Saturday 13 July 2013

मीडिया और मोदी

जयप्रकाश त्रिपाठी

बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा!

जानते सब हैं लेकिन क्या करें, जी नहीं मानता है। सो मन हल्काने के लिए शब्द छलकाने का जोश दिन दो दिन बाद फेस बुक पर बरप दिया जाता है।

मोदी...मोदी...मोदी...मोदी... आह मोदी, वाह मोदी....ये मोदी, वो मोदी...जो मोदी, सो मोदी...

(उद्यमी राजेश जैन (वेब पोर्टल इंडियावर्ल्ड) और तकनीकी उद्यमी बी.जी.महेश ( संस्थापक ग्रेनियम इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी प्राइवेट लिमिटेड) नरेन्द्र मोदी के मीडिया मैनेजर कहे जाते हैं)

....तो मोदी.....

गुजरात में मीडिया मैनेजमेंट का हुनर दिखा चुके नरेंद्र मोदी के सिपहसालार और बीजेपी के उत्तर प्रदेश मामलों के प्रभारी अमित शाह ने अब यूपी में भी मोदी के इशारे पर अखबारों के दफ्तरों का चक्कर काटना शुरू कर दिया है. पार्टी प्रभारी होने के नाते शाह चाहे जो करें, लेकिन अखबारों के दफ्तरों का चक्कर लगाने के बजाय संगठन पर ध्यान देते तो ज्यादा बेहतर होता. बीजेपी के एक नेता ने कहा, 'अखबारों के दफ्तरों में जाकर संपादकों से मिलना, अच्छी परंपरा की शुरुआत नहीं है. इससे आम जनता के बीच गलत संदेश जाएगा. अखबारों के दफ्तर के चक्कर लगाने से पार्टी को कुछ नहीं मिलेगा. (आजतक )

नरेन्द्र मोदी भारत के ध्रुवीकारी नेताओं में सबसे आगे हैं, इसे मान लिया जाना चाहिए. उनका समर्थन और विरोध लगभग समान आक्रामक अंदाज़ में होता है. इस वजह से उन्हें ख़बरों में बने रहने के लिए अब कुछ नहीं करना पड़ता. (बीबीसी/प्रमोद जोशी)

अखबारों में इन दिनों नरेन्द्र मोदी के भारत के अगले प्रधानमंत्री बनने के कयास सम्बन्धी खबरें खूब छप रही हैं। यह सिलसिला कहाँ से शुरू हुआ यह कहना तो आसान नहीं है, मगर यह अनुमान लगा लेना मुश्किल नहीं है कि इसके पीछे नीयत क्या होगी। एकाएक मनमोहन सिंह मीडिया की नजरों से उतर गये और 2002 के गुजरात दंगों के बाद जिन नरेन्द्र मोदी की थू-थू होती रही है, वे देश के तारणहार बन गये। इसके पीछे कॉरपोरेट जगत की प्राथमिकता के अलावा कुछ नहीं हो सकता। कम्पनियों को लगता होगा कि कांग्रेस को शायद तीसरा कार्यकाल नहीं मिलेगा तो ऐसे किसी घोड़े पर दाँव लगाओ जो उनके हितों का पोषण बेहतर ढंग से कर सके। दरअसल यह कम्पनियाँ ही हैं, जो राष्ट्रीय स्तर पर एजेंडा तय करती हैं और फिर उनके पैसे से चल रहा मीडिया लोगों को उठाता और गिराता है। नीरा राडिया के टेपों तथा जयपाल रेड्डी को तेल और प्राकृतिक गैस से हटा कर विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय में डाले जाने की घटना ने सिद्ध किया था कि मंत्रिमंडल भी अम्बानी जैसे उद्योगपतियों की सहूलियत के लिये बनाया जाता है। जिस रोज अरविन्द केजरीवाल ने अम्बानी की गड़बडि़यों के बारे में खुलासा किया था, उसी रोज तय हो गया था कि अब वे मीडिया के लाड़ले नहीं रहेंगे। कौन सा बड़ा अखबार या चैनल है, जिसमें अम्बानी का पैसा न लगा हो या वह अम्बानी के विज्ञापनों पर निर्भर न हो। इसीलिये केजरीवाल का दो सप्ताह का उपवास इस बार सुर्खियाँ नहीं बना। जबकि इस घटना से पहले तक मीडिया ने ऐसा माहौल बनाया था, मानो अण्णा हजारे और अरविन्द केजरीवाल ही देश के नायक हैं। देश के कोने-कोने में चल रहे जनान्दोलनों में अपना जीवन खपा देने वाले हजारों कार्यकर्ताओं को ऐसा सौभाग्य कभी नहीं मिला। जब ‘इंडिया बुल्स’ जैसी एक मझोली कम्पनी उत्तराखंड जैसे एक प्रदेश का मुख्यमंत्री तय कर सकती है, तो बड़ी कम्पनियों की सम्मिलित ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है। (nainitalsamachar.in)

जून के तीसरे हफ्ते में उत्तराखण्ड की भयावह त्रासदीकी खबर के आने के साथ इंसानियत दहल उठी थी, जिसने जहाँ सुना, वहीं सन्नाटे में आ गया। चारधाम यात्रा का सीज़न था तो पूरे भारत से लोग उत्तराखण्डके गढ़वाल इलाके में पहुँचे हुये थे। जब भारी बारिश की खबर आयी तो तबाही इस हिमालयी इलाके के हर कण में आ चुकी थी। तीर्थयात्रा पर आये लोग और पर्यटक सभी मुसीबत से आमने सामने थे। भारतीय आपदा प्रबन्धन तन्त्र हरकत में आ गया था, सेना बुला ली गयी थी, भारत तिब्बत सीमा पुलिसऔर आपदा प्रबन्ध के लिये तैयार की गयी फोर्स सब जुटे हुये थे। उत्तराखण्ड की सरकार समेत सभी सरकारें जिनके लोग यहाँ फंसे थे, चिन्तित थीं। बचाव और राहत का कार्य युद्धस्तर पर चल रहा था। राज्य सरकारें भी सक्रिय हो गयी थीं। जिन यात्रियों को सेना के लोग बचाकर देहरादून तक ला रहे थे उनको उनके घर तक पहुँचाने में राज्य सरकारें जुटी हुयी थीं और अपना काम कर रही थी। इस बीच खबर आयी कि 21 जून की शाम को गुजरात के मुख्यमन्त्री नरेंद्र मोदी देहरादून पहुँच गये हैं। उनके वफादार टी वी चैनलों में हाहाकार मच गया और इस तरह से ख़बरें आने लगीं कि बस अब मोदी जी पहुँच गये हैं सब कुछ ठीक हो जायेगा। 23 जून की सुबह खबर चलना शुरू हो गयी कि उन्होंने उत्तराखंड की दुर्गम पहाड़ियों में फँसे हुये 15000 गुजरातियों को तलाश लिया और उनको वापस गुजरात भेज दिया। मोदीत्व के प्रभाव वाले चैनलों की यह मुख्य खबर थी। किसी ने एक सेकण्ड के लिये भी नहीं सोचा कि इस कारनामे को अंजाम देने के बारे में मोदी की पी आर एजेन्सी से आयी हुयी खबर को जाँच परख कर चलाया जाये। लेकिन किसी ने कोई जाँच पड़ताल नहीं की , कहीं कुछ नहीं हुआ और खबर धड़ाधड़ चलने लगी। नरेंद्र मोदी को एक बार फिर मीडिया ने हीरो के रूप में पेश कर दिया था। उनके समर्थकों ने फेसबुक पर तूफ़ान मचा दिया कि जो काम सेना की सारी ताक़त लगी होने के बावजूद नहीं हो सका वह मोदी की उपस्थिति मात्र से हो गया। खबरों में बताया गया कि मोदी के साथ 80 इनोवा कारें थीं। मीडिया में शुरू के दो दिन तो यह भी ख़बरें चलायी गयीं कि मोदी जी के साथ कई विमान भी थे, 25 वातानुकूल बसें थीं और कुछ बहुत ही काबिल अफसर थे। (शेष नारायण सिंह)

न्यूज मीडिया जिस तरह से २००२ के सांप्रदायिक जनसंहार के मुद्दे को भाजपा/आर.एस.एस की उग्र हिंदुत्व की राजनीति, उसमें मोदी सरकार की भूमिका, पीड़ितों को अब तक न्याय न मिलने और न्याय के रास्ते में लगातार रुकावटें पैदा करने, गुजरात में अल्पसंख्यकों को हाशिए पर ढकेल दिए जाने और सबसे बढ़कर मोदी की हिंदुत्व-कारपोरेट विकास के मिश्रण से तैयार दक्षिणपंथी सांप्रदायिक राजनीति के एजेंडे के तहत महीन-द्विअर्थी-आक्रामक प्रचार शैली से काटकर पेश करता है, उसके कारण ऐसा आभास होता है कि मोदी को अनावश्यक रूप से निशाना बनाया जा रहा है. इसी का फायदा उठाकर मोदी की पी.आर मशीनरी यह प्रचार करती रही है कि न्यूज मीडिया खासकर राष्ट्रीय (दिल्ली) का मीडिया और अंग्रेजी प्रेस २००२ के दंगों के बहाने मोदी का ‘खलनायकीकरण’ करता रहा है जबकि उसके बाद से गुजरात में ‘शांति है और तेज विकास’ है. (आनंद प्रधान)

लिखते-लिखते जग मुआ, मोदी भया न कोय,
जो कोई मोदी भया गया धुंध में खोय................आह मोदी, ऊह मोदी...