, इसको कामयाब और एकजुट होना ही चाहिए। इस दिशा में कोशिश करनी चाहिए।

Friday 25 October 2013

पत्रकारिता कल, आज और कल


अंचल ओझा

किसी ने शायद ठीक ही कहा है “जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो” हमने व हमारे अतीत ने इस बात को सच होते भी देखा है। याद किजिए वो दिन जब देष गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था, तब अंग्रेजी हुकूमत के पांव उखाड़ने देष के अलग-अलग क्षेत्रों में जनता को जागरूक करने के लिये एवं ब्रिटिष हुकूमत की असलियत जनता तक पहुंचाने के लिये कई पत्र-पत्रिकाओं व अखबारों ने लोगों को आजादी के समर में कूद पड़ने एवं भारत माता को आजाद कराने के लिए कई तरह से जोष भरे व समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का बाखूबी से निर्वहन भी किया। तब देष के अलग-अलग क्षेत्रों से स्वराज्य, केसरी, काल, पयामे आजादी, युगान्तर, वंदेमातरम, संध्या, प्रताप, भारतमाता, कर्मयोगी, भविष्य, अभ्युदय, चांद जैसे कई ऐसी पत्र-पत्रिकाओं ने सामाजिक सरोकारों के बीच देषभक्ति का पाठ लोगों को पढ़ाया और आजादी की लड़ाई में योगदान देने हेतु हमें जागरूक किया। आज यदि लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ कहे जाने वाले मीडिया की भूमिका पर बात की जाये, तो समाज में मीडिया की भूमिका पर कई तरह के सवाल वर्तमान में उठाये जा सकते हैं, अतीत में इसी मीडिया के पीठ थपथपा सकते हैं, तो भविष्य के लिये एक नई सोच जागृत करने का प्रयत्न कर सकते हैं। जब भी मीडिया और समाज की बात की जाती है तो मीडिया को समाज में जागरूकता पैदा करने वाले एक साधन के रूप में देखा जाता है, जो की लोगों को सही व गलत करने की दिषा में एक प्रेरक का कार्य करता नज़र आता है। वर्तमान परिपेक्ष्य में भय, भूख, भ्रष्टाचार व महंगाई से त्रस्त जनता का “अन्ना हजारे” के आंदोलन को देषभर में व्यापक जन समर्थन मिलना मीडिया के कारण ही संभव हो सका है अर्थात् यह भी कह सकते हैं कि ”जनलोकपाल“ पर लोगों को एकजुट करने में मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है, लेकिन दूसरी ओर इसी का दूसरा पक्ष यह भी है कि भ्रष्टाचार के कई मुद्दों पर मीडिया घरानों की कई प्रमुख हस्तियों के नाम आने के बाद मीडिया की किरकिरी को भी इस जन आंदोलन में मीडिया ने जनता का साथ देकर दबाने का प्रयास किया है। कुल मिलाकर देखा जाये, तो आज के परिपेक्ष्य में मीडिया की स्थिति एक बिचौलिये से कम नहीं है, आज मीडिया केवल और केवल बिचौलिये का कार्य करने में लिप्त है।  जैसे-जैसे विकास एवं आधुनिकता के नये-नये आयाम स्थापित होते जा रहे है, ठीक उसी प्रकार मीडिया की निष्पक्षता तथा समाचार को जनता के बीच प्रसारित करने की तकनीक में भी कई तरह के परिवर्तन एवं उसकी निष्पक्षता पर सवाल उठना लाजमी है। वर्तमान में मीडिया जगत में युवाओं की चमक-दमक काफी बढ़ी है, अब इसे युवक-युवतियां अपने उज्जवल कैरियर के रूप में देखने लगे हैं। चमकता-दमकता कैरियर, नेम-फेम की चाह ने युवाओं को काफी हद तक इस ओर खीचा है, जिससे हजारों युवा पत्रकार बनने की चाह लेकर मीडिया जगत में आ रहे हैं और नित्य नये-नये पत्र-पत्रिकाएँ व न्यूज चैनल भी सामने आ रहे हैं। लेकिन समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन कर पाने में आज ये काफी पीछे रह गये हैं। आज ये पत्रकार उद्योगपतियों व राजनीतिज्ञांे के आगे घुटने टेके नज़र आते हैं। सामाजिक सरोकारों से इतिश्री करने के साथ ही पैसा कमाने की होड़ में आम जनता का दर्द व उनकी परेषानियां उद्योग घरानों व राजनीतिज्ञों के रूपये के आगे दबकर रह गये हैं। यहीं कारण है कि पत्रकारिता की निष्पक्षता को लेकर पत्रकार खुद जनता के कटघरे में खड़ा है। जिस पेज व समय पर संपादकीय की जरूरत होती है, वहां आज नेताओं, उद्योगपतियों व अन्य रूपये-पैसे वालों के कसीदे पढ़ी जाती हैं। ज्वलंत मुद्दों पर त्वरित टिप्पणी पढ़ने व देखने वाली जनता को अब पेज-3 व नेताओं, उद्योगपतियों के विज्ञापन व साक्षात्कार पढ़कर व देखकर काम चलाना पड़ता है। जिस पेज पर कल तक खोजी पत्रकारों के द्वारा ग्रामीण पृष्ठभूमि की समस्या, ग्रामीणों की राय व गांव की चौपाल प्रमुखता से छापी जाती थी, वहीं आज फिल्मी तरानों की अर्द्धनग्न तस्वीरें नज़र आती हैं। क्योंकि आधुनिकता व वैष्वीकरण के इस दौर में इन पत्र-पत्रिकाओं व नामी-गिरामी न्यूज चैनलों को ग्रामीण परिवेष से लाभ नहीं हो पाता और सरोकार भी नहीं है। इसलिए वे धीरे-धीरे इससे दूर भाग रहे हैं और औद्योगीकरण के इस दौर में पत्रकारिता ने भी सामाजिक सरोकारों को भुलाते हुए उद्योग का रूप ले लिया है। यही कारण है कि देष में बड़े-बड़े भ्रष्टाचार हो जाते हैं और मीडिया कुछ भी कहने से बचती नज़र आती है, क्योंकि भ्रष्टाचार में भी 2-जी स्पेक्ट्रम मामले में नीरा राडिया, प्रभू चावला व संसद नोट कांड में राज सर देसाई सहित कई अन्य मामलों में उच्च मीडिया घरानों के बरखा दत्त जैसे सक्सियतों के नाम प्रमुखता से आ रहे हैं, जिसके कारण मीडिया ने मौन रूख अपनाते हुए राजनीतिज्ञों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना शुरू कर दिया है और सामाजिक सरोकार व जनजागरूकता नामक जानवर को एक कोने पर रख कर अपनी भलाई समझने की भूल कर रहा है। अपनी शुरूआत के दिनों में पत्रकारिता हमारे देष में एक मिषन के रूप में जन्मी थी। जिसका उद्ेष्य सामाजिक चेतना को और अधिक जागरूक करने का था, तब देष में गणेष शंकर विद्यार्थी जैसे युवाओं की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक आजादी के लिये संघर्षमयी पत्रकारिता को देखा गया, कल के पत्रकारों को न यातनाएं विचलित कर पाती थीं, न धमकियां। आर्थिक कष्टों में भी उनकी कलम कांपती नहीं थी, बल्कि दुगुनी जोष के साथ अंग्रेजों के खिलाफ आग उगलती थी, स्वाधीनता की पृष्ठ भूमि पर संघर्ष करने वाले और देष की आजादी के लिये लोगों मंे अहिंसा का अलख जगाने वाले महात्मा गांधी स्वयं एक अच्छे लेखक व कलमकार थे। महामना मालवीय जी ने भी अपनी कलम से जनता को जगाने का कार्य किया। तब पत्रकारिता के मायने थे देष की आजादी और फिर आजादी के बाद देष की समस्याओं के निराकरण को लेकर अंतिम दम तक संघर्ष करना और कलम की धार को अंतिम दम तक तेज रखना। इसका अंदाजा आज केवल एक उदाहरण सा लगता है:- बात सन् 1907 की है, तब देष भर में “स्वदेषी आंदोलन” चल रहा था, उसी दरम्यान इलाहाबाद से श्री शांति नारायण भटनागर ने अपनी जमीन-जायदाद बेच कर “स्वराज्य” नामक अखबार निकाला और अंग्रेजों के खिलाफ कलम की धार को उग्र किया, उन्हें 3 वर्ष के लिये कैद की सजा तथा जुर्माना ना पटाने पर 6 माह अतिरिक्त सजा मिली। इसके बाद “स्वराज्य” के सम्पादक हुए श्री रामदास (प्रकाषानंद सरस्वती), इनके बाद बाबू रामहरि। इसके बाद तो यह सिलसिला चलता ही रहा एक सम्पादक गिरफ्तार होता तो दूसरा उसकी जगह ले लेता, इसी क्रम में बाबू रामहरि को 21 वर्ष की कैद, मुंषी रामसेवक को अण्डमान में कैद, नन्द गोपाल चोपड़ा को 30वर्ष देष से निर्वासन की सजा, लद्धा राम कपूर ने तीन अंक ही निकाला था कि उन्हें भी 30 वर्ष की कालेपानी की सजा हुई। इसके बाद अमीर चन्द बम्बवाल ने स्वराज्य का प्रकाषन शुरू किया। अमीर चन्द बम्बवाल ने अखबार में विज्ञापन दिया कि “सम्पादक चाहिए, वेतन त्र दो सूखी रोटियां, गिलास भर पानी और हर सम्पादकीय लिखने पर दस वर्ष के कालेपानी की सजा।” इसके बाद भी एक-एक कर आठ सम्पादक और हुए जिन्हें कुल 125 वर्ष कालेपानी की सजा दी गई, लेकिन इसके बावजूद स्वराज्य का प्रकाषन निरंतर जारी रहा और आमजनों में आजादी के जिये जागरूकता का संचार लगातार होता रहा। लेकिन आज के इस दौर में पत्रकारिता कहां पर है और आमजनों को उनकी समस्या का हल कौन देगा यह बताने वाली पत्रकारिता अपने आप से आज यह सवाल पूछ रही है कि मैं कौन हूँ? आज देष आतंकवाद, नक्सलवाद जैसी गंभीर समस्याओं से जूझ रहा है, लेकिन इससे निपटने के लिये आमजनों को क्या करना चाहिए, सरकार की क्या भूमिका हो सकती है, सहित कई मुद्दों पर मीडिया आज मौन रूख अख्तियार किये हुये है। लेकिन वहीं दूसरी ओर आतंकी गतिविधियों से लेकर नक्सली क्रूरता को लाइव दिखाने में भी यह मीडिया पीछे नहीं है, यहां तक की आज सर्वप्रथम किसी खबर को दिखाने की होड़ में मीडिया के समक्ष आतंकी व नक्सली हमला के तुरंत बाद ही हमला करने वाले कमाण्डर व अन्य आरोपियों के फोन व ई-मेल तक आ जाते हैं। न्यूज चैनलों से लेकर अखबारों में आतंकियों व नक्सलियों के इण्टरब्यू छप जाते हैं। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि बार-बार व प्रतिदिन इस समाचार को दिखाने व छापने से फायदा किसका होता है, आमजनता का, पुलिस का, नक्सली व आतंकी का या फिर मीडिया घरानों का। निष्चित रूप से इसका फायदा मीडिया व इन देषद्रोही तत्वों (आतंकी व नक्सली) को होता है, जिन्हें बिना किसी कारण से बढ़ावा मिलता है, क्यांेकि बार-बार इनको प्रदर्षित करने से आमजनों व बच्चों में संबंधित लोगों के खिलाफ खौफ उत्पन्न हो जाता है और ये असामाजिक तत्व चाहते भी यही हैं। इसलिये आज जरूरी है कि मीडिया और इसको चलाने वाले ठेकेदारों को यह तय करना होगा, कि मीडिया ने सामाजिक सरोकारों को दूर करने में कितनी कामयाबी हासिल की है, यह उन्हें खुद ही देखना व समझना होगा। ऐसा भी नहीं है कि मीडिया ने सामाजिक सरोकारों को एकदम से अलग कर दिया है लेकिन लगातार मीडिया की भूमिका कई मामलों में संदिग्ध सी लगती है। कई विषयों जहां पर उन्हें न्याय दिलाने की जरूरत होती है एवं लोगों को मीडिया से यह अपेक्षा होती है, कि मीडिया के द्वारा उनकी मांगों व समस्याओं पर विषेष ध्यान देते हुए समस्या का समाधान किया जायेगा, ऐसे कई मौकों पर मीडिया की भूमिका से लोगों को काफी असहज सा महसूस होता है। कभी-कभी तो ऐसा भी महसूस किया जाता है कि कुछ मीडिया घराना मात्र किसी एक व्यक्ति, पार्टी व संस्था के लिये ही कार्य कर रही है, अतः मीडिया को एक बार फिर से ठीक उसी तरह निष्पक्ष होना पड़ेगा, जिस तरह की आजादी के पहले व अभी कुछ आंदोलनों में जनता के साथ देखा गया। 

Tuesday 22 October 2013

नमो इंडस्ट्री से 500 करोड़ के वारे-न्यारे


पहले कुर्ते, फिर ऐक्शन विडियो गेम, फिर मिठाइयां, फिर टी स्टॉल्स, फिर विडियो ऐल्बम और अब नमो सैफरन एक्स नाम का स्मार्ट फोन लॉन्च। ‘नमो’ प्रॉडक्ट पर काम कर रही एक कंपनी का दावा है कि ब्रैंड नरेंद्र मोदी को समर्पित नमो सैफरन एक्स नाम का स्मार्टफोन आईफोन 5 को टक्कर देगा। जानकारों की मानें तो ‘नमो’ इंड्स्ट्री का कुल कारोबार 500 करोड़ के नेट वर्थ भी क्रॉस सकता है। नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बनेंगे या नहीं, यह तो वक्त बताएगा, लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि वह बहुत बड़े देसी ब्रैंड बन चुके हैं। स्मार्ट ‘नमो’ सीरीज में यह स्मार्टफोन चीन बेस्ड कंपनी ने लॉन्च किया है। कंपनी के स्पोक्सपर्सन अनमीत देसाई का तो यहां तक दावा है, ‘आईफोन 5 की 1 जीबी रैम के मुकाबले इसमें 4 जीबी रैम है। रेग्युलर कोर्निंग ग्लास के बजाय अत्याधुनिक सैफायर ग्लास लगा है और इसकी कीमत भी इतनी कम है कि इसे कोई भी खरीद सकता है।’ देसाई अकेले बिजनसमैन नहीं हैं जो ‘नमो’ इंडस्ट्री से करोड़ों बनाने की जुगत में लग गए हैं। जानकारों की माने तो दर्जनों कारोबारी ‘नमो’ इंडस्ट्री को भुना रहे हैं और यह संभवत: 400 से 500 करोड़ का कारोबार है जिसके दिनों-दिन बढ़ने की ही संभावना है। अहमदाबाद की एक अपैरल चेन, सूरत के साड़ी कारोबारी, लुधियाना का एक निटवेयर ग्रुप, जामनगर का मिठाईवाला, पटना में जगह-जगह लगे टी स्टॉल मालिक, छोटे-बड़े कारोबारी ‘नमो’ इंडस्ट्री के जरिए मुनाफा कमाने की होड़ में हैं। बीजेपी की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी के नाम पर कुर्ता तो बाकायदा रजिस्टर्ड ट्रेडमार्क जेड ब्लू (Jade Blue) है। मोदी कुर्ता 20 रंगों में और 12 तरह के स्टाइल्स में बिकता है। गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के 18 रीटेल आउटलेट्स पर मोदी कुर्ता धड़कल्ले से बिक रहा है। ब्रिटेन के गुजरातियों के अलावा अमेरिका और ईस्ट अफ्रीका के गुजरातियों के बीच इन कुर्तों की बहुतायत में डिमांड है। मोदी के नाम पर फलते-फूलते ‘नमो उद्योग’ का जिक्र हम पहले भी कर चुके हैं लेकिन अब चुनाव के मद्देनजर मोदी सामानों की डिमांड और ज्यादा बढ़ गई है। एक अमेरिकी कंपनी ने मोदी को केंद्र में रखकर एक ऐक्शन विडियो गेम बनाई है जो कि एंड्रॉयड फोन्स पर खूब चर्चित हो रही है। सूरत में बिक रही ब्रैंड मोदी साड़ियों पर स्टिकर लगे हैं- मोदी लाओ, देश बचाओ। जामनगर में एक दुकानदार नमो पेड़े बेच रहा है जिस पर मोदी की तस्वीर भी बनाने की कोशिश की गई है। हरियाणा के लोकगीत गायक रॉकी मित्तल ने मोदी से जुड़े 8 गानों की एक ऐल्बम तक निकाल ली है। दुकानदार मोदी जलेबी बेच रहे हैं और पटना में मोदी फॉलोइंग के साथ एक अग्रीमेंट के तहत बाकायदा चाय वालों ने अपनी दुकानों के नाम तक मोदी के नाम पर रख लिए हैं। बेंगलुरु के एक सीए ने नमो विडियो रैप नाम से एक वि़डियो पिछले दिनों बनाया जो अब तक वायरल हो चुका है। सूत्रों का कहना है अहमदाबाद में ‘नमो’ स्टोर्स खुल चुके हैं और ये जल्द ही 18 शहरों में फैला दिए जाएंगे, ऐसा दावा है। नैशनल इंस्टिट्यूट ऑफ डिजाइन के स्टूडेंट्स इनका लुक तैयार करेंगे। बीजेपी ने दिल्ली के एक कॉरपोरेट गिफ्ट सेलिंग ग्रुप ने हाथ-घड़ियां और दीवार-घड़ियां बनाने के लिए राजी कर लिया है। मोदी पर किताब छपवाने के लिए बीजेपी ने एक कॉमिक बुक राइटर तक से बात कर ली है। मोदी लॉयन नाम से शेर का खिलौना बनाने के लिए एक टॉय कंपनी को भी अप्रोच किया गया है। 200 -250 करोड़ के रीटेल बिजनस के अलावा मोदी का पीआर बजट (जनसंपर्क या प्रचार के लिए तय किया बजट) 80 करोड़ रुपए के लगभग है। बीजेपी परंपरागत प्रचार के लिए मोदी पर 150 रुपए इस सबके अलावा भी खर्च करेगी। इस पूरी रकम के अलावा 20 करोड़ रुपए मोदी के नाम पर डिजिटल मीडिया में प्रचार के लिए अलग से रखे गए हैं। मोदी के इर्द गिर्द फल-फूल रही इंडस्ट्री को ट्रैक कर रहे एक ब्रैंड स्ट्रैटिजी स्पेशलिस्ट ने यह जानकार दी। एक और एक्सपर्ट के अनुसार, मोदी इंडस्ट्री 300 से 350 करोड़ रुपए की हो सकती है। और यह रकम बीजेपी के ऐड बजट और पीआर बजट से अलग है। बीजेपी के नैशनल ट्रैजरार पीयूष गोयल इस बारे में कुछ भी बताने के लिए मौजूद नहीं थे। ‘नमो’ प्रचार के लिए इंटरनेट पर भी काफी खर्च किया जा रहा है। मोदी की वेबसाइट के अलावा फेसबुक, ट्विटर, गूगल प्लस, यू ट्यूब, पिनट्रेस्ट पर भी मोदी का प्रचार किया जा रहा है। मोदी के टेक टीम ने उन्हें फ्लिकर और टंबलर के अलावा स्टंबलअपॉन पर भी पहुंचा दिया है। (राधा शर्मा, चित्रा उन्नीथन, रूना मुखर्जी और पठानकोट की रिपोर्ट नवभारत टाइम्स से साभार)

Saturday 12 October 2013

रोबोट करे तुकबंदी – सोलह भाषाओं में


रूसी इंजीनियरों ने एक ऐसा रोबोट बनाया है जो किसी भी शब्द की तुक से तुक मिलाता शब्द खोज सकता है| उन्होंने इसका नाम रखा है “आय-दा-पुश्किन”, जिसका अर्थ है “वाह रे पुश्किन”| बात यह है कि रूसी महाकवि पुश्किन जब कविता लिखते हुए कोई बढ़िया पंक्ति बना लेते थे तो खुद अपने को कहा करते थे: “वाह रे पुश्किन”| यह रोबोट हर शब्द की ताल पर मुंह खोलता है और उसकी तुकबंदी में सोलह भाषाओं के शब्द पेश करता है| इसके अलावा उसे पुश्किन की 200 कविताएं “कंठस्थ” हैं और जब कोई व्यक्ति उसके पास आता है तो वह इनका “पाठ” करने लगता है|
अभी तो यह रोबोट कवि की आवक्ष मूर्ति की शक्ल का बनाया गया है, पर शीघ्र ही इसका चेहरा कवि से बहुत अधिक मिलता-जुलता बना दिया जाएगा और उसका चेहरा हाव-भाव भी व्यक्त करने लगेगा| इस रोबोट के रचयिता-दल ‘Robtronik.ru’ के प्रधान अन्तोन वसीलेवस्की ने बताया:
“दो हफ्ते पहले हमने 3D मॉडल तैयार कर लिया है| अब फैक्टरी में ढाँचे पर ऑप्टिक-फाइबर लगाया जा रहा है| यही रोबोट के “शरीर” की प्रमुख सामग्री है| बाल आदि बनाए जा रहे हैं|”
पुश्किन-रोबोट के निर्माताओं का कहना है कि यह सारा काम मोबाइल फोनों के लिए एक सॉफ्टवेयर बनाने से शुरू हुआ| इस प्रोग्राम के बूते यह साधारण गैजट तुकबंदी ढूँढने में सहायक बन जाता है| यूज़र को बस उस शब्द का उच्चारण करना होता है जिसके लिए वह तुक मिलाना चाहता है, जवाब में फोन अपने डेटा-बेस से सभी विकल्प उसे सुना देता है|
“जब हमने यह तुकबंदी प्रोग्राम बना लिया तो हमने पुश्किन की कविता ‘मुझे याद है वह अद्भुत क्षण’ पर रूसी और अंग्रेज़ी भाषाओँ में एक वीडियो बनाने की सोची| हमारी कंपनी तो रूसी ही है सो हमें यह स्वाभाविक ही लगा कि हम सबसे मशहूर रूसी कवि पुश्किन की ही कविता लें”|
रोबोट-कवि के रचयिताओं का कहना है कि इसका सॉफ्टवेयर बाज़ार में ख़ासा सफल रहा है| संसार भर में इसके एक लाख से अधिक यूज़र हैं और रूस में तो इससे भी कई गुना अधिक हैं क्योंकि रूसी रूपांतर निश्शुल्क उपलब्ध है| अपने मित्रों, स्वजनों के जन्मदिन पर कोई कविता रचने के इच्छुक बड़ी खुशी से इसका फायदा उठाते हैं|
 “पुश्किन की शक्ल में हम इस प्रोग्राम को, सॉफ्टवेयर को ऐसा ठोस रूप दे रहे हैं जिसमें इसे देखा जा सकता है| भले ही इसे एक मज़ाक समझिए, पर हमारे ख्याल में यह देश में रोबोट-तकनीक के विकास में एक और कदम है| दूसरी ओर इससे विदेशों में पुश्किन और उन्नीसवीं सदी के रूसी काव्य की लोकप्रियता बढ़ेगी| यों तो पुश्किन का नाम लोगों ने सुना हुआ है, लेकिन अगर हमारी योजना सफल रही तो उनकी लोकप्रियता कहीं अधिक बढ़ जाएगी|”
यह इलैक्ट्रोनिक कवि बाज़ार में उपलब्ध है – सिर्फ चार हज़ार डालर में|

Thursday 10 October 2013

कविजी का मोस्ट वांटेड बेटा!


मेरे एक साहित्यिक मित्र थे। वीर रस की कविताएं लिखते थे। पेशे से टीचर थे। अभी हैं लेकिन अब न कवि हैं, न मित्र हैं, न टीचर हैं। जो हैं, सो हैं। बड़ी सांसत में हैं।

मित्रता के दिनो में उन्हे जब रत्ननुमा-पुत्र की प्राप्ति हुई तो उनका पूरा गांव उल्लास में शामिल हो गया था। दूर-दूर से नाते-रिश्ते के लोग जुटे। खूब बधाइयां मिलीं। तब आजकल की तरह गिफ्टबाजी नहीं होती थी। पहुंचना, स्नेहालाप, मित्रालाप ही पर्याप्त रहता था।

पेशे के चक्कर में अपना गांव-पुर, कस्बा-शहर छूटा तो उस जन्मोत्सव के आठ वर्ष बाद लगभग डेढ़ दशक तक उनसे मुलाकात न हो सकी। वह मुझसे उम्र में काफी बड़े थे। बड़े पूजा-पाठ, मन्नतों के बाद वह इकलौता पुत्र पैदा हुआ था। पिता की ही तरह हृष्ट-पुष्ट। अपने शिक्षक पिता की साइकिल पर आगे बैठ कर रोजाना मैंने उसे बड़ा होकर स्कूल जाते देखा था।

सत्रह साल बाद अपने गांव-पुर पहुंचा तो पुराने दोस्तों-मित्रों के संबंध में हाल-चाल लेने लगा। जिनसे अब तक इक्का-दुक्का निभती रही थी, उन्हीं में एक मित्र ने उस सत्तर-अस्सी के दशक वाले साहित्यिक मित्र का दर्दनाक वाकया भी कह सुनाया, आह-उह करते हुए कि अरे उन महोदय की वीर-कविताई की तो ऐसी-तैसी हो चुकी है।

संक्षिप्ततः पूर्व साहित्यिक मित्र का ताजा एक दशक का जिंदगीनामा कुछ इस तरह है।

पूर्व कविमित्र का इकलौता बेटा बड़ा होकर मोस्ट वांटेड हो गया। पुलिस की टॉप टेन लिस्ट में पहले नंबर पर। पूरा इलाका कांपने लगा। थानेदार को गोली से उड़ा दिया। ठेके पर मर्डर करने लगा। गिरफ्तार होकर जेल गया तो एक डिप्टी जेलर को ठिकाने लगा दिया। इस तरह वह जिले का सबसे बड़ा गुंडा बन गया। वीररस के कवि का वीर पुत्र।

उस दिन मित्र ने बताया कि अब तो बेचारे कविजी फिरौती के पैसे ठिकाने लगाते हैं। वीरपुत्र ब्लॉक प्रमुख बन गया है। जेल से ही नेतागीरी करता है। वीरकवि की बहू विधानसभा चुनाव लड़ने वाली है। एक कुख्यात मुस्लिम माफिया उसे टिकट दिलाने वाला है।

शायद ही कभी कोई अचंभे में रो पड़ा हो। उस दिन मैं पूर्व कविमित्र की व्यथा-कथा सुन कर अचंभे से रो पड़ा था। कितनी अच्छी कविताएं लिखते थे वह। वीर रसावतार पंडित श्याम नारायण पांडेय के सबसे प्रिय शिष्यों में गिने जाते थे। अब अपने पुत्र की माफिया-राजनीतिक यश-प्रतिष्ठा से काफी आह्लादित रहते हैं। दूर-दूर तक नयी पीढ़ी के लोग जानते हैं कि वो फलाने सिंह के पिता हैं। जिले के साहित्यकारों को अब कोई आंख नहीं दिखा सकता है। उनके पास सब-कुछ है, बस कविता नहीं है।

उस कविजी की कुछ पंक्तियां मुझे आज भी याद है............

अंड्डसंड उडंड रटि ढाल्लत ब्रांडी ब्रांड,
अक्क-बक्क झक्कत झड़क्क प्रकट्यो पुत्र प्रचंड,
चंड-चंड करि खंड-खंड खुरकस्सि कपट धरि
पग्गअगति गड़गब्ब............

गिरा दिया, मिटा दिया रेरिख़ के देवदार को!


भारत की एक बस्ती नग्गर से बहुत ही चौंकाने वाली और साथ ही दिल को दहला देनेवाली एक ख़बर आई है। हिमालय की गोद में बसी यह बस्ती इस बात के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है कि वहाँ रेरिख़ परिवार की एक स्मारक-हवेली मौजूद है। वहाँ एक बहुत ही पुराने वृक्ष- देवदार को काटकर गिरा दिया गया है। काटे गए देवदार-वृक्ष ने इस अनूठे आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक केन्द्र के स्वामी- रेरिख़ परिवार के सदस्यों की याद अपने दिल में संजोय रखी थी। जब इस वृक्ष को गिराया जा रहा था तो उस समय इस स्मृति स्मारक के पास स्थानीय निवासी ही नहीं बल्कि भारत के अन्य स्थानों और दुनिया के कोने-कोने से आए पर्यटक भी उपस्थित थे जो निकोलय रेरिख़ का जन्मदिन मनाने के लिए वहाँ पहुँचे हुए थे। देवदार का यह वृक्ष श्री ब्रह्मा कुणाल द्वारा ज़ोर देने पर काटा गया था। मज़ेदार बात यह है कि श्री ब्रह्मा कुणाल ही अंतर्राष्ट्रीय रेरिख़ स्मारक केंद्र के मौजूदा संचालक हैं। उनका कहना है कि यह वृक्ष बहुत पुराना था और किसी भी समय गिर सकता था जिससे कि क्षति भी हो सकती थी। लेकिन उनकी इस बात में कोई दम नहीं है। आप गिराए गए इस विशाल देवदार को देखकर ही बता सकते हैं कि यह देवदार आसानी से गिरनेवाला पेड़ नहीं था। देवदार का अर्थ है- दिव्य उपहार, देवी-देवताओं का उपहार। कैसे गिर सकता था यह विराट देवदार? मान लेते हैं कि यह वृक्ष गिर भी सकता था। लेकिन वह इमारतों से काफी दूर खड़ा था और वह इन इमारतों के लिए कोई ख़तरा पैदा नहीं कर सकता था। वह पिछले तीस साल से अपने दूसरे साथी-वृक्षों के साथ ही खड़ा था। वह हिमालय वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थान “उरुस्वती” की इमारतों से काफ़ी नीचे वाली जगह पर उगा हुआ था। उल्लेखनीय है कि इस साल “उरुस्वती” की स्थापना की 85-वीं वर्षगांठ मनाई जा रही है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह पेड़ अभी एक लंबे समय तक वहाँ ज़िंदा रह सकता था और वह किसी के लिए भी कोई ख़तरा नहीं बन सकता था। रेरिख़ के इस देवदार-वृक्ष को काट-गिराने के बाद नग्गर के क्रोधित निवासियों ने कुल्लू घाटी प्राधिकरण के वानिकी विभाग में इस घटना की एक शिकायत दर्ज कराई जिसके जवाब में बताया गया कि ब्रह्मा कुणाल ने इस पेड़ को काटने की अनुमति लेने के लिए एक निवेदन-पत्र दिया था लेकिन उन्हें स्पष्ट रूप से ऐसा करने से मना कर दिया गया था। परंतु उन्होंने इस मनाही की कोई परवाह नहीं की और देवदार पर आई मुसीबत टाली नहीं जा सकी। श्री ब्रह्मा कुणाल ने अपने दायित्वों का पालन नहीं किया है। उनका प्रत्यक्ष कर्तव्य यह था कि वह रेरिख़ स्मारक से जुड़ी हर वस्तु की संभाल करें, उसकी रक्षा करें। उन्होंने स्थानीय पर्यावरण कानूनों को भी रौंद डाला है। हिमाचल प्रदेश में एक ऐसा कानून लागू है जिसके अंतर्गत किसी के अपने, निजी घर में उगे देवदार को भी संबंधित अधिकारियों की अनुमति के बिना काटा नहीं जा सकता है। इस कानून का उल्लंघन करनेवालों पर भारी जुर्माना लगाया जा सकता है और उन्हें जेल की सलाखों के पीछे बंद भी किया जा सकता है। ऐसा लगता है कि लालच ने ही श्री ब्रह्मा कुणाल को ऐसा अपराध, बल्कि कहना चाहिए कि पाप करने के लिए मज़बूर किया है। काटे गए इस देवदार की लकड़ी का अनुमानित मूल्य 40 लाख रूपए है। इस घटना के संबंध में भारत में रूस के राजदूत अलेक्सांदर कदाकिन ने "रेडियो रूस" की विशेष संवाददाता नतालिया बेन्यूख़ को दिए अपने एक साक्षात्कार में कहा-"हम उन सभी भारतवासियों और दूसरे देशों के उन सभी लोगों की भावनाओं को बहुत अच्छी तरह से समझ सकते हैं जो हमारे महान हमवतनों की विरासत की कद्र करते हैं।" ग़ौरतलब है कि अलेक्सांदर कदाकिन अंतर्राष्ट्रीय रेरिख़ स्मारक केंद्र के एक संस्थापक और इसके वर्तमान उपाध्यक्ष हैं। इस घटना का सबसे दुखद और निंदनीय पहलू यह है कि हिमाचल प्रदेश राज्य के कानून का उल्लंघन एक ऐसे व्यक्ति ने किया है जिसे इस कानून की रक्षा करने के लिए अपना पूरा ज़ोर लगाना चाहिए था। श्री ब्रह्मा कुणाल अंतर्राष्ट्रीय रेरिख़ स्मारक केंद्र के संचालक हैं और इस स्मारक से जुड़ी हर वस्तु की सुरक्षा करनी- उनकी सीधी ज़िम्मेदारी है। इस स्मारक में ही निकोलाय रेरिख़ और उनके बेटे स्वितास्लाव रेरिख़ के अमूल्य चित्रों का संग्रहालय मौजूद है। भारत में रूस का दूतावास स्थानीय अधिकारियों से इस घटना की पूरी जाँच कराने का निवेदन करेगा। दोषी को सज़ा मिलनी ही चाहिए। (रेडियो रूस से साभार)

Tuesday 8 October 2013

किताबों की दुनिया में ब्राजील


ब्राजील का नाम आते ही कार्निवल की याद आती है, पर इन दिनों जर्मनी में ब्राजील की चर्चा हो रही है किताबों के लिए. फ्रैंकफर्ट बुक फेयर में ब्राजील इस बार अतिथि देश है.
 9 से 13 अक्टूबर तक चलने वाले फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेले में इस बार ब्राजील से 70 लेखक और 164 प्रकाशक हिस्सा ले रहे हैं. लातिन अमेरिका का सबसे बड़ा देश ब्राजील दुनिया को दिखा देना चाहता है कि वह केवल संगीत और मौज मस्ती में ही अव्वल नहीं है, बल्कि व
हां का साहित्य भी अहम है. ब्राजील बुक चेंबर (सीबीएल) की अध्यक्ष कारीन पानसा ने डॉयचे वेले से बातचीत में कहा, "हम दिखाना चाहते हैं कि हम अंतरराष्ट्रीय बाजार की समझ रखते हैं और अपनी किताबें बेचना जानते हैं." उनका कहना है कि जर्मन बाजार पर पूरी दुनिया की नजर रहती है, इसलिए यहां कई अवसर हैं.
किताबों की दुनिया में अब तक ब्राजील की पहचान खरीदार के तौर पर बनी रही है, पर अब देश निर्यात की राह पर निकलना चाहता है. ब्राजील के संस्कृति मंत्रालय ने 2020 तक साढ़े तीन करोड़ डॉलर का निवेश करने की योजना बनाई है, ताकि दुनिया के सामने अपने लेखकों की पहचान पक्की कर सके. यह पैसा एक्सचेंज प्रोग्राम के काम में लगाया जाएगा. युवा लेखकों और अनुवादकों को स्कॉलरशिप भी दी जाएगी.
 ब्राजील के पैविलियन के बाहर ग्रैफिटी
इस साल फ्रैंकफर्ट में ही सरकार साठ लाख यूरो खर्च रही है. लोगों का ध्यान खींचने के लिए यहां कई तरह के सांस्कृतिक और रंगारंग कार्यक्रम भी आयोजित किए जा रहे हैं. ब्राजील का पैविलियन 2,500 वर्ग मीटर में फैला होगा, जो पिछले साल के अतिथि पैविलियन का नौ गुना है.
हालांकि यह ब्राजील के लिए पहला मौका नहीं है. इस से पहले 1994 में भी वह फ्रैंकफर्ट बुक फेयर में अतिथि देश के तौर पर शिरकत कर चुका है. उस समय देश की अंतरराष्ट्रीय बाजार में कोई खास पहचान नहीं थी. तब ब्राजील अपने मशहूर लेखकों जॉर्जे अमादो, जो उबाल्दो रिबेरो और मशादो दे असिस के साथ यहां पहुंचा था. करीब बीस साल में ब्राजील काफी तरक्की कर चुका है. इस बार मेले में हिस्सा ले रहे लेखकों की संख्या इस बात का प्रमाण देती है.
फ्रैंकफर्ट में ब्राजील पैविलियन की व्यवस्था संभालने वाले अंटोनियो मार्टिनेली का कहना है, "ब्राजील इस बार अपनी मॉडर्न और ग्लोबल छवि दिखाना चाहता है. हमने बहुत सोच समझ कर खुद को परंपराओं और धारणाओं से दूर रखा है."
मेले में इस बार बीस से ज्यादा लेखक अपनी किताबों के अंश पढ़ कर सुनाएंगे. इस साल के अंत तक 92 लेखक जर्मनी में घूम कर ब्राजील के साहित्य का प्रचार करेंगे और अपनी नई किताबों को पेश करेंगे.
कारीना पानसा को इस साल से बहुत उम्मीदें हैं. पिछले मेले को याद करती हुई वह कहती हैं, "1994 में सरकार ने सबसे बड़ी गलती यह की थी कि अनुवादों की मांग पर कोई ध्यान नहीं दिया था. किताबों के कोई अनुवाद प्रकाशित ही नहीं हुए थे." उनका मानना है कि किसी अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी जगह बनाने के लिए यह बेहद जरूरी है.
ब्राजील अपनी गलतियों से सीख ले रहा है. पिछले दो साल में अनुवाद में जितना निवेश किया गया है उतना उस से पहले के दो दशकों में भी नहीं देखा गया था. जर्मन बाजार में इस से पहले कभी ब्राजील की इतनी किताबें नहीं देखी गईं

Sunday 6 October 2013

वो 'मैं' और 'वे'

तब न इतना विश्वास का संकट था, न अपने चारो तरफ धूर्तता और पाखंड की इतनी ऊंची-ऊंची दीवारें कि उसके पार खूब जोर मारकर भी कुछ नजर न आ सके..... 

तब समय इतना जानवर नहीं था, न लोग इतने जटिल, घुमावदार, सिर्फ अपने कल के लिए जीने वाले गिरगिट की तरह क्षण-क्षण रंग बदलते हुए..... 

रात में नाना चारपाई पकड़ने से पहले दरवाजे की नीम की लटकती डाल पर खैनी-चूने से भरी थैली लटकाना नहीं भूलते थे ताकि सुबह दिशा-मैदान के लिए उधर से गुजरने वाले पास-पड़ोसी को एक चुटकी के लिए उदास न होना पड़े...

उस दिन चार साल का था। पिता लाल-लाल डांट पिला गये थे। मैं नींद में था। मुझे क्या पता। सुबह जागने पर रोज की तरह दालान की चौखट पर जा बैठा। आहिस्ते से पीछे से नानी आई और एक हाथ से पीठ, दूसरे से सिर सहलाने लगी। पिता की डांट को मेरे देह का घाव समझ कर.....

दसवीं के बाद नाना, बारहवीं के बाद पिता ने कहा- अब मैं तुम्हें नहीं पढ़ा पाऊंगा। मैंने अपने कालेज के महंत प्रबंधक से आपबीती सुनाई। वह कालेज से सटी कुटिया में रहते थे। बाबा हरिहरनाथ। बाबा ने मेरा दर्द पढ़ते हुए तुरंत कालेज से तीन टीचर बुलवा लिए- क्लास टीचर, लायब्रेरियन और वाइस प्रिंसिपल। उनके जिम्मे मुझे कर दिया कि इसकी आगे की पढ़ाई तुम जानो, कैसे होगी......

एक बार मुरादाबाद में कवि माहेश्वर तिवारी से मुलाकात कर मऊनाथ भंजन लौट रहा था। तब ट्रेन यात्राओं का रत्ती भर अनुभव नहीं था। किधर फर्स्ट, किधर थर्ड क्लास। चढ़ लिया एक भुसे-ठुसे डिब्बे में। खड़ा होने भर को जगह नहीं। ऊनी कपड़े बेचने वाले नेपाली जनो से आह-कराह मची हुई। दो सीटों के बीच में खड़ा हो लिया। एक सीट पर दो सिपाही बैठे थे। बोले कुर्ता-पाजामा से तो कवि लगते हो। मैं चौंका। ये कैसे जान गये! दोनो के बीच बैठ गया। बैठते ही उनमें से एक सिपाही बोला- कविता सुनाओ नहीं तो अभी सीट से उठा दूंगा। मैं ट्रेन अगले स्टेशन पर पहुंचने तक उन्हें कविताएं सुनाता रहा......

Thursday 3 October 2013

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एसोसिएशन का गठन


गुडगाँवः इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े पत्रकारों ने सर्वसम्मति से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एसोसिएसन नाम से संघटन का गठन कर लिया है। इस सगठन का उदेश्य पत्रकारों के हित में किया गया है। सगंठन का कार्य पत्रकारों के सुख दुःख में शामिल होना उनकी समस्याओं का निवारण करने हेतु सहयोग करना है। सगठंन के पंजीकरण की परिक्रिया हरियाणा सरकार के नियमों के अनुसार पूरी कर रजिस्टेशन प्राप्त कर लिया गया है। जानकारी देते हुए सगंठन के महासचिव मनु मेहता ने बताया की इस तरह के सगंठन की काफी समय से आवश्यकता महसूस की जा रही थी। उन्होने बताया की अक्सर पत्रकारों को सुख दुःख की स्थति में इधर उधर देखना पड़ता था | इस सगंठन का उदेश्य सभी पत्रकार भाईयों को उनके कार्यों में सहयोग करने के साथ साथ सामाजिक बुराइयों को दूर रखकर समाज के हित में काम करना है | मनु मेहता ने बताया इस संगठन की मुख्य कार्यकारणी में दस सदस्यों को शामिल किया गया है। जिसमें प्रवीण शर्मा प्रधान, राजवर्मा उपप्रधान, मनुमेहता महासचिव, सुनील कुमार खजांची, व दीपक शर्मा को सयुक्तसचिव नियुक्त किया गया है। इस के साथ ही मुख्य कार्यकारणी के सदस्यों में धर्मबीर शर्मा, देवेन्द्र भारद्वाज,नवीन राघव,सतीश को शामिल किया गया है। सगठंन के उपप्रधान राज वर्मा ने इस मौके पर बोलते हुए कहा है की संगठन का उदेश्य कुछ लोगो के कारन समाज में पत्रकारों की बिगड़ती छवि को सुधारने के लिए भी प्रयास करना है। जिसके लिए सगंठन लोगो से अपील करता है की वे भी इस कार्य में सगंठन का सहयोग करे |

अपील

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एसोसिएशन (EMA) गुड़गांव (हरियाणा) के उन सभी लोगों खास तौर पर राजनीती से जुड़े लोगों से अपील करता हैँ कि जो कभी कुछ ऐसे पत्रकार या पत्रकारों के समूह के सम्पर्क में आये हो जो अख़बारों व टीवी चैनेल्स पर खबर दिखाने या रूकवाने के बदले में पैसों की मांग करते है । आपसे अनुरोध है कि ऐसे कथित असामाजिक पत्रकारों से आप बचे । क्योंकि ये ठेकेदार पत्रकार न केवल अपने चैनल बल्कि उन चैनल का भी ठेका ले लेते है जो किसी भी तरह से खबर दिखाने व रुकवाने के बदले पैसे नहीं लेते है । सबसे बड़ी बात ये कि ये ठेकेदार जिन जिन पत्रकारों के नाम पर दलाली करते है उन्हें इसकी जरा भी भनक नहीं होती है । ये ठेकेदार ज्यादातर राजनीती से जुड़े लोगों को अपना शिकार बनाते है । इसलिए आप से अनुरोध है कि भविष्य में अगर इस तरह के ठेकेदार पत्रकार आप से किसी अन्य पत्रकार या चैनल/अखबार के नाम पर पैसों की मांग करते है तो आप तुरंत सम्बंधित पत्रकार या चैनल/अख़बार से सम्पर्क जरूर करे।
 जनहित में जारी-
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एसोसिएशन (EMA)

Wednesday 2 October 2013

ये तो सनातन मीडिया है


श्रीकांत

श्रीकांत देश के उन गिने-चुने पत्रकारों में से हैं, जिन्होंने रोजाना की खबरों की दुनिया में रहते हुए भी कई शोधपरक पुस्तकें लिखीं। दैनिक हिन्दुस्तान के पटना संस्करण से कोआर्डिनेटर स्पेशल प्रोजेक्ट के पद से पिछले वर्ष सेवानिवृत्त हुए श्रीकांत का अनुभव संसार व्यापक है। श्रीकांत द्वारा लिखी गई शोधपरक पुस्तकें बिहार में दलित आंदोलन : 1992-2000 और बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम, 1857 : बिहार-झारखंड में महायुदध, बिहार-झारखंड पर किए जाने वाले किसी भी राजनीतिक-सामाजिक अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ मानी जाती हैं। ये पुस्तकें उन्होंने प्रसन्न कुमार चौधरी के साथ बतौर सह लेखक लिखी हैं। बिहार में चुनाव : जाति, बूथ लूट और हिंसा, बिहार का चुनावी भुगोल समेत उनकी और भी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं। वह कहते हैं कि मैंने कभी ऐसा अनुभव नहीं किया, लेकिन अखबारों में काम करते हुए और आज भी देखता हूं कि जैसा समाज रहेगा, उसका जीवन के हर क्षेत्र में वैसा ही प्रभाव पड़ेगा। शिक्षण संस्थानों, सरकारी दफ्तरों, न्यायालयों, विधानमंडलों और अखबार के दफ्तरों का कमोबेश एक जैसा हाल है। चूंकि समाज में ही ऊंच-नीच, जांत-पांत, छोटा-बड़ा का भेदभाव हर पल एहसास कराता रहता है तो संस्थान इससे कैसे मुक्त रह सकते हैं। आज भी सनातनी सिस्टम ही चल रहा है। प्रसिद्ध पत्रकार अरुण सिन्हा ने किसान आंदोलन के संबंध में लिखी गई उक्ति में कहा था कि दृश्य अखबारों में बड़े भूस्वामी, कुलीन वर्ग के लोग काम करते हैं, जिसके कारण वे 70 के दशक के किसान आंदोलन के खिलाफ  हैं। 1883 में रेंट क्वे्शचन नामक किताब में ए मैकेंजी, ब्रिटिश सरकार में मुख्य सचिव ने लिखा है-"अखबार भूस्वामी और धनी वर्ग के मुखपत्र हैं और यहां व उनके देश में उनके प्रभावशाली मित्र हैं। बिहार में बंटाईदारी का आंदोलन जब 1967-68 में चल रहा था तो जेपी ने अखबारों के बारे में क्या कहा था वह देखना भी दिलचस्प होगा। अशांति का जो वातावरण है उसमें कुछ अखबारवालों और राजनीतिक दलों का हाथ है। अभी जो अखबार की हालत है, अमीर-गरीब पर हिंसा करता है तो कोई न्यूज नहीं होती है और अगर गरीब अमीर पर हिंसा कर देता है हल्ला हो जाता है। योगेन्द्र यादव, अनिल चमडिय़ा और प्रमोद रंजन का बुकलेट देख लें, जिसमें उन्होंने मीडिया के सामाजिक चरित्र का सर्वेक्षण किया है और बताया है कि मीडिया संस्थानों में फैसला लेने वाले पदों पर आदिवासी, दलित और ओबीसी की संख्या शून्य है। ये सर्वे क्रमश: वर्ष 2006 और वर्ष 2009 में हुए थे। आप आज भी पटना के हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण, प्रभात खबर, टाइम्स आफ  इंडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स के साथ-साथ टीवी चैनलों का सर्वे कराकर देख लीजिए तो पता चल जाएगा कि इन अखबारों में समाज का बहुसंख्यक हिस्सा आज भी हाशिए पर है। 21वीं सदी में आधुनिक प्रबंधन का यह नया ब्राह्मणवादी अवतार है। रातोंरात कुछ भी नहीं बदलता। जो कुछ भी बदला है वह पिछले सौ सालों की लड़ाई का परिणाम है। जनेऊ आंदोलन, कम्युनिस्ट आंदोलन, नक्सली आंदोलन, गांधी-आम्बेडकर के अस्पृश्यता के खिलाफ  आंदोलन, जाति उन्मूलन आंदोलन और लोहिया के आंदोलन के असर के कारण ही पिछली सदी के 70-80 वर्षों में सामाजिक बदलाव हुए। कर्पूरी ठाकुर ने मैट्रिक की परीक्षा में पास होने की अनिवार्यता से अंग्रेजी को अलग किया। उसे भी इन्हीं आंदोलनों के साथ जोड़कर देखिए। इसके बाद आरक्षण को लागू करने और 90 के बाद लालू के उदय और नीतीश कुमार के अतिपिछड़ों और महिलाओं को पंचायतों में आरक्षण देने का सकारात्मक असर पड़ा। लगातार संघर्ष का परिणाम है कि आज बिहार की राजनीति बदल गई है। इसका अर्थ यह भी नहीं कि सारी विषमताएं, सारा भेदभाव दूर हो गया। इसके लिए साल दर साल पीढिय़ों को संघर्ष करना पड़ता है और विभिन्न रंगों और रूपों में ये संघर्ष चल रहा है।

Tuesday 1 October 2013

लखनऊ में लगा है पुस्तक मेला


उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में इन दिनो राष्ट्रीय पुस्तक मेला लगा हुआ है। मोली महल वाटिका में 27 सितंबर से शुरू हुए 11वें राष्ट्रीय पुस्तक मेले में हिंदी और अंग्रेजी सहित्य- कविता, कहानियां, उपन्यास के साथ कॉमिक्स, वेद, उपनिषद्, पाककला, महान हस्तियों की आत्मकथाएं और जीवनियां एक ही छत की नीचे उपलब्ध हैं। सुबह नौ से रात नौ बजे तक चलने वाले इस पुस्तक मेले में बड़ी उत्सुकता से हर आयु-वर्ग के लोग खरीदारी करने पहुंच रहे हैं। दिनभर में करीब दस हजार का आगमन हो रहा है। प्रवेश नि:शुल्क रखा गया है। पुस्तक मेले की आयोजन समिति के अध्यक्ष देवराज अरोड़ा बताते हैं कि मेले में हर तरह की किताबें पसंद की जा रही हैं। मिसाइल मैन एवं पूर्व राष्ट्रपति एपी.जे.अब्दुल कलाम की लिखी प्रेरणादायक पुस्तकें- ‘भारत : अदम्य साहस’, ‘उग्रि की उड़ान’ और ‘भारत की आवाज’ तो सबके आकर्षण का केंद्र बनी हुई हैं। मेले में देशभर के तमाम प्रमुख पब्लिकेशंस के कुल 183 स्टॉल लगाए गए हैं, जिनमें साहित्य, संस्कृति, कला, पुराण, वेद सहित हर विधा कि पुस्तकें उपलब्ध हैं। पुस्तकों के इस महाकुंभ में पांच रुपये से लेकर एक हजार रुपये तक की किताबें मौजूद हैं। पुस्तक मेले में हर पुस्तक पर 10 प्रतिशत की छूट दी जा है। सात अक्टूबर तक चलने वाले इस पुस्तक मेले का उद्घाटन पूर्व राष्ट्रपति ए पी.जे. अब्दुल कलाम ने किया।