Friday 5 July 2013

भारतीय इतिहास और उपन्यास


डॉ.शरद पगारे

उपन्यास जीवन की अभिव्यक्ति है। इतिहास अतीत के मानवीय क्रिया-कलापों का विश्लेषणात्मक लेखा-जोखा है। वह एक ऐसा आईना है जिसमें बीती हुई गतिविधियाँ और मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों की छवि जस-की-तस प्रस्तुत होती है। दोनों केन्द्र में मनुष्य है। दोनों उसका अध्ययन करते हैं। उपन्यास का क्षेत्र साहित्यिक होने से कल्पना के यथार्थ का समन्वय उपन्यास में देखा जा सकता है। जबकि इतिहास को यह स्वतंत्रता प्राप्त नहीं है। वह पूर्णरूपेण सत्यों पर आधारित है। कल्पना के यथार्थ के लिये इतिहास में कोई गुंजाइश नहीं है। वह सत्य और केवल सत्य पर ही आधारित है। इन सत्यों का विश्लेशणात्मक अध्ययन करना ज़रूरी हो जाता है।
प्रत्येक देश का इतिहास शासकों राजा का है। प्रत्येक देश का इतिहास शासकों राजा-महाराजाओं और इतिहास पुरूषों को सामने रख कर ही लिखा गया है। आम आदमी के लिये उसमें जगह नहीं है। जबकि उपन्यास किसी भी पात्र को नायक-नायिका बनाकर लिखा जा सकता है। उपन्यास लेखन के लिये इतिहास पुरूष या नारी की आवश्यकता नहीं है। वस्तुत-कभी-कभी उपन्यासकार इतिहास के प्रेरणादायी व्यक्तियों को लेकर उपन्यास की रचना करते हैं। उन्हें वे ऐतिहासिक सत्यों के साथ कल्पना के यथार्थ की मिश्रण कर उसे रोचक और जीवंत बना देते हैं। उपन्यासकार को एक और छूट मिली हुई है - वह अपने पात्रों का मनोविश्लेषण और अन्तरद्वंद्व भी प्रस्तुत करता है। जबकि यह सहूलियत इतिहासकार को प्राप्त नहीं है। वह तो परिस्थितियों से प्रेरित और प्रभावित इतिहास के नायक-नायिकाओं पर समाज के पड़ने वाले प्रभावों का आलोचनात्मक मूल्याँकन करता है।
इतिहास के पास प्रचुर सामग्री है, जिसका उपयोग समय-समय पर साहित्यकार करते रहते हैं। अन्य देशों की तुलना में भारत के पास अमूल्य और विस्तृत ऐतिहासिक सामग्री है। मानव की आदिम सम्यता के जन्म से लेकर बीसवीं सदी तक भारतीय मनुष्य ने जो यात्रा की है उसका एक बड़ा दस्तावेज विरासत के रूप में हमारे पास है। इसके साथ ही भारतीय इतिहास की एक और विशेषता है, जहाँ उसके पास अखिल भारतीय सामग्री है वह आँचलिक और क्षेत्रीय इतिहास में भी लेखा-जोखा प्रचुर मात्रा में मिलता है। इसका उपयोग समय-समय पर साहित्यकारों ने किया है।
न केवल भारतीय साहित्यकारों ने अपितु यूरोप के उपन्यासकारों ने भी ऐतिहासिक सामग्री का भरपूर दोहन किया है। यूरोपीय उपन्यासकारों ने सुदूर ही नहीं निकट अतीत की घटनाओं और पात्रों से प्रेरित होकर उपन्यास लिखे हैं । विश्व प्रसिद्ध उपन्यासकार चार्ल्सडिकिन्स ने फ्रांस की क्रांति से प्रभावित होकर दो शहरों की कहानी टेल ऑफ टू सिरिज नामक चर्चित उपन्यास लिखा। फ्रांसीसी उपन्यासकार एलिक्जेंडर डूरमा का नार्ट्रिडम का कुबड़ा और इस्टीफेन ज्वींग के मेरी क्वीन ऑफ स्कॉट एवं मेरी एन्टारनेट विश्व प्रसिद्ध उपन्यास हैं। रूस के महान उपन्यासकार टॉलस्टॉय ने फ्रेंच सम्राट नेपोलियन बोनापार्ट को नायक बनाकर युद्ध और शांति नामक बहुप्रशंसित उपन्यास लिखा। यूरोप के ऐतिहासिक उपन्यासों के नाम तो और भी प्रस्तुत किये जा सकते हैं परन्तु हम मूल विषय भारतीय इतिहास तक ही सीमित रहेंगे।
भारतीय उपन्यासकारों ने भी भारतीय इतिहास के पात्रों पर उपन्यास लिखे हैं। जैसा कि पूर्व में सूचित किया है, इस देश के इतिहास के पार बहमूल्य अकूत सामग्री है जिसका दोहन पूरी तरह से नहीं किया जा सका है। रांगेय राघव ने मोहन जोदड़ो के ऊपर उपन्यास लिखा। ईसा से भी 4 हज़ार वर्ष पूर्व सिन्धु घाटी की मोहन जोदड़ो और हड़प्पा की सम्यता का विकास हुआ था। यहाँ प्राप्त सामग्री और काल्पनिक यथार्थ के मिश्रण से मुर्दों का टीला नामक उपन्यास लिखा गया।
इतिहास के पास वास्तविक नायक-नायिकाएँ हैं। इतिहास में रहस्य, रोमांच, रोमांस और रूमानियत की बहुलता है। उसमें राजसी वैभव, विलास तथा शानो-शौकत की कमी नहीं है। मैगास्थनीज ने नन्द और मौर्य सम्राटों की जीवन शैली तथा राजप्रासाद का जो विवरण दिया है, वह अद्भुत है। उसने लिखा है कि मौर्य सम्राटों का राजप्रसाद वैभव में सुना, एक बटना और ग्रीक रोमन शासकों के राजमहलों को भी मात करता है। उसने पाटलीपुत्र के जनजीवन का भी विस्तुत वर्णन किया है। गुप्त साम्राट हर्षवर्धन के समय पर भी विस्तृत समग्री मिलती है। मुगलकालीन बाबर नामा, हुमायू नामा, आइने अकबरी मिलती है। अकबर नाम से मुगलों की शानऔ-शौकत का पता चलता है। साथ ही ईसा पूर्व की 6 ठी-शताब्दी से लेकर मराठा काल तक प्रेम कथायें बिखरी हुई है जिनका उपयोग उपन्यास लेखन के लिये किया जा सकता है।
एक इतिहासकार का तो कहना है कि कथाओं की अपेक्षा ऐतिहासिक विवरण अधिक मनोहारी और रोमांचक होते हैं। क्योंकि वे मानवीय महत्वाकाक्षांओं प्रेम जैसी संवेदनाओं और विलासी प्रवृत्ति के परिचायक है।
इतिहास की इस सामग्री का प्रचुर उपयोग गुजराती के महान उपन्यासकार कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने किया। उन्होंने गुजरात से और भारतीय इतिहास से सामग्री लेकर कालजयी उपन्यासों की रचना की है। इनमें बहुचर्चित बहुप्रशंसित और अनेक भारतीय, भाषाओं में अनुदित गुजरात के नाथ, जय सोमनाथ भारत का प्रमुख तथा राजाधिराज विशेष रूप से उल्लेखनीय है। मेरा तो यह मानना है कि इस देश के प्रत्येक प्रांत के इतिहास में ऐसी ऐतिहासिक सामग्री है जिसका उपयोग उपन्यास लिखने में किया जा सकता है। बंगाल के प्रसिद्ध उपन्यासकार विमल मित्र ने भी निकट अतीत के इतिहास पर बहुचर्चित उपन्यास दिये है जिनमें ब़िकी कौड़ियों के मोल, साहब बीबी और गुलाम तथा इकाई-दहाई सैकड़ा प्रमुख है।
अमृतलाल नागर ने भी दक्षिण के एक ऐतिहासिक कथानक पर सुहाग के नूपुर उपन्यास प्रस्तुत प्रमुख है। दक्षिण के कर्नाटक में एक ऐतिहासिक प्रणय कथा 9 वीं शताब्दी में घटित हुई जिसमें मालवा के धार नरेश महाराज मुंज और कर्नाटक राजा तैलब की बहन राकुमारी मृणालवती के बीच का प्रेम प्रकरण है। मुंज को युद्ध में हराने के बाद तैलब उसे कर्नाटक ले आया और बन्दीगृह में डाल दिया। मृणालवती ने उससे भेंट की और यह भेंट प्यार में बदल गयी । इसका पता चलने पर तैलब ने मुंज की हत्या करवा दी। इस प्रकरण पर बहुत ही सुन्दर रोमांटिक और रोमांचक उपन्यास लिखे जाने की पूरी संभावना है।
वैदिककालीन राजा विश्वामित्र कौशिक का चरित्र अद्भुत है। उनकी जीवन रेखा में कई मोड़ दिखायी देते हैं। वे गाधीराज के पुत्र होने से क्षत्रिय थे परन्तु महर्षि वरिष्ट की लोकप्रियता और श्रेष्टता तपस्या के दौरान मेनका से उनका सम्बन्ध हुआ, जिससे शकुन्तला पैदा हुई। उसने महाराज दुष्यन्त से प्रेम विवाह किया। विश्वामित्र ने विश्वप्रसिद्ध गायत्री मंत्र की रचना की सत्यवादी हरीशचन्द्र की कठोर परीक्षा की। ययाति पुत्री माधवी से भी उनका सम्बन्ध हुआ। अपने तप के बल पर महाराज त्रिशंकु को सदेह स्वर्ग भिजवा दिया। भगवान राम का विवाह उन्होंने करवाया। अतः इस अद्भुत चरित्र पर उपन्यास लिखे जाने की अपार संभावना है।
गुजरात के इतिहास में ऐसी पात्र की जानकारी मिलती है जिस पर उपन्यास लिखने की असीम संभावना है। 4 वीं शताब्दी में महाराज रामकरण सिंह वघेला गुजरात के शासक थे । उनकी महारानी कमल देवी अपूर्व सुन्दरी थी। राजकुमारी देवलदेवी अपनी माँ से भी ज़्यादा सुन्दरी थी। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने गुजरात पर हमला किया। युद्ध में रामकरण सिंह वघेला हार गये। अपनी बेटी देवल देवी के साथ उन्होंने देवगिरी नरेश शंकर देव के यहाँ शरण ली। उधर कमल देवी हमलावरों के हाथ पड़ गई। उसे दिल्ली भेज दिया गया। अलाउद्दीन ने उसे हरम में दाख़िल कर लिया। कमल देवी केउकसाने पर अलाउद्दीन खिलजी ने देवगिरी एक सेना भेजी। मुसलमानों को आता देख रामकरण ने अपनी बेटी की शादी राजकुमार सिंघन से कर दी। देवल देवी के सौन्दर्य से प्रभावित सिंघना भी उससे शादी करना चाहता था। रिवाज के मुताबिक देवल देवी जब देवी की पूजा करने मंदिर जाने लगी तब रास्ते में मुस्लिम सेना ने उसका अपहरण कर उसका डोला दिल्ली भेज दिया । सुलतान ने उसके विवाह अपने बेटे खिपर खान के साथ कर दिया। मलिक काफूर के दबाव में आकर सुल्तान ने खिपर खान और देवल रानी को ग्वालियर के किले में क़ैद कर लिया और अपने बेटे खेपर खान को अन्धा कर उसकी हत्या कर दी। देवल देवेी को दिल्ली लाया गया और उससे सुल्तान ने शादी कर ली। सुलतान के दूसरे बेटे ने मलिक काफूर की हत्या कर देवल रानी से निकाह किया। कुछ दिन बाद मुबारक शाह के गुलाम ने उसकी भी हत्या कर दी और देवल रानी से निकाह कर लिया। दिल्ली की इन हत्याओं और षड़यंत्रों से नाराज़ होकर लाहौर के सूबेदार गाजी दुगलक ने उस गुलाम को मार दिया और तुगलक राज्य की स्थापना की। देवल रानी इतिहास के अँधेरे में खो गयी। देवल रानी-खिजरखान की प्रणय कथा पर अमीर खुसरो ने एक ग्रन्थ लिखा । देवल रानी की सुन्दरता उसके लिये अभिशाप बन गयी। उसकी माँ कमल देवी ने जो त्रासदी सृजित की उस पर ऐतिहासिक उपन्यास लिखने की बहुत संभावना है। भारतीय इतिहास में इस प्रकार के अनेक पात्र मिलते हैं। उन पर ऐतिहासिक उपन्यास लिखे जा सकते हैं।
ऐतिहासिक उपन्यास एक काल खंड या समय में विशेष अभिव्यक्ति करता है। कोई भी उपन्यास मात्र नायक-नायिका को लेकर ही नहीं बुना जा सकता। उनके साथ ही उनसे संबधित पात्रों, तथा लोक जीवन के कुछ पुरूषों का उनसे समन्वय करना चाहिये। मूल कथा के साथ अन्तरकथाओं का बुनना ज़रूरी है। साथ ही समकालीन प्रकृति से भी उनका समन्वय होना चाहिये। एक कुशल लेखक प्रकृति के उतार चढ़ाव के माध्यम से पात्रों के मनोभावों का उदघाटन करते हैं। इतिहास का रोमांच और रहस्य कथा में रस घोलता है, उसे अतिरिक्त सौन्दर्य प्रदान करता है। आचार्य चतुर सेन शास्त्री का वैशाली की नगर बधू और वृंदावन लाल वर्मा की झांसी की रानी, मृगनयनी इसी श्रेणी के उपन्यास है। दुर्भाग्य से भारतीय इतिहास का जितना उपयोग करना चाहिये नहीं किया गया । विश्वास है कि भावी साहित्यकार और उपन्यासकार भारतीय इतिहास का समुचित उपयोग कर हिन्दी साहित्य को कालजयी उपन्यास देंगे। (srijangatha.com से साभार)

‘मैं मैड्रिड से हेमिंग्वे बोल रहा हूँ’


मनीषा पांडेय

उन्नीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक ने अभी दस्तक ही दी थी कि पूरी दुनिया युद्ध की लपटों में जल उठी। यह शुरुआत थी - प्रथम विश्व युद्ध की। अमरीका का एक युवा पत्रकार, जिसने उस समय अपने करियर की शुरुआत ही की थी, युद्ध की रिपोर्टिंग कर रहा था। लेकिन शायद सिर्फ इतना उसकी तड़प को शांत करने के लिए काफी नहीं था। हालाँकि पिता इसके सख्त खिलाफ थे, लेकिन युवा पत्रकार ने सेना में भर्ती होने की ठान ली थी। वह युद्ध की विभीषिका को और नजदीक से देखना-महसूस करना चाहता था। लेकिन वह सेना में नहीं जा सका। उसकी दृष्टि कमजोर थी। वह सेना के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया।
लेकिन उसके बाद इटली की सीमा पर रेड क्रॉस के कार्यकर्ताओं के साथ उसे दिन-रात घायलों की सेवा करते देखा गया। वह व्यक्ति अर्नेस्ट हेमिंग्वे था - उन्नीसवीं शताब्दी का एक महानतम लेखक और बुद्धिजीवी, जिसने आगे चलकर ‘द ओल्ड मैन एंड सी’, ‘ए फेयरवेल टू आर्म्स’ और ‘फॉर व्हूम द बेल टॉल्स’ जैसी उन अविस्मरणीय कृतियों की रचना की, जो मानव सभ्यता की इमारत में नींव का पत्थर हैं।
उन्नीसवीं सदी पूरी दुनिया में साहित्यिक और कलात्मक उत्थान की सबसे सुनहरी सदी थी। दो महायुद्धों की विभीषिका ने सभ्यता और सृजन में मनुष्य की आस्था को और गहरा किया। वही आस्था, जो तमाम संत्रासों के बावजूद हेमिंग्वे की रचनाओं में नजर आती है, जो अल्बेयर कामू के प्लेग में है, स्टीफेन ज्विग के उपन्यासों और रिल्के की कविताओं में है।
21 जुलाई, 1899 को शिकागो के उपनगर ओक पार्क में अर्नेस्ट मिलर हेमिंग्वे का जन्म हुआ था। हेमिंग्वे से अठारह महीने बड़ी एक बहन भी थी। बहुत कोमल और संवेदनशील माँ ग्रेस के गले में सुर था और हृदय में संगीत। लेकिन अठारहवीं सदी के सामंती समाज में एक स्त्री की नियति से लड़कर निकल पाना इतना आसान भी न था। पति और परिवार की जिम्मेदारियों के बोझ से लदा जीवन कठिन था। हालातों ने उसे मनोरोगी बना दिया था। हेमिंग्वे को कला के बुनियादी संस्कार अपनी माँ से ही मिले। लंबे-लंबे बालों वाले अर्नेस्ट को बचपन में माँ फ्रॉक पहनाकर और लड़कियों की तरह सजाकर रखा करती थी।
हेमिंग्वे कभी कॉलेज नहीं गए। मार्कशीट और नंबरों वाली पढ़ाई का उसके लिए कोई खास अर्थ नहीं था। इसके बजाय उसने ‘द कैनस सिटी स्टार’ में बतौर रिपोर्टर नौकरी कर ली, और यहीं से उसके लिखने की शुरुआत हुई। हेमिंग्वे ने प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान गोला-बारूद और तोप की गूँजों के बीच युद्ध की रिपोर्टिंग की थी। लेकिन मृत्यु से उसका पहला साक्षात्कार बहुत भयावह था। इटली में मिलान की सीमा पर पहली बार उसने युद्ध के नृशंस परिणाम देखे। चारों ओर खून से लथपथ क्षत-विक्षत लाशें पड़ी थीं और उसने अपने हाथों से इन लाशों को ढोया। हालाँकि उसकी आने वाली जिंदगी में मृत्यु का यह भयावह मंजर कई बार दोहराया जाना था।

यूरोप की चुनिंदा किताबें अब मातृभाषा में भी


श्रुति अग्रवाल

कहते हैं जिस भाषा में हम स्वप्न देखते हैं या जिस भाषा में अपना दुःख व्यक्त करते हैं वही हमारी अपनी भाषा होती है। उसी भाषा में व्यक्त की गई संवेदनाएँ हमारे अंतर्मन को गहराई से छू सकती हैं...इससे हमारा लगाव और जुड़ाव इस कदर होता है कि हम भले ही किसी दूसरी भाषा का जामा पहन लें लेकिन इसे खुद से जुदा नहीं कर सकते ।
आधुनिक युग की नींव योरपीयन और पश्चिमी साहित्य ने रखी है। उनका यह भी मानना था कि हिन्दुस्तानी लोग पश्चिमी साहित्य के गूढ़ वाक्यों में छिपे जिंदगी के अनूठे रहस्यों को तभी समझ पाएँगे जब ये साहित्य उन्हें उनकी अपनी भाषा अर्थात हिन्दी में उपलब्ध होगा।
अनगढ़ शब्दों के कुशल रचियता आलोक श्रीवास्तव इस कथन की सत्यता पहचानते थे। साथ ही वे मानते थे कि आधुनिक युग की नींव योरपीयन और पश्चिमी साहित्य ने रखी है। उनका यह भी मानना था कि हिन्दुस्तानी लोग पश्चिमी साहित्य के गूढ़ वाक्यों में छिपे जिंदगी के अनूठे रहस्यों को तभी समझ पाएँगे जब ये साहित्य उन्हें उनकी अपनी भाषा अर्थात हिन्दी में उपलब्ध होगा।
इसी विचार के बाबद उन्होंने नींव रखी ‘संवाद प्रकाशन’ की, जिसके तहत वे अब तक 100 से ज्यादा विदेशी उपन्यासों का हिन्दी भाषा में अनुवाद करवा चुके हैं। इस पहल के कारण ऐसे सुधी पाठक जो इंग्लिश या अन्य यूरोपियन भाषा का अच्छा ज्ञान नहीं रखते, वे उनके साहित्य से रू-ब-रू हो पाए।
वेबदुनिया से बातचीत में आलोक श्रीवास्तव ने बताया कि अब तक अनुवादित हो चुकी किताबों में से कुछ ऐसी हैं, जो उनके दिल के बेहद करीब हैं। इनमें पश्चिम के आधुनिक नृत्‍य-कला को जन्‍म देने वाली इजाडोरा डंकन की आत्मकथा 'माय लाइफ' शामिल है। इजाडोरा ने अपनी इस आत्मकथा में खुद की जिंदगी को बेहद खूबसूरत शब्दों में पिरोया है, जिस पर उसके व्यक्तित्व और कवि मन की गहरी छाप नजर आती है।
वहीं आलोक के प्रयासों के कारण फ्रांस के प्रसिद्ध साहित्यकार विक्‍टर ह्यूगो का ला-मिजाराबेल नामक उपन्यास भी हिन्दी भाषा में उपलब्ध है। गौरतलब है कि इस उपन्यास ने विश्व पटल के अनेक महान नेताओं को उनके जीवन का मकसद दिखाया है। इसके अलावा उनके पास एक लंबी फेहरिस्त है जिसमें विश्व की बेहतरीन किताबें शामिल हैं।
अपने अथक प्रयासों के बाद भी आलोक अपनी उपलब्धियों से खुश नहीं हैं। उनके दिलो-दिमाग में ऐसी कई किताबें छाई हुई हैं जिनको वे हिन्दी भाषा में अनुवादित करवाना चाहते हैं। लेकिन इनमें से कुछ को वे समय और पूँजी की कमी के कारण तो कुछ को कॉपीराइट एक्ट के कारण हिन्दी में अनुवादित नहीं कर पा रहे हैं।
इसके साथ ही उन्हें हिन्दी जगत के पाठकों से भी खेद है कि वे पुस्तकों की महत्ता नहीं समझते ...अन्य भाषाओं की तुलना में हिन्दी में पाठक संख्या बेहद कम है। इसके साथ ही ऐसा कोई जरिया भी नहीं जहाँ बेहतरीन हिन्दी साहित्य को लोगों तक पहुँचाया जा सके।
इसके साथ ही उन्हें हिन्दी जगत के पाठकों से भी खेद है कि वे पुस्तकों की महत्ता नहीं समझते ...अन्य भाषाओं की तुलना में हिन्दी में पाठक संख्या बेहद कम है। इसके साथ ही ऐसा कोई जरिया भी नहीं जहाँ बेहतरीन हिन्दी साहित्य को लोगों तक पहुँचाया जा सके। रेलवे स्टेशन के व्‍हीलर पर सस्ता साहित्य पसंद किया जाता है वहीं सर्वोदय के स्टॉल पर गाँधीवादी और आध्यात्म का संसार ही नजर आता है।
इन सबके बीच हिन्दी साहित्य में चल रहा घटनाक्रम आम लोगों के बीच सही तरह से पहुँच ही नहीं पाता, लेकिन इन सभी नकारात्मक परिस्थितियों के बावजूद आलोक का रचनात्मक सफर जारी है...उन्हें विश्वास है कि एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब हिन्दी में सुधी पाठकों की संख्या में खासा इजाफा होगा। और यूरोप का ऐसा साहित्य जिसने यूरोप में जागृति की अलख जगाई थी। उसके प्रकाश से हिन्दुस्तान भी रोशन होगा। और वे गाब्रिएल गार्सिया मार्खेज की लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा और हेमिंग्‍वे की आत्मकथा जैसी खूबसूरत किताबों को भी हिन्दी में अनुवादित करवा पाएँगे।

मेरा दागिस्तान - रसूल हमज़ातोव


अगर किसी को काम हमारा लगे शहद जैसा
वह कूबाची में देखे सचमुच वह कैसा।
मैं गुलाम हूँ अपनी इन कविताओं का
श्रम करता रहता डटकर
हाड़ तोड़ता, कमर झुकाता
रात-दिवस, बहे पसीना माथे पर
फिर भी मेरी मालिक, मेरी कविताएँ मुझसे तुष्ट न हो पातीं,
बहुत रात को ,बहुत देर से वे मुझको जब मन आता, दौड़तीं।
मैं रिक्शा हूँ, मेरी दोनों बगलों से, बम भिड़ते है, टकराते,
जहाँ-तहाँ से मेरी त्वचा उधड़ जाती, वे धचके दे, धकियाते।
पहिए, जिनसे जुता हुआ चिर तन मेरा भारी ही होते जाते।

वह घटना बहुत पहले घटी थी, मगर मुझे आज भी वह इतनी अच्छी तरह और इतनी साफ तौर पर याद है मानो कल ही घटी हो। मैं तो इस पर एक कविता भी रच चुका हूँ, मगर यहाँ दोहराए बिना नहीं रह सकता।
दाग़िस्तान के कवि हमज़ात का मै बेटा, जिसे उस वक़्त कोई नहीं जानता था, अपना गाँव छोड़कर पहले मख़चक़ला और फिर मास्को चला गया। साल बीते। मैने साहित्य-संस्थान की पढ़ाई समाप्त की, दस कविता-सग्रंह निकाल दिए। एक संकलन के लिए मुझे स्तालिन पुरस्कार भी मिल गया। मैंने शादी की। थोड़े में यह कि कवि रसूल हमज़ातोव बन गया। तभी मेरे दिल में फिर से अपने गाँव जाने का ख़्याल आया।
सारा-सारा दिन मैं उन जगहों पर घूमता रहता, जहाँ कभी बचपन और किशोरावस्था में भागा फिरता रहा था। मैं चट्टानों और गुफाओं को देखता, लोगों से बातें करता, निर्झरों के गीत सुनता, क्रब्रिस्तान में चुपचाप बैठा रहता फिर से खेतों में घूमने लगता। सं. रा. अमरीका में मैने फ़ोर्ड कारख़ाने में वह जगह देखी, जहाँ नई कारों की आजमाइश की जाती है। लेखन के लिए ऐसा परीक्षणस्थल वह होना चाहिए, जहाँ उसका जन्म हुआ है। औरतें गेहूँ के खेतो में निराई करके घर लौट रही थीं। वे थकी-हारी और धूल से लथपथ थीं, पैनी घास से उनके हाथों पर खरोंबे आ गई थीं, उनके पास गया।
मालूम नहीं कि या तो मुझे देखकर वे मेरी चर्चा करने लगी थीं या पहले से ही मेरा जिक्र छिड़ा हुआ था, मगर अचानक मैने मुट्ठीभर घास से माथे पर पसीना पोंछनेवाली नारी को यह कहते सुना- “अगर मुझसे कोई यह पूछता कि मैं सबसे अधिक क्या चाहती हूँ, तो मेरा जवाब होगा-रसूल हमज़ातोब का बेफ़िक्र दिल और उसके जैसी मज़े की जिन्दगी।“
“तुम क्या समझती हो कि रसूल के सीने में दिल की जगह पनीर का टुकड़ा है और वह कभी नहीं कसकता?” मेरी एक रिश्तेदार ने मेरा पक्ष लिया। पनीर का टुकड़ा तो चाहे न हो, मगर फिर भी उसे गेहूँ के खेत की निराई नहीं करनी पड़ती। सामूहिक काम की घंटी उसे नहीं बुलाती और दोपहर का खाना खाने की अनुमति नहीं देती। उसे यह मालूम नहीं कि श्रम-दिवस किसे कहते हैं, कैसे उसके लिए काम किया जाता है और क्या मुआवज़ा मिलता है। मज़े से अंट-शंट, अल्लम-गल्लम लिखता रहता है....उसे किस बात की चिंता हो सकती है ?’’
ओ भलीमानस ! कैसे मैं तुम्हे अपने काम, अपने अभिमान और कठिन श्रम के बारे में बताऊँ? उदास-उदास-सा मैं खेत से गाँव की ओर चला गया। गावँ के चौपाल मै पके बालों वाले बुजुर्ग ठंडे को गर्म रहे है। बड़े इतमीनान से वे आपस में ज़मीन, भावी फसल, पहाड़ों, चरागाहों, बीमारियों और जड़ी-बूटियाँ तथा हमारे गावँ के बीते दिनों की चर्चा कर रहे थे। मैं उनके पास गया, सलाम-दुआ की ओर ठड़े पत्थर पर बैठ गया। एक बुज़र्ग के पास ताज़ा अखबार था, जिसमें मेरी कविता छपी थीं। उन्ही के बारे में बातचीत होने लगी। घुडसवार को अपने घोड़े की तारीफ़ से खुशी होती है। मुझे भी उम्मीद थी कि मेरे गाँववासी अभी मेरी कविता की प्रशंसा करेंगे। बात यह है कि मास्को और मख़चकला में मै तारीफ़ सुनने का आदी -सा हो चला था। उस बुजुर्ग ने, कहा जिसके हाथ में अखबार था, कहा- ’’तुम्हारे पिता हमज़ात कविता रमते थे। तुम, हमज़ात के बेटे भी कविता लिखते हो। तुम काम कब करोगे? या तुम रोटी के टुकड़े से कुछ अधिक भारी चीज उठाए बिना ही अपनी सारी जिन्दगी बिता देने को इरादा रखते हो?’’
’’कविता ही तो मेरा काम है,’’ मैने यथाशत्ति धीरज से जवाब दिया। बातचीत के ऐसे रूख ले लेने पर मैं सकते में आ गया था।
’’अगर कविता लिखना ही काम है, तो निठल्लापन किसे कहते हैं? अगर गीत ही श्रम है, तो मौज और मनोंरजन क्या है?’’
’’गीत गानेवालों के लिए वह सचमुच मनोंरजन हैं, मगर जो उन्हे रचते हैं, उनके लिए वही काम है। नींद और आराम, साप्ताहिक और वार्षिक छुðियों के बिना काम। मेरे लिए काग़ज वही मानी रखता है, जो खेत तुम्हारे लिए। मेरे शब्द-मेरे दाने हैं। मेरी कविताएँ-मेरे अनाज की बालें है।’’
’’हाँ, ये सब तो बहुत सुन्दर शब्द हैं। खेत मेरे घर की छत पर नहीं आ जाता। मुझे खेत में काम करने जाना पड़ता है। मगर तुम तो कहीं क्यों न हो, चाहे बिस्तर में ही, गीत अपने आप ही तुम्हारे घर पर दस्तक देता है। इसका मतलब यह है कि हर गीत एक पर्व है। मगर हमार खेत तो रोज़मर्रा की आम ज़िन्दगी है।’’ हमारे गाँव के बुजुर्गों ने इस तरह या लगभग इस तरह अपने विचार प्रकट किए।
’’मगर गीत ही तो मेरी ज़िन्दगी है।’’
’’इसका यह मतलब है कि तुम्हारी जिन्दगी तो स्थाई पर्व है। बात यह है कि गीत तो पतिभा का मामला है। जिसके पास प्रतिभा है, उसके लिए अच्छा गीत रचना बहुत आसान काम है। मगर जिसके पास उसकी कमी है, उसे श्रम करना पड़ता है। हाँ, इस सम्बन्ध में श्रम सें बहुत लाभ नहीं होता।’’
’’नहीं, आपकी बात सही नहीं है। जिसके पास कम प्रतिभा होती है, वह कला को बच्चों का खेल समझता है। वही एक गीत से दूसरे गीत पर उड़ता फिरता है। जैसा कि कहा जाता है। घास काटता है। बड़ी प्रतिभा के साथ-साथ उसके प्रति ज़िम्मेदारी भी आती है और वास्ततिक प्रतिभावाला व्यक्ति अपनी कविताओं को बहुत कठिन और महत्वपुर्ण काम मानता है। गाई जानेवाली हर चीज़ गीत नहीं होती, सुनाई जानेवाली हर चीज़ कहानी नहीं होती, सुनाई जानेवाली हर चीज़ कहानी नहीं होती।’’
’’तो बताओ कि तुम कैसे काम करते हो और तुम्हारे धन्धे में क्या कठिनाइयाँ होती हैं?’’ मेरे इर्द-गिर्द बुज़ुर्ग हलबाहे बैठे थे।
मैं उन्हें अपने काम के बारे में बताने लगा, मगर जल्दी ही यह समझ गया कि मेरे लिए बहुत ही साधारण बातों को, जिन्हे मै बहुत ही अच्छी तरह समझता हूँ, दुसरों को समझना मुश्किल है। मै अटकने और बेचैनी महसूस करने लगा और खामोश हो गया। बाज़ी बुज़ुर्गों के साथ रही थी। मैं उन्हें यह नहीं समझा पाया कि कविता पाया कि रचना क्यों मुश्किल है और कुल मिलाकर कविता रचना काम ही पाया है। तब से अब तक बहुत साल बीत चुके हैं। मगर आज भी अगर कोई मुझसे यह पूछता कि मेरा काम क्या है, कि वह क्यों मुश्किल कामों से कैसे भित्र है, तो शायद मैं साफ़ तौर पर यह न समझा पाता। मेरे काम की जगह कहाँ है, मेज़ पर, हाँ, काम की मेज पर। मगर सैर के वक़्त वह पहाड़ी पगडंडी पर भी होती है, जब मैं अपनी कविता की कल्पना करता हूँ और शब्द तथा ध्वनियाँ मेरे पास आती हैं, मगर मैं उन्हें ठुकराकर एक तरफ़ कर फेंक देता हूँ। मेरे काम की जगह रेलगाड़ी भी है, जिससे बैठकर मैं किसी दूसरे देश को जाता हूँ कारण की इस वक्त भी मेरे दिमाग़ में नई कविता के विचार आ सकते है। हवाई जहाज, ट्राम, लाल चौक, नदी-तट, जगंल और किसी मंत्री का स्वागत-कक्ष भी मेरे काम की जगह हो सकती है।
पृथ्वी पर हर जगह ही मेरा कार्य-स्थल, मेरा खेत है, जहाँ में रहता और हल चलाता हूँ। किसी वक्त मैं काम करता हूँ ? सुबह को या शाम को ? कितना बडा़ है मेरा कार्य-दिवस ? आठ घटें का या छह घटें का या इससे अधिक के कार्य-दिवस के लिए संघर्ष क्यों नहीं करता ? बात यह है कि जब से मुझे होश है, मैं हमेशा ही काम रहा हूँ। खाने के वक्त और थिएटर में बैठक में और शिकार के समय, चाय पीते और मातम मनाते हुए भी, मोटर में और शादी के मौके पर भी। यहाँ तक कि नींद में कविता की पंक्तियाँ, उपमाएँ और विचार तथा कभी-कभी तो तो पूरी तैयार कविताएँ दिखाई देती हैं। इसका मतलब यह है कि नींद में भी मेरा कार्य-दिवस जारी रहता है। बहुत पहले ही हड़ताल कर देनी चाहिए थी मुझे।
मै कैसे काम करता हूँ ? इस सवाल का जवाब देना सबसे ज़्यादा मुश्किल है। कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि मेरा काम दूसरे सभी लोगों के काम के समान है। कभी-कभी मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि वह बिल्कुल अनूठा है और दुनिया के लोग जितने भी काम कर रहे है, उनमें से किसी के साथ भी इसकी तुलना नहीं की जा सकती।
कभी-कभी मैं महसूस करता हूँ कि इर्द-गिर्द सभी लोग काम करते है और मैं अकेला ही कुछ नहीं करता। कभी-कभी मुझे ऐसी अनुभूति होती है कि सिर्फ मैं ही काम करता हूँ और मेरी तुलना में बाकी सभी निठल्ले हैं।
पक्षियों के बड़े मजे हैं। वे जिन्दगीभर यही गीत गाते रहते है, जो उनके माँ-बाप उन्हें सिखा देते हैं। नदी भी मौज करती है। हज़ारों साल से वह एक ही धुन गाती चला जा रही है। मगर मुझे तो अपनी छोटी-सी ज़िदगी में इतने गीत रचने हैं, जो बहुत सालों तक काफ़ी हों।

आमीन एक नन की आत्मकथा


1956 में केरल प्रदेश के त्रिशूर में जन्मी मेमी राफ़ेल, बाद में सिस्टर जेस्मी, अपने माता-पिता की चौथी संतान थीं। त्रिशूर और पालक्काड से उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई। जून, 1974 में, उन्होंने धार्मिक प्रशिक्षण लेना आरंभ किया, मगर विशेष अनुमति पाकर उन्होंने भारत सरकार से प्राप्त मेरिट स्कॉलरशिप पर एम फ़िल एवं पीएच डी की। 1980 से वे त्रिशूर के दो कैथोलिक कॉलेजों में शिक्षण कार्य कर रही हैं: तीन-तीन साल तक एक में वे वाइस-प्रिंसीपल रही और दूसरे में प्रिंसीपल। अगस्त, 2008 में जेस्मी ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के लिए कॉलेज मे प्रार्थनापत्र दे दिया।
31 अगस्त , 2008 को सिस्टर जेस्मी ने कॉन्ग्रीगेशन ऑफ़ कार्मेल’ छोड़ दिया। उनका कहना है कि धर्माधिकारियों द्वारा उन्हे विक्षिप्त करार दिए जाने के प्रयासों ने उनके सामने और कोई रास्ता नही छोड़ा था। भारत में लिखी गई अपनी तरह की इस पहली पुस्तक में एक नन के रूप में सिस्टर जेस्मी की तैंतीस साल की ज़िंदगी के अनुभवों का बेबाक ब्योरा है। कैथोलिक मत में गहरी आस्था रखने वाले एक अच्छे परिवार की, ज़िंदगी से भरपूर और खिलंदड़े स्वभाव की जेस्मी सत्रह साल की उम्र में जूनियर कॉलेज में आयोजित एक रिट्रीट (धार्मिक एकांतवास) में भाग लेने के बाद धार्मिक जीवन की ओर अकर्षित हुईं। कॉन्वेंट में सात साल तक एक नन के रूप में करनें के बाद सिस्टर जेस्मी वहां पनपती अनेक बुरासइयों के बारे में खा़मोश रहने पर मजबूर किए जाने पर हाताश हो उठीं कॉलेज में दाखिले के लिए चंदा लिए जाने के रूप में भ्रष्टाचार व्याप्त था: कुछ पादरियों और ननों के बीच और कुछ ननों के आपस में भी जिस्मानी संबंध थे: वर्ग-भेद था-जिसकी वजह से चेडुथियों (ग़रीब और अल्पशिक्षित नन) को तुच्छ काम करने पड़ते थे। इतना ही नही, पादरियों और ननों को मिलने वली सुख-सुविधाओं में भी बहुत ज्यादा फ़र्क़ था। आध्यात्मिक और संवेदनशील आमीन चर्च में सुधार लाने की एक अपील है और एक ऐसे समय में सामने आई, जब ननों और पादरियों को लेकर चर्च की चिंताएं बढ़ा रही थीं। यह आत्मकथा कॉन्वेंट की चारदीवारी के बाहर रहकर भी नन की तरह जीवनयापन करती जेस्मी की जीज़स और चर्च में अटूट निष्ठा और आस्था पर मुहर लगाती है।

पहली महिला शासक की दास्तां - सुल्तान रजिया


इस औपन्यासिक जीवनी दर्ज इतिहास में देश की पहली महिला शासक रजिया सुल्तान की जीवनगाथा है। बेहद रोचक शैली में लिखा गया यह उपन्यास उस समय की दिल्ली और राजनीतिक हालात के बारे में गहरी जानकारी देता है। मात्र चार वर्ष दिल्ली पर राज करने के दौरान रजिया को किन हालात का सामना करना पड़ा और अपने ऊपर लगभग थोपे गए शासन के कारण उसकी निजी इच्छाएं और संवेदनाएं कैसे बली चढ़ीं, इस सबका ब्योरा अपने आप में इतिहास का एक बेहद मर्म पहलू है। कथा से रजिया सुल्तान के बारे में बने हुए कई मिथक भी खंडित होते हैं, जो गाहे-बगाहे सुनी-सुनाई बातों और सिनेमाई कारणों से बन चुके हैं।

एक संघर्ष गाथा - ऋचा

पुस्तक अनेकता में एकता को जोड़ लाने का प्रयास है। पुस्तक के पीछे की कहानी भी उत्तर प्रदेश के एक दूर-दराज इलाके के संघर्षशील लोगों के अथक श्रम का ब्योरा देती है। मनरेगा के अंतर्गत काम कर रहे कामगारों से जुड़े कई और सच भी हैं, जिन पर से पर्दा यदा-कदा ही उठता है। उनके संघर्ष के साथी कई स्वयंसेवक भी हैं, जो हर पल, हर कदम उनका साथ निभा रहे हैं। ऐसी ही दो कार्यकर्ता युवतियों ने यह संघर्ष का रोजनामचा तैयार किया है। पुस्तक में अगर एक हिस्सा वहां के संघर्ष की डायरी है तो अन्य हिस्सों में अभियान में आने वाले बदलावों से जुड़े सच और एक नाटक भी है, जिसने प्रेरणा स्रोत के तौर पर काम किया।

ग्रीन गेबल्स की ऐनी - एलएम मोंटगॉमरी


लूसी मॉड मोंटगॉमरी की विश्वप्रसिद्घ रचना ‘ऐनी ऑफ ग्रीन गेबल्स’ का यह हिन्दी अनुवाद बीसवीं सदी के पश्चिमी जगत के आईने के तौर पर भी काम करता है। कोमल मानवीय भावनाओं से ओत-प्रोत यह कहानी एक नन्हीं-सी बच्ची की जीवनगाथा है, जो अपने दत्तक माता-पिता के यहां छुटपन में ही आ जाती है और वहीं से उसके दुनियावी और आत्म संघर्ष की शुरुआत भी होती है। बेहद मर्मस्पर्शी इस कहानी में तात्कालिक सामाजिक-राजनीतिक उतार-चढ़ाव भी दिखते हैं और प्रेम का अहसास भी, जिन सब से होकर नायिका मानव जीवन के विरोधाभासों को समझती है और धीरे-धीरे एक संपूर्ण परिपक्व मानव व्यक्तित्व को प्राप्त करती है। 1908 ई. में प्रकाशित ग्रीन गेबल्स की ऐनी दुनिया की सबसे ज्यादा पढ़ी और पसंद की जाने वाली किताबों में शुमार हो गई हैं इसका अनुवाद बीस से भी भाषाओं में हो चुका हैं और इसकी पचास मिलियन से भी ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं।

दुनिया को झकझोर देने वाले पांच खतरनाक सेक्स डिसऑर्डर!


हट कर विकृत सेक्स व्यवहार का प्रदर्शन करने लगता है। वैसे, प्रसिद्ध सेक्स मनोवैज्ञानिक हैवलाक एलिस का कहना है कि मनुष्य के सेक्स व्यवहार का कोई बना-बनाया ढांचा नहीं है। सेक्स क्रिया आनंद प्राप्ति का एक साधन है, लेकिन विकृत सेक्स व्यवहार समाज में सेक्स अपराधों को बढ़ावा देने लगता है। पीडोफीलिया - यह एक बहुत ही सीरियस और खतरनाक सेक्स विकृति है। इससे ग्रस्त लोग कम उम्र के लड़के-लड़कियों को अपना शिकार बनाते हैं। बहुत से परवर्ट तो छ: माह से ले कर साल-दो साल के शिशुओं के साथ बलात्कार कर उनकी हत्या कर डालते हैं। इस तरह की खबरें लगातार मीडिया में आती रहती हैं। दुनिया भर में न जाने कितने रेपिस्ट और सीरियल किलर हो चुके हैं जिन्होंने मासूम बच्चियों को हवस का शिकार बनाया है। पीडोफील पांच से ले कर आठ-दस साल के बच्चों के साथ भी सेक्स संबंध बनाते हैं। हमारे देश में वेस्टर्न कंट्रीज से काफी संख्या में ऐसे टूरिस्ट आते हैं जो पीडोफील होते हैं। इनकी विकृत कामवासना को पूरा करने के लिए चाइल्ड सेक्स का एक संगठित कॉमर्शियल नेटवर्क बन गया है। पीडोफील चाइल्ड पोर्न देख कर भी आनंद प्राप्त करते हैं। दुनिया भर में चाइल्ड पोर्न प्रतिबंधित है, पर इसका अंडरवर्ल्ड मार्केट बढ़ता ही जा रहा है। सैडिज्म - मार्क्विस द साद (1740-1814) के उपन्यासों में वर्णित कथानकों के आधार पर इस सेक्स विकृति का नाम पड़ा। इससे पीड़ित लोग सेक्स करने के पहले अपने पार्टनर को शारीरिक कष्ट पहुंचाते हैं, बेल्ट से पीटते हैं, यहां तक कि हाथ-पैरों को बांध कर मुंह पर पट्टी भी लगा देते हैं। सेक्स करने के दौरान पीड़ा से बिलबिलाती औरत को देखने से इन्हें काफी संतुष्टि मिलती है। कई तो अपनी प्रेमिकाओं को घायल तक कर डालते हैं। उपन्यासकार लूसियन ने लिखा है, ''जिसने अपनी प्रेमिका पर मुक्कों की बौछार नहीं की और उसके बालों और कपड़ों को नहीं फाड़ा, वह प्रेमी क्या खाक है?'' हैवलाक एलिस ने 'सेक्स का मनोविज्ञान' में रीडेल नामक युवक का उल्लेख किया है जिसने समलैंगिक सेक्स के दौरान एक लड़के की हत्या कर दी थी। यूरोप में हत्यारा जैक कुख्यात था जिसने न जाने कितनी महिलाओं की हत्या सेक्स करने के दौरान कर दी। लोलिता सिंड्रोम - इस शब्द का इस्तेमाल उन लोगों की सेक्स विकृति की पहचान के लिए किया जाता है जो प्रौढ़ होने के बावजूद किशोर लड़कियों के प्रति आकर्षण महसूस करते हैं और उनके साथ सेक्स संबंध बनाने के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं। यह नाम प्रसिद्ध रूसी उपन्यासकार व्लादीमीर नाबाकोव के अंग्रेजी में लिखे विश्व प्रसिद्ध उपन्यास 'लोलिता' से लिया गया है जिसका मुख्य पात्र किशोर होती नायिका के प्रति आवेगपूर्ण आकर्षण में बंधा है और आखिरकार उसके साथ लगातार सेक्स संबंध बनाने में सफल रहता है। हमारे देश में इसका चर्चित उदाहरण एसपीएस राठौड़ द्वारा उभरती टेनिस खिलाड़ी रुचिका गेहरोत्रा के साथ लगातार छेड़छाड़, सेक्स संबंध बनाने के लिए दबाव और इससे इनकार करने पर उसके इस हद तक मानसिक उत्पीड़न में मिला कि आखिरकार परेशान हो कर रुचिका ने आत्महत्या कर ली। राठौड़ जब रुचिका का यौन उत्पीड़न कर रहे थे, उस वक्त हरियाणा के डीजीपी थे। लोलिता सिंड्रोम से ग्रस्त लोग अपने शिकार को फांसने के लिए बाकायदा पूरी योजना बनाते हैं और अपनी फैंटेसी को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं। जानवरों के साथ सेक्स - जानवरों के साथ सेक्स करने की खबरें समय-समय पर आती रहती हैं। अक्सर बकरियों, बछड़ियों, भेड़ों आदि के साथ सेक्स करते लोगों को पाया जाता है। खजुराहो में भी ऐसे भित्तिचित्र मिले हैं जो इस बात को प्रमाणित करते हैं कि प्राचीन काल में भी जानवरों के साथ सेक्स किया जाता था। 'सेक्स का मनोविज्ञान' में हैवलॉक एलिस लिखते हैं कि सुअरनी के साथ सेक्स करने के मामले में जब एक जर्मन किसान को पकड़ गया तो उसने मैजिस्ट्रेट से साफ कहा कि पत्नी काफी समय से बाहर गई हुई है, इसलिए अपनी सुअरनी का उपयोग किया। औरतों द्वारा भी जानवरों के साथ सेक्स करने के अनेकों उदाहरण मिलते हैं। एलिस लिखते हैं, ''सेक्स के लिए मुर्गियों, बत्तखों और विशेषकर चीन में हंसनियों का प्रयोग भी असाधारण नहीं है।'' जानवरों के साथ सेक्स करने में संक्रमण और गंभीर यौन रोगों के होने का खतरा रहता है, साथ ही यह पशुओं के प्रति एक क्रूर अपराध भी है। वैसे, जानवरों के साथ सेक्स के मामले ज्यादातर देहातों में पाये गये हैं। शव के साथ सेक्स - सेक्स विकृतियों में यह सबसे गंभीर है। इस विकृति से पीड़ित व्यक्ति शवों के प्रति गजब का सेक्स आकर्षण महसूस करता है। यद्यपि यह प्रवृत्ति आमफहम नहीं है, पर है बड़ी खतरनाक। इससे ग्रस्त व्यक्ति पहले लड़की अथवा औरत की हत्या करता है और फिर शव के साथ सेक्स संबंध बनाता है। दिसंबर, 2006 में सामने आये नोएडा का कुख्यात निठारी कांड इसका एक उदाहरण है। इस कांड के मुख्य अभियुक्त पंधेर का नौकर सुरेन्द्र कोली निठारी गांव की कम उम्र लड़कियों को बहला-फुसला कर कोठी में लाता था और नाक-मुंह बंद कर उनकी हत्या करने के बाद शव के साथ सेक्स करता था। यह उसने स्वीकार भी किया है। यही नहीं, शिकार लड़कियों का मांस पका कर भी वह खाता था। शव-मैथुन की परंपरा काफी पुरानी मानी जाती है, क्योंकि तंत्र-साधना में यह अनिवार्य है।

गाँधी पर लेलीवेल्ड की पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाने की ज़रूरत क्या थी?


प्रेमचंद सहजवाला

जोसेफ लेलीवेल्ड की पुस्तक ‘द ग्रेट सोल : महात्मा गाँधी ऐंड हिज़ स्ट्रगल विद इण्डिया’ पर विवाद। महात्मा गाँधी सन् 1892 में अपने एक मुवक्किल अब्दुल्लाह शेठ का किसी त्याब शेठ के विरुद्ध मुकद्दमा लड़ने, केवल एक वर्ष के लिए दक्षिण अफ्रीका गए थे। परन्तु वहाँ भारतवासियीं की दुर्दशा देख, अपनी वापसी को हर बार एक एक वर्ष के लिए स्थगित करते करते आखिर लगभग 22 वर्ष दक्षिण अफ्रीका में रह कर उन्होंने भारतवासियों के लिए अनूठा संघर्ष किया और लौटते ही महात्मा की उपाधि पाई। दक्षिण अफ्रीका में जोहन्सबर्ग के निकट जो ‘टॉलिस्टॉय फ़ार्म’ उन्होंने स्थापित किया, उस के लिए ज़मीन प्रसिद्ध जर्मन यहूदी वास्तुकार पहलवान हरमन केलेनबाख ने प्रदान की थी। राजमोहन गाँधी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द गुड बोटमैन: ए पोर्ट्रेट ऑफ गाँधी’ में लिखते हैं – ‘अपने योरपीय सहयोगियों में से एक, हरमन केलेनबाख से गाँधी का संबंध उस अंतरंगता को उजागर करता है, जिसकी वे क्षमता रखते थे (पृ। 94)।’ परन्तु जोसेफ लेलीवेल्ड की इस पुस्तक में दुर्भाग्य से उसी अंतरंगता को कुछ पत्रों द्वारा खंगाल कर कदाचित् अर्थ का अनर्थ कर दिया गया है और पुस्तक के कतिपय अंशों से कुछ चर्चिल शिष्यों ने गाँधी तथा केलेनबाख के बीच समलैंगिक संबंध होने का निष्कर्ष निकाल दिया है। ‘कलेक्टिड वर्क्स ऑफ महात्मा गाँधी’ में गाँधी तथा केलेनबाख के बीच जिन पत्रों का सन्दर्भ दिया जा रहा है, उनमें से जिस पत्र की सर्वाधिक चर्चा है वह यह है: ‘तुम्हारा एकमात्र चित्र मेरे बेडरूम में है। वह शेल्फ मेरे बिस्तर के ठीक सामने है।’ एक अन्य पत्र में गाँधी केलेनबाख को लिखते हैं – ‘मैं तुम्हारे असाधारण प्रेम को समझ नहीं पाता। जब हृदय से हृदय की बात होती है, तब मौखिक बात सतही हो जाती है।’
उक्त पुस्तक में तो गाँधी के उभयलिंगी होने की बात स्पष्ट रूप से कही ही नहीं गई है, परन्तु कुछ वर्ष पहले इस देश में एक और पुस्तक को ले कर शिवसेना सुप्रीमो बालासाहेब ठाकरे के कार्यकर्ताओं ने जो उत्पात मचाया था, वह इस पुस्तक के विरुद्ध उभरे आक्रोश से कई गुना अधिक, एक तूफ़ान की तरह उमड़ा था। विदेशी लेखक जेम्स डब्ल्यू लेन द्वारा शिवाजी पर लिखी गई पुस्तकों में से एक में तो शिवाजी के वास्तविक पिता कौन थे, इस पर ही विवाद खड़ा कर दिया गया था तथा उनकी पुस्तक ‘शिवाजी : द हिन्दू किंग इन इस्लामिक इण्डिया’ में शिवाजी को अंग्रेज़ी के मुहावरे ‘ओयडीपल रिबेल’ द्वारा परिभाषित किया गया है। यदि हम ‘वेब्स्टर’ की एन्साईक्लोपीडियल डिक्शनरी के कुछ पन्नों को टटोलें तो यूनान के प्रागैतिहासिक काल में ओयडीपस नामक एक राजा से साक्षात्कार होता है जिन्होंने अपने पिता की हत्या कर के अपनी मां से शादी कर ली थी! और ‘ओयडीपस ग्रंथि’ उस ग्रंथि का नाम है जिसमें पिता का यौन आकर्षण पुत्री की तरफ होता है, या मां का बेटे की तरफ। और शिवाजी को ‘ओएडीपल रिबेल’ कह कर लेखक ने जैसे बर्र का छत्ता खोल दिया था! शिवसेना कार्यकर्ताओं ने पूना के एक पुस्तकालय में बेहद हिंसक तोड़फोड़ की जिसमें कई हज़ार पुस्तकें नष्ट हो गईं तथा कई महत्वपूर्ण पांडुलिपियाँ स्वाहा हो गई। महाराष्ट्र सरकार ने तुरंत पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगा दिया। परन्तु समय के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने पुस्तक संसार के साथ सही न्याय करते हुए उस प्रतिबन्ध को हटा भी दिया।
सन् ’90 के आसपास पूरे विश्व में जिस पुस्तक ने युद्धस्तरीय तहलका मचा दिया था और संबंधित लेखक की जान तक खतरे में पड़ गई थी, वह थी ‘सतानिक वर्सिज़।’ इस पुस्तक पर ईरान के तानाशाह बादशाह अयातोल्लाह खोमीनी की तरफ से लेखक सलमान रुशदी को ज़िंदा या मुर्दा पकड़ लाने के फतवे तक का ऐलान कर दिया गया था, क्योंकि इस में इस्लाम धर्म के संस्थापक पैगम्बर मुहम्मद की छवि को अप्रत्यक्ष में सही, बहुत अपमानजनक तरीके से प्रस्तुत किया गया था। विश्व के मुस्लिम समाज को ठेस पहुँचाना आक्रोश के उस सैलाब का एक महत्वपूर्ण सबब बताया गया। सन 2000 में जब सलमान रुश्दी भारत आए, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से इस गुहार के साथ मिले भी कि अब ‘सतानिक वर्सिज़’ पर से प्रतिबन्ध हटा दिया जाए। परन्तु वाजपेयी ऐसा करने में असमर्थ थे, क्योंकि उनके कथनानुसार उनके सामने सवाल देश के असंख्य मुसलमानों की भावनाओं का था। भाजपा भले ही मुस्लिम विरोधी पार्टी होने का लेबल कमा चुकी है परन्तु बतौर एक राजनीतिक दल के मुस्लिम वोट उसके लिए भी कुछ अहमियत रखते होंगे, यही सोच वाजपेयी ने सलमान रुश्दी को निराश भेज दिया। जहाँ एक तरफ छत्रपति शिवाजी को ले कर शिवसेना तथा मराठी भाषी लोगों की ठेस उभर कर सामने आई, वहीं ‘सतानिक वर्सिज़’ में मुस्लिम भावना अहम हो उठी। अब गाँधी की इस पुस्तक को सब से पहले गुजरात सरकार ने प्रतिबंधित किया तथा देश की केन्द्र सरकार की ओर से पहले यह खबर आई थी कि गाँधी का अपमान करने वालों को दण्डित करने पर एक विधेयक लाने पर विचार किया जा रहा है, क्यों कि कहा जा रहा है कि गाँधी भी राष्ट्रीय सम्मान के प्रतीक हैं, इसलिए जिस प्रकार तिरंगे का अपमान करने पर जेल हो सकती है, उसी प्रकार गाँधी का अपमान करने पर भी जेल का प्रावधान लगाया जा सकता है।
उक्त प्रश्न पर सोचते हुए किसी भी अध्ययनशील व्यक्ति के सामने वे असंख्य पुस्तकें आ जाती हैं, जो विश्वभर में गाँधी के पक्ष या उनके विपक्ष में लिखी गई हैं। शायद विश्व का कोई भी महापुरुष, चाहे वह लीयो टॉलिस्टॉय हो या कार्ल मार्क्स या गाँधी, पूर्णतः विवाद से परे नहीं होता। जैसे लेनिन का कथन था कि टॉलिस्टॉय विश्व के सब से दिग्भ्रमित व्यक्ति हैं। ऐसे ही भगतसिंह कहते थे कि जो कुछ गाँधी कहते हैं, क्या उसे सिर्फ इसलिए मान लिया जाए कि वे बुज़ुर्ग हैं, या महात्मा हैं। यानी गाँधी की पूजा अर्चना से ले कर उनकी छवि को क्षत विक्षत करने तक, विश्व में असंख्य ऐसे विचार स्रोत हैं जिनमें गाँधी की पक्षधरता और विपक्षधरता दोनों के दर्शन होते हैं। बाबा साहेब आंबेडकर तो यहाँ तक लिख देते थे कि गाँधी तो अनपढ़ लोगों के नेता हैं, इसलिए उनके कुछ भी कहने पर असंख्य नर नारी उनका अनुसरण करने निकल पड़ते हैं। प्रश्न यह है कि अपमान किसे माना जाए? और कि पुस्तकों में यदि कुछ कीचड़ उछालू प्रसंग हैं भी, तो क्या एक इतनी बड़ी और महत्वपूर्ण पुस्तक को सिर्फ उन चंद अनुच्छेदों के कारण कूड़ेदान में फेंक दिया जाए?
विदेशी लेखकों में विशेषतर इस प्रकार के उदहारण बहुत मिलते हैं जिन में कदाचित कुछ सम्मानजनक (भले ही विवादस्पद) लोगों की यौनसंबंधी बातों का ज़िक्र कर के कोई दूर की कौड़ी लाने का दंभ दर्शाया गया है। उदहारण के तौर पर बेल्जियम के लेखक कोएनराड एल्स्ट अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘गाँधी एंड गोडसे’ के पृष्ठ 10 पर इस बात की ओर संकेत करते हैं कि विश्व प्रसिद्ध उपन्यास ‘फ्रीडम ऐट मिडनाईट’ के 16वें अध्याय में लेखकों ने विनायक दामोदर सावरकर तथा नत्थूराम गोडसे के बीच समलैंगिक संबंधों के होने की बात कही थी, जिस पर गोपाल गोडसे ने लेखक युगल डोमिनीक लैपियर तथा लैरी कॉलिन्स पर मानहानि का मुकदमा ठोक दिया था। परन्तु समय के साथ गोपाल गोडसे तथा लेखक युगल के बीच कोर्ट से बाहर ही सुलह हो गई, जिसके तहत उपन्यास ‘फ्रीडम ऐट मिड नाईट’ के भारतीय संस्करणों में वह आपतिजनक अंश अब नहीं छापा जाएगा। इधर एक अन्य विदेशी विचारक जेफ्री कृपाल तो स्वामी रामकृष्ण परमहंस व उनके सर्वोत्कृष्ट शिष्य स्वामी विवेकानंद के बीच की आलिंगन-बद्धता में भी सम-लैंगिकता के दर्शन पाते हैं, वह भी शायद इसलिए कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस सेक्स के बारे में सर्वाधिक असंतुलित व दुखी संत थे। उन्हें लगता था कि नारी से सेक्स संबंध ईश्वर-प्राप्ति के रास्ते में एक रुकावट है। गाँधी भी सेक्स के मामले में असामान्य सी ग्रंथियों के शिकार थे।
जिस रात उनके पिता करमचंद गाँधी का देहावसान हुआ, उस रात गाँधी स्वयं अपने बेडरूम में पत्नी कस्तूरबा के साथ अन्तरंग क्षणों में रत थे, सो सुबह उठ कर पिता के निधन की खबर सुनते ही शायद जीवन पर्यंत उनके मन पर अपराधबोध का एक असह्य बोझ सवार हो गया। उन्हें भी लगता रहा कि सेक्स शायद कर्त्तव्य के मार्ग की सब से बड़ी बाधा है। इसीलिये दक्षिण अफ्रीका में जीवन में पहली बार देशवासियों की समस्याओं की बागडोर हाथ में ले कर उन्हें लगा कि कर्त्तव्य के मार्ग की इस सब से बड़ी बाधा को क्यों न रोका जाए, इसीलिये उन्होंने ब्रह्मचर्य की शपथ ली और उनकी देखादेखी असंख्य कांग्रेसी युवक युवतियों ने भी शपथ ली। नव-विवाहित जोड़े यथा आचार्य कृपलानी-सुचेता कृपलानी भी इस शपथ से पलायन न कर सके। ऐसे में यह कहना कि गाँधी ने केलेनबाख के प्रेम के कारण कस्तूरबा को त्याग दिया था, तथ्यों की मात्र एक विकृत या सोद्देश्य शरारतन प्रस्तुति है। गाँधी के विरुद्ध लगे उभयलिंगी होने के आरोप को खंडित करने का एक और ठोस हथियार भी सहज ही उपलब्ध है। गाँधी ने सन् ’25 में अपनी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक ‘माइ एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रुथ’ लिखी थी जिसमें कहीं भी इस उभयलिंगता की चर्चा तक नहीं है। जब कि सन 45-46 में जब गाँधी ने अपने ब्रह्मचर्य का कठोर परीक्षण करने के लिए अपने आश्रम की महिलाओं के साथ रात भर सोने के प्रयोग किये, तब भी उन्होंने इस बात को नहीं छुपाया था। भले ही विनोबा भावे जैसी पवित्रत्माओं ने प्रतिक्रिया स्वरूप आश्रम ही छोड़ दिया था और कहा था कि गाँधी तो सशरीर स्वर्गारोहण करना चाहते हैं। कई लोग गाँधी के विरुद्ध अनर्गल शनर्गल कुछ भी बोल कर आश्रम से अलग हो गए थे, परन्तु गाँधी तो अपनी इस समस्या पर महिलाओं से विचार विमर्श तक कर लेते थे।
उन्हें लिखे गए पत्र आज भी ‘कालेकटिड वर्क्स ऑफ गाँधी’ में उपलब्ध हैं। उस समय के युवा नेता जयप्रकाश नारायण की पत्नी प्रभा ने भी गाँधी द्वारा उनके साथ बिताई रात का ज़िक्र एक पत्र में करते हुए कहा है कि मैं आपका प्रयोग बन कर नहीं सोई थी, वरन् आपकी बेटी रूप में सोई थी। गाँधी जी तो ऐसी शख्सियत थे कि आश्रम में एक आपातकालीन बैठक बुला कर एक परिपत्र उन्होंने सब के बीच घुमाया कि उनकी चिकित्सा प्रभारी डॉ. सुशीला नय्यर उनके शरीर का मसाज कर के उन्हें नहलाने जाती है। तब वे नहाने के टब में सुशीला की साड़ी ओढ़ कर सोए रहते हैं व सुशीला टब के पीछे कहीं नहा रही होती है। ऐसे में वे अपनी आँखें कस कर बंद किये रहते हैं (सन्दर्भ ‘Brahmacharya Gandhi & his Women Associates by Girija Kumar pp 292-93)। जब इतना कुछ वे नग्न सच की तरह सब के सामने एक परिपत्र रूप में कह सकते हैं तो उन्हें केलेनबाख से संबंधों को प्रकाश में लाने के लिए आखिर किस रुकावट ने रोका होगा?
जोसेफ लेलीवेल्ड की पुस्तक के सन्दर्भ में कुछ विद्वानों ने भाषा संबंधी एक सही तर्क भी दिया है कि उन्नीसवीं शताब्दी की भाषा आज की भाषा की तुलना में भिन्न थी, अतः उस समय की भाषा को यदि आज के विद्वान पढ़ें तो बीच में एक पूरी शताब्दी के गुज़र चुके होने का अहसास भी मन में रखना अनिवार्य है। हम इस बात की पुष्टि बहुत आसानी से पंडित नेहरू की लिखी हुई तीन विश्व प्रसिद्ध पुस्तकों ‘ग्लिम्प्सिज़ ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री’ ‘ऑटोबायोग्राफी’ तथा ‘डिस्कवरी ऑफ इण्डिया’ को पढ़ कर कर सकते हैं। ये तीनों पुस्तकें समय के काफी अंतरालों के बाद लिखी गई थीं और इन तीनों में पंडित नेहरु की भाषाओँ में ज़मीन आसमान के अंतर को भी सहज ही महसूस किया जा सकता है।
बहरहाल, गाँधी के बचाव में ऐसे असंख्य तर्क दिये जा सकते हैं, परन्तु विदेशी लेखक जब जब अपने शोध में नई नवेली और चौंकाने वाली बातें कहते हैं, तब कुछेक मामलों में तो यह सत्य भी उजागर हुआ है कि उन्होंने अपने शोध कतिपय भारतीय विद्वानों की सहायता से ही लिखे हैं। उदहारण के तौर पर जेम्स डब्ल्यू लेन ने स्पष्ट कहा था कि उन्होंने शिवाजी पर सारा शोध महाराष्ट्र के ही विद्वानों के सहयोग से किया था। अब यह बात दीगर है कि महाराष्ट्र के ही विद्वानों में से किसी ने यह तर्क भी दिया था कि शिवाजी के बारे में ऐसी क्रोध उत्पन्न करने वाली बातें किसी उच्च जातीय मराठी भाषी विद्वान की शरारत भी हो सकती है। ऐसे में किसी भी प्रकार का शोध और उस से उत्पन्न किसी भी प्रकार का निष्कर्ष तो अध्ययनकर्ताओं के लिए एक चुनौती बन कर उभरता है। जिन दिनों शिवाजी की पुस्तक पर बवाल खड़ा हुआ था, उन्हीं दिनों तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मुंबई में एक भाषण में कहा था कि यदि आप को एक पुस्तक पसंद नहीं है तो आप दूसरी लिखें, दूसरी पसंद नहीं तो तीसरी लिखें। स्पष्ट है कि उन्होंने किसी भी प्रकार के प्रतिबन्ध के विरुद्ध ही संकेत दिए थे।
पुस्तकें सत्य होने का दावा कर के ही बाज़ार में आती हैं, परन्तु सत्य समय सापेक्ष भी होते हैं। यदि एक चौंकाने वाला तथ्य एक पुस्तक द्वारा सामने आया है तो वह चौंकाहट एक चुनौती बन कर सामने आती है तथा पढ़ने वालों को स्वतंत्र चिंतन का आह्वान देती हैं। यदि उन पढ़ने वालों में से किसी में इस कदर प्रबुद्धता, समय तथा सुविधाएं हैं तो किसी आगामी पुस्तक द्वारा उस चौंकाहट का पर्दाफाश भी किया जा सकता है। सत्य की खोज में अनवरत चलते चलते रास्ते में कोई असत्य का भारी पत्थर ठोकर भी लगा सकता है, परन्तु सत्य की खोज के रास्ते पर यात्रा अनवरत ही चलती रहेगी। इसलिए कम से कम प्रतिबन्ध लगाने का तो कोई औचित्य नज़र नहीं आता। रही बात क़ानून बनाने की, सो इस विश्व में ईसा मसीह या राम और कृष्ण तक को नहीं बख्शा गया। मानव मन में स्थापित तथ्यों को चुनौती देते विश्लेषण या टिप्णियां सामने आई हैं। सो किसी भी शोध या विश्लेषण पर प्रतिबन्ध लगाया जाएगा तो संभव है कि आटे के साथ घुन भी पिस जाए। आज जबकि रामायण महाभारत जैसे धार्मिक महाकाव्यों की प्रमाणिकता तक पर संदेह ज़ाहिर किये जा चुके हैं, तो कल को ऐसे, राम कृष्ण की प्रमाणिकता पर संदेह करने वालों को भी राष्ट्रीय अपमान में माना जाएगा और स्वतंत्र चिंतन को बहुत गहरी ठेस पहुंचेगी। यदि पुस्तक संसार से कुछ बाहर आएं, तो कोई भी विवेकशील बुद्धिजीवी यह सहज ही पूछ सकता है, कि क्या विश्वप्रसिद्ध चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसैन का देश से ही आत्म-निष्कासन देश का बुद्धिजीवी वर्ग अभी तक सहन कर पाया है?
शायद नहीं। बुद्धिजीवी वर्ग ने मकबूल फ़िदा हुसैन के चित्रों को भी कला की उत्कृष्टता व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की श्रेणी में रखा है, तथा इतने बड़े चित्रकार के आत्म-निष्कासन को देश के कला जगत की एक त्रासदी रूप में ही लिया है, एक गहरी ठेस की तरह स्वीकार भी किया है। अतः कोई औचित्य नहीं कि पुस्तकों को प्रतिबंधित किया जाए या उनके विरुद्ध कोई क़ानून बनाया जाए। इस मुद्दे पर हर व्यक्ति का पुनर्विचार कर के अपनी सही धारणा बना लेना ही उचित है। (srijangatha.com से साभार)

विश्‍व का पहला उपन्‍यास 'गेंजी'


राधेश्‍याम

विश्‍व में सामाजिक उपन्‍यासों के लेखन का इतिहास एक हजार वर्ष पुराना है। इसके पूर्व कहानियाँ एवं कविताओं के माध्‍यम से धार्मिक संदेशों तथा उपदेशों के प्रचार के प्रमाण तो मिलते हैं, लेकिन मानव संघर्ष की घटनाओं का कथात्‍मक संयोजन उपन्यास के रूप में नहीं मिलता। आधुनिक उपन्‍यास लेखन का ऐसा स्‍वरूप भारतीय साहित्‍य में ही नहीं, बल्कि विश्‍व साहित्‍य में भी सिर्फ जापानी साहित्‍य में मिलता है।
विश्‍व प्रसिद्ध डान क्विकजोट (सन् १६०५) राबिंसन क्रूसो (सन् १७१९) जैसे उपन्‍यासों से भी सैकड़ों वर्ष पहले 'गेंजी' की कहानी शीर्षक से एक जापानी उपन्‍यास के होने का प्रमाण मिलता है, जिसकी लेखिका मुरासाकी शिबिकु हैं। इस उपन्‍यास में जापानी सामंतवादी समाज की समकालीनता को आत्‍मीयता के साथ चित्रण करने की कोशिश की गयी है। इसे कथ्‍य एवं शिल्‍प की दृष्टि से एक आधुनिक उपन्‍यास के रूप में दखा जाता है जिसमें यथार्थ और इतिहास का अद्भुत प्रयोग किया गया है।
जैसे हिन्‍दी के इतिहासकार इस कथ्‍य को स्‍वीकार करते हैं कि इस भाषा में उपन्‍यास शब्‍द बंगला से आया है। बंगला में भी इस विधा के साहित्‍य का सृजन बंगाल में ईस्‍ट इंडिया कंपनी की सत्‍ता स्‍थापित हो जाने के बाद आंग्‍ल भाषा के नावेल साहित्‍य से प्रभावित होकर ही हुआ है। इस दृष्‍टि से हिंदी साहित्‍य का प्रथम मौलिक उपन्‍यास 'परीक्षा-गुरू' माना जाता है जिसकी रचना लाला श्रीनिवास दास ने सन् १८८२ ई. में पाश्‍चात्‍य ढंग पर की थी। इसकी तुलना यदि जापानी उपन्‍यास गेंजी के रचनाकाल से करके देखें तो दोनों के बीच लगभग सात सौ वर्षों का अंतर नजर आता है। पाश्‍चात्‍य समीक्षकों ने इसकी तुलना प्राउस्‍त के रिमेंबरेंस ऑव थिंग्‍स पास्‍ट से की है। दोनों समय से पहले लिखी गयी कृतियाँ हैं जिनमें मनोविज्ञान के संश्लिष्‍ट तत्‍वों की तलाश की जा सकती है।
गेंजी की कहानी का नायक गेंजी सुंदर, कलाप्रिय, बुद्धिमान एवं लोकप्रिय नायक है जिसे पिता का बहुत प्‍यार मिलता है, किन्‍तु राजकुमार गेंजी रनिवासों में अपनी लोकप्रियता के कारण एक दिन अपने पिता का कोपभाजन बनता है और राजा पिता उससे राजकुमार का सम्‍मान छीन लेता है। राजकुमार बड़ी सहजता के साथ पिता का दंड स्‍वीकार कर लेता है। अपनी उम्र ५२वें वर्ष में जब वह पर्वत की कंदराओं में जाकर अपने जीवन के शेष समय को जीने की कोशिश कर रहा होता है, तब उसे पता चलता है कि काओरू जिसे वह अपना बेटा मानता रहा था असल में किसी और का बेटा है। यह उपन्‍यास जापान के हीयेन काल (सन् ८९३-११८५) की पृष्‍ठभूमि में लिखा गया है, जब संभ्रांत घरों से लड़कियों को राजमहलों में इसलिए भेजा जाता था कि वे किसी भी प्रकार से राजा को प्रसन्‍न करके एक उत्‍तराधिकारी पैदा कर सके, जिसकी वजह से राजा का साम्राज्‍य उनकी मुट्ठी में आ जाए। इस उपन्‍यास में दर्जनों ऐसे चरित्र हैं जो संभ्रांत परिवार के हैं और बेहद महत्‍वाकांक्षी हैं। अपनी महत्‍वाकांक्षा की पूर्ति के लिए जिन मूल्‍यों को जीते थे संभव है कि आज के मूल्‍यों में ज्‍यादा अनैतिक प्रतीत हों।
तत्कालीन जापान के अभिजात वर्ग (योकिबोतो) की महिलाओं के जीवन पर आधारित गेंजी की कहानी को अनेक अध्यायों में बांटकर लिखा गया है। आधुनिक उपन्यास में पाए जानेवाले बहुत से तत्व जैसे- एक प्रमुख पात्र और उसके आसपास बहुत से महत्त्वपूर्ण और कम महत्त्व के चरित्रों की रचना, महत्त्वपूर्ण पात्रों का विस्तृत चरित्र चित्रण और कम महत्त्वपूर्ण पात्रों का तदानुसार संक्षिप्त चित्रण, समय के साथ चलते घटनाक्रम और उस घटनाक्रम को आधार देते सभी चरित्र, आज के उपन्यासों की तरह ही आकार लेते हैं। उपन्यास में घटनाक्रम कथानक के चारों ओर नहीं बुना गया है बल्कि घटनाएँ समय के साथ बहती हुई आगे बढ़ती हैं। लंबी कहानी में पात्र बूढ़े होते हैं और शिशु जन्म लेते हैं। इस सबके बावजूद लगभग ४०० पात्रों और ५४ अध्यायों वाली गेंजी की कहानी में घटनाओं के क्रम, पात्रों के विकास और पाठक की रोचकता निरंतर बनाए रखने का जबरदस्त काम रचनाकार ने किया है। भले ही नैतिकता की दृष्टि से गेंजी का चरित्र विवादास्‍पद हो किंतु उपन्‍यास की तकनीक एवं कलात्‍मक पक्ष आज २१ वीं शताब्‍दी में अद्भुत माने जा सकते हैं।
इस उपन्‍यास की लेखिका के बारे में कहा जाता है कि शायद लेडी शिकिबु मुरासाकी किसी महिला का उपनाम हो, किन्‍तु इतना प्रमाणित है कि इस महिला का अस्तित्‍व सन् ९७५ से लेकर १०२५ तक रहा था। मुरासाकी के पिता उस समय जापान के किसी प्रदेश के गवर्नर थे। मुरासाकी शादी होने से पूर्व वह किसी गांव में समुद्र के किनारे रहती थी। किन्‍तु सन् ९९८ में शादी होने के तीन वर्षों बाद वह विधवा हो गयी। चूँकि उसके पिता गवर्नर थे। इसलिए उसे राजमहल में आने-जाने की सुविधा मिली हुई थी। उसकी प्रतिभा की पहली प्रशंसिका महारानी अकीको थी, जिसकी सेवा करने के लिए मुरासाकी को नियुक्‍त किया गया था। जैसे-जैसे गेंजी की कहानी रनिवासों में लोकप्रिय होने लगी, इसकी सूचना बाहर भी पहुँच गयी, लोग पढ़ने के लिए गेंजी की कापियाँ बनाने लगे। अल्‍पकाल में गेंजी इतना लोकप्रिय हो गया कि तत्‍कालीन जापानी सामंत-परिवार में गेंजी का पढ़ना जरूरी हो गया था।
आज इस उपन्‍यास की लोकप्रियता का आलम यह है कि अब तक इस पर आधारित टी.वी. धारावाहिक, फिल्‍में तथा गीति नाटकों की अनगिनत प्रस्‍तुतियाँ हो चुकी हैं। सन् १९९८ में जापान की राजधानी टोक्‍यो में इसी उपन्‍यास के नाम से एक संग्रहालय की स्‍थापना भी हो चुकी है। अनुवाद चीनी, जरमन, फ्रेंच, अंगरेजी तथा इतालियन भाषाओं में भी हो चुका है। अनेक कलाकारों ने गेंजी पर आधारित चित्र-मालाओं की रचना की है जिनमें १७वी शती में तोसा मित्सुकी की बनाई चित्र शृंखला सबसे अधिक लोकप्रिय हुई। इसी शृंखला से लिये गए कुछ चित्र यहाँ प्रदर्शित किये गए हैं। इसके अतिरिक्त गेंजी के चित्रों पर आधारित २००० येन का एक नोट भी जापान द्वारा जारी किया गया था जिसके दाहिने कोने पर उपन्यास की लेखिका का चित्र अंकित है। (abhivyakti-hindi.org से साभार)

पाओलो कोएलो का विश्व प्रसिद्ध उपन्यास 'अल्केमिस्ट'


अल्केमिस्ट एक विश्व प्रसिद्ध उपन्यास है। इसमें प्रतीकात्मक रूप से सुख क्या है और उसकी खोज कैसे की जाये उसके उपाय बताये गये है।सत्य ,यथार्थ तथा ईश्वर के अनेक स्तर व तल है। इन सब की परवाह किये बिना जिए । कीमियागर कभी पारस पत्थर कभी बना पाये या नहीं , आत्मा होती है या नहीं , सब कुछ निश्चित है या नहीं इस फेर में न पडे। इस पहेली को सुलझाने में  सारा जीवन व्यतीत हो जायेगा।  प्रकृति के सकेंतो को पढतें हुए , कर्म करते हुए , स्वीकार भाव से जिये। इस दौरान वह जान पाता है कि खजाना भीतर है, कहीं बाहर नहीं है। जीवन वर्तमान में एवं कर्म में है।  इस कृति की तुलना हरमन हेस के ’’सिद्धार्थ’’से की जा सकती है। मैंने दो वर्षा में इस कृति को आठ-दस बार पढा हैे हर बार नये आयाम मेरे समक्ष प्रकट होता है। इसके बावजूद हर बार कुछ न कुछ छुट जाने का अहसास होता है ।
यह एक गडरिये सान्टियागों की खजाने की खोज  की कहानी है जो असल में जीवन के उद्देश्य की पहचान और इसकी खोज से सम्बधं रखती हैं।इस यात्रा में उसका सामना मानसिक रूप से प्रेम-घृणा,सुख-दुख,सन्तोष-असन्तोस, सफलता-असफलता,से होता है। भौगोलिक रूप से उसका सामना विस्तृत रेगिस्तान ,पारस पत्थर, कीमीयागर, एवं पिरामिड से होता हैैै । इस यात्रा में उसे प्यार मिलता है-जिसमें प्रतिक स्वरूप दो औरतों से भेंट होती है। सच्चे प्रेम का अर्थ ईश्वर की बनाइ्र हर वस्तु से प्रेम करने से है। जब कोई अपनी सुविधा व स्वार्थ से उसकी बनाई एक वस्तु से प्रेम करता है और दूसरी से नफरत तो समझिए वह प्रेम कर ही नहीं रहा है। पे्रम सामंजस्य व सहयोग का जनक है जो अततः सृजन को जन्म देता है। स्वयं अस्तित्व भी प्यार है। प्यार दैहिक संबन्ध मात्र नहीं है। यह एक सहज घटना है । प्यार करने के लिए किसी कारण की जरूरत नहीं होती है।सकारण  प्रेम  कारण लुप्त होते ही लुप्त होे जाएगा।
कीमियागर बिना मेहनत छोटे रास्ते से लोहे से सोना बनाना चाहते थे ।  बिना काम किये जीवन का आनन्द खोजते थे। भौतिक वस्तुओं की नश्वरता  देखकर आध्यात्मिक सत्य को जानने में व्यस्त थे।
इस उपन्यास कें सभी पात्र सजीव , दक्ष व अपनी भूमिका में रचे बसे लगते है। सबकी सोच अपने-अपने दृष्टिकोण से  व्यावहारिक व वास्तविक है। इसे एक उपन्यास से बढकर धर्म ग्रन्थ या दर्शन शास्त्र कहे तो  कोई बुराई नहीं हैै। इसकी कथा वस्तु अत्यंत रोचक व रहस्यमयी है। पात्रों का वर्णन जीवंत है। संवाद उम्दा व सटीक है। वातावरण सहज व वास्तविक लगता है। भाषा शैली विशिष्ट है। उपन्यास नियति के निष्पक्ष स्वीकारभाव और पुरूषार्थ के जरिए इसे पाने की शिक्षा प्रदान करता है।
किसी ज्ञान व विचार को मौलिक व नया कहना सही नहीं होगा। मेरी राय में समस्त ज्ञान व विचार पहले से मौजूद है।  इन्हें सरल ,सहज, रोचक , और सुग्राहय बनाकर पेश करना लेखके का उद्देश्य हो सकता है जिसमें पाओलो कोयलो पूर्णतया सफल हुए हैं।
उपन्यास में दिल को छुने वाले कुछ वाक्यो को उदृत किये बिना मैं अपनी बात पुरी नहीं करना चाहता ।
’’अपनी नियति को पा लेना ही हमारा सबसे बडा धर्म है । बाकी सब चीजें एक जैसी है।’’
’’अगर तुम भय के अधीन हो गये तो फिर अपने दिल से बातचित नहीं कर पाओगें।’’
’’ जब तुम वास्तव में कोई वस्तु पाना चाहते हो तो सम्पूर्ण सृष्टि उसकी प्राप्ति में मदद के लिए षंडयत्र रचती है।’’
’’ यह दुनिया तो ईश्वर का दृष्टिगोचर स्वरूप है। कीमियागरी के जरिये किसी भी स्युल पदार्थ को आध्यात्मिक स्तर पर उसके सम्पर्ण स्वरूप में ढाला जा सकता है। ’’ जब कोई तुम्हें प्यार करता है तो तुम्हारे सृजन की कोंई सीमा नहीं रहती । जब प्यार होता है, तो जो कुछ भी घटित हो रहा हो, उसे समझने की जरूरत नहीं पडती क्योंकि सब कुछ तो तुम्हारे भीतर घटित हो रहा होता है।
’’तुम खजाने को पा सको इसके लिए तुम्हे कुछ चिन्हों का अनुकरण करना होेगा । ईश्वर ने हर व्यक्ति के लिए पथ बनाया है। तुम्हें बस उन चिन्हो को पहचानना और समझना होगा जो उसने तुम्हारे लिए छोडे है।’’
’’खुशी पाने का राज है इस विश्व की सब सुन्दरतम् वस्तुओं को देखना और चम्मच वाली तेल की बून्दों को न भुलना।’’
’’बहुत साधारण दिखने वाली चीजें हमारे जीवन में असाधारण होती है, मगर इस बात को अक्लमंद लोग ही समझ पाते है।’’
’’तुम्हें हमेशा यह मालुम होना चाहिए कि तुम चाहते क्या हों?’’
कल मरना किसी और दिन मरने से बदतर नहीं है।  हर दिन आता है रहने के लिए या फिर इस दुनिया से चले जाने के लिए । हर चीज एक ही वस्तु पर निर्भर करती है वह है ’’मकतूब!’’
’’ कुछ भी सीखने का एक ही तरीका है…..वह है कर्म।
’’ कीमियागरी और कुछ नहीं उस विश्वात्मा से तादात्म्य स्थापित करने की कला है और वह खजाना तुम्हारे लिए सुरक्षित रखा गया है कीमियागरी उसे पाने की विधि मात्र है। ( uthojago.wordpress.com से साभार)

घटनाएं, जिन्होंने विश्व प्रसिद्ध उपन्यासों को जन्म दिया


गगन शर्मा

कथाकारों को अपनी रचनाओं के लिए अक्सर प्रेरणा समाज से ही मिलती है। आसपास का परिवेश, लोग, घटनाएं कहीं ना कहीं लेखक के लेखन में सहायक होती रही हैं। एलेग्जेंड़र मिल्कर्क स्काटलैंड़ का रहने वाला एक नाविक था। अपने जीवनकाल में उसने ढेरों समुद्री यात्राएं कीं थीं। एक बार ऐसी ही एक यात्रा में उसका पोत दुर्घटनाग्रस्त हो सागर में डूब गया। किसी तरह बड़ी मुश्किल से उसने एक सुनसान द्वीप पर पहुंच कर अपनी जान बचाई। पर वहां से निकलने का कोई उपाय नहीं होने के कारण उसे वहां करीब साढे चार साल तक फंसा रहना पड़ा था। बाद में जब वह किसी तरह इंग्लैंड़ पहुंचा तो उसकी इस आपबीती को प्रसिद्ध लेखक ड़ेनियल ड़ेफियो ने सुना और इसी के आधार पर विश्व प्रसिद्ध उपन्यास "राबिनसन क्रूसो" का जन्म हुआ।
प्रसिद्ध लेखक लुई स्टेवेंसन ने अपने लोकप्रिय उपन्यास " स्ट्रेंज केस आफ डा. जेकल एंड मि. हाइड़" एक सच्ची घटना को आधार बना लिखा था। हुआ यूं कि एक बार एक गिरोह पुलिस के हत्थे चढा जिसके सदस्य नकाब पहन कर चोरियां किया करते थे। उनमें का एक सदस्य था, विलियम ब्रोड़ी, जो कि एक सभ्रांत नागरिक था। समाज में उसकी बहुत इज्जत थी। उसी के दोहरे व्यक्तित्व को आधार बना यह कथा रची गयी।
ऐसा ही एक और उपन्यास है "मादाम बोवारी"। जिसकी प्रेरणा स्रोत थी, डेल्फिन डेलामार नाम की उच्च घराने की एक बेहद खूबसूरत लड़की। महत्वाकंक्षा उसमें कूट-कूट कर भरी हुई थी। उसका एक ही उद्देश्य था, जीवन का भरपूर उपभोग करना। उसकी शादी एक डाक्टर से हुई थी, जो शहर से दूर गावों में रह कर जरूरतमंदों की सेवा करना चाहता था। डेलामार दिलफेंक युवती थी। उसके बहुतेरे पुरुष मित्र थे। फिर भी उसकी जिंदगी में सकून नहीं था। धीरे-धीरे वह कुंठा में डूबी रहने लगी और अंत में उसने आत्महत्या कर ली। मशहूर लेखक गुस्ताओ फिलाबेर ने उसी की जिंदगी को आधार बना अपने उपन्यास की रचना कर डाली।

तृतीय दास युद्ध का नायक स्पार्टाकस


स्पार्टाकस रोमन गणराज्य के खिलाफ एक व्यापक दास विद्रोह में जिसे तृतीय दास युद्ध कहा जाता है, दासों का सबसे उल्लेखनीय नेता था. स्पार्टाकस के बारे में युद्ध की घटनाओं से परे ज्यादा कुछ ज्ञात नहीं है, और उपलब्ध ऐतिहासिक विवरण कभी-कभी विरोधाभासी हो जाते हैं और हमेशा विश्वसनीय नहीं हो सकते. वह एक निपुण सैन्य नेता था. स्पार्टाकस के संघर्ष ने 19 वीं सदी के बाद से आधुनिक लेखकों के लिए नए मायने अख्तियार किये हैं, जिसे अभिजात वर्ग के दास मालिकों के खिलाफ पददलित लोगों द्वारा अपनी स्वतंत्रता हासिल करने के लिए लड़ी गई लड़ाई के रूप में देखा जाता है. स्पार्टाकस का विद्रोह कई आधुनिक राजनीतिक और साहित्यिक लेखकों के लिए प्रेरणादायक सिद्ध हुआ है, जिससे स्पार्टाकस प्राचीन और आधुनिक, दोनों संस्कृतियों में एक लोक नायक बन कर उभरा है.
प्राचीन सूत्रों का मानना ​​है कि स्पार्टाकस थ्रेसियन था. प्लूटार्क ने उसे "खानाबदोश तबके का थ्रेसियन" वर्णित किया है. अप्पियन का कहना है की वह "जन्म से एक थ्रेसियन था, जो कभी रोम का एक सैनिक हुआ करता था, लेकिन उसके बाद से उसे कैदी बना लिया गया और एक ग्लैडीएटर के रूप में बेच दिया गया. फ्लोरस (2.8.8) ने उसे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में वर्णित किया है "जो भाड़े का थ्रेसियन सैनिक है और रोमन सेना में शामिल हो जाता है, और सैनिक के बाद एक भगोड़ा और एक डाकू बन जाता है, और तत्पश्चात अपनी शक्ति को देखते हुए एक ग्लैडीएटर बन जाता है". कुछ लेखक, मेडी की थ्रेसियन जनजाति का उल्लेख करते हैं, जो ऐतिहासिक समय में थ्रेस (वर्तमान में दक्षिण-पश्चिमी बुल्गारिया) के दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्र पर वास करती थी. प्लूटार्क भी लिखते हैं कि स्पार्टाकस की पत्नी, जो मेडी जनजाति की एक नबिया थी, उसके साथ ग़ुलाम बना ली गयी थी.
स्पार्टाकस नाम वैसे काले सागर क्षेत्र में साक्ष्यांकित है: सिमेरियन बोस्पोरस और पोंटस के थ्रेसियन राजवंश के राजा इस नाम को धारण करते थे, और एक थ्रेसियन "स्पार्टा" "स्पार्डाकस" या "स्पराडोकोस", ओड्रिसे के सुथेस I के पिता के बारे भी ज्ञात है. भिन्न स्रोतों और उनकी व्याख्या के अनुसार, स्पार्टाकस या तो रोमन फ़ौज का एक सहायक था जिसे बाद में दास बना लिया गया या फिर फ़ौज द्वारा बनाया गया एक बंदी था. स्पार्टाकस को कापुआ के नज़दीक लेंटुलस बटिआटस के ग्लैडीएटर स्कूल (लुडस ) में प्रशिक्षित किया गया था. 73 ई.पू. में स्पार्टाकस, ग्लेडियेटरों के उस समूह का हिस्सा था जो भागने की योजना बना रहे थे. यह षड्यंत्र विफल हो गया लेकिन करीब 70 पुरुषों ने रसोई के औज़ार ज़ब्त कर लिए, लड़ाई करते हुए स्कूल से निकल गए, और ग्लैडीएटर हथियारों और कवच से भरे कई वाहनों पर कब्ज़ा कर लिया. बच कर भागे हुए दासों ने उस छोटी टुकड़ी को पराजित कर दिया जिसे उनके पीछे भेजा गया था. उन्होंने कापुआ के आसपास के क्षेत्रों में लूटपाट की, कई अन्य दासों को अपने दल में भर्ती किया, और अंततः विसुवियस पर्वत पर एक अधिक सुरक्षात्मक स्थिति में डेरा जमाया.
मुक्त होने के बाद भागे हुए ग्लेडियेटरों ने स्पार्टाकस और दो ​​फ्रांसीसी दासों - क्रिक्सस और ओनोमाउस - को अपने नेता के रूप में चुना. हालांकि रोमन लेखकों का अनुमान है कि ये दास सजातीय समूह के थे जिनका नेता स्पार्टाकस था, और हो सकता है उन्होंने दासों के स्वतःप्रवर्तित संगठन पर सैन्य नेतृत्व की अपनी स्वयं की पदानुक्रमिक व्यवस्था लागू की होगी, तथा अन्य दास नेताओं को अधीनस्थ पदों पर रखा होगा. क्रिक्सस और ओनोमाउस - और बाद में, कास्टस - के पदों को स्रोतों द्वारा स्पष्ट रूप से निर्धारित नहीं किया जा सका.
रोम की प्रतिक्रिया रोमन फ़ौज की गैर-मौजूदगी के कारण बाधित हुई, जो स्पेन में विद्रोह और तृतीय मिथ्रीडेटिक युद्ध में पहले से ही फंसी हुई थी. इसके अलावा, रोम ने इस विद्रोह को किसी युद्ध के बजाये एक पुलिसिया मामला समझा. रोम ने प्रेटर गयुस क्लौडियस ग्लबेरस की कमान में नागरिक सेना को भेजा, जिसने पहाड़ पर दासों को घेर लिया, जिसका अंदेशा था कि भुखमरी से मजबूर होकर दास आत्मसमर्पण कर देंगे. उन्हें उस वक्त काफी आश्चर्य हुआ जब उन्होंने देखा कि स्पार्टाकस के पास दाखलताओं से बनी रस्सियां हैं, जिसकी मदद से वह अपने साथियों के साथ ज्वालामुखी वाले चट्टान की ओर से नीचे उतरा और असुरक्षित रोमन शिविर पर हमला बोल दिया, और उनमें से ज्यादातर को मार दिया. दासों ने दूसरे अभियान को भी पराजित कर दिया, और प्रेटर कमांडर को लगभग पकड़ ही लिया था, उसके सहयोगी की हत्या कर दी और सैन्य उपकरणों पर कब्जा कर लिया. इन सफलताओं के साथ, एक बाद एक दास स्पार्टाकन सेना में शामिल होने लगे, और साथ में "उस क्षेत्र के कई गड़ेरियों और चरवाहों ने भी ऐसा ही किया, और उनकी कुल संख्या बढ़कर 70,000 हो गयी.
इन झड़पों में स्पार्टाकस एक उत्कृष्ट रणनीतिज्ञ साबित हुआ, जिसका मतलब था कि उसके पास सेना का पूर्व अनुभव था. हालांकि दासों के पास सैन्य प्रशिक्षण का अभाव था, उन्होंने अनुशासित रोमन सेनाओं के साथ सामना होने पर उपलब्ध स्थानीय सामग्री के कुशल उपयोग और असामान्य रणनीति का प्रदर्शन किया. उन्होंने 73-72 ई.पू. की सर्दियों में नए शामिल दासों को प्रशिक्षण, हथियार और नए औजार मुहैय्या कराये, और अपने छापामार क्षेत्रों का विस्तार करते हुए उसमें नोला, नुसेरिया, थुरी और मेटापोंटम के शहरों को शामिल किया. इन स्थानों के बीच की दूरी और बाद की घटनाओं से पता चलता है कि दास दो समूहों में कार्य करते थे जिसका नेतृत्व स्पार्टाकस और क्रिक्सस के आलावा अन्य नेता करते थे.
72 ई.पू. के वसंत में, दासों ने सर्दियों के अपने अड्डों को छोड़ दिया और उत्तर की ओर बढ़ने लगे. उसी समय, रोमन सीनेट, जो प्रेटर सेना की हार से चिंतित हो गई थी, उसने लुसिअस गेलिअस पुब्लिकोला और नाउस कौर्नेलिअस लेंटुलस क्लोडीएनस की कमान में एक जोड़ी दंडाधिकारी फ़ौज भेजी. इन दो टुकड़ियों को शुरुआत में सफलता मिली - जिन्होंने क्रिक्सस और माउंट गर्गेनस की कमान के 30,000 दासों को हरा दिया - लेकिन फिर स्पार्टाकस से हार गए. इन पराजयों को अप्पियन और प्लूटार्क द्वारा युद्ध के दो सबसे व्यापक (मौजूद) इतिहास में विभिन्न तरीकों से दर्शाया गया है.
इस बढ़ते विद्रोह से चिंतित होकर सीनेट ने इस विद्रोह को समाप्त करने के लिए मार्कस लिसिनियस क्रासस को इस कार्य पर लगाया, जो रोम का सबसे धनी व्यक्ति था और वही एकमात्र व्यक्ति था जो इस काम के लिए आगे आया. क्रासस के जिम्मे आठ टुकड़ियों को सौंपा गया, लगभग 40,000-50,000 प्रशिक्षित रोमन सैनिक, जिनके ऊपर उसने कठोर, यहां तक कि क्रूर अनुशासन लागू किया, और इकाई विनाश की सज़ा को पुनर्जीवित किया. जब स्पार्टाकस और उनके अनुयायी, जो अस्पष्ट कारणों से इटली के दक्षिण में पीछे हट गए थे, 71 ई.पू. के आरंभ में फिर से उत्तर की ओर बढ़े, तो क्रासस ने अपनी छः टुकड़ियों को उस क्षेत्र की सीमाओं पर तैनात कर दिया और अपने दूत मुमिअस की दो टुकड़ियों के साथ स्पार्टाकस को पीछे से घेरने के लिए चल दिया. हालांकि मुमिअस को दासों के साथ उलझने से मना किया गया था, उसने लगभग सही अवसर पर हमला किया, लेकिन हार गया. इसके बाद, क्रासस की टुकड़ियां कई मोर्चों पर विजयी रही, और उसने स्पार्टाकस को दक्षिण में लुसानिया में पीछे धकेल दिया. 71 ई.पू. के अंत तक, स्पार्टाकस रेगियम (रेगियो कलाब्रिया) में मैसिना के जलडमरूमध्य के पास डेरा डाले हुए था.
प्लूटार्क के अनुसार, स्पार्टाकस ने सिलिसिया के समुद्री डाकुओं के साथ एक सौदा किया था कि वे उसे और उसके 2000 साथियों को सिसिली पहुंचाएंगे जहां उसका इरादा एक दास विद्रोह भड़काने और सहायता पाने का था. हालांकि, उसे डाकुओं द्वारा धोखा दे दिया गया, जिन्होंने उससे भुगतान ले लिया और फिर छोड़ कर चले गए. कुछ स्रोतों का उल्लेख है कि विद्रोहियों द्वारा वहां से बच निकलने के लिए बेड़े और जहाज बनाने का प्रयास हुआ लेकिन क्रासस ने अनिर्दिष्ट उपाय किये ताकि यह सुनिश्चित हो जाए कि विद्रोही सिसिली ना जा पायें और उन्हें अपना प्रयास छोड़ना पड़ा. स्पार्टाकस की सेना तब रेगिअम की ओर चली. क्रासस की टुकड़ी ने पीछा किया और वहां पहुंचने पर विद्रोही दासों के उत्पाती छापों के बावजूद रेगिअम में इष्ट्मस के चरों ओर किलेबंदी कर दी. विद्रोहियों को घेरे लिया गया और उनकी आपूर्ति काट दी गई.
इस समय तक पोम्पे की टुकड़ी स्पेन लौट चुकी थी और उसे क्रासस की सहायता करने के लिए दक्षिण कूच करने का सीनेट का आदेश मिला. जबकि क्रासस को आशंका थी कि पोम्पे के आगमन से उसे इस काम का श्रेय लेने में मुश्किल होगी, स्पार्टाकस ने क्रासस के साथ एक समझौते को अंजाम देने की कोशिश की लेकिन असफल रहा. जब क्रासस ने इनकार कर दिया, तो स्पार्टाकस की सेना का एक हिस्सा ब्रुटिअम में पटेलिया (आधुनिक स्ट्रोंगोली) के पश्चिम की ओर पहाड़ों में भाग गया, और क्रासस की सेना ने उसका पीछा किया. जब टुकड़ी ने मुख्य सेना से अलग हुए विद्रोहियों के एक हिस्से को घेर लिया तो स्पार्टाकस के बलों के बीच अनुशासन टूट गया और छोटे-छोटे समूहों ने आने वाली टुकड़ी पर स्वतंत्र रूप से हमला करना शुरू कर दिया. स्पार्टाकस ने अब अपनी सेना को फैला दिया और अपनी पूरी ताकत को फ़ौज के खिलाफ आखिरी बार उतारा जिसमें दासों का पूरी तरह सफाया कर दिया गया, और उनके अधिकांश हिस्से को रणभूमि में मार दिया गया. खुद स्पार्टाकस का क्या हुआ यह अज्ञात है, क्योंकि उसका शरीर नहीं मिला, लेकिन इतिहासकारों का कहना है कि वह भी अपने साथियों के साथ लड़ाई में मारा गया. क्रासस की फ़ौज द्वारा बंदी बनाए गए छः हज़ार दासों को रोम से लेकर कापुआ तक अप्पियन मार्ग पर क्रूस पर चढ़ा दिया गया.
शास्त्रीय इतिहासकार इस बात पर विभाजित हैं कि स्पार्टाकस की मंशा क्या थी. जबकि प्लूटार्क लिखते हैं कि स्पार्टाकस केवल उत्तर की ओर सिसलपाइन गौल भागना चाहता था और अपने साथियों को उनके घर भेजना चाहता था, अप्पियन और फ्लोरस ने लिखा है कि वह खुद रोम पर कब्जा करने का इरादा रखता था. अप्पियन का यह भी कहना है कि उसने बाद में इस लक्ष्य को छोड़ दिया, जो रोमन भय को ही प्रतिबिंबित करता है. स्पार्टाकस की कोई भी कार्रवाई यह संकेत नहीं देती है कि वह रोमन समाज को सुधारना अथवा दास प्रथा की समाप्ति करना चाहता था, जैसा कि कई काल्पनिक विवरणों में चित्रित किया जाता है, उदाहरण के लिए 1960 की फिल्म स्पार्टाकस में.
73 ई.पू. के उत्तरार्ध और 72 ई.पू. के पूर्वार्ध की घटनाओं पर आधारित तथ्य यह सुझाव देते हैं कि दासों के ऐसे समूह थे जो स्वतन्त्र संचालन कर रहे थे और प्लूटार्क का बयान है कि भागे हुए दासों में से कुछ ने आल्प्स जाने की बजाये इटली में लूटपाट करना पसंद किया, आधुनिक लेखकों ने एक गुटीय विभाजन का अनुमान लगाया है जिसके तहत जो दास स्पार्टाकस के साथ थे वे आल्प्स जा कर स्वतंत्र हो जाना चाहते थे जबकि क्रिक्सस के तहत जो दास थे वे दक्षिणी इटली में रह कर लूट जारी रखना चाहते थे. कार्ल मार्क्स ने अपने नायकों में स्पार्टाकस को सूचीबद्ध किया है, और उसे "सम्पूर्ण प्राचीन इतिहास में सबसे शानदार व्यक्ति वर्णित किया है" और उसे "महान जनरल [हालांकि गैरीबाल्डी नहीं], महान चरित्र, सर्वहारा वर्ग का वास्तविक प्रतिनिधि" बताया है.  स्पार्टाकस आधुनिक समय में क्रांतिकारियों के लिए एक महान प्रेरणा रहा है, सबसे उल्लेखनीय रूप से जर्मन स्पार्टासिस्ट लीग के लिए, जो कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ जर्मनी की अग्रदूत थी, साथ ही 1970 में ऑस्ट्रिया में एक फासीवादी विरोधी संगठन के लिए. बीसवीं सदी में यूरोपीय साम्यवादी शासन ने उत्पीड़न के खिलाफ एक सेनानी के रूप में स्पार्टाकस की छवि को प्रोत्साहित किया. जानेमाने लैटिन अमेरिकी मार्क्सवादी क्रांतिकारी चे ग्वेरा भी स्पार्टाकस के प्रबल प्रशंसक थे.

चार्ल्स डार्विन और मिलर


चार्ल्स डार्विन ने क्रमविकास के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उनका शोध आंशिक रूप से १८३१ से १८३६ में एचएमएस बीगल पर उनकी समुद्र यात्रा के संग्रहों पर आधारित था। इनमें से कई संग्रह इस संग्रहालय में अभी भी उपस्थित हैं। डार्विन महान वैज्ञानिक थे - आज जो हम सजीव चीजें देखते हैं, उनकी उत्पत्ति तथा विविधता को समझने के लिए उनका विकास का सिद्धान्त सर्वश्रेष्ठ माध्यम बन चुका है। संचार डार्विन के शोध का केन्द्र-बिन्दु था। उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध पुस्तक ऑरिजिन ऑफ स्पीसीज़ प्रजातियों की उत्पत्ति सामान्य पाठकों पर केंद्रित थी। डार्विन चाहते थे कि उनका सिद्धान्त यथासम्भव व्यापक रूप से प्रसारित हो। डार्विन के विकास के सिद्धान्त से हमें यह समझने में मदद मिलती है कि किस प्रकार विभिन्न प्रजातियां एक दूसरे के साथ जुङी हुई हैं। उदाहरणतः वैज्ञानिक यह समझने का प्रयास कर रहे हैं कि रूस की बैकाल झील में प्रजातियों की विविधता कैसे विकसित हुई।
कई वर्षों के दौरान, जिसमें उन्होंने अपने सिद्धान्त को परिष्कृत किया, डार्विन ने अपने अधिकांश साक्ष्य विशेषज्ञों के लम्बे पत्राचार से प्राप्त किया। डार्विन का मानना था कि वे प्रायः किसी से चीजों को सीख सकते हैं और वे विभिन्न विशेषज्ञों, जैसे, कैम्ब्रिज के प्रोफेसर से लेकर सुअर-पालकों तक से अपने विचारों का आदान-प्रदान करते थे। बीगल पर विश्व भ्रमण हेतु अपनी समुद्री-यात्रा को वे अपने जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना मानते थे जिसने अनके व्यवसाय को सुनिश्चित किया। समुद्री-यात्रा के बारे में उनके प्रकाशनों तथा उनके नमूने इस्तेमाल करने वाले प्रसिद्ध वैज्ञानिकों के कारण, उन्हें लंदन की वैज्ञानिक सोसाइटी में प्रवेश पाने का अवसर प्राप्त हुआ। अपने कैरियर के प्रारंभ में, डार्विन ने प्रजातियों के जीवाश्म सहित बर्नाकल (विशेष हंस) के अध्ययन में आठ वर्ष व्यतीत किए। उन्होंने 1851 तथा 1854 में दो खंडों के जोङों में बर्नाकल के बारे में पहला सुनिश्चित वर्गीकरण विज्ञान का अध्ययन प्रस्तुत किया। इसका अभी भी उपयोग किया जाता है।
पृथ्वी पर जीवन के प्रारंभ को लेकर दो प्रमुख विचारधाराएँ विज्ञान और धर्म की हैं। बाइबल में उल्लेखित तथ्य वर्षों तक अकाट्य बने रहे हैं। अब भी उन तथ्यों के समर्थक हैं लेकिन विज्ञान की प्रगति ने धर्म आधारित इस व्याख्या को भी विश्लेषण में जाने के लिए मजबूर किया। विज्ञान ने जीवन के प्रारंभ को क्रम विकास की यंत्रवत प्रक्रिया के ही इस या उस स्वरूप में स्वीकार किया जबकि धर्म एक अचानक घटित अलौकिक घटना को जीवन की उत्पत्ति का श्रेय देता रहा।
जीवन के सफर को विज्ञान की नजर से समझने में अपना जीवन खपा देने वाले मिलर का निधन अभी बीस मई को सतहत्तर वर्ष की आयु में हुआ। करीब चौपन वर्ष पहले मिलर ने एक बहुत ही आसान प्रयोग के तहत हाइड्रोजन, मीथेन, अमोनिया तथा जलवाष्प का मिश्रण तैयार कर उसे जीवाणुरहित गैस कंटेनर से गुजरने का मौका दिया।
इसी बीच इन गैसों को विद्युत ऊर्जा दी गई। उनकी यह कल्पना जीवन के प्रारंभ के वक्त मौजूद वातावरण पर आधारित थी। जलवाष्प को प्रारंभिक काल के महासागरों के स्थान पर उपयोग किया गया था। नतीजा चमत्कारिक निकला था। मिश्रण द्रव्य भूरे रंग का हो गया तथा उसमें अमीनो एसिड पाए गए जो प्रोटीन के मूल निर्माण तत्व होते हैं और प्रोटीन जीवन का प्रमुख तत्व है। आगे चलकर न्यूक्लिक एसिड भी इसी तरह पाया गया। यह सिद्ध हुआ है कि प्राणी में आनुवांशिक सूचनाएँ एकत्र कर उनके रूपांतरण का काम यही एसिड करता है। सच है, मिलर ने जीवन के प्रारंभ की तलाश को एक निश्चित दिशा दे दी थी। इस महान जीव विज्ञानी का यह योगदान विज्ञान के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज रहेगा।
अब तक की खोज के आधार पर विज्ञान मानता है कि पृथ्वी पर प्रारंभिक काल में मौजूद महासागरों में अमीनो एसिड रासायनिक क्रियाओं से सबसे पहले बना था। जबकि महान दार्शनिक एरिस्टोटल का मानना था कि गैर-प्राण वस्तुओं जैसे मिट्टी आदि के रासायनिक संसर्ग से मेंढक, साँप, कीट जैसे प्राणियों का निरंतर जन्म होता रहता है (क्या मिट्टी में घोंघा भी इसी तरह बनता है?)। धर्म के बाद जीवन के प्रारंभ को खोज रहे विज्ञान को अब भी वह निश्चित ठिकाना नहीं मिला है जहाँ से प्राण का जन्म होता है।
1859 में चार्ल्स डार्विन के क्रम विकास के सिद्धांत ने पहली बार एक विज्ञान सम्मत और तर्कसंगत आधार प्रस्तुत किया था। अभी इसी सिद्धांत को जीवन विकास का वैज्ञानिक आधार माना जाता है। डार्विन की मान्यता थी कि प्रारंभिक स्वरूपों से ही ऊँची तथा जटिल प्राणी किस्में पनपी हैं। सुधार की यह पद्धति मूलतः चरणबद्ध, धीमी है और प्राकृतिक परिवर्तनों के माध्यम से आगे बढ़ती है।
दरअसल 17वीं और 18वीं सदी में जीवन की उत्पत्ति की धार्मिक व्याख्या को चुनौती मिली और उसका निराकरण डार्विन के सिद्धांत की स्थापना से हुआ। लेकिन मूल प्रश्न को लेकर धर्म तथा विज्ञान के बीच रस्साकशी अब भी जारी है।
अब दो महत्वपूर्ण तथ्य शेष रह जाते हैं। एक, लगभग एक हजार वर्षों तक स्वीकार किया जाता रहा यह सिद्धांत क्या सच है कि जीवन विकास एक सहज, नैसर्गिक प्रजनन है जैसा प्राचीनकाल में मान्य था? दूसरा तथ्य दिलचस्प है। यह माना जाता है कि पृथ्वी पर जीवन के प्रारंभिक काल में स्वास्थ्य की चिंता (या जिज्ञासा कहें?) से प्राणी जगत के अध्ययन की आवश्यकता जन्मी थी। यह व्याख्या तर्कसंगत भी दिखती है।
यहाँ एक ताजा खबर का उल्लेख प्रासंगिक होगा। कुछ रिपोर्टों के अनुसार मानव गतिविधियों (विनाशकारी) के कारण पृथ्वी पर प्रत्येक घंटे में प्राणी पर वनस्पति जगत की तीन किस्में लुप्त होती जा रही हैं। स्वास्थ्य की चिंता से प्रारंभ प्राणी जगत के अध्ययन के संदर्भ में यह खबर गौरतलब है। अभी जीवन का निश्चित प्रारंभ खोजा जाना शेष है और इधर जीवन के खत्म होने की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई है। बेहतर और सुधरी किस्म को जगह देने के लिए पुरानी किस्म का घटना प्राकृतिक है (डार्विन) लेकिन किस्मों का तेजी से लुप्त होना अलग और चिंताजनक बात है।

महान चित्रकार पाब्लो पिकासो


स्पेन के महान चित्रकार थे पाब्लो पिकासो। वे बीसवीं शताब्दी के सबसे अधिक चर्चित, विवादास्पद और समृद्ध कलाकार थे। उन्होंने तीक्ष्ण रेखाओं का प्रयोग करके घनवाद को जन्म दिया । पिकासो की कलाकृतियां मानव वेदना का जीवित दस्तावेज हैं। 25 अक्तूबर, 1881 को मलागा, स्पेन में पैदा हुए पिकासो जन्मजात कलाकार थे। बचपन में वह अपने साथियों को नाना प्रकार की आकृतियां बनाकर अचरज में डाल देते थे। पिकासो के पिता कला के अध्यापक थे। इसलिए कला की प्रारंभिक शिक्षा उन्हें अपने पिता से मिली, किंतु 14-15 वर्ष की अवस्था में ही वह इतने उत्कृष्ट चित्र बनाने लगे थे कि उनके पिता ने चित्रकारी का अपना सारा सामान उन्हें देकर भविष्य में कभी कूची न उठाने का संकल्प ले लिया। फिर चित्रकारी में उच्च शिक्षा के लिए उन्हें मेड्रिड अकादमी में भेजा गया। किंतु पिकासो वहां के वातावरण से जल्दी ही ऊब गए और उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी।
वर्ष 1900 में कुछ समय के लिए वह पेरिस गए। पेरिस तब कला का केंद्र समझा जाता था। पेरिस में पिकासो अनेक समकालीन कलाकारों के संपर्क में आए। उनकी कला पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। फिर स्पेन लौटकर उन्होंने उन्मुक्त होकर चित्र बनाने शुरू किए। उनके उस काल के चित्रों में गहरे नीले रंग और गुलाब के फूलों की बहुतायत है। इनमें से अधिकांश की कथावस्तु पददलित मानवता और समाज से उपेक्षित एवं शोषित वर्गों से संबंधित है। वर्ष 1904 में उनकी कला में दूसरा मोड़ आया। इस काल में उन्होंने कलाबाजों, भांडों, मसखरों, सितारवादकों के चित्र बनाए। वर्ष 1906 में उन्होंने अपनी सुप्रसिद्ध कलाकृति ‘एविगनन की महिलाएं’ बनानी शुरू की। उन्होंने इस चित्र को लगभग एक वर्ष में पूरा किया।
वर्ष 1909 में पिकासो ने कला के क्षेत्र में ‘घनवाद’ का प्रवर्तन किया। उनकी यह शैली 60-65 वर्षों तक आलोचना का विषय रही है और विश्व के सभी देशों में इसने युवा कलाकारों को प्रभावित किया। इन चित्रों में हर तरह के रंगों और रेखाओं का प्रयोग हुआ है। लगभग इसी समय उन्होंने इंग्रेस की कलाकृतियों में रुचि ली और महिलाओं के अनेक चित्र बनाए। इन चित्रों की तुलना प्राचीन यूनानी मूर्तियों से की जाती है। पिकासो किसी रूप में अत्याचार और अन्याय को स्वीकार नहीं कर सकते थे। 1957 में जब नाजी बमवर्षकों ने स्पेन की रिपब्लिकन फौजों पर बमबारी की, तो उन्होंने नाजी हमलावरों के विरुद्ध अपना रोष जताने के लिए दिन-रात मेहनत कर विशालकाय चित्र ‘गुएर्निका’ बनाया। इसके बाद उन्होंने स्वेच्छा से देश निकाला स्वीकार किया। उन्होंने कसम खाई कि जब तक स्पेन में फिर से रिपब्लिक की स्थापना नहीं हो जाती, वह स्पेन नहीं लौटेंगे। पिकासो ने चित्रकला से अथाह दौलत कमाई। संभवत: आज तक किसी भी कलाकार या साहित्यकार को अपनी रचनाकृतियों से इतनी आय नहीं हुई होगी। जहां वह निजी व्यक्तियों से अपने चित्रों का अधिक-से-अधिक मूल्य वसूल करते थे, वहीं उन्होंने अनेक संग्रहालयों को अपने चित्र नि:शुल्क भेंट कर दिए।

दीवानों की तरह उनके पीछे पड़े पब्लिशर


10 करोड़ रुपये से ज्यादा रॉयल्टी

संजय खाती

यह शिव की कृपा है या स्टोरी का चमत्कार? या फिर हमने ही पुराने मिथकों में कुछ नया तलाश लिया है? अमीश त्रिपाठी सच में पहले इंडियन राइटर हैं, जिन्हें एक फिल्म स्टार जैसी पॉप्युलैरिटी हासिल हुई है। चेतन भगत उनसे पहले काफी नाम कमा चुके हैं, लेकिन अमीश की कलम के लिए पब्लिक की दीवानगी नई मिसालें कायम कर रही है। 36 बरस के अमीश आईआईएम के ग्रेजुएट हैं, जिन्होंने अपनी जिंदगी का सफर राइटिंग की ओर मोड़ लिया। आज शिव गाथा की उनकी तीन किताबें (मेलुहा के मृत्युंजय, नागाओं का रहस्य और वायुपुत्रों की शपथ), जिन्हें शिवा ट्रिलॉजी कहा जाता है, उन्हें 10 करोड़ रुपये से ज्यादा रॉयल्टी दिला चुकी हैं। अगली किताबों के लिए उन्हें अभूतपूर्व एडवांस ऑफर हुआ है। पब्लिशर दीवानों की तरह उनके पीछे पड़े हैं। फेसबुक और साइट पर हजारों लोग उनसे जुड़ रहे हैं और करन जौहर एक भव्य फिल्म बनाने की तैयारी में जुट गए हैं।
जिन लोगों ने शिवा ट्रिलॉजी नहीं पढ़ी है, उन्हें थोड़े में बता दूं कि यह शिव नाम के एक कबाइली हीरो की कहानी है, जो इंसान से भगवान तक का सफर तय करता है। शिव यहां अपनी पौराणिक गाथा से अलग एक नए एडवेंचर में दिखते हैं। कहानी में जबर्दस्त ड्रामा, सस्पेंस, एंटरटेनमेंट और झटकेबाजी है, जो पाठक को बांधे रखती है। लेकिन कहानी का वक्त आज का नहीं, हजारों बरस पहले का है, जब भारत में भगवान राम का बनाया हुआ मेलुहा साम्राज्य हुआ करता था। यानी यह शिव की मॉडर्न कथा नहीं है। इसे एक नया पुराण या मिथक कहा जा सकता है।
मिथक को नए तरह से कहने और यहां तक कि आज के जमाने से उन्हें जोड़ने का काम लिटरेचर में काफी होता रहा है। हिंदी में ही नरेंद्र कोहली रामकथा अपने तरीके से कह चुके हैं। इंग्लिश में अशोक बैंकर जैसे राइटर्स इस रास्ते पर चल चुके हैं। यहां तक कि दीपक चोपड़ा और दूसरे लोग कॉमिक्स के जरिए पुराण की कायापलट कर रहे हैं। लेकिन अमीश ने जो किया, वह अलग है। जैसा कि हमने कहा, वह शिव के ट्रडिशनल कैरेक्टर को एक बेहद मजेदार और नए पुराण के बीच रख देता है। यह काम करने से दूसरे लोग झिझक रहे थे। शायद इसलिए कि वे भारतीय परंपरा से ज्यादा खेलना नहीं चाहते थे। या फिर वे लिटरेचर के धीमे, गहरे और ईमानदार अनुशासन में बंधे थे।
अमीश के लिए ये बातें बेमानी थीं, क्योंकि वे लिटरेचर से नहीं आए। शिवा ट्रिलॉजी एकदम पॉप्युलर सीरीज है, जिसमें आपको हैरी पॉटर जैसी बुनावट तो नहीं, लेकिन किसी यंग एडल्ट स्टोरी जैसा मजा मिलता है। कहानी में वर्णन का बोझ नहीं है। जोर सस्पेंस और ठीक वक्त पर एक नया मोड़ दे देने पर है। और यह सब आसान भाषा में कहा गया है। यहां तक कि चेतन भगत भी इसके मुकाबले ज्यादा गहरे और मुश्किल लग सकते हैं। शिवा ट्रिलॉजी एक आम रीडर के लिए एकदम फिट है।
लेकिन क्या माजरा बस इतना ही है? नहीं। संयोग ही रहा होगा, लेकिन अमीश ने शिव को बिलकुल सही चुना। आप राम या कृष्ण के साथ इतनी आजादी नहीं ले सकते। ये पहले से ईश्वर के अवतार हैं और इनकी गाथा लीला के तौर पर बहुत कुछ मानवीय जमीन पर कही गई है। त्रिदेवों में बाकी- विष्णु और ब्रह्मा, एक हीरोइक कहानी में ठीक नहीं लगते। अकेले शिव ही हैं, जो माचो हैं, औघड़ हैं और रहस्यमय भी। इसीलिए वह इस धरती पर इतने ज्यादा रूपों और तरीकों से पूजे जाते हैं। वह किसी भी बेचैन और बगावती नौजवान के हीरो बन सकते हैं। वह इतने आजाद और अकेले हैं कि उन्हें पॉप कल्चर में आसानी से फिट किया जा सकता है। कांवड़ कल्चर के तौर पर आप इस अपील को देख सकते हैं।
लेकिन फिर भी हैरानी हुए बिना नहीं रहती कि प्यार और तकरार की लाल-गुलाबी कहानियों को हिट बना रही भारत की यंग जेनरेशन एकदम से किसी मिथकीय किस्से पर मर मिटे, जो नई कहानी के बावजूद है तो पुराना ही। ऐसा कैसे हुआ? मुझे लगता है एक और बात यहां काम कर रही है। वह यह कि अपने विदेशी साथियों की तरह इंडियन यूथ भी धर्म से नई पहचान बना रहा है। आपने नोट किया होगा कि तमाम तरक्की और टेक्नॉलजी के बावजूद आस्था इस जेनरेशन से गायब नहीं हुई है, बल्कि वह पिछली पीढ़ी जितनी ही मजबूत है। फर्क है तो यह है कि कर्मकांड एकदम पहले जैसे नहीं रहे। युवा मॉडर्न तरीके से अपनी आस्था जता रहा है। मेलुहा में उसे अपनी चाहत और मिजाज के लायक शिव के दर्शन हो रहे हैं। यह शिव उसे इसलिए भी पसंद होंगे कि वे एक तानाशाह ईश्वर नहीं, हमारी तरह सहज मनुष्य हैं।
इस सहज मनुष्य से युवा जुड़ा महसूस कर रहे हैं या हमारे ईश्वर बदल रहे हैं?

पूंजीवाद एक प्रेत कथा


अरुंधति रॉय

यह मकान है या घर? नए भारत का मंदिर है या उसके प्रेतों का डेरा? जब से मुम्बई में अल्टामॉंन्ट रोड पर रहस्य और बेआवाज सरदर्द फैलाते हुए एंटिला का पदार्पण हुआ है, चीजें पहले जैसी नहीं रहीं। ‘ये रहा’, मेरे जो मित्र मुझे वहां ले गए थे उन्होंने कहा, ‘ हमारे नए शासक को सलाम बजाइये।‘
एंटिला भारत के सबसे अमीर आदमी मुकेश अंबानी का है। आज तक के सबसे महंगे इस आशियाने के बारे में मैंने पढ़ा था, सत्ताईस मंजिलें, तीन हेलीपैड, नौ लिफ्टें, हैंगिंग गार्डन्स, बॉलरूम्स, वेदर रूम्स, जिम्नेजियम, छह मंजिला पार्किंग, और छह सौ नौकर-चाकर। आड़े खड़े लॉन की तो मुझे अपेक्षा ही नहीं थी- 27 मंजिल की ऊंचाई तक चढ़ती घास की दीवार, एक विशाल धातु के ग्रिड से जुड़ी हुई। घास के कुछ सूखे टुकड़े थे; कुछ आयताकार चकत्तियां टूटकर गिरी हुई भी थीं। जाहिर है, ‘ट्रिकल डाउन’ (समृद्धि के बूंद-बूंद रिस कर निम्न वर्ग तक पहुंचने का सिद्धांत) ने काम नहीं किया था।
मगर ‘गश-अप’ (ऊपर की ओर उबल पर पहुंचने का काम) जरूर हुआ है। इसीलिए 120 करोड़ लोगों के देश में, भारत के 100 सबसे अमीर व्यक्तियों के पास सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के एक चौथाई के बराबर संपत्ति है।
राह चलतों में (और न्यूयार्क टाइम्स में भी) चर्चा का विषय है, या कम-अज-कम था, कि इतनी मशक्कत और बागवानी के बाद अंबानी परिवार एंटिला में नहीं रहता। पक्की खबर किसी को नहीं। लोग अब भी भूतों और अपशकुन, वास्तु और फेंगशुई के बारे में कानाफूसियां करते हैं। या शायद ये सब कार्ल मार्क्स की गलती है। उन्होंने कहा था, पूंजीवाद ने ‘अपने जादू से उत्पादन के और विनिमय के ऐसे भीमकाय साधन खड़े कर दिए हैं, कि उसकी हालत उस जादूगर जैसी हो गई है जो उन पाताल की शक्तियों को काबू करने में सक्षम नहीं रहा है जिन्हें उसी ने अपने टोने से बुलाया था। ‘
भारत में, हम 30 करोड़ लोग जो नए, उत्तर-आइएमएफ (अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष) ‘आर्थिक सुधार’ मध्य वर्ग का हिस्सा हैं उनके लिए – बाजार – पातालवासी आत्माओं, मृत नदियों के सूखे कुओं, गंजे पहाड़ों और निरावृत वनों के कोलाहलकारी पिशाच साथ-साथ रहते हैं: कर्ज में डूबे ढाई लाख किसानों के भूतों जिन्होंने खुद अपनी जान ले ली थी, और वे 80 करोड़ जिन्हें हमारे लिए रास्ता बनाने हेतु और गरीब किया गया और निकाला गया के साथ-साथ रहते हैं जो बीस रुपए प्रति दिन से कम में गुजारा करते हैं।
मुकेश अंबानी व्यक्तिगत तौर पर 2,000 करोड़ डॉलर (यहां तात्पर्य अमेरिकी से), जो मोटे तौर पर 10 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा ही होता है, के मालिक हैं। रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आरआइएल), 4,700 करोड़ डॉलर (रु. 23,5000 करोड़) की मार्केट कैपिटलाइजेशन वाली और वैश्विक व्यवसायिक हितों, जिनमें पेट्रोकेमिकल्स, तेल, प्राकृतिक गैस, पॉलीस्टर धागा, विशेष आर्थिक क्षेत्र, फ्रेश फूड रीटेल, हाई स्कूल, जैविक विज्ञान अनुसंधान, और मूल कोशिका संचयन सेवाओं (स्टेम सैल स्टोरेज सर्विसेज) शामिल हैं, में वे बहुतांश नियंत्रक हिस्सा रखते हैं। आरआइएल ने हाल ही में इंफोटेल के 95 प्रतिशत शेयर खरीदे हैं। इंफोटेल एक टेलीविजन संकाय (कंजोर्टियम) है जिसका 27 टीवी समाचार और मनोरंजन चैनलों पर नियंत्रण है इनमें सीएनएन-आइबीएन, आइबीएन लाइव, सीएनबीसी,आइबीएन लोकमत और लगभग हर क्षेत्रीय भाषा का ईटीवी शामिल है। इंफोटेल के पास फोर-जी ब्रॉडबैंड का इकलौता अखिल भारतीय लाइसेंस है; फोर-जी ब्रॉडबैंड ”तीव्रगति सूचना संपर्क व्यवस्था(पाइप लाइन)” है जो, अगर तकनीक काम कर गई तो, भविष्य का सूचना एक्सचेंज साबित हो सकती है। श्रीमान अंबानी जी एक क्रिकेट टीम के भी मालिक हैं।
आरआइएल उन मुट्ठी भर निगमों (कॉर्पोरेशनों) में एक है जो भारत को चलाते हैं। दूसरे निगम हैं टाटा, जिंदल, वेदांता, मित्तल, इंफोसिस, एसार और दूसरी रिलायंस (अनिल धीरूभाई अंबानी ग्रुप अर्थात एडीएजी) जिसके मालिक मुकेश के भाई अनिल हैं। विकास के लिए उनकी दौड़ योरोप, मध्य एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका तक पहुंच गई है। उन्होंने दूर-दूर तक जाल फैलाए हुए हैं; वे दृश्य हैं और अदृश्य भी, जमीन के ऊपर हैं और भूमिगत भी। मसलन, टाटा 80 देशों में 100 से ज्यादा कंपनियां चलाते हैं। वे भारत की सबसे पुरानी और विशालतम निजी क्षेत्र की बिजली पैदा करनेवाली कंपनियों में से हैं। वे खदानों, गैस क्षेत्रों, इस्पात प्लांटों, टेलीफोन, केबल टीवी और ब्रॉडबैंड नेटवर्क के मालिक हैं और समूचे नगरों को नियंत्रित करते हैं। वे कार और ट्रक बनाते हैं, ताज होटल श्रंखला, जगुआर, लैंड रोवर, देवू, टेटली चाय, प्रकाशन कंपनी, बुकस्टोर श्रंखला, आयोडीन युक्त नमक के एक बड़े ब्रांड और सौंदर्य प्रसाधन की दुनिया के बड़े नाम लैक्मे के मालिक हैं। आप हमारे बिना जी नहीं सकते: बड़े आराम से उनके विज्ञापन की यह टैगलाइन हो सकती है।
ऊपर को बढ़ो वचनामृत के अनुसार, आप के पास जितना ज्यादा है, उतना ही ज्यादा आप और पा सकते हैं।
कारोबारियों का साकार होता सपना
हर चीज के निजीकरण के युग ने भारतीय अर्थव्यवस्था को दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बना दिया है। फिर भी, किसी पुराने ढंग के अच्छे उपनिवेश की भांति, इसका मुख्य निर्यात इसके खनिज ही हैं। भारत के नए भीमकाय निगम (मेगा-कॉर्पोरेशन) – टाटा, जिंदल, एसार, रिलायंस, स्टरलाइट – वे हैं जो धक्कामुक्की करके उस मुहाने तक पहुंच गए हैं जो गहरे धरती के अंदर से निकाला गया पैसा उगल रहे हैं। कारोबारियों का तो जैसे सपना साकार हो रहा है – वे वह चीज बेच रहे हैं जो उन्हें खरीदनी नहीं पड़ती।
कॉर्पोरेट संपत्ति का दूसरा मुख्य स्रोत है उनकी भूमि के भंडार। दुनिया भर में कमजोर और भ्रष्ट स्थानीय सरकारों ने वॉल स्ट्रीट के दलालों, कृषि-व्यवसाय वाले निगमों और चीनी अरबपतियों को भूमि के विशाल पट्टे हड़पने में मदद की है। (खैर इसमें पानी नियंत्रण तो शामिल है ही)। भारत में लाखों लोगों की भूमि अधिग्रहित करके निजी कॉर्पोरेशनों को – विशेष आर्थिक क्षेत्रों (एसईजेड), आधारभूत संरचना (इन्फ्रास्ट्रक्चर) परियोजनाओं, बांध, राजमार्गों, कार निर्माण, रसायन केंद्रों, और फॉर्मूला वन रेसों के लिए ‘जन हितार्थ’ दी जा रही है। (निजी संपत्ति की संवैधानिक पवित्रता गरीबों के लिए कभी लागू नहीं होती)। हर बार स्थानीय लोगों से वादे किए जाते हैं कि अपनी भूमि से उनका विस्थापन या जो कुछ भी उनके पास है उसका हथियाया जाना वास्तव में रोजगार निर्माण का हिस्सा है। मगर अब तक हमें पता चल चुका है कि सकल घरेलू उत्पाद की दर में वृद्धि और नौकरियों का संबंध एक छलावा है। 20 सालों के ‘विकास’ के बाद भारत की श्रमशक्ति का साठ प्रतिशत आबादी स्वरोजगार में लगी है और भारत के श्रमिकों का 90 प्रतिशत हिस्सा असंगठित क्षेत्र में कार्य करता है।
आजादी के बाद, अस्सी के दशक तक, जन आंदोलन, नक्सलवादियों से लेकर जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन तक, भूमि सुधारों के लिए, सामंती जमींदारों से भूमिहीन किसानों को भूमि के पुनर्वितरण के लिए लड़ रहे थे। आज भूमि और संपत्ति के पुनर्वितरण की कोई भी बात न केवल अलोकतांत्रिक बल्कि पागलपन मानी जाएगी। यहां तक कि सर्वाधिक उग्र आंदोलनों तक को घटा कर, जो कुछ थोड़ी सी जमीन लोगों के पास रह गई है, उसे बचाने के लिए लडने पर पहुंचा दिया गया है। गांवों से खदेड़े गए, छोटे शहरों और महानगरों की गंदी बस्तियों और झुग्गी-झोपडिय़ों में रहने वाले दसियों लाख भूमिहीन लोगों का, जिनमें बहुसंख्य दलित एवं आदिवासी हैं, रेडिकल विमर्श तक में कोई उल्लेख नहीं होता।
जब गश-अप उस चमकती पिन की नोक पर संपत्ति जमा करता जाता है जहां हमारे अरबपति घिरनी खाते हैं, तब पैसे की लहरें लोकतांत्रिक संस्थाओं पर थपेड़े खाती हैं- न्यायालय, संसद और मीडिया पर भी, और जिस तरीके से उन्हें कार्य करना चाहिए उसे गंभीर जोखिम में डाल देती हैं। चुनावों के दौरान के तमाशे में जितना अधिक शोर होता है, हमारा विश्वास उतना ही कम होता जाता है कि लोकतंत्र सचमुच जीवित है।
भारत में सामने आनेवाले हर नए भ्रष्टाचार के मामले के सामने उसका पूर्ववर्ती फीका लगने लगता है। 2011 की गर्मियों में टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाला सामने आया। पता चला कि कॉर्पोरेशनों ने एक मददगार सज्जन को केंद्रीय दूरसंचार मंत्री बनवाकर चार हजार करोड़ डॉलर (दो लाख करोड़) सार्वजनिक धन खा लिया, उन महोदय ने टू-जी दूरसंचार स्पेक्ट्रम की कीमत बेहद कम करके आंकी और अपने यारों के हवाले कर दिया। प्रेस में लीक हुए टेलीफोन टेप संभाषणों ने बताया कि कैसे उद्योगपतियों का नेटवर्क और उनकी अग्र कंपनियां, मंत्रीगण, वरिष्ठ पत्रकार और टीवी एंकर इस दिनदहाड़े वाली डकैती की मदद में मुब्तिला थे। टेप तो बस एक एमआरआई थे जिन्होंने उस निदान की पुष्टि की जो लोग बहुत पहले कर चुके थे।
निजीकरण और दूरसंचार स्पेक्ट्रम की अवैध बिक्री में युद्ध, विस्थापन और पारिस्थितिकीय विनाश शामिल नहीं हैं। मगर भारत के पर्वतों, नदियों और वनों के मामले में ऐसा नहीं है। शायद इसलिए कि इसमें खुल्लमखुल्ला लेखापद्धति घोटाले जैसी स्पष्ट सरलता नहीं है, या शायद इसलिए कि यह सब भारत के ‘विकास’ के नाम पर किया जा रहा है, इस वजह से मध्य वर्ग के बीच इसकी वैसी अनुगूंज नहीं है।
कैसा संयोग?
2005 में छत्तीसगढ़, ओडिशा और झारखंड की राज्य सरकारों ने बहुत सारे निजी कॉर्पोरेशनों के साथ सैकड़ों समझौता-पत्रों (एमओयू) पर दस्तखत कर मुक्त बाजार के विकृत तर्क को भी धता बताकर खरबों रुपए के बॉक्साइट, लौह अयस्क और अन्य खनिज उन्हें कौडिय़ों के दाम दे दिए। (सरकारी रॉयल्टी 0.5 प्रतिशत से 7 प्रतिशत के बीच थी। )
टाटा स्टील के साथ बस्तर में एक एकीकृत इस्पात संयंत्र के निर्माण के लिए छत्तीसगढ़ सरकार के समझौतापत्र पर दस्तखत किए जाने के कुछ ही दिनों बाद सलवा जुड़ूम नामक एक स्वयंभू सशस्त्र अर्धसैनिक बल का उद्घाटन हुआ। सरकार ने बताया कि सलवा जुड़ूम जंगल में माओवादी छापामारों के ‘दमन’ से त्रस्त स्थानीय लोगों का स्वयंस्फूर्त विद्रोह है। सलवा जुड़ूम सरकार वित्त और शस्त्रों से लैस तथा खनन निगमों से मिली सब्सिडी प्राप्त एक आधारभूमि तैयार करने का ऑपरेशन निकला। दीगर राज्यों में दीगर नामों वाले ऐसे ही अर्धसैनिक बल खड़े किए गए । प्रधानमंत्री ने घोषणा की कि माओवादी ‘सुरक्षा के लिए भारत में एकमात्र और सबसे बड़ा खतरा हैं’। यह जंग का ऐलान था।
2 जनवरी, 2006 को पड़ोसी राज्य ओडिशा के कलिंगनगर जिले में, शायद यह बताने के लिए कि सरकार अपने इरादों को लेकर कितनी गंभीर है, टाटा इस्पात कारखाने की दूसरी जगह पर पुलिस की दस पलटनें आईं और उन गांव वालों पर गोली चला दी जो वहां विरोध प्रदर्शन के लिए इकट्ठा हुए थे। उनका कहना था कि उन्हें जमीन के लिए जो मुआवजा मिल रहा है वह कम है। एक पुलिसकर्मी समेत 13 लोग मारे गए और सैंतीस घायल हुए। छह साल बीत चुके हैं, यद्यपि सशस्त्र पुलिस द्वारा गांव की घेरेबंदी जारी है मगर विरोध ठंडा नहीं पड़ा है।
इस बीच सलवा जुडूम छत्तीसगढ़ में वनों में बसे सैकड़ों गांवों से आग लगाता, बलात्कार और हत्याएं करता बढ़ता रहा। इसने 600 गांवों को खाली करवाया, 50,000 लोगों को पुलिस कैंपों में आने और 350,000 लोगों को भाग जाने के लिए विवश किया। मुख्यमंत्री ने घोषणा की कि जो जंगलों से बाहर नहीं आएंगे उन्हें ‘माओवादी उग्रवादी’ माना जायेगा। इस तरह, आधुनिक भारत के हिस्सों में, खेत जोतने और बीज बोने जैसी कामों को आतंकवादी गतिविधियों के तौर पर परिभाषित किया गया। कुल मिला कर सलवा जुडूम के अत्याचारों ने माओवादी छापामार सेना के संख्याबल में बढ़ोत्तरी और प्रतिरोध में मजबूती लाने में मदद की। सरकार ने 2009 में वह शुरू किया जिसे ऑपरेशन ग्रीन हंट कहा जाता है। छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड और पश्चिम बंगाल में अर्धसैनिक बलों के दो लाख जवान तैनात किए गए।
तीन वर्ष तक चले ‘कम तीव्रता संघर्ष’ के बाद जो बागियों को जंगलों से बाहर ‘फ्लश’ (एक झटके में बाहर निकालने) करने में कामयाब नहीं हो पाया, केंद्र सरकार ने घोषणा की कि वह भारतीय सेना और वायु सेना तैनात करेगी। भारत में हम इसे जंग नहीं कहते। हम इसे ‘निवेश के लिए अच्छी स्थितियां तैयार करना’ कहते हैं। हजारों सैनिक पहले ही आ चुके हैं। ब्रिगेड मुख्यालय और सैन्य हवाई अड्डे तैयार किए जा रहे हैं। दुनिया की सबसे बड़ी सेनाओं में से एक सेना अब दुनिया के सबसे गरीब, सबसे भूखे, और सबसे कुपोषित लोगों से अपनी ‘रक्षा’ करने के लिए लड़ाई की शर्तें (टर्म्स ऑफ एंगेजमेंट) तैयार कर रही है। अब महज आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट (एएफएसपीए) के लागू होने का इंतजार है, जो सेना को कानूनी छूट और ‘शक की बिन्हा ‘ पर जान से मार देने का अधिकार दे देगा। कश्मीर, मणिपुर और नागालैंड में दसियों हजार बेनिशां कब्रों और बेनाम चिताओं पर अगर गौर किया जाए तो सचमुच ही सेना ने स्वयं को बेहद संदेहास्पद बना दिया है।
तैनाती की तैयारियां तो चल ही रही हैं, मध्य भारत के जंगलों की घेरेबंदी जारी है और ग्रामीण बाहर निकलने से, खाद्य सामग्री और दवाइयां खरीदने बाजार जाने से डर रहे हैं। भयावह, अलोकतांत्रिक कानूनों के अंतर्गत माओवादी होने के आरोप में सैकड़ों लोगों को कैद में डाल दिया गया है। जेलें आदिवासी लोगों से भरी पड़ी हैं जिनमें बहुतों को यह भी नहीं पता कि उनका अपराध क्या है। हाल ही में सोनी सोरी, जो बस्तर की एक आदिवासी अध्यापिका हैं, को गिरफ्तार कर पुलिस हिरासत में यातनाएं दी गईं। इस बात का ‘इकबाल’ करवाने के लिए कि वे माओवादी संदेशवाहक हैं उनके गुप्तांग में पत्थर भरे गए थे। कोलकाता के एक अस्पताल में उनके शरीर से पत्थर निकाले गए। वहां उन्हें काफी जन आक्रोश के बाद चिकित्सा जांच के लिए भेजा गया था। उच्चतम न्यायालय की हालिया सुनवाई में एक्टिविस्टों ने न्यायाधीशों को प्लास्टिक की थैली में पत्थर भेंट किए। उनके प्रयासों से केवल यह नतीजा निकला कि सोनी सोरी अब भी जेल में हैं और जिस पुलिस अधीक्षक अंकित गर्ग ने सोनी सोरी से पूछताछ की थी उसे गणतंत्र दिवस पर वीरता के लिए राष्ट्रपति का पुलिस पदक प्रदान किया गया।
मास मीडिया की सीमाएं
हमें मध्य भारत की एन्वाइरनमेन्टल और सोशल रीइंजीनियरिंग के बारे में सिर्फ व्यापक विद्रोह और जंग की वजह से खबरें मिल पाती हैं। सरकार कोई सूचना जारी नहीं करती। सारे समझौता-पत्र (एमओयू) गोपनीय हैं। मीडिया के कुछ हिस्सों ने, मध्य भारत में जो कुछ हो रहा है, उस ओर सबका ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की है। परंतु ज्यादातर मास-मीडिया इस कारण कमजोर पड़ जाता है कि उसकी कमाई का अधिकांश हिस्सा कॉर्पोरेट विज्ञापनों से आता है। पर अब तो रही सही कसर भी पूरी हो गई है। मीडिया और बड़े व्यवसायों के बीच की विभाजक रेखा खतरनाक ढंग से धुंधलाने लगी है। जैसा कि हम देख चुके हैं, आरआइएल 27 टीवी चैनलों का करीब-करीब मालिक है। मगर इसका उल्टा भी सच है। कुछ मीडिया घरानों के अब सीधे-सीधे व्यवसायिक और कॉर्पोरेट हित हैं। उदाहरण के लिए, इस क्षेत्र के प्रमुख दैनिक समाचारपत्रों में से एक – दैनिक भास्कर (और यह बस एक उदाहरण है) – के 13 राज्यों में चार भाषाओं के, जिनमें हिंदी और अंग्रेजी दोनों शामिल हैं, एक करोड़ 75 लाख पाठक हैं। यह 69 कंपनियों का मालिक भी है जो खनन, ऊर्जा उत्पादन, रीयल एस्टेट और कपड़ा उद्योग से जुड़े हैं। छत्तीसगढ़ उच्च-न्यायालय में हाल ही में दायर की गई एक याचिका में डी बी पावर लिमिटेड (दैनिक भास्कर समूह की कंपनियों में से एक) पर कोयले की एक खुली खदान को लेकर हो रही जन-सुनवाई के परिणाम को प्रभावित करने हेतु कंपनी की मिल्कियत वाले अखबारों द्वारा ”जानबूझ कर, अवैध और प्रभावित करनेवाले तरीके” अपनाने का आरोप लगाया गया। यहां यह बात प्रासंगिक नहीं कि उन्होंने परिणाम को प्रभावित करने की कोशिश की या नहीं। मुद्दा यह है कि मीडिया घराने ऐसा करने की स्थिति में है। ऐसा करने की ताकत भी उनके पास है। देश के कानून उन्हें ऐसी स्थिति में होने की इजाजत देते हैं जो हितों के गंभीर टकराव वाली स्थितियां हैं।
देश के और भी हिस्से हैं जहां से कोई खबर नहीं आती। बहुत ही कम जनसंख्या वाले पर सैन्यीकृत उत्तर-पूर्वी राज्य अरुणाचल प्रदेश में 168 बड़े बांध बनाये जा रहे हैं जिनमें अधिकतर निजी क्षेत्र के हैं। मणिपुर और कश्मीर में ऊंचे बांध बनाये जा रहे हैं जो समूचे जिलों को डुबो देंगे, ये दोनों ही अत्यंत सैन्यीकृत राज्य हैं जहां सिर्फ बिजली की कटौती का विरोध करने के लिए भी लोगों को मारा जा सकता है। (ऐसा कुछ ही हफ्तों पहले कश्मीर में हुआ। ) तो वे बांध का निर्माण कैसे रोक सकते हैं?
विकृत सपने
गुजरात का कल्पसर बांध सर्वाधिक भ्रांतिकारी है। इसकी योजना खंभात की खाड़ी में एक 34 किमी लंबे बांध के रूप में बनाई जा रही है जिसके ऊपर एक दस लेन हाइवे और एक रेलवे लाइन भी होगी। समुद्र के पानी को बाहर कर गुजरात की नदियों के मीठे पानी का जलाशय बनाने का इरादा है। (यह बात और है कि इन नदियों की अंतिम बूंद तक पर बांध बना दिया गया है और रासायनिक निस्सारण से ये जहरीली हो चुकी हैं। ) कल्पसर बांध को, जो समुद्र सतह को बढ़ाएगा और समुद्र तट की सैकड़ों किलोमीटर की पारिस्थितिकी को बदल देगा, दस साल पहले ही एक हानिकारक विचार मान कर खारिज कर दिया गया था। इसकी अचानक वापसी इसलिए हुई है क्योंकि धोलेरा विशेष निवेश क्षेत्र (स्पेशल इंवेस्टमेंट रीजन या एसआइआर) को पानी की आपूर्ति की जा सके जो भारत ही नहीं बल्कि दुनिया भर के सबसे कम पानी वाले भूभागों में से एक में स्थित है। एसईजेड का ही दूसरा नाम है एसआइआर, मतलब ‘औद्योगिक पार्कों, उपनगरों (टाउनशिप) और मेगाशहरों’ का स्वशासित कॉर्पोरेट नरक (डिस्टोपिया)। धोलेरा एसआइआर को दस लेन राजमार्गों के जाल से गुजरात के अन्य शहरों से जोड़ा जाएगा। इन सब के लिए पैसा कहां से आएगा?
जनवरी, 2011 में महात्मा (गांधी) मंदिर में गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी ने 100 देशों से आये 10,000 अंतर्राष्ट्रीय कारोबारियों के सम्मेलन की अध्यक्षता की। मीडिया की रिपोर्टों के अनुसार उन्होंने गुजरात में 45,000 करोड़ डॉलर निवेश करने का वादा किया है। फरवरी-मार्च, 2002 में हुए 2,000 मुसलमानों के कत्लेआम की दसवीं बरसी की शुरुआत के मौके पर ही वह सम्मेलन होने वाला था। मोदी पर न केवल हत्याओं की अनदेखी करने का बल्कि सक्रिय रूप से उन्हें बढ़ावा देने का भी आरोप है। जिन लोगों ने अपने प्रियजनों का बलात्कार होते, उन्हें टुकड़े-टुकड़े होते और जिंदा जलाये जाते देखा है, जिन दसियों हजार लोगों को अपना घर छोडऩे के लिए मजबूर किया गया था, वे अब भी इंसाफ के हल्के से इशारे के मुंतजिर हैं। मगर मोदी ने अपना केसरिया दुपट्टा और सिंदूरी माथा चमकदार बिजनेस सूट से बदल लिया है और उन्हें उम्मीद है कि 45,000 करोड़ डॉलर का निवेश ब्लड मनी (मुआवजे) के तौर पर काम करेगा और हिसाब बराबर हो जाएगा। शायद ऐसा हो भी जाए। बड़ा व्यवसाय उत्साह से उनका समर्थन कर रहा है। अपरिमित न्याय का बीजगणित रहस्यमय तरीकों से काम करता है।
धोलेरा एसआइआर छोटी मात्रियोश्का गुडिय़ों में एक है, जिस नरक की योजना बनाई जा रही है उसकी एक अंदर वाली गुडिय़ा। ये दिल्ली मुंबई औद्योगिक गलियारे (डीएमआइसी) से जोड़ा जायेगा, डीएमआइसी एक 1500 किमी लंबा और 300 किमी चौड़ा औद्योगिक गलियारा होगा जिसमें नौ बहुत बड़े औद्योगिक क्षेत्र, एक तीव्र-गति मालवाहक रेल लाइन, तीन बंदरगाह और छह हवाई अड्डे, एक छह लेन का बिना चौराहों (इंटरसेक्शन) वाला द्रुतगति मार्ग और एक 4000 मेगावाट का ऊर्जा संयंत्र होगा। डीएमआइसी भारत और जापान की सरकारों और उनके अपने-अपने कॉर्पोरेट सहयोगियों का साझा उद्यम है और उसे मेकिंजी ग्लोबल इंस्टिट्यूट ने प्रस्तावित किया है।
डीएमआइसी की वेबसाइट कहती है कि इस प्रोजेक्ट से लगभग 18 करोड़ लोग ‘प्रभावित’ होंगे। वास्तव में वे किस प्रकार प्रभावित होंगे यह नहीं बताया गया। कई नए शहरों का निर्माण किए जाने का अनुमान है और अंदाजा है कि 2019 तक इस क्षेत्र की जनसंख्या वर्तमान 23.1 करोड़ से बढ़कर 31.4 करोड़ हो जाएगी। क्या आपको याद है कि आखिरी बार कब किसी राज्य, निरंकुश शासक या तानाशाह ने दसियों लाख लोगों की जनसंख्या को स्थानांतरित किया था? क्या यह प्रक्रिया शांतिपूर्ण हो सकती है?
भारतीय सेना को शायद भर्ती अभियान चलाना पड़ेगा ताकि जब उसे भारत भर में तैनाती का आदेश मिले तो शर्मिंदगी का सामना न करना पड़े। मध्य भारत में अपनी भूमिका की तैयारी में भारतीय सेना ने सैन्य मनोवैज्ञानिक परिचालन (मिलिटरी साइकोलॉजिकल ऑपरेशंस) पर अपना अद्यतन सिद्धांत सार्वजनिक रूप से जारी किया, जो ‘वांछित प्रवृत्तियों और आचरण पैदा करने वाली खास विषय वस्तुओं को बढ़ावा देने के लिए चुनी हुई लक्षित जनता तक संदेश संप्रेषित करने की नियोजित प्रक्रिया’ का खाका खींचती है ‘जो देश के राजनीतिक और सैनिक उद्देश्यों की प्राप्ति पर असर डालती है’। इसके अनुसार ‘अभिज्ञता प्रबंधन’ की यह प्रक्रिया, ‘सेना को उपलब्ध संचार माध्यमों’ के द्वारा संचालित की जायेगी।
अपने अनुभव से सेना को पता है कि जिस पैमाने की सामाजिक इंजीनियरिंग भारत के योजनाकर्ताओं ने सोची है उसे केवल बलपूर्वक प्रबंधित और कार्यान्वित नहीं किया जा सकता। गरीबों के खिलाफ जंग एक बात है। मगर हम जैसे बाकी बचे लोगों के लिए- मध्य वर्ग, सफेदपोश कर्मी, बुद्धिजीवी, ‘अभिमत बनाने वाले’ – तो यह ‘अभिज्ञता प्रबंधन’ ही चाहिए होगा। और इसके लिए हमें अपना ध्यान ‘कॉर्पोरेट परोपकार’ की उत्कृष्ट कला की ओर ले जाना होगा।
खुशी का उत्खनन
हाल के दिनों में प्रमुख खनन समूहों ने कला को अंगीकार कर लिया है – फिल्में, कला और साहित्यिक समारोहों की बढ़ती भीड़ ने नब्बे के दशक की सौंदर्य प्रतियोगिताओं को लेकर पाए जाने वाले जुनून की जगह ले ली है। वेदांता, जो फिलहाल बॉक्साइट के लिए प्राचीन डोंगरिया कोंध जनजाति की जन्मभूमि को बेतहाशा खोद रही है, युवा सिने विद्यार्थियों के बीच ‘क्रिएटिंग हैपिनेस’ नामक फिल्म प्रतियोगिता प्रायोजित कर रही है। इन विद्यार्थियों को वेदान्ता ने संवहनीय विकास अर्थात सस्टेनेबल डेवलपमेंट पर फिल्में बनाने हेतु नियुक्त किया है। वेदान्ता की टैगलाइन है ‘माइनिंग हैपिनेस’ (खुशी का उत्खनन)। जिंदल समूह समकालीन कला पर केंद्रित एक पत्रिका निकालता है और भारत के कुछ बड़े कलाकारों की सहायता करता है (जो स्वाभाविक है कि इनका माध्यम स्टेनलेस स्टील है। ) तहलका न्यूजवीक थिंक फेस्ट (चिंतन महोत्सव)का एसार समूह प्रमुख प्रायोजक था जिसमें वादा किया गया था कि दुनिया के अग्रणी चिंतकों के बीच, जिनमें बड़े लेखक, एक्टिविस्ट और वास्तुविद फ्रैंक गैरी तक शामिल थे, तेजतर्रार बहसें हाई आक्टेन डिबेट्स होंगीं। (ये सब गोवा में हो रहा था, जहां एक्टिविस्ट और पत्रकार भीमकाय अवैध खनन घोटालों को उजागर कर रहे थे और बस्तर में युद्ध में एस्सार की भूमिका सामने आने लगी थी।) टाटा स्टील और रिओ टिंटो (जिसका अपना ही घिनौना इतिहास है) जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल (वैज्ञानिक नाम- दर्शन सिंह कन्सट्रक्शन्स जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल) के मुख्य प्रायोजकों में थे जिसको कला-मर्मज्ञों ने ‘धरती का महानतम साहित्यिक उत्सव’ कहकर विज्ञापित किया है। काउन्सेलेज ने, जो टाटा की स्ट्रेटेजिक ब्रांड मैनेजर है, फेस्टिवल का प्रेस तंबू प्रायोजित किया। दुनिया के बेहतरीन और प्रतिभाशाली लेखकों में से कई जयपुर में प्रेम, साहित्य, राजनीति और सूफी शायरी पर बातें करने के लिए जमा हुए थे। उनमें से कुछ ने सलमान रुश्दी की प्रतिबंधित पुस्तक सैटनिक वर्सेज का पाठ करके उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बचाव करने की कोशिश की। हर टीवी फ्रेम और अखबारी तस्वीर में, लेखकों के पीछे टाटा का लोगो (और उनकी टैगलाइन- वैल्यूज स्ट्रांगर दैन स्टील -इस्पात से मजबूत मूल्य) एक सौम्य और परोपकारी मेजबान के रूप में छाया था। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुश्मन कथित रूप से हिंसक मुसलमानों की वह भीड़ थी जो, जैसा कि आयोजकों ने हमें बताया, वहां इकठ्ठा हुए स्कूली बच्चों तक को नुकसान पहुंचा सकती थी। (हम इस बात के गवाह हैं कि मुसलमानों के बारे में भारत सरकार और पुलिस कितनी असहाय हो सकती है। ) हां, कट्टरपंथी देवबंदी इस्लामी मदरसे ने रुश्दी को फेस्टिवल में बुलाये जाने का विरोध किया। हां, कुछ इस्लामवादी निश्चय ही आयोजन स्थल पर विरोध प्रदर्शित करने के लिए एकत्रित हुए थे और हां, भयावह बात यह है कि आयोजन स्थल की रक्षा करने के लिए राज्य सरकार ने कुछ नहीं किया। वह इसलिए कि पूरे घटनाक्रम का लोकतंत्र, वोटबैंक और उत्तर प्रदेश चुनावों से उतना ही लेना-देना था जितना इस्लामवादी कट्टरपंथ से। मगर इस्लामवादी कट्टरपंथ के विरुद्ध अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की लड़ाई ने दुनिया भर के अखबारों में जगह पाई। यह अहम् बात है कि ऐसा हुआ। मगर फेस्टिवल के प्रायोजकों की जंगलों में चल रहे युद्ध, लाशों के ढेर लगने और जेलों के भरते जाने में भूमिका के बारे में शायद ही कोई रिपोर्ट हो। या फिर गैरकानूनी गतिविधि प्रतिबंधक विधेयक या छतीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा विधेयक के बारे में कोई रिपोर्ट जो सरकार-विरोधी बात सोचने तक को संज्ञेय अपराध बनाते हैं। या फिर लोहंडीगुडा के टाटा इस्पात संयंत्र को लेकर अनिवार्य जन सुनवाई के बारे में, जो स्थानीय लोगों की शिकायत के अनुसार वास्तव में सैकड़ों मील दूर जगदलपुर में जिलाधीश कार्यालय के प्रांगण में किराये पर लाए गए पचास लोगों की उपस्थिति में और हथियारबंद सुरक्षा के बीच हुई। उस वक्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहां थी? किसी ने कलिंगनगर का जिक्र नहीं किया। किसी ने जिक्र नहीं किया कि भारत सरकार को जो विषय अप्रिय हैं उन पर – जैसे श्रीलंका के युद्ध में तमिलों के नरसंहार में उसकी गुप्त भूमिका या कश्मीर में हाल में खोजी गईं बेनिशान कब्रें- काम करने वाले पत्रकारों, अकादमिकों और फिल्म बनाने वालों के वीजा अस्वीकृत किए जा रहे हैं या उन्हें एअरपोर्ट से सीधे निर्वासित कर दिया जा रहा है।
मगर हम पापियों में कौन पहला पत्थर उछालने वाला था? मैं तो नहीं, जो कॉर्पोरेट प्रकाशन गृहों से मिलने वाली रॉयल्टियों पर गुजर करती हूं। हम सब टाटा स्काई देखते हैं, टाटा फोटॉन से इंटरनेट पर विचरण करते हैं, टाटा टैक्सियों में घूमते हैं, टाटा होटलों में रहते हैं, टाटा की चीनी मिट्टी के कप में अपनी टाटा चाय की चुस्कियां लेते हैं और उसे टाटा स्टील से बने चम्मच से घोलते हैं। हम टाटा की किताबें टाटा की किताबों की दुकान से खरीदते हैं। हम टाटा का नमक खाते हैं। हम घेर लिए गए हैं।
अगर नैतिक पवित्रता के हथौड़े को पत्थर फेंकने का मापदंड होना है, तो केवल वे ही लोग योग्य हैं जिन्हें पहले ही खामोश कर दिया गया है। जो लोग इस व्यवस्था से बाहर रहते हैं; जंगल में रहने वाले अपराधी घोषित कर दिए लोग, या वे जिनका विरोध प्रेस कभी कवर नहीं करता, या फिर वे शालीन विस्थापित जन जो इस ट्राइब्यूनल से उस ट्राईब्यूनल तक साक्ष्यों को सुनते हैं और साक्ष्य बनते, घूमते हैं।
मगर लिट्फेस्ट ने हमें वाह! वाह! का मौका तो दिया ही। ओपरा आईं। उन्होंने कहा भारत मुझे पसंद आया और मैं बार-बार यहां आउंगीं। इसने हमें गौरवान्वित किया।
ये उत्कृष्ट कला का प्रहसनात्मक अंत है।
Tata Memorial Hospital Mumbaiवैसे तो टाटा लगभग सौ सालों से कॉर्पोरेट परोपकार में शामिल है, छात्रवृत्तियां प्रदान कर और कुछ बेहतरीन शिक्षा संस्थान व अस्पताल चलाकर। पर भारतीय निगमों को इस स्टार चेंबर, या कैमेरा स्टेलाटा में हाल ही में आमंत्रित किया गया है। कैमेरा स्टेलाटा वैश्विक कॉर्पोरेट सरकार की वह चमचमाती दुनिया है जो उसके विरोधियों के लिए तो मारक है मगर वैसे इतनी कलात्मक है कि आपको उसके अस्तित्व का पता ही नहीं चलता।
परोपकार की धारा
इस निबंध में आगे जो आने वाला है, वह कुछ लोगों को किंचित कटु आलोचना प्रतीत होगी। दूसरी ओर, अपने विरोधियों का सम्मान करने की परंपरा में, इसे उन लोगों की दृष्टि, लचीलेपन, परिष्करण और दृढ़ निश्चय की अभिस्वीकृति के तौर पर भी पढ़ा जा सकता है, जिन्होंने अपनी जिंदगियां दुनिया को पूंजीवाद के लिए सुरक्षित रखने हेतु समर्पित कर दी हैं।
उनका सम्मोहक इतिहास, जो समकालीन स्मृति से धुंधला हो गया है, अमेरिका में बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में आरंभ हुआ , जब दानप्राप्त फाउंडेशनों के रूप में कानूनन खड़े किए जाने पर कॉर्पोरेट परोपकार ने पूंजीवाद के (और साम्राज्यवाद) के लिए रास्ते खोलने वाले और मुस्तैद निगहबानी करने वाले की भूमिका से मिशनरी गतिविधियों की जगह लेनी शुरू की। अमेरिका में स्थापित किए गए शुरुआती फाउंडेशनों में थे कार्नेगी स्टील कंपनी के मुनाफों से मिले दान से 1911 में कार्नेगी कारपोरेशन; और स्टैण्डर्ड आयल कंपनी के संस्थापक जे. डी. रॉकफेलर के दान से 1914 में बना रॉकफेलर फाउंडेशन। उस समय के टाटा और अंबानी।
रॉकफेलर फाउंडेशन द्वारा वित्तपोषित, प्रारंभिक निधि प्राप्त या सहायता प्राप्त कुछ संस्थान हैं संयुक्त राष्ट्र संघ, सीआइए, काउंसिल फॉर फॉरेन रिलेशंस, न्यूयॉर्क का बेहद शानदार म्यूजियम ऑफ मॉडर्न आर्ट और बेशक न्यूयॉर्क का रॉकफेलर सेंटर (जहां डिएगो रिविएरा को म्यूरल दीवार से तोड़ कर हटा दिया गया था क्योंकि उसमें शरारतपूर्ण ढंग से मूल्यहीन पूंजीपतियों और वीर लेनिन को दर्शाया गया था। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उस दिन छुट्टी मना रही थी। )
जे.डी. रॉकफेलर अमेरिका के पहले अरबपति और दुनिया के सबसे अमीर आदमी थे। वे दासता-विरोधी, अब्राहम लिंकन के समर्थक थे और शराब को हाथ नहीं लगाते थे। उनका विश्वास था कि उनका धन भगवान का दिया हुआ है जो निश्चय ही उनके प्रति दयालु रहा होगा।
प्रस्तुत हैं ‘स्टैण्डर्ड आयल कंपनी’ शीर्षक पाब्लो नेरुदा की एक शुरुआती कविता के अंश:
न्यूयॉर्क के उनके थुलथुल बादशाह लोग Standard Oil Company
सौम्य मुस्कराते हत्यारे हैं
जो खरीदते हैं रेशम, नायलॉन, सिगार,
हैं छोटे-मोटे आततायी और तानाशाह ।
वे खरीदते हैं देश, लोग, समंदर, पुलिस, विधान/ सभाएं,
दूरदराज के इलाके जहां गरीब इकट्ठा करते हैं/ अनाज
जैसे कंजूस जोड़ते हैं सोना,
स्टैंडर्ड आयल उन्हें जगाती है,
वर्दियां पहनाती है,
बताती है कि कौन-सा भाई है शत्रु उनका।
उसकी लड़ाई पराग्वे वासी लड़ता है
और बोलीवियाईजंगलों में इसकी मशीनगनों के साथ भटकता है।
पेट्रोलियम की एक बूंद के लिए मार डाला गया/ एक राष्ट्रपति,
दस लाख एकड़ रेहन रखता है,
उजाले से मृत पथरायी हुई एक सुबह तेजी से /दिया जाता है मृत्युदंड ,
बागियों के लिए एक नया कैदखाना
पातागोनिया में, एक विश्वासघात, पेट्रोलियम/चांद के तले
गोलियों की छिट पुट आवाजें, राजधानी में
मंत्रियों को उस्तादी से बदलना,
राजधानी में, एक फुसफुसाहट
तेल की लहरों जैसी
और फिर प्रहार। आप देखेंगे
कि कैसे स्टैंडर्ड आयल के शब्द चमकते हैं/ बादलों के ऊपर,
समंदरों के ऊपर, आपके घर में
अपने प्रभाव क्षेत्र को जगमगाते हुए।
करों से मुक्ति का मार्ग
अमेरिका में जब पहले-पहल कॉर्पोरेट धनप्राप्त फाउंडेशनों का आविर्भाव हुआ तो वहां उनके उद्गम, वैधता और उत्तरदायित्व के अभाव को लेकर तीखी बहस हुई। लोगों ने सलाह दी कि अगर कॉर्पोरेशनों के पास इतना अधिशेष है, तो उन्हें मजदूरों की तनख्वाहें बढ़ानी चाहिए। (उन दिनों अमेरिका में भी लोग ऐसी बेहूदा सलाहें दिया करते थे। ) इन फाउंडेशनों का विचार, जो आज मामूली बात लगता है, दरअसल कारोबारी कल्पना की एक ऊंची छलांग था। करों से मुक्त वैध संस्थाएं जिनके पास अत्यधिक संसाधन और लगभग असीमित योजनाएं हों – जवाबदेही से पूर्णत: मुक्त, पूर्णत: अपारदर्शी – आर्थिक संपत्ति को राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पूंजी में बदलने का इससे बढिय़ा तरीका और क्या हो सकता है? सूदखोरों के लिए अपने मुनाफों के एक रत्तीभर प्रतिशत को दुनिया को चलाने में इस्तेमाल करने का इससे बढिय़ा तरीका और क्या हो सकता है? वरना बिल गेट्स जो, खुद कहते हैं कि वे कंप्यूटर के बारे में भी एक-दो चीजें ही जानते हैं, सिर्फ अमेरिकी सरकार के लिए ही नहीं बल्कि दुनिया भर की सरकारों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि नीतियां तैयार करते पाए जाते हैं?
विगत वर्षों में जब लोगों ने फाउंडेशनों द्वारा की गई कुछ सचमुच अच्छी चीजें (सार्वजनिक पुस्तकालय चलाना, बीमारियों का उन्मूलन) देखीं- वहीं कॉर्पोरेशनों और उनसे पैसा प्राप्त फाउंडेशनों के बीच का सीधा संबंध धुंधलाने लगा। अंतत: वह पूरी तरह धुंधला पड़ा गया। आज तो अपने आप को वामपंथी समझने वाले तक उनकी दानशीलता स्वीकारने से शर्माते नहीं हैं।
1920 के दशक तक अमेरिकी पूंजीवाद ने कच्चे माल और विदेशी बाजार के लिए बाहर नजर डालना शुरू कर दिया था। फाउंडेशनों ने वैश्विक कार्पोरेट प्रशासन के विचार का प्रतिपादन शुरू किया। 1924 में रॉकफेलर और कार्नेगी फाउंडेशनों ने मिलकर काउंसिल फॉर फॉरेन रिलेशंस (सीएफआर – विदेश संबंध परिषद) की स्थापना की जो आज दुनिया का सबसे शक्तिशाली विदेश नीति दबाव-समूह है। सीएफआर को बाद में फोर्ड फाउंडेशन से भी अनुदान मिला। सन 1947 के आते-आते सीएफआर नवगठित सीआईए को पूरा समर्थन देने लगा और वे साथ मिलकर काम करने लगे। अब तक अमेरिका के 22 गृह-सचिव (सेक्रेटरी ऑफ स्टेट) सीएफआर के सदस्य रह चुके हैं। सन 1943 की परिचालन समिति में, जिसने संयुक्त राष्ट्र संघ की योजना बनाई थी, पांच सीएफआर सदस्य थे, और आज न्यूयॉर्क में जहां सं.रा.संघ का मुख्यालय खड़ा है वह जमीन जे.डी. रॉकफेलर द्वारा मिले 850 करोड़ डॉलर के अनुदान से खरीदी गई थी।
1946 से लेकर आज तक विश्व बैंक के सभी ग्यारह अध्यक्ष – वे लोग जो स्वयं को गरीबों का मिशनरी बतलाते हैं – सीएफआर के सदस्य रहे हैं। (जॉर्ज वुड्स इसके अपवाद हैं और वे रॉकफेलर फाउंडेशन के ट्रस्टी और चेज-मैनहटन बैंक के उपाध्यक्ष थे। )
सद्भावना का अंतरराष्ट्रीय चेहरा
IMF Cartoon from Bulbul Dot Comब्रेटन वुड्स में विश्व बैंक और आइएमएफ (अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष) ने निर्णय लिया कि अमेरिकी डॉलर को विश्व की संचय मुद्रा (रिजर्व करंसी) होना चाहिए और यह कि वैश्विक पूंजी की पैठ को और बढ़ाने के लिए जरूरी होगा कि एक मुक्त बाजार व्यवस्था में प्रयुक्त व्यवसायिक कार्यप्रणालियों का सार्वभौमीकरण और मानकीकरण किया जाए। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे गुड गवर्नेंस (जब तक डोरी उनके हाथों में रहे) और रूल ऑफ लॉ अर्थात कानून-व्यवस्था (बशर्ते कानून बनाने में उनकी चले) की संकल्पना और सैकड़ों भ्रष्टाचार-विरोधी कार्यक्रमों (उनकी बनाई हुई व्यवस्था को सरल और कारगर बनाने हेतु) को बढ़ावा देने के लिए इतना पैसा खर्च करते हैं। विश्व की दो सर्वाधिक अपारदर्शी और जवाबदेह-रहित संस्थाएं गरीब देशों की सरकारों से पारदर्शिता और उत्तरदायित्व की मांग करती फिरती हैं।
ये देखते हुए कि एक के बाद दूसरे देश के बाजारों को बलपूर्वक और जबरदस्ती वैश्विक वित्त के लिए खुलवाकर विश्व बैंक ने तीसरी दुनिया की आर्थिक नीतियों को लगभग निर्देशित किया है, कहा जा सकता है कि कॉर्पोरेट परोपकार आज तक का सबसे दिव्य धंधा साबित हुआ है।
कॉर्पोरेट-धनप्राप्त फाउंडेशन अभिजात क्लबों और थिंक-टैंकों (चिंतन मंडलियों) की व्यवस्था के द्वारा अपनी शक्ति का इस्तेमाल करते हैं और अपने खिलाडिय़ों को शतरंज की बिसात पर इन विशिष्ट क्लबों और थिंक-टैंकों के जरिये बैठाते हैं। इनके सदस्य साझा होते हैं और घूमते दरवाजों से अंदर बाहर होते रहते हैं। खासकर वामपंथी समूहों के बीच जो विभिन्न षड्यंत्र-गाथाएं प्रचलन में हैं, उनके उलट इस व्यवस्था के बारे में कुछ भी गोपनीय, शैतानी और गुप्त-सदस्यता जैसा नहीं है। जिस तरह कॉर्पोरेशन शैल (नाममात्र) के लिए पंजीकृत कंपनियों और अपतट (ऑफशोर) खातों का इस्तेमाल पैसे के हस्तांतरण और प्रबंधन के लिए करते हैं, यह तरीका उससे बहुत अलग नहीं है। फर्क इतना ही है कि यहां प्रचतिल मुद्रा ताकत है, पैसा नहीं।
सीएफआर का अंतर्राष्ट्रीय समतुल्य है तीन आयामी आयोग, जिसकी स्थापना 1973 में डेविड रॉकफेलर, अमेरिका के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ज्बीग्न्येफ ब्रजिन्स्की (अफगान मुजाहिद्दीन अर्थात तालिबान के पूर्वज का संस्थापक-सदस्य), चेज-मैनहटन बैंक और कुछ अन्य निजी प्रतिष्ठानों ने मिलकर की थी। इसका उद्देश्य था उत्तरी अमेरिका, योरोप और जापान के अभिजातों के बीच मैत्री और सहकार्य का एक चिरस्थायी बंधन तैयार करना। ये अब एक पंचकोणीय आयोग बन गया है क्योंकि इसमें अब भारत और चीन के सदस्य भी शामिल हैं। (सीआइआइ के तरुण दास; इनफोसिस के पूर्व-सीईओ एन.आर.नारायणमूर्ति; गोदरेज के प्रबंध निदेशक जमशेद एन. गोदरेज, टाटा संस के निदेशक जमशेद जे. ईरानी; और अवंता समूह के सीईओ गौतम थापर)।
द ऐस्पन इंस्टीट्यूट स्थानीय अभिजातों, व्यवसायिकों, नौकरशाहों, राजनीतिकों का एक अंतर्राष्ट्रीय क्लब है जिसकी शाखाएं बहुत से देशों में हैं। ऐस्पन इंस्टीट्यूट की भारतीय शाखा के अध्यक्ष तरुण दास हैं। गौतम थापर सभापति हैं। मैकंजी ग्लोबल इंस्टीट्यूट (दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारे के प्रस्तावक) के कई वरिष्ठ पदाधिकारी सीएफआर के, ट्राईलैटरल कमीशन के, और द ऐस्पन इंस्टीट्यूट के सदस्य हैं।
द फोर्ड फाउंडेशन (जो किंचित अनुदार रॉकफेलर फाउंडेशन का उदारवादी रूप है, हालांकि दोनों लगातार मिलकर काम करते हैं) की स्थापना 1936 में हुई। हालांकि उसे अक्सर कम महत्त्व दिया जाता है, पर फोर्ड फाउंडेशन की एकदम साफ और पूर्णत: स्पष्ट विचारधारा है और यह अपनी गतिविधियां अमेरिकी गृहमंत्रालय के साथ बहुत नजदीकी से तालमेल बैठाकर चलाता है। लोकतंत्र और ‘गुड गवर्नंस’ (सुशासन)को गहराने का उनका प्रोजेक्ट मुक्त बाजार में कारोबारी कार्यप्रणालियों के मानकीकरण और कार्यक्षमता को बढ़ावा देने की ब्रेटन वुड्स स्कीम का ही हिस्सा है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद, जब अमेरिकी सरकार के शत्रु नंबर एक के तौर पर फासिस्टों की जगह कम्युनिस्टों ने ले ली थी, शीत युद्ध से निपटने के लिए नई तरह की संस्थाओं की जरूरत थी। फोर्ड ने आरएएनडी (रिसर्च एंड डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन या रैंड) को पैसा दिया जो एक सैन्य थिंक-टैंक है और उसने शुरुआत अमेरिकी रक्षा विभाग के लिए अस्र अनुसंधान के साथ की। 1952 में ‘मुक्त राष्ट्रों में घुसपैठ करने और उनमें अव्यवस्था फैलाने के अनवरत साम्यवादी प्रयत्नों’ को रोकने के लिए उसने गणतंत्र कोष की स्थापना की, जो फिर लोकतांत्रिक संस्थानों के अध्ययन केंद्र में परिवर्तित हो गया । उसका काम था मैकार्थी की ज्यादतियों के बिना चतुराई से शीत युद्ध लडऩा। भारत में करोड़ों डालर निवेश करके जो काम फोर्ड फाउंडेशन कर रहा है- कलाकारों, फिल्मकारों और एक्टिविस्टों को दीए जाने वाली वित्तीय मददें, विश्वविद्यालयीन कोर्सों और छात्रवृत्तियों हेतु उदार अनुदान – उसे हमें इस नजरिए से देखना होगा।
फोर्ड फाउंडेशन के घोषित ‘मानवजाति के भविष्य के लक्ष्यों ‘ में स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय जमीनी राजनीतिक आंदोलनों में हस्तक्षेप करना है। अमेरिका में इसने क्रेडिट यूनियन मूवमेंट को सहायता देने के लिए अनुदान और ऋण के तौर पर करोड़ों लाख डॉलर मुहैया करवाए। 1919 में शुरू हुए क्रेडिट यूनियन मूवमेंट के प्रणेता एक डिपार्टमेंट स्टोर के मालिक एडवर्ड फाइलीन थे। मजदूरों को वहन किए जाने योग्य ऋण उपलब्ध कराकर उपभोक्ता वस्तुओं के लिए एक विशाल उपभोक्ता समाज (मास कंजम्प्शन सोसाइटी) बनाने में फाइलीन का विश्वास था- जो उस समय एक क्रांतिकारी विचार था। दरअसल यह विचार केवल आधा ही क्रांतिकारी था, क्योंकि फाइलीन का जो विश्वास था उसका दूसरा आधा हिस्सा था राष्ट्रीय आय का अधिक समतापूर्ण वितरण। फाइलीन के सुझाव का पहला आधा हिस्सा पूंजीपतियों ने हथिया लिया और मेहनतकश लोगों को लाखों डॉलर के ‘एफोर्डेबल’ ऋण वितरित कर अमेरिका के मेहनतकश वर्ग को हमेशा के लिए कर्जे में रहने वाले लोगों में बदल दिया जो अपनी जीवन शैली को अद्यतन करते रहने के लिए हमेशा भागदौड़ में लगे रहते हैं।
बहुत सालों बाद यह विचार बांग्लादेश के दरिद्र देहाती क्षेत्र में ‘ट्रिकल डाउन’ (रिसकर) होकर पहुंचा जब मुहम्मद युनुस और ग्रामीण बैंक ने भूखे मरते किसानों को माइक्रोक्रेडिट (लघु वित्त) उपलब्ध करवाया जिसके विनाशकारी परिणाम हुए। भारत में लघुवित्त कंपनियां सैकड़ों आत्महत्याओं के लिए जिम्मेदार हैं- सिर्फ 2010 में ही आंध्र प्रदेश में 240 लोगों ने खुदकुशी की। हाल ही में एक राष्ट्रीय दैनिक ने एक ऐसी अठारह वर्षीय लड़की का खुदकुशी करने से पहले लिखा पत्र प्रकाशित किया था जिसे उसके पास बचे आखिरी 150 रुपए, जो उसकी स्कूल की फीस थी, लघुवित्त कंपनी के गुंडई करने वाले कर्मचारियों को देने पर मजबूर होना पड़ा। उस पत्र में लिखा था, ‘मेहनत करो और पैसा कमाओ। कर्जा मत लो। ‘
गरीबी में बहुत पैसा है, और चंद नोबेल पुरस्कार भी।
स्वयंसेवा का मार्ग
1950 के दशक तक कई एनजीओ और अंतर्राष्ट्रीय शैक्षिक संस्थानों को पैसा देने के काम के साथ-साथ रॉकफेलर और फोर्ड फाउंडेशन ने अमेरिकी सरकार की लगभग शाखाओं के तौर पर काम करना शुरू कर दिया था। अमेरिकी सरकार उस वक्त लातिन अमेरिका, ईरान और इंडोनेशिया में लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकारें गिराने में लगी हुई थी। (यही वह समय है जब उन्होंने भारत में प्रवेश किया जो गुटनिरपेक्ष था पर साफ तौर पर उसका झुकाव सोवियत संघ की तरफ था। ) फोर्ड फाउंडेशन ने इंडोनेशियाई विश्वविद्यालय में एक अमेरिकी-शैली का अर्थशास्त्र का पाठ्यक्रम स्थापित किया। संभ्रांत इंडोनेशियाई छात्रों ने, जिन्हें विप्लव-प्रतिरोध (काउंटर इंसर्जंसी) में अमेरिकी सेना के अधिकारियों ने प्रशिक्षित किया था, 1965 में सीआईए-समर्थित तख्ता-पलट में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी जिसमें जनरल सुहार्तो सत्ता में आये। लाखों कम्युनिस्ट विद्रोहियों को मरवाकर जनरल सुहार्तो ने अपने सलाहकार-मददगारों का कर्जा चुका दिया।
बीस साल बाद चिली के युवा छात्रों को, जिन्हें शिकागो ब्वायज के नाम से जाना गया, शिकागो विश्वविद्यालय (जे.डी. रॉकफेलर द्वारा अनुदान प्राप्त) में मिल्टन फ्रीडमन द्वारा नवउदारवादी अर्थशास्र में प्रशिक्षण हेतु अमेरिका ले जाया गया। ये 1973 में हुए सीआइए-समर्थित तख्ता-पलट की पूर्वतैयारी थी जिसमें साल्वाडोर आयेंदे की हत्या हुई और जनरल पिनोशे के साथ हत्यारे दस्तों, गुमशुदगियों और आतंक का राज आया जो सत्रह वर्ष तक चला। (आयेंदे का जुर्म था एक लोकतांत्रिक ढंग से चुना हुआ समाजवादी होना और चीले की खानों का राष्ट्रीयकरण करना। )
1957 में रॉकफेलर फाउंडेशन ने एशिया में सामुदायिक नेताओं के लिए रेमन मैग्सेसे पुरस्कार की स्थापना की। इसे फिलीपीन्स के राष्ट्रपति रेमन मैग्सेसे का नाम दिया गया जो दक्षिण-पूर्व एशिया में साम्यवाद के खिलाफ अमेरिका के अभियान के महत्त्वपूर्ण सहयोगी थे। 2000 में फोर्ड फाउंडेशन ने रेमन मैग्सेसे इमर्जंट लीडरशिप पुरस्कार की स्थापना की। भारत में कलाकारों, एक्टिविस्टों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच मैग्सेसे पुरस्कार की बड़ी प्रतिष्ठा है। एम.एस. सुब्बलक्ष्मी को यह पुरस्कार मिला था और उसी तरह जयप्रकाश नारायण और भारत के बेहतरीन पत्रकार पी. साइनाथ को भी। मगर जितना फायदा पुरस्कार से इन लोगों का हुआ उस से अधिक इन्होंने पुरस्कार को पहुंचाया। कुल मिला कर यह इस बात का नियंता बन गया है कि किस प्रकार का ‘एक्टिविज्म’ स्वीकार्य है और किस प्रकार का नहीं।
दिलचस्प यह कि पिछली गर्मियों में हुए अण्णा हजारे के भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन की अगुआई तीन मैग्सेसे पुरस्कार-प्राप्त व्यक्ति कर रहे थे – अण्णा हजारे, अरविन्द केजरीवाल और किरण बेदी। अरविन्द केजरीवाल के बहुत से गैर-सरकारी संगठनों में से एक को फोर्ड फाउंडेशन से अनुदान मिलता है। किरण बेदी के एनजीओ को कोका कोला और लेहमन ब्रदर्स से पैसा मिलता है।
भले ही अण्णा हजारे स्वयं को गांधीवादी कहते हैं, मगर जिस कानून की उन्होंने मांग की है- जन लोकपाल बिल- वह अभिजातवादी, खतरनाक और गांधीवाद के विरुद्ध है। चौबीसों घंटे चलने वाले कॉर्पोरेट मीडिया अभियान ने उन्हें ‘जनता’ की आवाज घोषित कर दिया। अमेरिका में हो रहे ऑक्युपाइ वॉल स्ट्रीट आंदोलन के विपरीत हजारे आंदोलन ने निजीकरण, कॉर्पोरेट ताकत और आर्थिक ‘सुधारों’ के खिलाफ एक शब्द नहीं बोला। उसके विपरीत इसके प्रमुख मीडिया समर्थकों ने बड़े-बड़े कॉर्पोरेट भ्रष्टाचार घोटालों (जिनमें नामी पत्रकारों का भी पर्दाफाश हुआ था) से जनता का ध्यान सफलतापूर्वक हटा दिया और राजनीतिकों की जन-आलोचना का इस्तेमाल सरकार के विवेकाधीन अधिकारों में और कमी लाने एवं और अधिक निजीकरण की मांग करने के लिए इस्तेमाल किया। (2008 में अण्णा हजारे ने विश्व बैंक से उत्कृष्ट जन सेवा का पुरस्कार लिया। ) विश्व बैंक ने वाशिंगटन से एक वक्तव्य जारी किया कि यह आंदोलन उसकी नीतियों से पूरी तरह ‘मेल खाता’ है।
बहुलतावाद का मुखौटा
सभी अच्छे साम्राज्यवादियों की तरह परोपकारीजनों ने अपने लिए ऐसा अंतर्राष्ट्रीय काडर तैयार और प्रशिक्षित करने का काम चुना जो इस पर विश्वास करे कि पूंजीवाद और उसके विस्तार के तौर पर अमेरिकी वर्चस्व उनके स्वयं के हित में है। और इसीलिए वे लोग ग्लोबल कॉर्पोरेट गवर्नमेंट को चलाने में वैसे ही मदद करें जैसे देशी संभ्रांतों ने हमेशा उपनिवेशवाद की सेवा की है। इसलिए फाउंडेशन शिक्षा और कला के क्षेत्रों में उतरे जो विदेश नीति और घरेलू आर्थिक नीति के बाद उनका तीसरा प्रभाव क्षेत्र बन गया। उन्होंने करोड़ों डॉलर अकादमिक संस्थानों और शिक्षाशास्त्र पर खर्च किए (और करते जा रहे हैं)।
अपनी अद्भुत पुस्तक फाउंडेशंस एंड पब्लिक पॉलिसी: द मास्क ऑफ प्ल्युरलिज्म में जोन रूलोफ्स बयां करती हैं कि किस तरह फाउंडेशनों ने राजनीति विज्ञान को कैसे पढ़ाया जाए इस विषय के पुराने विचारों में बदलाव कर ‘इंटरनेशनल’ (अंतर्राष्ट्रीय) और ‘एरिया’ (क्षेत्रीय) स्टडीज (अध्ययन) की विधाओं को रूप दिया। इसने अमेरिकी गुप्तचर और सुरक्षा सेवाओं को अपने रंगरूट भर्ती करने के लिए विदेशी भाषाओं और संस्कृति में विशेषज्ञता का एक पूल उपलब्ध करवाया। आज भी सीआइए और अमेरिकी विदेश मंत्रालय अमेरिकी विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों और प्रोफेसरों के साथ काम करते हैं जो विद्वत्ता को लेकर गंभीर नैतिक सवाल खड़े करता है।
जिन लोगों पर शासन किया जा रहा है उन पर नियंत्रण रखने के लिए सूचना एकत्रित करना किसी भी शासक सत्ता का मूलभूत सिद्धांत है। जिस समय भूमि अधिग्रहण और नई आर्थिक नीतियों के खिलाफ प्रतिरोध भारत में बढ़ता जा रहा है, तब मध्य भारत में खुल्लमखुल्ला जंग की छाया में, सरकार ने नियंत्रण तकनीक के तौर पर एक विशाल बायोमेट्रिक कार्यक्रम का प्रारंभ किया, यूनिक आइडेंटीफिकेशन नंबर (विशिष्ट पहचान संख्या या यूआइडी) जो शायद दुनिया का सर्वाधिक महत्त्वाकांक्षी और बड़ी लागत की सूचना एकत्रीकरण परियोजना है। लोगों के पास पीने का साफ पानी, या शौचालय, या खाना, या पैसा नहीं है मगर उनके पास चुनाव कार्ड या यूआइडी नंबर होंगे। क्या यह संयोग है कि इनफोसिस के पूर्व सीईओ नंदन नीलकेणी द्वारा चलाया जा रहा यूआइडी प्रोजेक्ट, जिसका प्रकट उद्देश्य ‘गरीबों को सेवाएं उपलब्ध करवाना’ है, आइटी उद्योग में बहुत ज्यादा पैसा लगाएगा जो आजकल कुछ परेशानी में है? (यूआइडी बजट का मोटा अंदाज भी भारत सरकार के वार्षिक शिक्षा खर्च से ज्यादा है। ) इतनी ज्यादा तादाद में नाजायज और ”पहचान रहित” – लोग जो झुग्गियों में रहने वाले हैं, खोमचे वाले हैं, ऐसे आदिवासी हैं जिनके पास भूमि के पट्टे नहीं- जनसंख्या वाले देश को ‘डिजीटलाइज’ करने का असर यह होगा कि उनका अपराधीकरण हो जायेगा, वे नाजायज से अवैध हो जायेंगे। योजना यह है कि एन्क्लोजर ऑफ कॉमंस का डिजिटल संस्करण तैयार किया जाए और लगातार सख्त होते जा रहे पुलिस राज्य के हाथों में अपार अधिकार सौंप दिए जाएं।
आंकड़ों का जुनून
आंकड़े जमा करने को लेकर नीलकेणी का जुनून बिल्कुल वैसा ही है जैसा डिजिटल आंकड़ा कोष, ‘संख्यात्मक लक्ष्यों’ और ‘विकास के स्कोरकार्ड’ को लेकर बिल गेट्स का जुनून है। मानो सूचना का अभाव ही विश्व में भूख का कारण हो न कि उपनिवेशवाद, कर्जा और विकृत मुनाफा-केंद्रित कॉर्पोरेट नीति।
कॉर्पोरेट-अनुदान से चलने वाले फाउंडेशन समाज-विज्ञान और कला के सबसे बड़े धनदाता हैं जो ‘विकास अध्ययन’, ‘समुदाय अध्ययन’, ‘सांस्कृतिक अध्ययन’, ‘व्यवहारसंबंधी अध्ययन’ और ‘मानव अधिकार’ जैसे पाठ्यक्रमों के लिए अनुदान और छात्रवृत्तियां प्रदान करते हैं। जब अमेरिकी विश्वविद्यालयों ने अपने दरवाजे अंतर्राष्ट्रीय विद्यार्थियों के लिए खोल दिए, तो लाखों छात्र, तीसरी दुनिया के संभ्रांतों के बच्चे, प्रवेश करने लगे। जो फीस का खर्चा वहन नहीं कर सकते थे उन्हें छात्रवृत्तियां दी गईं। आज भारत और पाकिस्तान जैसे देशों में शायद ही कोई उच्च मध्यमवर्गीय परिवार होगा जिसमें अमेरिका में पढ़ा हुआ बच्चा न हो। इन्हीं लोगों के बीच से अच्छे विद्वान और अध्यापक ही नहीं आए हैं बल्कि प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, अर्थशास्त्री, कॉर्पोरेट वकील, बैंकर और नौकरशाह भी निकले हैं जिन्होंने अपने देशों की अर्थव्यवस्थाओं को वैश्विक कॉर्पोरेशनों के लिए खोलने में मदद की है।
अर्थशास्त्र और राजनीति-विज्ञान के फाउंडेशनों की ओर मित्रवत संस्करण के विद्वानों को फेलोशिप, अनुसंधान निधियों, अनुदानों और नौकरियों से नवाजा गया। जिनके विचार फाउंडेशनों की ओर मित्रवत नहीं थे उन्हें अनुदान नहीं मिले, हाशिये पर डाल अलग-थलग कर दिया गया और उनके पाठ्यक्रम बंद कर दिए गए। धीरे-धीरे एक खास तरह की सोच- एकमात्र सर्वआच्छादित और अत्यंत एकांगी आर्थिक विचारधारा की छत के नीचे सहिष्णुता और बहुसंस्कृतिवाद (जो क्षण भर में नस्लवाद, उन्मत्त राष्ट्रवाद, जातीय उग्रराष्ट्रीयता, युद्ध भड़काऊ इस्लामोफोबिया में बदल जाता है) का भुरभुरा और सतही दिखावा – विमर्श पर हावी होने लगा। ऐसा इस हद तक हुआ कि अब उसे एक विचारधारा के तौर पर देखा ही नहीं जाता। यह एक डीफॉल्ट पोजीशन बन गई है, एक प्राकृतिक अवस्था। उसने सामान्य स्थिति में घुसपैठ कर ली, साधारणता को उपनिवेशित कर लिया और उसे चुनौती देना यथार्थ को चुनौती देने जितना बेतुका या गूढ़ प्रतीत होने लगा। यहां से ‘और कोई विकल्प नहीं’ तक तुरंत पहुंचना एक आसान कदम था।
शुक्र है ऑक्युपाइ आंदोलन का कि अब जाकर अमेरिकी सड़कों और विश्वविद्यालयीन परिसरों में दूसरी भाषा नजऱ आई है। इस विपरीत परिस्थिति में ‘क्लास वार’ और ‘हमें आपके अमीर होने से दिक्कत नहीं, पर हमारी सरकार को खरीद लेने से दिक्कत है’ लिखे हुए बैनर उठाये छात्रों को देखना लगभग अपने आप में इंकलाब है।
अपनी शुरुआत के एक सदी बाद कॉर्पोरेट परोपकार कोका कोला की मानिंद हमारे जीवन का हिस्सा बन गया है। अब करोड़ों गैर-लाभ संस्थाएं हैं, जिनमें बहुत सारी जटिल वित्तीय नेटवर्क के द्वारा बड़े फाउंडेशनों से जुड़ी हुई हैं। इन सारी संस्थाओं को मिलाकर इस ‘स्वतंत्र’ सेक्टर की कुल परिसंपत्ति 45,000 करोड़ डॉलर है। उनमें सबसे बड़ा है बिल गेट्स फाउंडेशन (2,100 करोड़ डॉलर), उसके बाद लिली एन्डाउमेंट (1,600 करोड़ डॉलर) और द फोर्ड फाउंडेशन (1,500 करोड़ डॉलर)।
जब अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने संरचनात्मक समायोजन या स्ट्रक्चरल एड्जस्टमेंट्स के लिए दबाव बनाया और सरकारों से स्वास्थ्य, शिक्षा, शिशु पालन और विकास के लिए सरकारी खर्च जबरदस्ती कम करवाया, तो एनजीओ सामने आये। सबकुछ के निजीकरण का मतलब सबकुछ का एनजीओकरण भी है। जिस तरह नौकरियां और आजीविकाएं ओझल हुई हैं, एनजीओ रोजगार का प्रमुख स्रोत बन गए हैं, उन लोगों के लिए भी जो उनकी सच्चाई से वाकिफ हैं। जरूरी नहीं कि सारे एनजीओ खराब हों। लाखों एनजीओ में से कुछ उत्कृष्ट और रैडिकल काम कर रहे हैं और सभी एनजीओ को एक ही तराजू से तौलना हास्यास्पद होगा। परन्तु कॉर्पोरेट या फाउंडेशनों से अनुदान प्राप्त एनजीओ वैश्विक वित्त की खातिर प्रतिरोध आंदोलनों को खरीदने का तरीका बन गए हैं, बिल्कुल उसी तरह जैसे शेयरहोल्डर कंपनियों के शेयर खरीदते हैं और फिर उन्हें अंदर से नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं। वे केंद्रीय तंत्रिका तंत्र अथवा सेंट्रल नर्वस सिस्टम के बिंदुओं की तरह विराजमान हैं, उन रास्तों की तरह जिन पर वैश्विक वित्त प्रवाहित होता है। वे ट्रांसमीटरों, रिसीवरों, शॉक एब्जॉर्बरों की तरह काम करते हैं, हर आवेग के प्रति चौकस होते हैं, सावधानी बरतते हैं कि मेजबान देश की सरकारों को परेशानी न हो। (फोर्ड फाउंडेशन जिन संस्थाओं को पैसा देता है उनसे प्रतिज्ञापत्र पर दस्तखत करवाता है जिनमें ये सब बातें होती हैं)। अनजाने में (और कभी-कभी जानबूझकर), वे जासूसी चौकियों की तरह काम करते हैं, उनकी रपटें और कार्यशालाएं और दीगर मिशनरी गतिविधियां और अधिक सख्त होते राज्यों की और अधिक आक्रामक होती निगरानी व्यवस्था को आंकड़े पहुंचाते हैं। जितना अशांत क्षेत्र होगा, उतने अधिक एनजीओ वहां काम करते पाए जायेंगे।
शरारती ढंग से जब सरकार या कॉर्पोरेट प्रेस नर्मदा बचाओ आंदोलन या कुडनकुलम आणविक संयंत्र के विरोध जैसे असली जनांदोलनों की बदनामी का अभियान चलाना चाहते हैं, तो वे आरोप लगाते हैं कि ये जनांदोलन ‘विदेशी वित्तपोषित’ प्राप्त एनजीओ हैं। उन्हें भली-भांति पता है कि अधिकतर एनजीओ को, खासकर जिन्हें अच्छी राशि मिलती है, को कॉर्पोरेट वैश्वीकरण को बढ़ावा देने का आदेश मिला हुआ है न कि उसमें रोड़े अटकाने का।
अपने अरबों डॉलर के साथ इन एनजीओ ने दुनिया में अपनी राह बनाई है, भावी क्रांतिकारियों को वेतनभोगी एक्टिविस्टों में बदलकर, कलाकारों, बुद्धिजीवियों और फिल्मकारों को अनुदान देकर, उन्हें हौले से फुसलाकर उग्र मुठभेड़ से परे ले जाकर, बहुसंस्कृतिवाद, जेंडर, सामुदायिक विकास की दिशा में प्रवेश कराकर- ऐसा विमर्श जो पहचान की राजनीति और मानव अधिकारों की भाषा में बयां किया जाता है।
न्याय की संकल्पना का मानव अधिकारों के उद्योग में परिवर्तन एक ऐसा वैचारिक तख्तापलट रहा है जिसमें एनजीओ ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मानव अधिकारों का संकीर्ण दृष्टि से बात करना एक अत्याचार-आधारित विश्लेषण की राह बनाता है जिसमें असली सूरत छुपाई जा सकती है और संघर्षरत दोनों पक्षों को- मसलन, माओवादी और भारत सरकार, या इजराइली सेना और हमास- दोनों को मानव अधिकारों के उल्लंघन के नाम पर डांट पिलाई जा सकती है। खनिज कॉर्पोरेशनों द्वारा जमीन कब्जाना या इजरायली राज्य द्वारा फिलिस्तीनी भूमि को कब्जे में करना, ऐसी बातें फुटनोट्स बन जाती हैं जिनका विमर्श से बहुत थोड़ा संबंध होता है। कहने का मतलब यह नहीं कि मानव अधिकारों की कोई अहमियत नहीं। अहमियत है, पर वे उतना अच्छा प्रिज्म नहीं हैं जिसमें से हमारी दुनिया की भयानक नाइंसाफियों को देखा जाए या किंचित भी समझा जाए।
नारीवाद का भटकाव
एक और वैचारिक तख्ता पलट का संबंध नारीवादी आंदोलन में फाउंडेशनों की सहभागिता से है। भारत में ज्यादातर ‘अधिकृत’ नारीवादी और महिलाओं के संगठन क्यों 90,000 सदस्यीय क्रांतिकारी महिला आदिवासी संगठन जैसे संगठनों से सुरक्षित दूरी बनाये रखते हैं जो अपने समुदायों में पितृसत्ता और दंडकारण्य के जंगलों में खनन कॉर्पोरेशनों द्वारा हो रहे विस्थापन के खिलाफ लड़ रहे हैं? ऐसा क्यों है कि लाखों महिलाओं की उस भूमि से बेदखली और निष्कासन, जिसकी वे मालिक हैं और जिस पर उन्होंने मेहनत की है, एक महिलावादी मुद्दा नहीं है?
उदारवादी नारीवादी आंदोलन के जमीन से जुड़े साम्राज्यवाद-विरोधी और पूंजीवाद-विरोधी जनांदोलनों से अलग होने की शुरुआत फाउंडेशनों की दुष्टता भरी चालों से नहीं हुई। यह शुरुआत साठ और सत्तर के दशक में हुए महिलाओं के तेजी से हो रहे रैडिकलाइजेशन के अनुरूप बदलने और उसे समायोजित करने में उस दौर के आंदोलनों की असमर्थता से हुई। हिंसा और अपने पारंपरिक समाजों में यहां तक कि वामपंथी आंदोलनों के तथाकथित प्रगतिशील नेताओं में मौजूद पितृसत्ता को लेकर बढ़ती अधीरता को पहचानने में और उसे सहारा और आर्थिक सहयोग देने हेतु आगे आने में फाउंडेशनों ने बुद्धिमानी दिखाई। भारत जैसे देश में ग्रामीण और शहरी वर्गीकरण में फूट भी थी। ज्यादातर रैडिकल और पूंजीवाद-विरोधी आंदोलन ग्रामीण इलाकों में स्थित थे, जहां महिलाओं की जिंदगी पर पितृसत्ता का व्यापक राज चलता था। शहरी महिला एक्टिविस्ट जो इन आंदोलनों (जैसे नक्सली आंदोलन) का हिस्सा बनीं, वे पश्चिमी महिलावादी आंदोलन से प्रभावित और प्रेरित थीं और मुक्ति की दिशा में उनकी अपनी यात्राएं अक्सर उसके विरुद्ध होतीं जिसे उनके पुरुष नेता उनका कर्तव्य मानते थे: यानी ‘आम जनता’ में घुल-मिल जाना। बहुत सी महिला एक्टिविस्ट अपने जीवन में होने वाले रोजमर्रा के उत्पीडऩ और भेदभाव, जो उनके अपने कामरेडों द्वारा भी किए जाते थे, को खत्म करने के लिए ‘क्रांति’ तक रुकने के लिए तैयार नहीं थीं। लैंगिक बराबरी को वे क्रांतिकारी प्रक्रिया का मुकम्मल, अत्यावश्यक, बिना किसी किस्म की सौदेबाजी वाला हिस्सा बनाना चाहती थीं न कि क्रांति के उपरान्त का वायदा। समझदार हो चुकीं, क्रोधित और मोहभंग में महिलाएं दूर हटने लगीं और समर्थन और सहारे के दूसरे माध्यम तलाशने लगीं। परिणामत: अस्सी का दशक खत्म होते-होते, लगभग उसी समय जब भारतीय बाजारों को खोल दिया गया था, भारत जैसे देश में उदारवादी महिलावादी आंदोलन का बहुत ज्यादा एनजीओकरण हो गया था। इन में से बहुत से एनजीओ ने समलैंगिक अधिकारों, घरेलू हिंसा, एड्स और देह व्यापार करने वालों के अधिकारों को लेकर बहुत महत्त्वपूर्ण काम किया है। मगर यह उल्लेखनीय है कि उदार नारीवादी आंदोलन नई आर्थिक नीतियों के विरोध में आगे नहीं आये हैं, बावजूद इसके कि महिलाएं इनसे और भी ज्यादा पीड़ित हुई हैं। धन वितरण को हथियार की तरह इस्तेमाल करके, फाउंडेशन ‘राजनीतिक’ गतिविधि’ क्या होनी चाहिए इसको काफी हद तक निर्धारित करने में सफल रहे हैं। फाउंडेशनों के अनुदान संबंधी सूचनापत्रों में आजकल बताया जाता है कि किन बातों को महिलाओं के ‘मुद्दे’ माना जाए और किन को नहीं।
महिलाओं के आंदोलन के एनजीओकरण ने पश्चिमी उदार नारीवाद को (सबसे ज्यादा वित्तपोषित होने के कारण) नारीवाद क्या होता है का झंडाबरदार बना दिया है। लड़ाइयां, हमेशा की तरह, महिलाओं की देह को लेकर लड़ी गईं, एक सिरे पर बोटोक्स को खींच कर और दूसरे पर बुर्के को। (और फिर वे भी हैं जिन पर बोटोक्स और बुर्के की दोहरी मार पड़ती है।) जब महिलाओं को जबरदस्ती बुर्के से बाहर लाने की कोशिश की जाती है, जैसा कि हाल ही में फ्रांस में हुआ, बजाय यह करने के कि ऐसी परिस्थितियां निर्मित की जाएं कि महिलाएं खुद चुनाव कर पाएं कि उन्हें क्या पहनना है और क्या नहीं, तब बात उसे आजाद करने की नहीं उसके कपड़े उतारने की हो जाती है। यह अपमान और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का काम हो जाता है। बात बुर्के की नहीं है। बात जबरदस्ती की है। महिलाओं को जबरदस्ती बुर्के से बाहर निकालना वैसा ही है जैसे उन्हें जबरदस्ती बुर्का पहनाना। जेंडर को इस तरह देखना, मतलब सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संदर्भ के बिना, उसे पहचान का मुद्दा बना देता है, सिर्फ पहनावे और दिखावे की चीजों की लड़ाई। यही वह था जिसने अमेरिकी सरकार को 2001 में अफगानिस्तान पर हमला करते समय पश्चिमी महिलावादी समूहों की नैतिक आड़ लेने का मौका दिया। अफगानी औरतें तालिबान के राज में भयानक मुश्किलों में थीं (और हैं)। मगर उन पर बम बरसा कर उनकी समस्याओं का समाधान नहीं होने वाला था।
एनजीओ जगत में, जिसने अपनी अनोखी दर्दनिवारक भाषा तैयार कर ली है, सब कुछ एक विषय बन गया है, एक अलग, पेशेवरी, विशेष अभिरुचि वाला मुद्दा। सामुदायिक विकास, नेतृत्व विकास, मानव अधिकार, स्वास्थ्य, शिक्षा, प्रजननीय अधिकार, एड्स, एड्स से संक्रमित अनाथ बच्चे- इन सबको अपने-अपने कोटर में हवाबंद कर दिया गया है और जिनके अपने-अपने विस्तृत और स्पष्ट अनुदान नियम हैं। फंडिंग ने एकजुटता को इस तरह टुकड़े-टुकड़े कर दिया है जैसा दमन कभी नहीं कर पाया। गरीबी को भी, महिलावाद की तरह, पहचान की समस्या के तौर पर गढ़ा जाता है। मानो गरीब अन्याय से तैयार नहीं हुए बल्कि वे कोई खोई हुई प्रजाति हैं जो अस्तित्व में हैं, और जिनका अल्पकालिक बचाव समस्या निवारण तंत्र (एनजीओ द्वारा व्यक्तिगत आपसी आधार पर संचालित) द्वारा किया जा सकता है और दीर्घकालिक बचाव सुशासन या गुड गवर्नंस से होगा। वैश्विक कॉर्पोरेट पूंजीवाद के शासनकाल में यह बोल कर बताने की जरूरत नहीं।
गरीबी की चमक
भारतीय गरीबी, जब भारत ‘शाइन’ कर रहा था उस दौरान कुछ थोड़े वक्त के नेपथ्य में चले जाने के बाद , फिर से कला के क्षेत्र में आकर्षक विषय के तौर पर लौट आई है, इसका नेतृत्व स्लमडॉग मिलियनेयर जैसी फिल्में कर रही हैं। गरीबों, उनकी गजब की जीजीविषा और गिरकर उठने की क्षमता की इन कहानियों में कोई खलनायक नहीं होते – सिवाय छोटे खलनायकों के जो नेरेटिव टेंशन और स्थानिकता का पुट देते हैं। इन रचनाओं के लेखक पुराने जमाने के नृशास्त्रियों के आज के समानधर्मा जैसे हैं, जो ‘जमीन’ पर काम करने के लिए, अज्ञात की अपनी साहसिक यात्राओं के लिए सराहे जाते और सम्मान पाते हैं। आप को इन तरीकों से अमीरों की जांच-परख शायद ही कभी देखने को मिले।
ये पता कर लेने के बाद कि सरकारों, राजनीतिक दलों, चुनावों, अदालतों, मीडिया और उदारवादी विचार का बंदोबस्त किस तरह किया जाये, नव-उदारवादी प्रतिष्ठान के सामने एक और चुनौती थी: बढ़ते असंतोष, ‘जनता की शक्ति’ के खतरे से कैसे निबटा जाए? उसे वश में किया जाए? विरोधकर्ताओं को पालतुओं में कैसे बदलें? जनता के क्रोध को किस तरह खींचा जाए और अंधी गलियों की ओर मोड़ दिया जाये?
इस मामले में भी फाउंडेशनों और उनके आनुषंगिक संगठनों का लंबा और सफल इतिहास है। साठ के दशक में अमेरिका में अश्वेतों के सिविल राइट्स मूवमेंट (नागरिक अधिकार या समानता के आंदोलन) की हवा निकालना और उसे नरम करने और ‘ब्लैक पावर’ (अश्वेत शक्ति)के ‘ब्लैक कैपिटलिज्म’ (अश्वेत पूंजीवाद) में यशस्वी रूपांतरण में उनकी भूमिका इस बात का प्रमुख उदाहरण है।
जे डी रॉकफेलर के आदर्शों के अनुसार रॉकफेलर फाउंडेशन ने मार्टिन लूथर किंग सीनियर (मार्टिन लूथर किंग जूनियर के पिता) के साथ मिलकर काम किया। मगर स्टूडेंट नॉनवायलेंट कोआर्डिनेशन कमेटी (एसएनसीसी या छात्र अहिंसक समन्वय समिति) और ब्लैक पैंथर्स (काले चीते) जैसे अधिक आक्रामक संगठनों के उभरने के बाद उनका प्रभाव कम हो गया। फोर्ड और रॉकफेलर फाउंडेशन दाखिल हुए। 1970 में उन्होंने अश्वेतों के ‘नरम’ संगठनों को डेढ़ करोड़ डॉलर दिए। यह लोगों को अनुदान, फेलोशिप, छात्रवृत्तियां, पढ़ाई छोड़ चुके लोगों के लिए रोजगार प्रशिक्षण कार्यक्रम और कालों के व्यापारिक प्रतिष्ठानों के लिए प्रारंभिक धन के रूप में मिले। दमन, आपसी झगड़े और पैसों के जाल ने रेडिकल अश्वेत आंदोलन को धीरे-धीरे कुंद कर दिया।
मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, नस्लवाद और वियतनाम युद्ध के निषिद्ध संबंध को चिह्नित किया था। परिणामस्वरूप उनकी हत्या के बाद उनकी स्मृति तक सुव्यवस्था के लिए विषभरा खतरा बन गई। फाउंडेशनों और कॉर्पोरेशनों ने उनकी विरासत को नया रूप देने के लिए काफी मेहनत की ताकि वह मार्केट-फ्रेंडली स्वरूप में फिट हो सके। फोर्ड मोटर कंपनी, जनरल मोटर्स, मोबिल, वेस्टर्न इलेक्ट्रिक, प्रॉक्टर एंड गैंबल, यूएस स्टील, मोंसैंटो और कई दूसरों ने मिलकर 20 लाख डॉलर के क्रियाशील अनुदान के साथ द मार्टिन लूथर किंग जूनियर सेंटर फॉर नॉनवाइलेंट सोशल चेंज (मार्टिन लूथर किंग जूनियर अहिंसक सामाजिक बदलाव केंद्र) की स्थापना की। यह सेंटर किंग पुस्तकालय चलाता है और नागरी अधिकार आंदोलन के पुरालेखों का संरक्षण करता है। यह सेंटर जो बहुत सारे कार्यक्रम चलाता है उनमें कुछ प्रोजेक्ट ऐसे रहे हैं जिनमें उन्होंने ‘अमेरिकी रक्षा विभाग (यूनाइटेड स्टेट्स डिपार्टमेंट ऑफ डिफेंस), आम्र्ड फोर्सेस चैप्लेंस बोर्ड (सशस्त्र सेना पुरोहित बोर्ड) और अन्यों के साथ मिलकर काम किया है’। यह मार्टिन लूथर किंग जूनियर व्याख्यान माला ‘द फ्री इंटरप्राइज सिस्टम : एन एजेंट फॉर नॉनवाइलेंट सोशल चेंज’ (मुक्त उद्यम व्यवस्था: अहिंसक सामाजिक बदलाव के लिए एक कारक) विषय पर सहप्रायोजक था।
ऐसा ही तख्तापलट दक्षिण अफ्रीका के रंग-भेद विरोधी संघर्ष में करवाया गया। 1978 में रॉकफेलर फाउंडेशन ने दक्षिण अफ्रीका के प्रति अमेरिकी नीति को लेकर एक अध्ययन आयोग का गठन किया। रिपोर्ट ने अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस (एएनसी) में सोवियत संघ के बढ़ते प्रभाव के बारे चेताया और कहा कि सभी नस्लों के बीच राजनीतिक सत्ता की सच्ची हिस्सेदारी हो, यही अमेरिकी के सामरिक और कॉर्पोरेट हितों (अर्थात दक्षिण अफ्रीका के खनिजों तक पहुंच) के लिए शुभ यही होगा।
फाउंडेशनों ने एएनसी की सहायता करना शुरू कर दिया। जल्द ही एएनसी स्टीव बीको की ब्लैक कॉन्शसनेस मूवमेंट (अश्वेत चेतना आंदोलन) जैसे अधिक रैडिकल आंदोलनों पर चढ़ बैठी और उन्हें कमोबेश खत्म कर के छोड़ा। जब नेल्सन मंडेला दक्षिण अफ्रीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने तो उन्हें जीवित संत घोषित कर दिया गया, सिर्फ इसलिए नहीं कि वह 27 साल जेल में बिता चुके स्वतंत्रता सेनानी थे बल्कि इसलिए कि उन्होंने वाशिंगटन समझौते को पूरी तरह स्वीकार कर लिया था। एएनसी के एजेंडे से समाजवाद पूरी तरह गायब हो गया। दक्षिण अफ्रीका के बहुप्रशंसित महान ‘शांतिपूर्ण परिवर्तन’ का मतलब था कोई भूमि सुधार नहीं, कोई क्षतिपूर्ति नहीं, दक्षिण अफ्रीका की खानों का राष्ट्रीयकरण भी नहीं। इसकी जगह हुआ निजीकरण और संरचनात्मक समायोजन। मंडेला ने दक्षिण अफ्रीका के सर्वोच्च नागरी अलंकरण -द ऑर्डर ऑफ गुड होप – से इंडोनेशिया में कम्युनिस्टों के हत्यारे,अपने पुराने समर्थक और मित्र जनरल सुहार्तो को सम्मानित किया। आज दक्षिण अफ्रीका में मर्सिडीज में घूमने वाले पूर्व रैडिकलों और ट्रेड यूनियन नेताओं का गुट देश पर राज करता है। और यह ब्लैक लिबरेशन (अश्वेत मुक्ति) के भरम को हमेशा बनाये रखने के लिए काफी है।
दलित पूंजीवाद की ओर
अमेरिका में अश्वेत शक्ति का उदय भारत में रैडिकल, प्रगतिशील दलित आंदोलन के लिए प्रेरणा का स्रोत था और दलित पैंथर जैसे संगठन ब्लैक पैंथर जैसे संगठनों की प्रतिबिंबन थे। लेकिन दलित शक्ति भी ठीक उसी तरह नहीं पर लगभग उन्हीं तौर-तरीकों से दक्षिणपंथी हिंदू संगठनों और फोर्ड फाउंडेशन की खुली मदद से विभाजित और कमजोर कर दी गई है। यह अब दलित पूंजीवाद के रूप में बदलने की ओर बढ़ रही है।
पिछले साल दिसंबर में इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट थी: ‘दलित इनक्लेव रेडी टू शो बिजऩेस कैन बीट कास्ट’। इसमें दलित इंडियन चेंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज (डिक्की) के एक सलाहकार को उद्धृत किया गया था। ‘हमारे समाज में दलितों की सभा के लिए प्रधान मंत्री को लाना मुश्किल नहीं है। मगर दलित उद्यमियों के लिए टाटा या गोदरेज के साथ दोपहर के खाने पर या चाय पर एक तस्वीर खिंचवाना एक अरमान होता है – और इस बात का सबूत कि वे आगे बढ़ेहैं,’ उन्होंने कहा। आधुनिक भारत की परिस्थिति को देखते हुए यह कहना जातिवादी और प्रतिक्रियावादी होगा कि दलित उद्यमियों को नामी-गरामी उद्योगपतियों के साथ बैठने (हाई टेबल पर जगह पाने) की कोई जरूरत नहीं। मगर यह अभिलाषा, अगर दलित राजनीति का वैचारिक ढांचा होने लगी तो बड़े शर्म की बात होगी। और इस से उन करोड़ों दलितों को भी कोई मदद नहीं मिलेगी जो अब भी अपने हाथों से कचरा साफ करके जीविका चलाते हैं- अपने सिरों पर आदमी की विष्ठा ढोते हैं।
वामपंथी आंदोलन की असफलताएं
फोर्ड फाउंडेशन से अनुदान स्वीकार करने वाले युवा दलित स्कॉलरों के प्रति कठोर नहीं हुआ जा सकता। भारतीय जाति व्यवस्था के मलकुंड से बाहर निकलने का मौका उन्हें और कौन दे रहा है? इस घटनाक्रम का काफी हद तक दोष और शर्मिंदगी दोनों ही भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के सर है जिसके नेता आज भी मुख्यत: ऊंची जातियों से आते हैं। इसने सालों से जाति के सिद्धांत को मार्क्सवादी वर्ग विश्लेषण में जबरदस्ती फिट करने की कोशिश की है। यह कोशिश सिद्धांत और व्यवहार दोनों में ही बुरी तरह असफल रही है। दलित समुदाय और वाम के बीच की दरार पैदा हुई दलितों के दृष्टि संपन्न नेता भीमराव अंबेडकर एवं ट्रेड यूनियन नेता और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य एस.ए.डांगे के बीच के झगड़े से। 1928 में मुंबई में कपड़ा मिल मजदूरों की हड़ताल से अंबेडकर का कम्युनिस्ट पार्टी से मोहभंग शुरू हुआ। तब उन्हें अहसास हुआ कि मेहनतकश वर्ग की एकजुटता के सारे शब्दाडंबरों के बावजूद पार्टी को इस बात से कोई आपत्ति न थी कि बुनाई विभाग से ‘अछूतों’ को बाहर रखा जाता है (और वे सिर्फ कम वेतन वाले कताई विभाग के योग्य माने जाते हैं) इसलिए कि उस काम में धागों पर थूक का इस्तेमाल करना पड़ता था और जिसे अन्य जातियां ‘अशुद्ध’ मानती थीं।
अंबेडकर को महसूस हुआ कि एक ऐसे समाज में जहां हिंदू शास्त्र छुआछूत और असमानता का संस्थाकरण करते हैं, वहां ‘अछूतों’ के लिए, उनके सामाजिक और नागरी अधिकारों के लिए तत्काल संघर्ष करना उस साम्यवादी क्रांति के इंतजार से कहीं ज्यादा जरूरी था जिसका आश्वासन था। अंबेडकरवादियों और वाम के बीच की दरार की दोनों ही पक्षों को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। इसका मतलब यह निकला है कि दलित आबादी के बहुत बड़े हिस्से ने, जो भारत के मेहनतकश वर्ग की रीढ़ है, सम्मान और बेहतरी की अपनी उम्मीदें संविधानवाद, पूंजीवाद और बसपा जैसे राजनीतिक दलों से लगा ली हैं, जो पहचान की राजनीति के उस ब्रांड का पालन करते हैं जो महत्त्वपूर्ण तो है पर दीर्घकालिक तौर पर गतिहीन है।
अमेरिका में, जैसा कि हमने देखा, कॉर्पोरेट-अनुदानित फाउंडेशनों ने एनजीओ संस्कृति को जन्म दिया। भारत में लक्ष्य बना कर किए जाने वाले कॉर्पोरेट परोपकार की गंभीरतापूर्वक शुरूआत नब्बे के दशक में, नई आर्थिक नीतियों के युग में हुई। स्टार चेंबर की सदस्यता सस्ते में नहीं मिलती। टाटा समूह ने उस जरूरतमंद संस्थान, हार्वर्ड बिजनेस स्कूल, को पांच करोड़ डॉलर और कॉर्नेल विश्वविद्यालय को भी पांच करोड़ डॉलर दान किए। इनफोसिस के नंदन निलकेणी और उनकी पत्नी रोहिणी ने 50 लाख डॉलर येल विश्वविद्यालय के इंडिया इनिशिएटिव को शुरूआती निधि के तौर पर दान किए। महिंद्रा समूह द्वारा अब तक का सबसे बड़ा एक करोड़ डॉलर का अनुदान पाने के बाद हार्वर्ड ह्युमैनिटीज सेंटर का नाम अब महिंद्रा ह्युमैनिटीज सेंटर हो गया है।
यहां पर जिंदल समूह, जिसके खनन, धातु और ऊर्जा में बड़े निवेश हैं, जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल चलाता है और जल्द ही जिंदल स्कूल ऑफ गवर्नमेंट एंड पब्लिक पॉलिसी शुरू करने वाला है। (फोर्ड फाउंडेशन कांगो में एक विधि महाविद्यालय चलाता है।) इनफोसिस के मुनाफों से मिले पैसे से चलने वाला नंदन नीलकेणी द्वारा अनुदानित द न्यू इंडिया फाउंडेशन समाज विज्ञानियों को पुरस्कार और फेलोशिप देता है। ग्रामीण विकास, गरीबी निवारण, पर्यावरण शिक्षा और नैतिक उत्थान के क्षेत्रों में काम करने वालों के लिए जिंदल एल्युमिनियम से अनुदान प्राप्त सीताराम जिंदल फाउंडेशन ने एक-एक करोड़ रुपए के पांच नगद पुरस्कारों की घोषणा की है। रिलायंस समूह का ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओ.आर.एफ.), जिसे फिलहाल मुकेश अंबानी से धन मिलता है, रॉकफेलर फाउंडेशन के अंदाज में ढला है। इससे रिसर्च ‘फेलो’ और सलाहकारों के तौर पर गुप्तचर सेवाओं के सेवा निवृत्त एजेंट, सामरिक विश्लेषक, राजनेता (जो संसद में एक दूसरे के खिलाफ होने का नाटक करते हैं), पत्रकार और नीति निर्धारक जुड़े हैं।
ओ.आर.एफ. के उद्देश्य बड़े साफ-साफ प्रतीत होते हैं: ‘आर्थिक सुधारों के पक्ष में आम सहमति तैयार करने हेतु सहायता करना। ‘ और ‘पिछड़े जिलों में रोजगार निर्मिति और आणविक, जैविक और रसायनिक खतरों का सामना करने के लिए समयोचित कार्यनीतियां बनाने जैसे विविध क्षेत्रों में व्यवहार्य और पर्यायी नीतिगत विकल्प तैयार करके’ आम राय को आकार देना और उसे प्रभावित करना।
ओ.आर.एफ. के घोषित उद्देश्यों में ‘आणविक, जैविक और रसायनिक युद्ध’ को लेकर अत्यधिक चिंता देखकर मैं शुरू में चक्कर में पड़ गई। मगर उसके ‘संस्थागत सहयोगियों’ की लंबी सूची में रेथियोन और लॉकहीड मार्टिन जैसे नाम देख कर हैरानी कम हुई। ये दोनों कंपनियां दुनिया की प्रमुख हथियार निर्माता हैं। 2007 में रेथियोन ने घोषणा की कि वे अब भारत पर अपना ध्यान केंद्रित करेंगे। क्या यह इसलिए है कि भारत के 3,200 करोड़ डॉलर के रक्षा बजट का कुछ हिस्सा रेथियोन और लॉकहीड मार्टिन द्वारा तैयार हथियारों, गाइडेड मिसाइलों, विमानों, नौसेना के जहाजों और निगरानी उपकरणों पर खर्च होगा?
हथियार क्यों चाहिए?
हथियारों की जरूरत जंग लडऩे के लिए होती है? या जंगों की जरूरत हथियारों के लिए बाजार तैयार करने के लिए होती है? जो भी हो योरोप, अमेरिका और इजऱाइल की अर्थव्यवस्थाएं बहुत कुछ उनके हथियार उद्योग पर निर्भर हैं। यही वह चीज है जो उन्होंने चीन को आउटसोर्स नहीं की।
अमेरिका और चीन के बीच के शीत युद्ध में भारत को उस भूमिका के लिए तैयार किया जा रहा है जो रूस के साथ शीत युद्ध में पाकिस्तान ने अमेरिका के सहयोगी के तौर पर निभाई थी। (देख लीजिये पाकिस्तान का हाल क्या हुआ। ) भारत और चीन के बीच के लड़ाई-झगड़ों को जो स्तंभकार और ‘रणनीतिक विश्लेषक’ बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहे हैं, देखा जाए तो उनमें से कई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इंडो-अमेरिकन थिंक टैंकों और फाउंडेशनों से जुड़े पाए जायेंगे। अमेरिका के ‘सामरिक सहयोगी’ होने का यह मतलब नहीं कि दोनों राष्ट्राध्यक्ष एक दूसरे को हमेशा दोस्ताना फोन कॉल करते रहें। इस का मतलब है हर स्तर पर सहयोग (हस्तक्षेप)। इसका मतलब है भारत की जमीन पर अमेरिकी स्पेशल फोर्सेस की मेजबानी करना (पेंटागन के एक कमांडर ने हाल ही में बीबीसी से इस बात की पुष्टि की)। इसका अर्थ है गुप्त सूचनाएं साझा करना, कृषि और ऊर्जा-संबंधी नीतियों में बदलाव करना, वैश्विक निवेश हेतु स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्रों को खोलना। इसका अर्थ है खुदरा क्षेत्र को खोलना। इसका मतलब है गैर-बराबर हिस्सेदारी जिसमें भारत को उसके साथी द्वारा मजबूत बांहों में भरकर डांस फ्लोर पर नचाया जा रहा है और उसके नाचने से मना करते ही उसे भस्म कर दिया जाएगा।
ओ.आर.एफ. के ‘संस्थागत सहयोगियों’ की सूची में आपको रैंड कॉर्पोरेशन, फोर्ड फाउंडेशन, विश्व बैंक, ब्रूकिंग्स इंस्टिट्यूशन (जिनका घोषित मिशन है ‘ऐसी अभिनव एवं व्यावहारिक अनुशंसाएं करना जो तीन वृहत लक्ष्यों को आगे बढ़ाये: अमेरिकी लोकतंत्र को मजबूत करना; सभी अमेरिकियों का आर्थिक और सामाजिक कल्याण, सुरक्षा और अवसर को बढ़ावा देना; और अधिक उदार, सुरक्षित, समृद्ध और सहकारात्मक अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था अर्जित करना’। ) उस सूची में आपको जर्मनी के रोजा लक्जमबर्ग फाउंडेशन का नाम भी मिलेगा। (बेचारी रोजा, जिन्होंने साम्यवाद के ध्येय के लिए अपनी जान दी उनका नाम ऐसी सूची में!)
हालांकि पूंजीवाद प्रतिस्पर्धा पर आधारित होता है, मगर खाद्य श्रंखला के शीर्ष पर बैठे हुए लोगों ने दिखाया है कि वे सबको मिलाकर चलने और एकजुटता दिखाने में समर्थ हैं। महान पश्चिमी पूंजीपतियों ने फासिस्टों, समाजवादियों, निरंकुश सत्ताधीशों और सैनिक तानाशाहों के साथ धंधा किया है। वे लगातार अपने आप को अनुकूलित कर सकते हैं और नए तरीके निकाल सकते हैं। वे तुरंत विचार करने और अपरिमित नीतिगत चतुराई में माहिर हैं।
मगर आर्थिक सुधारों के माध्यम से सफलतापूर्वक आगे बढऩे, मुक्त बाजार ‘लोकतंत्र’ बिठाने के लिए लड़ाइयां छेडऩे और देशों पर सैन्य कब्जे जमाने के बावजूद, पूंजीवाद एक ऐसे संकट से गुजऱ रहा है जिसकी गंभीरता अभी तक पूरी तरह सामने नहीं आई है। मार्क्स ने कहा था, ‘ इसलिए बुर्जुआ वर्ग जो उत्पादित करता है, उनमें सबसे ऊपर होते हैं उसकी ही कब्रखोदनेवाले। इनका पतन और सर्वहारा की विजय दोनों समान रूप से अपरिहार्य हैं। ‘
सर्वहारा वर्ग, जैसा कि मार्क्स ने समझा था, लगातार हमले झेलता रहा है। फैक्टरियां बंद हो गई हैं, नौकरियां छूमंतर हो गई हैं, यूनियनें तोड़ डाली गई हैं। पिछले कई सालों से सर्वहारा को हर संभव तरीके से एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा किया जाता रहा है। भारत में यह हिंदू बनाम मुस्लिम। हिंदू बनाम ईसाई, दलित बनाम आदिवासी, जाति बनाम जाति, प्रदेश बनाम प्रदेश रहा है। और फिर भी, दुनिया भर में, सर्वहारा वर्ग लड़ रहा है। भारत में दुनिया के निर्धनतम लोगों ने कुछ समृद्धतम कॉर्पोरेशनों का रास्ता रोकने के लिए लड़ाई लड़ी है।
बढ़ता पूंजीवादी संकट
पूंजीवाद संकट में है। ट्रिकल-डाउन असफल हो गया है। अब गश-अप भी संकट में है। अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय आपदा बढ़ती जा रही है। भारत की विकास दर कम होकर 6.9 प्रतिशत हो गई है। विदेशी निवेश दूर जा रहा है। प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय कॉर्पोरेशन पैसों के विशाल ढेर पर बैठे हैं, समझ नहीं आ रहा है कहां पैसा निवेश करें, यह भी समझ नहीं आ रहा कि वित्तीय संकट कैसे खत्म होगा। वैश्विक पूंजी के भीमकाय रथ में यह एक प्रमुख संरचनात्मक दरार है।
पूंजीवाद के असली ‘गोरकन’ शायद उसके भ्रांतिग्रस्त प्रमुख साबित हों, जिन्होंने विचारधारा को धर्म बना लिया है। उनकी कूटनीतिक प्रदीप्ति के बावजूद उन्हें एक साधारण-सी बात समझने में परेशानी हो रही है: पूंजीवाद धरती को तबाह कर रहा है। विगत संकटों से उसे उबारने वाली दो युक्तियां- जंग और खरीदारी- काम नहीं करने वाली है।
एंटिला के सामने खड़े होकर मैं देर तक सूर्यास्त होते देखती रही। कल्पना करने लगी कि वह ऊंची मीनार जितनी जमीन से ऊपर है उतनी ही नीचे भी। कि उसमें सत्ताइस-मंजिल लंबा एक सुरंग मार्ग है जो जमीन के अंदर सांप जैसा फैला है। यह भूखों की भांति धरती से संपोषण खींचे जा रही है और उसे धुऐं और सोने में बदल रही है।
अंबानियों ने अपनी इमारत का नाम एंटिला क्यों रखा? एंटिला एक काल्पनिक द्वीप-समूह का नाम है जिसकी कहानी आठवीं सदी की एक आइबेरियाई किंवदंती से जुड़ी है, जब मुसलमानों ने आइबेरियाई प्रायद्वीपया हिस्पेनिया पर जीत हासिल की, तो वहां राज कर रहे छह विथिगोथिक ईसाई पादरी और उनके पल्लीवासी जहाजों पर चढ़ कर भाग निकले। कई दिन या शायद कई हफ़्ते समुद्र में गुजारने के बाद वे एंटिला द्वीप-समूह पर पहुंचे और उन्होंने वहीं बस जाने और नई सभ्यता तैयार करने का फैसला किया। बर्बर लोगों द्वारा शासित अपने देश से पूरी तरह संबंध तोड़ डालने के लिए उन्होंने अपनी नावें जला डालीं।
अपनी इमारत को एंटिला कहकर, क्या अंबानी अपने देस की गरीबी और गंदगी से संबंध तोड़ डालना चाहते हैं? भारत के सबसे सफल अलगाववादी आंदोलन का क्या यह अंतिम अंक है? मध्यम और उच्च वर्ग का अगल हो कर बाहरी अंतरिक्ष में चले जाना?
जैसे-जैसे मुंबई में रात उतरने लगी, कड़क लिनन कमीजें पहने और चटर-चटर करते वाकी-टाकी लिए सुरक्षाकर्मी एंटिला के आतंकित करनेवाले फाटकों के आगे नमूदार हुए। रौशनी जगमगाने लगी, शायद भूतों को डराने के लिए। पड़ोसियों की शिकायत है कि एंटिला की तेज रौशनी ने उनकी रात चुरा ली है।
शायद वक्त हो गया कि अब हम रात को वापिस हासिल करें। (अनुवाद : भारत भूषण, आउटलुक से साभार)