Sunday 23 June 2013

किताबों के नए सुपर स्टॉर डैन ब्राउन की 'इंफर्नो'


शिवप्रसाद जोशी/अनवर जे अशरफ

इटली के मिलान शहर की सबसे बड़ी प्रकाशन कंपनी मोंडाडोरी (मालिक नेता और उद्योगपति सिल्वियो बैर्लुस्कोनी) की अत्यंत भव्य इमारत के अति सुरक्षित बेसमेंट में 11 लोग बैठे. फरवरी 2013 की किसी तारीख से. सुबहो-शाम. कड़ी निगरानी में कुछ लिखते, पन्ने पलटते और चौकन्ने होकर टहलते हुए. शाम होती तो पास के एक होटल पहुंचा दिए जाते. अपने अपने कमरों तक. अभेद्य निगरानी के बीच. अप्रैल में जब ये ड्रामा खत्म हुआ तो पता चला कि मशहूर लेखक डैन ब्राउन की नई किताब इंफर्नो का 11 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है और 14 मई को मूल अंग्रेजी के अलावा समांतर तौर पर उन 11 भाषाओं में भी किताब रिलीज की जाएगी. वही हुआ. प्रकाशक और लेखक की सनक कह लीजिए या बाजार का वितंडा लेकिन यही सच है. खबरों के मुताबिक लगभग जेल जैसे हाइली कंट्रोल्ड माहौल में इस किताब का अनुवाद हुआ कि कहीं कोई एक अक्षर लीक न हो जाए. इस तरह एक बहुत नाटकीय और खुफिया और सामरिक से अंदाज में इंफर्नो सामने आ जाती है. अमेजन की सेल्स सूची में नंबर एक, बार्न्स और नोबेल की वेबसाइट पर नंबर एक, ईटोन्स में ऑडियो किताब नंबर एक. यानी अंग्रेजी उपन्यासों की दुनिया के नए सम्राट डैन ब्राउन को अपनी ताजा किताब का वैसा ही स्वागत मिला जैसा कि वो और उनके प्रकाशक चाहते थे. सोशल नेटवर्किंग दुनिया में तो तहलका मचा ही. ब्राउन के उपन्यास भले ही कितने घुमावदार, संकेतों और पहेली भरे हों, बाजार के गणित में वे फिट बैठते हैं. खुद को विज्ञान और विश्वास का सिपाही कहने वाले ब्राउन ने दांते की प्रसिद्ध कृति इंफर्नो से नरक की अवधारणा के सूत्र लिए हैं और जाहिर है किताब का टाइटिल भी. उनकी किताबों का बाजार मीडिया की कल्चरल स्टडीज के लिए रोचक बिंदु है. ब्राउन 90 के उसी दौर में प्रकट हुए जब भूमंडलीकरण की आंधी तीसरी दुनिया के विचार तंबुओं को उखाड़ने निकली ही थी और नए तंबू लगाए जा रहे थे. उपनिवेश की स्थापना के लिए सेना और शस्त्र की जरूरत नहीं रह गई थी. ये काम सांस्कृतिक उत्पादों के हवाले किया जा चुका था. किताबें ऐसा ही एक औजार थीं, ऐसी किताबें जो बाजार की शर्तों पर आती थीं और बिकती थीं और जिसके पूरी दुनिया में करोड़ों उपभोक्ता बन सकते थे. वे अब पाठक नहीं कहलाते थे.
ब्राउन इसी पाठक उपभोक्ता के लेखक बने और जमे हुए हैं. तेजी से एक बड़ी लेखक बिरादरी सामने आई है जो उपभोक्ताओं को रास आ रही है और ये ग्लोब्लाइजेशन के बाद ग्लोक्लाइजेशन के चरण को पूरा करने वाले लेखक हैं. मिसाल के लिए यहां हम भारत के नए लेखक अमीश त्रिपाठी का नाम ले सकते हैं. अमीश ने मिथकीय आख्यानों का सहारा लिया है, बड़ी ही पेशेवर चतुराई के साथ उन्होंने शिव को बाजार संदर्भों में ढाल दिया है. वे रिक रायोरडैन की एक कमजोर भारतीय नकल माने जा सकते हैं जिन्होंने अपने उपन्यासों में यूनानी मिथकों और देवताओं का इस्तेमाल किया है. करन जौहर जैसे बंबइया फिल्मों के चहकते फुदकते निर्माता निर्देशक ने अपने हिसाब से ठीक ही अमीश की शिव त्रयी को बॉलीवुड की लॉर्ड ऑफ द रिंग्स कह दिया है.
लेकिन लेखन और एक्शन मसाला सिनेमा के गठजोड़ के नए अलंबरदार तो डैन ब्राउन ही हैं. उनका लिखा दा विंची कोड उपन्यास अब एक सफल हॉलीवुड फिल्म है. और भी फिल्में हैं. और अब जल्द ही ब्राउन का पहेली बुझाऊ कुशाग्र प्रोफेसर इंफर्नो से निकलकर पर्दे पर आ जाएगा. इस तरह किताब का बाजार फिल्म के बाजार का न सिर्फ बैकग्राउंड बनेगा, बल्कि उसके लिए जरूरी संसाधन और जरूरतें और मांग भी उपलब्ध कराएगा. आज के दौर की यही कनेक्टिविटी है. जहां सब गोल गोल घूम रहे हैं. लेखक, उसकी किताब, उसके प्लॉट, उसका हीरो, फिल्म और उसका बाजार. दिलचस्प बात ये है कि एक तरफ ये पॉप्युलर राइटिंग है तो दूसरी ओर वो गंभीर लेखन भी है जो दुनिया भर के प्रतिष्ठित साहित्यिक पुरस्कारों में आता जाता है और नोबेल में जाकर अंततः जिसका बेड़ा पार होता है. ये कला भी बाजार की ही है कि नोबेल मिलने तक चीनी लेखक मो यान को जानने वाले बिरले ही थे लेकिन नोबेल मिलते ही मो यान हीरो बन गए और उनकी किताबों के अंग्रेजी अनुवाद धड़ाधड़ बिकने लगे. हम सब जानते हैं कि ब्राउन नोबेल पुरस्कार हासिल कर सकने वाले लेखकों की सूची में दूर दूर तक नहीं होंगे लेकिन रिकॉर्ड बिक्री और अपार मुनाफा कमाने वालों की दौड़ में वो इन दिनों अव्वल लेखकों की जमात में आते हैं. यानी बाजार अपने हिसाब से चलता है. जज भी वही है, मुंसिफ भी वही. वही सौंपता है और वही छीन लेता है. बाज दफा वो दोनों भूमिकाओं में एक साथ मौजूद रहता है. अंत में सारे लेखकीय करिश्मे धूल बनकर उसी में समा जाते हैं. असल में आप अगर ब्राउन की किताबों के जटिल संकेतों को एक एक कर फाश कर भी लें तो भी जहां ये किताब विराजमान है, यानी कि बाजार, उसकी पहेली को बूझना आसान नहीं. वहां किसी का सिक्का चलता है तो खूब चलता है और जब नहीं चलता तो उसे ऐसे भुला दिया जाता है जैसे वो कभी रहा ही न हो. वहां उगते सूरज को तो नमस्कार है ही, डूबते सूरज का भी खूब नमस्कार है, बशर्ते वो डूबता बाजार में हो. हैरी पॉटर और उनकी जन्मदाता जेके रोलिंग चंद साल पहले तक कैसी आंधियां उड़ा रहे थे. ट्वाइलाइट और उसके रक्तपिपासु नायक नायिका को ही लीजिए. अब उनका झुटपुटा वक्त आ गया है क्योंकि बाजार इन दिनों इंफर्नो की चपेट में है. इंफर्नो के मायने हैं एक नरक, एक नारकीय यातना या एक अत्यन्त भीषण आग. कुछ कुछ ब्राउन के अंदाज में, पिछली लाइन में आई संज्ञाओं की जगह अगर आप "बाजार" रख कर देखें तो पूरा चक्कर समझ सकते हैं.  

'ईश्वर भी परेशान है'


'ईश्वर भी परेशान है' जाने-माने रचनाकार विष्णु नागर के व्यंग्य लेखों का संकलन है। विष्णु नागर व्यंग्य को महज मन में गुदगुदी पैदा करने का माध्यम भर नहीं रहने देना चाहते हैं। उनकी मंशा पाठकों के भीतर उन मुद्दों को लेकर कुछ बेचैनी छोड़ जाना भी है। इसके अलावा कुछ और किताबें ज्योति कुमारी की दस्तखत और अन्य कहानियां, अलेक्शेन्दा वीनस बख्शी की आरंभ की ग्यारह कहानियां, तरुण इंजीनियर की दौलत की तिजोरी गुप्तिसागर की थ्योरी आदि भी चर्चाओं में हैं। इटैलियन उपन्यास, 'पिनोकियो' एक जमाने में बेहद मशहूर हुआ था। वरिष्ठ लेखक-अनुवादक दोणवीर कोहली के अनुवाद में अब इसका सरस हिंदी अनुवाद आया है। प्राचीन लोकथाओं की शैली में लिखे गए इस उपन्यास को एक अंतहीन गप्प भी कहा जा सकता है। कुछ उस किस्म का गप्प, जो बड़े बच्चों को बहलाने के लिए करते हैं, लेकिन जिनसे एक के बाद एक कई कथा-सूत्र निकलते जाते हैं। इस लिहाज से इस उपन्यास बच्चे और बड़े एक साथ चाव से पढ़ सकते हैं।

डीयू के छात्रों को ऑनलाइन किताबें


दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के छात्रों को अब विदेशी प्रकाशकों की महंगी किताबें नहीं खरीदनी पड़ेंगी। छात्रों को विदेशी किताबें मुफ्त मुहैया कराने के लिए डीयू प्रशासन विभिन्न विदेशी विश्वविद्यालयों से संपर्क साध रहा है। किताबें या इनके कुछ प्रमुख अध्याय ई-बुक्स के रूप में मुहैया कराई जाएंगी। डीयू के इस कदम से खासतौर से मध्यवर्ग और आर्थिक रूप से पिछड़े छात्रों को फायदा होगा। जुलाई से शुरू होने वाले चार वर्षीय नए पाठय़क्रम के मद्देनजर डीयू प्रशासन इस योजना पर काम कर रहा है। डीयू द्वारा विदेशी किताबें या इनके चुनिंदा महत्वपूर्ण अध्याय मुहैया कराने के कदम को छात्रों को लैपटॉप देने से भी जोड़ कर देखा जा रहा है। विश्वविद्यालय छात्रों को तकनीकी रूप से दक्ष करने के साथ नोट्स पर उनकी निर्भरता घटाने के लिए यह कदम उठा रहा है। छात्रों को इसका फायदा अतिशीघ्र मिले, इसके लिए विभिन्न विषयों को ई-बुक्स के रूप में उपलब्ध कराने के लिए अलग-अलग विदेशी विश्वविद्यालयों संपर्क किया जा रहा है। 

कानून की किताबें उर्दू में 'ताजिरात-ए-हिंद'


भारत में पहली बार अपराध-रोधी कानून की प्रमुख किताबें अब उर्दू में भी उपलब्ध होंगी, साथ ही एक कानूनी शब्दकोश भी उर्दू में तैयार किया गया है। प्रमुख अनुवादक मुहम्मद इरशाद हनीफ का कहना है कि भारतीय दंड संहिता, 1860 का 'ताजिरात-ए-हिंद' शीर्षक से तथा भारतीय साक्ष्य विधान, 1872 का 'कानून शहादत-ए-हिंद' शीर्षक से उर्दू में फारसी व देवनागरी, दोनों लिपियों में सटीक अनुवाद किया गया है। दिल्ली स्थित एक प्रकाशन कंपनी दोनों कानूनी किताबों का अनूदित संस्करण लेकर आई है। प्रकाशन ने 52,000 कानून की पारिभाषिक शब्दावली वाला व्यापक शब्दकोश भी तैयार किया है जिसे प्रकाशन कंपनी देश का अपनी तरह का पहला शब्दकोश कहकर प्रचारित कर रही है। हनीफ का कहना है कि "शब्दकोश की भूमिका भारत के प्रधान न्यायाधीश अल्तमस कबीर ने लिखी है। शब्दकोश के केंद्र में हालांकि भारतीय कानून प्रणाली ही है, बावजूद इसके यह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी बेहद उपयोगी है।" 

पहले समाजशास्त्री इब्न खल्दून की किताब 'मुक़द्दीमा'


समाजशास्त्रीय तर्क 'समाजशास्त्र' शब्द की उत्पत्ति की तिथि उचित समय से पूर्व की बताते हैं. आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक प्रणालियों सहित समाजशास्त्र की उत्पत्ति, पश्चिमी ज्ञान और दर्शन के संयुक्त भण्डार में आद्य-समाजशास्त्रीय है. प्लेटो के समय से ही सामाजिक विश्लेषण किया जाना शुरू हो गया. यह कहा जा सकता है कि पहला समाजशास्त्री 14वीं सदी का उत्तर अफ्रीकी अरब विद्वान इब्न खल्दून था, जिसकी 'मुक़द्दीमा', सामाजिक एकता और सामाजिक संघर्ष के सामाजिक-वैज्ञानिक सिद्धांतों को आगे लाने वाली पहली कृति थी।  आर्थिक समाजशास्त्र, आर्थिक दृश्य प्रपंच का समाजशास्त्रीय विश्लेषण है; समाज में आर्थिक संरचनाओं तथा संस्थाओं की भूमिका, तथा आर्थिक संरचनाओं और संस्थाओं के स्वरूप पर समाज का प्रभाव.पूंजीवाद और आधुनिकता के बीच संबंध एक प्रमुख मुद्दा है. 'कैपिटल' में कार्ल मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद ने यह दर्शाने की कोशिश की कि किस प्रकार आर्थिक बलों का समाज के ढांचे पर मौलिक प्रभाव है. मैक्स वेबर ने भी, हालांकि कुछ कम निर्धारक तौर पर, सामाजिक समझ के लिए आर्थिक प्रक्रियाओँ को महत्वपूर्ण माना.जॉर्ज सिमेल, विशेष रूप से अपने फ़िलासफ़ी ऑफ़ मनी में, आर्थिक समाजशास्त्र के प्रारंभिक विकास में महत्वपूर्ण रहे, जिस प्रकार एमिले दर्खिम अपनी द डिवीज़न ऑफ़ लेबर इन सोसाइटी जैसी रचनाओं से.आर्थिक समाजशास्त्र अक्सर सामाजिक-आर्थिकी का पर्याय होता है. तथापि, कई मामलों में, सामाजिक-अर्थशास्त्री, विशिष्ट आर्थिक परिवर्तनों के सामाजिक प्रभाव पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, जैसे कि फैक्ट्री का बंद होना, बाज़ार में हेराफेरी, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार संधियों पर हस्ताक्षर, नए प्राकृतिक गैस विनियमन इत्यादि.

सबसे बड़ी विश्वविद्यालय प्रेस 'ऑक्सफोर्ड' के सौ साल की कहानी


ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस (ओयूपी ) ने पिछले सौ सालों में बच्चों की पुस्तकों, स्कूल की पाठ्य पुस्तकों, संगीत, पत्रिकाओं, वर्ल्ड्स क्लासिक्स सीरीज और सबसे ज्यादा बिकने वाली अंग्रेजी भाषा शिक्षण पाठ्य पुस्तकों का प्रकाशन किया है. अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कदम रखने के फलस्वरूप 1896 में न्यूयॉर्क से शुरुआत करने वाली इस प्रेस ने यूनाइटेड किंगडम के बाहर भी अपना कार्यालय खोलना शुरू कर दिया. कंप्यूटर प्रौद्योगिकी के आगमन और उत्तरोत्तर बढ़ती व्यापारिक दशाओं की वजह से 1989 में ऑक्सफोर्ड में स्थित प्रेस के छापेखाने को बंद कर दिया गया और वोल्वरकोट में स्थित उसकी पूर्व कागज़ की मिल को 2004 में ध्वस्त कर दिया गया. अपनी छपाई और जिल्दसाजी कार्य का ठेका देकर आधुनिक प्रेस हर साल दुनिया भर में लगभग 6000 नए शीर्षकों का प्रकाशन करता है और दुनिया भर में इसके कर्मचारियों की संख्या लगभग 4000 है. एक धर्मार्थ संगठन के हिस्से के रूप में ओयूपी अपने मूल विश्वविद्यालय को अधिक से अधिक वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए और इसके अलावा अपनी प्रकाशन गतिविधियों के माध्यम से छात्रवृत्ति, अनुसन्धान और शिक्षा में बेहतरीन प्रदर्शन करने में विश्वविद्यालय के लक्ष्यों को पूरा करने में उसकी सहायता करने के लिए प्रतिबद्ध है.
ओयूपी को सबसे पहले 1972 में यूएस कॉर्पोरेशन टैक्स से और उसके बाद 1978 में यूके कॉर्पोरेशन टैक्स से मुक्त किया गया. एक धर्मार्थ संगठन का एक विभाग होने के नाते ओयूपी को अधिकांश देशों में आयकर और निगम कर से मुक्त कर दिया गया है लेकिन इसे अपने उत्पादों पर बिक्री और अन्य वाणिज्यिक करों का भुगतान करना पड़ता है. प्रति वर्ष कम से कम 12 मिलियन पाउंड का हस्तांतरण करने की वचनबद्धता के साथ यह प्रेस वर्तमान में विश्वविद्यालय के शेष हिस्सों को अपने वार्षिक अधिशेष का 30% हस्तांतरित करता है. प्रकाशन की संख्या की दृष्टि से ओयूपी दुनिया का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय प्रेस है जो हर साल 4500 से अधिक नई पुस्तकों का प्रकाशन करता है और जहां लगभग 4000 लोग काम करते हैं. ओयूपी ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी , कंसाइस ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी , ऑक्सफोर्ड वर्ल्ड्स क्लासिक्स, ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ऑफ नेशनल बायोग्राफी और कंसाइस डिक्शनरी ऑफ नेशनल बायोग्राफी सहित कई सन्दर्भ, पेशेवर और शैक्षणिक रचनाओं का प्रकाशन करता है. इसके कई सबसे महत्वपूर्ण शीर्षक अब "ऑक्सफोर्ड रेफरेंस ऑनलाइन" नामक एक पैकेज के रूप में इंटरनेट पर उपलब्ध है और इन्हें यूके की कई सार्वजनिक पुस्तकालयों के पाठक कार्ड धारकों को मुफ्त में प्रदान किया जाता है.
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से जुड़ा पहला प्रिंटर थियोडेरिक रूड था. विलियम काक्सटन के एक व्यवसायिक सहयोगी रूड संभवतः एक नए उद्यम के रूप में अपनी लकड़ी की प्रिंटिंग प्रेस को कोलोन से ऑक्सफोर्ड लेकर आये थे, और लगभग 1480 और 1483 के बीच शहर में काम किया था. 1478 में ऑक्सफोर्ड में छापी गई पहली पुस्तक, रुफिनस के एक्स्पोजिशियो इन सिम्बोलम एपोस्टोलोरम के एक संस्करण को एक अन्य बेनाम प्रिंटर द्वारा छापा गया था. यह बात सब को मालूम है कि इसे रोमन अंकों में गलती से "1468" के रूप में दिनांकित किया गया था जो जाहिर तौर पर काक्सटन से पहले का समय है. रूड की छपाई में जॉन एंकिविल का कम्पेंडियम टोटियस ग्रामाटिका शामिल था जिसने लैटिन व्याकरण की पढ़ाई के लिए नए मानक स्थापित किए.
रूड के बाद विश्वविद्यालय से जुड़ी छपाई लगभग आधी सदी तक छिटपुट रूप में होती रही. रिकॉर्ड या जीवंत कार्य बस कुछ गिने-चुने रूपों में हैं और ऑक्सफोर्ड की छपाई को 1580 के दशक तक कोई मजबूत आधार नहीं मिला था: इसने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रयासों का अनुसरण किया जिसने 1534 में अपने प्रेस का लाइसेंस प्राप्त किया था. क्राउन (राजा) और स्टेशनर्स कंपनी द्वारा लन्दन के बाहर छपाई करने पर लगाई गई बाध्यताओं के प्रतिक्रियास्वरुप ऑक्सफोर्ड ने विश्वविद्यालय में प्रेस चलाने का औपचारिक अधिकार प्राप्त करने के लिए एलिजाबेथ प्रथम से याचना की. चांसलर रॉबर्ट डूडले, अर्ल ऑफ लीसेस्टर ने ऑक्सफोर्ड के मामले की वकालत की. प्रिंटर जोसेफ बार्न्स द्वारा काम शुरू करने के बाद से कुछ शाही अनुमति प्राप्त की गई और स्टार चैंबर के हुक्मनामे में 1586 में "यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड" में प्रेस के कानूनी वजूद का उल्लेख किया गया.
ऑक्सफोर्ड के चांसलर आर्कबिशप विलियम लॉड ने 1630 के दशक में विश्वविद्यालय की छपाई की कानूनी स्थिति को समेकित किया. लॉड ने एक विश्वस्तरीय एकीकृत प्रेस की परिकल्पना की. ऑक्सफोर्ड इसे विश्वविद्यालय की संपत्ति पर स्थापित करेगा, इसकी कार्यवाहियों को नियंत्रित करेगा, इसके कर्मचारियों की नियुक्ति करेगा, इसके छपाई कार्य का निर्धारण करेगा, और इससे प्राप्त होने वाली राशि का लाभ उठाएगा. इस मकसद से उन्होंने चार्ल्स प्रथम से उन अधिकारों की याचना की जिसकी सहायता से ऑक्सफोर्ड स्टेशनर्स कंपनी और किंग्स प्रिंटर से प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम होगा और इसकी सहायता के लिए शाही अनुदान का एक उत्तराधिकार प्राप्त किया. इन सबकों 1636 में ऑक्सफोर्ड के "ग्रेट चार्टर" में शामिल किया गया जिसके तहत विश्वविद्यालय को "हर तरह की किताबें" छापने का अधिकार दिया गया. लॉड ने क्राउन से ऑक्सफोर्ड में स्क्रिप्चर के किंग जेम्स या प्राधिकृत संस्करण को छापने का "विशेषाधिकार" भी प्राप्त किया.[8] इस "विशेषाधिकार" से अगले 250 सालों में काफी प्रतिफल प्राप्त हुआ हालांकि शुरू में यह प्रसुप्तावस्था में था. स्टेशनर्स कंपनी इसके व्यापार के खतरे से बहुत चिंतित थी और ऑक्सफोर्ड के साथ एक "सहनशीलता नियम" स्थापित करने में इसका कुछ समय बर्बाद चला गया. इसके तहत स्टेशनर्स ने विश्वविद्यालय को अपने सम्पूर्ण मुद्रण अधिकारों का इस्तेमाल न करने के लिए एक वार्षिक किराए का भुगतान किया - ऑक्सफोर्ड ने उन पैसों का इस्तेमाल छोटे प्रयोजनों के लिए
लॉड ने प्रेस के आतंरिक संगठन का भी विकास किया. प्रतिनिधि प्रणाली की स्थापना करने के अलावा उन्होंने "आर्कीटाइपोग्राफस" नामक एक व्यापक और विस्तृत पर्यवेक्षी पद का भी निर्माण किया: इस शिक्षाविद पर छापेखाने के प्रबंधन से लेकर प्रूफरीडिंग (त्रुटि-सुधार) तक व्यवसाय से संबंधित प्रत्येक कार्य की देखरेख करने की जिम्मेदारी थी. यह पद काफी हद तक एक व्यावहारिक वास्तविकता के बजाय एक आदर्श था लेकिन अठारहवीं सदी तक शिथिल संरचित प्रेस में इसका वजूद (काफी हद तक एक आराम की नौकरी के रूप में) कायम रहा. व्यावहारिक दृष्टि से ऑक्सफोर्ड का वेयरहाउस-कीपर ही बिक्री, लेखांकन और छापेखाने के कर्मचारियों को काम पर रखने और उन्हें काम पर से निकालने का काम करता था.
हालांकि लॉड की योजनाओं ने व्यक्तिगत और राजनीतिक दोनों तरह की भयानक बाधाओं पर गहरी चोट की थी. राजनीतिक साजिश में बेईमानी की वजह से 1645 में उन्हें मार डाला गया जिस समय तक अग्रेज़ी गृहयुद्ध छिड़ चुका था. संघर्ष के दौरान ऑक्सफोर्ड राजभक्तों का एक गढ़ बन गया और शहर के कई प्रिंटरों ने राजनीतिक प्रचार या उपदेश पुस्तिकाओं के निर्माण पर ध्यान देना शुरू कर दिया. इस दौरान कुछ उत्कृष्ट गणितीय और प्राच्य विद्या विशारद रचनाएं सामने आई जिनमें हिब्रू के रेजिउस प्रोफ़ेसर एडवर्ड पोकोक द्वारा सम्पादित पुस्तकें उल्लेखनीय हैं लेकिन 1660 में राजशाही की बहाली से पहले लॉड के मॉडल वाला एक भी विश्वविद्यालय प्रेस संभव नहीं था.
अंत में इसे वाइस-चांसलर जॉन फेल, क्राइस्ट चर्च के अध्यक्ष (डीन), ऑक्सफोर्ड के बिशप और प्रतिनिधि सचिव (सेक्रेटरी टू द डेलीगेट्स) द्वारा स्थापित किया गया. फेल लॉड को एक शहीद मानते थे और उन्होंने प्रेस से जुड़े उनके सपने को सम्मान देने का निश्चय किया. ग्रेट चार्टर के प्रावधानों का इस्तेमाल करके फेल ने ऑक्सफोर्ड को स्टेशनर्स से अब और भुगतान लेने से इनकार कर देने के लिए राजी किया और विश्वविद्यालय के सभी प्रिंटरों की कार्यप्रणाली को परिसरों के एक समूह में स्थापित कर दिया. इस व्यवसाय को नए शेल्डोनियन थिएटर के तहखानों में स्थापित किया गया जहां फेल ने 1668 में प्रिंटिंग प्रेसन को अधिष्ठापित किया और इसे विश्वविद्यालय का पहला केन्द्रीय छापाखाना बनाया. जब फेल ने हॉलैंड से टाइपोग्राफिकल पंचों और मैट्रिसों एक बड़े स्टॉक पर कब्ज़ा किया तब यहां एक टाइप फाउंड्री (ढलाईखाना) जोड़ दिया गया जिसका नाम "फेल टाइप्स" पड़ा. उन्होंने प्रेस के लिए ऑक्सफोर्ड में काम करने के लिए दो डच टाइपफाउंडर हरमन हर्मंज़ और पीटर डी वाल्पर्गेन को भी राजी किया. अंत में स्टेशनर्स की मागों को नकारते हुए फेल ने व्यक्तिगत रूप से ब्रासेनोज के प्रिंसिपल थॉमस येट और जीसस कॉलेज के प्रिंसिपल सर लियोलाइन जेनकिंस के साथ पार्टनरशिप करके 1672 में विश्वविद्यालय के छपाई के अधिकार को पट्टे पर दे दिया.
फेल की योजना महत्वाकांक्षी थी. शैक्षिक और धार्मिक कार्य सम्बन्धी योजनाओं के अलावा 1674 में उन्होंने एक ब्रॉडशीट कैलेण्डर को छापना शुरू किया जिसे ऑक्सफोर्ड अल्मानक के नाम से जाना जाता था. आरंभिक संस्करणों में ऑक्सफोर्ड के प्रतीकात्मक विचारों के दर्शन हुए लेकिन 1766 में इनसे शहर या विश्वविद्यालय के यथार्थवादी अध्ययन का मार्ग प्रशस्त हुआ. अल्मानक को फेल के समय से आज तक बिना किसी रूकावट के लगातार हर साल छापा जाता है.
इस काम की शुरुआत के बाद फेल ने विश्वविद्यालय की छपाई के लिए पहले औपचारिक कार्यक्रम की शुरुआत की. 1675 से इस दस्तावेज ने सैकड़ों रचनाओं की परिकल्पना की जिसमें यूनानी में बाइबल, कॉप्टिक गोस्पेल्स के संस्करण और चर्च फादर्स की रचनाएं, अरबी और सिरियक में पाठ्य पुस्तकें, शास्त्रीय दर्शन के व्यापक संस्करण, कविता, गणित, ढेर सारी मध्ययुगीन छात्रवृत्तियां और "अब तक प्रचलित अन्य किसी भी रचना से अधिक परिपूर्ण कीड़ों का एक इतिहास" भी शामिल है. हालांकि इनमें से कुछ प्रस्तावित शीर्षकों को फेल के जीवनकाल में देखा गया था लेकिन फिर भी बाइबल की छपाई उनके दिमाग में सबसे पहले था. स्क्रिप्चर का सम्पूर्ण भिन्नरूप यूनानी पाठ्य पुस्तक असंभव साबित हुआ लेकिन 1675 में ऑक्सफोर्ड ने फेल के शाब्दिक परिवर्तनों और वर्तनी के साथ आठ पृष्ठों वाले एक किंग जेम्स संस्करण को मुद्रित किया. इस काम से स्टेशनर्स कंपनी के साथ संघर्ष में वृद्धि हो गई. जवाबी कार्रवाई में फेल ने तीन दुष्ट स्टेशनर्स मोसेस पिट, पीटर पार्कर और थॉमस गाई को विश्वविद्यालय के बाइबल को छापने का काम पट्टे पर दे दिया जिनकी तीक्ष्ण वाणिज्यिक प्रवृत्तियां ऑक्सफोर्ड के बाइबल व्यापार को उत्तेजित करने में काफी महत्वपूर्ण साबित हुई. बहरहाल उनकी भागीदारी के फलस्वरूप ऑक्सफोर्ड और स्टेशनर्स के बीच एक लंबी कानूनी लड़ाई शुरू हो गई और यह मुकदमेबाजी फेल के शेष जीवन तक चलती रही. 1686 में उनका देहांत हो गया.
येट और जेनकींस फेल से पहले चल बसे थे जिससे उनकी मौत के बाद छापेखाने की देखरेख के लिए कोई स्पष्ट उत्तराधिकारी नहीं बचा था. नतीजतन उनकी वसीयत के अनुसार ट्रस्ट में भागीदारों का स्टॉक और पट्टा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के लिए छोड़ दिया गया और उन पर एक साथ "मेरे प्रेस की संस्थापक सामग्रियों" का भार डाल दिया गया. फेल के मुख्य ट्रस्टी डेलीगेट हेनरी एल्ड्रिच, डीन ऑफ क्राइस्ट चर्च थे जिन्होंने ऑक्सफोर्ड की किताबों के सजावटी काम में गहरी दिलचस्पी ली. उन्होंने और उनके सहयोगियों ने पार्कर और गाई के पट्टे के अंत और 1691 में एक नए समझौते की अध्यक्षता की जिसके द्वारा स्टेशनर्स ने अपने न बिके हुए अध्ययनशील स्टॉक सहित ऑक्सफोर्ड के सम्पूर्ण मुद्रण विशेषाधिकार को पट्टे पर दे दिया. शेल्डोनियन के कुछ प्रिंटरों के हिंसक विरोध के बावजूद इससे ऑक्सफोर्ड और स्टेशनर्स के बीच का घर्षण समाप्त हो गया और एक स्थिर विश्वविद्यालय मुद्रण व्यवसाय का प्रभावी आरम्भ हुआ.
1713 में एल्ड्रिच ने क्लेयरेंडन भवन में प्रेस के स्थानांतरण का प्रबंध किया. इसका नामकरण ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के चांसलर एडवर्ड हाइड, फर्स्ट अर्ल ऑफ क्लेयरेंडन के सम्मान में किया गया था. ऑक्सफोर्ड विद्या द्वारा बनाए रखे जाने वाले इसके निर्माण कार्य का वित्तपोषण उनकी पुस्तक *द हिस्ट्री ऑफ द रिबेलियन एण्ड सिविल वॉर्स इन इंग्लैण्ड (1702–04) से प्राप्त राशियों से किया गया. वास्तव में ज्यादातर पैसे ऑक्सफोर्ड के नए बाइबल प्रिंटर जॉन बास्केट से आते थे और वाइस-चांसलर विलियम डेलॉन ने क्लेयरेंडन के कार्य से प्राप्त राशियों में से ज्यादातर राशियों का भुगतान नहीं किया. किसी भी परिस्थिति में इसका व्परिनाम ब्रॉड स्ट्रीट में शेल्डोनियन के अलावा निकोलस हॉक्समूर की सुन्दर लेकिन अव्यावहारिक संरचना थी. प्रेस ने यहाँ 1830 तक काम किया और इसके कार्य भवन के अलग-अलग हिस्सों में तथाकथित लर्न्ड साइड और बाइबल साइड में विभाजित थे.
आम तौर पर कहा जाता है कि अठारहवीं सदी के आरम्भ में प्रेस के विस्तार पर विराम लग गया था. इस समय फेल जैसी किसी हस्ती का अभाव था और यह आर्कीटाइपोग्राफस और पुराविद थॉमस हियार्न जैसे निष्प्रभावी या झगड़ालू व्यक्तियों और बास्केट के पहले बाइबल जैसी त्रुटिपूर्ण योजनाओं का समय था जो शानदार ढंग से तैयार किया गया लेकिन गलत छपाई से भरा हुआ खंड था और जिसे सेंट ल्यूक में टंकण त्रुटि देखे जाने के बाद वाइनगार बाइबल के नाम से जाना जाने लगा. इस समय के अन्य मुद्रण में रिचर्ड ऑलेस्ट्री के मननशील ग्रन्थ और थॉमस हैनमर के शेक्सपियर का छः खण्डों वाला संस्करण शामिल था.[23] पीछे मुड़कर देखने पर यह सब अपेक्षाकृत मामूली जीत साबित हुई. वे सब एक विश्वविद्यालय प्रेस के उत्पाद थे जिनमें बढ़ती गड़बड़ी, क्षय और भ्रष्ट प्रथा का समावेश था और जो खुद को जीवित रखने के लिए ज्यादा से ज्यादा अपनी बाइबल और प्रार्थना पुस्तक सम्बन्धी कार्यों को पट्टे पर देने पर निर्भर था.
इस व्यवसाय को केवल एक डेलीगेट विलियम ब्लैकस्टोन के हस्तक्षेप द्वारा बचाया गया. प्रेस की अराजक स्थिति से नाराज होकर और वाइस चांसलर जॉर्ज हडेसफोर्ड से दुश्मनी मोल लेकर ब्लैकस्टोन ने छापेखाने की बारीकी से जांच करवाई लेकिन इसके उलझनग्रस्त संगठन और धूर्त प्रक्रियाओं के निष्कर्ष के रूप में उन्हें अपने सहयोगियों के केवल "उदास और तिरस्कारपूर्ण चुप्पी" या "ज्यादा से ज्यादा निस्तेज उदासीनता" का सामना करना पड़ा. गुस्से में आकर ब्लैकस्टोन ने मई 1757 में हडेसफोर्ड के उत्तराधिकारी थॉमस रंडोल्फ को लिखे गए एक लंबे पत्र को प्रकाशित करके विश्वविद्यालय को अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए मजबूर किया. यहाँ, ब्लैकस्टोन ने प्रेस को एक जन्मजात संस्था के रूप में प्रस्तुत किया जिसने "एक आलस भरी गुमनामी... रोबदार यांत्रिकी के एक घोसले में समय बिताते हुए" छात्रवृत्ति की सेवा करने के सभी झूठे दिखावे को छोड़ दिया था. इन शर्मनाक मामलों से छुटकारा पाने के लिए ब्लैकस्टोन ने अंधाधुंध सुधार की मांग की जो डेलीगेटों की शक्तियों और दायित्वों को सख्ती से स्थापित करेगा, आधिकारिक रूप से उनके विचारों और कार्यप्रणाली को रिकॉर्ड करेगा और छापेखाने को एक कुशल आधार प्रदान करेगा. बहरहाल, रंडोल्फ ने इस दस्तावेज को नज़रअंदाज कर दिया और तब तक परिवर्तन शुरू नहीं हुआ जब तक ब्लैकस्टोन ने कानूनी कार्रवाई करने की धमकी नहीं दी. विश्वविद्यालय ने 1760 तक ब्लैकस्टोन के सभी सुधारों को अपनाने की दिशा में कदम उठाया था.
18वीं शताब्दी के अंतिम दौर तक प्रेस ने और अधिक ध्यान आकर्षित कर लिया था. आरंभिक कॉपीराइट क़ानून ने स्टेशनर्स को कमजोर बनाना शुरू कर दिया था और विश्वविद्यालय को अनुभवी प्रिंटरों (मुद्रकों) को अपना बाइबल कार्य पट्टे पर देने में कष्ट होने लगा. जब अमेरिकी स्वाधीनता युद्ध ने ऑक्सफोर्ड को इसके बाइबल के महत्वपूर्ण बाजार से वंचित कर दिया तब यह पट्टा बहुत जोखिम भरा प्रस्ताव बन गया और डेलीगेटों को उन लोगों को प्रेस के शेयरों की पेशकश करने के लिए मजबूर किया गया जो "पारस्परिक लाभ के लिए व्यापार की देखभाल कर सके और परेशानियों को प्रबंधित" कर सके. अड़तालीस शेयरों को जारी किया गया जिसके साथ विश्वविद्यालय के पास एक नियंत्रक हिस्सा था. उसी समय जेरेमियाह मार्कलैंड और पीटर एल्म्सले की रचनाओं के साथ-साथ उन्नीसवीं सदी के आरंभिक दौर में मुख्यभूमि यूरोप के कई शिक्षाविदों द्वारा सम्पादित ग्रंथों से पारंपरिक छात्रवृत्ति में नई जान आई - जिनमें शायद अगस्त इमानुएल बेकर और कार्ल विल्हेल्म डिंडोर्फ़ सबसे प्रमुख थे. दोनों ने 50 सालों तक एक डेलीगेट के रूप में काम करने वाले यूनानी विद्वान थॉमस गैस्फोर्ड के आमंत्रण पर संस्करणों को तैयार किया. उनके समय में विकासशील प्रेस ने लन्दन में वितरकों की स्थापना की और ऑक्सफोर्ड में इसी उद्देश्य से टुर्ल स्ट्रीट में पुस्तकविक्रेता जोसेफ पार्कर को नियुक्त किया. पार्कर ने भी प्रेस में अपने शेयर खरीद लिए.
इस विस्तार ने प्रेस को क्लेयरेंडन भवन से बाहर धकेल दिया. 1825 में डेलीगेटों (प्रतिनिधियों) ने वोर्सेस्टर कॉलेज से जमीन ख़रीदा. डैनियल रॉबर्टसन और एडवर्ड बलोर द्वारा निर्मित योजनाओं के आधार पर इमारतों का निर्माण किया गया और 1830 में प्रेस को वहां स्थानांतरित कर दिया गया. ऑक्सफोर्ड सिटी सेंटर से उत्तर पश्चिम में वॉल्टन स्ट्रीट और ग्रेट क्लेयरेंडन स्ट्रीट के कोने में स्थित यह साइट इक्कीसवीं सदी में ओयूपी के मुख्य कार्यालय के रूप में बरक़रार है.
प्रेस ने अब भारी बदलाव के युग में प्रवेश किया. 1830 में भी यह शिक्षा के पिछड़े क्षेत्र का एक संयुक्त स्टॉक प्रिंटिंग व्यवसाय था जो विद्वानों और मौलवियों जैसे पाठकों के अपेक्षाकृत छोटे समूह को विद्वतापूर्ण रचनाओं की पेशकश कर रहा था. एक इतिहासकार के मुताबिक यह प्रेस "शर्मीले रोगभ्रमियों के एक समाज" का उत्पाद था. इसका व्यापार बड़े पैमाने पर सस्ते बाइबलों की बिक्री पर निर्भर था और इसके डेलीगेट गैस्फोर्ड या मार्टिन रूथ के प्रतीक थे. वे लंबे समय से काम कर रहे परम्परावादी थे जो हर साल 5 या 10 शीर्षकों को छापने वाले एक विद्वतापूर्ण व्यवसाय की अध्यक्षता कर रहे थे जैसे लिडेल और स्कॉट्स ग्रीक इंग्लिश लेक्सिकन (1843) और इसके व्यापार का विस्तार करने में उनकी रुचि बहुत कम या नहीं थी. 1830 के दशक में मुद्रण के लिए वाष्प शक्ति का बेचैन कर देने वाला प्रस्थान जरूर देखा गया होगा.
इस समय थॉमस कॉम्बे प्रेस में शामिल हुए और 1872 में अपनी मौत तक विश्वविद्यालय के मुद्रक बने रहे. कॉम्बे ज्यादातर प्रतिनिधियों की तुलना में एक बेहतर व्यवसायी थे लेकिन अभी भी वहां कोई प्रवर्तक नहीं था: वे भारत के कागज़ की विशाल वाणिज्यिक क्षमता को मूर्त रूप देने में नाकामयाब रहे जो परवर्ती वर्षों में ऑक्सफोर्ड के सबसे लाभदायक व्यापारिक रहस्यों में से एक साबित हुआ. फिर भी, कॉम्बे को व्यवसाय में अपने शेयरों के माध्यम से काफी धन प्राप्त हुआ और वोल्वरकोट के दिवालिया पेपर मिल का अधिग्रहण और नवीकरण का काम भी मिला. उन्होंने प्रेस में स्कूलिंग और ऑक्सफोर्ड में सेंट बर्नाबास चर्च की अक्षय निधि का वित्तपोषण किया. कॉम्बे का धन इतना बढ़ गया कि वे प्री-रफेलिट ब्रदरहूड के पहले संरक्षक बन गए और उन्होंने और उनकी पत्नी मार्था ने इस समूह के आरंभिक कार्यों के अधिकांश हिस्से को खरीद लिया जिनमें विलियम होल्मैन हंट का द लाईट ऑफ द वर्ल्ड भी शामिल था. हालांकि कॉम्बे को प्रेस में सुन्दर मुद्रित रचना के उत्पादन में बहुत कम रुचि थी.[35] उनके छापेखाने से जुड़ा सबसे जाना माना ग्रन्थ एलिसेस एडवेंचर्स इन वंडरलैंड का त्रुटिपूर्ण प्रथम संस्करण था जिसे 1865 में इसके लेखक लेविस कैरोल (चार्ल्स लुट्विज डोग्सन) के खर्च पर ऑक्सफोर्ड द्वारा मुद्रित किया गया था.
प्रेस में आमूल परिवर्तन करने के लिए विश्वविद्यालय के कामकाज पर 1850 के रॉयल कमीशन और एक नए सचिव बार्थोलोम्यू प्राइस को लगाया गया. 1868 में नियुक्त होने वाले प्राइस ने पहले ही विश्वविद्यालय को सुझाव दिया था कि व्यवसाय की "चौकस अधीक्षण" के लिए एक कुशल कार्यकारी अधिकारी की जरूरत थी जिसमें अलेक्जेंडर मैकमिलन के साथ की जाने वाली सौदेबाजी भी शामिल थी जो 1863 में ऑक्सफोर्ड की छपाई के प्रकाशक बन गए और 1866 में सस्ते और प्राथमिक स्कूली पुस्तकों की क्लेयरेंडन प्रेस श्रृंखला का निर्माण करने में प्राइस की मदद की - शायद ऐसा पहली बार हुआ था जब ऑक्सफोर्ड ने क्लेयरेंडन छपाई का इस्तेमाल किया. प्राइस के नेतृत्व में प्रेस ने अपना आधुनिक आकार लेना शुरू कर दिया. 1865 तक डेलीगेसी (प्रतिनिधित्व/नुमाइंदगी) का सर्वकालिक होना बंद हो गया और इसकी जगह पांच सर्वकालिक और पांच कनिष्ट पदों का विकास हुआ जिन्हें विश्वविद्यालय की तरफ से होने वाली नियुक्ति के माध्यम से भरा जाता था और इसके साथ ही साथ वाइस चांसलर एक पदेन डेलीगेट होता था: जो गुटबाजी के लिए एक कांचगृह था जिसकी रखवाली और नियंत्रण प्राइस ने बड़ी चतुराई से की.विश्वविद्यालय ने अपने शेयरों को फिर से खरीद लिया क्योंकि उनके धारक या तो रिटायर हो गए थे या उनका देहांत हो गया था. खातों के पर्यवेक्षण का काम 1867 में नवनिर्मित वित्त समिति को दे दिया गया. कार्य की प्रमुख नई लाइनों की शुरुआत हुई. उदाहरण के लिए, 1875 में डेलीगेटों (प्रतिनिधोयों/नुमाइंदों) ने फ्रेडरिक मैक्स मुलर के संपादकत्व के तहत सैक्रेड बुक्स ऑफ द ईस्ट श्रृंखला को अनुमोदित किया जिससे एक व्यापक पाठकत्व को धार्मिक विचारों की एक बहुत बड़ी श्रृंखला प्राप्त हुई.
प्राइस ने समान रूप से ओयूपी को इसके खुद के अधिकार में प्रकाशन की तरफ स्थानांतरित किया. 1863 में पार्कर के साथ प्रेस का रिश्ता खत्म हो गया और 1870 में कुछ बाइबल रचनाओं के लिए लन्दन में एक छोटे से जिल्दसाजीखाना को ख़रीदा गया. मैकमिलन का अनुबंध 1880 में समाप्त हो गया और उसे फिर से नवीकृत नहीं किया गया. इस समय तक, लन्दन के पैटर्नोस्टर रो में बाइबल के भण्डारण के लिए ऑक्सफोर्ड का एक गोदाम भी था और 1880 में इसके प्रबंधक हेनरी फ्राउड को विश्वविद्यालय के प्रकाशक का औपचारिक ख़िताब दिया गया. फ्राउड को पुस्तक व्यापार से न कि विश्वविद्यालय से फायदा हुआ और वे कई लोगों के लिए एक पहेली बनकर रह गए. ऑक्सफोर्ड के स्टाफ मैगजीन "द क्लेयरेंडनियन" के एक मृत्युलेख के अनुसार "यहाँ ऑक्सफोर्ड में हममें से कुछ लोगों के पास ही उनका व्यक्तिगत ज्ञान था". उसके बावजूद, व्यवसाय में पुस्तकों की नई लाइनों को शामिल करके, 1881 में न्यू टेस्टामेंट के संशोधित संस्करण के विशाल प्रकाशन की अध्यक्षता करके और 1896 में ब्रिटेन के बाहर न्यूयॉर्क में प्रेस का पहला कार्यालय स्थापित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर फ्राउड ओयूपी के विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण बन गए.
प्राइस ने ओयूपी को रूपांतरित किया. 1884 में जब वे सचिव के पद से रिटायर हुए तब डेलीगेटों ने व्यवसाय के अंतिम शेयरों को वापस खरीद लिया. पेपर मिल, छापेखाने, जिल्दखाना और गोदाम सहित प्रेस पर अब पूरी तरह से विश्वविद्यालय का स्वामित्व था. स्कूली किताबों और आधुनिक विद्वानों के ग्रंथों जैसे जेम्स क्लेर्क मैक्सवेल के ए ट्रीटाइज़ ऑन इलेक्ट्रिसिटी एण्ड मैग्नेटिज्म (1873) के शामिल होने से इसका उत्पादन बढ़ गया था जो आइंस्टीन के विचार का मूल सिद्धांत साबित हुआ. इसकी परंपरा और कार्य की गुणवत्ता को छोड़े बिना इसे सरलतापूर्वक स्थापित करके प्राइस ने ओयूपी को एक सतर्क और आधुनिक प्रकाशक के रूप में परिवर्तित करना शुरू कर दिया. 1879 में उन्होंने प्रकाशन का काम भी अपने हाथ में ले लिया जिसके फलस्वरूप वह प्रक्रिया अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई अर्थात् विशाल परियोजना का आगमन हुआ जो ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी (ओईडी) बना.
जेम्स मुर्रे और फिलोलॉजिकल सोसाइटी द्वारा ऑक्सफोर्ड को प्रदान किया गया "न्यू इंगलिश डिक्शनरी" एक शानदार शैक्षिक और देशभक्ति का काम था. लंबी बातचीत के फलस्वरूप एक औपचारिक अनुबंध की स्थापना हुई. मुर्रे को एक रचना को सम्पादित करना था जिसमें लगभग 10 साल का समय लगने वाला था और जिसकी लागत लगभग 9000 पाउंड थी. दोनों आंकड़े बहुत ज्यादा आशावादी लग रहे थे. यह डिक्शनरी 1884 में मुद्रित रूप में दिखाई देने लगी लेकिन पहला संस्करण मुर्रे की मौत के 13 साल बाद 1928 तक पूरा नहीं हुआ जिसकी लागत लगभग 375000 पाउंड थी. यह विशाल वित्तीय बोझ और इसके निहितार्थ प्राइस के उत्तरिधिकारियों के कंधे पर आ गया.
अगले सचिव को इस समस्या का समाधान करने में काफी कष्ट उठाना पड़ा. फिलिप लाइटेल्टन गेल को 1884 में वाइस चांसलर बेंजामिन जोवेट द्वारा नियुक्त किया गया. बैलियोल में अपनी शिक्षा और लन्दन प्रकाशन में अपनी पृष्ठभूमि होने के बावजूद प्रेस के कार्य गेल की समझ से बाहर थे. डेलीगेटों ने उनके इर्दगिर्द काम करना शुरू किया और अंत में विश्वविद्यालय ने 1897 में गेल को निकाल दिया. सहायक सचिव चार्ल्स कन्नान ने थोड़ी बहुत परेशानी के साथ और अपने पूर्ववर्ती के प्रति बहुत कम स्नेह के साथ इस काम को अपने हाथ में लिया: "गेल हमेशा यहाँ थे लेकिन मुझे समझ में नहीं आता कि उन्होंने क्या किया."
कन्नान को अपनी नई भूमिका में सार्वजनिक बुद्धि का बहुत कम अवसर मिला था. एक अत्यधिक गुणी क्लासिस्ट के रूप में वे व्यवसाय के प्रमुख बने जो पारंपरिक दृष्टि से सफल था लेकिन अब अज्ञात इलाके में आगे बढ़ रहा था. खुद-ब-खुद विशेषज्ञ शैक्षिक रचनाओं और अनिर्भरशील बाइबल व्यापार डिक्शनरी की बढ़ती लागत और यूनिवर्सिटी चेस्ट के लिए प्रेस के योगदानों से जुड़ी जरूरतों को पूरा न कर सका. इन मांगों को पूरा करने के लिए ओयूपी को बहुत ज्यादा राजस्व की जरूरत थी. कन्नान ने इस लक्ष्य को पाने का बीड़ा उठाया. विश्वविद्यालय की राजनीति और जड़ता को चौंकाते हुए उन्होंने फ्राउड और लन्दन कार्यालय को सम्पूर्ण व्यवसाय का वित्तीय इंजन बनाया. फ्राउड ने 1906 में वर्ल्ड्स क्लासिक्स को अधिग्रहित करते हुए ऑक्सफोर्ड को लोकप्रिय साहित्य के मार्ग पर चलाना शुरू किया. उसी वर्ष उन्होंने बच्चों के साहित्य और चिकित्सा पुस्तकों के प्रकाशन में मदद करने के लिए होडर एण्ड स्टफटन के साथ एक तथाकथित "संयुक्त उद्यम" में प्रवेश किया. कन्नान ने फ्राउड के सहायक के रूप में अपने ऑक्सफोर्ड शागिर्द सहायक सचिव हम्फ्री एस. मिलफोर्ड को नियुक्त करके इन प्रयासों की निरंतरता को सुनिश्चित किया. 1913 में फ्राउड के रिटायर होने के बाद मिलफोर्ड प्रकाशक बने और 1945 में रिटायर होने तक आकर्षक लन्दन व्यवसाय और इसे रिपोर्ट करने वाले शाखा कार्यालयों का शासन कार्य संभाला. प्रेस की वित्तीय स्थिति को देखते हुए कन्नान ने विद्वानों के पुस्तकों या यहां तक कि डिक्शनरी को असंभव देयताओं के रूप में महत्व प्रदान करना बंद कर दिया. उन्होंने टिप्पणी की कि "मुझे नहीं लगता कि विश्वविद्यालय हमें बर्बाद करने के लिए पर्याप्त पुस्तकों का निर्माण कर सकता है".
उनके प्रयासों को छापेखाने की कुशलता से काफी मदद मिली. गेल के समय में ही होरेस हार्ट को प्रेस के नियंत्रक के पद पर नियुक्त किया गया लेकिन वे सचिव से कहीं अधिक प्रभावी साबित हुए. असाधारण ऊर्जा और व्यावसायिकता के साथ उन्होंने ऑक्सफोर्ड के मुद्रण संसाधनों में सुधार किया और उनका विस्तार किया और ऑक्सफोर्ड के प्रूफ-रीडरों के लिए पहली शैली वाली गाइड के रूप में हार्ट्स रूल्स का विकास किया. इसके बाद ये दुनिया भर के छापेखाने में मानक बन गए. इसके अलावा, उन्होंने वॉल्टन स्ट्रीट में कर्मचारियों के लिए एक सामाजिक क्लब के रूप में क्लेयरेंडन प्रेस इंस्टिट्यूट के निर्माण का सुझाव दिया. जब 1891 में यह संस्थान खुला तब प्रेस के पास इसमें शामिल होने के लिए प्रशिक्षुओं सहित 540 कर्मचारी थे. अंत में मुद्रण में अपनी सामान्य रुचि के फलस्वरूप हार्ट ने "फेल टाइप्स" की सूची बनाई और उसके बाद 1915 में खराब सेहत की वजह से उनकी मौत से पहले उन्होंने प्रेस के लिए ट्यूडर और स्टुअर्ट प्रतिकृति खण्डों की एक श्रृंखला में उनका इस्तेमाल किया.[60] तब तक ओयूपी एक संकीर्ण मुद्रक से विश्वविद्यालय के स्वामित्व वाले एक व्यापक प्रकाशन प्रतिष्ठान में बदल चुका था जिसकी अंतर्राष्ट्रीय उपस्थिति बढ़ती जा रही थी.
फ्राउड को कोई शक नहीं था कि लन्दन में प्रेस का व्यवसाय काफी हद तक बढ़ गया था और बिक्री के आरम्भ के साथ अनुबंध पर नियुक्त किया गया था. सात साल बाद विश्वविद्यालय के प्रकाशक के रूप में फ्राउड एक छाप के रूप में अपने खुद के नाम के साथ-साथ 'ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस' का इस्तेमाल कर रहे थे. यह शैली हाल के दिनों तक कायम थी और प्रेस के लन्दन कार्यालयों से दो प्रकार के छापों की उत्पत्ति हो रही थी. 'विश्वविद्यालय के प्रकाशक' के नाम से जाने जाने वाले अंतिम व्यक्ति जॉन गिल्बर्ट न्यूटन ब्राउन थे जो अपने सहकर्मियों के बीच 'ब्रुनो' के नाम से जाने जाते थे. छापों के द्वारा गर्भित भेद सूक्ष्म लेकिन महत्वपूर्ण थे. कमीशन (उनके लेखकों द्वारा या किसी पढ़े-लिखे व्यक्तियों के समूह द्वारा भुगतान) पर लन्दन द्वारा जारी किए जाने वाले पुस्तकों की शैली पर 'हेनरी फ्राउड' या 'हम्फ्री मिलफोर्ड' की छाप थी जिस पर ओयूपी का कोई उल्लेख नहीं था मानो प्रकाशक उन्हें अपने आप जारी कर रहे थे जबकि विश्वविद्यालय के शीर्षक के अधीन प्रकाशकों द्वारा जारी किए जाने वाले पुस्तकों पर 'ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस' की छाप थी. इन दोनों श्रेणियों को ज्यादातर लन्दन द्वारा नियंत्रित किया जाता था जबकि ऑक्सफोर्ड (व्यावहारिक दृष्टि से सचिव) क्लेयरेंडन प्रेस पुस्तकों की देखभाल करता था. कमीशन किताबों का मकसद लन्दन व्यवसाय के ऊपरी खर्चों को वित्तपोषित करने के लिए कामधेनु गाय की तरह काम करना था क्योंकि प्रेस ने इस प्रयोजन के लिए अलग से किसी संसाधन की व्यवस्था नहीं की थी. फिर भी फ्राउड विशेष रूप से इस बात पर ध्यान देते थे कि उनके द्वारा प्रकाशित सभी कमीशन पुस्तकों को प्रतिनिधियों का अनुमोदन प्राप्त हो. यह विद्वानों या पुराविदों के प्रेसों के लिए कोई असामान्य व्यवस्था नहीं थी.
प्राइस ने तुरंत बाइबल के संशोधित संस्करण के कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस के साथ संयुक्त रूप से निकटवर्ती प्रकाशन के लिए फ्राउड को प्रधानता दी जिसके इस हद तक एक 'बेस्टसेलर' होने की सम्भावना थी जिसे मांग के साथ तालमेल बनाए रखने के लिए प्रेस के सभी संसाधनों को काम में लगाने की जरूरत पड़ती. यह 1611 के प्राधिकृत संस्करण को अधिक्रमित करते हुए सबसे पुराने मूल यूनानी और हिब्रू संस्करणों से बाइबल ग्रन्थ का एक सम्पूर्ण पुनरानुवाद था. फ्राउड की एजेंसी को ठीक समय पर संशोधित संस्करण के लिए स्थापित किया गया जिसे 17 मई 1881 को प्रकाशित किया गया और प्रकाशन से पहले और तब से एक खतरनाक दर पर इसकी एक मिलियन प्रतियों की बिक्री हुई हालांकि अत्यधिक उत्पादन की वजह से अंत में लाभ में कमी आ गई. हालांकि फ्राउड किसी भी तरह से एक ऑक्सफोर्ड व्यक्ति नहीं थे और ऐसा होने का कोई सामाजिक मिथ्याभिमान नहीं था लेकिन फिर भी वह एक अच्छे व्यवसायी थे जो सतर्कता और उद्यम के बीच के जादूई संतुलन को प्रभावित करने में सक्षम थे. उनके मन में बहुत पहले से ही प्रेस के विदेशी व्यापार को सबसे पहले यूरोप में और उसके बाद लगातार अमेरिका, कनाडा, भारत और अफ्रीका में उन्नत बनाने का विचार हिलोर मार रहा था. अमेरिकी शाखा के साथ-साथ एडिनबर्ग, टोरंटो और मेलबोर्न में डिपो स्थापित करने का एकमात्र श्रेय काफी हद तक उन्हीं पर था. फ्राउड ने लेखकों से निपटने, जिल्दसाजी, वितरण और विज्ञापन सहित ओयूपी की छाप वाली किताबों के लिए अधिकांश प्रचालन तंत्रों को नियंत्रित किया और केवल संपादकीय कार्य और छपाई की देखरेख का काम ऑक्सफोर्ड द्वारा किया गया.
फ्राउड ऑक्सफोर्ड को नियमित रूप से पैसे भेजते थे लेकिन उन्होंने निजी तौर पर महसूस किया कि इस व्यवसाय की पूंजी काफी कम थी और अगर इसे एक वाणिज्यिक आधार नहीं मिला तो यह बहुत जल्द विश्वविद्यालय के संशाधनों को खाली कर देगा. उन्हें खुद एक निर्धारित सीमा तक व्यवसाय में पैसों का निवेश करने की अधिकार था लेकिन पारिवारिक परेशानियों की वजह से वे ऐसा नहीं कर पा रहे थे. इसलिए विदेशी बिक्री में उनकी रुचि जगी क्योंकि 1880 और 1890 के दशकों तक भारत में पैसा बनाने का अवसर था जबकि यूरपीय पुस्तक बाजार मंदी की मार झेल रहा था. लेकिन प्रेस के फैसले से फ्राउड की दूरी का मतलब था कि जब तक कोई प्रतिनिधि उनकी तरफदारी नहीं करता तब तक वे इस नीति को प्रभावित करने में असमर्थ थे. फ्राउड ने अपना ज्यादातर समय प्रतिनिधियों द्वारा दिए गए जनादेश के तहत काम करने में बिताया. 1905 में पेंशन के लिए आवेदन करते समय उन्होंने तत्कालीन वाइस चांसलर जे. आर. मैग्राथ को लिखा कि बाइबल वेयरहाउस के प्रबंधक के रूप में उनके सात साल के कार्यकाल में लन्दन व्यवसाय की बिक्री का औसत लगभग 20000 पाउंड और लाभ का परिमाण 1887 पाउंड प्रति वर्ष था. 1905 तक प्रकाशक के रूप में उनके प्रबंधन के तहत बिक्री का परिमाण 200000 पाउंड प्रति वर्ष पहुँच गया था और उनके 29 साल के कार्यकाल में लाभ के परिमाण का औसत 8242 प्रति वर्ष पहुँच गया था.
सचिव पद पर विवाद
अपने तरीके से प्रेस की ऐतिहासिक जड़ता के प्रतिरोध के खिलाफ प्रेस को आधुनिकीकरण करने का प्रयास करने वाले प्राइस के पास जरूरत से ज्यादा काम आ गया था और 1883 तक वे अपने काम से इतने थक गए कि वे रिटायर होने की मांग करने लगे. 1882 में बेंजामिन जोवेट विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर बन गए थे. प्राइस के उत्तराधिकारी की नियुक्ति में निस्संदेह भाग लेने वाले अनंत समितियों से अधीर होकर जोवेट ने प्रतिनिधियों से अनुमति प्राप्त की और अपने पूर्व छात्र सहायक फिलिप लाइटेल्टन गेल को प्रतिनिधियों का अगला सचिव बनने के लिए राजी किया. गेल प्रतिनिधियों द्वारा निंदात्मक तरीके से एक वाणिज्यिक फर्म माने जाने वाले कैसेल, पेटर एण्ड गैल्पिन नामक एक प्रकाशन फर्म में खुद के लिए एक नाम का निर्माण कर रहे थे. गेल खुद एक कुलीन व्यक्ति थे जो अपने काम से नाखुश थे जहां उन्होंने खुद को 'एक वर्ग: निम्न मध्य' के स्वाद के लिए खानपान का इंतजाम करते हुए पाया और उन्होंने ओयूपी द्वारा आकर्षित पाठकों और ग्रंथों के साथ काम करने के मौके का फायदा उठाया.
जोवेट ने गेल को सुनहरे अवसर प्रदान करने का वादा किया जिनमें से कुछ अवसर प्रदान करने का अधिकार उन्हें भी था. उन्होंने गेल की नियुक्ति को लंबी छुट्टी (जून से सितम्बर तक) और मार्क पैटिसन की मौत के समय में ही निर्धारित किया इसलिए संभावित विपक्षी महत्वपूर्ण बैठकों में भाग न ले सके. जोवेट को अच्छी तरह मालूम था कि गेल का विरोध क्यों किया जाएगा क्योंकि उन्होंने कभी प्रेस के लिए काम नहीं किया था और न ही वे कोई प्रतिनिधि (डेलीगेट) थे और उन्होंने शहर में वाणिज्य सम्बन्धी अपने कच्चे ज्ञान से खुद का करियर मिट्टी में मिला दिया था. उनका डर दूर हुआ. गेल ने चातुर्य की एक चिह्नित कमी के साथ तुरंत प्रेस के सम्पूर्ण आधुनिकीकरण का प्रस्ताव रखा और अपने लिए स्थायी दुश्मनों को जन्म दे दिया. फिर भी उन्होंने फ्राउड के साथ मिलकर बहुत कुछ किया और 1898 तक प्रकाशन कार्यक्रमों और ओयूपी की पहुंच का विस्तार किया. उसके बाद प्रतिनिधियों के असहयोग की वजह से उनके सामने आने वाली असंभव कार्य परिस्थितियों में उनकी सेहत खराब हो गई. उसके बाद प्रतिनिधियों ने उनकी सेवा की समाप्ति का एक नोटिस भेजा जो उनके अनुबंध का उल्लंघन था. हालांकि उन्हें मुकदमा नहीं करने और चुपचाप चले जाने के लिए राजी किया गया.
शुरू में प्रतिनिधिगण उनके प्रयासों के विरोधी नहीं थे बल्कि उन्हें क्रियान्वित करने के उनके तरीके और जीवन के शैक्षिक ढंग के साथ उनकी सहानुभति के अभाव के विरोधी थे. उनके विचार से प्रेस विद्वानों का एक संघ था और यह हमेशा ऐसा ही रहेगा. गेल की 'कुशलता' का विचार उस संस्कृति का उल्लंघन करता हुआ दिखाई दिया हालांकि बाद में अंदर से काफी हद तक इसी तरह के सुधार कार्यक्रम को व्यवहार में लाया गया.
गेल के निष्कासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले चार्ल्स कन्नान को 1898 में गेल की जगह रखा गया और उम्र में उनसे छोटे सहकर्मी हम्फ्री एस. मिलफोर्ड ने 1907 में प्रभावी रूप से फ्राउड की जगह ली. दोनों ऑक्सफोर्ड के आदमी थे जो इसके अंदर-बाहर की प्रणाली से वाकिफ थे और जिस निकट सहयोगिता के साथ वे काम करते थे वह उनकी साझा पृष्ठभूमि और विश्वदृष्टि का फल था. कन्नान चुप्पी को भयभीत करने के लिए मशहूर थे और आमेन हाउस के कर्मचारियों के मुताबिक मिलफोर्ड में कुछ हद तक एक चेशायर बिल्ली की तरह एक कमरे में 'गायब' होने की अलौकिक क्षमता थी और इसी अस्पष्टता के साथ वे अचानक अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को संबोधित करके उन्हें चौंका देते थे. उनके काम करने की शैली का जो भी कारण हो लेकिन कन्नान और मिलफोर्ड दोनों के पास काम करने के लिए आवश्यक एक बहुत कठोर और व्यावहारिक दृष्टिकोण था और उन्होंने यह काम करने के लिए अपना कदम आगे बढ़ाया. वास्तव में लन्दन कार्यालय में [1904 में] मिलफोर्ड के प्रवेश करने के कुछ सप्ताह के भीतर फ्राउड को पता चला कि उन्हें प्रतिस्थापित किया जाएगा. हालांकि मिलफोर्ड हमेशा फ्राउड के साथ बड़ी नरमी से पेश आते थे और 1913 तक फ्राउड एक सलाहकार क्षमता में बने रहे. मिलफोर्ड ने बड़ी तेजी से होडर एण्ड स्टफटन के जे. ई. होडर विलियम्स के साथ हाथ मिलाया और शिक्षा, विज्ञान, चिकित्सा और कल्पना के क्षेत्र में भी तरह-तरह की पुस्तकों को प्रकाशित करने के लिए जिस गठबंधन की स्थापना की उसे ज्वाइंट अकाउंट के नाम से जाना गया. मिलफोर्ड ने कई पहलों या प्रयासों को व्यवहार में लाना शुरू कर दिया जिसमें प्रेस की वैश्विक शाखाओं में से अधिकांश शाखाओं की स्थापना भी शामिल थी.
मिलफोर्ड ने लगभग तुरंत विदेशी व्यापार की जिम्मेदारी ले ली और 1906 तक उन्होंने होडर एण्ड स्टफटन के साथ संयुक्त रूप से भारत और सुदूर पूर्व में एक यात्री को भेजने की योजना बनाना शुरू कर दिया. एन. ग्रेडन (प्रथम नाम अज्ञात) को सबसे पहले 1907 में और उसके बाद 1908 में यात्री के रूप में भेजा गया जब उन्होंने विशेष रूप से भारत, जलडमरूमध्य और सुदूर पूर्व में ओयूपी का प्रतिनिधित्व किया. 1909 में उनकी जगह ए. एच. कोब को रखा गया और 1910 में कोब ने अर्द्ध स्थायी रूप से भारत में ठहरने वाले एक यात्रा प्रबंधक के रूप में कार्य किया. 1911 में ई. वी. रियू को ट्रांस-साइबेरियन रेलवे के माध्यम से पूर्व एशिया भेजा गया जिन्होंने चीन और रूस में कई साहसिक कारनामे किए और उसके बाद वे भारत के दक्षिण में आए और पूरे भारत के शिक्षाविदों और अधिकारियों से मिलने में साल का अधिकांश समय बिताया. 1912 में वह फिर से बम्बई पहुंचे जिसे अब मुंबई के नाम से जाना जाता है. वहां उन्होंने डॉकसाइड क्षेत्र में कार्यालय किराए पर लिया और पहला विदेशी ब्रांच स्थापित किया.
1914 में यूरोप उथलपुथल में डूबा हुआ था. युद्ध की वजह से सबसे पहले कागज़ में कमी और शिपिंग में नुकसान और गड़बड़ी होने लगी और उसके बाद कर्मचारियों की संख्या में बहुत कमी हो गई क्योंकि उन्हें मैदान में सेवा करने के लिए बुला लिया गया. भारतीय शाखा के अग्रदूतों में से दो अग्रदूतों सहित कई कर्मचारी लड़ाई में मारे गए. मजे की बात यह है कि 1914 से 1917 तक बिक्री अच्छी थी और सिर्फ युद्ध के अंतिम समय में हालत सचमुच जरूरत से ज्यादा खराब हो गई.
कमी से राहत मिलने के बजाय 1920 के दशक में सामग्रियों और श्रम की कीमतें आकाश छूने लगी. खास तौर पर कागज़ मिलना मुश्किल हो गया था और उसे व्यापारिक कंपनियों के माध्यम से दक्षिण अमेरिका से मंगाना पड़ता था. 1920 के दशक के अंतिम दौर में अर्थव्यवस्था और बाजारों की हालत में धीरे-धीरे सुधार होने लगा. 1928 में प्रेस में छपी सामग्रियों को लन्दन, एडिनबर्ग, ग्लासगो, लीप्ज़िग, टोरंटो, मेलबोर्न, केप टाउन, बम्बई, कलकत्ता, मद्रास और शंघाई में पढ़ा जाता था. इनमें से सभी पूर्ण विकसित शाखाएं नहीं थीं: लीप्ज़िग में एक डिपो था जिसे एच. बोहून बीट द्वारा चलाया जाता था और कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में शहरों में छोटे-छोटे क्रियाशील डिपो और कंपनियों द्वारा प्रकाशित पुस्तकों के साथ-साथ प्रेस के स्टॉक को बेचने के लिए ग्रामीण स्थिरता की जानकारी रखने वाले शैक्षिक प्रतिनिधियों की एक सेना थी जिनकी एजेंसियों पर प्रेस का कब्ज़ा था जिनमें अक्सर काल्पनिक और हल्की-फुल्की पठनीय सामग्रियां शामिल थीं. भारत में बम्बई, मद्रास और कलकत्ता के शाखा डिपो बड़े स्टॉक सूची के साथ प्रतिष्ठानों को प्रभावित कर रहे थे क्योंकि प्रेसिडेंसियां खुद बड़ी बाजार थीं और वहां शैक्षिक प्रतिनिधि ज्यादातर दूरस्थ व्यापार से निपटते थे. 1929 की मंदी ने अमेरिकास के मुनाफे को धीरे-धीरे खत्म कर दिया और भारत अन्य दिर्ष्टि से एक निराशाजनक तस्वीर का 'एक उज्जवल स्थान' बन गया. बम्बई अफ्रिकास के वितरण और ऑस्ट्रेलेशिया की प्रगतिशील बिक्री का केन्द्र बिंदु था और तीन प्रमुख डिपो पर प्रशिक्षित व्यक्ति बाद में अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया के अग्रगामी शाखाओं में स्थानांतरित हो गए.
प्रेस ने द्वितीय विश्वयुद्ध में प्रथम विश्वयुद्ध की तरह अनुभव किया, फर्क सिर्फ इतना था कि मिलफोर्ड अब रिटायर होने वाले थे और उन्हें 'युवा व्यक्तियों के गमन से नफरत थी'. इस बार लन्दन में होने वाला हवाई आक्रमण बहुत ज्यादा खतरनाक था और लन्दन व्यवसाय को अस्थायी रूप से ऑक्सफोर्ड स्थानांतरित कर दिया गया था. अब अत्यंत अस्वस्थ हो चुके और कई व्यक्तिगत शोकों में डूबे मिलफोर्ड ने युद्ध के अंत तक रूकने और व्यवसाय को चलाते रहने पर जोर दिया. पहले की तरह सभी चीजों की आपूर्ति कम थी लेकिन यू-नाव संकट ने शिपिंग को दोगुना अनिश्चित बना दिया और पत्र पुस्तिकाएं समुद्र में खो चुके खेपों के मातमी रिकॉर्ड से भरे हुए हैं. कभी-कभी किसी लेखक के साथ-साथ दुनिया के युद्ध के मैदानों में अब विखर चुके कर्मचारियों के भी लापता या मृत होने की खबर दी जाएगी. डोरा, क्षेत्र रक्षा अधिनियम, को आयुध निर्माण के लिए सभी गैर जरूरी धातु को समर्पित करने की जरूरत थी और कई कीमती इलेक्ट्रोटाइप प्लेटों को सरकार के आदेश पर पिघला दिया गया.
युद्ध के अंत के साथ मिलफोर्ड की जगह जियोफ्री कम्बरलेग ने ले ली. इस दौरान साम्राज्य के विभाजन के बावजूद एकीकरण और युद्ध के बाद राष्ट्रमंडल का पुनर्गठन देखने को मिला. ब्रिटिश काउंसिल जैसे संस्थानों के साथ मिलकर ओयूपी ने शिक्षा बाजार में खुद को स्थिति को फिर से मजबूत करना शुरू कर दिया. अपनी पुस्तक मूविंग द सेंटर: द स्ट्रगल फॉर कल्चरल फ्रीडम में न्गुगी वा थियोंगो ने दर्ज किया है कि किस तरह अफ्रीका के ऑक्सफोर्ड पाठकों ने अपनी विशाल आंग्ल-केंद्रित विश्वदृष्टि से उन्हें केन्या के एक बच्चे की तरह प्रभावित किया. उसके बाद से यह प्रेस दुनिया भर में फैलने वाले विद्वान और सन्दर्भ पुस्तक बाजार के सबसे बड़े खिलाड़ियों में से एक के रूप में उभर गया है.
जब ओयूपी भारतीय तटों पर पहुंचा तब यहाँ फ्रेडरिक मैक्स मुलर द्वारा सम्पादित सैक्रेड बुक्स ऑफ द ईस्ट की अत्यधिक प्रतिष्ठा पहले से कायम थी और अंत में इसके 50 कष्टकारक खण्डों को पूरा किया गया. हालांकि इस श्रृंखला की वास्तविक खरीदारी अधिकांश भारतीयों की क्षमता से अधिक थी लेकिन फिर भी पुस्तकालयों के खुले सन्दर्भ दराजों में में आम तौर पर भारत सरकार द्वारा उदारतापूर्वक प्रदान किया गया एक सेट उपलब्ध था और भारतीय प्रेस में इन पुस्तकों की काफी चर्चा की जाती थी. हालांकि उनकी खूब आलोचना की गई थी लेकिन फिर भी आम धारणा यह थी कि मैक्स मुलर ने पश्चिम में प्राचीन एशियाई (फ़ारसी, अरबी, भारतीय और सिनिक) दर्शन को लोकप्रिय बनाकर भारत का उपकार किया था. यह पूर्व प्रतिष्ठा उपयोगी थी लेकिन शुरू में इंडोलॉजिकल पुस्तकों को बेचने के लिए बम्बई में भारतीय शाखा नहीं थी जिसके बारे में ओयूपी को पहले से ही मालूम था कि केवल अमेरिका में इसकी अच्छी बिक्री होती थी. ब्रिटिश भारत में तेजी से फ़ैल रहे स्कूल और कॉलेज नेटवर्क द्वारा निर्मित विशाल शैक्षिक बाजार की सेवा करने के लिए यह वहां मौजूद था. युद्ध की वजह से उत्पन्न होने वाले अवरोधों के बावजूद इसे 1915 में सेन्ट्रल प्रोविन्सेस के लिए पाठ्य पुस्तकों को मुद्रित करने का एक महत्वपूर्ण ठेका मिल गया और इससे इस कठिन परिस्थिति में इसे अपने भाग्य को स्थिर करने में काफी मदद मिली. ई. वी. रियू ने अपने कॉलअप में और देरी न करते हुए 1917 में प्रबंधन को तैयार करवाया जो उस समय उनकी पत्नी पत्नी नेली रियू के अधीन था जो अपनी दो ब्रिटिश संतान के सहयोग से एल्थेनियम का संपादन करने वाली एक पूर्व संपादिका थी. ऑक्सफोर्ड से भारत में महत्वपूर्ण इलेक्ट्रोटाइप और स्टीरियोटाइप प्लेटों को भेजने में बहुत देर हो गई थी और खुद ऑक्सफोर्ड छापाखाना सरकारी मुद्रण आदेशों के बोझ टेल दबा हुआ था क्योंकि साम्राज्य के प्रचार मशीन को काम मिल गया था. एक बार ऑक्सफोर्ड में गैर-सरकारी संरचना घटकर 32 पृष्ठ प्रति सप्ताह हो गई थी.
1919 तक रियू बहुत बीमार हो गए और उन्हें घर ले जाना पड़ा. उनकी जगह जियोफ्री कम्बरलेग और नोएल कैरिंगटन ने ली. नोएल डोरा कैरिंगटन नामक कलाकार के भाई थे और उन्होंने उनसे भारतीय बाजार के लिए डॉन किग्जोट के अपने स्टोरीज रिटोल्ड संस्करण की सचित्र व्याख्या भी करवाया था. उनके पिता चार्ल्स कैरिंगटन उन्नीसवीं सदी में भारत में एक रेलवे इंजीनियर थे. भारत में नोएल कैरिंगटन की छः सालों का अप्रकाशित संस्मरण ब्रिटिश लाइब्रेरी के ओरिएंटल एण्ड इंडिया ऑफिस कलेक्शंस में हैं. 1915 तक मद्रास और कलकत्ता में अस्थायी डिपो थे. 1920 में एक उचित शाखा की स्थापना करने के लिए नोएल कैरिंगटन कलकत्ता गए. वहां वे एडवर्ड थॉम्पसन[disambiguation needed] से घुल मिल गए जिन्होंने उन्हें 'ऑक्सफोर्ड बुक ऑफ बंगाली वर्स' का उत्पादन करने की अविकसित योजना में उन्हें शामिल कर लिया.[65] मद्रास में बम्बई और कलकत्ता की तरह कभी कोई औपचारिक शाखा स्थापित नहीं हुई क्योंकि वहां डिपो का प्रबंधन दो स्थानीय शिक्षाविदों के हाथों में था.
इस क्षेत्र के साथ ओयूपी की पारस्परिक क्रिया भारत में अपने मिशन का हिस्सा थी क्योंकि उनके कई यात्रियों ने भारत जाने या वहां से आने के रास्ते पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया में प्रवेश किया था. 1907 में अपनी पहली यात्रा में ग्रेडन ने 'स्ट्रेट्स सेटलमेंट्स' (काफी हद तक फेडरेटेड मलय राज्य और सिंगापुर), चीन, और जापान की यात्रा की थी लेकिन बहुत ज्यादा यात्रा करने में समर्थ नहीं थे. 1909 में ए. एच. कोब ने शंघाई में शिक्षाओं और पुस्तक विक्रेताओं से भेंट की और देखा कि वहां अक्सर सीधी-सादी छपाई वाली ब्रिटिश पुस्तकों के साथ खास तौर पर अमेरिका से आने वाली सस्ती पुस्तकों से प्रतिस्पर्धा चल रही थी.[66] 1891 के चेस अधिनियम के बाद उस समय की कॉपीराइट परिस्थिति ऐसी थी कि अमेरिकी प्रकाशक दंड मुक्त होने के लिए ऐसी किताबों को प्रकाशित कर सकते थे हालांकि उन्हें सभी ब्रिटिश प्रदेशों में वर्जित माना जाता था. दोनों प्रदेशों में कॉपीराइट को सुरक्षित करने के लिए प्रकाशकों को एक साथ प्रकाशन करने का इंतजाम करना पड़ा जो इस युग के वाष्प चालित जलयानों के लिए एक अंतहीन प्रचालन सिरदर्द था. किसी भी एक प्रदेश में पूर्व प्रकाशन के लिए दूसरे प्रदेश में कॉपीराइट संरक्षण के लिए कीमत चुकानी पड़ती थी.
कोब ने शंघाई के हेन्जेल एण्ड कंपनी (जिसका संचालन संभवतः किसी प्रोफ़ेसर द्वारा किया जाता था) को उस शहर में ओयूपी का प्रतिनिधित्व करने का काम सौंपा.प्रेस को हेन्जेल से तकलीफ थी जो अनियमित रूप से पत्राचार करते थे. वे एडवर्ड इवांस के साथ भी व्यापार करते थे जो एक अन्य शंघाई पुस्तक विक्रेता था. मिलफोर्ड ने कहा कि 'हमलोग चीन में अब तक जो कुछ कर रहे हैं हमें उससे अधिक करना चाहिए' और 1910 में उन्होंने कोब को शैक्षिक प्राधिकारियों के प्रतिनिधि के रूप में हेन्जेल की जगह किसी और रखने के लिए सुयोग्य प्रतिनिधि की तलाश करने का अधिकार प्रदान किया.[कृपया उद्धरण जोड़ें] उनकी जगह मिस एम. वेर्ने मैक्नीली नामक एक दुर्जेय महिला को रखा गया जो ईसाई ज्ञान प्रचार सोसाइटी की एक सदस्या थीं और एक किताब की दुकान भी चलाती थीं. उन्होंने काफी कुशलतापूर्वक प्रेस के मामलों पर ध्यान दिया और कभी-कभी वह मिलफोर्ड को सम्मानार्थ भेंट स्वरुप सिगारों से भरे डिब्बे भी भेजती थीं. ओयूपी के साथ उनका सहयोग लगभग 1910 से शुरू हुआ था हालांकि उनके पास ओयूपी पुस्तकों के लिए कोई विशेष एजेंसी नहीं थी. सस्ते अमेरिकी किताबों की तुलना में ऑक्सफोर्ड द्वारा आराम से उत्पन्न और महंगे बाइबिल संस्करणों के बहुत ज्यादा प्रतिस्पर्धी न होने के बावजूद चीन में व्यापार की प्रमुख वस्तु बाइबल की किताबें थीं जबकि भारत में शैक्षिक किताबों को सबसे ऊंचा स्थान प्राप्त था.
1920 के दशक में, भारतीय शाखा की स्थापना की स्थापना हो गई थी और वह चालू हो गई थी तब कर्मचारी सदस्यों के लिए पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया की यात्रा करने के लिए यहां आना-जाना एक रिवाज बन गया. 1928 में मिलफोर्ड का भतीजा आर. क्रिस्टोफर ब्रैडबी वहां गए. वह ठीक उसी समय 18 अक्टूबर 1931 को ब्रिटेन लौट आए जब जापानियों ने मंचुरिया पर हमला कर दिया. मिस एम. वेर्ने मैक्नीली ने राष्ट्र लीग को एक विरोध पत्र लिखा और मिलफोर्ड को एक निराशा पत्र लिखा जिन्होंने उन्हें शांत करने की कोशिश की.[कृपया उद्धरण जोड़ें] जापान ओयूपी के लिए बहुत कम मशहूर बाजार था और जो कुछ थोड़ा बहुत व्यापार होता था वह भी काफी हद तक बिचौलियों के माध्यम से ही होता था. मारुजेन कंपनी अब तक सबसे बड़ी ग्राहक थी और उसके पास मामलों से संबंधित एक विशेष व्यवस्था थी. अन्य व्यवसाय कोबे के सन्नोमिया में आधारित एच. एल. ग्रिफिथ्स नामक एक पेशेवर प्रकाशक प्रतिनिधि के माध्यम से होता था. ग्रिफिथ्स ने प्रेस की तरफ से प्रमुख जापानी स्कूलों और किताबों की दुकानों की यात्रा की और 10 प्रतिशत कमीशन हासिल किया. एडमंड ब्लंडेन कुछ समय तक टोकियो विश्वविद्यालय में रहे थे और विश्वविद्यालय पुस्तक विक्रेता फुकुमोटो स्ट्रोइन के साथ प्रेस का संपर्क स्थापित किया. हालांकि जापान से प्राप्त होने वाला एक महत्वपूर्ण अधिग्रहण ए. एस. हॉर्नबीस एडवांस्ड लर्नर्स डिक्शनरी था. यह हांगकांग में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा पाठ्यक्रम के लिए पाठ्य पुस्तकों का भी प्रकाशन करता है. चीनी भाषी शिक्षण शीर्षकों को ब्रांड कीज प्रेस के साथ प्रकाशित किया जाता है.
संयुक्त राज्य अमेरिका में ऑक्सफोर्ड बाइबल किताबों की बिक्री को सहज बनाने के लिए न्यूयॉर्क शहर के 91 फिफ्थ एवेन्यू में 1896 में उत्तरी अमेरिकी शाखा की स्थापना की गई. बाद में, इसने मैकमिलन के अपने मूल की सभी पुस्तकों के विपणन का काम अपने हाथ में ले लिया. बिक्री की दृष्टि से 1928 से 1936 तक इस कार्यालय का विकास हुआ और अंत में यह संयुक्त राज्य अमेरिका के अग्रणी विश्वविद्यालय प्रेसन में से एक बन गया. यह विद्वानों और सन्दर्भ पुस्तकों, बाइबल और कॉलेज और मेडिकल पाठ्य पुस्तकों पर विशेष ध्यान देती है. 1990 के दशक में इस कार्यालय को 200 मैडिसन एवेन्यू (एक इमारत जिसे इसने पुतनम पब्लिशिंग के साथ शेयर किया था) से 198 मैडिसन एवेन्यू में स्थानांतरित कर दिया गया जो पहले बी. अल्टमैन कंपनी का मुख्यालय था.
दिसंबर 1909 में कोब लौट आए और उन्होंने उस वर्ष अपनी एशियाई यात्रा का विवरण प्रस्तुत किया. उसके बाद कोब ने मिलफोर्ड के सामने प्रस्ताव रखा कि दक्षिण अमेरिका के आसपास के वाणिज्यिक यात्रियों को भेजने के लिए प्रेस को कंपनियों के समूह में शामिल किया जाना चाहिए जिस पर मिलफोर्ड सैद्धांतिक रूप से सहमत हो गए. कोब ने स्टीयर (प्रथम नाम अज्ञात) नामक एक व्यक्ति को अर्जेंटीना, ब्राजील, उरुग्वे, चिली और संभवतः अन्य देशों की यात्रा करने का काम सौंपा जिसकी जिम्मेदारी कोब पर थी. होडर एण्ड स्टफटन इस उद्यम से बाहर निकल गया लेकिन ओयूपी ने आगे बढ़कर इसमें अपना योगदान दिया.
स्टीयर की यात्रा एक मुसीबत थी और मिलफोर्ड ने उदासी भरे लफ्जों में कहा कि सभी यात्रियों की यात्राओं की तुलना में यह यात्रा 'काफी महंगी और बहुत कम फलदायक साबित हुई'. अपने यात्रा कार्यक्रम के आधे से अधिक हिस्से को पूरा करने से पहले ही स्टीयर लौट आए और वापस लौटते समय वे अपने ग्राहकों के भुगतान को वापस करने में विफल रहे जिसके परिणामस्वरूप प्रेस को 210 पाउंड की एक मोटी रकम से हाथ धोना पड़ा. प्रेस को 'आकास्मिक व्यय' के रूप में अपने पुस्तकों के मूल्य का 80 प्रतिशत चुकाने के लिए मजबूर होना पड़ा इसलिए पर्याप्त ऑर्डर मिलने के बावजूद उन्हें नुकसान उठाना पड़ा. वास्तव में कुछ ऑर्डर यात्रा से ही प्राप्त हुए थे और जब स्टीयर के नामूनोने का बॉक्स को वापस किया गया तब लन्दन कार्यालय को पता चला कि उन्हें दूसरी परत से नीचे की तरफ नहीं खोला गया था.
पूर्वी अफ्रीका के साथ होने वाले व्यापारों में से कुछ व्यापार बम्बई के माध्यम से होते थे.
यूके में प्रकाशित ओयूपी शीर्षकों के लिए एक वितरण एजेंट के रूप में कुछ समय काम करने के बाद 1960 के दशक में ओयूपी दक्षिणी अफ्रीका ने स्थानीय लेखकों और आम पाठकों के साथ-साथ स्कूलों और विश्वविद्यालयों के लिए भी प्रकाशन करना शुरू कर दिया. इसके कार्यक्षेत्र में बोत्सवाना, लेसोथो, स्वाजीलैंड और नामीबिया के साथ-साथ दक्षिण अफ्रीका भी शामिल है जो पाँचों में से सबसे बड़ा बाजार है.
ओयूपी दक्षिणी अफ्रीका अब दक्षिण अफ्रीका के तीन सबसे बड़े शैक्षिक प्रकाशकों में से एक है और यह पाठ्य पुस्तकों, शब्दकोशों, एटलस और स्कूलों की पूरक सामग्रियों और विश्वविद्यालयों के लिए पाठ्यपुस्तकों के प्रकाशन पर अपना ध्यान केंद्रित करती है. इसके लेखक समूहों में काफी हद तक स्थानीय लेखक शामिल हैं और विदेशों में पढ़ने वाले दक्षिण अफ्रीकियों के लिए छात्रवृत्तियों की सहायता के लिए 2008 में इसने मंडेला रोड्स फाउन्डेशन के साथ पार्टनरशिप की.
बीसवीं सड़ी से पहले ऑक्सफोर्ड के प्रेस में कभी-कभार संगीत की कोई रचना या संगीत विद्या से सम्बन्धी कोई किताब छपती थी. इसने 1899 में द याटेंडन हाइमनल भी प्रकाशित किया था और पर्सी डियरमर और उस समय काफी हद तक अज्ञात राल्फ वौघन विलियम्स के संपादकत्व में 1906 में प्रकाशित द इंग्लिश हाइमनल का पहला संस्करण अधिक महत्वपूर्ण था. सर विलियम हेनरी हैडो के कई खंडों वाली ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ म्यूजिक 1901 और 1905 के बीच दिखाई दी. हालांकि इस तरह संगीत प्रकाशन उद्यम बहुत कम थे: "उन्नीसवीं सदी में ऑक्सफोर्ड में इस विचार को महत्व नहीं दिया जाता था कि संगीत किसी अर्थ में शैक्षिक हो सकती है" और कुछ प्रतिनिधि या पूर्व प्रकाशक खुद संगीत से संबंधित थे या उनकी पृष्ठभूमि काफी हद तक संगीत से संबंधित थी.
हालांकि लंदन कार्यालय में मिलफोर्ड ने संगीत का मजा लिया था और खास तौर पर चर्च और गिरिजाघर के संगीतकारों की दुनिया के साथ उनका संबंध था. 1921 में मिलफोर्ड ने ह्यूबर्ट जे. फॉस को मूल रूप से शैक्षिक प्रबंधक वी. एच. कॉलिंस के एक सहायक के रूप में काम पर रखा था. उस काम में फॉस ने अपनी ऊर्जा और कल्पना का परिचय दिया. हालांकि सटक्लिफ के अनुसार एक साधारण संगीतकार और प्रतिभाशाली पियानोवादक के रूप में फॉस "की रुचि खास तौर से शिक्षा में नहीं थी; संगीत में उनकी गहरी रुचि थी.[69] उसके बाद बहुत जल्द जब फॉस ने मिलफोर्ड को रेडियो पर अक्सर बजाई जाने वाली रचनाओं के संगीतकारों पर जाने-माने संगीतज्ञों के निबन्धों के समूह को प्रकाशित करने की योजना के बारे में बताया तब मिलफोर्ड ने शायद इसे शिक्षा की तुलना में संगीत से कम संबंधित माना होगा. उस विचार प्रक्रिया का कोई स्पष्ट रिकॉर्ड मौजूदा नहीं है जिसके द्वारा प्रेस ने संगीत के प्रकाशन के क्षेत्र में कदम रखा होगा. फॉस की मौजूदगी और उनका ज्ञान, योग्यता, उत्साह और कल्पना शायद मिलफोर्ड के दिमाग में एक साथ कई असंबंधित गतिविधियों को जन्म देने वाले उत्प्रेरक का काम किया होगा जिसने विदेशी शाखाओं की स्थापना की तरह एक अन्य नए उद्यम को जन्म दिया होगा.
हो सकता है कि मिलफोर्ड को पूरी तरह यह बात समझ में नहीं आई होगी कि वह क्या कर रहे थे. 1973 में संगीत विभाग द्वारा पचासवीं सालगिरह पर प्रकाशित पुस्तिका से पता चलता है कि ओयूपी को "संगीत व्यापार का कोई ज्ञान नहीं था और उसके संगीत दुकानों में अपनी रचनाओं को बेचने के लिए कोई प्रतिनिधि भी नहीं था और ऐसा लगता है कि उसे इस बात का भी इल्म नहीं था कि शीट संगीत पुस्तकों से किसी भी तरह से एक अलग चीज थी." हालांकि मिलफोर्ड ने जानबूझकर या अनजाने में तीन कदम उठाए जिससे ओयूपी ने एक प्रमुख कार्य का शुभारंभ किया. उन्होंने एंग्लो-फ्रेंच म्यूजिक कंपनी और इसके सभी केन्द्रों, संबंधित वस्तुओं और संसाधनों को खरीद लिया. उन्होंने संगीत के लिए एक पूर्णकालिक बिक्री प्रबंधक के रूप में नोर्मैन पीटरकिन नामक एक संयमी मशहूर संगीतज्ञ को काम पर रख लिया. और 1923 में उन्होंने एक अलग प्रभाव संगीत विभाग की स्थापना की जिसके कार्यालय आमेन हाउस में थे और जिसके पहले संगीत संपादक फॉस थे. उसके बाद सामान्य समर्थन के अलावा मिलफोर्ड ने फॉस को बड़े पैमाने पर उनके अपने उपकरणों के हवाले कर दिया.
फॉस ने इसका जवाब अविश्वसनीय ऊर्जा के साथ दिया. उन्होंने "सबसे कम संभावित समय में सबसे बड़ी संभावित सूची" का निर्माण किया[73] और लगभग 200 शीर्षक प्रति वर्ष की दर से उसमें शीर्षकों शामिल करना शुरू कर दिया; आठ साल बाद उस सूची में 1750 शीर्षक थे. विभाग की स्थापना के वर्ष में फॉस ने "क्सोफोर्ड कोरल सॉंग्स" श्रृंखला शीर्षक के तहत सस्ती लेकिन अच्छी तरह से सम्पादित और मुद्रित समवेत रचनाओं की एक श्रृंखला का निर्माण करना शुरू कर दिया. डब्ल्यू. जी. व्हिटटेकर के सामान्य संपादकत्व में यह श्रृंखला पुस्तक रूप में या अध्ययन के बजाय संगीत के प्रकाशन के लिए ओयूपी की पहली वचनबद्धता थी. इस श्रृंखला योजना का विस्तार करके इसी तरह की सस्ती लेकिन उच्च गुणवत्ता वाली "ऑक्सफोर्ड चर्च म्यूजिक" और "ट्यूडर चर्च म्यूजिक" (कार्नेगी यूके ट्रस्ट से अपने हाथों में लिया गया) को शामिल किया गया; इनमें से सभी श्रृंखलाएं आज भी जारी हैं. वास्तव में फॉस द्वारा मिलफोर्ड के सामने प्रकाशन हेतु प्रस्तुत निबन्धों की योजना 1927 में हेरिटेज ऑफ म्यूजिक के रूप में दिखाई दी (अगले तीस सालों में दो और खंड दिखाई दिए होंगे). इसी तरह पर्सी स्कोल्स की लिस्नर्स गाइड टू म्यूजिक (वास्तव में 1919 में प्रकाशित) को आम जनता को सुनाने के लिए संगीत प्रशंसा पर आधारित पुस्तकों की एक श्रृंखला में से पहली श्रृंखला के रूप में नए विभाग में प्रस्तुत किया गया था. ब्रॉडकास्ट और रिकॉर्डेड संगीत के विकास के साथ तालमेल बैठने के लिए ओयूपी के लिए डिजाइन किए गए स्कोल्स के निरंतर कार्यों और पत्रकारिता संगीत आलोचना के क्षेत्र में उनके अन्य कार्यों को बाद में ऑक्सफोर्ड कम्पैनियन टू म्यूजिक में व्यापक रूप से एकीकृत और सारगर्भित किया होगा.
शायद सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि फॉस को शायद उन रचनाओं के नए संगीतकारों की तलाश करने की आदत थी जिन रचनाओं को वह विशिष्ट रूप से अंग्रेज़ी संगीत की मान्यता देते थे जो जनता को अधिक प्रिय थी. इस एकाग्रता के फलस्वरूप ओयूपी को दो पारस्परिक सुदृढ़ लाभ प्राप्त हुआ: संभावित प्रतिस्पर्धियों के कब्जे से बचे रहने वाले संगीत प्रकाशन के क्षेत्र में प्रवेश करने का एक मौका और संगीत प्रदर्शन एवं निर्माण के लिए एक शाखा जिसे अब तक खुद अंग्रेजों द्वारा काफी हद तक नजरअंदाज किया जा रहा था. हिनेल्स के प्रस्ताव एके मुताबिक काफी हद तक अज्ञात वाणिज्यिक संभावनाओं वाले संगीत के क्षेत्र में संगीत विभाग का आरंभिक "छात्रवृत्ति एवं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद मिश्रण" इसकी सांस्कृतिक परोपकार (प्रेस की शैक्षिक पृष्ठभूमि को देखते हुए) की भावना और "जर्मन मुख्यधारा के बाहर राष्ट्रीय संगीत" को बढ़ावा देने की इच्छा से प्रेरित था.
इसका नतीजा यह हुआ कि फॉस ने सक्रिय रूप से इस कार्य को बढ़ावा देना शुरू कर दिया और राल्फ वौघन विलियम्स, विलियम वॉल्टन, कॉन्स्टन्ट लैम्बर्ट, एलन रॉस्थोर्न, पीटर वॉरलॉक (फिलिप हेसेलटीन), एडमंड रुब्ब्रा और अन्य अंग्रेज़ी संगीतकारों के संगीत के प्रकाशन की इच्छा प्रकट की. जिस सन्दर्भ में प्रेस को "आधुनिक संगीत के इतिहास के सबसे टिकाऊ सज्जन समझौता" कहा गया उस सन्दर्भ में फॉस ने ऐसी किसी भी संगीत के प्रकाशन की गारंटी दी जिसे वौघन विलियम्स उन्हें प्रदान करना चाहेंगे. इसके अलावा, फॉस ने ओयूपी के केवल संगीत के प्रकाशन और जीवंत प्रदर्शन के अधिकारों को ही नहीं बल्कि रिकॉर्डिंग और ब्रॉडकास्ट के "यांत्रिक" अधिकारों को भी सुरक्षित करने की दिशा में कदम उठाया. यह बात पूरी तरह से स्पष्ट नहीं थी कि उस समय यह सब कितना महत्वपूर्ण साबित हुआ होगा. दरअसल फॉस, ओयूपी और कई संगीतकारों ने पहले परफॉमिंग राईट सोसाइटी में शामिल होने या उसका समर्थन करने से इनकार कर दिया था क्योंकि उन्हें डर था कि नई मीडिया के क्षेत्र में होने वाले इस तरह के प्रदर्शन पर इसकी फीस का बुरा असर पड़ेगा. बाद के वर्षों में देखा गया कि इसके विपरीत इस तरह के संगीत, संगीत प्रकाशन के पारंपरिक स्थलों की तुलना में अधिक आकर्षित साबित हुए.
संगीत की पेशकश के परिमाण और विस्तार की दृष्टि से और संगीतज्ञों और आम जनता दोनों के दिलों में इसकी प्रतिष्ठा की दृष्टि से संगीत के विभाग ने चाहे जैसा भी विकास किया हो, 1930 के दशक में आखिरकार वित्तीय प्रतिफल का सवाल सबसे प्रमुख था. लन्दन प्रकाशक के रूप में मिलफोर्ड ने संगीत विभाग के निर्माण और विकास के वर्षों में इसे अपना पूरा सहयोग दिया था. हालांकि उन पर लगातार होने वाले खर्चों से चिंतित ऑक्सफोर्ड के प्रतिनिधियों का दबाव बढ़ने लगा जो उन्हें एक लाभहीन उद्यम लग रहा था. उनके दृष्टि में आमेन हाउस का संचालन शैक्षिक दृष्टि से सम्मान योग्य और वित्तीय दृष्टि से लाभकारी था. लन्दन कार्यालय "शिक्षा को बढ़ावा देने के खर्च के लिए क्लेयरेंडन प्रेस के लिए पैसा कमाने के स्रोत के रूप में बना रहा." इसके अलावा, ओयूपी अपने पुस्तक प्रकाशनों को अल्पकालीन परियोजनाएं मानता था: प्रकाशित होने के कुछ वर्षों के भीतर न बिकने वाली किसी भी पुस्तक को बाजार से वापस मंगवा लिया जाता था (अनियोजित या छिपे आय के रूप में दिखाने के लिए हालांकि वास्तव में उन्हें बाद में बेच दिया जाता था). इसके विपरीत, प्रदर्शन के लिए संगीत पर संगीत विभाग का दबाव अपेक्षाकृत दीर्घकालीन और निरंतर था जो खास तौर इसका कारण यह था कि इससे होने वाला आय बार-बार के प्रसारण या रिकॉर्डिंग से प्राप्त होता था और इसलिए क्योंकि यह नए और आगामी संगीतज्ञों के साथ अपने रिश्ते को बनाने में लगा हुआ था. प्रतिनिधिगण फॉस के नजरिए से सहमत नहीं थे: "मुझे अभी भी यही लगता है कि यह शब्द 'नुकसान' एक झूठा शब्द है: क्या यह वास्तव में पूंजी का निवेश नहीं है?" यह वाक्य फॉस ने 1934 में मिलफोर्ड को लिखा था.
इस प्रकार 1939 तक संगीत विभाग में किसी भी वर्ष कोई मुनाफा नहीं दिखाई दिया. तब तक मंदी के आर्थिक दबाव के साथ-साथ खर्च को कम करने के अंदरूनी दबाव और संभवतः ऑक्सफोर्ड के मूल निकाय की शैक्षिक पृष्ठभूमि ने एक साथ मिलकर ओयूपी के प्राथमिक संगीत व्यवसाय को जन्म दिया जिसकी प्रकाशन रचनाओं का मुख्य आधार औपचारिक संगीत शिक्षा और संगीत प्रशंसा थी जो एक तरह से प्रसारण और रिकॉर्डिंग का ही एक एक असर था. यह ब्रिटिश स्कूलों की संगीत शिक्षा की सहायक सामग्रियों की बढ़ती मांग के साथ अच्छी तरह से मेल खा रहा था जो 1930 के दशक में शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी सुधारों का परिणाम था. प्रेस ने नए संगीतज्ञों और उनके संगीत की तलाश करने और उन्हें प्रकाशित करने का काम बंद नहीं किया लेकिन व्यवसाय का स्वरुप बदल गया था. व्यक्तिगत स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित और आर्थिक बाधाओं और (युद्ध के लंबा खींचने के कारण) कागज़ की कमी से तंग आकर और द ब्लिट्ज से बचने के लिए लन्दन के सभी कार्य-संचालन तंत्रों को ऑक्सफोर्ड स्थानांतरित किए जाने से बहुत ज्यादा नाराज होकर, फॉस ने 1941 में अपने पद से इस्तीफा दे दिया और उनकी जगह पीटरकिन को रखा गया.
महत्वपूर्ण श्रृंखलाएं और शीर्षक
शब्दकोश
ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी
कॉम्पेक्ट ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी
ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी का कॉम्पैक्ट एडिशन
वर्तमान अंग्रेजी का कॉम्पेक्ट ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी
कंसाइस ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी
नेशनल बायोग्राफी की ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी
एडवांस लर्नर्स डिक्शनरी
इंडोलॉजी (भारत संबंधित)
दी रिलीजियस बुक्स ऑफ दी सिख्स
सेक्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट
रूलर्स ऑफ इंडिया
दी अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया
पारंपरिक
स्क्रिप्टोरम क्लासिकोरम बिब्लियोथिका ओग्जोनिएन्सिस, जिसे ऑक्सफोर्ड क्लासिकल टेक्स्ट के नाम से भी जाना जाता है.
इतिहास
प्रोफ़ेसर राम शरण शर्मा द्वारा इंडियाज़ एन्शेंट पास्ट एंड रीथिंकिंग इंडियाज़ पास्ट
ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इंग्लैंड
ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ दी यूनाइटेड स्टेट्स
ऑक्सफोर्ड इलस्ट्रेटेड हिस्ट्री ऑफ आयरलैंड
ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इस्लाम
दी ऑक्सफोर्ड इलस्ट्रेटेड हिस्ट्री ऑफ दी फस्ट वर्ल्ड वार (ह्यू स्ट्रेकेन) (ऑक्सफोर्ड, 1998) आईएसबीएन 0-19-820614-3
जर्मनी एंड सेकेंड वर्ल्ड वार
विलियम डॉयल द्वारा ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ दी फ्रेंच रिवॉल्यूशन

(विकिपीडिया से साभार)

‘किताबें’ जिएं तो जिए कैसे !


संजय द्विवेदी

बाजार की मार और प्रहार इतने गहरे हैं कि किताबें दम तोड़ने को मजबूर हैं । इलेक्ट्रानिक मीडिया का गहराता नशा, उपभोक्तावादी ताकतों के खेल तथा पाठकों के संकट से जूझतीं ‘किताबें’ जिएं तो जिए कैसे ? इस दमघोंटू माहौल में क्या किताबें सिर्फ पुस्तकालयों की शोभा बनकर रह जाएगीं या मीडिया के नए प्रयोग उसकी उपयोगिता ही समाप्त कर देंगे, यह सवाल अब गहरा रहा है।
अरसा पहले ईश्वर की मौत की घोषणा के बाद उपजे विमर्शों में नई दुनिया के विद्वानों ने इतिहास, विचारधारा, राजनीति, संगीत, किताबें, रंगमंच एक-एक कर सबकी मौत की घोषणा कर दी। यह सिलसिला रुकता इसके पूर्व ही सुधीश पचौरी ने ‘कविता की मौत’ की घोषणा कर दी। यह सिलसिला कहां रुकेगा कहा नहीं जा सकता । और अब बात किताबों के मौत की। हमने देखा कि मृत्यु की घोषणाओं के बावजूद ये सारी चीजें अपनी-अपनी जगह ज्यादा मजबूती से स्थापित हुईं और आदमी की जिंदगी में ज्यादा बेहतर तरीके से अपनी जगह बना ले गयीं।
किताबों की मौत का सवाल इस सबसे थोड़ा अलग है, क्योंकि उसके सामने चुनौतियां आज किसी भी समय से ज्यादा हैं। शोर है कि किताबों के दिन लद गए। किताबों के ये आखिरी दिन हैं। किताब तो बीते जमाने की चीज है। शोर में थोड़ा सच भी है, उनकी पाठकीयता प्रभावित जरूर हुई, स्वीकार्यता भी घटी । इसके बावजूद वह मरने को तैयार नहीं है। जिन देशों में आज इलेक्ट्रानिक माध्यमों के 350 से ज्यादा चैनल है, 10 में से 6 लोगों के पास इंटरनेट कनेक्शन हैं, वहां भी किताबें किसी न किसी रूप में क्यों आ रही है ? वे कौन से सामाजिक, आर्थिक दबाव हैं, जो किताब और पाठक की रिश्तेदारी के अर्थ और आयाम बदलने पर आमादा हैं। खासकर हिंदी भाषी क्षेत्रों में किताबों की जैसी दुर्गति है, उसके कारण क्या हैं ? इलेक्ट्रानिक मीडिया एवं सूचना आधारित वेबसाइटों के भयावह प्रसार वाले देशों में किताबें अगर उसकी चुनौती को स्वीकार कर अपनी जमीन मजबूत बना पाई हैं जो भारतीय संदर्भ में यह चित्र इतना विकृत क्यों हैं ? निश्चय ही हिंदी क्षेत्र के लिए यह चुनौती सहज नहीं खासी विकट है। इसे हल्के ढंग से नहीं लिया जा सकता । किताब लिखने और छापने वालों सबके लिए यह समय महत्व का है, जब उन्हें ऐसी सामग्री पाठकों को देनी होगी, जो उन्हें अन्य मीडिया नहीं दे पाएगा। इलेक्ट्रानिक मीडिया ने वैसे भी जैसी छिछली, सस्ती और सतही सूचनाओं का जखीरा अपने दर्शकों पर उड़ला है, उसमें ‘किताब’ के बचे रहने की उम्मीदें ज्यादा है। इलेक्ट्रानिक मीडिया में गंभीरता के अभाव के चलते किताबों को गंभीरता पर ध्यान देना होगा वरना हल्केपन का परिणाम वही होगा कि इलेक्ट्रानिक मीडिया पर हिंदी फिल्मों पर आधारित कार्यक्रमों की लोकप्रियाता तो बढ़ी, किंतु हिंदी की कई फिल्म पत्रिकाएं लड़खड़ा कर बंद हो गई। इसके बावजूद किताबों के प्रकाशन के क्षेत्र में बाहर से हालात इतने बुरे नजर नहीं आते। हिंदी में किताबें खूब छप रही हैं। प्रकाशकों की भी संख्या बढ़ी है। फिर पाठकीयता के संकट तथा किताबों की मौत की चर्चाएं आखिर क्यों चलाई जा रही हैं ? सवाल का उत्तर तलाशें तो पता चलेगा कि हमारे प्रकाशकों को हिंदी साहित्य से खासा प्रेम है। इसके चलते ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों पर पुस्तकों का खासा अभाव है। सिर्फ साहित्य की पुस्तकों के प्रकाशन के चलते हिंदी में मनोरंजन, पर्यटन, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, कला, संस्कृति जैसे विषयों पर किताबों बहुत कम मिल पाती हैं। हां। अध्यात्म की किताबों का प्रकाशन जरूर बड़ी मात्रा में होता है, हालांकि उसके बिक्री एवं प्रकाशन का गणित सर्वथा अलग है। हिंदी प्रकाशकों के साहित्य प्रेम के विपरीत अंग्रेजी किताबों के प्रकाशन बमुश्किल 10 प्रतिशत किताबें ही ‘साहित्य’ पर छापते हैं। इसके चलते विविध रुचियों से जुड़े पाठक अंग्रेजी पुस्तकों की शरण में जाते हैं। बाजार की इसी समझ ने ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों पर अंग्रेजी का रुतबा कायम रखा है।
हिंदी प्रकाशन उद्योग की सबसे बड़ी समस्या उसका जनता से कटा होना है। सूचनाओं के महासमुद्र में गोते लगाने एवं अच्छी कृतियों को समाने लाने से वे बचना चाहते हैं। सरकारी खरीद एवं पाठयक्रमों के लिए किताबें छापना प्रकाशकों का प्रमुख ध्येय बन गया है। सरकारी खरीद होने में होने वाली कमीशनबाजी के चलते किताबों के दाम महंगे रखे जाते हैं। 50 रुपए की लागत की कोई भी किताब छापकर प्रकाशक उसे 75 रुपए में बेचकर भी लाभ कम सकता है, पर यहां कोई गुना खाने की होड़ में, कमीशन की प्रतिस्पर्धा में 50 रुपए की किताब की कीमत 200 रुपए तक पहुंच जाती है। फिर साहित्य के इतर विषयों पर हिंदी पाठकों को किताबें कौन पहुंचेगा ? अनुवाद के माध्यम से बेहतर किताबें लोगों तक पहुंच सकती हैं, लेकिन इस ओर जोर कम है, प्रायः प्रकाशक किसी किताब के एक संस्करण की हजार प्रतियां छापकर औन-पौने बेचकर लाभ कमाकर बैठ जाते हैं। उन्हें न तो लेखकर को रायल्टी देने की चिंता है, न ही किताब के व्यापक प्रसार की। सरकारी खरीद और पुस्तकालयों में पांच सौ हजार प्रतियां ही उन्हें लागत एवं मुनाफा दोनों दे जाती हैं। इससे ज्यादा कमाने की न तो हमारे प्रकाशकों की इच्छा है, न ललक। प्रकाशकों का यह ‘संतोषवाद’ लेखक एवं पाठक दोनों के लिए खतरनाक है। प्रकाशक प्रायः यह तर्क देते हैं कि हिंदी में पाठक कहां है ?वास्तव में यहा तर्क भोथरा एवं आधारहीन है। मराठी में लिखे गए उपन्यास ‘मृत्युंजय’ (शिवाजी सावंत) के अनुवाद की बिक्री ने रिकार्ड तोड़े । प्रेमचंद, बंगला के शरदचंद्र, देवकीनंदन खत्री, हाल में सुरेन्द्र वर्मा की ‘मुझे चांद चाहिए’ ने बिक्री के रिकार्ड बनाए। विभिन्न प्रकाशकों द्वारा प्रारंभ किए गए पेपरबैक सस्करणों को मिली लोकप्रियता यह बताती है कि हंदी क्षेत्र में लोग पढ़ना चाहते हैं, पर कमीशनबाजी और राज्याश्रय के रोग ने पूरे प्रकाशन उद्योग को जड़ बना दिया है। पाठकों तक विविध विषयों की पुस्तकें पहुंचाने की चुनौती से भागता प्रकाशन उद्योग न तो नए बाजार तलाशना चाहता है, न ही बदलती दुनिया के मद्देनजर उसकी कोई तैयारी दिखती है। प्रायः लेखकों की रायल्टी खाकर डकार भीन लेने वाला प्रकाशन उद्योग यदि इतने बड़े हिंदी क्षेत्र में पाठकों का ‘टोटा’ बताता है तो यह आश्चर्यनजक ही है।
पाठक और किताब का रिश्तों पर नजर डाले तो वह काफी कुछ बदल चुका है। प्रिंट मीडिया पर इलेक्ट्रानिक माध्यमों से लेकर तमाम सूचना आधारित वेबसाइटों के हमले और सामाजिक-आर्थिक दबावों ने किताबों और आदमी के रिश्ते बहुत बदल दिए हैं। किताबों ने तय तक कर लिया है कि व महानगरों में ही रहेंगी, जबकि हिंदुस्तान की एक बड़ी आबादी गांवों में रहती है। किताब पढ़ने का उनका संस्कार नहीं है, यह मान लेना भी गलत होगा बरना रामचरित मानस, पंचतंत्र, चंद्रकांता संतति जैसा साहित्य गांवों तक न पहुंचता। शायद किताबों का इस संकट में कोई कुसूर नहीं है। दुनिया के महानगरीय विकास ने हमारी सोच, समझ और चिंतन को भी ‘महानगरीय’ बना दिया है। वैश्वीकरण की हवा ने हमें ‘विश्व नागरिक’ बना दिया। ऐसे में बेचारी किताबें क्या करें ? बड़े शहरों तक उनकी पहुच है। परिणाम यह है कि वे (किताबें) विश्वविद्यालयों महाविद्यालयों के पुस्तकालयों की शोभ बढ़ा रही हैं। ज्यादा सुविधाएं मिलीं तो सरकारी या औद्योगिक प्रतिष्ठानों के राजभाषा विभागों, पुस्तकालयों में वे सजी पड़ी हैं। पुस्तक मेंलों जैसे आयोजन भी राजधानियों के नीचे उतरने को तैयार नहीं है। जाहिर है आम आदमी इन किताबों तक लपककर भी नहीं पहुच सकता।