Friday 15 November 2013

अतीत के नज़ारे मेरी आंखों के सामने


 व्लादीमिर गिल्यारोव्स्की

1934 में व्लादीमिर गिल्यारोव्स्की की पुस्तक है ‘मास्को और मस्कोवासी’। उसकी भूमिका में उन्होंने लिखा: “मैं मास्कोवासी हूं| कितना सौभाग्यशाली है वह जो इन शब्दों में दिलोजान उंडेल कर यह बात कह सकता है| मैं मास्कोवासी हूं! अतीत के नज़ारे मेरी आंखों के सामने से गुज़र रहे हैं...” उत्तरी रूस के वोलोग्दा नगर में 1855 में गिल्यारोव्स्की का जन्म हुआ| इनके पिता पुलिस में काम करते थे| स्कूल में पढ़ते हुए ही यह कविताएं लिखने लगे| अक्सर उनमें शिक्षकों पर व्यंग्य कसते थे| वैसे पढ़ाई में इनकी कोई खास दिलचस्पी नहीं थी| अक्सर स्कूल से भागकर सर्कस चले जाते थे| यहां कलाबाजी और घुड़सवारी के करतब बड़े चाव से सीखते थे| अंतिम कक्षा की परीक्षाओं में फेल हो गए तो घर से भाग गए – जेब में फूटी कौड़ी नहीं, सबसे भयानक बात, पहचान-पत्र भी नहीं| खैर किसी तरह वहां से लगभग दो सौ किलोमीटर दूर वोल्गा नदी के बड़े बंदरगाह नगर यारोस्लाव्ल तक पहुंच गए| यहां वह बजरा-कुली का काम करने लगे| ऐसे लगभग दर्जन भर कुलियों की टोली बजरे को रस्सों से खींच कर नदी में बहाव के विपरीत आगे ले जाती थी| रस्से से बंधे गिल्यारोव्स्की ने बीस दिन तक वोल्गा नदी पर बजरा खींचा| बचपन से ही उन्हें ईश्वर ने अद्भुत शक्ति दी थी| एक बार की बात है, बड़े हो गए थे, मां-बाप से मिलने आए, अपनी ताकत दिखाते हुए उन्होंने घर में ढलवां लोहे की लंबी सलाख को मरोड़ कर उसकी गांठ बांध दी| पिता को गुस्सा आया कि नासमझ छोकरे ने घर के काम की चीज़ खराब कर दी, झट से सलाख सीधी कर दी| अपना अपार बल और जोश गिल्यारोव्स्की ने कहां-कहां नहीं आजमाया| दमकल गाड़ी पर भी काम किया, ढोर-डंगर भी चराए, सर्कस में घुड़सवारी के करतब भी दिखाए और घुमक्कड़ एक्टर भी रहे| रूस और तुर्की की लड़ाई छिड़ी तो फ़ौज में भर्ती हो गए, काकेशिया में लड़ने गए| इस सब के साथ कविताएं भी लिखते रहे, शब्द-चित्र भी और पिता को सदा पत्र भी जिन्हें वह बहुत संभाल कर रखते थे| 26 साल की उम्र में गिल्यारोव्स्की मास्को आए| यहां एक पत्रिका में उनकी कुछ कविताएं छपीं| अब उन्होंने फैसला कर लिया कि बस लिखने का ही काम करेंगे| एक छोटे अखबार में उन्हें रिपोर्टर की नौकरी मिल गई और कुछ साल में ही वह मास्को के सबसे अच्छे रिपोर्टर बन गए - ऐसी थी उनकी प्रतिभा| शहर में कोई भी घटना हो गिल्यारोव्स्की सबसे पहले वहां पहुंच जाते थे| क्या गरीबों की बस्तियां और क्या कंगालों के ठिकाने या देश भर से राजधानी आनेवाले फटीचरों के रैन-बसेरे – इन सबकी ज़िंदगी की उनसे अधिक बेहतर जानकारी और किसी को नहीं थी – जानकारी ही नहीं, समझ भी| सन् 1887 में उन्होंने “तलछट के लोग” नाम से अपनी कहानियों और लेखों का संग्रह प्रकाशन के लिए तैयार किया| ये सब कहानियां और लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में पहले अलग-अलग छप चुके थे, लेकिन पुस्तक के रूप में इन्हें देख पाना उनके भाग्य में नहीं लिखा था| पुस्तक के अभी पर्चे ही छपे थे कि रात को प्रेस पर छापा पड़ गया और सारे पर्चे ज़ब्त कर लिए गए| सेंसर ने इस पुस्तक के प्रकाशन पर पाबंदी लगा दी, सारे पर्चे जला दिए गए| गिल्यारोव्स्की ने सेंसर बोर्ड से अपील की कि वह पुस्तक छापने दे| सेंसर के उप-प्रधान ने जवाब दिया: “ये बेकार की कोशिशें छोड़ दो| इस किताब में अंधेरा ही अंधेरा है, रोशनी की एक किरण भी नहीं, बस शासन व्यवस्था पर लांछन ही लगाए गए हैं| ऐसी सच्चाई नहीं छप सकती|” गिल्यारोव्स्की ने कभी भी ज़िंदगी के प्रति महज़ एक तमाशबीन का, तटस्थ रहकर सब कुछ बस देखते रहने वाले का रुख नहीं अपनाया| वह ज़िंदगी की मझधार में छलांग लगाते थे| सब कुछ देखना-आजमाना, अपने हाथों सब कुछ करना चाहते थे| ऐसा गुण उन्हीं लोगों में पाया जाता है जो बहुत ही प्रतिभावान होते हैं और जिन्हें जीवन से गहरा लगाव होता है| गिल्यारोव्स्की खुले दिल के इंसान थे| उनकी नेकी और दरियादिली की तो कोई हद ही नहीं थी, पर ज़िंदगी से उनकी उम्मीदें भी उतनी ही ऊंची थीं| प्रतिभावानों का एक गुण ऐसा भी है जो कम ही लोगों में पाया जाता है – यह है लड़कपन या यों कहिए कि सहज बालसुलभ चतुराई| गिल्यारोव्स्की को सारी उम्र किशोरों की तरह कोई न कोई मज़ेदार बात सूझती रहती थी| एक बार उन्हें क्या सूझा कि आस्ट्रेलिया में किसी मनगढ़ंत पते पर चिट्ठी भेज दी, आखिर जब पता “गलत होने” के कारण पत्र लौट आया तो उसके लिफाफे पर लगी अनगिनत मोहरों से यह हिसाब लगाते रहे कि कैसी गजब की यात्रा तय की है इस पत्र ने| अपने ज़माने के सभी नामी लेखकों से गिल्यारोव्स्की की दोस्ती थी – चेखोव से लेकर तोल्स्तोय तक| लेकिन उन्हें गर्व सबसे अधिक इस बात पर था कि मास्को के गरीब तबके में हर कोई उन्हें जानता और चाहता था| ज़िंदगी के तूफानों और बवंडरों ने जिन गुणवानों और आम लोगों को समाज के तले पर पहुंचा दिया था, जो अपने ज़माने की ज़िंदगी में अपने लिए कोई मकसद नहीं खोज पाए, कोई जगह नहीं बना पाए – ऐसे लोगों से भी गिल्यारोव्स्की की गहरी छनती थी| झुग्गी-झोंपडियों की उन बस्तियों में जिनके पास तक फटकने की आम आदमी की हिम्मत नहीं होती थी, वहां गिल्यारोव्स्की रात-दिन कभी भी बेझिझक आ-जा सकते थे| किसी की हिम्मत नहीं थी कि उनका बाल-बांका भी कर दे| मास्को का जैसा चहुंमुखी ज्ञान गिल्यारोव्स्की को था, वैसा और किसी को नहीं था| नगरवासियों के कितने किस्से-कहानियां वह जानते थे, शहर की हर गली और चौक का, बाज़ार और चौराहे का, गिरजे और पार्क का पूरा इतिहास वह जानते थे, कौन सी जगह कब, कैसे बनी, कब उसमें क्या बदलाव आए| यही नहीं शहर के छोटे से छोटे ढाबे से लेकर आलीशान से आलीशान रेस्तरां तक का उन्हें पूरा ज्ञान था| आखिर हर जगह का अपना रूप-रंग था, अपने गाहक थे – कहीं मोचियों और नाइयों का ढाबा था तो कहीं छात्रों की कैंटीन, कहीं रईस व्यापारी जमा होते थे तो कहीं ऊंचे कुलीन संभ्रांत घरानों के सभ्य-शिष्ट लोग! “मेरा मास्को!” जी हां, गिल्यारोव्स्की को अपने नगर के बारे में यह कहने का पूरा अधिकार था| उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के आरम्भ के मास्को की गिल्यारोव्स्की के बिना कल्पना ही नहीं की जा सकती, जैसे कि बोलशोई थियेटर और त्रेत्याकोव गैलरी के बिना मास्को मास्को नहीं| वास्तव में, ऐसे भी लोग होते हैं जिनके बिना समाज और साहित्य के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती| इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि उन्होंने कम लिखा या ज़्यादा| सबसे बड़ी बात यह है कि वे मौजूद थे और उनके इर्द-गिर्द साहित्यिक और सार्वजनिक जीवन हिलोरें लेता था, कि उनके समय का देश का सारा इतिहास उनकी गतिविधियों में प्रतिबिंबित होता था| कवि, लेखक, मास्को और रूस के जानकार, विशाल-हृदय व्यक्ति व्लादीमिर गिल्यारोव्स्की ऐसे ही एक व्यक्ति थे| “अतीत के नज़ारे मेरी आंखों के सामने से गुज़र रहे हैं...” यह कहने वाले लेखक की पुस्तक ‘मास्को और मास्कोवासी’ पुस्तक 1934 में प्रकाशित हुई| उन दिनों लेखक की नज़रों के सामने अतीत ही नहीं घूम रहा था, उनके देखते-देखते मास्को का रूप-रंग भी बदल रहा था| इसके बारे में उन्होंने लिखा: “मेरा जाना-पहचाना पुराना मास्को कहीं दम तोड़ता दिखता है और कहीं पूरी तरह मिट चुका है, उसके स्थान पर मैं देखता हूं दिन पर दिन नहीं, बल्कि हर पल बदलता नया मास्को| वह चारों ओर फ़ैल रहा है, आकाश छूने को ऊपर उठता जा रहा है और भूगर्भ के अंधेरे को विद्युत-प्रकाश से बींधता हुआ मेट्रो स्टेशनों के विशाल मंडपों को झिलमिलाते संगमरमर से सजा रहा है| “शहर के बीचोंबीच बहती मस्कवा-नदी ने ग्रेनाईट का परिधान धारण कर लिया है, छायादार वीथिका-मार्ग उसके सजीले तट तक पहुंचते हैं और वहां से चौड़े घाट जल-स्तर तक उतरते हैं| शीघ्र ही नई लहरें इन्हें थपकाएंगी: मास्को – वोल्गा नहर दिन पर दिन वोल्गा को मास्को की ओर खींचे ला रही है| “जहां कभी मैं दलदल फैले देखता था वहां अब खुली, सीधी सड़कें बन गई हैं| टेढ़े-मेढ़े, बेढंगे पुराने मकानों की कतारें खत्म होती जा रही हैं| उनके स्थान पर बन रहे हैं बड़े-बड़े नए मकान| एक के बाद एक नए कारखाने बन रहे हैं| कल तक जो नगर का छोर था, अब वह नगर के केंद्र में आ गया है, उसी की तरह सज-धज गया है और सुख-सुविधाओं से लैस है| आस-पास के गांव अब राजधानी का अंश बन गए हैं| इन अंशों में बने हैं स्टेडियम जहां दसियों क्या, सैकड़ों युवक-युवतियां अपना शारीरिक और मानसिक बल बढ़ाते हैं; आर्कटिक की बर्फ में, तपते कराकुम रेगिस्तान में, पामीर के पर्वत-शिखरों पर और काकेशिया के हिमनदों पर पराक्रमों की तैयारियां करते हैं| “लगभग एक हज़ार साल से बनते आए पुराने मास्को के स्थान पर नए का निर्माण करने के लिए चाहिए अद्भुत, अभूतपूर्व बल|...“मास्को संसार की पहली नगरी बनने के पथ पर अग्रसर है| और यह सब मेरे देखते-देखते हो रहा है – भविष्य के नज़ारे मेरी आंखों के सामने से गुज़र रहे हैं|... “और अतीत के नज़ारे भी मेरी आंखों के सामने से गुज़र रहे हैं| आज के नौजवानों के लिए वह अभी से बहुत हद तक एक पहेली ही बन गया है| नई राजधानी के निवासी यह जान पाएं कि पुराने जीवन के स्थान पर नव-जीवन का निर्माण करने में उनके बाप-दादाओं को कितना परिश्रम करना पड़ा था, इसके लिए यह ज़रूरी है कि उन्हें पता हो कैसा था वह पुराना मास्को, कैसे-कैसे लोग उसमें रहते थे और कैसे वे जीते थे| “अब अपने जीवन के अंत में मैं एक बार फिर दो जीवनों के बीच जी रहा हूं: “पुराने” और “नए” जीवन के बीच| पुराना जीवन नए जीवन की पृष्ठभूमि है और इसे ही नए जीवन की भव्यता को प्रतिबिंबित करना है| मेरा यह काम मुझे जवान बनाता है – कितना सौभाग्यशाली हूं, सुखी हूं कि दो सदियों के संधि-काल में, दो संसारों के युगांतरी मोड़ पर जी रहा हूं|” “पुराने मास्को के गीतकार” व्लादीमिर गिल्यारोव्स्की के हृदय में नए मास्को को जन्मते देख ये उद्गार जागे थे जो उन्होंने अपनी पुस्तक ‘मास्को और मास्कोवासी’ की भूमिका में व्यक्त किए| रूस की राजधानी पर अनेक गीत रचे गए हैं| लीजिए, सुनिए उनमें से एक| गा रहे हैं...

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