Sunday 29 December 2013

नया साल

हरिशंकर परसाई

साधो, बीता साल गुजर गया और नया साल शुरू हो गया। नए साल के शुरू में शुभकामना देने की परंपरा है। मैं तुम्हें शुभकामना देने में हिचकता हूँ। बात यह है साधो कि कोई शुभकामना अब कारगर नहीं होती। मान लो कि मैं कहूँ कि ईश्वर नया वर्ष तुम्हारे लिए सुखदायी करें तो तुम्हें दुख देनेवाले ईश्वर से ही लड़ने लगेंगे। ये कहेंगे, देखते हैं, तुम्हें ईश्वर कैसे सुख देता है। साधो, कुछ लोग ईश्वर से भी बड़े हो गए हैं। ईश्वर तुम्हें सुख देने की योजना बनाता है, तो ये लोग उसे काटकर दुख देने की योजना बना लेते हैं।
साधो, मैं कैसे कहूँ कि यह वर्ष तुम्हें सुख दे। सुख देनेवाला न वर्ष है, न मैं हूँ और न ईश्वर है। सुख और दुख देनेवाले दूसरे हैं। मैं कहूँ कि तुम्हें सुख हो। ईश्वर भी मेरी बात मानकर अच्छी फसल दे! मगर फसल आते ही व्यापारी अनाज दबा दें और कीमतें बढ़ा दें तो तुम्हें सुख नहीं होगा। इसलिए तुम्हारे सुख की कामना व्यर्थ है।
साधो, तुम्हें याद होगा कि नए साल के आरंभ में भी मैंने तुम्हें शुभकामना दी थी। मगर पूरा साल तुम्हारे लिए दुख में बीता। हर महीने कीमतें बढ़ती गईं। तुम चीख-पुकार करते थे तो सरकार व्यापारियों को धमकी दे देती थी। ज्यादा शोर मचाओ तो दो-चार व्यापारी गिरफ्तार कर लेते हैं। अब तो तुम्हारा पेट भर गया होगा। साधो, वह पता नहीं कौन-सा आर्थिक नियम है कि ज्यों-ज्यों व्यापारी गिरफ्तार होते गए, त्यों-त्यों कीमतें बढ़ती गईं। मुझे तो ऐसा लगता है, मुनाफाखोर को गिरफ्तार करना एक पाप है। इसी पाप के कारण कीमतें बढ़ीं।
साधो, मेरी कामना अक्सर उल्टी हो जाती है। पिछले साल एक सरकारी कर्मचारी के लिए मैंने सुख की कामना की थी। नतीजा यह हुआ कि वह घूस खाने लगा। उसे मेरी इच्छा पूरी करनी थी और घूस खाए बिना कोई सरकारी कर्मचारी सुखी हो नहीं सकता। साधो, साल-भर तो वह सुखी रहा मगर दिसंबर में गिरफ्तार हो गया। एक विद्यार्थी से मैंने कहा था कि नया वर्ष सुखमय हो, तो उसने फर्स्ट क्लास पाने के लिए परीक्षा में नकल कर ली। एक नेता से मैंने कह दिया था कि इस वर्ष आपका जीवन सुखमय हो, तो वह संस्था का पैसा खा गया।
साधो, एक ईमानदार व्यापारी से मैंने कहा था कि नया वर्ष सुखमय हो तो वह उसी दिन से मुनाफाखोरी करने लगा। एक पत्रकार के लिए मैंने शुभकामना व्यक्त की तो वह ब्लैकमेलिंग करने लगा। एक लेखक से मैंने कह दिया कि नया वर्ष तुम्हारे लिए सुखदायी हो तो वह लिखना छोड़कर रेडियो पर नौकर हो गया। एक पहलवान से मैंने कह दिया कि बहादुर तुम्हारा नया साल सुखमय हो तो वह जुए का फड़ चलाने लगा। एक अध्यापक को मैंने शुभकामना दी तो वह पैसे लेकर लड़कों को पास कराने लगा। एक नवयुवती के लिए सुख कामना की तो वह अपने प्रेमी के साथ भाग गई। एक एम.एल.ए. के लिए मैंने शुभकामना व्यक्त कर दी तो वह पुलिस से मिलकर घूस खाने लगा।
साधो, मुझे तुम्हें नए वर्ष की शुभकामना देने में इसीलिए डर लगता है। एक तो ईमानदार आदमी को सुख देना किसी के वश की बात नहीं हैं। ईश्वर तक के नहीं। मेरे कह देने से कुछ नहीं होगा। अगर मेरी शुभकामना सही होना ही है, तो तुम साधुपन छोड़कर न जाने क्या-क्या करने लगेंगे। तुम गाँजा-शराब का चोर-व्यापार करने लगोगे। आश्रम में गाँजा पिलाओगे और जुआ खिलाओगे। लड़कियाँ भगाकर बेचोगे। तुम चोरी करने लगोगे। तुम कोई संस्था खोलकर चंदा खाने लगोगे। साधो, सीधे रास्ते से इस व्यवस्था में कोई सुखी नहीं होता। तुम टेढ़े रास्ते अपनाकर सुखी होने लगोगे। साधो, इसी डर से मैं तुम्हें नए वर्ष के लिए कोई शुभकामना नहीं देता। कहीं तुम सुखी होने की कोशिश मत करने लगना।

Saturday 21 December 2013

नया साल

अमृत राय

कहने की जरूरत नहीं। नया साल मुबारक, पुराने का मुँह काला। यही दुनिया का कायदा है। और कैसे न हो। जरा मिलाकर देखो दोनों को। यह देखो नया साल, गुलाबी-गुलाबी, और वह रहा तुम्हारा पुराना साल, चीकट, मटमैला।
नया साल झबरे-झबरे बालों वाला ऊँची नसल का नन्हा-मुन्ना प्यारा-सा प
पी है जिसे बरबस, गोद में उठा लेने को जी चाहता है, ऊन के गोले जैसा गरम, गुदगुदा। और वह पुराना साल खुजली का मारा, लीबर बहाता, मरियल, बूढ़ा, लावारिस कुत्ता जो हर घर से दुरदुराया जाता है। नया साल हरी-भरी दूब की वीथी है जिस पर अगल-बगल, रंग-बिरंगे सुगंधित फूलों की लताओं ने मंडप-सा तान रखा है, और पुराना साल कीचड़ और काई से ढँका हुआ वह ऊबड़-खाबड़ कंकरीला रास्ता जिसे अब पीछे मुड़कर ताकते डर लगता है। नया साल एक अनजाने सुख की सिहरन है, पुराना साल भोगे हुए कष्टों की एक कड़ी। कितना बुरा था पुराना साल। ढंग का खाना न ढंग का कपड़ा। कीमतें आसमान से बात करती हुई। रहने को मकान नहीं, दस-दस कुनबे बेशर्मी की चादर ओढ़कर एक जरा-सी कोठरी में जिंदगी के दिन गुजार रहे हैं। क्या था पुराने साल में जिसे चाव से कोई याद करे। अच्छा हुआ, बहुत अच्छा हुआ, उसकी अरथी निकल गई। कोई उसके लिए दो आँसू गिरानेवाला नहीं है।
आज नये साल की शाम है। अब तो हम नये साल की पौ फटते देखेंगे - बड़े हुलास से आगे बढ़कर उसका स्वागत करेंगे और किसी बहुत मनभाते मेहमान की तरह आँखों में आँखें डालकर, प्यार से हाथ पकड़कर उसे कमरे के भीतर ले आएँगे जहाँ इतने सारे लोग उसकी अगवानी में आँखें बिछाए बैठे हैं। और आँखें ही नहीं, दस्तरखान भी, जिस पर, साथ बैठकर पीने के लिए एक से एक नायाब शराबें चुनीं हुई हैं और एक से एक सुस्वादु मेवों से भरपूर केक और पेस्ट्रियाँ।
कमरा रंग-बिरंगे कागज की बंदनवारों और नये साल की हमारी रंग-बिरंगी आकांक्षाओं और संकल्पों के जैसे रंग-बिरंगी गुब्बारों से सजाया गया है। रेडियो पर बहुत अच्छा पाश्चात्य संगीत आ रहा है। हम गलबहियाँ डाले नाचेंगे-गाएँगे, धूम मचाएँगे - कुछ होश में और बहुत कुछ मदहोश, अलमस्त। नये साल का जनम हो रहा है।
नया साल वह फीनिक्स पक्षी है जो हर साल पुराने की खाक पर नया जनम लेता है। उसके माँ-बाप की फैमिली प्लैनिंग इतनी पक्की है कि हमें ठीक-ठीक पता रहता है कि कब, किस रोज और किस घड़ी में उसका जनम होगा। जभी तो दुनिया भर के करोड़ों लोग उत्सव के सब साज-सामान से लैस उसको हाथों-हाथ लेने के लिए बैठते हैं। सोना गुनाह है उस वक्त। सोते में जो कभी नया साल आ गया तो समझो तुम्हारी तकदीर भी सो गई पूरे एक साल के लिए, किस तरह फिर इस दलिद्दर से तुम्हारा छुटकारा नहीं।
इसलिए तो कोई सोता नहीं। देखिए कुछ को कैसे नींद के झोंके आ रहे हैं, आँखें डूबी जा रही हैं, मुँह फाड़-फाड़कर जम्हाइयाँ ले रहे हैं, लेकिन मजाल है कि सो जाएँ। सिगरेट और कॉफी से, व्हिस्की की चुस्की से, ब्रिज और रमी से, इसके-उसके स्कैंडल की मनमोहक चर्चा से और घिसे-पिटे चुटकुलों पर चौगुने जोर से हँस-हँसकर नींद को भगाया जा रहा है। ज्यों-ज्यों घड़ी का काँटा आधी रात यानी ग्यारह बजकर साठ मिनट की तरफ बढ़ रहा है। त्यों-त्यों नाच और गाने की लय तेजतर होती जा रही है।
और लो, यहाँ-वहाँ सब तरफ बारह के घंटे बजने लगे। नये साल का जनम हो गया। देखो-देखो कैसा प्यारा-सा बच्चा है, मक्खन जैसे हाथ-पाँव, गुलाब की पंखुरियों जैसे होंठ, कैसी अजनबी-सी भोली-भाली आँखें, किसी मीठे नश्तर की तरह उतरा जाता है दिल में। दुनिया की सर्दी-गर्मी का अभी उसे कुछ पता नहीं, अभी तो उसकी आँखों में वही हरम का बाग झूल रहा है, नंदनकानन, जहाँ आम की बौर से लदी हुई बेसुध अमराइयों में बारहोमास कोयल बोलती है। देखने वाले की आँखें जुड़ाती है।
पर मैं अपनी उल्टी तबीयत को क्या करूँ, मैं तो उस गरीब भिखमंगे की बात सोच रहा हूँ जिसे हमने अभी-अभी बगैर कफन के दफनाया है, जो अभी-अभी बुझे हुए कोयले की तरह, चूसी हुई गंडेरी की तरह, दूर उस कोने में फेंक दिया गया है, उस तह-पर-तह राख की ढेरी पर जिसका नाम समय है।
घूमने दो समय का पहिया, तुम्हारा, आज का यह नया चहेता भी वहीं पहुँचेगा, मुर्दा बरसों के उसी कब्रिस्तान में। सोचो तो कितने कृतघ्न हैं हम - एक दिन जिसको सिर माथे पर लिए फिरे, काम निकल जाने पर उसी को गर्दनियाकर बाहर कर दिया। मिल तो गया जो कुछ मिलता था, अब काहे की ठकुरसुहाती! ठकुरसुहाती हमेशा उगते सूरज की होती है, ढलता सूरज तो ढलता सूरज है।
रूप-रस-गंध का कितना कुछ दिया उसने। उसी सेतु पर होकर तुम यहाँ तक आए, अपने को तिरोहित करके उसने इस नये वर्ष को तुम्हारे लिए संभव बनाया, पकाया, तुम्हें प्रौढ़ता दो एक वर्ष के जीवन-अनुभव से, उसकी इतनी अवमानना क्यों इस अंत समय? कल जो मेहमान आ रहा है उसके स्वागत-सत्कार के लिए क्या यह जरूरी है कि घर के बड़े-बूढ़े को धकियाकर कहीं से सबसे अलग एक भूसे की कोठरी में बंद कर दिया जाए। एक अजनबी के वास्ते (भले ही वह जरी और कमखाब पहनकर आया हो) एक पुराने दोस्त की तरफ से यह बेरुखी (सिर्फ इसलिए कि उसके कपड़े मैले हैं) - यह कहाँ का इन्साफ या कहाँ की समझदारी है? अभी तो सामान भी नहीं खुला तुम्हारे इस नये दोस्त का, क्या पता उसके अंदर क्या है तब फिर काहे को उसे इतना सिर चढ़ाते हो? जो कहीं धोखा दिया उसने, तब? थोड़ा शंकित रहना ही अच्छा है ऐसे अजनबी से। बहुत-बहुत जरूरी है यह हाथ भर की दूरी। हमारे घर आए हो, अच्छी बात है। हम तुम्हारे साथ भलमंसी से पेश आएँगे, अपने बराबर में कुर्सी पर बिठाएँगे, नाम-गाम पूछेंगे, पूछेंगे कौन ठाकुर हो, किधर गाँव में तुम्हारे घर है, ओले-पाले सूखे बूढ़े की बातें करेंगे, तश्तरी में रखकर पान-सुपारी भी पेश करेंगे, मगर बस पान-सुपारी, दिल नहीं अपना। इतना संयम जरूरी है। समझदारी इसी में है।
होगी जहाँ होगी। आदमी में तो नहीं है। वहीं पर तो असल पेंच है। किसी घोंघाबसंत ने कहीं पर लिखा है कि आदमी सबसे समझदार जानवर है। बिल्कुल गलत बात है। पढ़ा-लिखा होगा, ज्ञानी होगा, समझदार नहीं है। दूसरे तमाम जानवर, यानी कि कीड़े-मकोड़े तक, उससे ज्यादा समझदार होते हैं। कभी अपने किसी शिकारी दोस्त से पूछिएगा, शेर कब और क्यों आदमखोर हो जाता है। इसलिए कि आदमी सबसे आसान चारा है। इसलिए कि अपनी उस घायल या टूटी हुई हालत में वह दूसरे किसी जानवर का शिकार नहीं कर सकता, सब आदमी से ज्यादा चौकन्ने होते हैं और खटका पाते ही भाग निकलते हैं। असल नासमझ, भुग्गा, गावदुम आदमी है।
छोड़िए जंगल की दुनिया को, अपनी रोज की दुनिया में आइए। कुत्ता, बिल्ली, बंदर, चील, कौआ, गिलहरी, साही, गौरेया खटमल, मक्खी, मच्छर- आप मार सकते हैं इसमें से एक को भी? कुत्ता जब देखो चौके में घुसा रहता है। बिल्ली रोज दूध पी जाती है। बंदर आए दिन कपड़े चींथता है। चील हाथ से जलेबी का दोना झपट ले जाती है। कौए को और कुछ नहीं मिलता तो आटे की लोई ही ले उड़ता है। गिलहरी एक अमरूद नहीं बचने देती और न एक दाना मटर का। साही आलुओं का प्रेमी है, एक-एक को खोद कर चाट जाता है। गौरेया, नन्ही-सी जान मगर वह भी ऐसा ऊधम जोते रहती है कि अनाज को धूप दिखाना मुहाल है। क्या-क्या उपाय न किए होंगे इनको पकड़ने के, मगर सब बेकार। बंदरों से और कोई उपाय न चला (उन तक पहुँच सके ऐसा जादुई डंडा अब तक तो ईजाद हुआ नहीं।) तो सोचा पत्थर मारो। सो बंदरों का तो बाल भी बाँका न हुआ, घर के बस शीशे फूट गए। इधर कुछ महीनों से एक काना कुत्ता बहुत लहटा हुआ है। सब सब करके हार गए मगर वह अपनी आदत नहीं छोडता। एक दिन मैंने अपने को बहुत लज्जित किया, ललकारा और एक मोटा-सा चैला लेकर घात में बैठ गया, आज इसी से बच्चू कि टँगड़ी न तोड़ो तो मेरा नाम नहीं। कनवा आया और अपने समय से ही आया, और ऐसा तककर चैला फेंका कि आज दिन से हमारा बुड्ढा जमादार लल्लू अपनी टँगड़ी लिए घर बैठा है और हम अपने हाथों गुसलखाना भी पोंछ रहे हैं।
हमारे एक बड़े भाई साहब शिकारी हैं। साहियों का उत्पात देखकर (आलू का आधा खेत खोद डाला कमबख्तों ने) उनको हम पर बड़ी दया आई और उन्होंने हमको इस संकट से उबारने का बीड़ा उठाया। दिन भर दो आदमी लगे रहे। खेत के आसपास बड़ी-सी एक खाई खोदी गई, और रात को भाई साहब घर भर में अँधेरा करके टार्च-बंदूक लेकर साही का शिकार करने बैठे। परम आश्वस्त कि साही के पाप का घड़ा भर गया और अब उसके विनाश की घड़ी आ गई, हम सब सोते चले गए। सबेरे जैसे ही आँख खुली हम लोग साही का मातम करने खाई की ओर भागे - और क्या देखा कि भाई साहब कीचड़ में सने कराहते बेदम पड़े थे। वह पूछना भी ठीक नहीं लगा कि यह सब क्या हुआ और साही कहाँ गई, लाद-फाँदकर उनको घर में लाए और हफ्तों उनकी सेंक-बाँध चलती रही। तब से मुझको बराबर लगता रहा है कि हो न हो जो दूसरों के लिए गड्ढा खोदता है - वाली कहावत जरूर किसी साही की बनाई हुई है, यानी कि अगर कोई साही भी लिख-पढ़ सकता है।
अब कहिए, अलापेंगे आदमी की समझदारी का राग? मगर नहीं, देखता हूँ कि अब भी आपकी आँखों में थोड़ी-सी विश्वास की चमक बाकी है। चलिए, छोड़िए इन घरेलू जानवरों को, कीडों-मकोडों पर आइए। खटमल को क्या कहिएगा जो करोड़ आदमियों की नींद हराम किए हुए है, जैसी कि हिटलर ने भी क्या की होगी, मगर मारने चलिए तो हाथ नहीं आता, देखते-देखते नजर से ओझल हो जाता है कि जैसे कोई सिद्धि हो उसके पास, और जो आपने कभी भूले से उसको पा भी लिया और पनही जमा भी दी तो सौ में निन्यानबे बार मरता नहीं, बस, नाटक किए प्राणायाम साधे पड़ा रहता है और आप जरा-सा अनुचित्ते हुए कि वह आपको साफ बुत्ता देकर अपनी राह लगा!
और मच्छर? उसका तो कुछ कहना ही नहीं। एक भी जो घुस पाया मच्छरदानी में तो समझिए कि भोर हो गई। सारी रात आप उठकर बैठेंगे, कभी दियासलाई और कभी चोरबत्ती जलाएँगे, रातभर फटाफट की आवाजें आएँगी मगर मच्छर एक भी हाथ न आएगा। पूरा छापेमार है वह, कि जैसे कहीं से ट्रेनिंग लेकर आया हो, और वह भी अभिमन्यु जैसी कच्ची अधूरी ट्रेनिंग नहीं कि आप दुश्मन के चक्रव्यूह में घुस गए मगर निकलने का ढंग नहीं आता। मच्छर माँ के पेट में पूरी ट्रेनिंग लेकर आता है। आप सात नहीं सत्तर महारथी खड़े कर दीजिए, मच्छर को आप मनमानी करने से नहीं रोक सकते। जहाँ चाहेगा जाएगा, जो चाहेगा करेगा, और शत्रुसेना को ध्वस्त और विपर्यस्त करके जब जिधर निकलना चाहेगा निकल जाएगा। आप एक बार हवा को भी रोक सकते हो, मच्छर को नहीं रोक सकते। यह आकस्मिक बात नहीं है कि हमारी भाषा में मच्छर की तुक का एक और शब्द मिलता है अच्छर जिसको हमारे यहाँ ब्रह्म कहा गया है। वैसी ही अनंत उसकी महिमा है। घर की जाने कितनी जली हुई मच्छरदानियाँ उसके अदम्य शौर्य की कहानी कह रही है - और अंत उस नैश - महाभारत का सदा यही हुआ है कि मैं हारकर, मच्छरदानी के भीतर चादर मुँह से ओढ़कर सो गया हूँ, जितना उस परमप्रतापी मच्छर से बचने के लिए उतना ही अपने मुँह की शर्म छिपाने के लिए। जभी तो मैं कहता हूँ, और कुछ झूठ नहीं कहता, खुद अपने मन को टटोलकर देखिए, समझदारी में आदमी मच्छर के संग तो क्या, पासंग में भी नहीं बैठता।
रही मक्खी सो उसको तो आदमी की नाक से खास मुहब्बत है। सारी दुनिया छोड़कर वह जब बैठेगी तब आदमी की नाक पर - शायद उसके दर्प को चूर्ण करने के लिए ही, क्योंकि आदमी को सबसे ज्यादा घमंड अपनी नाक का ही होता है, कोई बात मन के खिलाफ हुई नहीं कि उसकी नाक सबसे पहले कटती है। लिहाजा मक्खी जब बैठेगी तब ताककर वहीं उसकी उसी नाक पर। अपने हाथ मारा, उड़ गई। आप कुछ करने लगे, फिर आ बैठी। आपने फिर हाथ मारा, फिर उड़ गई। आप फिर कुछ करने लगे, वह फिर आ बैठी। यही मक्खी का ढंग है, जैसा कि एक सच्चे ग्रही का होना चाहिए। हिंसा का लेश नहीं उसमें, न काटे और न डंक मारे। बस आकर बैठ जाती है इस पर भी अगर किसी को आपत्ति हो तो यह उसका अन्याय है। अच्छी धाँधली है, दो घड़ी किसी को बैठने भी न देंगे। क्या लेती हूँ किसी का, चुपचाप बैठी ही तो रहती हूँ। उसमें भी आपकी नाक कटी जाती है तो फिर ठीक है, हो जाए एक बार निपटारा कि यह खेत किसका है।
और बिगुल बज गया। लड़ाई शुरू हो गई। अब आप हैं कि हाथ चलाए जा रहे हैं, पैर पटके जा रहे हैं, सर झटके जा रहे हैं मगर मक्खी है कि आपको दम नहीं लेने देती। फिर आप पनचक्की की तरह दोनों हाथ फटकारने लगते हैं, और मक्खी बदस्तूर अपना काम किए जाती है। यहाँ तक कि अब आपके दिमाग की नसें फटने लगी हैं, आप पागल हुए जा रहे हैं, आपको लग रहा है कि इस जीने से तो मर जाना अच्छा है, और आप छुरी उठा लेते हैं कि उस नाक का ही सफाया कर दें, मगर फिर कुछ सोचकर आप रुक जाते हैं और भाग निकलते हैं, और मक्खी इतने पर भी आपका पीछा नहीं छोड़ती। आखिरकार मैदान उसी के हाथ रहता है। मानवजाति के सारे इतिहास में आज तक आदमी-मक्खी संग्राम में कभी आदमी की जीत नहीं हुई। जो लोग निठल्लेबाजी को मक्खी मारना कहते हैं उन्होंने शायद कभी मक्खी मारी नहीं वर्ना ऐसी निठल्लेबाजी की बात न करते। मक्खी मारने से बढ़कर पौरुष या पराक्रम दूसरा नहीं है।
सौ बात की एक बात, आदमी से बढ़कर लाचार और नासमझ जानवर सारी सृष्टि में दूसरा नहीं है, और यह भी उसकी नासमझी का ही एक प्रमाण है कि वह अपने एक पुराने दोस्त को धता बताकर एक अज्ञातकुलशील अजनबी के गले में इस तरह बाँह डालकर पागलों जैसा नाचता फिरता है। साल बीतते न बीतते उसे अपने भूल का पता चलने लगता है लेकिन तब तक एक और नया साल उधर चौखट पर खड़ा होता है।
मैंने अक्सर लोगों को कहते सुना है कि आदमी वर्तमान में जीता है। काश कि ऐसा होता। मगर कहाँ? सच तो यह है कि आदमी कभी वर्तमान में नहीं जीता, जो कुछ जीता-मरता है सब भविष्य में। इसलिए तो सब उसे वर्तमान संवत्सर की बिदाई का सहृदय आयोजन करना चाहिए तब वह एक अजन्मे और तुरंत के जन्मे शिशु के स्वागत में इस तरह मतवाला होकर पिपिहरी बजाता घूमता है और सो भी आज के इस जमाने में जबकि सब जानते हैं कि हर नया बच्चा मुसीबतों की एक नयी गठरी लेकर घर में आता है।

Wednesday 18 December 2013

कोई एक घर टूटने के बहाने......

जयप्रकाश त्रिपाठी

बशीर बद्र को सुन रहा था कि 'लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में'। बस, ये ही पांच-सात शब्द मन में अटक गए। आगे की 'घर जलाने' वाली पंक्ति भूल कर मन इसी पेंच में कस गया कि कोई कैसे घर बनाता है, घर क्या सिर्फ दो-चार चुनिंदा दीवारों का नाम होता है, जब हम शहर बदलते हैं, नये ठिकाने पर होते हैं, पुराना ठिकाना छोड़ चुके होते हैं, शहर के किस्सी भी हिस्से में घूम-फिर कर मन वहीं क्यों लौट-लौट जाता है, अपने घरौंदे के बाहर का सब कुछ अजनबी या पराया क्यों बना रह जाता है?

जैसेकि हम पहले से इतने टूटे हुए, बिखरे हुए, अपने में सिमटे-दुबके हुए रहने के आदती हो चुके होते हैं कि चौखट के बाहर का कुछ भी चौखट के भीतर जैसा नहीं लग पाता है। हमारे एहसास में तब खलल पड़ता है, जब चौखट के भीतर कुछ टूटता है, जरा-सा भी। बाहर जितना भी ज्यादा टूट-फूट रहा हो, अंदर के तर्क ओढ़ कर हमारा मन उस कोलाहल से आगे भाग लेता है.......

इसलिए मुझे बशीर बद्र की पंक्ति  'लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में'...सिर्फ 'मकान' के सेंस में नहीं लगती, उसके ढेर सारे अर्थ खुलने लगते हैं मेरे अंदर। अतीत में कितना-कुछ टूटता-बिखरता गया, वे कौन-कौन थे जिन्होंने मुझे तोड़ा-बिखेरा, बार-बार मैं खुद भी क्यों टूट जाया किया, क्या जाने-अनजाने मुझसे भी कहीं कुछ किसी के हिस्से का टूट-फूट गया.....

और आज भी अक्सर टूट लेता हूं अपने मन की दीवारों के अंदर, क्यों? कैसे-कैसे बिखर लेता हूं अनायास....कि उसने मेरे साथ ऐसा क्यों किया, वह मेरे बारे में वैसा क्यों सोचता है, मेरे मन की दीवारों के अंदर अब कहकहे क्यों नहीं गूंजते, टूट गईं क्या ये दीवारें, उन विचारों के बवंडर क्यों नहीं उमड़ते, जिनमें समाया हुआ कभी हवा के संग संग दूर-दूर तक उड़ता चला जाता था, किताबें होती थीं, अलग-अलग जिंदगियों की मेले होते थे, यात्राओं और शब्दों की जादूगरी में किसी के भी पीछे ये घर अपनी जड़ें पीछे छोड़ कर भागने लगता था !

 ये घर अब इतने सन्नाटे में क्यों है, चौखट के बाहर का सब कुछ फिर से इतना अजनबी क्यों हो लिया, किसने तोड़ दिया है इन दीवारों को, इन जैसे ढेर सारे सवालों के सिरे से जब भी मैं 'घर' को अपनी तरह से परिभाषित करने की कोशिश करता हूं, बाहर का सब टूटा-फूटा नजर आता है, जो छतें सही-सलामत दिख-जान पड़ती है, घूर-खंगाल कर उससे में प्रायः उदास हो लेता हूं.... जब उधर से भी उन्मुक्त हंसी कीबरसातें नहीं हुआ करतीं, न गीतों में कोई निराला या आवारा मसीहा आश्वस्त कर रहा होता है....

शायद टूटने का अर्थ छूटना भी होता होगा.....

Sunday 15 December 2013

अन्ना, 'आप' और लोकपाल का सच


जयप्रकाश त्रिपाठी

अन्ना के संतुष्ट होने-न-होने से सरकारी लोकपाल की सच्चाई पर कोई फर्क नहीं पड़ता....
याद करिए तीन साल पहले रामलीला मैदान और जंतर-मंतर दिल्ली के दरम्यान लोकपाल-लोकपाल का शंखनाद कर रहा था।
और उसके गर्भ से पैदा हुई आम आदमी पार्टी। दरकार थी, पहले सत्ता, फिर आगे की लड़ाई। जनता के लिए कोई भी लड़ाई सिर्फ सत्ता की मोहताज नहीं होती है, फिर भी आम आदमी पार्टी ने कोई जनविरोधी काम नहीं किया।
'आप' ने अभी तक सिर्फ इतना किया, जनता को सोचने का जोश दिया कि आम आदमी आज भी उतना ही ताकतवर है, 1947 की तरह, 1977 की तरह...
अब अन्ना इस तरह सरकारी लोकपाल पर मुहर लगा रहे हैं, जैसे वही अकेले वो लड़ाई लड़ रहे थे। वह ऐसा क्यों कर रहे हैं, जनता बहुत कुछ समझ रही है। अन्ना जनता से हैं, जनता अन्ना से नहीं है।
वो लड़ाई न अन्ना अकेले लड़ रहे थे, न केजरीवाल, दोनो को इस गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए। वह लड़ाई जनता लड़ रही थी। दोनो निमित्त थे, माध्यम थे....बस। तो कानाफूसी कर लोकपाल पर मुहर लगाने की ठेकेदारी जनता ने न अन्ना को दी है, न केजरीवाल को। अन्ना के संतुष्ट होने न होने से सरकारी लोकपाल की सच्चाई पर कोई फर्क नहीं पड़ता है।
क्या अन्ना ने जन अदालत से मंजूरी लेकर सरकारी लोकपाल पर मुहर लगाई है? केजरीवाल जो सवाल उठा रहे हैं, उसका अन्ना के पास क्या जवाब है, साफ-साफ सामने आना चाहिए....
यह समय अन्ना और केजरीवाल में फासला बढ़ने-न-बढ़ने का रागदरबारी अलापने का नहीं है, ये समय उस बहस के सार्वजनिक होने का है, जो तीन साल पहले दिल्ली में उमड़ी 'जनता के लोकपाल' पर केंद्रित हो...
अन्ना ने क्या गजब का तर्क दिया है कि '..अगर किसी को लगता है कि विधेयक में कमियाँ हैं तो इसके पारित हो जाने के बाद उन्हें अनशन करना चाहिए।' यानी हमारी आंखों के सामने पहले सेंधमारी हो जाए, फिर हम थाने में रिपोर्ट लिखाने जाएं....
अन्ना साफ-साफ जन जवाबदेही से बचते हुए सरकारी लोकपाल से स्वयं को संतुष्ट बताते हैं तो मान लिया जाना चाहिए कि वह अब जनता नहीं, कांग्रेस के साथ हैं!
अन्ना जनता के साथ हैं तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ना कि लोकपाल विधेयक संसद में पास हो, न हो। ढेर सारे विधेयक पास होकर पड़े हुए हैं। खूब भ्रष्टाचार हो रहा है, चारो तरफ लूटमार मची हुई है। विधेयक का सच जानना तो देश के सामने सबसे बड़ी नजरी है 'मनरेगा'। सरकारी लूटने के लिए गली-गली में चोर पैदा हो गए हैं।
सरकारी लोकपाल से संतुष्ट हो रहे अन्ना या गैरकांग्रेसी जनता को बताएं न कि सीबीआई की स्वायत्तता का मसला क्या कोई मामूली बात है? सीबीआई की परतंत्रता मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार को सत्तासीन पार्टी की मर्जी के हिसाब से अपराधी साबित करने-न-करने की आजादी देती है।

Tuesday 10 December 2013

चच्चू की चुन्नी

अब का तुक्का-पुक्का फाड़ो
पढ़ो पहाड़ा भाईजी।
चुनाव चुक्का-मुक्का, लिक्खो
नया पहाड़ा भाईजी।

दिल्ली दांत निपोरे टुकटुक
जो जीते, सबके जी धुकधुक
सुकपुक-सुकपुक पारा डोले
फूंके डाढ़ा भाईजी।

विदुर बिदोरे होंठ, कान से
खोंट खंगालें
इधर जाल, फिर उधर जाल
टप्पे-टप्प डालें
जय हो दिन्नानाथ
हुई ताधिन्ना धिन्ना, बिना बिमारी
छानैं काढ़ा भाईजी।

झनझन्ना सइकिल, हत्थी हत्थे से बाहर
छकछक्का पंजा पर अम्मा की डौंड़ाहर
फुलवा फुसरावै आगे तौ
चिल्ला जाड़ा भाईजी।

ढोड़वा के घर में ढिंढोड़

कोई गद्दी गया छोड़ है,
भीतर-भीतर लगी होड़ है,
जोड़-तोड़ भइ जोड़-तोड़ है।

चित्तू चित्त पड़े पयताने,
हांफ रहे बेवजह फलाने,
दाद-खाज में नया कोढ़ है,
जोड़-तोड़ भइ जोड़-तोड़ है।

कैसे गद्दी पर चढ़ जाऊं
पाऊं, फिर जीभर के खाऊं
बस इतना भर का निचोड़ है,
जोड़-तोड़ भइ जोड़-तोड़ है।

दन्नूजी चढ़ गए अटारी,
सन्नूजी गा रहे लचारी,
मन्नू चाहे तोड़फोड़ है,
जोड़-तोड़ भइ जोड़-तोड़ है।

खुत्थड़ को थुत्थड़ थुथकारे,
बात-बात पर ताने मारे,
आने वाला नया मोड़ है,
जोड़-तोड़ भइ जोड़-तोड़ है।

झाड़ू ने झड़झड़ा दिया है,
ऐसा पिल्लर खड़ा किया है
आगे मकड़ी का जाला है,
सन 14 आने वाला है,
ढोड़वा के घर में ढिंढोड़ है,
जोड़-तोड़ भइ जोड़-तोड़ है।

Sunday 8 December 2013

आम आदमी की पार्टी का ताजा चैलेंज.......


यह दिल्ली में सिर्फ पारंपरिक सरकार बना लेने भर का नहीं, देश की जनता के लिए नई राजनीतिक संभावनाओं का द्वार खुलने का समय है।

जेपी मूवमेंट के बाद देश की जनता की जो दुर्दशा ये सरकारें करती आ रही हैं, तरह तरह के खोल ओढ़ कर लोकतंत्र के नाम पर नितांत अलोकतांत्रिक तरीके से जनता के राजस्व की बेखौफ व्यक्तिगत हित में, ऐशोआराम के साथ ठिकाने लगाते जा रही हैं, महंगाई, कानून व्यवस्था, विकास के मोरचो पर जिस दंभ और गुरूर के साथ, सांप्रदायिकता और जात-पांत के सहारे, राजनीति में नितांत अयोग्य होने के बावजूद पारिवारिक विरासत और महंतई के बूते देशवासियों की जैसी दुर्दशा करती जा रही हैं, ऐसे में जनहित की दृष्टि से दिल्ली में सरकार बनना उतना जरूरी नहीं, जितना कि 'आम आदमी पार्टी' का उम्मीदों और आशाओं पर खरा उतरना आवश्यक है।

बड़ी मेहनत से कश्ती तूफान से निकाल कर आप टीम ले आई है

समय के इस मोड़ पर अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों पर पहले से ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी आ पड़ी है।

पूरे देश की निगाहें उन पर हैं।

देखना होगा कि वह दलदल में शामिल हो जाते हैं या अन्ना हजारे के लक्ष्य को अंजाम तक पहुंचाने का बीड़ा उठा लेते हैं।  

बीड़ा उठाएं भी तो सिर्फ जेपी मूवमेंट जितना ही नहीं, आज की चुनौतियों और जनता की आकांक्षाओं तथा कहरे विश्वास को ध्यान में रखते हुए। क्योंकि जनता पार्टी का अंतिम अंजाम क्या रहा था, देश अभी भूला नहीं है।

Saturday 7 December 2013

गीत-फरोश

भवानीप्रसाद मिश्र

जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ !

जी, माल देखिए, दाम बताऊँगा,
बेकाम नहीं है, काम बताऊँगा,
कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने,
कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने,
यह गीत, सख्त सरदर्द भुलाएगा,
यह गीत पिया को पास बुलाएगा !

जी, पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको;
पर बाद-बाद में अक्ल जगी मुझको,
जी, लोगों ने तो बेच दिये ईमान,
जी, आप न हों सुन कर ज्यादा हैरान -
मैं सोच-समझकर आखिर
अपने गीत बेचता हूँ,
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ !

यह गीत सुबह का है, गाकर देखें,
यह गीत गजब का है, ढाकर देखे,
यह गीत जरा सूने में लिक्खा था,
यह गीत वहाँ पूने में लिक्खा था,
यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है,
यह गीत बढ़ाए से बढ़ जाता है !

यह गीत भूख और प्यास भगाता है,
जी, यह मसान में भूख जगाता है,
यह गीत भुवाली की है हवा हुजूर,
यह गीत तपेदिक की है दवा हुजूर,
जी, और गीत भी हैं, दिखलाता हूँ,
जी, सुनना चाहें आप तो गाता हूँ !

जी, छंद और बे-छंद पसंद करें,
जी, अमर गीत और ये जो तुरत मरें !
ना, बुरा मानने की इसमें क्या बात,
मैं पास रखे हूँ कलम और दावात
इनमें से भाएँ नहीं, नए लिख दूँ,
मैं नए पुराने सभी तरह के
गीत बेचता हूँ,
जी हाँ, हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ !
जी गीत जनम का लिखूँ, मरण का लिखूँ,
जी, गीत जीत का लिखूँ, शरण का लिखूँ,
यह गीत रेशमी है, यह खादी का,
यह गीत पित्त का है, यह बादी का !
कुछ और डिजायन भी हैं, यह इल्मी,
यह लीजे चलती चीज नई, फिल्मी,
यह सोच-सोच कर मर जाने का गीत !
यह दुकान से घर जाने का गीत !
जी नहीं दिल्लगी की इस में क्या बात,
मैं लिखता ही तो रहता हूँ दिन-रात,
तो तरह-तरह के बन जाते हैं गीत,
जी रूठ-रुठ कर मन जाते है गीत,
जी बहुत ढेर लग गया हटाता हूँ,
गाहक की मर्जी, अच्छा, जाता हूँ,
मैं बिलकुल अंतिम और दिखाता हूँ,
या भीतर जा कर पूछ आइए, आप,
है गीत बेचना वैसे बिलकुल पाप
क्या करूँ मगर लाचार हार कर
गीत बेचता हूँ।
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ !

Friday 6 December 2013

मैं स्त्री हूं, मुझे संभाल कर रखिए : किरण सिंह

उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले की लेखिका किरण सिंह की कई रचनाएं पुरस्कृत हो चुकी हैं. कविता संग्रह 'सूर्यांगी' के लिए उनको महादेवी वर्मा पुरस्कार दिया गया था. उनकी इस टिप्पणी से समूची आधी दुनिया का दर्द और स्वाभिमान सार्थक-सशक्त हस्तक्षेप की तरह सामने आता है कि मै स्त्री हूं और हिन्दी में लिखती हूँ. मैं एक लुप्त होती प्रजाति हूँ. मुझे संभाल कर रखिए. इन शब्दों के साथ उन्होंने ताजा-ताजा अपना यह प्रेरक बयान साझा किया है, सविस्तार, कुछ इस तरह.... 'मैंने कहानियाँ लिखना क्यों शुरु किया? इसलिए क्योंकि मैं आत्मकथा नहीं लिखना चाहती थी. आत्मकथा की शर्त है-सत्य और मेरे जीवन के सत्य दुधारी तलवार जैसी है. कहानियाँ लिखने की एक वजह यह भी थी कि मेरी ससुराल में सभी को थोड़ी बहुत कविता लिखनी आती थी. शिवमंगल सिंह सुमन और अदम गोंडवी मेरे ससुर के अच्छे परिचितों में से थे. मैं जो कविताएँ लिखती उसे बारी-बारी से, मेरे ससुराल में सभी सुधारते थे.
' छन्द-लय के अलावा यह भी देखा जाता कि तथाकथित आपत्तिजनक शब्द या भाव तो नहीं है जिससे उनकी बहू को समाज में गलत समझ लिया जाए. जैसे मैने यह दोहा लिखा, "बरसे रस की चाँदनी/भीगे उन्मन अंग/श्याम पिया मैं श्वेत हूँ/रैन दिवस एक संग. दोहा पढ़ने के बाद सासू-माँ दो दिन तक अनमनी रहीं. तीसरे दिन रहा न गया. पूछती हैं, लेकिन मेरा बचवा (उनका बचवा यानी मेरा आदमी)... मेरा बचवा तो झक गोरा है... फिर ये पिया...साँवले? मेरा पहले से तैयार जवाब था, अरे अम्माजी आप भी न! कृष्ण, भगवान कृष्ण! अच्छा आँ...हाँ ! वो अक्सर इत्मीनान की साँस लेती हैं. अम्मा-पिताजी यानी मेरे सास-ससुर मुझे कवि सम्मेलनों ले जाते. सबसे परिचय करवाते, सबसे कहते कि वे अपनी बहू को आगे बढ़ाना चाहते हैं.
'मैं अम्मा-पिताजी से क्षमा माँगते हुए कहना चाहती हूँ. एक बार कुछ बच्चों ने देखा कि एक चिड़िया अपने अंडे से बाहर निकलने के लिए छटपटा रही है. उन्होंने अंडे को तोड़ा. चिड़िया को निकाला. उसके चिपचिपे पंखों को पोंछा और उसके नीचे एक मुलायम कपड़ा बिछा कर पानी-दाना रख दिया. अगले दिन बच्चे दौड़ते हुए चिड़िया के पास गए तो वह चिड़िया मर चुकी थी. अंडे से बाहर निकलती हुई चिड़िया को जो संघर्ष करना पड़ता, उसमें उसके पंख मजबूत होते और वह बाहरी दुनिया के थपेड़ों का सामना कर पाती. रक्षा में हत्या हो गई. मेरी वे जड़ किस्म के भावबोध की कविताएँ कहीं नहीं छपती थीं. कविताएँ घर में पढ़ी जाएँगी यह सोचकर मैं अपने को सेंसर करते हुए डर-डर कर लिखती थी. मैं कोई संतुलित राह निकालने में असफल रही और मेरे भीतर की कवयित्री की अकाल मृत्यु हो गई. मैंने कुछ भी लिखना इसलिए शुरु किया क्योंकि मेरी एक खिड़की थी. जो मुझसे छिन गई. उसके बाद मेरा रहना एक ऐसे कमरे में हुआ जिसमें अँधेरा रहता था. घोर सामंती परिवार में मेरा जन्म हुआ. मेरा नाम पड़ा इतवारी और मुझसे पाँच दिन पहले पैदा हुई बुआ का नाम पड़ा सोमवारी.
'जब पाठशाला में नाम लिखाने की बारी आई तो मास्साब के कहने पर शहराती नाम रखा गया. मेरा नाम हुआ किरन क्योंकि मै इतवार की सुबह की किरन के साथ जन्मी थी और बुआ का तीजा क्योंकि वो तीसरी संतान थीं. साहित्यिक समाज से रिश्ता जुड़ा तो मेरा नाम छपने लगा किरण सिंह. उधर बुआ की शादी ऐसे परिवार में हुई जिनके परिवार के एकाध लोग शौकिया डकैत थे तो बुआ का ससुराल में नामकरण हुआ तिजा सिंह की जगह तेजा सिंह. मेरे पिता पढ़ने के लिए और नौकरी के लिए गाँव से बाहर निकले जरुर लेकिन परिवार से इस वादे के साथ कि वे शहर जाकर बिगड़ेंगे नहीं. इसलिए उन्होंने सांमती संस्कारों को और दृढ़ता से निभाया. पिता की वकालत जमने लगी तो हम गाँव से कस्बे में आए. मेरे कस्बे के उस मकान में मुकदमा लड़ने वालों, जच्चा-बच्चा, पढ़ने और परीक्षा देने वालों की भीड़ लगी रहती. माँ मेरे कमरे का दरवाजा बाहर से बंद कर के अपना काम करती रहती थीं. मेरे कमरे में एक खिड़की थी जिसके बाहर पोखर था. मैं खिड़की के पास बैठी अपनी कोर्स की किताबें पढ़ती और बाहर देखती रहती.
'उस खिड़की पर वह जाली लगी थी जिससे भीतर से बाहर तो देख सकते थे लेकिन बाहर से भीतर नहीं दिखाई देता था. संझा कहानी में यह खिड़की है. मेरे कस्बे का एकमात्र कॉलेज कई दिनों तक छात्रों फिर कर्मचारियो के हड़ताल में या हड़ताल के दौरान तोड़े गए फर्नीचर की मरम्मत में या फिर छात्रसंघ के चुनाव में बन्द ही रहता था. कॉलेज खुलता तो कई दफा चाचा लोग आकर कह देते फलां गुरुजी नहीं आए हैं जाने का कोई काम नहीं है. बारहवीं के बाद कॉलेज जाना कभी-कभी हुआ. वह खिड़की मेरा सहारा थी. एक दिन उस खिडकी की जाली में छेद करके एक प्रेम पत्र खोंस दिया गया था. उस चिट्ठी में लिखा था 'हँसी तो फँसी'. दरअसल एक लड़का हरे रंग की पैंट और लाल बुशर्ट पहनता था. वह अपनी दबंगई के किस्से ऊँची आवाज में लड़कियों के कॅामन रूम के आगे सुनाया करता था. एक दिन मैंने उसकी ओर देख कर सहेलियों कहा, "तोता!" और हँस पड़ी. मेरी माँ जो मेरी सबसे अच्छी सहेली थी, अपनी उस गलती के लिए बहुत दिनों तक पछताती रही. दो-चार और चिट्ठियाँ हुईं तो माँ ने उस लडके के डर से चिट्ठियाँ पिताजी को दे दीं. मेरी कोठरी बदल दी गई.
'अब मुझे बीच वाली कोठरी में रहना था जिसमें अँधेरा और सीलन रहता था जिसकी खिड़की रसोई में खुलती थी. रसोई का धुआँ कमरे में भर जाता था. एकांत और अँधेरे के उन कई सालों में मेरा व्यक्तित्व सामान्य नहीं रह गया. माँ मुझे काम नहीं करने देती और कहती कि तुम बस पढ़ो और निकलो इस जगह से. मेरे पास बहुत सारा खाली समय होता था जिसमें मैं देखे-सुने को सोचती रहती और एक काल्पनिक दुनिया की रचना करती. इस तरह मुझमें विचार की शक्ति आई और मेरी कल्पना शक्ति बहुत बढ़ गई. नुकसान यह हुआ कि उजाला मुझे चुभता है, समायोजन में कठिनाई होती है, सभा-सम्मेलनों मैं अनायास किनारे चली जाती हूँ और लोगों को ऐसे देखती हूँ जैसे वे. बस इतना जान लीजिए कि मेरे लिए कहानी वह आग है जो जंगल की आग को बुझाने के लिए लगा दी जाती है. मैं अपने को और दूसरों को नष्ट करने वाला मानव बम नहीं बनना चाहती. मैंने अपने क्रोध को रचनात्मकता में तब्दील किया है. मेरी कहानियाँ सामंती सोच वाले समाज से मेरा रचनात्मक प्रतिशोध हैं. मेरा व्यक्तिगत मत है कि स्त्री की अधिकांश क्रिया प्रितिक्रिया होती है.
' स्त्री या तो रक्षात्मक रहती है या आक्रामक. वह सहज मनुष्य नहीं रहती. मेरे लिए कहानी, विकटतम स्थितियों में भी जिन्दगी जीने का लालच है. मैं अपनी कहानियों की शुरुआत नहीं जानती लेकिन अंत जानती हूँ. विकटतम स्थितियों में भी मेरी नायिकाएँ न हारेंगी न मरेगी. वह डरेगी लेकिन वह लड़ेगी. न दैन्यं न पलायनम्. मनुष्य से इतर किसी भी शक्ति में मेरा विश्वास नहीं.'

अपने खिलाफ फतवे पर तसलीमा हैरान

बांग्लादेशी मूल की विवादित लेखिका तसलीमा नसरीन ने अपने ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज किए जाने पर हैरानी जताते हुए कहा है कि मैं नहीं जानती, मेरे ख़िलाफ़ एफ़आईआर क्यों दर्ज की गई है. मैंने तो सिर्फ़ सच बोला था. असल में 2007 में उलेमा ने फ़़तवा जारी कर मेरे सिर पर ईनाम रखा था. मैंने इसी बारे में ट्वीट किया था. अब उन उलेमा का कहना है कि मेरी ट्वीट से उनकी भावनाएं आहत हुई हैं. मैं चकित हूँ क्योंकि मैंने कुछ भी ग़लत नहीं कहा है? क्या भारत इंटरनेट पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति कठोर हो रहा है. तसलीमा कहती हैं कि मुझे नहीं लगता कि भारत एक कठोर या असहिष्णु देश है, लेकिन कुछ लोग अभी भी असहिष्णु हैं, ख़ास कर धार्मिक कट्टरपंथी. वे लोगों का उत्पीड़न करने की कोशिश करते हैं. ये लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में यक़ीन नहीं रखते हैं. मैं भारत को प्यार करती हूँ और उन लोगों का सम्मान करती हूँ जो मानवाधिकारों में यक़ीन रखते हैं. यहाँ के क़ानून बहुत अच्छे हैं. मैं जो भी लिखती हूँ मानवाधिकारों के लिए लिखती हूँ. मैं सिर्फ़ इस दुनिया को बेहतर बनाना चाहती हूँ. लोगों को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करने के लिए मैंने अपने जीवन का त्याग किया है.
वह कहती हैं कि यह अच्छी बात है कि अब हमारे पास इंटरनेट है. हम खुलकर अपनी बात रख सकते हैं और कोई हमारे लेखन, राय या विचारों को सेंसर नहीं कर सकता. यह एक खुले समाज के लिए बहुत अच्छा है. सभी लोग अपनी राय रख सकते हैं. एक सभ्य समाज में अपनी राय रखने के लिए किसी को सज़ा नहीं दी जानी चाहिए, भले ही उसकी राय कुछ भी हो.
तसलीमा नसरीन के ख़िलाफ़ उत्तर प्रदेश के बरेली ज़िले में सूचना प्रौद्योगिकी क़ानून के तहत एफ़आईआर दर्ज की गई है. यह एफ़आईआर बरेली के एक प्रमुख मुस्लिम धर्मगुरु की शिकायत पर दर्ज की गई है. आरोप है कि तसलीमा नसरीन की ट्वीट से मुसलमानों की भावनाएं आहत हुई हैं. उत्तर प्रदेश पुलिस के मुताबिक एफ़आईआर दरग़ाह आला हज़रत के मौलाना सुब्हानी मियाँ के बेटे हसन रज़ा ख़ाँ नूरी की ओर से दर्ज कराई गई है. शिकायत में कहा गया है कि तसलीमा ने हाल ही में अपनी ट्वीट में मुस्लिम उलेमाओं को अपराधी कहा जिससे मुसलमानों की भावनाएं आहत हुईं.
फ़ेसबुक पर भड़काऊ टिप्पणियाँ करने के आरोप में सामाजिक कार्यकर्ता शीबा असलम फ़हमी के ख़िलाफ़ हाल ही में एफ़आईआर दर्ज़ की गई.
तसलीमा नसरीन के ख़िलाफ़ सूचना प्रौद्योगिकी क़ानून की धारा 66ए के तहत मामला दर्ज किया गया है. इससे पूर्व अक्टूबर 2012 में तमिलनाडु के एक व्यापारी को वित्त मंत्री पी चिदंबरम के बेटे पर टिप्पणी करने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया. नवंबर 2012 में शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे की मौत से जुड़ी टिप्पणी करने पर पालघर की दो लड़कियों को गिरफ़्तार किया गया. हालांकि व्यापक विरोध के बाद में मामले हटा लिए गए. अगस्त 2013 में उत्तर प्रदेश के दलित लेखक कँवल भारती को समाजवादी पार्टी सरकार पर टिप्पणी करने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया. दिल्ली की एक अदालत के आदेश पर अक्टूबर 2013 में फ़ेसबुक पर भड़काऊ टिप्पणियों के आरोप में सामाजिक कार्यकर्ता शीबा फ़हमी के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज की गई. तसलीमा पर इससे पहले भी मामले दर्ज हुए हैं. उन्हें जान से मारने तक की धमकियाँ मिली हैं. तो क्या इस एफ़आईआर के बाद तसलीमा के लेखन में बदलाव आएगा.
तसलीमा कहती हैं कि मुझे जो सही लगता है, मैं उसे पूरी स्वतंत्रता से लिखती रहूंगी. मैं एक प्रजातंत्र में रहती हूँ और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और बराबरी में यक़ीन रखती हूँ. मैं कभी भी अपने आप को वो लिखने से नहीं रोकूंगी जिसे मैं सही मानती हूँ. मैं हमेशा से खुलकर लिखती रहूं हूँ. मुझे मेरे देश से बाहर भेज दिया गया. मैं निर्वासित होकर रह रही हूँ, फिर भी मैंने सच लिखने से कभी भी ख़ुद को नहीं रोका. (बीबीसी से साभार दिलनवाज़ पाशा की रिपोर्ट)

लड़कियां बोझ नहीं

रोमा राजपाल
बाल विवाह के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र की मुहिम को दक्षिण एशियाई देशों ने पीठ दिखा दी है. इस प्रस्ताव में 2015 तक बाल विवाह के मामले खत्म करने की बात है. दक्षिण एशिया में आज भी कम उम्र में ही लड़कियों की शादी हो जाना बड़ी समस्या है. यह कई बार पारंपरिक कारणों से तो कई बार शादी की उम्र को लेकर चले आ रहे रूढ़िवादी विचारों की वजह से होता आ रहा है. संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार समिति (यूएनएचसीआर) के अनुसार अगले दस सालों में 14 करोड़ से ज्यादा लड़कियों की शादी 18 साल से कम उम्र में हो जाएगी. इनमें से आधी दक्षिण एशियाई देशों में होंगी.
भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका जैसे देशों में बाल विवाह गैर कानूनी है, लेकिन फिर भी इन्हें रोका नहीं जा सका है. यूनाइटेट नेशंस पॉपुलेशन फंड (यूएनएफपीए) की रिपोर्ट के अनुसार 2000 से 2010 के बीच करीब ढाई करोड़ लड़कियों की शादी 18 साल से कम उम्र में कर दी गई.
इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च के रिप्रोडक्टिव हेल्थ एंड इकोनॉमिक डेवलपमेंट विभाग की निदेशक प्रिया नंदा ने बताया, "दक्षिण एशिया में यह काफी आम है. जैसे ही लड़कियों का मासिक धर्म शुरू हो जाता है उन्हें शादी के लायक मान लिया जाता है." उनका मानना है कि इस तरह की सोच का सीधा सा मतलब यही है कि लड़की बड़ी हो गई तो उसे संरक्षण चाहिए. यह परिवार के मान सम्मान की बात होती है. यौन हमलों या शादी से पहले किसी के साथ स्वेच्छा से शारीरिक संबंध बना लेने का डर भी परिवारों पर हावी होता है. इसी दबाव में अक्सर माता पिता उनकी जल्दी शादी करना सही कदम मानते हैं.
बाल विवाह बंद करने के लिए यूएनएचसीआर ने एक प्रस्ताव रखा. इसमें दुनिया भर के देशों से इस संकल्प में सहयोग की मांग की गई. इथियोपिया, दक्षिण सूडान और यमन में बाल विवाह के मामले काफी ज्यादा हैं. इन देशों समेत कुल 107 देशों ने बाल विवाह के खिलाफ संकल्प लिया. भारत, नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और पाकिस्तान अपने यहां बाल विवाह की उच्च दर के बावजूद भी इस संकल्प में शामिल नहीं हुए.
भारत में सामाजिक कार्यकर्ता कृति भारती ने कहा, "कई बार परंपराएं कानून पर भारी पड़ती हैं." वह कहती हैं भारत में गावों के बड़े बूढ़े ऐसे मामलों में कानून को ज्यादा मान्यता नहीं देते और क्षेत्रीय अधिकारी भी इन मामलों में आंखें मूंद लेते हैं. भारती को ऐसी लड़कियों के परिवार, आस पास के लोगों और कई बार राजनेताओं से भी आए दिन धमकियां मिलती हैं.
उनकी गैर सरकारी संस्था 'सारथी ट्रस्ट' बाल वधुओं को बचाने के लिए काम करती है. इस तरह के 150 मामलों में उनकी संस्था ने लड़कियों के बाल विवाह को कानूनी तौर पर रद्द करने में मदद की है. भारती ने डॉयचे वेले को बताया, "राजस्थान में यह प्रथा ज्यादा है और ऐसे में लोगों की मानसिकता बदलना बहुत मुश्किल है. इसी तरह से जबरदस्ती शादी कराने की एक परंपरा है 'मौसार'. परिवार में किसी सदस्य की मृत्यु हो जाने की स्थिति में घर का माहौल बदलने के लिए लड़की की शादी 13 दिनों के अंदर कर देनी होती है. फिर चाहे उम्र शादी के लायक हो या ना हो."
दक्षिण एशिया में आमतौर पर शादी ब्याह बड़े पैमाने पर खर्चीले अंदाज में होते हैं. ऐसे में परिवार पर भारी आर्थिक बोझ आ पड़ता है. अकसर लोग इसके लिए कर्ज ले लेते हैं. शोध के अनुसार बाल विवाह के ज्यादातर मामले ग्रामीण इलाकों में ज्यादा हैं. नंदा ने डॉयचे वेले को बताया, इन इलाकों में दहेज के लेन देन का भी खूब चलन है. जैसे जैसे लड़की बड़ी होती जाती है उसके साथ दहेज की मांग भी बढ़ती जाती है. ऐसे में परिवार ज्यादा पैसे खर्च करने के बजाय लड़की की जल्दी शादी कर देना बेहतर समझते हैं.
इसके अलावा उन्होंने बताया लड़की की कीमत इस बात से भी आंकी जाती है कि उससे कितना काम लिया जा सकता है. समाज में यह सोच बरकरार है कि उसका ज्यादा फायदा लड़के के परिवार वालों को मिलना चाहिए. वे मानते हैं लड़की का बहुत दिन तक अपने माता पिता के घर पर रहने का क्या औचित्य है जब वह उन्हें फायदा नहीं पहुंचाने वाली? इस तरह की शादियां कई बार व्यापार की तरह होती हैं. मानव अधिकार संगठन ह्यूमन राइट्स वॉच के हीथर बार ने कहा, "अफगानिस्तान में कम उम्र की लड़कियां किसान पिता पर चढ़े कर्ज की भेंट चढ़ जाती हैं. जब किसान अपना कर्ज नहीं चुका पाते हैं तो पैसे के बदले उन परिवारों में लड़कियों की शादियां करके कर्ज चुका देते हैं."
शिक्षा की कमी में ये लड़कियां गरीबी में जीवन गुजारती हैं और आर्थिक रूप से दूसरों पर निर्भर हो जाती हैं. इसके अलावा उनके स्वास्थ्य पर बेहद खराब असर पड़ता है. इन लोगों को यह भी नहीं पता कि शरीर के पूरी तरह से तैयार हो जाने से पहले गर्भधारण उनके शरीर पर बुरा असर डालता है. कम उम्र में शादी हो जाने पर उनके साथ घरेलू हिंसा के भी काफी मामले होते हैं. यूएनएफपीए की रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण एशिया में कम उम्र में गर्भधारण और मां बनने की प्रक्रिया में होने वाली मौतें सबसे ज्यादा हैं.
हीथर बार इस बात पर जोर देते हैं कि इस समस्या से निपटने के लिए सबसे जरूरी है कि लोगों में इससे संबंधित कानून के प्रति जागरुकता पैदा की जाए. उन्होंने कहा, "सरकार को बहुत काम करने की जरूरत है. अफगानिस्तान में शादी कराने वाले मुल्ला ही ये नहीं जानते कि वहां लड़कों के लिए शादी की कानूनी उम्र 18 साल और लड़कियों के लिए 16 साल है."
जानकारों का मानना है कि इन सभी दक्षिण एशियाई देशों में कानून हैं लेकिन वे पूरी तरह से लागू नहीं हो पा रहे हैं. नंदा ने कहा, "समस्या बहुत गंभीर है और इसकी शुरुआत वहां से होती है जब लड़कियों को लड़कों से कम आंका जाता है. यह बहुत आम सोच है और इसे बदलने की जरूरत है." उनका मानना है सरकार को कुछ ऐसे रास्ते निकालने पड़ेंगे जिनसे हमारा समाज लड़कियों को बोझ की तरह देखना बंद करे.

बुद्ध का स्त्री विमर्श

शेषनारायण सिंह
बुद्ध ने नर्तकी अंबपाली का आतिथ्य स्वीकार किया. कुछ लोग इस तथ्य के आधार पर साबित करना चाहते हैं कि बुद्ध तत्कालीन पितृसत्तात्मक मूल्यों के विरुद्ध स्त्रियों के पक्षधर थे. बात ऐसी नहीं है. अंबपाली का स्वीकार उसी पितृसत्तात्मक मूल्यों के अधीन वेश्यावृत्ति को मान्यता प्रदान करना था. कहना न होगा कि बुद्ध ने जब संघ स्थापित किया तो शुरू में उन्होंने दासों की तरह महिलाओं को उसमें आने नहीं दिया, उन्हें संघ में आने से बार-बार मना किया, उन्हें उसमें जगह नहीं लेने दी. जहां एक ओर बुद्ध और अन्य दूसरे लोग स्त्रियों का संघ में आने और जीवन का दूसरा रास्ता अपनाने का विरोध कर रहे थे, वहीं आनंद, जो बुद्ध के चचेरे भाई थे, जैसे लोग भी थे जो स्त्रियों के संघ में आने दिए जाने का समर्थन और उसके लिए तर्क कर रहे थे. कहना होगा कि बुद्ध को रास्ता दिखाया आनंद ने. संघ में स्त्रियों के आने के लिए जिसने बार-बार प्रश्न उठाया वह आनंद की मां थीं, प्रजापति गौतमी. जहां-जहां बुद्ध जाते थे, वहां-वहां वे बुद्ध के पीछे-पीछे जाती थीं. आनंद ने बुद्ध से पूछा कि ‘अगर औरतें कोशिश करें तो क्या वे निर्वाण प्राप्त कर सकती हैं?’ जवाब में बुद्ध ने कहा-‘हां’, इस पर आनंद ने कहा कि ‘तब फिर आप उन्हें संघ में क्यों नहीं आने देते?’ क्योंकि निर्वाण प्राप्त करने के लिए संघ में आना जरूरी था।
सच तो यह है कि आनंद उस संपूर्ण प्रकरण में स्त्रियों का एकमात्र सुभेच्छु था जो इस सिद्धांत में विश्वास रखता था कि स्त्री और पुरुष समान रूप से निर्वाण के हकदार हो सकते हैं. बुद्ध की मृत्यु के बाद अनेक अवसरों पर इस बात के लिए आनंद की निन्दा की गई थी. प्रथमतः, महाप्रजापति गौतमी के मामले में संघ में प्रवेश के सवाल पर और द्वितीयतः रोती हुई माता के बुद्ध के अंतिम दर्शन के अवसर पर (चुल्लवग , पृष्ठ 411). संपूर्ण बौद्ध साहित्य में आनंद के अलावे किसी दूसरे व्यक्ति का उल्लेख तक नहीं मिलता जो स्त्रियों का पक्षधर हो. यह आनंद के व्यक्तित्त्व का मानवीय पहलू हो सकता है, लेकिन इस तरह का कोई उल्लेख शायद ही मिलता है, जिसके आधार पर कहा जा सके कि बुद्ध या बौद्ध धर्म स्त्रियों के प्रति उदार था. यहां अंगुत्तरनिकाय (खंड-२, पृष्ठ ७६) का वह प्रसंग उल्लेखनीय है जब आनंद स्त्रियों के दरबार में नहीं बैठने एवं शील-चर्चा के क्रम में उपस्थित नहीं रहने के प्रश्न पर बुद्ध से चर्चा करता है।
उस समय और उनके कायदे के अनुसार, इस प्रश्नोत्तर के क्रम में बुद्ध ने अंततः उन्हें संघ में आने दिया, लेकिन कायदे ऐसे बनाए कि संघ में भिक्षुणियों को भिक्षुओं के नीचे दबे रहना था। संघ को भिक्षु एवं भिक्षुणि इन दो संघों में बांटकर भिक्षु संघ को ऊपर का दर्जा दिया गया और भिक्षुणि संघ को उसके नीचे का। उन्होंने भिक्षुणियों के लिए दस शर्तें, नियम या कायदे बताए जिनके पालन के पश्चात ही औरतें संघ में आ सकती थीं। उनमें से एक बहुत ही चोट पहुंचानेवाला कायदा था कि चाहे जितनी भी वरिष्ठ भिक्षुणि हो उसके सामने चाहे जितना भी कनिष्ठ भिक्षु आ जाए, उसे उसको सलामी देनी पड़ेगी। भिक्षुणियों पर और भी कई सख्त प्रतिबंध थे। इसके साथ ही समान गलती के लिए भिक्षुओं की अपेक्षा भिक्षुणियों को अधिक सख्त दंड का भागी बनना पड़ता था। ऐसा आप कह ले सकते हैं कि यह औरत और मर्द के बीच स्थापित उच्च एवं निम्न के भेद को कायम रखने के लिए किया गया। इसका सीधा सा अर्थ था- औरतों को संघ के अंदर भी पुरुषों के दबाव में रखना।
स्त्रियों के प्रति बुद्ध के विचार को बौद्ध साहित्य में वर्णित गाथाओं के माध्यम से भी समझा जा सकता है। एक गाथा (कोलिय जातक,१३०) इस प्रकार शुरू होती है- ‘वह एक श्रद्धालु उपासक ब्राह्मण की ब्राह्मणी थी; बहुत दुश्चरित्र, पापिन। रात को दुराचार करती थी. ... ब्राह्मण घर आता तो (रोग का) बहाना बनाकर लेट जाती। उसके बाहर जाने पर ‘‘जारों’’ के साथ गुजारती। वह ब्राह्मण बुद्धदेव का भक्त था-‘‘उपासक’’. (गृहस्थ बौद्ध को उपासक कहा जाता है)। वह ब्राह्मण तक्षशिला का स्नातक था और वाराणसी का प्रसिद्ध आचार्य भी था। सौ राजधानियों के क्षत्रिय राजकुमार उनके पास पढ़ा करते थे (देखें, मोहनलाल महतो वियोगी, जातककालीन भारतीय संस्कृति , पृष्ठ १४८).
एक दूसरे ब्राह्मण की स्त्री भी घोर दुश्चरित्रा थी। ब्राह्मण भी अपनी पत्नी के अनाचार को जानता था। जब ब्राह्मण व्यापार के लिए जाने लगा तो अपने दो पालित पुत्रों को सचेत करता गया- ‘यदि माता ब्राह्मणी अनाचार करें, तो रोकना।’ पालित पुत्रों ने जवाब दिया- ‘रोक सकेंगे तो रोकेंगे, नहीं तो चुप रहेंगे।’ जातक कथा में यह वाक्य है- ‘उसके जाने के दिन से ब्राह्मणी ने अनाचार करना आरंभ किया। घर में प्रवेश करनेवालों और निकलनेवालों की गिनती नहीं रही। ब्राह्मण का वह घर क्या था, पूरा वेश्यालय! उसके धर्मपुत्र भी उदासीन रहकर सब कुछ देखते रहे’ (राधजातक , १४५).
राधजातक (१७९) के अनुसार, ‘एक ब्राह्मण ने दो तोते पाले। ब्राह्मणी व्यभिचारिणी थी। ब्राह्मण तोतों को निगाह रखने का आदेश देकर व्यापार के उद्येश्य से कहीं चला गया। मौका मिलते ही ब्राह्मणी ने खुलकर अनाचार करना शुरू कर दिया।’
पुनश्च, ‘किसी ब्राह्मण की पत्नी दुश्चरित्रा थी। एक नट को उसने घर में बुला लिया। ब्राह्मण घर से बाहर गया हुआ था। ब्राह्मणी ने नट को भात-दाल पकाकर खिलाया। वह जैसे ही खाने बैठा कि ब्राह्मण आ गया। नट को ब्राह्मणी ने छिपा दिया। ब्राह्मण ने भोजन मांगा तो नट की जूठी थाली में थोड़ा-सा भात डालकर ब्राह्मण के आगे घर दिया। ब्राह्मण खाने लगा। एक नट भिखमंगा, जो दरवाजे पर बैठा सब कुछ देख रहा था, ने ब्राह्मण से सारी कथा कह दी’ (उच्छिट्ठभत्त जातक , २१२).
एक गाथा ऐसी है जिसमें बतलाया गया है कि एक ब्राह्मणी युवती ने अपने तुरंत के ब्याहे महापराक्रमी पति का खून डकैत सरदार के हाथ में तलवार पकड़ाकर करा दिया। उन्चास तीरों से उन्चास डकैतों को उस पराक्रमी ने ब्राह्मण ने मार गिराया। पचासवां व्यक्ति था डाकू-सरदार। अब ब्राह्मण के पास तीर न था। उसने डाकू सरदार को पटक दिया और अपनी स्त्री से तलवार मांगी। स्त्री उस डाकू-सरदार पर पहले ही मुग्ध हो चुकी थी। उसने तलवार डाकू-सरदार को पकड़ा दी और उस डाकू ने ब्राह्मण पर वार कर दिया। डाकू-सरदार के पूछने पर ब्राह्मणी ने कहा, ‘मैंने तुम पर आसक्त हो अपने कुल-स्वामी को मरवा दिया।’ वह डकैत भी ब्राह्मण ही था; क्योंकि उस ब्राह्मणी ने उसे ‘बाह्मण’ कह पुकारा था-‘सब्बं भण्डं समादाय पारं तिण्णोसि ब्राह्मण।’ (चुल्लधनुग्गह जातक , ३७४).
एक ब्राह्मणी ऐसी थी जिसने अपने पति को भीख मांगकर धन जमा करने के लिए बाहर भेज दिया और खुद अनाचार में लिप्त हो गई। धन कमाकर ब्राह्मण जब लौटा, तब ब्राह्मणी ने उस धन को अपने उपपति को दे दिया (सत्तुभस्त जातक , ४०२).
जातकों में उल्लिखित तथ्य एवं निष्कर्ष से भी स्त्रियों की सामाजिक हैसियत एवं उसके प्रति बुद्ध के विचार पर प्रकाश पड़ता है. बुद्ध, बोधिसत्व के रूप में एक बार भी मादा योनि में जन्म नहीं लेते हैं. पशु या मनुष्य दोनों ही कोटि के जीवों में वे नर रूप ही धारण करते हैं. बुद्ध सदैव स्त्रियों को घृणित, दुर्गंधयुक्त एवं व्यभिचारी बताते पाये जाते हैं. ( डॉक्टर अशोक कुमार, बौद्ध परंपरा में स्त्रियों का स्थान , पोस्ट डॉक्टोरल थीसिस,आई .सी एच .आर .हेतु शोधरत). बुद्ध की स्पष्ट घोषणा है कि वह देश रहने योग्य नहीं है जहां स्त्री शासक है (कंडिन जातक ) . स्त्रियां आम तौर पर असंगत और पापिणी प्रकृति की होती हैं (असात्मंत्र जातक ). स्त्रियों की प्रकृति एवं चरित्र संदिग्ध है (अंडभूत जातक). बोधिसत्व लोक-प्रसिद्ध आचार्य के रूप में अपने शिष्यों को उपदेश देते हैं कि आमतौर पर स्त्रियां व्यभिचारिणी होती हैं. अतएव बुद्धिमान पुरुष के लिए यही उचित है कि उसकी प्रकृति को समझें, घृणा न करें। स्त्रियां उस धर्म-स्थल की नदी के समान होती हैं जहां साधु और चांडाल दोनों स्नान करते हैं (अनभिरत् जातक )।
जातकों के अलावे भी बौद्ध साहित्य में ऐसे अनेक प्रसंग आये हैं जो स्त्रियों के प्रति बुद्ध एवं बौद्ध धर्म के नजरिये को स्पष्ट करने में सहायक हो सकते हैं। कहना होगा कि सर्वत्र स्त्रियों को काला नाग, दुर्गंध, व्यभिचारिणी और पुरुषों को फांसनेवाली कहा गया है (अंगुत्तरनिकाय , खंड-1, पृष्ठ २६३). स्त्रियों को रहस्यमयी कहा गया है. स्त्रियां अपने दुर्गुणों एवं दुराचारी प्रवृत्ति के कारण सामाजिक कर्मों में हिस्सेदार नहीं हो सकती थीं। महत्त्वपूर्ण है कि स्त्रियों के संबंध में ये विचार किसी एक स्त्री को ध्यान में रखकर नहीं व्यक्त किये गये थे, बल्कि स्त्रियों की प्रकृति पर विचार करते हुए सामने आये हैं।
इस तरह, हम पाते हैं कि बौद्ध साहित्य में स्त्रियों के इर्द-गिर्द जिस तरह की घेराबंदी कर दी गई थी, उससे पूर्ववर्ती एवं परवर्ती ब्राह्मण साहित्य की मान्यताओं का अनायास स्मरण हो आता है, जहां स्त्रियां अपने पति और पुत्र की निगरानी में ही सुरक्षित रह सकती थीं। बौद्ध साहित्य भी इस बोध से परे नहीं है (अंगुत्तरनिकाय , खंड-२, पृष्ठ ७६). स्त्रियों की मूल भूमिका पति की विश्वासी सेविका की थी (वही, खंड-३, पृष्ठ २४४,३६१-६७). स्त्रियों के स्वतंत्र अस्तित्त्व एवं स्वतंत्र दायित्त्व के अस्तित्त्व की कल्पना का घोर अभाव उसे घर और पितृसत्तात्मक मूल्यों से ही बंधे रहने को प्रेरित करता था। स्वयं बुद्ध की नजरों में भी यह कल्पना से परे था कि कोई स्त्री तथागत या चक्रवर्ती भी हो सकती है (अंगुत्तरनिकाय , खंड-१, पृष्ठ २९).
अतएव विचारणीय प्रश्न है कि सामाजिक-धार्मिक जीवन में हिस्सेदारी से स्त्रियों को अलग/वंचित रखकर किस प्रकार बौद्ध धर्म स्त्रियों के प्रति उदार हो सकता था ?

इस्लाम अक्सर खतरे में क्यों!


विभूति नारायण राय

भारत के संदर्भ में जब सांप्रदायिकता, कठमुल्लापन या साम्प्रदायिक फासीवाद की बात होती है तब अक्सर हमारे निशाने पर सिर्फ हिंदू सांप्रदायिकता होती है. खासतौर से मार्क्सवादी विमर्श के दौरान ,अक्सर मुस्लिम सांप्रदायिकता को भुला दिया जाता है या फिर उसे कम करके आँका जाता है .राजेन्द्र जी अक्सर दलित ,पिछडा या स्त्री विमर्श के दौरान हिन्दू मिथकों , वर्ण व्यवस्था और हिन्दू समाज की आंतरिक संरचना की कुरूपताओं पर हमला करतें रहतें हैं .उनसे शायद यह उम्मीद की जा रही थी कि वे इस्लामी कट्टरता पर हमला करके अपने को हिन्दुत्ववादियों के पाले में पाए जाने का जोखिम न लेना चाहें , इसलिए उनके इस संपादकीय से कुछ लोगों को आश्चर्य या निराशा हुई ,पर मुझे लगता है कि इस संपादकीय में बहुत से ऐसे मुद्दे उठाये गयें हैं जो गंभीर विमर्श की मांग करतें हैं .
इस्लाम को लेकर मेरे मन में जो शंकाएं हैं उन पर आने के पहले एक बात साफ कर ली जाये . यह सही है कि जब हम सांप्रदायिकता पर हमला बोलें तो हमें हिंदू और मुस्लिम दोनों सांप्रदायिकताओं को निशाना बनाना चाहिये , लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना चाहिये कि भारत के संदर्भ मे हिंदू सांप्रदायिकता ज्यादा खतरनाक है .हिंदू सांप्रदायिकता बहुसंख्यक समुदाय की सांप्रदायिकता है .वह राज्य की मशीनरी पर कब्जा कर सकती है और फासिज्म की तरफ हमें ढकेल सकती है.हाल में गुजरात में एक प्रयोग हुआ ही है , हिंदुत्व की शक्तियाँ पूरे देश में इस प्रयोग को दोहराने की धमकी दे रहीं हैं. इसके बरखिलाफ मुस्लिम कठमुल्लापन काफी आत्मघाती है.यह अपने समुदाय को ही अधिक नुकसान पहुँचाता है .इसकी मारक शक्ति अपने अनुयायियों को पिछडेपन और जहालत की भूल- भुलैया में ढकेल देती है तथा हिंदू सांप्रदायिकता को फलने फूलने के लिए यह खाद का काम करती है .
इस्लाम दुनियाँ के दूसरे धर्मो से कई अर्थों में भिन्न है .अकेला धर्म है जो उम्मा की बात करता है .इसका मतलब है यह राष्ट्र राज्यों की सीमाओं को नकारते हुए एक अतर्राष्ट्रीय इस्लामी विरादरी की कल्पना करता है .दार्शनिक धरातल पर ही सही पर इस्लाम दुनिया को दो भागों में विभक्त करता है . इस्लाम पर यकीन रखने वालों और इस्लाम पर यकीन न रखने वालों की है. ऌस्लाम पर यकीन रखने वाले एक कौम है यह हास्यास्पद विश्वास विश्व इतिहास में हर युग और हर भूखण्ड में गलत साबित हुआ है.भाषा ,खानदान,परंपरा,भूगोल,अर्थशास्त्र-बहुत सारे कारण हैं जिन्होंने मुसलमानों को भी उसी तरह बाँट रखा है जिस तरह ईसाइयों ,बौद्धों , हिंदुओं या यहूदियों को अलग- अलग राष्ट्र राज्यों में विभक्त कर रखा है. मुस्लिम शासक और साधारण जन भी उसी तरह आपस में लडतें रहतें आयें हैं जिस तरह दूसरे धर्मो को मानने वाले शासक और सामान्य जन,पर दर्शन के रूप में इस्लाम के जनम के बाद से ही यह विचार कि मुसलमान एक अलग राष्ट्र है हमेशा मुस्लिम उम्मा को उद्वेलित करता रहा है .यह बात अलग है कि कभी कम,कभी ज्यादा.भारत के संदर्भ में यह याद रखना चाहिये कि पाकिस्तान तभी बन पाया जब पृथकतावादी मुस्लिम नेतृत्व मुसलमानों की बडी संख्या को यह विश्वास दिलाने मे सफल हो गया कि मुसलमान एक अलग राष्ट्र है और वे हिंदू राष्ट्र के साथ नहीं रह सकते.यह बात अलग है कि केवल इस्लाम एक अलग राष्ट्र का आधार नहीं हो सकता था और बंगाली राष्ट्रीयता,पंजाबी या बलूचिस्तानी राष्ट्रीयताओं के साथ ज्यादा दिन न्हीं चल सकी और इस्लामी राष्ट्रीयता के नाम पर बना देश 25 वर्षों में ही टूट गया.जो हिस्सा पाकिस्तान के नाम पर बचा भी है उसमें मुस्लिम राष्ट्रीयता से अधिक पंजाबी राष्ट्रीयता है .
इस्लामी उम्मा की इस चाह ने ही दुनियाँ भर के मुस्लिम राष्ट्रों को धर्म के नाम पर एक संगठन बनाने के लिये प्रेरित किया है .आर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कन्ट्रीज या ओ. आई. सी. संयुक्त राष्ट्र संघ के बाद सबसे अधिक देशों की सदस्यता वाला संघटन है. विश्व के दूसरे बडे धर्मो ने क्यों नहीं उन देशों का संगठन बनाने का प्रयास किया जहाँ उनके मानने वाले बहुमत में थे ? ईसाई, हिंदू, या बौद्ध ऐसे अन्य धमे हैं जिनके अनुयायी एक से अधिक देशों में रहतें हैं पर हम कभी ऐसा गंभीर प्रयास नहीं पाते जिसके द्वारा ईसाई राष्ट्र या बौद्ध राष्ट्रों का संगठनबनाने का सपना देखा गया हो .यहां यह भी ध्यान रखना चाहिये कि ओ• आई• सी. में केवल अनुदार या धर्मान्ध मुस्लिम राष्ट्र ही नहीं शरीक हैं बल्कि बहुत से उदार ,प्रगतिशील राष्ट्र और आधुनिक जीवन दृष्टि में विश्वास रखने वाले मुस्लिम राष्ट्र भी उसके सदस्य हैं.सउदी अरब ,कुवैत,नाइजीरिया और सूडान के बगल में जब हम तुर्की मलेशिया और मिश्र को बैठे पातें हैं तब हमें उस तर्क को समझने में आसानी होती है जो उम्मा के दर्शन के रूप में इस्लाम के अवचेतन का अभिन्न अम्ग है.यही कारण है कि सैय्यद शहाबुद्दीन जब मुसलमानों की जिंदगी को लेकर एक पत्रिका निकालने की सोचतें हैं तो उनके दिमाग में मुस्लिम इंडिया नाम आता है,इंडियन मुस्लिम नहीं.यह स्वाभाविक है कि क्योंकि वे मुसलमान इंडियन हैं यह प्रसंगवश है, उनकी असली पहचान मुस्लिम है जो उन्हें मुस्लिम उम्मा का अंग बनाती है .अफगानिस्तान या ईराक में अमेरिकी ज्यादतियों की प्रतिकि्र्रया विश्व में दो तरह से होती है.विरोध का एक स्वर साम्राज्यवाद विरोधी मनुष्यता का होता है जो हमलावरों और पीडितों के धर्म की परवाह किये बिना अमरीकी बमबारी की भर्त्सना करता है.इसमें ईसाई,हिंदू, बौद्ध,यहूदी और उदार मुसलमान सभी होतें हैं पर विरोध का दूसरा स्वर सिर्फ इसलिए सुनाई देता है क्योंकि पीडित मुसलमान है,भले ही हमले के पीछे कोई ईसाई चिन्ता न हो.अगर पीडित गैर मुस्लिम दुनियाँ हो तो यह स्वर गायब हो जाता है. यह स्वर धर्मांन्ध मुस्लिम उम्मा का है.चेचन्या ,कश्मीर,हर्जेगोविना,अफगानिस्तान,ईराक हर जगह इसे ऐसा लगता है कि पीडितों के साथ ज्यादतियाँ सिर्फ इसलिए हो रहीं हैं क्योंकि वे मुसलमान हैं .दुर्भाग्य से मुस्लिम विश्व में यह स्वर ज्यादा जोर से सुनाई देता है. इस्लाम अक्सर खतरे में रहता है.दुनियाँ में कोई दूसरा धर्म इतनी आसानी से खतरे में नहीं पडता. यह स्थिति शायद इसलिए है कि इस्लाम में आंतरिक लोकतंत्र सबसे कम है.कोई भी दूसरा धर्म अपने बेसिक्स या बुनियादी आस्थाओं को इतनी मजबूती से अपने सीने से नहीं चिपकाए रहता है कि उनके बारे में बहस मुबाहिसे के लिए तैयार ही नहीं हो .अल्लाह एक है,मोहम्मद उसके पैगम्बर हैं औरआखिरी पैगम्बर हैं तथा कुरान उनके ऊपर नाजिल हुई ईश्वरीय किताब है _ये कुछ ऐसे बुनियादी आस्थाएं हैं जिनके बारे में इस्लाम किसी बहस के लिए तैयार नहीं है .इनमें से किसी एक के बारे में कोई शंका होते ही इस्लाम खतरे में पडने लगता है.दूसरे धर्मो की भी बुनियादी आस्थाएँ हो सकतीं हैं पर वे उन पर बौद्धिक विमर्श से डरते नहीं .पोप औरचर्च की लाख कोशिश के बावजूद डारविन को बडे र्ऌसाई समाज ने मान्यता दी और आज भी ईसाई घरों मे पैदा होने वाले ही बाइबिल और ईसा से जुडी पुराण कथाओं की पुनर्व्याख्याओं में लगे हुए हैं .डरा हुआ समुदाय ही वैचारिक मुठभेडों से बचने की कोशिश करता है.तर्क की अनुपस्थिति से आप तर्कातीत बन जातें हैं.इसे समझने के लिये भारत के संदर्भ में ब्राह्यणों के प्रयास का अध्ययन दिलचस्प होगा.इस्लाम का भारत में आगमन बुद्ध के बाद पहली बडी सामाजिक परिघटना थी जिसने समानता और बन्धुत्व की ताजी बयार भारतीय समाज में बहाई थी .ब्राह्यण किसी भी तर्क से वर्ण व्यवस्था या कर्मकांडों को सही नहीं ठहरा सकते थे इसलिए उन्होंने इस्लाम के साथ हमेशा वैचारिक मुठभेडों से बचने की कोशिश की.उन्होंने मुसलमानों को म्लेच्छ घोषित कर दिया जिनसे विमर्श तो दूर उनको छूने मात्र से धर्म भ्रष्ट और अशुद्ध होने का खतरा था .यही प्रयास अट्ठारवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में समुद्र यात्राओं के संदर्भ में भी हुआ . ब्राह्यण जानता था कि यदि दुनियाँ के किसी दूसरे हिस्से में जाकर यह कहेगा कि वह श्रेष्ठ है क्योंकि वह ब्राह्यण परिवार में पैदा हुआ है तो लोग उसे किसी अजूबे की तरह कौतूहल से देखेंगे इसलिये उसने ज्यादा आसान रास्ते की तरह यह प्रयास किया कि देशवासी समुद्र पार ही न करें.इस तरह तर्क के अभाव को तर्कातीत बना कर पूरा करने का प्रयास किया गया.इस्लाम में शुरूआती चार खलीफाओं के बाद भिन्न आस्थाओं से मुठभेड से बचने की प्रवृति अधिक रही है .शायद यही कारण है कि इस्लाम इतना छुई- मुई है और जरा सी चुनौती से वह खतरे में पड ज़ाता है .
यह भी बिना किसी कारण नहीं है कि धर्मयुद्ध का आह्वान हमारे समय में सिर्फ मुसलमानों की तरफ से उठता है. यह कहा जा सकता है कि विश्व के मुसलमानों की बहुत छोटी संख्या ही जेहाद जैसी अव्यवहारिक कल्पना लोक में जीती है और जेहाद को भी नए ढंग से परिभाषित करने की कोशिश की जाती है.कई मुस्लिम विद्वान यह मानतें हैं कि जेहाद का संबंध बाहरी भौतिक जगत से नहीं बल्कि आंतरिक शुद्धि और बुराइयों पर विजय से है.पर इन सबके बावजूद यह एक तथ्य है कि जेहाद का सबसे अधिक समझा जाने वाला अर्थ मुसलमानों के हितों की रक्षा के लिए गैर-इस्लामी हुकूमतों को उखाड फ़ेंकने और अल्लाह की हुकूमत कायम करने का प्रयास ही है.यही अर्थ है जो चेचन्या से अफगानिस्तान और फिलिस्तीन से काश्मीर तक दुनियाँ भर के मुसलमान जेहादियों को आकर्षित करता है.हमें नहीं भूलना चाहिए कि बुश ने अफगानिस्तान पर हमले से पहले कुछ ईसाई प्रतीकों का सहारा लेने की कोशिश की थी.आपरेशन इनफाइनाइट जस्टिस का नाम बदलने पर बुश को अमरिकी जनता की विपरीत प्रतिक्रिया ने ही मजबूर किया था.बुश चाहता भी तो अमेरिकी अभियान को क्रूसेड में तब्दील नहीं कर सकता था.बुश तो क्या अब कोई ईसाई नेता अब क्रूसेड की बात नहीं कर सकता.पर मुसलिम उलेमा ,राजनेताओं और सामान्यजन के लिए जेहाद अभी भी एक हासिल किया जा सकने वाला सपना है और अभी भी एक ऐसी इच्छा है जिसके लिए हर साल हजारों लाखों मुसलमान अपनी जान दे देतें हैं.
मैं अपनी बात इस तथ्य की तरफ आकर्षित कर समाप्त करूंगा कि धर्मनिरपेक्षता की लडाई नीति के आधार पर नहीं विश्वास के आधार पर लडी ज़ानी चाहिए.यह दुनियाँ भर के मुसलमानों की समस्या है कि वे जब अल्पसंख्यक होतें हैं तब धर्म के सबसे बडे अलमबरदार होतें हैं लेकिन जैसे ही किसी खित्ते में बहुसंख्यक हो जातें हैं इस्लामी हुकूमत कायम करना उनकी प्राथमिकता हो जाती है.वे अपनी हुकूमतों में अल्पसंख्यकों को वही सारे अधिकार नहीं देना चाहते जो अल्पसंख्यक के रूप में खुद के लिए चाहतें हैं .तुर्की , मिस्र या इंडोनेशिया जैसे समाज कुछ अपवाद जरूर हैं लेकिन वहाँ भी इस्लामी कट्टरपंथियों का प्रयास यही है कि वे राज्य मशीनरी पर कब्जा करके सरकारों को इस्लामी शरिआ की अपनी समझ के अनुसार चलने पर मजबूर कर सके .हमारे देश के संदर्भ में यह तथ्य अधिक महत्वपूर्ण है .यह एक खुला सच है कि भारत में हिंदू और मुस्लिम कट्टरता एक दूसरे के लिए खाद और पानी का काम करतें हैं.दोनों एक दूसरे को फलने फूलने में मदद करतीं हैं.मैंने शुरू में ही इस तथ्य को रेखांकित किया था कि हिंदू सांप्रदायिकता भारत के संदर्भ में ज्यादा खतरनाक है क्योंकि बहुसंख्यक समुदाय की सांप्रदायिकता में यह सामर्थ्य है कि वह राज्य की मशीनरी पर कब्जा कर सकती है .एक फासिस्ट हिंदू राज्य बनने से भारत को बचाने के लिए आवश्यक है कि दोनो समुदायों की सांप्रदायिकता से समान रूप से लडा जाये. सांप्रदायिकता के एक स्वरूप पर हमला बोलने और दूसरे की अनदेखी करने से काम नहीं चलेगा.इस मामले में प्रगतिशील हिंदुओं और मुसलमानों को साथ -साथ मिलकर संघर्ष करना पडेग़ा . भारत के मुसलमानों को बढ चढ क़र यह मांग करनी पडेग़ी कि केवल भारत के सेक्यूलर होने से काम नहीं चलेगा, पाकिस्तान, बांग्लादेश और सूडान को भी सेक्यूलर होना पडेग़ा.इक्कीसवीं शताब्दी में धर्माधारित राज्य से बडी मूर्खतापूर्ण और कोई अवधारणा नहीं है. धर्मनिरपेक्षता की लंबी लडाई पूरे मनुष्य जाति के लिए महत्वपूर्ण है और इसे मैटर ऑफ पालिसी नीतिगत मामले के तौर पर नहीं मैटर ऑफ प्रिंसिपुल के तौर पर ही लडा जा सकता है. 
ज्यादा हिन्दू होने की कोशिश
सुदूर अनजान भूभागों की यात्रायें मुझे हमेशा आकर्षित करतीं रही हैं .नई जगहों को देखना, नये-नये लोगों से खान-पान, रहन-सहन और जीवन चर्या के पूरे वैविध्य के साथ मिलना और अनदेखे अपरिचित द्वीपों में नये मित्र बनाना मुझे सदा से प्रिय रहा है.इसलिये हर यात्रा मेरे लिये विशिष्ट अर्थ रखती है पर योरोप की पहली यात्रा कई तरह से यादगार बन गयी . हांलाकि यात्रा काफी छोटी थी,पन्द्रह बीस दिनों मेंआप किसी जीवन पद्धति को समझने का भ्रम नहीं पाल सकते,पर एक खुले समाज को समझने के लिये, अगर आपकी आंखों पर पूर्वाग्रह की बहुत मोटी पट्टी न बंधी हो ,इतना समय कम भी नहीं था .मुझे यह स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं है कि योरोपीय समाज को लेकर मेरे मन में बहुत से पूर्वाग्रह थे .औसत भारतीय की तरह मैं मानता था कि योरोपीय समाज पूरी तरह से यांत्रिक और सुखवादी है. परिवार जैसी संस्था का कोई मतलब नहीं है .लोग अपने में मस्त हैं और अपने लिये जीतें हैं. उनके बरक्स भारतीय संस्कृति परमार्थ और अध्यात्म वादी है.परिवार हमारी बहुत पवित्र संस्था है . और हम तो जीते ही दूसरों के लिये हैं .बहुत सी बातें थीं जो इस यात्रा की शुरूआत में मेरे मन में गहरे पैठी थीं .मुझे यह स्वीकार करने में भी कोई हिचक नहीं है कि मुझे अपनी बहुत सी धारणाओं में संशोधन करना पडा.इन सबके बारे मे कभी विस्तार से लिखूंगा.
यहां इस लेख में मैं सिर्फ एक छोटी सी मुठभेड क़ा जिक्र करना चाहता हूं जो हिन्दू कठमुल्लों से बरमिंघम में हुयी थी.
बरमिंघम में बहुत दिलचस्प अनुभव हुआ.वहां प्रवासी भारतीयों की एक संस्था है गीतांजली बहुभाषी समाज.बहराइच के मूल निवासी कृष्ण कुमार जी ने वर्षों पहले इलस्ट्रेटेड वीकली आफ इन्डिया में कैंसर से जूझ रही किशोरी की कविताएँ पढक़र उसके नाम से गीतांजली बहुभाषी समाज की स्थापना की थी और धीरे धीरे पिछले एक दशक में यह बरमिंघम में रहने वाले , अलग अलग भाषायें बोलने वाले भारतीयों की साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों की प्रतिनिधि संस्था बन गयी है. गीतांजली बहुभाषी समाज ने हमें निमंत्रित किया था .दोपहर बाद हमारा कार्यक्रम था और देर रात तक हमें लन्दन वापस लौटना था. भारत के काउंसलेट जनरल में कार्यक्रम था .एक बडे से हाल में 300 से कुछ अधिक स्त्री पुरूष इकट्ठे थे . भारत की सभी बडी भाषाओं का प्रतिनीधित्व था. उपस्थित लोगों में ज्यादातर डाक्टर , वकील या चार्टड एकाउण्टेंट जैसे पेशों के लोग थे ,पहली या दूसरी पीढी क़े प्रवासी भारतीय थे जिन्होंने अपने हाड तोड पहली परिश्रम और लगन से ब्रितानी समाज में अपनी एक हैसियत बनायी थी.
ब्रिटेन की स्वास्थ्य या शिक्षा जैसी सेवायें भारतीयों के बल पर टिकी हुयीं हैं -यह कहा जाय तो अतिशयोक्ति न होगी .मौजूदा लोगों में ज्यादातर ने ब्रितानी नागरिकता ले ली थी, कुछ तो पैदायशी अँग्रेज थे.
पिछले कुछ दिनों में प्रवासी भारतीयों से जो बात चीत हुयी थी उससे एक बात पूरी तरह समझ में आ गयी थी .देश छोडने या कई बार पहला मौका मिलते ही भारतीय नागरिकता छोडने वाले कहीं बहुत गहरे भारतीय बने रहने की छटपटाहट से ग्रस्त थे. यह एक ऐसी भावना थी जिसे भाषा में वर्णन करना थोडा मुश्किल है पर यह थी बडी ज़बरदस्त .लोग देश में व्याप्त भ््राष्टाचार या राजनीति के अपराधीकरण से चिंतित थे और विकास की धीमी गति उनके मन में आक्रोश पैदा कर रही थी. वे भारत को दुनियां का सबसे शक्तिशाली देश देखना चाहते थे.इन सबके बीच एक दिलचस्प बात यह थी कि वे मुख्य भूमि से दूर पहुँच कर ज्यादा हिन्दू हो गये थे.यह अनुभव मुझे कुछ वर्ष पहले उषा प्रियम्वदा से बात करके भी हुआ था. वे दिल्ली आयी हुयीं थीं और निर्मला जैन के यहाँ एक डिनर में उनकी बातें सुनकर मुझे और मेरे जैसे कई लोगों को लगा था कि वे विश्व हिन्दू परिषद के किसी कार्यकर्ता की तरह बातें कर रहीं थीं .बरमिंघम पहुँचने के पहले लंदन में बहुत से प्रवासी भारतीयों से बातें करके ऐसा ही लगा .
उस दोपहर को हमें सुनने के लिये भारतीय वाणिज्य दूतावास में जो लोग आये उनके साहित्य से वैसे ही सरोकार थे जैसे भारत में उनके जैसे पेशेवर वर्गों के लोगों की होते हैं .कार्यक्रम शुरू होने के पहले हमारी वहाँ के लोगों से जो बातचीत हुयी उससे समझ में आ गया कि अपनी भाषा के समकालीन लेखन से उनमे से अधिकांश का कोई परिचय नहीं था. लंदन की ही तरह वहां के ज्यादातर लोग नरेन्द्र कोहली को हिन्दी के सबसे बडे उपन्यासकार और केसरीनाथ त्रिपाठी को हिन्दी के सबसे महत्वपूर्ण कवि के रूप में जानते थे . वाणिज्य दूतावास के उस बडे से हाल की आलमारियों में वैद्य गुरूदत्त, गुलशन नन्दा और नरेन्द्र कोहली के उपन्यासों की भरमार थी. छह वर्षों के भाजपा शासन के दौरान जब अटल बिहारी वाजपेयी एक बडे क़वि के रूप में स्थापित हो रहे थे ,इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि देश से भाँति - भाँति के कीर्तनिये ,कथावाचक और हस्तरेखा विशेषज्ञ हिन्दी के साहित्यकार के रूप में लन्दन तथा बरमिंघम जैसे शहरों में थोक की मात्रा में आ जा रहे थे .यही लोग प्रवासी भारतीयों के लिये हिन्दी की मुख्य धारा के लेखक थे .
कार्यक्रम शुरू होने के पहले ही मैने कालिया जी से तय कर लिया कि हम लोग इस कार्यक्रम में बहुत गहरे नहीं फंसेंगे. इस तरह के कार्यक्रमों की जो औपचारिकतायें हैं उन्हें पूरा कर निकल भागेंगे.शुरूआत तो ठीक ठाक हुयी पर बाद में चलकर हम फंस गये .
उन्नींसवीं शताब्दी की शुरूआत में अँग््रोजी के एक लेखक ने व्हाइटमैन्स बर्डन की बात कही थी .उसके अनुसार एक औसत गोरा अपने सर पर एक बोझ लिये फिरता है .यह बोझ है कालों को सभ्य बनाना . अँग्रेज सिर्फ हिन्दुस्तान में लूटपाट के इरादे से नहीं आये थे बल्कि वे भारत को सभ्य भी बना रहे थे .कुछ कुछ ऐसा ही बोझ बहुत से प्रवासी भारतीयों के सर पर भी लदा मिला.वे भारतीय संस्कृति और भारत की छवि के बारे में चिंतित रहतें हैं .कई तो अपने को भारत का गैर सरकारी राजदूत मानतें हैं.सरसरी तौर पर देखें तो यह स्थिति अच्छी है पर थोडा गहरे जाने पर इसमे बडे झोल नजर आने लगतें हैं.
पिछले कुछ वर्षों में उच्च वर्ण के मध्यवर्गीय हिन्दू के मन में साम्प्रदायिकता का जहर बहुत तेजी से फैला है .80 और 90 के दशकों में विश्व हिन्दू परिषद ने बहुत योजनाबद्ध और आक्रामक तरीके से रामजन्मभूमि आंदोलन चलाया था . इस आंदोलन ने हिन्दू मानस को कहीं बहुत गहरे छुआ है.इसका असर डाक्टर, वकील , अध्यापक , किरानी जैसे वर्गों पर पडा और स्वतंत्रता संग््रााम में हरावल दस्तों में रहने वाले पेशेवर वर्ग भी बुरी तरह से साम्प्रदायिकता के शिकार हुये. विदेशों मे जाने वाले भारतीयों का अगर वर्गीय विश्लेषण किया जाय तो यह बहुत साफ दिखायी देता है कि मध्यपूर्व को छोड क़र नौकरी की तलाश में जाने वालों में अधिकतर डाक्टर, इन्जीनियर,चार्टड अकाउन्टेन्ट जैसे पेशों से जुडे लोग थे.दलित जातियों में शिक्षा की कमी के कारण स्वाभाविक था कि ऊंची जातियों के लोग ही इस रूप में बाहर गये. व्यापार के सिलसिले में जो गुजराती ,मारवाडी वगैरह गये वो भी इन्हीं मे से थे.दूसरी तीसरी पीढी क़े इन भूतपूर्व हिन्दुस्तानियों में अभी भी वर्णचेतना लुप्त नहीं हुयी है और इतिहास खास तौर से भारत के मध्यकाल को लेकर उनके मन में कमोबेश वही पूर्वाग्रह है जो उनके वर्ग और वर्ण के औसत हिन्दुओं में भारत में है.रामजन्मभूमि आंदोलन ने ,भौगोलिक दूरी के बावजूद, उन्हें भी गहरे अर्थो मे प्रभावित किया है.
इस बीच एक और गंभीर बात हुयी है.राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने आनुषंागिक संगठन विश्व हिन्दू परिषद के माध्यम से समुद्रपार अपनी जडें ग़हरी की है .ब्रिटेन ,कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका संभवत: उनके प्रभावमंडल के सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं .इन राष्ट्रों में उपस्थिति के कई अर्थ हैं. ओपीनियन मेकिंग के साथ साथ चन्दा उगाही के ये सबसे बडे स्रोत हैं. यदि कभी रामजन्म भूमि मंदिर के नाम पर एकत्र चंदे का सार्वजनिक आडिट संभव हो सका तो हमें इस सूचना के लिये तैयार रहना चाहिये कि इस धनराशि का बहुत बडा हिस्सा इन तीन देशों में रहने वाले प्रवासी भारतियों से इकट्ठा हुआ है.ये प्रवासी भारतीय जिस भारतीय छवि की रक्षा के लिये आकुल दिखायी देतें हैं वह काफी हद तक भारतीय संस्कृति जैसी अबूझ एब्स्ट्रेक्ट किस्म की चीज है.उच्च वर्णो की श्रेष्ठता पर आधारित यह एक ऐसी स्थिति है जहां उदारता,सहिष्णुता ,सद्भाव और समानता जैसे भाव सर्वत्र उपस्थित हैं.संघ परिवार की भाषा में इसे सामाजिक समरसता कहतें हैं .जैसे ही दलित,पिछडे,या स्त्रियां अपने लिये स्पेस की मांग करने लगतें हैं या वर्णाश्रमी पाखंड की चमडी हल्की सी छील देतें हैं और उसके नीचे अन्याय अमानुषिकता और अतार्किकता के बजबजाते पंक जल को हिलोरने की कोशिश करतें हैं संघ परिवार के व्याख्याकारों को सोशल इन्जीनियरिंग और सामाजिक समरसता की याद आने लगती है.ब्राह्यण संस्कृति के आधार कर्मकांड ,पुनर्जन्म, भाग्यवाद या वर्णाश्रम की कोई भी विवेक सम्मत व्याख्या उन्हें भारतीय संस्कृति के लिये खतरा लगती है .कुछ कुछ ऐसी ही भावना प्रवासी भारतियों के मन में भारत की छवि को लेकर है.दुनियां में और कोई न माने लेकिन भारतीय संस्कृति को ब्राह्यण व्याख्याकारों की तरह वे मानतें हैं कि भारत एक महान सभ्यता है और उसकी महानता का उत्स उदारता में है .वे प्रयत्न पूर्वक अपने पश्चिमी सहयात्रियों के बीच इस छवि को सजाने संवारने में लगे रहतें हैं.इसलिये अगर कोई ,खास तौर से भारत से आया हुआ व्यक्ति,ऐसी बात कहे जिससे यह महान छवि खंडित हो तो उन्हें बुरा लगता है और उनमें से कई को बल पूर्वक ऐसे वक्ता को चुप कराने में भी संकोच नहीं होगा . मेरे साथ भी बर्मिघंम की उस शाम ऐसा ही कुछ हुआ.
कार्यक्रम औपचारिक तरीके से शुरू हुआ.मेरा उपन्यास तबादला इन्दू शर्मा कथा सम्मान से सम्मानित हुआ था और यह कार्यक्रम उसी सम्मान की श्रृंखला में था अत: स्वाभाविक था कि मेरे और उपन्यास के बारे में फर्ज अदायगी के तौर पर आयोजकों ने कुछ अच्छी बातें कहीं .कुछ बातें संस्था के बारे में कहीं गयीं .मुझे पता था कि वहां उपस्थित लोगों मे से आठ दस लोगों ने ही तबादला पढा है और उनसे भी कम ने मेरी कोई दूसरी रचना पढी है.रवीन्द्र कालिया के गालिब छुटी शराब के अलबत्ता कुछ ज्यादा प्रशंसक थे पर उनकी संख्या भी दहाई में मुश्किल से पहुंचती थी.जाहिर था इस उपस्थिति के सामने बोलने में कोई बहुत उत्साह नहीं हो सकता था.कालिया जी ने थोडा बहुत बोलकर अपना पिण्ड छुडाया और फिर मुझे माइक थमा दिया .
मैंने अपनी रचना प्रक्रिया और उपन्यास के बारे में कुछ कहा और चार छह सवालों के जवाब दिये.एक प्रश्न ऐसा था जिसके उत्तर से देश की छवि सुरक्षित रखने वालों के लिये संकट पैदा हो गया .सवाल गुजरात को लेकर था.गुजरात कुछ ही दिनों पूर्व होकर चुका था. केन्द्र की सत्ता पार्टी ,जो गुजरात के दंगों में राज्य सरकार को राजधर्म निभाने का उपदेश जरूर दे रही थी पर उसकी ओर से कभी ऐसी इच्छा शक्ति का प्रर्दशन नहीं हुआ जो विश्वास पैदा कर सके, हालिया चुनावों में सत्ताच्युत हुयी थी .इस परिप्रेक्ष्य में गुजरात पर कोई भी प्रश्न या उसका उत्तर बेचैनी पैदा करने वाला हो सकता था.मेरे सामने एक विकल्प यह था कि मैं चतुराई के साथ अपने को बचा लूं और गोल मोल जवाब देकर अपना पिण्ड छुडा लूं.लेकिन यह स्थिति मुझे स्वीकार्य नहीं थी .देश के बहुत से दूसरे लोगों की तरह गुजरात मेरा भी दु:स्वप्न था.
गुजरात की घटनाओं पर मेरा दुख दो तरह का है .एक तो हिन्दू के रूप मे मैं इस बात से शर्मिन्दा हूं कि हिन्दुओं ने अपने पडाेसी मुसलमानों को नृशंसतम तरीकों से मारा था. दूसरी तकलीफ एक पुलिस अधिकारी की है.पुलिस ने एक क्रूर और पक्षपाती राज्य की हरकतों में बिना किसी प्रतिरोध के सहयोग किया.संविधान तथा कानून की पुलिस से जो अपेक्षा है उसके एकदम खिलाफ गुजरात पुलिस ने अल्पसंख्यकों की सम्पत्ति एवं जीवन के विनाश पर उतारू उन्मादी हिन्दुओं की भीड क़ो रोकने की जगह उनकी मदद की .यही दोनो बातें मैने उस सभा में कही. मेरा मानना था कि गुजरात आजादी के बाद सांप्रदायिक हिंसा का सबसे बुरा उदाहरण है क्योंकि इसके पहले कभी भी राज्य इतनी बेशर्मी से अपने नागरिकों के एक वर्ग के संहार में लिप्त नहीं हुआ था.
मेरे संक्षिप्त से वक्तव्य से सुनने वालों मे से कुछ आहत लगे.यह बाद में समझ आया कि ये लोग वे थे जो था तो विश्व हिन्दू परिषद के सक्रिय कार्यकर्ता थे या पिछले कुछ वर्षों में विहिप के योजनाबद्ध प्रचार के शिकार बने थे .यही वे लोग थे जो भारत की छवि बचाये रखने का बोझ अपने कांधों पर लिये घूमते हैं .इस छवि को पश्चिमी समाज मे चमकाने के लिये आवश्यक है कि भारतीय खास तौर से हिन्दू जीवन पद्धति को उदार तथा सहिष्णु जीवन पद्धति के रूप में पेश किया जाय.गुजरात जैसी घटनाओं का जिक्र आने से यह मिथ टूट सकता है, इसलिये इन लोगों का पूरा प्रयास रहता है कि ऐसी चीजों का उल्लेख ही न हो और अगर हो तो इस तरह से कि क्रूरता को वैध ठहराया जा सके .मसलन गुजरात में मुसलमानो का नरसंहार गोधरा काण्ड की प्रतिक्रिया था या फिर ऐसा ही कुछ और.
श्रोताओं के इस वर्ग को लगा कि मुझ जैसे दुष्ट की वजह से उनके द्वारा बडे ज़तन से तराशी गयी छवि खण्डित होने को है.हाल में एक तरह से तूफान बरपा हो गया.अलग अलग कोनों और कतारों में बैठे लोग एक साथ खडे होकर चिल्लाने लगे.प्रश्न सत्र भाषण सत्र में तब्दील हो गया .हर प्रश्न पूछने वाला उत्तर भी स्वयं दे रहा था .पूरे विस्फोट का लुब्बोलुवाब यह था कि इतिहास की मुझे कोई समझ नहीं है .हिन्दू लगातार पिटता रहा है और अगर पहली बार गुजरात में उसने पिटाई की है तो हम इस पर शर्मिन्दा नहीं होना चाहिये .मुसलमान ,जो स्वभाव से ही क्रूर और धोखेबाज होता है , हमेशा से हिन्दू पूजा स्थलों को तोडता रहा है, ने हिन्दू स्त्रियों की इज्जत लूटी है और पूरा भारतीय इतिहास उसकी ज्यादतियों से भरा है.भारत के एक औसत हिन्दुत्व कार्यकर्ता की तरह इतिहास उनके लिये तर्क या विवेक से परे मिथ,आस्था और भावुकता का घालमेल था.उनमें से कुछ ने तो यहां तक कहा कि वे मोदी पर गर्व करतें हैं जिसने हिन्दुओं को तन कर चलना सिखाया है.दर्शकों के इस वर्ग ने वाचिक प्रतिरोध को शारीरिक अभिव्यक्ति देने की भी कोशिश की .आयोजकों ने बीच बचाव कर उन्हें रोका.
मैंने विरोधी श्रोताओं को सम्बोधित करते हुये एक निवेदन किया .मैने कहा कि एक भारतवासी के तौर पर मैं कृतज्ञ हूं कि वे देश की छवि को लेकर इतने चिंतित रहतें हैं .मैने इस बात के लिये भी उन्हें धन्यवाद दिया कि उनमें से बहुत से लोग देश में अपने मूल निवास को गांवों शहरों में शिक्षा या स्वास्थ्य के क्षेत्र में कुछ निवेश भी करतें हैं . ये सारे उपकार एक तरफ और भयंकर क्षति दूसरी तरफ. वे एक ऐसी संस्था के आर्थिक सम्बल बने हुये हैं जो पिछले कई वर्षों से हमारे देश में दंगा फसाद की जड बनी हुयी है.मैने उनसे अनुरोध किया कि वे रामजन्मभूमि आंदोलन को चंदा देना बंद कर दें .इस आंदोलन के चलते हजारों लोग मारे जा चुकें हैं और अरबों रूपयों की सम्पत्ति का नुकसान हो चुका है .जैसे लोक कथा के राक्षस की जान तोते में बसती थी उसी उसी तरह विहिप की जीवन रेखा चंदे से गतिशील रहती है.वे चंदा देना बंद कर दें तो विहिप की राष्ट्र विरोधी गतिविधियां मंद पड ज़ायेंगी और देश को हिंसा और घृणा की राजनीति से काफी हद तक मुक्ति मिल जायेगी . जाहिर था कि मेरा यह निवेदन स्वीकार नहीं किया जा सकता था और न ही मेरे पास यह जानने का कोई जरिया है कि वहां उपस्थित श्रोताओं में से अगली बार विहिप को चंदा देने से पहले किसी के मन में कोई उलझन पैदा हुयी या नहीं.
बर्मिंघम के उस कार्यक्रम से मैं सही सलामत निकल तो आया पर मन में एक अवसाद बना रहेगा .यह बहुत स्पष्ट समझ में आ गया कि धार्मिक उन्माद का खतरा हमारी मुख्य भूमि से निकलकर प्रवासी भारतीयों तक पहुंच गया है.
वर्णाश्रमी असभ्यता
सभ्यता दुनिया की हर भाषा में , मनुष्य को सभ्य बनाने की अनवरत चलने वाली प्रक्रिया और उससे हासिल होने वाले नतीजों के लिये प्रयुक्त होने वाले शब्द हैं .यह सभ्य होना क्या है? क्या कोई ऐसी प्रविधि है जिससे एक काल , धर्म, नस्ल, लिंग , भूगोल निरपेक्ष परिभाषा गढी ज़ा सकती है ? कुछ ऐसे गुण हो सकतें हैं क्या, जिन्हें धारण करने वाला मनुष्य चाहे वह जिस देश काल का हो सभ्य कहला सकता है ? सभ्यता की यह यात्रा बडी लम्बी होती है .एक दो वर्षों में नहीं बल्कि सैकडों वर्षों में धरती के किसी खास भू भाग में रहने वाले लोग ऐसी जीवन पद्धति विकसित कर पातें हैं जिनमें कुछ कुछ मात्रा में वे सब गुण होतें हैं जो उन्हें सभ्य बनातें हैं .
मनुष्य को सभ्य बनाने वाले मूल्यों में कुछ काल सापेक्ष होतें हैं .इतिहास के एक कालखण्ड में कोई विचार बडा क्रान्तिकारी लगता है पर समय के साथ उसकी धार कुंद हो जाती है और वह अपर्याप्त लगने लगता है .मोहम्मद साहब ने कहा कि गुलामों के साथ अच्छा बर्ताव करना चाहिए .अपने समय में यह बडी सीख थी .पर आज अगर मोहम्मद होते तो इसकी जगह यह कहते कि गुलामी अमानवीय प्रथा है, इसे बने रहने का कोई हक नहीं है .इस उदाहरण से अब्राहम लिंकन मोहम्मद से बडे नहीं हो जाते . जिस समय अबा्रहम लिंकन ने गुलामी उन्मूलन का संघर्ष छेडा था तब तक मनुष्यता अपने विकास के क्रम में उस बिन्दु तक पहुंच चुकी थी जहां गुलामी के पक्ष में कोई विचार चाहे वह किसी भी दर्शन ,धर्म या अर्थतंत्र से खाद हासिल करता हो, वैध नहीं हो सकता था. मोहम्मद का विचार अपने समय से आगे था और लिंकन का अपने समय की जरूरतों के अनुकूल. यह उदाहरण सिर्फ इसलिये दे रहां हूं कि मैं यह बात थोडा बेहतर ढंग से कह सकूं कि ज्यादातर मूल्य और संस्थायें समय सापेक्ष होतीं हैं .इसी के साथ साथ हमें यह भी याद रखना होगा कि कुछ मूल्य काल को अतिक्रमित कर जातें हैं .ये बुनियादी मूल्य हैं जो मनुष्य को सभ्य बनातें हैं .यही वे मूल्य हैं जिनके बल पर सभ्यतायें निर्मित होतीं हैं .प्रेम ,दया, भाई चारा और एक दूसरे को मदद करने की भावना कुछ ऐसे मूल्य हैं जो हर काल, हर धर्म, हर नस्ल में प्रासंगिक बने रहे .
इन्हीं सारे मूल्यों से मिलकर एक ऐसा मूल्य बनता है जो मेरे विचार से किसी सभ्यता को सही अर्थों में सभ्य बनाता है. यह मूल्य है अपने बीच में अपने कमजोर सदस्यों के लिये स्थान छोडना .अंग्रेजी में जिसे स्पेस कहेंगे वह प्रदान करना.कमजोरी शारीरिक ,आर्थिक, सांस्कृतिक या लैंगिक किसी भी रूप की हो सकती है .यह स्पेस देने की स्थिति किसी भी जीवन पद्धति में एक लम्बे अभ्यास के बाद आती है और काफी हद तक सांस्कृतिक, धार्मिक ,भौगोलिक और सामाजिक परम्पराओं की उपज होती है.यह समुदाय की भाषा और विभिन्न सदस्यों के अन्तर्सम्बन्धों में एक स्वतःस्फूर्त और अदृश्य संचालक की तरह मौजूद रहती है.
इस पूरे फार्मूलेशन को समझने के लिये हमें वर्णाश्रम धर्म पर आधारित ब्राह्यण जीवन पद्धति को देखना होगा. वर्णव्यवस्था दुनिया की सबसे विशिष्ट और सबसे घृणित व्यवस्था है जिसने कई हजार वर्षों तक एक बडे समाज को संचालित किया है .विशिष्ट इस अर्थ में कि इसमें मुक्ति के रास्ते निहित नहीं हैं .इसके अतिरिक्त मानव जाति के इतिहास में जो मनुष्य विरोधी संस्थायें निर्मित हुयीं उनमे हमेशा मुक्ति की गुंजायश रही .दास प्रथा, नस्ल और रंग भेद अथवा लैंगिक असमानता जैसी स्थितियों में पीडित के पास हमेशा अपनी स्थिति सुधारने का एक विकल्प रहता था पर वर्ण व्यवस्था इतनी ठस और अपरिवर्तनीय है कि उससे छुटकारा पाना लगभग असंभव है .अमानवीयता में इसकी तुलना गुलामी प्रथा से कर सकतें हैं .दोनो संस्थायें हृदयहीन और क्रूर हैं .दोनो समाज के अनगिनत जुल्मों ज्यादती की तकलीफदेह गाथा हैं.फर्क सिर्फ इतना है कि गुलाम अपनी बेडियां तोड सकता था.पूरा मध्यकाल ऐसे उदाहरणों से भरा हुआ है जिनमें गुलाम अपने स्वामी राजा को खुश कर उसका उत्तराधिकारी बन बैठा . वर्ण व्यवस्था में यह संभव नहीं था कि शूद्र ब्राह्यण की बेटी से शादी करके ब्राह्यण हो जाय या किसी युद्ध में शौर्य का प्रदर्शन करके क्षत्रिय बन सके .वर्णव्यवस्था के प्रशंसक किसी ऐसे काल्पनिक युग का जिक्र करतें हैं जिसमें कर्मणा जातियों का निर्धारण होता था .ऐसे किसी समय के ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं हैं जिसमें कर्म के आधार पर किसी को जाति मिलती थी . यदि कर्म के आधार पर जातियां बंटतीं तो वर्णव्यवस्था की जरूरत ही नहीं रह जाती . एक मजेदार उदाहरण बाल्मीकि का दिया जाता है .यदि इन लोगों का तर्क सही माना जाय तो बाल्मीकि जाति के आधुनिक संस्करणों मे मेहतर थे और अपनी काव्य प्रतिभा के बल पर ब्राह्यण कर्म करने लगे. यह हास्यास्पद उल्लेख इस तथ्य को भूल जाता है कि बाल्मीकि रचित रामायण शूद्र विरोधी उद्धरणों और व्यवस्थाओं से भरी हुयी है .क्या यह तर्क संगत और मानने योग्य है कि एक शूद्र ने अपने ही वर्णों को नीचा दिखाने वाला ग्रन्थ रचा हो?
यह वर्ण व्यवस्था हमें किस तरह से एक सभ्य समाज बनने से रोकती है इसे समझना जरूरी है.इस व्यवस्था के तहत जो संस्थायें बनी उन्होंने कई तरह हमें प्रभावित किया .इसने सबसे पहले तो इसने हमें अपने बीच के अधिसंख्य लोगों को पशुओं से भी बदतर मानने के लिये प्रेरित किया.समाज का बहुलांश शूद्र है. जो शूद्र नहीं है उनकी भी आधी संख्या स््रत्रियों की है .वर्णव्यवस्था इन सभी को मनुष्य के नीचे की योनि का मानती है .इस का सबसे तकलीफदेह पहलू यह है कि इस पूरी घृणित स्थिति को एक दैवीय दार्शनिक वैधता हासिल है .वेद , पुराण ,महाभारत और रामायण जैसी धार्मिक पुस्तकें और उनमें निहित पुनर्जन्म तथा भाग्यवाद जैसे दर्शन इस व्यवस्था को ठस और अपरिवर्तनीय बनाता है.इसी की वजह से शूद्र के पास ब्राह्यण होने का कोई विकल्प नहीं है.वर्णव्यवस्था की दूसरी दिक्कत है कि यह शारीरिक श्रम को हेय मानती है .पूरी दुनियां में शायद ब्राह्यण परम्परा ही एक अकेली परम्परा है जो भीख मांगने को महिमा मण्डित करती है .आर्थिक और पारम्परिक रूप से पिछडे समाजों में भीख मांगने को कभी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा गया. वर्ण व्थवस्था नें शारीरिक श्रम को तुच्छ बताया और दास शूद्रों की विशाल फौज ने यह सम्भव किया कि वे बैठकर खाने वालों के स्वामित्व वाले खेतों में अनाज पैदा करें और उन्हें खिलाते रहें .ऊंची जातियों के लिये हल का मूठ छूना भी पाप का भागी बनना था. ब्राह्यणों ने तो और भी रोचक तरीके से अपने पेट पालने की व्यवस्था की .वह न सिर्फ भीख मांगने में लज्जित नहीं होते थे बल्कि भीख लेकर देने वाले पर एहसान भी करते थे -उसका लोक परलोक सुधारते थे .
वर्ण व्यवस्था की तीसरी समस्या इसमें अन्तर्निहित शिक्षा विरोध है .हम शायद विश्व के सबसे बडे शिक्षा विरोधी समाज रहें हैं. मोहम्मद ने अपने अनुयायियों से कहा था कि शिक्षा हासिल करने के लिये जरूरत पडे तो चीन भी जाओ. उस दौर में अरब से चीन जाना कितना दुष्कर था इसका उल्लेख करना जरूरी नहीं है. वर्णाश्रमी परम्परा अपने बीच के अधिसंख्य लोगों को बलपूर्वक शिक्षा से वंचित करती है.गौतम बुद्ध के प्रभाव ने जरूर एक काल विशेष में शिक्षा को सार्वजनिक बनाने का प्रयास किया पर जैसे ही ब्राह्यणों का वर्चस्व पुर्नस्थापित हुआ उन्होने वैज्ञानिक चेतना का प्रसार करने वाले सबसे बडे लौकिक शिक्षा केन्द्रों - तक्षशिला और नालंदा को बर्बरता से नष्ट कर दिया और इन विश्वविद्यालयों के विशाल पुस्तकालयों को आग के हवाले कर दिया.इसलिये कोई आश्चर्य नहीं है कि अपने ही बीच के मनुष्यों को पशुवत् मानने वाला, शारीरिक श्रम में अनास्था रखने वाला और शिक्षा विरोधी समाज दुनिया को कोई बडा विचार नहीं दे पाया.
मैंने ऊपर निवेदन किया है कि कोई समाज सभ्य है या नहीं इसे जांचने के लिये हमें यह देखना चाहिये कि वह अपने बीच के कमजोर लोगों के लिये कितना स्पेस छोडता है .वर्ण व्यवस्था का जिक्र मैंने इसलिये किया है कि यह हमारी पूरी जीवन पद्धति को संचालित करती है .समुदाय के एक सदस्य का दूसरे से कैसा रिश्ता हो ,खान पान और कपडे क़ैसे हों ,उठने बैठने , विवाह , उत्तराधिकार , रोजगार - गरज यह कि जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसका संचालन वर्णव्यवस्था द्वारा बनाये गये नियम न करतें हों . इसलिये अगर यह तय करना है कि सनातनी हिन्दू जीवन दृष्टि सभ्य समाज का निर्माण करती है या नहीं तो हमें यह जांचना होगा कि इसे संचालित करने वाली संस्था वर्ण व्यवस्था हाशिये पर पहुंचे लोगों के साथ कैसा व्यवहर करती है ? इस कसौटी पर कसने पर सनातनी हिन्दू समाज का प्रदर्शन बहुत निराशाजनक दिखायी देता है.दुर्बल के प्रति यह बहुत क्रूर है . दुर्बलता किसी भी तरह की हो सकती है - जाति की दुर्बलता तो सबसे भयानक है .शूद्र के घर पैदा हुआ तो मनुष्य भी नहीं है, इससे इतर भी अगर कोई शारीरिक रूप से विकलांग है , आर्थिक रूप से दरिद्र है या फिर स्त्री -सबके लिये इस समाज में भयानक घृणा है .यह घृणा पूरे व्यवहार में परिलक्षित होती है .भाषा -जो हमारे दबे हुये मनोभावों को भी बखूबी अभिव्यक्त करती है , इन सबसे हर कदम पर नफरत करती दिखती है.
देश के जिन भागों पर वर्ण व्यवस्था की जकडन जितनी मजबूत थी उनकी भाषा उतनी ही अधिक क्रूर और दुर्बल विरोधी है.हिब्दी का उदाहरण लें तो स्थिति स्पष्ट हो जायेगी .दलितों और स्त्री को लेकर तमाम गालियां हैं .चमार स्वाभाविक रूप से चोर है इसलिये चोरी चमारी है .भाषा के बडे क़वि तुलसी दास कह ही गयें हैं कि ढोल गंवार शूद्र पशु नारी , सकल ताडना के अधिकारी. भाषा सामाजिक संरचना की तरह ही बहुस्तरीय है .जिस तरह समाज में जातियों के बैठने का आसन उनके वर्ण के अनुसार निर्धारित है उसी तरह आसन ग्रहण करने के लिये बैठ , बैठो या बैठिये शब्द भाषा में हैं जो व्यक्ति की सामाजिक या आर्थिक हैसियत के मुताबिक इस्तेमाल किये जातें हैं .मुझे नहीं लगता कि दुनियां की किसी भी भाषा में त्रिस्तरीय सम्बोधन उपलब्ध हैं .आप, तुम और तू सिर्फ सम्बोधन नहीं है बल्कि सम्बोधित को उसकी औकात का अहसास कराने वाले दंश भी हैं.
भाषा में निहित यह तिरस्कार सिर्फ वर्ण या लिंग पर आधारित कमजोर के लिये ही नहीं है .शारीरिक अथवा मानसिक रूप से विकलांग बार-बार इस भाषिक कोडे से पीटे जातें रहें हैं . अंधे, काने , लूले, लंगडे , क़ोढी या कूुबडे क़े लिये हमारी भाषा में भयानक घृणा भरी है. भाषा की घृणा समाज के अंदर मौजूद घृणा का प्रतिबिम्ब है .हमारा समाज इन अक्षम लोगों से कैसा व्यवहार करता है यह उसमें प्रचलित लोकाोक्तियों और समाज के सक्षम सदस्यों द्वारा उनके साथ किये जाने वाले व्यवहार से स्पष्ट है .शारीरिक विकलांगता सहानुभूति का विषय न होकर मजाक उडाने या तिरस्कृत करने का माध्यम है.मांगलिक कार्यक्रमों में इनकी उपस्थिति अशुभ मानी जाती है. यह दृश्य बहुत आम है जब आप किसी विवाह के अवसर पर काने या कोढी क़ो दुरदुराकर भगाये जाते देख सकतें हैं.बच्चों के परीक्षा देने के लिये घर से निकलने पर अगर कोई शारीरिक विकलांग सामने पड ज़ाय तो बच्चे को वापस बुला कर अशुभ टाला जाता है. इसी तरह किसी पागल पर पत्थर बरसाते बच्चे दिखायी दें या उसे घेर कर उसका मजाक उडाते हुये लोग दिखें तो हमें बहुत आश्चर्य नहीं करना चाहिये क्यों कि वर्णाश्रम धर्म पर आधारित जीवन मूल्य हमें सिर्फ कमजोर से घृणा करना ही सिखा सकतें हैं उनसे सहानुभूति करने या उनकी सेवा करने का जज्बा नहीं पैदा कर सकते .
अपने बीच के कमजोरों के प्रति हम कैसा व्यवहार करतें हैं इसका सबसे बडा उदाहरण सडक़ों पर चलने वाला ट्रैफिक है. जो जितना ताकतवर है सडक़ पर उसका उतना ही ज्यादा अधिकार है. ट्रक वाला सबको रगेदता हुआ जा सकता है , कार वाला उससे तो डरता है पर दो पहिया वाहन या पैदल चलने वालों के लिये उसके मन में कोई दया नहीं है .पश्चिमी समाज को हम हमेशा यांत्रिक और मानवीय मूल्यों से (अपने मुकाबले )वंचित समाज मानतें हैं .पर वहां एक ऐसा दृश्य दिखायी देता है जो हमारी सडक़ों पर कभी नहीं दिखेगा. चौराहों पर यातायात के सिग्नल वाले खंभों पर बटन लगे हैं जिनका इस्तेमाल पैदल चलने वाले करतें हैं .अगर आप को सडक़ पार करनी है तो आप बटन दबा दें और चारों तरफ से आने वाली गाडियां रूक जायेंगीं , आप सडक़ पार कर लें और फिर यातायात चालू हो जायेगा. हम जैसे हिन्दुस्तानियों से यह गलती हो सकती है कि हम ट्रैफिक लाइट को नजरअंदाज कर खतरनाक तरीके से सडक़ पार करने की कोशिश करें पर वाहन चालक हमें सडक़ पर उतरते देखकर फौरन अपना वाहन रोक देंगे और हमें पहले सडक़ पार करने का इशारा करेंगे .मैं कई बार ऐसे अनुभवों से गुजरा हूं जब भारत में या तो कोई वाहन वाला मुझे कुचल डालता या फिर अंधा या उल्लू जैसे सम्बोधनों से नवाजता.इसी तरह एक और दृश्य मुझे यात्राओं में चकित करता रहा है .ट्रेनों या बसों में किसी अंधे , बूढे या महिला के प्रवेश करते ही लोग आदतन खडे हो जातें हैं और उसके लिये जगह खाली कर देतें हैं .हमारे इस महान जगद्गुरू देश में तो इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती .
मैं कई बार सोचता हूं कि पश्चिम, जिसने लोगों को गुलाम बनाया, अपने उपनिवेशों में जमकर लूट पाट की और आज भी दुनियां में नवउपनिवेशवादी अधिनायकवाद का परचम लहरा रहा है ; वियतनाम, लैटिन अमेरिका या इराक जिसकी ज्यादतियों के शिकाार रहें हैं , वह कैसे अपने समाज में कमजोरों के लिये इतना स्पेस छोडता है ? वाह्य सम्बन्धों में निहायत ही खुदगर्ज और क्रूर समाज क्या अपने आंतरिक व्यवहार में इस कदर उदार हो सकता है ? पर यह है . यह उदारता डंडे के बल पर नहीं आती. इसके लिये एक लंबे अनुशासन की जरूरत होती है .सैकडों वर्षों के जीवन अनुभव इसके पीछे होतें हैं.
कोई भी समाज कई चरणों में आंतरिक सभ्यता हासिल करता है .इनमें सबसे बडी भूमिका किताबों की होती है .इनसे प्रभावित होने वाले लोग इनमें से कुछ को आसमानी मानतें हैं. अर्थात् ये दैवीय हैं और इसलिये अपरिवर्तनीय. आंतरिक सभ्यता के सोपान वही समाज तेजी से चढता है जो इन आसमानी किताबों की दुनियावी जानकारियों और जरूरतों के मुताबिक नये भाष्य करता रहता है .पश्चिम का ईसाई समाज इस मामले में दूसरों से आगे रहा है . क्रुसेड और चर्च के आधिपात्य वाले मध्ययुग में ही इसने बहुत सी स्वीकृत स्थापनाओं को चुनौतियां देनी शुरू कर दीं थीं. चर्च के कमजोर पडते जाने और पश्चिम के विशाल ईसाई समाज की आंतरिक उदारता की यात्रा साथ साथ चली है और यह कहना ज्यादा उचित होगा कि दोनो ने एक दूसरे की मदद ही की है.गुलामी और रंगभेद जैसी दो घृणित संस्थाओं से इस समाज ने आंतरिक उदारता की इसी जध्दोजहद के चलते छुटकारा पाया है.
भारतीय समाज को आंतरिक सभ्यता हासिल करने के लिये वर्णव्यवस्था से छुटकारा पाना बेहद जरूरी है .यह भी एक दिलचस्प अध्ययन का विषय हो सकता है कि हम इस गन्दी संस्था से निजात क्यों नहीं हासिल कर सके ? हमारे लिये तो यह दूसरे धर्मावलम्बी समाजों के मुकाबले ज्यादा आसान होना चाहिये था.हमारी कोई किताब उस अर्थ में दैवीय नहीं है जिस अर्थ में दूसरे धर्मों की किताबें हैं.वेदों को भी बहुत बाद में अपौरूषेय कहा गया .कम से कम वर्ण व्यवस्था को एक विधान के रूप में स्थापित करने वाली मनुस्मृति या लोक में स्वीकृत कराने वाली रामचरित मानस जैसी पुस्तकों को तो कोई भी दैवीय नहीं कहता .यदि कोई पुस्तक आसमान से नहीं उतरी है तो वह अपरिवर्तनीय भी नहीं होगी .काल की आवश्यकताओं के अनुसार उसमें संशोधन या उसके भाष्य हो सकतें हैं .फिर क्यों नहीं हमारे अन्दर स्वयं ऐसी इच्छा शक्ति पैदा हुयी कि हम इसी गंदी व्यवस्था को खुद ही उखाड फ़ेंकते ? हमने हमेशा इसके खिलाफ जाने वाले विचार को कुचलने का प्रयास किया. गौतम बुद्ध ने मनुष्यों के समानता की बात की पर ब्राह्यण हृन्हें लील गये .इस्लाम ने समानता पर आधारित जाति विहीन समाज का दर्शन सामने रखा.आपसी मारकाट में फंसे भारतीय समाज के लिये यह तो संभव नहीं हुआ कि वह उन्हें हजम कर ले पर ब्राह्यणों ने उनसे तर्क करने से ही इन्कार कर दिया . कमजोर दार्शनिक भावभूमि पर खडे वर्णाश्रम समर्थकों को उनसे वैचारिक मुठभेड क़रने से आसान यह लगा कि उन्हें म्लेच्छ घोषित कर उनसे किसी तरह का संवाद से ही बचा जाय. फ्रांसीसी , पुर्तगालियों या अंग्रेज शासकों के आते आते यह स्थिति हो गयी कि संवाद से बचा नहीं जा सकता था और एक बार जब विरोधी दर्शन से मुठभेड शुरू हुयी तब यह कोई आश्चर्य नहीं था कि जन्माधारित श्रेष्ठता का मूर्खतापूर्ण दर्शन कुछ ही दशकों में भहराकर ढह गया.एक बार शिक्षा को सार्वजनीन किया गया तो संस्कृति की शूद्र व्याख्या हमारे सामने आयी और उसने ब्राह्यण वर्चस्ववादिता को चुनौती देना शुरू कर दिया.
आज स्थिति यह है कि शूद्र व्याख्या ने ब्राह्यण वर्चस्व को कमजोर तो किया है पर पूरी तरह से समाप्त नहीं कर पायी है. कई हजार वर्षों की जीने की आदत इतनी जल्दी खत्म भी नहीं होगी .ब्राह्यण विकृतियां इतनी गहरे पैठीं हुयीं हैं कि वह शासक शूद्रों के मन में ब्राह्यण बनने की ललक पैदा कर देती है.वह भी उन्हीं कर्मकाण्डों में लिप्त हो जाता है जिनमें ब्राह्यण लिप्त रहा है .साफ है कि अगर हम एक सभ्य समाज बनना चाहतें हैं तो हमें वर्णाश्रम धर्म को नष्ट करना पडेग़ा .बिना जातियों पर आधारित श्रेष्ठता के सिद्धान्त को नष्ट किये हम सभ्य नहीं हो सकते .

देह से दबी स्त्री

ृमृणाल वल्लरी

अभी तक हमारे जेहन में पाकिस्तानी विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार की उस भारत यात्रा की यादें ताजा हैं, जब भारतीय मीडिया ने उन्हें खूबसूरती, तन पर पहने कपड़ों, गहनों और उनके पर्स तक ही समेट दिया था. इसके पहले किसी विदेशी महिला नेता के कपड़ों पर मीडिया ने ऐसी हाय-तौबा नहीं मचाई थी. लेकिन हिना एक औरत हैं और वह भी सामाजिक सौंदर्यबोध के हिसाब से बेहद खूबसूरत.
तो मर्दों के वर्चस्व वाले भारत-पाकिस्तान की राजनीति में किन्हीं खास समीकरणों से आई महिला के साथ मीडिया का ऐसा सुलूक करना तो स्वाभाविक था. खैर, हिना के बाद अपने परिधान के कारण एक और महिला नेता भारतीय मीडिया की सुर्खियों में आईं और वे हैं आस्ट्रेलिया की प्रधानमंत्री जूलिया गिलार्ड.
जूलिया गिलार्ड राजघाट पर गांधी समाधि से लौटते वक्त ऊंची एड़ी वाले जूतों के कारण फिसल कर गिर गईं. लेकिन उसके तत्काल बाद जूलिया ने जो बात कही, वह हमें सोचने पर मजबूर करता है. अखबार ‘हेराल्ड सन’ ने जूलिया के हवाले से लिखा- ‘मेरी चप्पल की ‘हील’ घास में उलझ गई थी.’ उन्होंने यह भी कहा कि ‘पुरुष जहां सपाट तल्ले वाले जूते पहनते हैं, वहीं महिलाओं के लिए संकोच में हील पहनना पेशेवर दुविधा होती है. अगर आप ऊंची एड़ी वाले जूते पहनें तो नरम घास में ये चिपक सकते हैं और जब आप अपना पैर ऊपर उठाते हैं तो जूता नहीं उठता. और फिर ऐसा ही होता है जैसा आपने देखा.’
गिलार्ड ने बूट पहनने के सुझावों को दरकिनार करते हुए कहा कि स्कर्ट के साथ बूट पहनने से आस्ट्रेलिया में फैशन संबंधी आलोचनाएं होने लगेंगी. इससे पहले जनवरी में भी कैनबरा में आस्ट्रेलिया दिवस पर हुए दंगे से दूर ले जाए जाते वक्त गिलार्ड का एक जूता खो गया था. पिछले चुनाव प्रचार के दौरान भी उन्होंने अपना जूता खो दिया था.
एक विकसित और आधुनिक देश की प्रधानमंत्री जूलिया गिलार्ड को इससे पहले भी अपने शारीरिक गठन को लेकर असहज कर देने वाली टिप्पणियों का सामना करना पड़ा है. एक समारोह में एक वरिष्ठ नेता ने सार्वजनिक रूप से उन्हें कहा- ‘माफ कीजिएगा आपका पिछवाड़ा काफी बड़ा है.’
आखिर एक सशक्त महिला नेता के लिए किसी पुरुष को सार्वजनिक तौर पर ऐसी कुंठा जाहिर करने की जरूरत क्यों पड़ी? क्या यह वही मानसिकता नहीं है जो किसी भी महिला को उसके शरीर में समेटने और सीमित रखने को मजबूर करती है? और वे कौन-सी वजहें हैं जिसके कारण एक देश की सशक्त प्रधानमंत्री ‘‘फैशन पुलिस’’ से डर रही है. जिस नेता के इशारे पर उसका देश और वहां का सैन्य बल चलता है, वह समाज के ठेकेदार ‘फैशन पुलिस’ के सामने इस कदर लाचार क्यों है?
पश्चिमी देशों में ‘फैशन पुलिस’ का यह खौफ विकासशील देशों में ज्यादा मुखर दिखता है. ग्यारह महीने पहले मां बनी ऐश्वर्य राय के पीछे ‘फैशन पुलिस’ का नया-नया जन्मा तबका पीछे पड़ गया था. नई मां को अपने और अपने शिशु के स्वास्थ्य का कितना खयाल रखना होता है, यह सभी को मालूम है. लेकिन भारतीय मीडिया एक जच्चा को सिर्फ एक फैशनपरस्त देह मानता है और उस देह पर चर्बी आ जाने के लिए उसकी अशालीन आलोचना करने में लग गया था.
हाल ही में शिल्पा शेट्टी से जब एक पत्रकार ने मां बनने के बाद उनके बढ़ते वजन पर ही लगातार सवाल किए तो उन्होंने झल्ला कर कहा कि अब वे कभी भी पहले जैसा शरीर हासिल नहीं कर पाएंगी.
ऐश्वर्य और शिल्पा ने ‘फैशन पुलिस’ के इस रवैए को लेकर दुख भी जताया. लेकिन सच यह है कि ऐश्वर्य और शिल्पा सरीखी कलाकारों ने अपने कॅरियर का आधार ही देह बनाया. खुद को ‘फैशन आइकॉन’ कह कर अपनी कीमत बढ़ाई. इसलिए इनके कॅरियर का आधार, यानी शरीर का ढांचा ‘बिगड़ते’ ही इन्हें इनके बाजार से बाहर करने की तैयारी शुरू गई. यों भी, इस बुनियाद पर टिका आधार इसी तरह दरकता है.
इस पेज थ्री की बेरहमी की शिकार कभी पेज थ्री की अगुआ रहीं शोभा डे भी हो चुकी हैं. शोभा डे ने फिल्म ‘आई हेट लव स्टोरी’ में अभिनेत्री सोनम कपूर के अभिनय की आलोचना की. फिल्म के निर्देशक और सोनम के दोस्त पुनीत मल्होत्रा को यह बात नागवार गुजरी. उन्होंने ट्विटर पर शोभा डे को ‘मेनोपॉज’ से गुजर रही सूखी पत्ती कहा.
शोभा डे के लिए अपने दोस्त की अपमानजनक टिप्पणी की हौसलाअफजाई करते हुए सोनम ने उसे रीट्वीट किया. क्या सोनम को इस बात का अहसास नहीं था कि कुछ सालों बाद वे भी इस दौर से गुजरेंगी? लेकिन इस ‘फैशन पुलिस’ ने देह की सुविधा के साथ भावनाओं को कुचलना भी तो सिखाया है!
ग्लैमर की दुनिया से बाहर की बात करें तो चाहे यूरोप हो या एशिया, हर संस्कृति में परंपरागत से लेकर अति आधुनिक होने तक महिलाओं के लिए ऐसे वस्त्र क्यों तैयार किए जाते हैं, जो महिलाओं को महज ‘सेक्स ऑब्जेक्ट’ के रूप में परोसते हैं, वह भारत की साड़ी हो या पश्चिम की स्कर्ट.
आखिर ऐसा क्यों है कि पुरुषों के कपड़े ऐसे बनाए गए हैं, जिसमें सामान्य तौर पर उनके चेहरे और हाथ के अलावा कुछ नहीं दिखता और महिलाओं के कपड़े ऐसे क्यों बनाए जाते हैं जो सीधे उनकी शारीरिक, और खासतौर पर कमर और सीने की बनावट पर ही ध्यान खींचे.
आम तौर पर एक्जक्यूटिव क्लास की नौकरियों में भी पुरुष की वर्दी तो सूट-बूट-टाई की होती है, लेकिन महिलाओं को ड्रेस कोड के नाम पर स्कर्ट और ऊंची एड़ी जूते आदि के असुविधाजनक, लेकिन फैशनेबल पोशाकों से लैस होना पड़ता है. कुदरती तौर पर दो बराबर के व्यक्ति में इस तरह के वस्त्र-विभाजन के पीछे कौन-सी वजह होगी, जिसमें एक का व्यक्ति महत्त्वपूर्ण है और दूसरे का शरीर?
इसी तरह महंगे आधुनिक स्कूलों में लड़कियों की घुटनों से ऊपर तक चढ़े स्कर्ट जैसी वर्दी तैयार की जाती है, जिससे वे स्कूल के मैदान में सामान्य उछल-कूद भी नहीं मचा सकें. और वे ऐसा करने की कोशिश करें, तो वह दूसरों को तुष्ट करने का जरिया बने.
हालांकि अब महानगरों के बहुत से स्कूल अपनी वर्दी को जेंडर न्यूट्रल बनाने की कोशिश में हैं, मगर ऐसे स्कूल बहुत कम हैं. देह आधारित सामाजिक दृष्टि की दुनिया में दुकान चलाने के लिए आकर्षण के टोटकों का शोषण तो लाजिमी बनता है!
आधुनिक समाज में फैशन शो और पेज थ्री पार्टी की धूम मची रहती है. इन्हीं के साथ फैशन की दुनिया से एक जुमला उछल कर आया है ‘मालफंक्शन’ का. यानी मॉडल, हीरोईन या सोशलाइट के कपड़ों का ऐसे कट-फट जाना या गिर जाना, जिसके कारण उनके वे अंग कैमरे में कैद हो जाएं जिन्हें ढकने के लिए आम महिलाएं कपड़े पहनती हैं.
लेकिन मेरे लिए यह समझना मुश्किल है कि ‘मालफंक्शन’ के इस आधुनिक चलन की एक खासियत यह क्यों है कि यह सिर्फ महिलाओं के शरीर के साथ ही होता है? यानी महिलाओं के ही कपड़े इतने ‘नाजुक’ और असुविधाजनक बनाए जाते हैं कि अगर शरीर स्वभावगत सुविधा की मुद्रा में आना चाहता है तो ये कपड़े धोखा दे देते हैं और उस महिला को शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है.
यह ‘मालफंक्शन’ पुरुषों के साथ होता है या नहीं, यह पता नहीं, क्योंकि हम इस तरह मीडिया में उन्हें शर्मिंदा होते हुए शायद ही देखते हैं. हों भी क्यों? शर्म आखिर स्त्रियों का गहना है, इसलिए शर्मिंदा होने की ठेकेदारी स्त्रियों को उठानी होगी!
अगर किसी दफ्तर में कोई पुरुष हाफ पैंट, बरमूडा या कैपरी पहन कर आ जाए तो यह अनुशासन के खिलाफ होता है. सब उसे ऐसी नजरों से घूरते हैं, जैसे उसने कोई अपराध कर दिया हो. उसका यह तर्क बिल्कुल नहीं सुना जाएगा कि उसे बहुत गर्मी लग रही थी या शरीर की किसी परेशानी से आराम पाने के लिए उसने ऐसा किया या फिर यह चलन में है.
वहीं अगर कोई महिला छोटे स्कर्ट पहन कर आधी टांगों का प्रदर्शन करते हुए ऑफिस पहुंचती है तो उसे आधुनिक और वेल ड्रेस्ड समझा जाता है. अपने घर में बीवी या बेटी को सात परदे में रखने वाले सहकर्मी उस महिला की तारीफ करते नहीं थकते. पुरुष का टांगें दिखाना अभद्र और बुरा है और किसी महिला का टांगें दिखाना या शरीर प्रदर्शन में अपना व्यक्तित्व देखना आधुनिकता का प्रतीक! अजीब विकृत मानसिकता है. इस दोहरेपन की साजिश को समझना क्या इतना मुश्किल है?
स्त्री और पुरुष अगर बराबर है तो उनके लिए तैयार परिधानों में शारीरिक संरचना को ढकने-दिखाने के पैमाने कहां से आए? ‘अपनी पसंद’ के कपड़े पहनने की आजादी का सिरा किस गुलामी से जुड़ता है, क्या हमारा ध्यान इस पर कभी जा पाता है?
वस्त्रों के बंटवारे के इस ढांचे के आधार में ही गड़बड़ी है. एक तरफ परदे में ढक-तोप कर तो दूसरी ओर आधुनिकता के नाम पर निर्वस्त्र कर, व्यवस्था ने स्त्री को सिर्फ देह ही बनाया है. इस मामले में पहल तो महिलाओं को ही करनी पड़ेगी. ‘फैशन पुलिस’ के आतंक के खिलाफ महिलाओं को ही आवाज उठानी होगी.
क्या हम यह अंदाजा लगा सकने में सक्षम नहीं है कि हमारी अपनी बड़ी होती बेटियां महज एक फैशन के पैमानों में फिट होने वाली देह बन कर न रह जाएं? अकेले देह पर आधारित व्यक्तित्व देह आधारित मानसिकता भी तैयार करेगा. और इसका शिकार आखिर स्त्री को ही होना है. इसलिए स्त्री का देह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि उनका ‘व्यक्ति’ होना जरूरी है.

उस किताब से बहुत प्यार था मंडेला को

नेल्सन मंडेला जिस कविता को बहुत संभालकर रखते थे और बारबार पढ़ते थे, चुनौती और मुश्किल के हर पल में, उसका नाम इन्विक्टस है. लैटिन शब्द इन्विक्टस का अर्थ अपराजेय है. इन्विक्टस विक्टोरियन युग की 1875 में प्रकाशित कविता है. इसे ब्रिटिश कवि विलियम अर्नेस्ट हेनली ने लिखी थी. इन्विक्टस इस फ़िल्म का नाम भी है, जो मंडेला पर बनी थी. इसमें वे राष्ट्रपति बनने के बाद अपने देश की रग्बी टीम को जीतने के लिए प्रेरित करते हैं. इस फ़िल्म के ज्यादातर सदस्य श्वेत हैं. उसका हिंदी अनुवाद कुछ इस तरह है. नरक के अंधेरे की तरह घुप काले में, जिस रात ने मुझे लपेट कर रखा है, शुक्रगुज़ार हूं उस जो भी ईश्वर का, अपनी अपराजेय आत्मा के लिए, परिस्थियों के शिकंजे में फंसे होने के, बाद भी मेरे चेहरे पर न शिकन है, और न कोई ज़ोर से कराह, वक़्त के अंधाधुंध प्रहारों से, मेरा सर खून से सना तो है, पर झुका नहीं, क्रूरता और आंसुओं की इस जगह के पार, मौत के गहराते सायों के बाद भी, और साल-दर-साल की यंत्रणाएं, पाती हैं, और पाएंगी मुझे निर्भीक, इससे फ़र्क नहीं कि दरवाज़ा कितना संकरा है, और मेरे खिलाफ़ सज़ाओं की फ़ेहरिस्त कितनी लम्बी, मैं हूं अपनी नियति का मालिक, मैं हूं, अपनी आत्मा का महानायक। (रचनाकारः विलियम अर्नेस्ट हेनली, 1849–1903)