Friday 6 December 2013

इस्लाम अक्सर खतरे में क्यों!


विभूति नारायण राय

भारत के संदर्भ में जब सांप्रदायिकता, कठमुल्लापन या साम्प्रदायिक फासीवाद की बात होती है तब अक्सर हमारे निशाने पर सिर्फ हिंदू सांप्रदायिकता होती है. खासतौर से मार्क्सवादी विमर्श के दौरान ,अक्सर मुस्लिम सांप्रदायिकता को भुला दिया जाता है या फिर उसे कम करके आँका जाता है .राजेन्द्र जी अक्सर दलित ,पिछडा या स्त्री विमर्श के दौरान हिन्दू मिथकों , वर्ण व्यवस्था और हिन्दू समाज की आंतरिक संरचना की कुरूपताओं पर हमला करतें रहतें हैं .उनसे शायद यह उम्मीद की जा रही थी कि वे इस्लामी कट्टरता पर हमला करके अपने को हिन्दुत्ववादियों के पाले में पाए जाने का जोखिम न लेना चाहें , इसलिए उनके इस संपादकीय से कुछ लोगों को आश्चर्य या निराशा हुई ,पर मुझे लगता है कि इस संपादकीय में बहुत से ऐसे मुद्दे उठाये गयें हैं जो गंभीर विमर्श की मांग करतें हैं .
इस्लाम को लेकर मेरे मन में जो शंकाएं हैं उन पर आने के पहले एक बात साफ कर ली जाये . यह सही है कि जब हम सांप्रदायिकता पर हमला बोलें तो हमें हिंदू और मुस्लिम दोनों सांप्रदायिकताओं को निशाना बनाना चाहिये , लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना चाहिये कि भारत के संदर्भ मे हिंदू सांप्रदायिकता ज्यादा खतरनाक है .हिंदू सांप्रदायिकता बहुसंख्यक समुदाय की सांप्रदायिकता है .वह राज्य की मशीनरी पर कब्जा कर सकती है और फासिज्म की तरफ हमें ढकेल सकती है.हाल में गुजरात में एक प्रयोग हुआ ही है , हिंदुत्व की शक्तियाँ पूरे देश में इस प्रयोग को दोहराने की धमकी दे रहीं हैं. इसके बरखिलाफ मुस्लिम कठमुल्लापन काफी आत्मघाती है.यह अपने समुदाय को ही अधिक नुकसान पहुँचाता है .इसकी मारक शक्ति अपने अनुयायियों को पिछडेपन और जहालत की भूल- भुलैया में ढकेल देती है तथा हिंदू सांप्रदायिकता को फलने फूलने के लिए यह खाद का काम करती है .
इस्लाम दुनियाँ के दूसरे धर्मो से कई अर्थों में भिन्न है .अकेला धर्म है जो उम्मा की बात करता है .इसका मतलब है यह राष्ट्र राज्यों की सीमाओं को नकारते हुए एक अतर्राष्ट्रीय इस्लामी विरादरी की कल्पना करता है .दार्शनिक धरातल पर ही सही पर इस्लाम दुनिया को दो भागों में विभक्त करता है . इस्लाम पर यकीन रखने वालों और इस्लाम पर यकीन न रखने वालों की है. ऌस्लाम पर यकीन रखने वाले एक कौम है यह हास्यास्पद विश्वास विश्व इतिहास में हर युग और हर भूखण्ड में गलत साबित हुआ है.भाषा ,खानदान,परंपरा,भूगोल,अर्थशास्त्र-बहुत सारे कारण हैं जिन्होंने मुसलमानों को भी उसी तरह बाँट रखा है जिस तरह ईसाइयों ,बौद्धों , हिंदुओं या यहूदियों को अलग- अलग राष्ट्र राज्यों में विभक्त कर रखा है. मुस्लिम शासक और साधारण जन भी उसी तरह आपस में लडतें रहतें आयें हैं जिस तरह दूसरे धर्मो को मानने वाले शासक और सामान्य जन,पर दर्शन के रूप में इस्लाम के जनम के बाद से ही यह विचार कि मुसलमान एक अलग राष्ट्र है हमेशा मुस्लिम उम्मा को उद्वेलित करता रहा है .यह बात अलग है कि कभी कम,कभी ज्यादा.भारत के संदर्भ में यह याद रखना चाहिये कि पाकिस्तान तभी बन पाया जब पृथकतावादी मुस्लिम नेतृत्व मुसलमानों की बडी संख्या को यह विश्वास दिलाने मे सफल हो गया कि मुसलमान एक अलग राष्ट्र है और वे हिंदू राष्ट्र के साथ नहीं रह सकते.यह बात अलग है कि केवल इस्लाम एक अलग राष्ट्र का आधार नहीं हो सकता था और बंगाली राष्ट्रीयता,पंजाबी या बलूचिस्तानी राष्ट्रीयताओं के साथ ज्यादा दिन न्हीं चल सकी और इस्लामी राष्ट्रीयता के नाम पर बना देश 25 वर्षों में ही टूट गया.जो हिस्सा पाकिस्तान के नाम पर बचा भी है उसमें मुस्लिम राष्ट्रीयता से अधिक पंजाबी राष्ट्रीयता है .
इस्लामी उम्मा की इस चाह ने ही दुनियाँ भर के मुस्लिम राष्ट्रों को धर्म के नाम पर एक संगठन बनाने के लिये प्रेरित किया है .आर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कन्ट्रीज या ओ. आई. सी. संयुक्त राष्ट्र संघ के बाद सबसे अधिक देशों की सदस्यता वाला संघटन है. विश्व के दूसरे बडे धर्मो ने क्यों नहीं उन देशों का संगठन बनाने का प्रयास किया जहाँ उनके मानने वाले बहुमत में थे ? ईसाई, हिंदू, या बौद्ध ऐसे अन्य धमे हैं जिनके अनुयायी एक से अधिक देशों में रहतें हैं पर हम कभी ऐसा गंभीर प्रयास नहीं पाते जिसके द्वारा ईसाई राष्ट्र या बौद्ध राष्ट्रों का संगठनबनाने का सपना देखा गया हो .यहां यह भी ध्यान रखना चाहिये कि ओ• आई• सी. में केवल अनुदार या धर्मान्ध मुस्लिम राष्ट्र ही नहीं शरीक हैं बल्कि बहुत से उदार ,प्रगतिशील राष्ट्र और आधुनिक जीवन दृष्टि में विश्वास रखने वाले मुस्लिम राष्ट्र भी उसके सदस्य हैं.सउदी अरब ,कुवैत,नाइजीरिया और सूडान के बगल में जब हम तुर्की मलेशिया और मिश्र को बैठे पातें हैं तब हमें उस तर्क को समझने में आसानी होती है जो उम्मा के दर्शन के रूप में इस्लाम के अवचेतन का अभिन्न अम्ग है.यही कारण है कि सैय्यद शहाबुद्दीन जब मुसलमानों की जिंदगी को लेकर एक पत्रिका निकालने की सोचतें हैं तो उनके दिमाग में मुस्लिम इंडिया नाम आता है,इंडियन मुस्लिम नहीं.यह स्वाभाविक है कि क्योंकि वे मुसलमान इंडियन हैं यह प्रसंगवश है, उनकी असली पहचान मुस्लिम है जो उन्हें मुस्लिम उम्मा का अंग बनाती है .अफगानिस्तान या ईराक में अमेरिकी ज्यादतियों की प्रतिकि्र्रया विश्व में दो तरह से होती है.विरोध का एक स्वर साम्राज्यवाद विरोधी मनुष्यता का होता है जो हमलावरों और पीडितों के धर्म की परवाह किये बिना अमरीकी बमबारी की भर्त्सना करता है.इसमें ईसाई,हिंदू, बौद्ध,यहूदी और उदार मुसलमान सभी होतें हैं पर विरोध का दूसरा स्वर सिर्फ इसलिए सुनाई देता है क्योंकि पीडित मुसलमान है,भले ही हमले के पीछे कोई ईसाई चिन्ता न हो.अगर पीडित गैर मुस्लिम दुनियाँ हो तो यह स्वर गायब हो जाता है. यह स्वर धर्मांन्ध मुस्लिम उम्मा का है.चेचन्या ,कश्मीर,हर्जेगोविना,अफगानिस्तान,ईराक हर जगह इसे ऐसा लगता है कि पीडितों के साथ ज्यादतियाँ सिर्फ इसलिए हो रहीं हैं क्योंकि वे मुसलमान हैं .दुर्भाग्य से मुस्लिम विश्व में यह स्वर ज्यादा जोर से सुनाई देता है. इस्लाम अक्सर खतरे में रहता है.दुनियाँ में कोई दूसरा धर्म इतनी आसानी से खतरे में नहीं पडता. यह स्थिति शायद इसलिए है कि इस्लाम में आंतरिक लोकतंत्र सबसे कम है.कोई भी दूसरा धर्म अपने बेसिक्स या बुनियादी आस्थाओं को इतनी मजबूती से अपने सीने से नहीं चिपकाए रहता है कि उनके बारे में बहस मुबाहिसे के लिए तैयार ही नहीं हो .अल्लाह एक है,मोहम्मद उसके पैगम्बर हैं औरआखिरी पैगम्बर हैं तथा कुरान उनके ऊपर नाजिल हुई ईश्वरीय किताब है _ये कुछ ऐसे बुनियादी आस्थाएं हैं जिनके बारे में इस्लाम किसी बहस के लिए तैयार नहीं है .इनमें से किसी एक के बारे में कोई शंका होते ही इस्लाम खतरे में पडने लगता है.दूसरे धर्मो की भी बुनियादी आस्थाएँ हो सकतीं हैं पर वे उन पर बौद्धिक विमर्श से डरते नहीं .पोप औरचर्च की लाख कोशिश के बावजूद डारविन को बडे र्ऌसाई समाज ने मान्यता दी और आज भी ईसाई घरों मे पैदा होने वाले ही बाइबिल और ईसा से जुडी पुराण कथाओं की पुनर्व्याख्याओं में लगे हुए हैं .डरा हुआ समुदाय ही वैचारिक मुठभेडों से बचने की कोशिश करता है.तर्क की अनुपस्थिति से आप तर्कातीत बन जातें हैं.इसे समझने के लिये भारत के संदर्भ में ब्राह्यणों के प्रयास का अध्ययन दिलचस्प होगा.इस्लाम का भारत में आगमन बुद्ध के बाद पहली बडी सामाजिक परिघटना थी जिसने समानता और बन्धुत्व की ताजी बयार भारतीय समाज में बहाई थी .ब्राह्यण किसी भी तर्क से वर्ण व्यवस्था या कर्मकांडों को सही नहीं ठहरा सकते थे इसलिए उन्होंने इस्लाम के साथ हमेशा वैचारिक मुठभेडों से बचने की कोशिश की.उन्होंने मुसलमानों को म्लेच्छ घोषित कर दिया जिनसे विमर्श तो दूर उनको छूने मात्र से धर्म भ्रष्ट और अशुद्ध होने का खतरा था .यही प्रयास अट्ठारवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में समुद्र यात्राओं के संदर्भ में भी हुआ . ब्राह्यण जानता था कि यदि दुनियाँ के किसी दूसरे हिस्से में जाकर यह कहेगा कि वह श्रेष्ठ है क्योंकि वह ब्राह्यण परिवार में पैदा हुआ है तो लोग उसे किसी अजूबे की तरह कौतूहल से देखेंगे इसलिये उसने ज्यादा आसान रास्ते की तरह यह प्रयास किया कि देशवासी समुद्र पार ही न करें.इस तरह तर्क के अभाव को तर्कातीत बना कर पूरा करने का प्रयास किया गया.इस्लाम में शुरूआती चार खलीफाओं के बाद भिन्न आस्थाओं से मुठभेड से बचने की प्रवृति अधिक रही है .शायद यही कारण है कि इस्लाम इतना छुई- मुई है और जरा सी चुनौती से वह खतरे में पड ज़ाता है .
यह भी बिना किसी कारण नहीं है कि धर्मयुद्ध का आह्वान हमारे समय में सिर्फ मुसलमानों की तरफ से उठता है. यह कहा जा सकता है कि विश्व के मुसलमानों की बहुत छोटी संख्या ही जेहाद जैसी अव्यवहारिक कल्पना लोक में जीती है और जेहाद को भी नए ढंग से परिभाषित करने की कोशिश की जाती है.कई मुस्लिम विद्वान यह मानतें हैं कि जेहाद का संबंध बाहरी भौतिक जगत से नहीं बल्कि आंतरिक शुद्धि और बुराइयों पर विजय से है.पर इन सबके बावजूद यह एक तथ्य है कि जेहाद का सबसे अधिक समझा जाने वाला अर्थ मुसलमानों के हितों की रक्षा के लिए गैर-इस्लामी हुकूमतों को उखाड फ़ेंकने और अल्लाह की हुकूमत कायम करने का प्रयास ही है.यही अर्थ है जो चेचन्या से अफगानिस्तान और फिलिस्तीन से काश्मीर तक दुनियाँ भर के मुसलमान जेहादियों को आकर्षित करता है.हमें नहीं भूलना चाहिए कि बुश ने अफगानिस्तान पर हमले से पहले कुछ ईसाई प्रतीकों का सहारा लेने की कोशिश की थी.आपरेशन इनफाइनाइट जस्टिस का नाम बदलने पर बुश को अमरिकी जनता की विपरीत प्रतिक्रिया ने ही मजबूर किया था.बुश चाहता भी तो अमेरिकी अभियान को क्रूसेड में तब्दील नहीं कर सकता था.बुश तो क्या अब कोई ईसाई नेता अब क्रूसेड की बात नहीं कर सकता.पर मुसलिम उलेमा ,राजनेताओं और सामान्यजन के लिए जेहाद अभी भी एक हासिल किया जा सकने वाला सपना है और अभी भी एक ऐसी इच्छा है जिसके लिए हर साल हजारों लाखों मुसलमान अपनी जान दे देतें हैं.
मैं अपनी बात इस तथ्य की तरफ आकर्षित कर समाप्त करूंगा कि धर्मनिरपेक्षता की लडाई नीति के आधार पर नहीं विश्वास के आधार पर लडी ज़ानी चाहिए.यह दुनियाँ भर के मुसलमानों की समस्या है कि वे जब अल्पसंख्यक होतें हैं तब धर्म के सबसे बडे अलमबरदार होतें हैं लेकिन जैसे ही किसी खित्ते में बहुसंख्यक हो जातें हैं इस्लामी हुकूमत कायम करना उनकी प्राथमिकता हो जाती है.वे अपनी हुकूमतों में अल्पसंख्यकों को वही सारे अधिकार नहीं देना चाहते जो अल्पसंख्यक के रूप में खुद के लिए चाहतें हैं .तुर्की , मिस्र या इंडोनेशिया जैसे समाज कुछ अपवाद जरूर हैं लेकिन वहाँ भी इस्लामी कट्टरपंथियों का प्रयास यही है कि वे राज्य मशीनरी पर कब्जा करके सरकारों को इस्लामी शरिआ की अपनी समझ के अनुसार चलने पर मजबूर कर सके .हमारे देश के संदर्भ में यह तथ्य अधिक महत्वपूर्ण है .यह एक खुला सच है कि भारत में हिंदू और मुस्लिम कट्टरता एक दूसरे के लिए खाद और पानी का काम करतें हैं.दोनों एक दूसरे को फलने फूलने में मदद करतीं हैं.मैंने शुरू में ही इस तथ्य को रेखांकित किया था कि हिंदू सांप्रदायिकता भारत के संदर्भ में ज्यादा खतरनाक है क्योंकि बहुसंख्यक समुदाय की सांप्रदायिकता में यह सामर्थ्य है कि वह राज्य की मशीनरी पर कब्जा कर सकती है .एक फासिस्ट हिंदू राज्य बनने से भारत को बचाने के लिए आवश्यक है कि दोनो समुदायों की सांप्रदायिकता से समान रूप से लडा जाये. सांप्रदायिकता के एक स्वरूप पर हमला बोलने और दूसरे की अनदेखी करने से काम नहीं चलेगा.इस मामले में प्रगतिशील हिंदुओं और मुसलमानों को साथ -साथ मिलकर संघर्ष करना पडेग़ा . भारत के मुसलमानों को बढ चढ क़र यह मांग करनी पडेग़ी कि केवल भारत के सेक्यूलर होने से काम नहीं चलेगा, पाकिस्तान, बांग्लादेश और सूडान को भी सेक्यूलर होना पडेग़ा.इक्कीसवीं शताब्दी में धर्माधारित राज्य से बडी मूर्खतापूर्ण और कोई अवधारणा नहीं है. धर्मनिरपेक्षता की लंबी लडाई पूरे मनुष्य जाति के लिए महत्वपूर्ण है और इसे मैटर ऑफ पालिसी नीतिगत मामले के तौर पर नहीं मैटर ऑफ प्रिंसिपुल के तौर पर ही लडा जा सकता है. 
ज्यादा हिन्दू होने की कोशिश
सुदूर अनजान भूभागों की यात्रायें मुझे हमेशा आकर्षित करतीं रही हैं .नई जगहों को देखना, नये-नये लोगों से खान-पान, रहन-सहन और जीवन चर्या के पूरे वैविध्य के साथ मिलना और अनदेखे अपरिचित द्वीपों में नये मित्र बनाना मुझे सदा से प्रिय रहा है.इसलिये हर यात्रा मेरे लिये विशिष्ट अर्थ रखती है पर योरोप की पहली यात्रा कई तरह से यादगार बन गयी . हांलाकि यात्रा काफी छोटी थी,पन्द्रह बीस दिनों मेंआप किसी जीवन पद्धति को समझने का भ्रम नहीं पाल सकते,पर एक खुले समाज को समझने के लिये, अगर आपकी आंखों पर पूर्वाग्रह की बहुत मोटी पट्टी न बंधी हो ,इतना समय कम भी नहीं था .मुझे यह स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं है कि योरोपीय समाज को लेकर मेरे मन में बहुत से पूर्वाग्रह थे .औसत भारतीय की तरह मैं मानता था कि योरोपीय समाज पूरी तरह से यांत्रिक और सुखवादी है. परिवार जैसी संस्था का कोई मतलब नहीं है .लोग अपने में मस्त हैं और अपने लिये जीतें हैं. उनके बरक्स भारतीय संस्कृति परमार्थ और अध्यात्म वादी है.परिवार हमारी बहुत पवित्र संस्था है . और हम तो जीते ही दूसरों के लिये हैं .बहुत सी बातें थीं जो इस यात्रा की शुरूआत में मेरे मन में गहरे पैठी थीं .मुझे यह स्वीकार करने में भी कोई हिचक नहीं है कि मुझे अपनी बहुत सी धारणाओं में संशोधन करना पडा.इन सबके बारे मे कभी विस्तार से लिखूंगा.
यहां इस लेख में मैं सिर्फ एक छोटी सी मुठभेड क़ा जिक्र करना चाहता हूं जो हिन्दू कठमुल्लों से बरमिंघम में हुयी थी.
बरमिंघम में बहुत दिलचस्प अनुभव हुआ.वहां प्रवासी भारतीयों की एक संस्था है गीतांजली बहुभाषी समाज.बहराइच के मूल निवासी कृष्ण कुमार जी ने वर्षों पहले इलस्ट्रेटेड वीकली आफ इन्डिया में कैंसर से जूझ रही किशोरी की कविताएँ पढक़र उसके नाम से गीतांजली बहुभाषी समाज की स्थापना की थी और धीरे धीरे पिछले एक दशक में यह बरमिंघम में रहने वाले , अलग अलग भाषायें बोलने वाले भारतीयों की साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों की प्रतिनिधि संस्था बन गयी है. गीतांजली बहुभाषी समाज ने हमें निमंत्रित किया था .दोपहर बाद हमारा कार्यक्रम था और देर रात तक हमें लन्दन वापस लौटना था. भारत के काउंसलेट जनरल में कार्यक्रम था .एक बडे से हाल में 300 से कुछ अधिक स्त्री पुरूष इकट्ठे थे . भारत की सभी बडी भाषाओं का प्रतिनीधित्व था. उपस्थित लोगों में ज्यादातर डाक्टर , वकील या चार्टड एकाउण्टेंट जैसे पेशों के लोग थे ,पहली या दूसरी पीढी क़े प्रवासी भारतीय थे जिन्होंने अपने हाड तोड पहली परिश्रम और लगन से ब्रितानी समाज में अपनी एक हैसियत बनायी थी.
ब्रिटेन की स्वास्थ्य या शिक्षा जैसी सेवायें भारतीयों के बल पर टिकी हुयीं हैं -यह कहा जाय तो अतिशयोक्ति न होगी .मौजूदा लोगों में ज्यादातर ने ब्रितानी नागरिकता ले ली थी, कुछ तो पैदायशी अँग्रेज थे.
पिछले कुछ दिनों में प्रवासी भारतीयों से जो बात चीत हुयी थी उससे एक बात पूरी तरह समझ में आ गयी थी .देश छोडने या कई बार पहला मौका मिलते ही भारतीय नागरिकता छोडने वाले कहीं बहुत गहरे भारतीय बने रहने की छटपटाहट से ग्रस्त थे. यह एक ऐसी भावना थी जिसे भाषा में वर्णन करना थोडा मुश्किल है पर यह थी बडी ज़बरदस्त .लोग देश में व्याप्त भ््राष्टाचार या राजनीति के अपराधीकरण से चिंतित थे और विकास की धीमी गति उनके मन में आक्रोश पैदा कर रही थी. वे भारत को दुनियां का सबसे शक्तिशाली देश देखना चाहते थे.इन सबके बीच एक दिलचस्प बात यह थी कि वे मुख्य भूमि से दूर पहुँच कर ज्यादा हिन्दू हो गये थे.यह अनुभव मुझे कुछ वर्ष पहले उषा प्रियम्वदा से बात करके भी हुआ था. वे दिल्ली आयी हुयीं थीं और निर्मला जैन के यहाँ एक डिनर में उनकी बातें सुनकर मुझे और मेरे जैसे कई लोगों को लगा था कि वे विश्व हिन्दू परिषद के किसी कार्यकर्ता की तरह बातें कर रहीं थीं .बरमिंघम पहुँचने के पहले लंदन में बहुत से प्रवासी भारतीयों से बातें करके ऐसा ही लगा .
उस दोपहर को हमें सुनने के लिये भारतीय वाणिज्य दूतावास में जो लोग आये उनके साहित्य से वैसे ही सरोकार थे जैसे भारत में उनके जैसे पेशेवर वर्गों के लोगों की होते हैं .कार्यक्रम शुरू होने के पहले हमारी वहाँ के लोगों से जो बातचीत हुयी उससे समझ में आ गया कि अपनी भाषा के समकालीन लेखन से उनमे से अधिकांश का कोई परिचय नहीं था. लंदन की ही तरह वहां के ज्यादातर लोग नरेन्द्र कोहली को हिन्दी के सबसे बडे उपन्यासकार और केसरीनाथ त्रिपाठी को हिन्दी के सबसे महत्वपूर्ण कवि के रूप में जानते थे . वाणिज्य दूतावास के उस बडे से हाल की आलमारियों में वैद्य गुरूदत्त, गुलशन नन्दा और नरेन्द्र कोहली के उपन्यासों की भरमार थी. छह वर्षों के भाजपा शासन के दौरान जब अटल बिहारी वाजपेयी एक बडे क़वि के रूप में स्थापित हो रहे थे ,इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि देश से भाँति - भाँति के कीर्तनिये ,कथावाचक और हस्तरेखा विशेषज्ञ हिन्दी के साहित्यकार के रूप में लन्दन तथा बरमिंघम जैसे शहरों में थोक की मात्रा में आ जा रहे थे .यही लोग प्रवासी भारतीयों के लिये हिन्दी की मुख्य धारा के लेखक थे .
कार्यक्रम शुरू होने के पहले ही मैने कालिया जी से तय कर लिया कि हम लोग इस कार्यक्रम में बहुत गहरे नहीं फंसेंगे. इस तरह के कार्यक्रमों की जो औपचारिकतायें हैं उन्हें पूरा कर निकल भागेंगे.शुरूआत तो ठीक ठाक हुयी पर बाद में चलकर हम फंस गये .
उन्नींसवीं शताब्दी की शुरूआत में अँग््रोजी के एक लेखक ने व्हाइटमैन्स बर्डन की बात कही थी .उसके अनुसार एक औसत गोरा अपने सर पर एक बोझ लिये फिरता है .यह बोझ है कालों को सभ्य बनाना . अँग्रेज सिर्फ हिन्दुस्तान में लूटपाट के इरादे से नहीं आये थे बल्कि वे भारत को सभ्य भी बना रहे थे .कुछ कुछ ऐसा ही बोझ बहुत से प्रवासी भारतीयों के सर पर भी लदा मिला.वे भारतीय संस्कृति और भारत की छवि के बारे में चिंतित रहतें हैं .कई तो अपने को भारत का गैर सरकारी राजदूत मानतें हैं.सरसरी तौर पर देखें तो यह स्थिति अच्छी है पर थोडा गहरे जाने पर इसमे बडे झोल नजर आने लगतें हैं.
पिछले कुछ वर्षों में उच्च वर्ण के मध्यवर्गीय हिन्दू के मन में साम्प्रदायिकता का जहर बहुत तेजी से फैला है .80 और 90 के दशकों में विश्व हिन्दू परिषद ने बहुत योजनाबद्ध और आक्रामक तरीके से रामजन्मभूमि आंदोलन चलाया था . इस आंदोलन ने हिन्दू मानस को कहीं बहुत गहरे छुआ है.इसका असर डाक्टर, वकील , अध्यापक , किरानी जैसे वर्गों पर पडा और स्वतंत्रता संग््रााम में हरावल दस्तों में रहने वाले पेशेवर वर्ग भी बुरी तरह से साम्प्रदायिकता के शिकार हुये. विदेशों मे जाने वाले भारतीयों का अगर वर्गीय विश्लेषण किया जाय तो यह बहुत साफ दिखायी देता है कि मध्यपूर्व को छोड क़र नौकरी की तलाश में जाने वालों में अधिकतर डाक्टर, इन्जीनियर,चार्टड अकाउन्टेन्ट जैसे पेशों से जुडे लोग थे.दलित जातियों में शिक्षा की कमी के कारण स्वाभाविक था कि ऊंची जातियों के लोग ही इस रूप में बाहर गये. व्यापार के सिलसिले में जो गुजराती ,मारवाडी वगैरह गये वो भी इन्हीं मे से थे.दूसरी तीसरी पीढी क़े इन भूतपूर्व हिन्दुस्तानियों में अभी भी वर्णचेतना लुप्त नहीं हुयी है और इतिहास खास तौर से भारत के मध्यकाल को लेकर उनके मन में कमोबेश वही पूर्वाग्रह है जो उनके वर्ग और वर्ण के औसत हिन्दुओं में भारत में है.रामजन्मभूमि आंदोलन ने ,भौगोलिक दूरी के बावजूद, उन्हें भी गहरे अर्थो मे प्रभावित किया है.
इस बीच एक और गंभीर बात हुयी है.राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने आनुषंागिक संगठन विश्व हिन्दू परिषद के माध्यम से समुद्रपार अपनी जडें ग़हरी की है .ब्रिटेन ,कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका संभवत: उनके प्रभावमंडल के सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं .इन राष्ट्रों में उपस्थिति के कई अर्थ हैं. ओपीनियन मेकिंग के साथ साथ चन्दा उगाही के ये सबसे बडे स्रोत हैं. यदि कभी रामजन्म भूमि मंदिर के नाम पर एकत्र चंदे का सार्वजनिक आडिट संभव हो सका तो हमें इस सूचना के लिये तैयार रहना चाहिये कि इस धनराशि का बहुत बडा हिस्सा इन तीन देशों में रहने वाले प्रवासी भारतियों से इकट्ठा हुआ है.ये प्रवासी भारतीय जिस भारतीय छवि की रक्षा के लिये आकुल दिखायी देतें हैं वह काफी हद तक भारतीय संस्कृति जैसी अबूझ एब्स्ट्रेक्ट किस्म की चीज है.उच्च वर्णो की श्रेष्ठता पर आधारित यह एक ऐसी स्थिति है जहां उदारता,सहिष्णुता ,सद्भाव और समानता जैसे भाव सर्वत्र उपस्थित हैं.संघ परिवार की भाषा में इसे सामाजिक समरसता कहतें हैं .जैसे ही दलित,पिछडे,या स्त्रियां अपने लिये स्पेस की मांग करने लगतें हैं या वर्णाश्रमी पाखंड की चमडी हल्की सी छील देतें हैं और उसके नीचे अन्याय अमानुषिकता और अतार्किकता के बजबजाते पंक जल को हिलोरने की कोशिश करतें हैं संघ परिवार के व्याख्याकारों को सोशल इन्जीनियरिंग और सामाजिक समरसता की याद आने लगती है.ब्राह्यण संस्कृति के आधार कर्मकांड ,पुनर्जन्म, भाग्यवाद या वर्णाश्रम की कोई भी विवेक सम्मत व्याख्या उन्हें भारतीय संस्कृति के लिये खतरा लगती है .कुछ कुछ ऐसी ही भावना प्रवासी भारतियों के मन में भारत की छवि को लेकर है.दुनियां में और कोई न माने लेकिन भारतीय संस्कृति को ब्राह्यण व्याख्याकारों की तरह वे मानतें हैं कि भारत एक महान सभ्यता है और उसकी महानता का उत्स उदारता में है .वे प्रयत्न पूर्वक अपने पश्चिमी सहयात्रियों के बीच इस छवि को सजाने संवारने में लगे रहतें हैं.इसलिये अगर कोई ,खास तौर से भारत से आया हुआ व्यक्ति,ऐसी बात कहे जिससे यह महान छवि खंडित हो तो उन्हें बुरा लगता है और उनमें से कई को बल पूर्वक ऐसे वक्ता को चुप कराने में भी संकोच नहीं होगा . मेरे साथ भी बर्मिघंम की उस शाम ऐसा ही कुछ हुआ.
कार्यक्रम औपचारिक तरीके से शुरू हुआ.मेरा उपन्यास तबादला इन्दू शर्मा कथा सम्मान से सम्मानित हुआ था और यह कार्यक्रम उसी सम्मान की श्रृंखला में था अत: स्वाभाविक था कि मेरे और उपन्यास के बारे में फर्ज अदायगी के तौर पर आयोजकों ने कुछ अच्छी बातें कहीं .कुछ बातें संस्था के बारे में कहीं गयीं .मुझे पता था कि वहां उपस्थित लोगों मे से आठ दस लोगों ने ही तबादला पढा है और उनसे भी कम ने मेरी कोई दूसरी रचना पढी है.रवीन्द्र कालिया के गालिब छुटी शराब के अलबत्ता कुछ ज्यादा प्रशंसक थे पर उनकी संख्या भी दहाई में मुश्किल से पहुंचती थी.जाहिर था इस उपस्थिति के सामने बोलने में कोई बहुत उत्साह नहीं हो सकता था.कालिया जी ने थोडा बहुत बोलकर अपना पिण्ड छुडाया और फिर मुझे माइक थमा दिया .
मैंने अपनी रचना प्रक्रिया और उपन्यास के बारे में कुछ कहा और चार छह सवालों के जवाब दिये.एक प्रश्न ऐसा था जिसके उत्तर से देश की छवि सुरक्षित रखने वालों के लिये संकट पैदा हो गया .सवाल गुजरात को लेकर था.गुजरात कुछ ही दिनों पूर्व होकर चुका था. केन्द्र की सत्ता पार्टी ,जो गुजरात के दंगों में राज्य सरकार को राजधर्म निभाने का उपदेश जरूर दे रही थी पर उसकी ओर से कभी ऐसी इच्छा शक्ति का प्रर्दशन नहीं हुआ जो विश्वास पैदा कर सके, हालिया चुनावों में सत्ताच्युत हुयी थी .इस परिप्रेक्ष्य में गुजरात पर कोई भी प्रश्न या उसका उत्तर बेचैनी पैदा करने वाला हो सकता था.मेरे सामने एक विकल्प यह था कि मैं चतुराई के साथ अपने को बचा लूं और गोल मोल जवाब देकर अपना पिण्ड छुडा लूं.लेकिन यह स्थिति मुझे स्वीकार्य नहीं थी .देश के बहुत से दूसरे लोगों की तरह गुजरात मेरा भी दु:स्वप्न था.
गुजरात की घटनाओं पर मेरा दुख दो तरह का है .एक तो हिन्दू के रूप मे मैं इस बात से शर्मिन्दा हूं कि हिन्दुओं ने अपने पडाेसी मुसलमानों को नृशंसतम तरीकों से मारा था. दूसरी तकलीफ एक पुलिस अधिकारी की है.पुलिस ने एक क्रूर और पक्षपाती राज्य की हरकतों में बिना किसी प्रतिरोध के सहयोग किया.संविधान तथा कानून की पुलिस से जो अपेक्षा है उसके एकदम खिलाफ गुजरात पुलिस ने अल्पसंख्यकों की सम्पत्ति एवं जीवन के विनाश पर उतारू उन्मादी हिन्दुओं की भीड क़ो रोकने की जगह उनकी मदद की .यही दोनो बातें मैने उस सभा में कही. मेरा मानना था कि गुजरात आजादी के बाद सांप्रदायिक हिंसा का सबसे बुरा उदाहरण है क्योंकि इसके पहले कभी भी राज्य इतनी बेशर्मी से अपने नागरिकों के एक वर्ग के संहार में लिप्त नहीं हुआ था.
मेरे संक्षिप्त से वक्तव्य से सुनने वालों मे से कुछ आहत लगे.यह बाद में समझ आया कि ये लोग वे थे जो था तो विश्व हिन्दू परिषद के सक्रिय कार्यकर्ता थे या पिछले कुछ वर्षों में विहिप के योजनाबद्ध प्रचार के शिकार बने थे .यही वे लोग थे जो भारत की छवि बचाये रखने का बोझ अपने कांधों पर लिये घूमते हैं .इस छवि को पश्चिमी समाज मे चमकाने के लिये आवश्यक है कि भारतीय खास तौर से हिन्दू जीवन पद्धति को उदार तथा सहिष्णु जीवन पद्धति के रूप में पेश किया जाय.गुजरात जैसी घटनाओं का जिक्र आने से यह मिथ टूट सकता है, इसलिये इन लोगों का पूरा प्रयास रहता है कि ऐसी चीजों का उल्लेख ही न हो और अगर हो तो इस तरह से कि क्रूरता को वैध ठहराया जा सके .मसलन गुजरात में मुसलमानो का नरसंहार गोधरा काण्ड की प्रतिक्रिया था या फिर ऐसा ही कुछ और.
श्रोताओं के इस वर्ग को लगा कि मुझ जैसे दुष्ट की वजह से उनके द्वारा बडे ज़तन से तराशी गयी छवि खण्डित होने को है.हाल में एक तरह से तूफान बरपा हो गया.अलग अलग कोनों और कतारों में बैठे लोग एक साथ खडे होकर चिल्लाने लगे.प्रश्न सत्र भाषण सत्र में तब्दील हो गया .हर प्रश्न पूछने वाला उत्तर भी स्वयं दे रहा था .पूरे विस्फोट का लुब्बोलुवाब यह था कि इतिहास की मुझे कोई समझ नहीं है .हिन्दू लगातार पिटता रहा है और अगर पहली बार गुजरात में उसने पिटाई की है तो हम इस पर शर्मिन्दा नहीं होना चाहिये .मुसलमान ,जो स्वभाव से ही क्रूर और धोखेबाज होता है , हमेशा से हिन्दू पूजा स्थलों को तोडता रहा है, ने हिन्दू स्त्रियों की इज्जत लूटी है और पूरा भारतीय इतिहास उसकी ज्यादतियों से भरा है.भारत के एक औसत हिन्दुत्व कार्यकर्ता की तरह इतिहास उनके लिये तर्क या विवेक से परे मिथ,आस्था और भावुकता का घालमेल था.उनमें से कुछ ने तो यहां तक कहा कि वे मोदी पर गर्व करतें हैं जिसने हिन्दुओं को तन कर चलना सिखाया है.दर्शकों के इस वर्ग ने वाचिक प्रतिरोध को शारीरिक अभिव्यक्ति देने की भी कोशिश की .आयोजकों ने बीच बचाव कर उन्हें रोका.
मैंने विरोधी श्रोताओं को सम्बोधित करते हुये एक निवेदन किया .मैने कहा कि एक भारतवासी के तौर पर मैं कृतज्ञ हूं कि वे देश की छवि को लेकर इतने चिंतित रहतें हैं .मैने इस बात के लिये भी उन्हें धन्यवाद दिया कि उनमें से बहुत से लोग देश में अपने मूल निवास को गांवों शहरों में शिक्षा या स्वास्थ्य के क्षेत्र में कुछ निवेश भी करतें हैं . ये सारे उपकार एक तरफ और भयंकर क्षति दूसरी तरफ. वे एक ऐसी संस्था के आर्थिक सम्बल बने हुये हैं जो पिछले कई वर्षों से हमारे देश में दंगा फसाद की जड बनी हुयी है.मैने उनसे अनुरोध किया कि वे रामजन्मभूमि आंदोलन को चंदा देना बंद कर दें .इस आंदोलन के चलते हजारों लोग मारे जा चुकें हैं और अरबों रूपयों की सम्पत्ति का नुकसान हो चुका है .जैसे लोक कथा के राक्षस की जान तोते में बसती थी उसी उसी तरह विहिप की जीवन रेखा चंदे से गतिशील रहती है.वे चंदा देना बंद कर दें तो विहिप की राष्ट्र विरोधी गतिविधियां मंद पड ज़ायेंगी और देश को हिंसा और घृणा की राजनीति से काफी हद तक मुक्ति मिल जायेगी . जाहिर था कि मेरा यह निवेदन स्वीकार नहीं किया जा सकता था और न ही मेरे पास यह जानने का कोई जरिया है कि वहां उपस्थित श्रोताओं में से अगली बार विहिप को चंदा देने से पहले किसी के मन में कोई उलझन पैदा हुयी या नहीं.
बर्मिंघम के उस कार्यक्रम से मैं सही सलामत निकल तो आया पर मन में एक अवसाद बना रहेगा .यह बहुत स्पष्ट समझ में आ गया कि धार्मिक उन्माद का खतरा हमारी मुख्य भूमि से निकलकर प्रवासी भारतीयों तक पहुंच गया है.
वर्णाश्रमी असभ्यता
सभ्यता दुनिया की हर भाषा में , मनुष्य को सभ्य बनाने की अनवरत चलने वाली प्रक्रिया और उससे हासिल होने वाले नतीजों के लिये प्रयुक्त होने वाले शब्द हैं .यह सभ्य होना क्या है? क्या कोई ऐसी प्रविधि है जिससे एक काल , धर्म, नस्ल, लिंग , भूगोल निरपेक्ष परिभाषा गढी ज़ा सकती है ? कुछ ऐसे गुण हो सकतें हैं क्या, जिन्हें धारण करने वाला मनुष्य चाहे वह जिस देश काल का हो सभ्य कहला सकता है ? सभ्यता की यह यात्रा बडी लम्बी होती है .एक दो वर्षों में नहीं बल्कि सैकडों वर्षों में धरती के किसी खास भू भाग में रहने वाले लोग ऐसी जीवन पद्धति विकसित कर पातें हैं जिनमें कुछ कुछ मात्रा में वे सब गुण होतें हैं जो उन्हें सभ्य बनातें हैं .
मनुष्य को सभ्य बनाने वाले मूल्यों में कुछ काल सापेक्ष होतें हैं .इतिहास के एक कालखण्ड में कोई विचार बडा क्रान्तिकारी लगता है पर समय के साथ उसकी धार कुंद हो जाती है और वह अपर्याप्त लगने लगता है .मोहम्मद साहब ने कहा कि गुलामों के साथ अच्छा बर्ताव करना चाहिए .अपने समय में यह बडी सीख थी .पर आज अगर मोहम्मद होते तो इसकी जगह यह कहते कि गुलामी अमानवीय प्रथा है, इसे बने रहने का कोई हक नहीं है .इस उदाहरण से अब्राहम लिंकन मोहम्मद से बडे नहीं हो जाते . जिस समय अबा्रहम लिंकन ने गुलामी उन्मूलन का संघर्ष छेडा था तब तक मनुष्यता अपने विकास के क्रम में उस बिन्दु तक पहुंच चुकी थी जहां गुलामी के पक्ष में कोई विचार चाहे वह किसी भी दर्शन ,धर्म या अर्थतंत्र से खाद हासिल करता हो, वैध नहीं हो सकता था. मोहम्मद का विचार अपने समय से आगे था और लिंकन का अपने समय की जरूरतों के अनुकूल. यह उदाहरण सिर्फ इसलिये दे रहां हूं कि मैं यह बात थोडा बेहतर ढंग से कह सकूं कि ज्यादातर मूल्य और संस्थायें समय सापेक्ष होतीं हैं .इसी के साथ साथ हमें यह भी याद रखना होगा कि कुछ मूल्य काल को अतिक्रमित कर जातें हैं .ये बुनियादी मूल्य हैं जो मनुष्य को सभ्य बनातें हैं .यही वे मूल्य हैं जिनके बल पर सभ्यतायें निर्मित होतीं हैं .प्रेम ,दया, भाई चारा और एक दूसरे को मदद करने की भावना कुछ ऐसे मूल्य हैं जो हर काल, हर धर्म, हर नस्ल में प्रासंगिक बने रहे .
इन्हीं सारे मूल्यों से मिलकर एक ऐसा मूल्य बनता है जो मेरे विचार से किसी सभ्यता को सही अर्थों में सभ्य बनाता है. यह मूल्य है अपने बीच में अपने कमजोर सदस्यों के लिये स्थान छोडना .अंग्रेजी में जिसे स्पेस कहेंगे वह प्रदान करना.कमजोरी शारीरिक ,आर्थिक, सांस्कृतिक या लैंगिक किसी भी रूप की हो सकती है .यह स्पेस देने की स्थिति किसी भी जीवन पद्धति में एक लम्बे अभ्यास के बाद आती है और काफी हद तक सांस्कृतिक, धार्मिक ,भौगोलिक और सामाजिक परम्पराओं की उपज होती है.यह समुदाय की भाषा और विभिन्न सदस्यों के अन्तर्सम्बन्धों में एक स्वतःस्फूर्त और अदृश्य संचालक की तरह मौजूद रहती है.
इस पूरे फार्मूलेशन को समझने के लिये हमें वर्णाश्रम धर्म पर आधारित ब्राह्यण जीवन पद्धति को देखना होगा. वर्णव्यवस्था दुनिया की सबसे विशिष्ट और सबसे घृणित व्यवस्था है जिसने कई हजार वर्षों तक एक बडे समाज को संचालित किया है .विशिष्ट इस अर्थ में कि इसमें मुक्ति के रास्ते निहित नहीं हैं .इसके अतिरिक्त मानव जाति के इतिहास में जो मनुष्य विरोधी संस्थायें निर्मित हुयीं उनमे हमेशा मुक्ति की गुंजायश रही .दास प्रथा, नस्ल और रंग भेद अथवा लैंगिक असमानता जैसी स्थितियों में पीडित के पास हमेशा अपनी स्थिति सुधारने का एक विकल्प रहता था पर वर्ण व्यवस्था इतनी ठस और अपरिवर्तनीय है कि उससे छुटकारा पाना लगभग असंभव है .अमानवीयता में इसकी तुलना गुलामी प्रथा से कर सकतें हैं .दोनो संस्थायें हृदयहीन और क्रूर हैं .दोनो समाज के अनगिनत जुल्मों ज्यादती की तकलीफदेह गाथा हैं.फर्क सिर्फ इतना है कि गुलाम अपनी बेडियां तोड सकता था.पूरा मध्यकाल ऐसे उदाहरणों से भरा हुआ है जिनमें गुलाम अपने स्वामी राजा को खुश कर उसका उत्तराधिकारी बन बैठा . वर्ण व्यवस्था में यह संभव नहीं था कि शूद्र ब्राह्यण की बेटी से शादी करके ब्राह्यण हो जाय या किसी युद्ध में शौर्य का प्रदर्शन करके क्षत्रिय बन सके .वर्णव्यवस्था के प्रशंसक किसी ऐसे काल्पनिक युग का जिक्र करतें हैं जिसमें कर्मणा जातियों का निर्धारण होता था .ऐसे किसी समय के ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं हैं जिसमें कर्म के आधार पर किसी को जाति मिलती थी . यदि कर्म के आधार पर जातियां बंटतीं तो वर्णव्यवस्था की जरूरत ही नहीं रह जाती . एक मजेदार उदाहरण बाल्मीकि का दिया जाता है .यदि इन लोगों का तर्क सही माना जाय तो बाल्मीकि जाति के आधुनिक संस्करणों मे मेहतर थे और अपनी काव्य प्रतिभा के बल पर ब्राह्यण कर्म करने लगे. यह हास्यास्पद उल्लेख इस तथ्य को भूल जाता है कि बाल्मीकि रचित रामायण शूद्र विरोधी उद्धरणों और व्यवस्थाओं से भरी हुयी है .क्या यह तर्क संगत और मानने योग्य है कि एक शूद्र ने अपने ही वर्णों को नीचा दिखाने वाला ग्रन्थ रचा हो?
यह वर्ण व्यवस्था हमें किस तरह से एक सभ्य समाज बनने से रोकती है इसे समझना जरूरी है.इस व्यवस्था के तहत जो संस्थायें बनी उन्होंने कई तरह हमें प्रभावित किया .इसने सबसे पहले तो इसने हमें अपने बीच के अधिसंख्य लोगों को पशुओं से भी बदतर मानने के लिये प्रेरित किया.समाज का बहुलांश शूद्र है. जो शूद्र नहीं है उनकी भी आधी संख्या स््रत्रियों की है .वर्णव्यवस्था इन सभी को मनुष्य के नीचे की योनि का मानती है .इस का सबसे तकलीफदेह पहलू यह है कि इस पूरी घृणित स्थिति को एक दैवीय दार्शनिक वैधता हासिल है .वेद , पुराण ,महाभारत और रामायण जैसी धार्मिक पुस्तकें और उनमें निहित पुनर्जन्म तथा भाग्यवाद जैसे दर्शन इस व्यवस्था को ठस और अपरिवर्तनीय बनाता है.इसी की वजह से शूद्र के पास ब्राह्यण होने का कोई विकल्प नहीं है.वर्णव्यवस्था की दूसरी दिक्कत है कि यह शारीरिक श्रम को हेय मानती है .पूरी दुनियां में शायद ब्राह्यण परम्परा ही एक अकेली परम्परा है जो भीख मांगने को महिमा मण्डित करती है .आर्थिक और पारम्परिक रूप से पिछडे समाजों में भीख मांगने को कभी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा गया. वर्ण व्थवस्था नें शारीरिक श्रम को तुच्छ बताया और दास शूद्रों की विशाल फौज ने यह सम्भव किया कि वे बैठकर खाने वालों के स्वामित्व वाले खेतों में अनाज पैदा करें और उन्हें खिलाते रहें .ऊंची जातियों के लिये हल का मूठ छूना भी पाप का भागी बनना था. ब्राह्यणों ने तो और भी रोचक तरीके से अपने पेट पालने की व्यवस्था की .वह न सिर्फ भीख मांगने में लज्जित नहीं होते थे बल्कि भीख लेकर देने वाले पर एहसान भी करते थे -उसका लोक परलोक सुधारते थे .
वर्ण व्यवस्था की तीसरी समस्या इसमें अन्तर्निहित शिक्षा विरोध है .हम शायद विश्व के सबसे बडे शिक्षा विरोधी समाज रहें हैं. मोहम्मद ने अपने अनुयायियों से कहा था कि शिक्षा हासिल करने के लिये जरूरत पडे तो चीन भी जाओ. उस दौर में अरब से चीन जाना कितना दुष्कर था इसका उल्लेख करना जरूरी नहीं है. वर्णाश्रमी परम्परा अपने बीच के अधिसंख्य लोगों को बलपूर्वक शिक्षा से वंचित करती है.गौतम बुद्ध के प्रभाव ने जरूर एक काल विशेष में शिक्षा को सार्वजनिक बनाने का प्रयास किया पर जैसे ही ब्राह्यणों का वर्चस्व पुर्नस्थापित हुआ उन्होने वैज्ञानिक चेतना का प्रसार करने वाले सबसे बडे लौकिक शिक्षा केन्द्रों - तक्षशिला और नालंदा को बर्बरता से नष्ट कर दिया और इन विश्वविद्यालयों के विशाल पुस्तकालयों को आग के हवाले कर दिया.इसलिये कोई आश्चर्य नहीं है कि अपने ही बीच के मनुष्यों को पशुवत् मानने वाला, शारीरिक श्रम में अनास्था रखने वाला और शिक्षा विरोधी समाज दुनिया को कोई बडा विचार नहीं दे पाया.
मैंने ऊपर निवेदन किया है कि कोई समाज सभ्य है या नहीं इसे जांचने के लिये हमें यह देखना चाहिये कि वह अपने बीच के कमजोर लोगों के लिये कितना स्पेस छोडता है .वर्ण व्यवस्था का जिक्र मैंने इसलिये किया है कि यह हमारी पूरी जीवन पद्धति को संचालित करती है .समुदाय के एक सदस्य का दूसरे से कैसा रिश्ता हो ,खान पान और कपडे क़ैसे हों ,उठने बैठने , विवाह , उत्तराधिकार , रोजगार - गरज यह कि जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसका संचालन वर्णव्यवस्था द्वारा बनाये गये नियम न करतें हों . इसलिये अगर यह तय करना है कि सनातनी हिन्दू जीवन दृष्टि सभ्य समाज का निर्माण करती है या नहीं तो हमें यह जांचना होगा कि इसे संचालित करने वाली संस्था वर्ण व्यवस्था हाशिये पर पहुंचे लोगों के साथ कैसा व्यवहर करती है ? इस कसौटी पर कसने पर सनातनी हिन्दू समाज का प्रदर्शन बहुत निराशाजनक दिखायी देता है.दुर्बल के प्रति यह बहुत क्रूर है . दुर्बलता किसी भी तरह की हो सकती है - जाति की दुर्बलता तो सबसे भयानक है .शूद्र के घर पैदा हुआ तो मनुष्य भी नहीं है, इससे इतर भी अगर कोई शारीरिक रूप से विकलांग है , आर्थिक रूप से दरिद्र है या फिर स्त्री -सबके लिये इस समाज में भयानक घृणा है .यह घृणा पूरे व्यवहार में परिलक्षित होती है .भाषा -जो हमारे दबे हुये मनोभावों को भी बखूबी अभिव्यक्त करती है , इन सबसे हर कदम पर नफरत करती दिखती है.
देश के जिन भागों पर वर्ण व्यवस्था की जकडन जितनी मजबूत थी उनकी भाषा उतनी ही अधिक क्रूर और दुर्बल विरोधी है.हिब्दी का उदाहरण लें तो स्थिति स्पष्ट हो जायेगी .दलितों और स्त्री को लेकर तमाम गालियां हैं .चमार स्वाभाविक रूप से चोर है इसलिये चोरी चमारी है .भाषा के बडे क़वि तुलसी दास कह ही गयें हैं कि ढोल गंवार शूद्र पशु नारी , सकल ताडना के अधिकारी. भाषा सामाजिक संरचना की तरह ही बहुस्तरीय है .जिस तरह समाज में जातियों के बैठने का आसन उनके वर्ण के अनुसार निर्धारित है उसी तरह आसन ग्रहण करने के लिये बैठ , बैठो या बैठिये शब्द भाषा में हैं जो व्यक्ति की सामाजिक या आर्थिक हैसियत के मुताबिक इस्तेमाल किये जातें हैं .मुझे नहीं लगता कि दुनियां की किसी भी भाषा में त्रिस्तरीय सम्बोधन उपलब्ध हैं .आप, तुम और तू सिर्फ सम्बोधन नहीं है बल्कि सम्बोधित को उसकी औकात का अहसास कराने वाले दंश भी हैं.
भाषा में निहित यह तिरस्कार सिर्फ वर्ण या लिंग पर आधारित कमजोर के लिये ही नहीं है .शारीरिक अथवा मानसिक रूप से विकलांग बार-बार इस भाषिक कोडे से पीटे जातें रहें हैं . अंधे, काने , लूले, लंगडे , क़ोढी या कूुबडे क़े लिये हमारी भाषा में भयानक घृणा भरी है. भाषा की घृणा समाज के अंदर मौजूद घृणा का प्रतिबिम्ब है .हमारा समाज इन अक्षम लोगों से कैसा व्यवहार करता है यह उसमें प्रचलित लोकाोक्तियों और समाज के सक्षम सदस्यों द्वारा उनके साथ किये जाने वाले व्यवहार से स्पष्ट है .शारीरिक विकलांगता सहानुभूति का विषय न होकर मजाक उडाने या तिरस्कृत करने का माध्यम है.मांगलिक कार्यक्रमों में इनकी उपस्थिति अशुभ मानी जाती है. यह दृश्य बहुत आम है जब आप किसी विवाह के अवसर पर काने या कोढी क़ो दुरदुराकर भगाये जाते देख सकतें हैं.बच्चों के परीक्षा देने के लिये घर से निकलने पर अगर कोई शारीरिक विकलांग सामने पड ज़ाय तो बच्चे को वापस बुला कर अशुभ टाला जाता है. इसी तरह किसी पागल पर पत्थर बरसाते बच्चे दिखायी दें या उसे घेर कर उसका मजाक उडाते हुये लोग दिखें तो हमें बहुत आश्चर्य नहीं करना चाहिये क्यों कि वर्णाश्रम धर्म पर आधारित जीवन मूल्य हमें सिर्फ कमजोर से घृणा करना ही सिखा सकतें हैं उनसे सहानुभूति करने या उनकी सेवा करने का जज्बा नहीं पैदा कर सकते .
अपने बीच के कमजोरों के प्रति हम कैसा व्यवहार करतें हैं इसका सबसे बडा उदाहरण सडक़ों पर चलने वाला ट्रैफिक है. जो जितना ताकतवर है सडक़ पर उसका उतना ही ज्यादा अधिकार है. ट्रक वाला सबको रगेदता हुआ जा सकता है , कार वाला उससे तो डरता है पर दो पहिया वाहन या पैदल चलने वालों के लिये उसके मन में कोई दया नहीं है .पश्चिमी समाज को हम हमेशा यांत्रिक और मानवीय मूल्यों से (अपने मुकाबले )वंचित समाज मानतें हैं .पर वहां एक ऐसा दृश्य दिखायी देता है जो हमारी सडक़ों पर कभी नहीं दिखेगा. चौराहों पर यातायात के सिग्नल वाले खंभों पर बटन लगे हैं जिनका इस्तेमाल पैदल चलने वाले करतें हैं .अगर आप को सडक़ पार करनी है तो आप बटन दबा दें और चारों तरफ से आने वाली गाडियां रूक जायेंगीं , आप सडक़ पार कर लें और फिर यातायात चालू हो जायेगा. हम जैसे हिन्दुस्तानियों से यह गलती हो सकती है कि हम ट्रैफिक लाइट को नजरअंदाज कर खतरनाक तरीके से सडक़ पार करने की कोशिश करें पर वाहन चालक हमें सडक़ पर उतरते देखकर फौरन अपना वाहन रोक देंगे और हमें पहले सडक़ पार करने का इशारा करेंगे .मैं कई बार ऐसे अनुभवों से गुजरा हूं जब भारत में या तो कोई वाहन वाला मुझे कुचल डालता या फिर अंधा या उल्लू जैसे सम्बोधनों से नवाजता.इसी तरह एक और दृश्य मुझे यात्राओं में चकित करता रहा है .ट्रेनों या बसों में किसी अंधे , बूढे या महिला के प्रवेश करते ही लोग आदतन खडे हो जातें हैं और उसके लिये जगह खाली कर देतें हैं .हमारे इस महान जगद्गुरू देश में तो इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती .
मैं कई बार सोचता हूं कि पश्चिम, जिसने लोगों को गुलाम बनाया, अपने उपनिवेशों में जमकर लूट पाट की और आज भी दुनियां में नवउपनिवेशवादी अधिनायकवाद का परचम लहरा रहा है ; वियतनाम, लैटिन अमेरिका या इराक जिसकी ज्यादतियों के शिकाार रहें हैं , वह कैसे अपने समाज में कमजोरों के लिये इतना स्पेस छोडता है ? वाह्य सम्बन्धों में निहायत ही खुदगर्ज और क्रूर समाज क्या अपने आंतरिक व्यवहार में इस कदर उदार हो सकता है ? पर यह है . यह उदारता डंडे के बल पर नहीं आती. इसके लिये एक लंबे अनुशासन की जरूरत होती है .सैकडों वर्षों के जीवन अनुभव इसके पीछे होतें हैं.
कोई भी समाज कई चरणों में आंतरिक सभ्यता हासिल करता है .इनमें सबसे बडी भूमिका किताबों की होती है .इनसे प्रभावित होने वाले लोग इनमें से कुछ को आसमानी मानतें हैं. अर्थात् ये दैवीय हैं और इसलिये अपरिवर्तनीय. आंतरिक सभ्यता के सोपान वही समाज तेजी से चढता है जो इन आसमानी किताबों की दुनियावी जानकारियों और जरूरतों के मुताबिक नये भाष्य करता रहता है .पश्चिम का ईसाई समाज इस मामले में दूसरों से आगे रहा है . क्रुसेड और चर्च के आधिपात्य वाले मध्ययुग में ही इसने बहुत सी स्वीकृत स्थापनाओं को चुनौतियां देनी शुरू कर दीं थीं. चर्च के कमजोर पडते जाने और पश्चिम के विशाल ईसाई समाज की आंतरिक उदारता की यात्रा साथ साथ चली है और यह कहना ज्यादा उचित होगा कि दोनो ने एक दूसरे की मदद ही की है.गुलामी और रंगभेद जैसी दो घृणित संस्थाओं से इस समाज ने आंतरिक उदारता की इसी जध्दोजहद के चलते छुटकारा पाया है.
भारतीय समाज को आंतरिक सभ्यता हासिल करने के लिये वर्णव्यवस्था से छुटकारा पाना बेहद जरूरी है .यह भी एक दिलचस्प अध्ययन का विषय हो सकता है कि हम इस गन्दी संस्था से निजात क्यों नहीं हासिल कर सके ? हमारे लिये तो यह दूसरे धर्मावलम्बी समाजों के मुकाबले ज्यादा आसान होना चाहिये था.हमारी कोई किताब उस अर्थ में दैवीय नहीं है जिस अर्थ में दूसरे धर्मों की किताबें हैं.वेदों को भी बहुत बाद में अपौरूषेय कहा गया .कम से कम वर्ण व्यवस्था को एक विधान के रूप में स्थापित करने वाली मनुस्मृति या लोक में स्वीकृत कराने वाली रामचरित मानस जैसी पुस्तकों को तो कोई भी दैवीय नहीं कहता .यदि कोई पुस्तक आसमान से नहीं उतरी है तो वह अपरिवर्तनीय भी नहीं होगी .काल की आवश्यकताओं के अनुसार उसमें संशोधन या उसके भाष्य हो सकतें हैं .फिर क्यों नहीं हमारे अन्दर स्वयं ऐसी इच्छा शक्ति पैदा हुयी कि हम इसी गंदी व्यवस्था को खुद ही उखाड फ़ेंकते ? हमने हमेशा इसके खिलाफ जाने वाले विचार को कुचलने का प्रयास किया. गौतम बुद्ध ने मनुष्यों के समानता की बात की पर ब्राह्यण हृन्हें लील गये .इस्लाम ने समानता पर आधारित जाति विहीन समाज का दर्शन सामने रखा.आपसी मारकाट में फंसे भारतीय समाज के लिये यह तो संभव नहीं हुआ कि वह उन्हें हजम कर ले पर ब्राह्यणों ने उनसे तर्क करने से ही इन्कार कर दिया . कमजोर दार्शनिक भावभूमि पर खडे वर्णाश्रम समर्थकों को उनसे वैचारिक मुठभेड क़रने से आसान यह लगा कि उन्हें म्लेच्छ घोषित कर उनसे किसी तरह का संवाद से ही बचा जाय. फ्रांसीसी , पुर्तगालियों या अंग्रेज शासकों के आते आते यह स्थिति हो गयी कि संवाद से बचा नहीं जा सकता था और एक बार जब विरोधी दर्शन से मुठभेड शुरू हुयी तब यह कोई आश्चर्य नहीं था कि जन्माधारित श्रेष्ठता का मूर्खतापूर्ण दर्शन कुछ ही दशकों में भहराकर ढह गया.एक बार शिक्षा को सार्वजनीन किया गया तो संस्कृति की शूद्र व्याख्या हमारे सामने आयी और उसने ब्राह्यण वर्चस्ववादिता को चुनौती देना शुरू कर दिया.
आज स्थिति यह है कि शूद्र व्याख्या ने ब्राह्यण वर्चस्व को कमजोर तो किया है पर पूरी तरह से समाप्त नहीं कर पायी है. कई हजार वर्षों की जीने की आदत इतनी जल्दी खत्म भी नहीं होगी .ब्राह्यण विकृतियां इतनी गहरे पैठीं हुयीं हैं कि वह शासक शूद्रों के मन में ब्राह्यण बनने की ललक पैदा कर देती है.वह भी उन्हीं कर्मकाण्डों में लिप्त हो जाता है जिनमें ब्राह्यण लिप्त रहा है .साफ है कि अगर हम एक सभ्य समाज बनना चाहतें हैं तो हमें वर्णाश्रम धर्म को नष्ट करना पडेग़ा .बिना जातियों पर आधारित श्रेष्ठता के सिद्धान्त को नष्ट किये हम सभ्य नहीं हो सकते .

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