Wednesday 10 July 2013

देश के पहले आदिवासी उपन्यासकार मेनस ओड़ेया


संजय कृष्ण


  •  प्राचीन मुंडारी में उपन्यास 'मतुराअ: कहनि'


मेनस ओड़ेया देश के पहले आदिवासी उपन्यासकार थे मेनस ओड़ेया (1884-1968) और पहला उपन्यास है 'मतुराअ: कहनि'। उपन्यास प्राचीन मुंडारी में 1920 के आस-पास लिखा गया। हालांकि यह बीसवीं शताब्दी के पिछले दशक में यानी 1984 में प्रकाशित हुआ, लेकिन लिखा गया बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में। एक लंबा अंतराल लिखने और छपने के बीच रहा। कारण, 1700 पृष्ठों का होना और भाषा मुंडारी। कोई प्रकाशक तैयार नहीं। कैसे छपे उपन्यास। कौन थे मेनस और कहां से मिली उपन्यास लिखने की प्रेरणा?  कहानी बड़ी दिलचस्प है।
मेनस ओड़ेया 'इनसाइक्लोपीडिया आफ मुंडारिका' के संकलनकर्ता फादर हाफमैन के स्टेनो थे। करीब पांच हजार पेजों की सामग्री उन्होंने टंकित की थी। टंकण के समय ही यह विचार आया, क्यों न इन सामग्रियों से एक उपन्यास की रचना कर दूं, उनकी भाषा में उनके लिए। इसी बीच विश्वयुद्ध छिड़ गया। फादर जर्मन थे।
सो, अंग्रेजों ने उन्हें अपने वतन लौटने का हुक्म सुना दिया। फादर जर्मनी अपने गांव लौट गए और वहीं से सामग्री रांची भेजते फिर पटना जाता छपने के लिए। कहते हैं, फादर अंतिम दिनों में गठिया से ग्रसित हो गए थे और उन्हें टाइप करने में काफी दिक्कत होती थी। एक छोटी सी हथौड़ी के सहारे वे टाइप करते। एक अक्षर टाइप करने में कई मिनट लग जाता। फिर भी, उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। यह संयोग देखिए कि इनसाइक्लोपीडिया का अंतिम भाग डिस्पैच जिस दिन भेजा, उसके दूसरे दिन उनकी मृत्यु हो गई। उन्होंने अंतिम डिस्पैच करते समय लिखा, 'ईश्वर को धन्यवाद कि अब मुझको टाइप नहीं करना पड़ेगा।' रांची छोड़ने से पहले फादर सर्वदा मिशन खूंटी में रहते थे और यहीं पर मेनस भी उनके साथ रहते थे। एक बार भगवान बिरसा ने इस मिशन पर हमला कर दिया था। सौभाग्य से दोनों बच गए। उस समय भगवान बिरसा का आंदोलन चरम पर था।
मेनास ने भगवान के आंदोलन को भी नजदीक से देखा था। वे खुद भी मुंडा थे। सो, अपने समाज के बारे में जानते थे। रही-सही कसर फादर के शोध अध्ययन से पूरा कर लिया। यहीं से उपन्यास का बीज पड़ा- 'मतुराअ: कहनि'। इस उपन्यास के केंद्र में नायक मतुरा है। मतुरा खूंटी के पास एक नई बस्ती बसाता है। उस बस्ती में एक ही गोत्र के लोग रहते हैं। धीरे-धीरे दूसरे गोत्र के लोग भी पहुंचते हैं और बस्ती बड़ी होने लगती है। अब नई बस्ती की जरूरत पड़ती है। पाहन पहाड़ों से पत्थरों को लुढ़काता है। गांव का सीमांकन किया जाता है। मुंडा गांवों को ससनदिरि (श्मशान का पत्थर) ही विभाजित करता है। यहीं से कहानी शुरू होती है। हिंदी-मुंडारी भाषा के विद्वान और इस उपन्यास को प्रकाशित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले प्रो दिनेश्वर प्रसाद ने इस कृति के बारे में लिखा है, 'मथुरा की कहानी मुंडा जीवन का महाभारत है। महाभारत के विषय में कहा जाता है, यन्न भारते तन्न भारते। यानी जो महाभारत में नहीं, वह भारत में भी नहीं। यह उपन्यास भी कुछ ऐसा ही महत्व रखता है। यह उपन्यास की शक्ल में मुंडा जीवन का विश्वकोश है। इसमें मुंडा समाज, संस्कृति एवं इतिहास की प्रत्येक जानकारी उपलब्ध है।' मेनस का अंतिम दिन कष्ट में बीता। वे लोगों के स्नायु और हड्डी जोड़ आदि बीमारियों का इलाज कर अपना जीवन यापन करते थे। लंबा कद और गठा शरीर था। खैर, उनके जीते जी पुस्तक प्रकाशित नहीं हो सकी। 1934 में फादर पोनेट रांची आए। इन्होंने भी मुंडारी भाषा पर काफी काम किया। बहुत प्रयास किया इसके प्रकाशन के लिए, पर वे अपने जीवन के अंतिम काल में ही इसे प्रकाशित करवा सके कैथोलिक प्रेस से। फिलहाल, इसके हिंदी अनुवाद को लेकर प्रो दिनेश्वर प्रसाद और अश्विनी कुमार पंकज सक्रिय हैं।

धार्मिक असहिष्णुता के दौर में मंटो


प्रभाकर/ईशा भाटिया

धार्मिक असहिष्णुता के मौजूद दौर में सआदत हसन मंटो पहले के मुकाबले ज्यादा प्रासंगिक हैं. यह बात अलग है कि मौजूदा दौर में मंटों को भी अपनी बोल्ड रचनाओं के लिए काफी जिल्लतें झेलनी पड़तीं. मंटो को पढ़कर इस बात का अहसास होता है कि हमारा समाज अभी कहां पहुंचा है. 'सदाबहार मंटो' शीर्षक एक विमर्श में जावेद अख्तर कहते हैं, "मंटो एक प्रगतिशील रचनाकार थे. उनके इस दुनिया के जाने की आधी सदी के बावजूद अगर हम उनकी चर्चा कर रहे हैं तो साफ है कि मौजूदा दौर में भी वह प्रासंगिक हैं. मंटो को हमेशा एक तुच्छ लेखक समझा गया. लेकिन हकीकत यह है कि वह अपने समकालीन लेखकों के लिए एक चुनौती बन गए थे. मंटो ने अपनी लेखनी के जरिए समाज के आम लोगों का दुख-दर्द बयान किया था. मैं इस बात की कल्पना नहीं कर सकता कि मंटो ने अगर अपनी साहसिक रचनाएं मौजूदा दौर में लिखी होंती तो क्या होता. उस दौर में मौजूदा दौर के मुकाबले लिखना या अपनी कलात्मकता को बेहतर तरीके से अभिव्यक्त करना कहीं ज्यादा आसान था.देश में कट्टरवाद के इस दौर को पराजित करना जरूरी है. वह अभिव्यक्ति की आजादी के समर्थक हैं. लेकिन कोई भी आजादी बिना शर्त नहीं होती. मैं अपने पड़ोसी के खिलाफ कुछ भी नहीं लिख सकता. हम एक से दूसरी जगह जाने के लिए आजाद हैं. लेकिन हमें यह तो पता होना ही चाहिए कि सड़क के किस ओर चलना है. इस समस्या के स्थायी समाधान के लिए दोनों पक्षों को आत्मावलोकन करना होगा. कट्टरपंथ के खिलाफ देश भर में उठने वाली आवाजें राहत देने वाली हैं, ऐसी आवाजें ही कट्टरपंथ को पराजित कर सकती हैं."
उपन्यासकार फारूखी कहते हैं कि इतने अरसे बाद भी अगर मंटो को याद किया जाता है तो इसकी वजह उनकी रचनाशीलता की ताकत है. मंटो की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि उनकी कहानियों के पात्र झूठ बोलने के अलावा बेईमानी भी करते हैं. इसके बावजूद वह समाज के बिंब के तौर पर उभरते हैं. अली सेठी कहते हैं कि, "मंटो की कहानियां पचास साल पहले जितनी प्रासंगिक थी, मोजूदा दौर में उससे कहीं ज्यादा प्रासंगिक हैं. उन्होंने अपनी कहानियों में समाज की जिन विसंगितयों का चित्रण किया था वह अब भी जस की तस हैं. अमूमन मंटो की कहानियों की तो बहुत चर्चा होती है, लेकिन शिल्प पर खास चर्चा नहीं होती, उनकी रचनाओं का शिल्प गौण हो जाता है जबकि यह बहुत सहज और जीवन के करीब था. 'टोबा टेक सिंह' और 'ठंडा गोश्त' जैसी कहानियां इंसान को समाज का आइना दिखा देती हैं. यह कहानियां कई सवाल उठाती हैं क्योंकि उन्होंने भोगे हुए यथार्थ को कागज पर उतारा है, कहीं और से पढ़कर या सुनकर नहीं, "टोबाटेक सिंह कहानी को मौजूदा संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए. कट्टरवाद के इस दौर को पराजित करना जरूरी है"

पाकिस्तान को साहित्य से आस


साहित्यिक मेला दक्षिण एशिया की गलियों में टहलता हुआ भारत के बाद अब पाकिस्तान की दहलीज पर दस्तक दे रहा है. आयोजकों को उम्मीद है कि पाकिस्तान दुनिया में अपनी छवि बदल पाएगा. लेकिन कैसे? आयोजकों की कोशिश है इन मेलों के जरिए पाकिस्तान की हिंसक छवि को बदलना और दुनिया के सामने इसकी साहित्यिक और सांस्कृतिक छवि को बढावा देना. कराची साहित्यिक मेले की निर्देशिका अमीना सैयद कहती हैं, "हमारी कोशिश रहेगी कि कट्टरवाद के नाम पर जाने जा रहे पाकिस्तान की भाषा, संस्कृति और तहजीब को हम दुनिया के सामने ला सकें. इससे पाकिस्तान की एक अच्छी छवि सामने आएगी." उर्दू कवि शबनम सईद कहती हैं, "सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि देश के नौजवान ही साहित्य पढ़ने में दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं. अगर वे साहित्य पर ध्यान देना शुरू कर दें तो उनमें बहुत बदलाव आ सकता है." पाकिस्तानी लेखक जमील अहमद मानते हैं कि इस तरह के और कार्यक्रमों का आयोजन बहुत जरूरी है. इससे शांति और तरक्की के रास्ते खुलेंगे. यहां बात सिर्फ देश की छवि बदलने की नहीं है, सवाल है सम्मानजनक जीवन जीने का. जरूरत है दुनिया को इस बात का विश्वास दिलाने की कि पाकिस्तानी भी एक सभ्य जीवन जीना जानते हैं और देश बाकी दुनिया की तरह शांतिपूर्ण जीवन जीना चाहता है. साहित्य धीरे धीरे पाकिस्तान में पंख पसार रहा है. खुद पाकिस्तान में हम नए लेखकों को उभरता देख रहे हैं जिन्हें दुनिया में पहचाना जा रहा है.
कला और संस्कृति के मामले में पाकिस्तान में कई बढ़िया कलाकार हैं, लेकिन उनके बारे में अकसर अंतरराष्ट्रीय मीडिया बात नहीं करता और दुनिया को उनके बारे में ज्यादा पता नहीं चल पाता है. देश के कई लेखक अंग्रेजी में लिख रहे हैं और कई अंतर्राष्ट्रीय सम्मान हासिल कर चुके हैं.लाहौर में 2010 से शुरु हुए सालाना पुस्तक मेले में शामिल होने वालों की संख्या हर साल बढ़ रही है."
अमीना सैयद पाकिस्तान में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस की अध्यक्ष भी हैं. वह कहती हैं, "पाकिस्तान के युवा लेखकों में जोश है. भारत में जिस तरह युवा लेखकों का मनोबल बढ़ाया जाता है और उनके काम की सराहना होती है, हमें उससे प्रेरणा मिलती है. हमारी कोशिश है कि पाकिस्तान में भी लेखकों को वैसा ही मंच और पाठकों का सहयोग मिले." 2010 से कराची में आयोजित हो रहे साहित्यिक मेले में शामिल होने वालों की संख्या लगभग तीन गुना बढ़ी है. पिछले साल ही इस मेले में 15,000 लोग आए थे. कार्यक्रम से जुड़ने वाले लेखकों और कलाकारों की संख्या भी 36 से बढ़ कर 144 हो गई है. सैयद के अनुसार इन मेलों में कलाकारों को अपनी कला के जरिए अपनी बात रखने का एक बढ़िया मंच मिलता है. उन्होंने माना कि पाकिस्तान के विकास के लिए साहित्य की दिशा में आगे बढ़ना बहुत जरूरी है. रजी अहमद कहते हैं, "हमारी कोशिश है कि इस तरह हम गूढ़ मुद्दों पर सुझाव और जानकारियां मुहैया करा सकें." साहित्यकार जमील अहमद मानते हैं कि लाहौर वह शहर है जिसकी जड़ों में सुनने-सुनाने और सवाल जवाब करने का इतिहास बसा है. इस तरह उस इतिहास को दोबारा जिया जा सकेगा. इन साहित्यिक कार्यक्रमों में शामिल हो रहे साहित्यकरों में पाकिस्तान की कामिला शम्सी, मोहसिन हामिद, मुहम्मद हनीफ और दानियाल मुइनुद्दीन के अलावा ब्रिटिश पाकिस्तानी तारिक अली और ब्रिटेन के मशहूर लेखक विलियम डैलरिम्पल भी होंगे. डैलरिम्पल ने हाल ही में अफगानिस्तान पर एक किताब लिखी है. आईबी/एसएफ (डीपीए)

पौराणिक गाथाओं का नया ताना बाना



  • अमीश त्रिपाठी, आश्विन सांघी और अशोक बैंकर जैसे उभरते लेखकों की कलम से पुराणों के रहस्य का एक नया ताना बाना बुना जा रहा है


राम हो या ब्रह्मा विष्णु महेश, इंद्र या कोई और पौराणिक चरित्र लेकिन कहानियां वो नहीं जो सदियों से पढ़ी सुनी जा रही हैं, भाषा अंग्रेजी और सिंगार एक दम चकाचक.ये साहित्य को भारत की नई पेशकश है जो हलचल मचा रही है. पत्रकार से कारोबारी बनीं मृगांका डडवाल रामायण के बारे में सब कुछ जानती हैं. मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जन्म से लेकर सीता हरण, रावण वध, राजतिलक सब कुछ लेकिन वो पराजित रावण के नजरिए से भी इस कहानी को जानना समझना चाहती हैं और उन्हें पुराने चरित्रों को लेकर नए नजरिए से लिखी कहानियां मिल रही हैं. पौराणिक कहानियों को नए नजरिए से काल्पनिक कथानकों और दिलचस्प कलेवरों में बदला जा रहा है. डडवाल और उनके जैसे लाखों शहरी, पढ़े लिखे और कथित अभिजात्य वर्ग के लोग अंग्रेजी में लिखी इन किताबों को ढूंढ ढूंढ कर पढ़ रहे हैं.
अमीश त्रिपाठी, आश्विन सांघी और अशोक बैंकर जैसे उभरते लेखकों की कलम से पुराणों के रहस्य का एक नया ताना बाना बुना जा रहा है और लोगों के मन में कहीं गहरे बैठे पौराणिक किरदारों के नए अंदाज सामने आ रहे हैं. 32 साल की डडवाल कहती हैं, "वे भारतीय पुराणों के बारे में ऐसी बात करते हैं जो पहले नहीं सुनी गईं." ये स्वदेशी लेखक सदियों से चले आ रही धारणाओं को नया रूप दे रहे हैं लेकिन भारतीय प्रकाशन उद्योग अंग्रेजी में ऐसी काल्पनिक कहानियों की सफलता को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं. हैरी पॉटर की लेखिका जेके रॉलिंग्स की तरह ही अमीश त्रिपाठी को भी कई प्रकाशकों ने खारिज कर दिया लेकिन शिवा ट्रियोलॉजी के नाम से आई सीरीज की पहली किताब की सफलता देख सबके मुंह खुले के खुले रह गए.
2010 में आई द इममोर्टल्स ऑफ मेलुहा की 15 लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं और बॉलीवुड ने भी इस पर काम शुरू कर दिया है. इसके बाद आई बाकी दोनों किताबें भी जबरदस्त कामयाब रहीं. फिर तो बैंकर से लेखक बने अमीश को जब उनकी नई सीरीज के लिए जिसका अभी विषय भी तय नहीं है, लाखों डॉलर का एडवांस मिला तो किसी को हैरानी नहीं हुई. 38 साल के अमीश का कहना है, "यह एक देश के रूप में हमारे भीतर बढ़ते आत्मविश्वास का नतीजा है. अंग्रेजी प्रकाशन उद्योग पहले शायद पश्चिमी बाजारों के लिए खुद को ज्यादा तैयार करता था, वह भारत के बाजारों में बिकने वाली विषयों की बजाए पश्चिमी बाजारों को भारत के बारे में समझाने में जुटा था."
भारत में किताबों के दुकानदार अपनी शेल्फ में आकर्षक और सस्ते पेपरबैक रूप में आ रहे इन किताबों को बड़े चाव से जगह दे रहे हैं. त्रिपाठी की नई किताब के बाजार में उतरने के मौके पर तो एक खास संगीत भी तैयार किया गया था. ऑक्सफोर्ड बुक स्टोर ने तो बकायदा इस नई विषयवस्तु के लिए अलग जगह बनाने की तैयारी शुरू कर दी है. ऑक्सफोर्ड बुक स्टोर के ऑपरेशंस और पर्चेसिंग विभाग की भारत प्रमुख स्वागत सेनगुप्ता कहती हैं, "इस विधा में तो एक तरह से धमाल हो गया है, हमें इसे खोना नहीं चाहिए वास्तव में किसी को नहीं खोना चाहिए."
हालांकि यह भी नहीं है कि सबको यह पसंद ही आ रहा है. 35 साल की नूपुर सूद बैंकर हैं और उनका कहना है कि फिर वही कहानी या नई पैकेजिंग से बहुत फर्क नहीं पड़ता और वह कुछ नया पढ़ना ज्यादा पसंद करेंगी, "यह मुझ पर दबाव डालता है कि जो मैं पहले से जानती हूं उसकी नए से तुलना करूं." आश्विन सांघी के तीन उपन्यासों की साढ़े चार लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं और सावधान करते हुए कहते हैं कि पौराणिक काल्पनिक कहानियों की बाढ़ सी आ गई है. उनका मानना है, "समय के साथ प्रकाशक भी थक जाएंगे और तब आप फिर उसी स्थिति में आ जाएंगे कि कुछ ही किताबें होंगी जो छपेंगी और अच्छा करेंगीं." (एनआर/एएम(रॉयटर्स)

'गीतांजलि' को नोबेल के सौ साल


वो किताब बांग्ला भाषा में 1910 में प्रकाशित हुई. दिग्गज ब्रिटिश कवि यीट्स के पास उसका अंग्रेजी अनुवाद पहुंचा 1912 में और किताब ने ऐसा करिश्मा किया कि अगले ही साल यानी 1913 में उसे साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिल गया. रवींद्रनाथ टैगोर की गीतांजलि दुनिया भर में लोकप्रिय हो गई, टैगोर का नाम और भारत का नाम भी. वो नोबेल जीतने वाले पहले गैर यूरोपीय, पहले एशियाई लेखक कहलाए. गीतमाला से भरी किताब भारतीय जनमानस में अपनी एक अमिट उपस्थिति बना गई. गीतांजलि का नोबेल तक का ये सफर नाटकीय था लेकिन कहानी इतनी ही नहीं थी.
टैगोर उस समय शांतिनिकेतन में थे और छात्रों को एक प्रशिक्षण ट्रिप के लिए लेकर जा रहे थे कि तारघर का कर्मचारी दौड़ता हुआ उनकी बग्घी की ओर आया. तार तो मामूली नहीं होते, फिर भी टैगोर ने बिना पढ़े उसे जेब में रख दिया, साथ बैठे एक अंग्रेज सज्जन से रहा नहीं गया तो उन्होंने टैगोर को वो तार पढ़ लेने को कहा. पढ़ते ही टैगोर को सहसा यकीन ही नहीं हुआ कि ये नोबेल पुरस्कार की सूचना थी जो ब्रिटेन से उनके प्रकाशक ने तार की थी. रवींद्रनाथ पुरस्कार लेने खुद स्टॉकहोम नहीं गए. ब्रिटिश राजदूत ने ये सम्मान लिया फिर उसे टैगोर के घर बंगाल पहुंचा दिया गया. टैगोर ने कोई लिखित भाषण भी नहीं भेजा था. टेलीग्राम से धन्यवाद के चंद शब्द बस. कुछ साल बाद 1921 में टैगोर अपनी पश्चिम की यात्रा में स्टॉकहोम भी गए और वहां फिर उन्होंने अपना आभार एक भाषण के रूप में प्रकट किया जिसमें उन्होंने अपने कवि बनने की दास्तान का जिक्र किया, ये बताया कि कैसे वो युवा उम्र में अकेलेपन और अजीब तरह की कशमकश के शिकार थे और कैसे उन्होंने इन भावनाओं से छुटकारा पाया और बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूल खोलने का फैसला किया. उन्होंने गीतांजलि की रचना प्रक्रिया के बारे में भी बताया कि कैसे छात्रों की उमंगों, हलचलों और मासूमियत के बीच उन्होंने गीतांजलि लिखना और गाना शुरू किया. और कैसे चटपट इसका अंग्रेजी अनुवाद भी कर डाला और कैसे उसे लेकर पश्चिम की ओर चल पड़े. पहला पड़ाव स्वाभाविक रूप से ब्रिटेन को बनाते हुए. रचना प्रक्रिया के अलावा टैगोर ने उस मौके का इस्तेमाल शांतिनिकेतन की अहमियत बताने के लिए भी किया था.
कहा तो ये भी जाता है कि गीतांजलि को मिला पुरस्कार असल में ब्रिटिश हुकूमत की एक सामरिकता का हिस्सा था. इस सामरिकता की जड़ें अंग्रेजों के अपने वर्चस्व, भारतीय सांस्कृतिक पुनरुत्थान, गांधी के संघर्ष, कांग्रेस के उदय और हिंदू मुस्लिम एकजुटता और उसके बिखराव तक फैली हुई थीं. खैर, गीतांजलि की विश्व पहचान के लिए टैगोर ने कड़ी मेहनत की थी जिसमें उनका 'जनसंपर्क' भी शामिल था. इस अविश्वसनीय श्रम का एक प्रमाण तो उनके अंग्रेजी अनुवाद से ही मिल जाता है. गीतांजलि का ये अनुवाद ही उन्होंने यीट्स को सौंपा था जिसे पढ़ने के बाद जैसा कि कहा जाता है यीट्स तो हक्के बक्के ही रह गए. और आखिरकार गीतांजलि की कविताओं की दीवानगी में जा डूबे. इसी दीवानगी की एक गहरी झलक गीतांजलि के लिए उनकी लिखी भूमिका में मिलती है जिसमें यीट्स ने टैगोर के आत्मिक और दार्शनिक व्यक्तित्व का अद्भुत खाका खींचा. यीट्स के मुताबिक इस किताब ने उन्हें इतना मुतास्सिर किया कि "समझ नहीं आता कि ये साहित्य है या धर्म." यीट्स के मुताबिक गीतांजलि के अनुवाद की पांडुलिपि लिए वो दिनों दिनों फिरते रहते थे, रेलवे स्टेशनों पर पढ़ते थे, बसों में और रेस्तरां में, बाज दफा उसे बंद कर देते थे कि कहीं कोई देख न ले कि किस चीज ने उन पर इतना जादू कर दिया है.
ऐसे मोहित हो जाने वाले यीट्स अकेले नहीं थे. उस दौर में, उसके बाद और आज तक टैगोर से प्रेम करने वालों और उनका अन्वेषण करने वालों की भरीपूरी पीढ़ियां हैं. गीतांजलि को नोबेल मिलने के बाद सहसा ही टैगोर की मांग पश्चिम में बढ़ गई. लिखने की पेशकशें आती रहीं. लेकिन टैगोर अंग्रेजी में लिखने से हिचकते रहे और उन्होंने अपनी मातृभाषा में ही लिखना पसंद किया. एक बात ये भी थी कि टैगोर इतने परफेक्शनिस्ट मिजाज के आदमी थे कि दूसरों के अनुवादों पर उनका भरोसा कम था. और ये तो माना ही जाता है कि गीतांजलि का जो अनुवाद टैगोर ने किया था वो इतना प्रामाणिक और विश्वसनीय है कि मौलिक रचना अंग्रेजी की ही जान पड़ती है.
टैगोर जितना भारतीय शास्त्रीयता की गहनता के चिंतक थे उतना ही आधुनिकतावाद के पैरौकार भी. उनके जीवन और लेखन में प्राचीनता से नवीनता की ओर और फलसफे से व्यवहार की ओर निरंतर आवाजाही है. एक आवाजाही वहां दर्द से दरिया तक की भी है. टैगोर ने गीतांजलि को लिखते हुए लगता है अपनी सृजनात्मक सामर्थ्य का सर्वस्व उड़ेलने की कोशिश की है. अपने तमाम दुखों, द्वंद्वों, विरोधाभासों, और यातनाओं को जैसे उन्होंने एक लिरिकल अनुभव में बदल दिया है. गीतांजलि को इन सौ सालों में न जाने कितने तरीकों से कितनी कितनी बार समझने की कोशिश की गई, अपने अपने ढंग से सबने देखा, अपनी व्याख्याएं दीं, कितनी कलाओं में गीतांजलि रूपायित हुई और आगे होती रहेगी. गीतांजलि प्रकृति का ही कोई अटूट भाव लगती है, अपने अपने वक्तों में जिसके पास देर सबेर सभी पहुंचते हैं.
टैगोर की गीतांजलि आखिर है क्या. गीतांजलि यानी "गीत-उपहार" की एक अदद किताब या प्रेम, दर्शन, प्रकृति और अध्यात्म का एक मिलाजुला अनुभव या एक अतृप्त अनुभूति है, एक तलाश और एक छटपटाहट खुद में डूब जाने की, या वो प्रकृति के रंगों को आत्मसात कर उस अनुभव को अभिव्यक्त करने की विलक्षणता है. एक गतिशील विचार. एक अपनी ही तरह का प्रवाह. गीतांजलि असल में एक ओर आत्मा, ईश्वर और प्रेम की तलाश में डोलती एक करुण पुकार है तो दूसरी ओर वो मानवीय गरिमा, जिजीविषा, उत्थान और सरोकार का निर्भीक और स्पष्ट आह्वान भी. इसलिए वो जितना खुद को संबोधित है उतना ही अखिल विश्व, अखिल समाज को भी. इसकी एक मिसाल कुछ इस तरह से हैः
वियोग का दंश फैला है पूरी दुनिया में उसी से अनंत आकाश पर उभरते हैं असंख्य आकार.
यही वो दुख वियोग का जो सारी रातों को एक तारे से दूसरे तारे तक खामोशी में निहारता है और जुलाई के बरसाती अंधकार में सरसराती पत्तियों के बीच बन जाता है गीत.
यही वो फैलता जाता दर्द है जो प्रेम और इच्छाओं में पैबस्त है, मनुष्यों के घरों की वेदनाओं और खुशियों में, और यही है जो मेरे कवि के हृदय में घुल जाता है और बहने लगता है गीतो में. (DW.DE से साभार. ब्लॉग: शिवप्रसाद जोशी/ संपादन: ओंकार सिंह जनौटी)

अब लिखिए अपना उपन्यास


जर्मनी में अब युवा प्रतिभाशाली लेखकों को मिलती है स्टार लेखकों की मदद. बर्लिन की फ्री यूनिवर्सिटी में स्टार लेखक उभरते उपन्यासकारों को क्लास में बताते हैं कि कैसे अच्छा उपन्यास लिखें. यह उन युवाओं के लिए अच्छा होता है जो लेखक के तौर पर लोकप्रियता का स्वाद चखना चाहते हैं. नामी लेखकों से बेहतर ये जानकारी और कौन दे सकता है. 28 साल के ब्राजिलियाई छात्र राओनी डुरान साहित्य के छात्र हैं और वह लेखक बनना चाहते हैं. इतना ही नहीं, पहले उपन्यास के लिए उनके पास जबरदस्त आयडिया है. लेकिन वह कहते हैं कुछ कमी है. उनके पास आयडिया को शब्दों और स्टाइल में बेहतरीन तरीके से ढालने का अनुभव नहीं है. डुरान कहते हैं, एक लेखक के तौर पर आपको पता होना चाहिए कि लेख कैसे काम करता है न कि उसका विवरण. इस तरह की सोच के कारण वह अपने आयडिया को अच्छे से विकसित कर पाए हैं.
सेमीनार में पढ़ाने वाले लेक्चरर नहीं बल्कि अमेरिका के बेस्ट सेलिंग ऑथर एंड्र्यू शॉन ग्रीयर हैं. और वह पहले स्टार लेखक नहीं जो बर्लिन की फ्री यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहे हों. वहीं 42 साल के सैम्युअल फिशर गेस्ट प्रोफेसर हैं. वह साहित्य और कंपेरेटिव लिटरेचर के 30 छात्रों को उपन्यास लिखना सिखा रहे हैं. यह स्कीम फ्री यूनिवर्सिटी, जर्मनी के विदेश विभाग और फिशर पब्लिशिंग हाउस ने साथ मिल कर तैयार की है. इस स्कीम के तहत 1998 से अभी तक कई स्टार लेखक कोर्स में आ चुके हैं. पहले के गेस्ट प्रोफेसरों में जापानी नोबेल पुरस्कार विजेता केंजाबुरो ओए, ऑस्ट्रियन-जर्मन लेखक डानिएल केहलमान और अफ्रीकी लेखक सोमाली नुरुद्दीन फाराह. एंड्र्यू शॉन ग्रीयर के उपन्यास कनफेशन ऑफ मैक्स तिवोली (2004) और द स्टोरी ऑफ मैरिज (2008) मशहूर हुए हैं.
ग्रीयर के सेमीनार में बातचीत का विषय है कि अधिकतर युवा लेखक आलोचक की आंखों से पढ़ते हैं. ग्रीयर कहते हैं, "मैं उन्हें सिखा रहा हूं कि किताबें ऐसे पढ़ना कि वह सीधे जा कर लिख सकें. आप ऐसा नहीं कर सकते अगर आप कहानी के कैरेक्टर में उलझ जाएं या फिर स्टोरीलाइन से दो चार हो रहे हों. ऐसी स्थिति में आप उस पर ध्यान नहीं दे सकते कि कहानी कैसे बन रही है." यूनिवर्सिटी के अध्यक्ष पेटर आंद्रे आल्ट बताते हैं, "दुनिया भर से आने वाले अतिथि प्रोफेसरों के साथ बौद्धिक आदान प्रदान हमारी यूनिवर्सिटी की पहचान की खास बात है." 2007 से फ्री यूनिवर्सिटी को एलीट यानी संभ्रात यूनिवर्सिटी का दर्जा मिला हुआ है. सैम्युअल फिशर गेस्ट प्रोफेसरशिप जैसी स्कीम के कारण छात्र दूसरी संस्कृतियों को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं और उनकी अपनी संस्कृति के बारे में समझ भी गहरी होती है.
हालांकि एंड्र्यू ग्रीयर के सेमीनार में सासंकृतिक तुलना अहम मुद्दा नहीं है. लेखक कहते हैं कि बर्लिन में वह बिलकुल घर जैसा महसूस करते हैं." यह शहर वर्तमान में जीता है भूत में नहीं. हालांकि यह भी सही है कि आप भूतकाल को कहीं भी महसूस कर सकते हैं. यह मुझे आजाद करता है." बर्लिन और साहित्य के लिए ग्रीर की दीवानगी बहुत संक्रामक है. उनके छात्र उनके लेक्चर पसंद करते हैं. लेकिन वहां जाने वाले सभी लेखक बनना ही चाहते हों ऐसा नहीं. 24 साल की सारा हांग को लगता है कि आलोचना उनकी खासियत है. जबकि अन्य छात्र लीडिया दिमित्रोव पहले से ही अनुवादक के तौर पर काम कर रही हैं. दोनों को ही लगता है कि इस सेमिनार के कारण उन्हें अपने काम में बहुत फायदा हुआ है. इस सेमिनार में हिस्सा लेने के लिए 160 छात्रों ने आवेदन किया था लेकिन 30 ही को चुना गया. शायद इसी कारण छात्रों को इसका काफी फायदा भी हुआ. यही अध्यक्ष पेटर आंद्रे आल्ट भी मानते हैं. चूंकि हर सेमेस्टर में प्रोफेसर भी बदलते हैं इसलिए जिन लोगों को रुचि है उन्हें अगले सेमेस्टर में भी जगह मिल सकती है. (DW.DE/मानसी गोपालकृष्णन)

जर्मन किताबों का भारतीय प्रकाशक


महेश झा

जर्मन लेखक, अंग्रेजी भाषा और कोलकाता के बीच कोई संबंध है क्या? 1982 में नवीन किशोर ने यहीं सीगल बुक्स की शुरूआत की, आज यह दुनिया में जर्मन साहित्य को अंग्रेजी में छापने वाली सबसे बड़ी प्रकाशन संस्था है. प्रकाशक, पत्रकार, थिएटर कलाकार 60 साल के नवीन किशोर की खूबियों की बात करें तो कई किताबें उन्हीं पर छापनी पड़ेंगी. खूब घूम चुके नवीन साहित्य की दुनिया में किसी क्रांतिकारी से कम नहीं. पिछले 30 सालों में अपने छोटे से प्रकाशन संस्था को किशोर ने अंग्रेजी भाषा में अनुवाद का विशाल केंद्र बना दिया है. इनमें जर्मन लेखकों की किताबों का अनुवाद भी शामिल है. यह सब कुछ इतना आसान नहीं था, क्योंकि बाकी मुश्किलों के साथ ही नवीन को पूर्वाग्रहों से भी लड़ना था. डेढ़ करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले कोलकाता में सीगल बुक्स की पहचान पहले खराब क्वालिटी वाली किताबों से ही थी. किशोर बताते हैं, "आपको यह समझना होगा कि उस वक्त तकनीक अलग थी उस समय सीसे और धातुओं से काम होता था, लेकिन हमें यह अहसास था कि भारत की छपाई में अच्छे स्तर की किताबें नहीं निकलती, इसलिए हमने बहुत ध्यान छपाई पर रखा. पहले दिन से ही हमें किताबों की अच्छी छपाई की वजह से जाना गया."
आम लोगों के लिए खास किताबें
नवीन को थिएटर से प्यार है. सालों से वह लाइटिंग डिजाइनर के रूप में काम करते रहे हैं और शुरूआती दिनों में सीगल बुक्स थिएटर, फिल्म, कला और संगीत से ही जुड़ा था. किशोर याद करते हैं, "जहां तक छपाई की बात है तो बहुत छोटे स्तर पर काम था. धीरे धीरे हम संस्कृति की दुनिया में आगे बढ़ते गए. उस वक्त रूसी फिल्मों की बाढ़ थी. इसके बाद विस्तार थिएटर, सिनेमा, संगीत और कला की दुनिया में हो रहे कामों की ओर बढ़ता चला गया." 2005 तक सीगल बुक्स 400 किताबें छाप चुका था. इसी साल किशोर ने अनुभव किया कि बहुत से विदेशी प्रकाशन संस्थान भारत में अपनी किस्मत आजमाने के लिए आ रहे हैं. जाहिर है कि इस देश में क्षमता है. तब किशोर ने भी यही करने की सोची, बस उनकी दिशा उल्टी थी. उन्होंने प्रकाशन से जुड़े लोगों के संपर्क में रहते हुए दुनिया भर के सैर की महत्वाकांक्षी योजना बनाई जिससे कि छापने के लिए बढ़िया सामग्री ढूंढी जा सके. इसके बाद किशोर ने सीगल बुक्स की दो शाखाएं लंदन और न्यूयॉर्क में खोली.
यूरोपीय साहित्य ने लुभाया
ब्रिटेन और अमेरिका के प्रकाशक काफी दिनों से जर्मन साहित्यकारों को छाप रहे हैं. इनमें से कई किताबें किशोर ने युवावस्था में पढ़ी हैं. किशोर बताते हैं, "हमारे देश की दुकानों में हर तरह का बढ़िया साहित्य मौजूद है, लेकिन बाद में यह अचानक रुक गया क्योंकि कई प्रकाशकों की नजर में यह व्यावसायिक रूप से फायदेमंद नहीं रह गया था और तब मैं फ्रांस में गालिमार और जर्मनी में जुअरकाम्प की तरफ मुड़ गया."
इसके साथ ही सीगल बुक्स ने जर्मन और फ्रेंच किताबें छापनी शुरू कर दीं. जल्दी ही शिकागो यूनिवर्सिटी प्रेस से भी संबंध जुड़ गया. सौदेबाजी में माहिर किशोर की संवेदनशीलता और दृढ़ता ने उनके लिए यह सब संभव किया. उनका काम पूरब और पश्चिम के बीच संस्कृति का पुल बन गया है. सैकड़ों जर्मन किताबों के अंग्रेजी अनुवाद छापने के बाद सीगल बुक्स अब दुनिया में जर्मन साहित्य को अंग्रेजी में छापने वाला सबसे बड़ा नाम बन गया है. इनमें से कई किताबें तो पहली बार सीगल बुक्स ने ही छापी हैं या फिर कई ऐसी भी किताबें हैं जो लंबे समय तक गायब रहने के बाद दोबारा छपी हैं. चीन के नोबेल विजेता मो यान समेत दुनिया के नामचीन लेखक सीगल बुक्स की पुस्तक सूची में शामिल हैं. हांस माग्नुस एनसेंसबर्गर, हाइनर मुलर, पीटर हांडके, माक्स फ्रिश, थियोडोर डब्ल्यू अडोर्नो, सेर्गेई आइंस्टाइन से लेकर रबींद्रनाथ टैगोर और पाब्लो, पिकासो तक इसमें मिल जाएंगे.
क्या छापें क्या नहीं
किशोर का मानना है कि आप हमेशा उन लोगों को ध्यान में रख कर ही छापते हैं जो आपके लिए अहम हैं. उनका मानना है कि किसी भी किताब की सफलता की कोई गारंटी नहीं दे सकता, भले ही इसके लिए लेखक को 20 लाख डॉलर का एडवांस ही क्यों न मिल गया हो. वो बताते हैं, "मेरी समझ से इस तरह की सोच की आपको कीमत चुकानी होती है और प्रकाशन में इस तरह की सोच से आप अच्छे विचार और साहित्य निकाल पाते हैं और तब उम्मीद करते हैं कि आपको कोई खरीदार मिल जाएगा."
उनका मानना है कि जैसा लोग समझते हैं प्रकाशन कभी भी सफल कारोबार नहीं होता लेकिन यह चलता रहता है. किशोर के आस पास मौजूद लोग उनके लिए बेहद अहम हैं. लेखकों को चुनने के मामले में वह अपनी टीम के साथ लगातार बात करते हैं और अनुवादकों से भी कहते हैं कि वो लेखक का नाम सुझाएं. किशोर को इस बात से बहुत गुस्सा आता है कि कई प्रकाशक तीन से छह महीने में ही किताबों को अपनी सूची से हटा कर धूम धाम से आई नई किताब के लिए जगह बनाते हैं. नतीजा यह होता है कि ऐसी किताबें ऑनलाइन दुकानदार खरीद ले जाते हैं और ग्राहक किताबों के सस्ती होने का इंतजार करते हैं. किशोर नई तकनीकों के आने से बेहद उत्साहित हैं. डिजीटल रूप में किताबों का तैयार होना उन्हें बहुत खुशी देता है. वो मानते हैं, आने वाली नस्लें शायद कागज की छुअन, अहसास और भावनाओं को नहीं समझेंगी लेकिन तब भी किताबें पढ़ी और लिखी जाएंगी. (DW.DE साभार)

विदेशी विद्वानों का आकर्षण हैं हिंदी साहित्य



  • ‘विदेशी विद्वानों का हिन्दी प्रेम’ - जगदीश प्रसाद बरनवाल 


हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी भारत में भले ही उपेक्षित हो लेकिन इस जबान का जादू पूरी दुनिया के लगभग हर भाषा के विद्वानों और साहित्यकारों के सिर चढ़ कर बोलता है। हिन्दी साहित्य के पाश में बंधे विदेशी विद्वानों ने इस भाषा की रचनाओं पर अपनी कलम खूब चलाई है।
आजमगढ़ के साहित्यकार जगदीश प्रसाद बरनवाल द्वारा रची गई पुस्तक ‘विदेशी विद्वानों का हिन्दी प्रेम’ दुनिया के 34 देशों के 500 विद्वानों द्वारा हिन्दी भाषा पर किए गए कार्यों का संग्रह है।
यह किताब विदेशी विद्वानों के हिंदी के प्रति प्रेम का दस्तावेजी रूप है और यह दूसरे देशों में हिंदी की धमक का एहसास भी कराती है। भारतीय भाषाओं के प्रति विदेशी साहित्यकारों के आकर्षण पर अपना अभिमत देते हुए बरनवाल कहते हैं कि भारत के नागरिकों से संबंध स्थापित करने के लिए भाषाई और धर्म प्रचार के उद्देश्य ने पहले तो विदेशियों को इस देश के साहित्य का अध्ययन करने के लिए मजबूर किया और फिर अध्ययन से उपजी आत्मीयता और हिन्दी साहित्य की समृद्धि ने उन्हें कलम चलाने को मजबूर किया।
उन्होंने कहा कि इस विषय पर होने वाला विमर्श आज तब तेज हो रहा है जब आधुनिक हिन्दी खड़ी बोली के महाकाव्य ‘प्रिय प्रवास’ के रचयिता और आजमगढ़ के निवासी रहे अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की एक प्रमुख पुस्तक ‘ठेठ हिन्दी का ठाठ’ के चेक भाषा में अनुवाद का शताब्दी वर्ष चल रहा है।
बरनवाल ने बताया कि करीब 100 वर्ष पूर्व 1911 में इस साहित्यकार की पुस्तक का चेक विद्वान वित्सेंत्स लेस्नी ने अनुवाद किया था और पुस्तक का नाम देव बाला रखा गया। यही नहीं इतालवी विद्वान एलपी टस्सी टरी ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने तुलसीदास की श्रीरामचरितमानस पर सबसे पहले शोध करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की थी।
रूसी विद्वान एपी वारान्निकोव ने वर्ष 1948 में श्रीरामचरितमानस का रूसी भाषा में अनुवाद किया जो बहुत लोकप्रिय हुआ। वारान्निकोव ने मुंशी प्रेमचन्द की रचना ‘सौत’ का भी यूक्रेनी भाषा में अनुवाद किया। उनकी मृत्यु के बाद उनकी समाधि स्थल पर रामचरितमानस की पंक्ति ‘भलोभला इहि पैलहइ’ अंकित की गई है।
हिन्दी साहित्य का इतिहास भी विदेशी साहित्यकारों के लिए शोध का विषय रहा है। बरनवाल बताते हैं कि फ्रांस के विद्धान गार्सा दत्तासी ने सबसे पहले हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा था। उनकी फ्रेंच भाषा में लिखी गई पुस्तक ‘इस्त्वार वल लिते रत्थूर ऐन्दुई ए ऐन्दुस्तानी (हिंदूई और हिन्दुस्तानी साहित्य का इतिहास) है। इसका प्रथम संस्करण ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया को 15 अप्रैल 1839 को समर्पित किया गया था जिसमें हिन्दी और उर्दू के 738 साहित्यकारों की रचनाओं एवं जीवनियों का उल्लेख है।
बेल्जियम के विद्वान फादर कामिल बुल्के यहां आए तो ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए थे लेकिन हिन्दी साहित्य ने उन्हें इस कदर अपना दीवाना बनाया कि वह भारत में ही बस गए और दिल्ली में अंतिम सांस ली। उन्होंने ‘रामकथा, उत्पत्ति और विकास’ पुस्तक को चार भागों और इक्कीस अध्यायों में लिखा। (भाषा)

अच्छा साहित्य पढ़ता कौन है?


उषाराजे सक्सेना


  • हमारी सभ्यता में पुस्तकें खरीदकर पढ़ने का चलन नहीं 
  • पुस्तक मेले को देखने वाले अधिक, खरीदने वाले कम
  • अच्छी हिन्दी पुस्तकें अब पुस्तकालयों तक ही सीमित


प्रकाशक भी वही छापता है जो गरमागरम कबाब की तरह बिकता है। अच्छा खासा गठबंधन है। लेखन अब जन्मजात नहीं है। वह तकनीकी है। वह सामाजिक नहीं, बाजारी शक्ति बन चला है। अच्छा और ईमानदार साहित्य लिखा जा रहा है, पर वह मुश्किल से मिलता है। अच्छा साहित्य मिले भी तो क्यों मिले उसकी रीडरशिप कहां है?
और यूं भी हिन्दी की रीडरशिप तो अब उंगलियों पर गिनी जा सकती है। सस्ती पत्रिकाओं और टेबलॉयड को छोड़ दीजिए। वह तो साहित्य के नाम पर कचरा है। अधिकांश हिन्दी लेखक भी हिन्दी पुस्तकें कम पढ़ते हैं और यदि सच कहूं तो हिन्दी लेखक भी अंगरेजी ही पढ़ता है, क्योंकि अंगरेजी की खबरें ज्यादा विश्वसनीय होती हैं और वे पहले छपती हैं और किताबें भी मौलिक होती हैं, चुराने के लिए काफी आइडियाज होते हैं।
वैसे यह अतिशयोक्ति नहीं है, अधिकांश अच्छी और उच्चकोटि की हिन्दी की पुस्तकें अब पुस्तकालयों तक ही सीमित रह गई हैं। सरकारी खरीददारी यानी गोदाम में पड़ा माल- क्या भविष्य है ऐसी रचनाओं का? जब प्रगति मैदान में सजे पुस्तक मेले को देखा था। देखने वाले अधिक थे, खरीदने वाले बहुत कम। अंगरेजी सेक्शन में फिर भी किताबें बिक रही थीं। हिन्दी सेक्शन में लेखकों या लेखक बनने के आतुरों की आवाजाही थी।
वैसे भी हमारी सभ्यता में पुस्तकें खरीदकर पढ़ने का चलन नहीं है। मांगकर पढ़ने का है या पढ़ने का ही नहीं है। आज घरों में आदमी के रहने की जगह नहीं है तो पुस्तक कहां रखेंगे। इस महंगाई के जमाने में रद्दी में बेचने के लिए दो-ढाई सौ रुपए की पुस्तकें कौन खरीदेगा? अंगरेजी पढ़ने वाला जरा पैसे वाला है। वह ड्राइंग रूम में अपनी प्रतिष्ठा के लिए, शौक के लिए पुस्तकें रखता है। वह भी सिर्फ अंगरेजी की।
बाजार में हिन्दी की किताबें बिकें या न बिकें, प्रकाशक को इससे कोई मतलब नहीं है। प्रकाशक दाम ऐसे ऊंचे रखते हैं कि जनता खरीद ही न सके, क्योंकि जो हजार-बारह सौ किताबें वे छापते हैं, वे सरकारी खाते में जाती हैं। फिर वे बिक्री बढ़ाने का प्रयास क्यों करें? किताबें पढ़ी जाएं या नहीं, यह उनका सिरदर्द नहीं है।
विद्यार्थी भी अब हिन्दी पुस्तकें नहीं पढ़ता है। उसके पास समय कहां है? वह नोट्स पढ़ लेता है। गहन अध्ययन की आवश्यकता कहां रही? समय ही कहां है? और नहीं तो इंटरनेट जिंदाबाद! उसको और भी बहुत से राजनीति से जुड़े गुंडागर्दी के काम करने हैं। गंभीर लेखक की बड़ी समस्याएँ हैं। लेखक अपनी ऊर्जा और सोच को सही दिशा नहीं दे पा रहा है। वह अंगरेजी से प्रतियोगिता करता रहता है। अंगरेजी का वर्चस्व उसकी मातृभाषा की लेखनी को दबाता चला जा रहा है। उसकी अपनी सोच रही कहां? अपनी सोच पर उसे भरोसा ही कहां है? उसका तो वैश्वीकरण हो गया।
मौलिक सोच होगी तो वह पिछड़ा हुआ होगा। उसे तो दमित इच्छाओं, सेक्स, दलित और दूसरे देशों के नैतिक पतन के बारे में लिखना है। नहीं तो उसका लेखन सीमित हो जाएगा। यदि वह ईमानदारी से सच लिखता है तो उसका पत्ता साफ! विदेशी साहित्य को पढ़ना होगा, इसलिए नहीं कि उससे ज्ञानवर्धन होगा, इसलिए कि उसकी सोच से अपनी सोच को प्रकाशित करना होगा। यानी अपने देश को, संस्कृति को, मूल्यों को, संबंधों को, चिंताओं को उनके यानी विदेशी लेखकों के दृष्टिकोण से देखना होगा, तभी तो हमारी साहित्यिक प्रतिभा निखरेगी और तभी हमें सम्मान मिलेगा, अवॉर्ड मिलेगा।
आजकल साहित्यिक सम्मान भी एक अच्छा-खासा इश्यू बन गया है। सम्मान और अवॉर्ड की भीड़ में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए किसी खेमे से जुड़ना होगा या किसी गॉड फादर, बिग ब्रदर के शरणं गच्छामि होना होगा।
अरे भई लेखकों के सामने बड़ी विपत्तियां हैं। वस्तुतः जब हम प्रवास में बैठकर साहित्य का सृजन करते हैं तो हम यह नहीं सोचते कि हमारा पाठक भारतीय होगा अथवा विदेशी। हम अपने दृष्टिकोण, अपने अनुभव और परिवेश से प्रेरित होकर लिखते हैं। संभवतः आत्मसुख के लिए अपनी पीड़ा उकेरते हैं। विदेशों में लिखा जा रहा हिन्दी साहित्य अपने अस्तित्व और अपनी अस्मिता को बचाए रखने के संघर्ष का साहित्य है।
परदेस में लिखे जाने वाले साहित्य का दृष्टिकोण और साहित्यकार की भावनाएं भारत में लिखे जाने वाले साहित्य और परिभाषा से भिन्न होगी। आज इंग्लैंड, अमेरिका, फिजी, त्रिनिदाद, मॉरीशस और सूरीनाम जैसे देशों में भी हिन्दी साहित्य का सृजन हो रहा है, उसे भारत की मुख्य धारा से जोड़ने की आवश्यकता है। प्रवासी हिन्दी लेखक के पास भारत के व्यापक समुदाय तक पहुंचने के न तो प्रकाशीय साधन हैं और न ही उसे प्रचारित-प्रसारित करने के बाजारी समीक्षात्मक साधन।
विदेशों में बैठा हिन्दी का लेखक एक सिपाही है जो अपनी व्यस्तता और विरोधी शक्तियों से लड़ते हुए भी हिन्दी की मशाल जलाए हुए है पर है वह हाशिए पर ही। यूं भारत से बाहर हिन्दी साहित्यकार जहां एक ओर अपनी परंपरा और संस्कार लिए हुए हैं, वहीं उनके पास पश्चिम से प्राप्त आधुनिकता बोध भी है। यह मिश्रण उनके साहित्य को तो विशिष्ट अवश्य बनाता है पर उसे भारत में चल रही साहित्यिक गतिविधियों से जोड़ नहीं पाता है। इसलिए वह भारत की मुख्य धारा से नहीं जुड़ पाता है।
वैसे आजकल विदेशों में भी एक से अधिक ऐसी संस्थाएं चालू हो गई है, जो भारत के लेखकों, साहित्यकारों आदि को विशेष सम्मान और पुरस्कार आदि देकर अपनी उपस्थिति को विश्वव्यापी बनाने की बेतहाशा कोशिश कर रही है। सम्मान और मान्यता के लिए दुम हिलाने वालों की लाइन लंबी होती जा रही है। क्या ऐसी व्यापारिक मानसिकता से ग्रसित लेखक कोई कालजयी रचना कर सकता है?

पुस्तकालय में 23.2 लाख किताबें

दक्षिण चीन में ग्वांडोंग विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय एक प्रांतीय प्रमुख विश्वविद्यालय है, एक अंतरर्राष्ट्रीय विशेषता प्रधान शिक्षण और अनुसंधान का विश्वविद्यालय है। यह अंतर्राष्ट्रीय प्रतिभाशाली व्यक्ति का पोषण करने और विदेशी भाषा एवँ संस्कृति तथा बाह्य व्यापार और अंतर्राष्ट्रीय रणनीति के अध्ययन का महत्वपूर्ण आधार है। अभी विश्वविद्यालय में 20454 पू्र्णकालिक स्नातक विद्यार्थी हैं, पीएचडी और मास्टर विद्यार्थियों की संख्या 2000 से ज़्यादा है, तरह तरह के वयस्क पूर्व-स्नातक और जूनियर कॉलेज के छात्रों और विदेशी विद्यार्थियों की संख्या 13000 से अधिक है। विश्वविद्यालय में उत्तर कैंपस और दक्षिण कैंपस के पुस्तकालय का सम्मिलित क्षेत्रफल कुलमिलाकर 50 हज़ार वर्ग किलोमीटर है, जिनमें रखी हुई चीनी और विदेशी किताबें 23.2 लाख हैं, चीनी और विदेशी ई—पुस्तकें 17 लाख हैं, चीनी और विदेशी अख़्बार और पत्रिकाएँ 3114 हैं, 80 किस्म का चीनी और विदेशी नेटवर्क डेटाबेस हैं, और 16 विदेशी भाषाओं की किताबें ख़रीदने, वर्गीकरण करने, परिसंचारी एवं बहाली करने का एकीकृत प्रबंधन बनाया गया है। अब तक सभी अचल संपत्ति का मूल्य 2 अरब 50 करोड़ हैं।
    विश्वविद्यालय का पूर्व रूप गुअनग जोउ विदेशी भाषा कॉलेज और गुअनग  जोउ बाह्य व्यापार कॉलेज है। गुअनग  जोउ विदेशी भाषा कॉलेज की स्थापना 1965 में हुई, जो शिक्षा मंत्रालय के द्वारा सीधे नियंत्रण किये जाने के तीन विदेशी भाषा कॉलजों में से एक है। गुअनग  जोउ बाह्य व्यापार कॉलेज की स्थापना 1980 में हुई, जो पूर्व देश के विदेश अर्थ और व्यापार मंत्रालय (अब वाणिजय मंत्रालय) से सीधे नियंत्रण किया जाने का कॉलेज है। अक्टूबर 2008 में ग्वांडोंग वित्त व्यावसायिक कॉलेज ग्वांडोंग विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय में शामिल हुआ था। विश्वविद्यालय में  1173 पूर्णकालिक शिक्षक हैं। विश्वविद्यालय में 21 शिक्षण यूनिट और 1 स्वतंत्र कॉलेज है जिनमें साहित्य, अर्थशास्त्र, प्रबंधन, कानून, इन्जीनियर, निज्ञान, शिक्षा आदि आठ मुख्य विषय शामिल हैं। विश्वविद्यालय पूरे विश्व के 19 विश्वविद्यालयों में से एक है जो संयुक्त राष्ट्र को उच्च स्तरीय अनुवादक प्रदान करता है और एशिया कैंपस की योजना  में एकमात्र विदेशी भाषा विश्वविद्यालय है।

चार्ली चैप्लिन ने की थीं चार शादियां

मेधा बुक्स से प्रकाशित एक हंसती हुई किताब, जिसका अनुवाद किया है सूरज प्रकाश ने


चार्ली चैप्लिन ने आजीवन हँसाने का काम किया। दुनिया भर के लिए। बिना किसी भेद भाव के। उन्होंने राजाओं को भी हँसाया और रंक को भी हँसाया। उन्होंने चालीस बरस तक अमेरिका में रहते हुए पूरे विश्व के लिए भरपूर हँसी बिखेरी। उन्होंने अपने बटलर को भी हँसाया, और सुदूर चीन के प्रधान मंत्री चाऊ एन लाइ भी इस बात के लिए विवश हुए कि विश्व शांति के, जीवन मरण के प्रश्न पर मसले पर हो रही विश्व नेताओं की बैठक से पहले से वे खास तौर पर मंगवा कर चार्ली चैप्लिन की फिल्म देखें और चार्ली के इंतज़ार में अपने घर की सीढ़ियों पर खड़े रहें।
चार्ली ने अधिकांश मूक फिल्में बनायीं और जीवन भर बेज़ुबान ट्रैम्प के चरित्र को साकार करते रहे, लेकिन इस ट्रैम्प ने अपनी मूक वाणी से दुनिया भर के करोड़ों लोगों से बरसों बरस संवाद बनाये रखा और न केवल अपने मन की बात उन तक पहुंचायी, बल्कि लोगों की जीवन शैली भी बदली। चार्ली ने ब्लैक एंड व्हाइट फिल्में बनायीं लेकिन उन्होंने सबकी ज़िंदगी में इतने रंग भरे कि यकीन नहीं होता कि एक अकेला व्यक्ति ऐसा कैसे कर सकता है। लेकिन चार्ली ने ये काम किया और बखूबी किया।

दोनों विश्व युद्धों के दौरान जब चारों तरफ भीषण मार काट मची हुई थी और दूर दूर तक कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं था, न नेता, न राजा, न पीर, न फकीर, जो लाखों घायलों के जख्मों पर मरहम लगाता या, जिनके बेटे बेहतर जीवन के नाम पर, इन्सानियत के नाम पर युद्ध की आग में झोंक दिये गये थे, उनके परिवारों को दिलासा दे पाता, ऐसे वक्त में हमारे सामने एक छोटे से कद का आदमी आता है, जिसके चेहरे पर गज़ब की मासूमियत है, आँखों में हैरानी है, जिसके अपने सीने में जलन और आंखों में तूफान है, और वह सबके होंठों पर मुस्कान लाने का काम करता है। 'इस आदमी के व्यक्तित्व के कई पहलु हैं। वह घुमक्कड़, मस्त मौला है, भला आदमी है, कवि है, स्वप्नजीवी है, अकेला जीव है, हमेशा रोमांस और रोमांच की उम्मीदें लगाये रहता है। वह तुम्हें इस बात की यकीन दिला देगा कि वह वैज्ञानिक है, संगीतज्ञ है, ड्यूक है, पोलो खिलाड़ी है, अलबत्ता, वह सड़क पर से सिगरेटें उठा कर पीने वाले और किसी बच्चे से उसकी टॉफी छीन लेने वाले से ज्यादा कुछ नहीं। और हाँ, यदि मौका आये तो वह किसी भली औरत को उसके पिछवाड़े लात भी जमा सकता है, लेकिन बेइंतहा गुस्से में ही।' वह यह काम अपने अकेले के बलबूते पर करता है। वह सबको हँसाता है और रुलाता भी है। 'हम हँसे, कई बार दिल खोल कर और हम रोये, असली आँसुओं के साथ - आपके आँसुओं के साथ, क्योंकि आप ही ने हमें आँसुओं का कीमती उपहार दिया है।'

चार्ली जीनियस थे, सही मायने में जीनियस। 'जीनियस शब्द को तभी उसका सही अर्थ मिलता है जब इसे किसी ऐसे व्यक्ति के साथ जोड़ा जाता है जो न केवल उत्कृष्ट कॉमेडियन है बल्कि एक लेखक, संगीतकार, निर्माता है और सबसे बड़ी बात, उस व्यक्ति में ऊष्मा्, उदारता और महानता है। आप में ये सारे गुण वास करते हैं और इससे बड़ी बात, कि आप में वह सादगी है जिससे आपका कद और ऊंचा होता है और एक गरमाहट भरी सहज अपील के दर्शन होते हैं जिसमें न तो कोई हिसाबी गणना होती है और न ही कोई प्रयास ही आप इसके लिए करते हैं और इनसे आप सीधे इन्सान के दिल में प्रवेश करते हैं। इन्सान, जो आप ही की तरह मुसीबतों का मारा है।'
लेकिन चार्ली को ये बाना धारण करने में, करोड़ों लोगों के चेहरे पर हँसी लाने के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़े। भयंकर हताशाओं के, अकेलेपन के दौर उनके जीवन में आये, पारिवारिक और राजनैतिक मोर्चों पर एक के बाद एक मुसीबत उनके सामने आयीं लेकिन चार्ली कभी डिगे नहीं। उन्हें अपने आप पर विश्वास था, अपनी कला की ईमानदारी, अपनी अथिभव्यक्ति की सच्चाई पर विश्वास था और सबसे बड़ी बात उनकी नीयत साफ थी और वे अपने आप पर भरोसा करते थे।

उनका पूरा जीवन उतार-चढ़ावों से भरा रहा। बदकिस्मती एक के बाद एक अपनी पोटलियां खोल कर उनके इम्तिहान लेती रही। जब वे बारह बरस के ही थे तो उनके पिता की मृत्यु हो गयी थी। मात्र सैंतीस बरस की उम्र में। बहुत अधिक शराब पीने के कारण। हालांकि वे लिखते हैं कि मैं पिता को बहुत ही कम जानता था और मुझे इस बात की बिल्कुल भी याद नहीं थी कि वे कभी हमारे साथ रहे हों। उनके पिता और मां में नहीं बनती थी इसलिए चार्ली ने अपना बचपन मां की छत्र छाया में ही बिताया। चार्ली के माता पिता, दोनों ही मंच के कलाकार थे लेकिन ये उसकी (मां की) आवाज़ के खराब होते चले जाने के कारण ही था कि मुझे पांच बरस की उम्र में पहली बार स्टेज पर उतरना पड़ा। उस रात मैं अपनी ज़िंदगी में पहली बार स्टेज पर उतरा था और मां आखिरी बार। वे अपनी पहली मंच प्रस्तुति से ही सबके चहेते बन गये और फिर उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। 'अभी मैंने आधा ही गीत गाया था कि स्टेज पर सिक्कों की बरसात होने लगी। मैंने तत्काल घोषणा कर दी कि मैं पहले पैसे बटोरूंगा और उसके बाद ही गाना गाऊंगा। इस बात पर और अधिक ठहाके लगे। स्टेज मैनेजर एक रुमाल ले कर स्टेज पर आया और सिक्के बटोरने में मेरी मदद करने लगा। मुझे लगा कि वो सिक्के अपने पास रखना चाहता है। मैंने ये बात दर्शकों तक पहुंचा दी तो ठहाकों का जो दौरा पड़ा वो थमने का नाम ही न ले। खास तौर पर तब जब वह रुमाल लिये-लिये विंग्स में जाने लगा और मैं चिंतातुर उसके पीछे-पीछे लपका। जब तक उसने सिक्कों की वो पोटली मेरी मां को नहीं थमा दी, मैं स्टेज पर वापिस गाने के लिए नहीं आया। अब मैं बिल्कुल सहज था। मैं दर्शकों से बातें करता रहा, मैं नाचा और मैंने तरह-तरह की नकल करके दिखायी। मैंने मां के आयरिश मार्च थीम की भी नकल करके बतायी।'

चार्ली का बचपन बेहद गरीबी में गुज़रा। 'वे लोग, जो रविवार की शाम घर पर डिनर के लिए नहीं बैठ पाते थे, उन्हें भिखमंगे वर्ग का माना जाता था और हम उसी वर्ग में आते थे।' पिता के मरने और मां के पागल हो जाने और कोई स्थायी आधार न होने के कारण चार्ली को पूरा बचपन अभावों में गुज़ारना पड़ा और यतीम खानों में रहना पड़ा। 'हमारा वक्त खराब चल रहा था और हम गिरजा घरों की खैरात पर पल रहे थे।' मां पागल खाने में और भाई सिडनी अपनी नौकरी पर जहाज में, चार्ली को डर रहता कि कहीं उसे फिर से यतीम खाने न भेज दिया जाये, वह सारा सारा दिन मकान मालकिन की निगाहों से बचने के लिए सड़कों पर मारे मारे फिरते,'मैं लैम्बेथ वॉक पर और दूसरी सड़कों पर भूखा-प्यासा केक की दुकानों की खिड़कियां में झांकता चलता रहा और गाय और सूअर के मांस के गरमा-गरम स्वादिष्ट लजीज पकवानों को और शोरबे में डूबे गुलाबी लाल आलुओं को देख-देख कर मेरे मुंह में पानी आता रहा।'

चार्ली को चलना और बोलना सीखने से पहले पहले गाना और नाचना सिखाया गया था और यही वज़ह रही कि वे पांच बरस में मंच पर उतर गये थे और इससे भी बड़ी बात कि सात बरस की उम्र में वे नृत्य के लैसन दिया करते थे और इस तरह से होने वाली कमाई से घर चलाने में मां का हाथ बंटाते थे। बेशक हम समाज के जिस निम्नतर स्तर के जीवन में रहने को मज़बूर थे वहां ये सहज स्वाभाविक था कि हम अपनी भाषा-शैली के स्तर के प्रति लापरवाह होते चले जाते लेकिन मां हमेशा अपने परिवेश से बाहर ही खड़ी हमें समझाती और हमारे बात करने के ढंग, उच्चारण पर ध्यान देती रहती, हमारा व्याकरण सुधारती रहती और हमें यह महसूस कराती रहती कि हम खास हैं।
चार्ली की स्कूली पढ़ाई आधी अधूरी रही। देखा जाये तो वे औपचारिक रूप से दो बरस ही स्कूल जा पाये और बाकी पढ़ाई अनाथ आश्रमों के स्कूलों में या इंगलैंड के प्रदेशों में नाटक मंडली के साथ शो करते हुए एक एक हफ्ते के लिए अलग अलग शहरों के स्कूलों में करते रहे। चार्ली ने नियमित रूप से आठ बरस की उम्र में ही एट लंकाशयर लैड्स मंडली में बाल कलाकार के रूप में काम करना शुरू कर दिया था और बारह बरस की उम्र तक आते आते वे इंगलैंड के सर्वाधिक चर्चित बाल कलाकार बन चुके थे और जीवन की असली पाठशाला में अपनी पढ़ाई कर रहे थे, फिर भी स्कूली पढ़ाई ने उन्हें जो कुछ सिखाया, उसके बारे में वे लिखते हैं: काश, किसी ने कारोबारी दिमाग इस्तेमाल किया होता, प्रत्येक अध्ययन की उत्तेजनापूर्ण प्रस्तावना पढ़ी होती जिसने मेरा दिमाग झकझोरा होता, तथ्यों के बजाये मुझ में रुचि पैदा की होती, अंकों की कलाबाजी से मुझे आनंदित किया होता, नक्शों के प्रति रोमांच पैदा किया होता, इतिहास के बारे में मेरी दृष्टिकोण विकसित किया होता, मुझे कविता की लय और धुन को भीतर उतारने के मौके दिये होते तो मैं भी आज विद्वान बन सकता था।

मात्र आठ बरस की उम्र में उन्हें जिन संकटों का सामना करना पड़ा, उससे कोई भी दूसरा बच्चा बिल्कुल टूट ही जाता। चार्ली काम धंधे की तलाश में गलियों में मारे मारे फिरते: उस वक्त मैं आठ बरस का भी नहीं हुआ था लेकिन वे दिन मेरी ज़िन्दगी के सबसे लम्बे और उदासी भरे दिन थे।
ऐसे में भी चार्ली ने कभी हिम्मत नहीं हारी क्योंकि लक्ष्य उनके सामने था कि उन्हें जो भी करना है, थियेटर में ही करना है। उन्होंने बीसियों धंधे किये: मुझमें धंधा करने की जबरदस्त समझ थी। मैं हमेशा कारोबार करने की नयी-नयी योजनाएं बनाने में उलझा रहता। मैं खाली दुकानों की तरफ देखता, सोचता, इनमें पैसा पीटने का कौन सा धंधा किया जा सकता है। ये सोचना मछली बेचने, चिप्स बेचने से ले कर पंसारी की दुकान खोलने तक होता। हमेशा जो भी योजना बनती, उसमे खाना ज़रूर होता। मुझे बस पूंजी की ही ज़रूरत होती लेकिन पूंजी ही की समस्या थी कि कहां से आये। आखिर मैंने मां से कहा कि वह मेरा स्कूल छुड़वा दे और काम तलाशने दे।
मैंने बहुत धंधे किये। मैंने अखबार बेचे, प्रिंटर का काम किया, खिलौने बनाए, ग्लास ब्लोअर का काम किया, डॉक्टर के यहाँ काम किया लेकिन इन तरह-तरह के धंधों को करते हुए मैने सिडनी की तरह इस लक्ष्य से कभी भी निगाह नहीं हटायी कि मुझे अंतत: अभिनेता बनना है, इसलिए अलग-अलग कामों के बीच अपने जूते चमकाता, अपने कपड़ों पर ब्रश फेरता, साफ कॉलर लगाता और स्ट्रैंड के पास बेड फोर्ड स्ट्रीट में ब्लैक मोर थिएटर एजेन्सी में बीच-बीच में चक्कर काटता। मैं तब तक वहाँ चक्कर लगाता रहा जब तक मेरे कपड़ों की हालत ने मुझे वहाँ और जाने से बिलकुल ही रोक नहीं दिया।

चार्ली चैप्लिन ने बचपन में नाई की दुकान पर भी काम किया था लेकिन इस आत्म कथा में उन्होंने इसका कोई ज़िक्र नहीं किया है। इस काम का उन्हें ये फायदा हुआ कि वे अपनी महान फिल्म द ग्रेट थिडक्टेटर में यहूदी नाई का चरित्र बखूबी निभा सके।
जब उन्हें पहली बार नाटक में काम करने के लिए विधिवत काम मिला तो वे जैसे सातवें आसमान पर थे, 'मैं खुशी के मारे पागल होता हुआ बस में घर पहुंचा और दिल की गहराइयों से यह महसूस करने लगा कि मेरे साथ क्या हो गया है। मैंने अचानक ही गरीबी की अपनी ज़िंदगी पीछे छोड़ दी थी और अपना बहुत पुराना सपना पूरा करने जा रहा था। ये सपना जिसके बारे में अक्सर मां ने बातें की थीं और उसे मैं पूरा करने जा रहा था। अब मैं अभिनेता होने जा रहा था। मैं अपनी भूमिका के पन्नों को सहलाता रहा। इस पर नया खाकी लिफाफा था। यह मेरी अब तक की ज़िंदगी का सबसे महत्त्वपूर्ण दस्तावेज था। बस की यात्रा के दौरान मैंने महसूस किया कि मैंने एक बहुत बड़ा किला फतह कर लिया है। अब मैं झोपड़ पट्टी में रहने वाला नामालूम सा छोकरा नहीं था। अब मैं थिएटर का एक खास आदमी होने जा रहा था। मेरा मन किया कि मैं रो पडूं।
और इस भूमिका के लिए उन्होंने खूब मेहनत की और अपने चरित्र के साथ पूरी तरह से न्याय किया। वे लगातार दर्शकों के चहेते बनते गये। एक मज़ेदार बात ये हुई कि वे अपनी ज़िंदगी का पहला करार करने जा रहे थे लेकिन उन्हें लग रहा था कि जितना मिल रहा है, वे उससे ज्यादा के हकदार हैं और वहां वे अपनी व्यावसायिक बनिया बुद्धि का एक नमूना दिखा ही आये थे, 'हालांकि यह राशि मेरे लिए छप्पर फाड़ लॉटरी खुलने जैसी थी फिर भी मैंने यह बात अपने चेहरे पर नहीं झलकने दी। मैंने निम्रता से कहा, 'शर्तों के बारे में मैं अपने भाई से सलाह लेना चाहूंगा।'

उन्नीस बरस की उम्र तक आते आते वे इंगलिश थियेटर में अपनी जगह बना चुके थे लेकिन अपने आपको अकेला महसूस करते। वे बरसों से अकेले ही रहते आये थे। प्यार ने उनकी ज़िदंगी में बहुत देर से दस्तक दी थी लेकिन वे अपनी अकड़ के चलते वहां भी अपने पत्ते फेंक आये थे। हालांकि अपने पहले प्यार को वे लम्बे अरसे तक भुला नहीं पाये। 'सोलह बरस की उम्र में रोमांस के बारे में मेरे ख्यालों को प्रेरणा दी थी एक थियेटर के पोस्टर ने जिसमें खड़ी चट्टान पर खड़ी एक लड़की के बाल हवा में उड़े जा रहे थे। मैं कल्पना करता कि मैं उसके साथ गोल्फ खेल रहा हूं।
यही मेरे लिए रोमांस था। लेकिन कम उम्र का प्यार तो कुछ और ही होता है। एक नज़र मिलने पर, शुरुआत में कुछ शब्दों का आदान प्रदान (आम तौर पर गदहपचीसी के शब्द), कुछ ही मिनटों के भीतर पूरी जिंदगी का नज़रिया ही बदल जाता है। पूरी कायनात हमारे साथ सहानुभूति में खड़ी हो जाती है और अचानक हमारे सामने छुपी हुई खुशियों का खज़ाना खोल देती है।
मैं उन्नीस बरस का होने को आया था और कार्नो कम्पनी का सफल कामेडियन था। लेकिन कुछ था जिसकी अनुपस्थिति खटक रही थी। वसंत आ कर जा चुका था और गर्मियां अपने पूरे खालीपन के साथ मुझ पर हावी थीं। मेरी दिनचर्या बासीपन लिये हुए थी और मेरा परिवेश शुष्क। मैं अपने भविष्य में कुछ भी नहीं देख पाता था, वहां सिर्फ अनमनापन, सब कुछ उदासीनता लिये हुए और चारों तरफ आदमी ही आदमी। सिर्फ पेट भरने की खातिर काम धंधे से जुड़े रहना ही काफी नहीं लग रहा था। ज़िंदगी नौकर सरीखी हो रही थी और उसमें किसी किस्म की बांध लेने वाली बात नहीं थी।
मैं बुद्धूपने और अतिनाटकीयता का पुजारी था, स्वप्नजीवी भी और उदास भी। मैं ज़िंदगी से खफ़ा भी रहता था और उसे प्यार भी करता था। कला शब्द कभी भी मेरे भेजे में या मेरी शब्द सम्पदा में नहीं घुसा। थियेटर मेरे लिए रोज़ी-रोटी का साधन था, इससे ज्यादा कुछ नहीं।
मैं अकेला होता चला गया, अपने आप से असंतुष्ट। मैं रविवारों को अकेला भटकता घूमता रहता, पार्कों में बज रहे बैंडों को सुन का दिल बहलाता। न तो मैं अपनी खुद की कम्पनी झेल पाता था और न ही किसी और की ही। और तभी एक खास बात हो गयी - मुझे प्यार हो गया। मुझे अचानक दो बड़ी-बड़ी भूरी शरारत से चमकती आंखों ने जैसे बांध लिया। ये आंखें एक दुबले, हिरनी जैसे, सांचे में ढले चेहरे पर टंगी हुई थीं और बांध लेने वाला उसका भरा पूरा चेहरा, खूबसूरत दांत, ये सब देखने का असर बिजली जैसा था। लेकिन हैट्टी को जी जान से चाहने के बावजूद उन्होंने अपनी चौथी मुलाकात में ही उसके खराब मूड को देख कर फैसला कर लिया कि वह उनसे प्यार नहीं करती। और संबंध तोड़ बैठे।' 'मेरा ख्याल यही है कि हम विदा हो जायें और फिर कभी दोबारा एक दूजे से न मिलें।' मैंने कहा और सोचता रहा कि उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी।
लेकिन अब क्या हो सकता था। 'मैंने क्या कर डाला था? क्या मैंने बहुत जल्दीबाजी की? मुझे उसे चुनौती नहीं देनी चाहिये थी। मैं भी निरा गावदी हूं कि उससे दोबारा मिलने के सारे रास्ते ही बंद कर दिये? लेकिन किस्मत उन्हें दूसरे दरवाजे से दस्तक दे रही थी। संभावनाओं ने नये दरवाजे खुल रहे थे: अमेरिका में संभावनाओं का अंनत आकाश था। मुझे अमेरिका जाने के लिए इसी तरह के किसी मौके की जरूरत थी। इंगलैंड में मुझे लग रहा था कि मैं अपनी संभावनाओं के शिखर पर पहुँच चुका हूँ और इसके अलावा, वहाँ पर मेरे अवसर अब बंधे बंधाये रह गये थे। आधी-अधूरी पढ़ाई के चलते अगर मैं म्यूजिक हॉल के कामेडियन के रूप में फेल हो जाता तो मेरे पास मजदूरी के काम करने के भी बहुत ही सीमित आसार होते।

उनके जीवन का सबसे सुखद पहलू अगर अमेरिका जाना था और वहां चालीस बरस तक रह कर नाटक, फिल्मों और मनोरंजन के सर्वाधिक सफल व्यक्तित्व के रूप में पूरी दुनिया के लोगों के दिल पर राज करना था तो वहां से जाना भी उनके लिए सबसे दुखद घटना बन कर आयी। वे खुली अनंत आकाश की खुली हवा की तलाश में अमेरिका गये थे और आखिर खुली हवा की तताश में मज़बूर हो कर वहां से कूच करना पड़ा और उम्र के छठे दशक में स्विटज़रलैंड को अपना घर बनाना पड़ा।
चार्ली पूरी दुनिया के चहेते थे। वे शायद अकेले ऐसे शख्स रहे होंगे जिनके दोस्त हर देश में, हर फील्ड में और हर उम्र के थे। वे अमूमन हर देश के राज्याध्यक्ष, राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री से मित्रता के स्तर पर मिलते थे। वे उनकी फिल्में दिखाये जाने का आग्रह करते, उन्हें राजकीय सम्मान देते। उनके घर पर आते और उनके साथ खाना खाते। वे गांधी जी से भी मिले थे और नेहरू जी से भी। गांधी जी से वे बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने बर्नार्ड शॉ के घर पर कई बार खाना खाया था और आइंस्टीन कई बार चार्ली के घर आ चुके थे। जीवन के हर क्षेत्र के लोग उनके मित्र थे: मैं दोस्तों को वैसे ही पसंद करता हूं जैसे संगीत को पसंद करता हूं। शायद मुझे कभी भी बहुत ज्यादा दोस्तों की ज़रूरत नहीं रही - आदमी जब किसी ऊंची जगह पर पहुंच जाता है तो दोस्त चुनने में कोई विवेक काम नहीं करता। अलबत्ता वे मानते थे कि ज़रूरत के वक्त किसी दोस्त की मदद करना आसान होता है लेकिन आप हमेशा इतने खुशनसीब नहीं होते कि उसे अपना समय दे पायें।
चार्ली ने इकतरफा प्रेम बहुत किये। वैसे देखा जाये तो हैट्टी के साथ उनका पहला प्यार भी इकतरफा ही था और शायद यही वजह रही कि वे उनतीस बरस की उम्र तक अकेले ही रहे। मेरा अकेलापन कुंठित करने वाला था क्योंकि मैं दोस्ती करने की सारी ज़रूरतें पूरी करता था। मैं युवा था, अमीर था और बड़ी हस्ती था। इसके बावज़ूद मैं न्यू यार्क में अकेला और परेशान हाल घूम रहा था।

हालांकि चार्ली ने चार शादियां कीं लेकिन पहली तीन शादियों से उन्हें बहुत तकलीफ पहुंची। पहली शादी करने जाते समय तो वे समझ ही नहीं पा रहे थे कि वे ये शादी कर ही क्यों रहे हैं। दूसरी शादी ने उन्हें इतनी तकलीफ पहुंचायी कि इस आत्म कथा में अपनी दूसरी पत्नी का नाम तक नहीं बताया है। अलबत्ता, ऊना ओ नील से उनकी चौथी शादी सर्वाधिक सफल रही। हालांकि दोनों की उम्र में 36 बरस का फर्क था और ऊना उनकी छत्तीस बरस तक, यानी आजीवन उनकी पत्नी रहीं। वे अपने जीवन के अंतिम 36 बरस उसी की वजह से अच्छी तरह से गुज़ार सके। पिछले बीस बरस से मैं जानता हूं कि खुशी क्या होती है। मैं किस्मत का धनी रहा कि मुझे इतनी शानदार बीवी मिली। काश, मैं इस बारे में और ज्यादा लिख पाता लेकिन इससे प्यार जुड़ा हुआ है और परफैक्ट प्यार सारी कुंठाओं से ज्यादा सुंदर होता है क्योंकि इसे जितना ज्यादा अभिव्यक्त किया जाये, उससे अधिक ही होता है। मैं ऊना के साथ रहता हूं और उसके चरित्र की गहराई और सौन्दर्य मेरे सामने हमेशा नये नये रूपों में आते रहते हैं।
हालांकि चार्ली ने अपनी आत्म कथा में पोला नेगरी से अपनी अभिन्न मित्रता का ही ज़िक्र किया है, तथ्य बताते हैं कि नेगरी से उनकी पन्द्रह दिन के भीतर ही दो बार सगाई हुई थी और टूटी थी। चार्ली ने अपनी आत्म कथा में अपनी सभी संतानों का भी उल्लेख नहीं किया है। इसकी वजह ये भी हो सकती है कि ये आत्म कथा 1960 में लिखी गयी थी जब वे 71 बरस के थे और ऊना ने कुल मिला कर उन्हें आठ संतानों का उपहार दिया था और उनकी आठवीं संतान तब हुई थी जब चार्ली 73 बरस के थे और ऊना 37 बरस की।
अलबत्ता, अपनी आत्म कथा में चार्ली ने अपने सैक्स संबंधों के बारे में काफी खुल कर चर्चा की है: हर दूसरे व्यक्ति की तरह मेरे जीवन में भी सैक्स के दौर आते-जाते रहे। लेकिन उनका मानना है: मेरे ख्याल से तो सैक्स से चरित्र को समझने में या उसे सामने लाने में शायद ही कोई मदद मिलती हो। और कि ठंड, भूख और गरीबी की शर्म से व्यक्ति के मनोविज्ञान पर कहीं अधिक असर पड़ सकता है। जो परिस्थितियां आपको सैक्स की तरफ ले जाती हैं, वे मुझे ज्यादा रोमांचक लगती हैं।
चार्ली अमेरिका गये तो थियेटर करने थे लेकिन उनके भाग्य में और बड़े पैमाने पर दुनिया का मनोरंजन करना लिखा था। अमेरिका में और भी कई संभावनाएं थीं। मैं थिएटर की दुनिया से क्यूँ चिपका रहूँ? मैं कला को समर्पित तो था नहीं। कोई दूसरा धंधा कर लेता। मैंने अमेरिका में टिकने की ठान ली थी। शुरू शुरू में उन्हें अपने पैर जमाने में और अपने मन की करने में तकलीफ हुई लेकिन एक बार ट्रैम्प का बाना धारण करने लेने के बाद उन्होंने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। मेरा चरित्र थोड़ा अलग था और अमेरिकी जनता के लिए अनजाना भी। यहाँ तक कि मैं भी उससे कहाँ परिचित था। लेकिन वे कपड़े पहन लेने के बाद मैं यही महसूस करता था कि मैं एक वास्तविकता हूँ, एक जीवित व्यक्ति हूँ। दरअसल, जब मैं वे कपड़े पहन लेता और ट्रैम्प का बाना धारण कर लेता तो मुझे तरह तरह के मज़ाकिया ख्याल आने लगते जिनके बारे में मैं कभी सोच भी नहीं सकता था। चूँकि मेरे कपड़े मेरे चरित्र से मेल खा रहे थे, मैंने तभी और उसी वक्त ही तय कर लिया कि भले ही कुछ भी हो जाये, मैं अपनी इसी ढब को बनाये रखूँगा।
वे जल्दी ही अपनी मेहनत और हुनर के बल पर ऐसी स्थिति में आ गये कि मनमानी कीमत वसूल कर सकें। वे ऑल इन वन थे। लेखक, अभिनेता, निर्देशक, संगीतकार, संपादक, निर्माता और बाद में तो वितरक भी। जल्द ही उनकी तूती बोलने लगी। लेकिन एक मज़ेदार बात थी उनके व्यक्तित्व में। किसी भी फिल्म के प्रदर्शन से पहले वे बेहद नर्वस हो जाते। उनकी रातों की नींद उड़ जाती। पहले शो में वे थियेटर के अंदर बाहर होते रहते, लेकिन आश्चर्य की बात, कि सब कुछ ठीक हो जाता और हर फिल्म पहले की फिल्मों की तुलना में और सफल होती।
हर फिल्म के साथ चार्ली की प्रसिद्धि का ग्राफ ऊपर उठता जा रहा था और साथ ही उनकी कीमत भी बढ़ती जा रही थी। वे मनमाने दाम वसूल करने की हैसियत रखते थे और कर भी रहे थे। न्यू यार्क में मेरे चरित्र, कैलेक्टर के खिलौने और मूर्तियां सभी डिपार्टमेंट स्टोरों और ड्रगस्टोरों में बिक रहे थे। जिगफेल्ड लड़कियां चार्ली चैप्लिन गीत गा रही थीं।
उन्होंने बहुत तेजी से बहुत कुछ हासिल कर लिया था। मैं सिर्फ सत्ताइस बरस का था और मेरे सामने अनंत सम्भावनाएं थीं, और थी मेरे सामने एक दोस्तानी दुनिया। थोड़े से ही अरसे में मैं करोड़पति हो जाऊंगा। मैं कभी इस सब की कल्पना भी नहीं कर सकता था।
चार्ली के बहुत से मित्र थे और उनकी कई मित्रताएं आजीवन रहीं। पुरुषों से भी और महिलाओं से भी। वे दूसरों से प्रभावित भी हुए और पूरी दुनिया को भी अपने तरीके से प्रभावित किया। हर्स्ट उनके बेहद करीबी मित्र थे और उन्हें अपना आदर्श मानते थे। मेरे एक-दो बहुत ही अच्छे दोस्त हैं जो मेरे क्षितिज को रौशन बनाये रहते हैं।
भारतीय सिनेमा के कितने ही कलाकारों ने चार्ली के ट्रैम्प की नकल करने की कोशिश की लेकिन वे उसे दो एक फिल्मों से आगे नहीं ले जा पाये।
हालांकि चार्ली ने स्कूली शिक्षा बहुत कम पायी थी लेकिन उन्होंने जीवन की किताब को शुरू से आखिर तक कई बार पढ़ा था। एक बात और भी कि बेशक चार्ली ने विधिवत स्कूली शिक्षा नहीं पायी थी, लेकिन उनका भाषा ज्ञान अद्भुत है। उन्होंने न केवल अंग्रेज़ी के, बल्कि फ्रेंच, इताल्वी, ग्रीक और जर्मन संदर्भ भी खूब दिये हैं। भाषा उनकी शानदार अंग्रेज़ी की मिसाल है।
उन्हें मनोविज्ञान की गहरी समझ थी। उनका बचपन बहुत अभावों में गुज़रा था और उन्होंने तकलीफों को बहुत नज़दीक से जाना और पहचाना था। इसके अलावा वे सेल्फ मेड आदमी थे लेकिन उन्हें अपने आप पर बहुत भरोसा था। इस आत्म कथा में उन्होंने अमूमन सब कुछ पर लिखा है और बेहतरीन लिखा है। अभिनय, कला, संवाद अदायगी, कैमरा एंगल, निर्देशन, थियेटर, विज्ञान, परमाणु बम, मानव मनोविज्ञान, मछली मारना, साम्यवाद, समाजवाद, पूंजीवाद, युद्ध, अमीरी, गरीबी, राजनीति, साहित्य, संगीत, कला, धर्म, दोस्ती, भूत प्रेत कुछ भी तो ऐसा नहीं बचा है जिस पर उन्होंने अपनी विशेषज्ञ वाली राय न जाहिर की हो। कॉमेडी की परिभाषा देते हुए वे कहते हैं, किसी भी कॉमेडी में सबसे महत्त्वपूर्ण होता है नज़रिया। लेकिन हर बार नज़रिया ढूंढना आसान भी नहीं होता। किसी कॉमेडी को सोचने और उसे निर्देशित करने से ज्यादा दिमाग की सतर्कता किसी और काम में ज़रूरी नहीं होती। अभिनय के बारे में वे कहते हैं: मैंने कभी भी अभिनय का अध्ययन नहीं किया है लेकिन लड़कपन में ये मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे महान अभिनेताओं के युग में रहने का मौका मिला और मैंने उनके ज्ञान और अनुभव के विस्तार को हासिल किया।
शायद चार्ली का नाम इस बात के लिए गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड्स में लिखा जायेगा कि उन पर, उनकी अभिनय कला पर, उनकी फिल्मों पर, उनकी शैली पर और उनके ट्रैम्प पर दुनिया भर की भाषाओं में शायद एक हज़ार से भी ज्यादा किताबें लिखी गयी हैं। जो भी उनके जीवन में आया, या नहीं भी आया, उसने चार्ली पर लिखा।
अमेरिका जाने और खूब सफल हो जाने के बाद चार्ली पहली बार दस बरस बाद और दूसरी बार बीस बरस बाद लंदन आये थे और उन्हें वहां बचपन की स्मृतियों ने एक तरह से घेर लिया था। मेरे अतीत के दिनों से हैट्टी ही वह अकेली परिचित व्यक्ति थी जिससे दोबारा मिलना मुझे अच्छा लगता, खास तौर पर इन बेहतरीन परिस्थितियों में उससे मिलने का सुख मिलता।
उन्होंने जीवन में भरपूर दुख भी भोगे और सुख भी। ऐसा और कौन अभागा होगा जो सिर्फ इसलिए दोस्त के घर के आसपास मंडराता रहे ताकि उसे भी शाम के खाने के लिए बुलवा लिया जाये और ऐसे व्यक्ति से ज्यादा सुखी और कौन होगा जिसे कमोबेश हर देश के राज्याध्यक्षों के यहां से न्यौते मिलते हों, विश्व विख्यात वैज्ञानिक, लेखक और राजनयिक उनसे मिलने के लिए समय मांगते हों और उसके आस पास विलासिता की ऐसी दुनिया हो जिसकी हम और आप कल्पना भी न कर सकते हों। जीवन के ये दोनों पक्ष चार्ली स्पेंसर चैप्लिन ने देखे और भरपूर देखे।
उनके जीवन का सबसे दुखद पक्ष रहा, अमेरिका द्वारा उन पर ये शक किया जाना कि वे खुद कम्यूनिस्ट हैं और अगर नहीं भी हैं तो कम से कम उनसे सहानुभूति तो रखते ही हैं और उनकी पार्टी लाइन पर चलते हैं।

इस भ्रम भूत ने आजीवन उनका पीछा नहीं छोड़ा और अंतत: अमेरिका में चालीस बरस रह कर, उस देश के लिए इतना कुछ करने के बाद जब उन्हें बेआबरू हो कर अपना जमा जमाया संसार छोड़ कर एक नये घर कर तलाश में स्विट्ज़रलैंड जाना पड़ा तो वे बेहद व्यथित थे। उन पर ये आरोप भी लगाया गया कि वे अमेरिकी नागरिक क्यों नहीं बने। आप्रवास विभाग के अधिकारियों के सवालों को जवाब देते हुए वे कहते हैं, 'क्या आप जानते हैं कि मैं इस सारी मुसीबत में कैसे फंसा? आपकी सरकार पर अहसान करके! रूस में आपके राजदूत मिस्टर जोसेफ डेविस को रूसी युद्ध राहत की ओर से सैन फ्रांसिस्को में भाषण देना था, लेकिन ऐन मौके पर उनका गला खराब हो गया और आपकी सरकार के एक उच्च अधिकारी ने मुझसे पूछा कि क्या मैं उनके स्थान पर बोलने की मेहरबानी करूंगा और तब से मैं इसमें अपनी गर्दन फंसाये बैठा हूं।'
'मैं कम्यूनिस्ट नहीं हूं फिर भी मैं उनके विरोध में खड़ा होने से इन्कार करता रहा। मैंने कभी भी अमेरिकी नागरिक बनने का प्रयास नहीं किया। हालांकि सैकड़ों अमेरिकी बाशिंदे इंगलैंड में अपनी रोज़ी-रोटी कमा रहे हैं। वे कभी भी ब्रिटिश नागरिक बनने का प्रयास नहीं करते।
चार्ली चैप्लिन की यह आत्म कथा एक महाकाव्य है एक ऐसे शख्स के जीवन का, जिसे दिया ही दिया है और बदले में सिर्फ वही मांगा जो उसका हक था। उसने हँसी बांटी और बदले में प्यार भी पाया और आंसू भी पाये। उसने कभी भी नाराज़ हो कर ये नहीं कहा कि आप गलत हैं। उसे अपने आप पर, अपने फैसलों पर, अपनी कला पर और अपनी अभिव्यक्ति शैली पर विश्वास था और उस विश्वास के प्रति सच्ची प्रतिबद्धता भी थी। वह अपने पक्ष में किसी से भी लड़ने भिड़ने की हिम्मत रखता था क्योंकि वह जानता था कि सच उसके साथ है। उसमें परफैक्शन के लिए इतनी ज़िद थी कि सिटीलाइट्स के 70 सेकेंड के एक दृश्य के लिए पांच दिन तक रीटेक लेता रहा। अपने काम के प्रति उसमें इतनी निष्ठा थी कि मूक फिल्मों का युग बीत जाने के 4 बरस बाद भी वह लाखों डॉलर लगा कर मूक फिल्म बनाता है क्योंकि उसका मानना है कि हर तरह के मनोरंजन की ज़रूरत होती है। वह सच्चे अर्थों में जीनियस था और ये बात आज भी इस तथ्य से सिद्ध हो जाती है कि फिल्मों के इतने अधिक परिवर्तनों से गुज़र कर यहां तक आ पहुंचने के बाद भी सत्तर अस्सी बरस पहले बनी उसकी फिल्में हमें आज भी गुदगुदाती है। उस व्यक्ति के पास मास अपील का जादुई चिराग था। 

मेरी प्रिय पुस्तकों पर काकू का प्रलय-स्नान


जयप्रकाश त्रिपाठी

वह नन्ही सी है अभी डेढ़-दो साल की। फुदर-फुदर पूरे घर को सिर पर उठाये हुए-सी। कभी  टीवी पर हाथ मारना, तार निकाल कर बाहर कर देना, कभी दवा, ट्रे में रखे पानी गिलास और टोकरी की सब्जियां जहां तहां बिखेर देना और इतना ही नहीं क्रिकेट का बैट सो रहे घर के किसी भी प्राणी के सिर पर सुबह-सवेरे दे मारना.....

मेरी व्यक्तिगत क्षति करने वाली काकू की एक अलग कहानी है, जितनी दुखदायी, उतनी ऊटपटांग सुखदायी।

मैं अपनी आंखों के सामने अपनी घरेलू नन्ही-सी हजार-पांच सौ किताबों वाली लायब्रेरी को तहस-नहस होते हुए देख रहा हूं, कुछ नहीं कर पा रहा हूं क्यों कि काकू की इस प्रलय-क्रिया में व्यवधान डालने का मतलब है पड़ोस के सभी मकानों तक का उसकी चीखों से चौंक उठना।

यद्यपि मैं निचली रैक से अति महत्व की पुस्तकों को निकाल कर उसके कद से काफी ऊपर आखिरी की दो रैक में पहुंचा चुका हूं, फिर भी उसके लिए नीचे की दो रैक में भी किताबें होना जरूरी है, और वे भी मेरे लिए उतनी ही प्यारी हैं, जितनी कि ऊपरी रैक में भरी किताबें। नीचे की दो रैक खाली-खाली पाकर भी काकू अपने प्रलय नाद से आसमान सिर पर उठा लेगी, इसलिए उसे खाली रखना भी कुछ कम जोखिम का काम नहीं।

तो काकू निचली रैक से एक एक किताब उठा रही है। इत्मीनान से निहार रही है। पहल कवर पेज फाड़ती है, फिर जमीन पर पटक पटक कर उसके पन्ने-पन्ने उधेड़ती है और उसी पर बैठ कर रैक से दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठवीं.... किताबे खींचती है, उनकी कपाल क्रिया करती है और चिंदी चिंदी बिखेरती जाती है.....

मैं उकसता, अकुलाता, छटपाता, झींकता, तनता, लुढकता असहाय से मन मसोसते-मसोसते न जाने कैसे मन ही मन मुसकरा उठता हूं। अपनी इस मुसकान की विडंबना पर भीतर तक थरथराता हूं। जी करता है, तेज डपट दूं, हाथों में कंपन होता है, हथेलियों में खुजली। जी करता है थप्पड़ जड़ दूं, तभी तुतला उठती है वह नन्ना ये, नन्ना ये। मेरी सबसे बेटी की ये नन्ही जान, मुझे अभी नाना नहीं कह पाती है, सो नन्ना, नन्ना....

और मैं उसके तोतले वात्सल्य में निमग्न हो लेता हूं निष्प्राण-निस्पंद-सा...

काकू के हाथो एक दिन की पुस्तक-कपाल क्रिया कुछ इस तरह....

निचली रैक से वह जाने कितनी ताकत लगा कर वेदांत दर्शन की मोटी सी पुस्तक खींच लेती है और उसके कवर पेज के अनगिनत टुकड़े, जैसे कड़ाही में भुन जाने के बाद दलिया के एक-एक दाने छिन्न-भिन्न....

ये स्वामी विवेकानंद साहित्य श्रृंखला का खंड-एक, पेपर बैक में, काकू कर चुकी है उसका खंड-खंड, इस समय दूसरे खंड पर लपकती हुई। किताब ज्यादा वजनी नहीं है उसके लिए, खींच चुकी है, पटक चुकी है, फाड़ने ही वाली है

इससे पहले भूलवश नीचे की रैक में छूट गयीं 'एक पुस्तक माता-पिता के लिए' (लेखक-अंतोन मकारेंको), 'य़ुद्ध और शांति' (टॉलस्टोय) का तीसरा खंड, डॉ.हरदेव बाहरी का अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश का पोस्टमार्टम हो चुका है..... सब-की-सब पुस्तकें अपनी ऐसी गति पर चिंदी-चिंदी बिसूरती हुई....

मेरी सबसे प्रिय पुस्तकों 'आग्नेय वर्ष' (कोन्स्तांतिन फेदिन), 'तरुण गार्ड' (अलेक्सांद्र फदेयेव) और 'मेरा बचपन' (गोर्की) की कपाल क्रिया के लिए रैक के उस तरफ वह लपकने ही वाली है कि मैं भी विद्युत वेग से उसी ओर झपटता हूं और अत्यंत दयनीय मुखमुद्रा में अपने शरीर की ओट देकर वहीं धम्म से बैठ जाता हूं किंकर्तव्यविमूढ़, महामूढ़ सा....

और काकू का महा आर्तनाद, पूरा घर झनझना उठता है, जो जहां है, वहीं से दौड़ा हुआ आ जाता है इस ओर, किसी के हाथ में अखबार, कोई कटोरी, चम्मच, कोई हाथो में चाय भरा कप लिये हुए, अभी अभी सुबह हुई है सो सबसे पहले चारपाई छोड़ कर मेरी लायब्रेरी को किताबों के कोप भवन में तब्दील कर चुकी काकू को आंसू-हिचकियों के साथ फर्श पर फड़फड़ाते पन्नों पर लोटते-पोटते देख सबके चेहरे हंसी से खिल जाते हैं और मैं एक बार फिर अपने अंदर के कर्फ्यू से हांफ उठता हूं, जैसे जुबान सील दी गयी हो, कंठ अपंग-अवरुद्ध सा, परिजनों की हंसी मुझे रत्ती भर रास नहीं आती है......
   
घर वालों की अनायास की मौजूदगी से मानो काकू के हाथ फिर चार सौ चालीस वोल्ट के वेग से  'तरुण गार्ड' को रैक से घसीट ही लेते हैं, नाचने को उकसाते संपेरे ... और दूसरे ही पल वह अपनी नानी की कांपती उंगलियों में कसे चाय भरे कप पर झपट्टा मारती है...... अंतिम संस्कार हो रहा हो, मानो मनोहरश्याम रंग में 'कुरु-कुरु स्वाहा'

.....किताबें, न-न्ना..न ना नाआआआ

काकू को भला क्या मालूम, मैंने कैसे अपनी गृहस्थी के पेट काट कर कहां कहां से ढोकर लाये हैं ये किताबें, और इनकी ये गति, दुर्गति, अंतिम गति।