Wednesday 17 July 2013

पढ़ने की संस्कृति


प्रांजल धर

हमारे यहां एक ऐसी व्यवस्था विकसित नहीं हो सकी है जिसमें पढ़ने की संस्कृति अपने व्यापक अर्थों में आम जन-जीवन का हिस्सा बन पाए। सवाल है कि जब विकास की परिभाषा ही एकांगी तरीके से गढ़ ली गई है तब पुस्तक-संस्कृति को बढ़ावा कैसे मिलेगा? आज विकास का मतलब चिकनी सड़क पर चमचमाती लंबी कारों के दौड़ने तक सीमित रह गया है, फ्लाईओवर और मॉल-संस्कृति उन्नति की कसौटियां बनते जा रहे हैं। ध्यान रखना चाहिए कि विकास की कोई भी परिभाषा जड़ या स्थिर हरगिज नहीं हो सकती।
पहले बांध बना कर बिजली पैदा करने को विकास कहा जाता था। आज न सिर्फ बांध से बिजली पैदा करना महत्त्वपूर्ण है, बल्कि बांध की वजह से विस्थापित हुई जनता का पुनर्वास भी जरूरी है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने देश में सार्वजनिक पुस्तकालयों के महत्त्व को स्वीकार करते हुए राज्य सरकारों से इस ओर ध्यान देने की अपील की है। क्या देश में किसी पुस्तकालय-कानून की उम्मीद करना गैर-वाजिब है? क्या इस तथ्य से इनकार किया जा सकता है कि जगह-जगह मदिरालय तो खुलते जा रहे हैं, लेकिन प्राचीन भारतीय सभ्यता के वाहक पुस्तकालयों की हालत जर्जर ही नजर आती है। आखिर पुस्तक-संस्कृति और पुस्तकालयों के प्रति देश में जागरूकता का प्रचार-प्रसार क्या तभी हो पाएगा जब ये चीजें लुप्त होकर संग्रहालय में सजाने लायक रह जाएंगी? अंग्रेजी में चेतन भगत बनना आसान है, हम सभी जानते हैं। पर सवाल है कि कब तक चुनिंदा लोग यह तय करते रहेंगे कि अच्छा साहित्य किस भाषा का है और उसकी कसौटियां क्या हैं?
देश में कितने लोग अंग्रेजी बोलते हैं, या कितने लोगों की मातृभाषा अंग्रेजी है? इस स्थिति के लिए हिंदी प्रकाशक भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। देश में पुस्तक-संस्कृति का प्रसार भला कैसे होगा जब एक खास भाषा बेवजह हावी होती चली जाएगी? वह भी ऐसी भाषा जिसे बहुत कम लोग जानते-समझते और बोलते हैं? और सवाल केवल भाषा की प्रकृति का ही नहीं है, एक ही भाषा के भीतर पनप रही भाई-भतीजावाद वाली तथाकथित लोकतांत्रिक शैली का भी है। आज यह बेहद आम है कि हिंदी में जो पुस्तकें छप रही हैं, वे गुणवत्ता के बजाय किसी नकली मार्केटिंग, ब्रांडिंग या ‘एप्रोच’ की बदौलत छप रही हैं। क्या गुणवत्ता से इतर किसी कसौटी को आधार बना कर छापी गई पुस्तकें किसी स्वस्थ पुस्तक-संस्कृति को बढ़ावा दे पाएंगी?
पुस्तकों को इंटरनेट और इ-बुक जैसे नए डिजिटल माध्यमों से चुनौतियां भी मिल रही हैं। इससे ज्यादा क्या कहा जाए कि इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका ने अब कागज वाली पुस्तकों के प्रकाशन को बंद करने का फैसला ले लिया है, क्योंकि वह अब अपने पास मौजूद समस्त सूचनाओं को आनलाइन जारी करेगी। पर जो बात यूरोप या अमेरिका में लागू होती है, वह क्या भारत में भी लागू हो जाएगी?
पुस्तकों को लेकर भारत की जनता में आदर बहुत है। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते जब मगध में एक शानदार पुस्तक मेले का आयोजन किया गया था। उसमें सैकड़ों लेखक और हजारों दर्शक रोज आते रहे। मीडिया ने उसे कोई खास कवरेज नहीं दिया। तो क्या दिल्ली में पुस्तक-संस्कृति का हो-हल्ला मचाने से देश के कोने-कोने तक किताबें पहुंच जाएंगी? जाहिर है कि पुस्तक-संस्कृति को आगे बढ़ाने का सबसे संवेदनशील समय वर्तमान दौर ही है, वरना यह उबारे भी न उबर पाएगी। (जनसत्ता से साभार)

एक भारतीय कम्युनिस्ट की आत्मकथा


निर्मल वर्मा

किसी पुस्तक को पढ़ते हुए लगता है, हम सहसा इतिहास के ऐसे ‘चौराहे’ पर चले आए हैं, जहाँ से हमारी जिन्दगी के कुछ वर्ष बीते थे। हम भी उन्हीं घटनाओं के झाड़ झखाड़ के भीतर से गुजरे थे, जिनका दृष्टा पुस्तक का लेखक था। जिन झंझावातों के थपेड़ों ने उसके जीवन को झिंझोड़ा था, उनके असहाय भोक्ता हम भी थे। एक ही रास्ते के दो पथिक जो अलग-अलग दिशाओं से होते हुए सहसा पुस्तक के पन्नों पर एक दूसरे से मुलाकात कर लेते हैं। लेखक की आत्मकथा में स्वयं पाठक उसका एक पात्र बना दिखायी देता है। मोहित सेन की पुस्तक ‘एक भारतीय कम्युनिस्ट की जीवनी: एक राह, एक यात्री’ पढ़ते हुए मुझे कई बार कुछ ऐसा ही विचित्र अनुभव होता था।
यह सचमुच अचरज की बात है कि आज भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का कोई वस्तुपरक, निष्पक्ष-रूप से लिखा ‘इतिहास’ नहीं है, इतिहास जैसा हुआ है वैसा, वैसा नहीं जैसा पार्टी अपने को देखती है। अनेक महत्वपूर्ण तथ्य आज भी रहस्य की कुहेलिका में डूबे हैं; पार्टी की बदलती हुई नीतियों के पीछे कोई स्पष्ट तर्क-रेखा नहीं, अराजक उच्छृंखलता दिखायी देती है। इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है, कि जो पार्टी हर दूसरी सांस में ‘इतिहास’ का नाम जपती है, उसका स्वयं अपना कोई तर्कसंगत, विश्वसनीय इतिहास नहीं। इस दृष्टि से मोहित सेन की पुस्तक, आत्मपरक होने के बावजूद या शायद इसी के कारण, एक भारी कमी को पूरा करती जान पड़ती है। वैसे भी एक कम्युनिस्ट का व्यक्तिगत जीवन, एक सीमा के बाद, उसके पार्टी के इतिहास में इतना घुलमिल जाता है, कि दोनों को अलग कर पाना असंभव जान पड़ता है। यह बात बरसों पहले अमरीकी पत्रकार ऐडग्र स्नो ने अपनी पुस्तक में माओत्से तुंग से इन्टरव्यू करते समय महसूस की थी। यदि मोहित सेन की ‘आत्मकथा’ अन्य कम्युनिस्ट नेताओं से कुछ अलग है, तो इसलिए कि उसमें उनका व्यक्तिगत जीवन उनके सार्वजनिक परदे के पीछे तिरोहित नहीं हो पाता, बल्कि उनके पीड़ित अन्तर्द्वन्द्वों, आत्म-शंकाओं और पार्टी के भीतर रहते हुए भी पार्टीको बाहर से देखने की उन्मुक्त आलोचनात्मक चेतना को उभारता हुआ उनकी जीवन-कथा को एक गहन मानवीय गरिमा प्रदान करता है। उनकी पुस्तक पार्टी नीतियों का औचित्य स्थापित करने के लिए नही लिखी गयी, इसके ठीक विपरीत अपने जीवन, अनुभवों की कसौटी पर निर्भीक आकलन करने के लिए लिखी गयी है। अक्सर कम्युनिस्ट पार्टी ‘आत्मालोचना’ का यंत्र दूसरों की आलोचना करने में ही इस्तेमाल करती है, मोहित सेन पहली बार उसका परीक्षण अपने जीवन की प्रयोगशाला में करते हैं। उनकी पुस्तक में एक तरह का बौद्धिक खुलापन है, जो कम्युनिस्ट हठधर्मिता से अलग एक सुशिक्षित पाश्चात्य ‘लिबरल’ बुद्धिजीवी की याद दिलाता है।
यह संयोग नहीं कि कलकता के ब्रह्म समाज में मोहित सेन का परिवार पाश्चात्य संस्कृति में इतना रंगा-ढला था कि भाई-बहिन सब एक दूसरे से अंग्रेजी में बात करते थे। स्वयं मोहित सेन बडे़ होने पर भी बंगला में बातचीत करने में हिचकिचाते थे। अपने पिता ए.एन. सेन से, जो कलकता हाईकोर्ट के सुविख्यात जज थे, मोहित सेन ने न्याय और सत्य की विवेक-चेतना को पहचाना था, जो अंग्रेजी राज के काले पक्षों कीआलोचना करते हुए भी उसके लोकतांत्रिक आदर्शों को अपनाती थी। अपने युवावस्था के दिनों में – और बाद में इंगलैंड जाने पर केम्ब्रिज युनिवर्सिटी के बौद्धिक परिवेश में मोहित सेन मार्क्‍सवाद के प्रति आकृष्ट हुए। हमारी पीढ़ी के अनेक बुद्धिजीवियों की ही तरह चीनी क्रान्ति ने मोहित सेन को भी वामपक्षीय विचार धारा की ओर मोड़ दिया। केम्ब्रिज में मौरिस डॉब जैसे मार्क्‍सवादी अर्थशास्त्री और एरिक हॉब्सबॉम और क्रिस्टोफर हिल जैसे इतिहासकारों के प्रभाव से भी वे उत्तरोत्तर कम्युनिस्ट पार्टी के निकट आते गये। बहुत वर्षों बाद मोहित सेन जब अपने कम्युनिस्ट दिनों को याद करते हैं, तो भारतीय मार्क्‍सवादी पंरपरा के बारे में एक बहुत ही मार्मिक टिप्पणी करते हैं, जो बाद के वर्षों में कम्युनिस्ट पार्टी के विकास के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा बन गयी।
पी.सी. जोशी अवश्य इसका अपवाद थे। यह संयोग नहीं कि उनके नेतृत्व तले कम्युनिस्ट पार्टी पहली बार सिद्धान्तों से उठ कर हाड़-माँस की जनता के बीच आयी जिसके कारण उसकी लोक चेतना इतनी प्रशस्त हुई। उन्ही दिनों प्रगतिशील लेखक संघ, नाटय संस्था ‘ईप्टा’ और किसान सभाओं ने जनता के विभिन्न वर्गों को एक सुनिश्चित दिशा में अग्रसर होने के लिए संगठित किया। आश्चर्य नहीं, मोहित सेन बार-बार इस बात पर शोक प्रकट करते हैं, कि पचास के दशक में रणदिवे की घोर संकीर्ण नीतियों के कारण कम्युनिस्ट पार्टी ने उस विराट जन-मोर्चे को नष्ट हो जाने दिया, जिसे जोशी ने इतनी सूझबूझ के साथ निर्मित किया था। परिणाम यह हुआ कि बाद के वर्षों में कम्युनिस्ट पार्टी देश की मुख्य राष्ट्रीय धारा से कटती गयी और उसका प्रभाव सिर्फ इक्के-दुक्के प्रान्तों में सिमट कर रह गया। क्या इससे अधिक कोई आत्मघाती दृष्टि हो सकती थी कि स्वतंत्रता मिलने के वर्षों बाद भारत की कम्युनिस्ट पार्टी एकमात्र ऐसी संस्था थी जो देश की आजादी को ”झूठी” और गांधी और नेहरू जैसे राष्ट्रीय नेताओं को ‘साम्राज्यवादी  साबित करने मे एड़ी चोटी का पसीना एक करती रही! मोहित सेन बहुत पीड़ा से इस बात पर आश्चर्य प्रकट करते हैं, कि पार्टी स्वयं अपने देश के सत्तारूढ़ वर्ग के चरित्र के बारे में बरसों तक कोई स्पष्ट धारणा नहीं बना सकी थी। इसके कारण अपनी नीतियों में वह कभी घोर दक्षिणपंथी, कभी कट्टर संकीर्ण क्रान्तिकारी हो जाती थी। मोहित सेन के लिए यह बहुत प्रीतिकर अनुभव था, जब कुछ कम्युनिस्ट नेताओं ने जो वियतनामी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता हो चि मिन्ह से मिल कर आए थे – उन्हें बताया कि हो चि मिन्ह ने उनसे गांधी और नेहरू की बहुत प्रशंसा करते हुए उन्हें बताया कि कैसे वियतनामी कम्युनिस्ट पार्टी राष्ट्रीय मुक्तिसंग्राम के दौरान भारत के राष्ट्रीय नेताओं से प्रेरणा प्राप्त करती रही है।
लगता है अगस्त सन बयालीस के ‘भारत छोड़ो’ राष्ट्रीय आन्दोलन के औचित्य के बारे में मोहित सेन कुछ असमंजस में जान पड़ते हैं। यह सर्वविदित है कि सोवियत संघ पर जर्मन आक्रमण होने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी के लिए युद्ध का चरित्र बदल गया था। मोहित सेन जहाँ पार्टी की राष्ट्रीय -विरोधी नीति के बारे में शंका प्रगट करते हैं, वहाँ दूसरी ओर एक महत्चपूर्ण प्रश्न भी उठाते हैं: क्या गांधीजी और कांग्रेसी नेताओं के जेल जाने के बाद देश में एक शून्य-भरी हताशा नही फैल गयी थी, जिसका दुरूपयोग अंग्रेजी सरकार ने मुस्लिम लीग के साथ मिल कर किया? अंग्रेजी सरकार का प्रश्रय पा कर अब मुस्लिम सांप्रदायिकता को खुल्लम खुल्ला भड़काया जा सकता था, ताकि कालान्तर में देश विभाजन के अलावा कोई दूसरा विकल्प न बचा रहे। क्या ऐसी विकट, नाजुक स्थिति में देश की राजनीति में कांग्रेस की निष्क्रियता देश के हितों के लिए घातक साबित नहीं होती थी?
इसके साथ ही मोहित सेन बहुत आश्चर्य और दु:ख के साथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की तत्कालीन पाकिस्तान-समर्थक नीतियों की भर्त्सना भी करते हैं। धर्म के आधार पर देश के राष्ट्रीय-विभाजन का समर्थन मार्क्‍सवादी सिध्दान्तों के प्रतिकूल तो था ही, वह उन मुस्लिम राष्ट्रीय भावनाओं को भी गहरी ठेस पहुँचाता था, जो आज तक काँग्रेस और अन्य प्रगतिशील शक्तियों के साथ मिल कर मुस्लिम लीग की अलगाववादी नीतियों का विरोध करते आ रहे थे। मालूम नहीं, अपने को सेक्यूलर・की दुहाई देने वाली दोनो कम्युनिस्ट पार्टियां आज अपने विगत इतिहास के इस अंधेरे अध्याय के बारे क्या सोचती हैं, किन्तु जो बात निश्चित रूप से कही जा सकती है, वह यह कि आज तक वे अपने अतीत की इन अक्षम्य, देशद्रोही नीतियों का आकलन करने से कतराती हैं। आश्चर्य नहीं, कि अपनी पार्टी के इतिहास को झेलना पार्टी के लिए कितना यातनादायी रहा होगा, उसे लिखकर दर्ज करना तो बहुत दूर की बात है। मोहित सेन की पुस्तक यदि इतनी असाधारण और विशिष्ट जान पड़ती है, तो इसलिए कि उन्होने बिना किसी कर्कश कटुता के, किन्तु बिना किसी लाग-लपेट के भी अपनी पार्टी के विगत के काले पन्नों को खोलने का दुस्साहस किया है, जिसे यदि कोई और करता, तो मुझे संदेह नहीं, पार्टी उसे साम्राज्यवादी प्रोपेगेण्डा・कह कर अपनी ऑंखों पर पट्टी बाँधे रखना ज्यादा सुविधाजनक समझती; यह वही पार्टी है, जो मार्क्‍स की क्रिटिकल चेतना को बरसों से क्षद्म चेतना・(false consciousness) में परिणत करने के हस्तकौशल में इतना दक्ष हो चुकी है, कि आज स्वयं उसके लिए छद्म को असली・से अलग करना असंभव हो गया है।
जिन दो घटनाओं ने मोहित सेन के लिबरल-मार्क्‍सवादी विश्वासों को एक झटके से हिला दिया वे भारतीय पूर्व सीमा पर चीनी सेनाओं का आक्रमण और कालान्तर में चेकोस्लोवाकिया के समाजवादी देश पर सोवियत संघ और वार्सा देशों की सेनाओं का हिंसात्मक हस्तक्षेप थे। दोनों का लक्ष्य ही पाशविक शक्ति द्वारा समस्त अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों का खंडन करके स्वयं मार्क्‍स के मानव मुक्ति के आदर्श को
कुचलना था। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का चीन के आक्रमण को एक प्रगतिशील  मानना वह निर्णायक क्षण था, जब पार्टी के बीच फूट अनिवार्य हो गयी। यह वह समय था जब अर्से से पार्टी के भीतर पकते फोड़े फूट कर ऊपर आ गये। कौन जानता था, कि जो पार्टी देश-विभाजन की भूमिका में इतना आगे रही थी, उसकी अदूरदर्शी अवसरवादिता एक दिन स्वयं उसे छोटे-छोटे दलों में विभाजित कर देगी। जो पार्टी बरसों से अपना चेहरा न पहचान पायी, उसे क्या मालूम था, कि वह घुन की तरह उसके भीतर बैठा था, उसे इस हद तक खोखला बनाता हुआ कि जहाँ उसे नेहरू अपना वर्ग शत्रु जान पड़ता था!
मोहित सेन जैसे संवेदनशील व्यक्ति पार्टी की इन उलटवांसियों से अवश्य विक्षुब्ध होते थे, किन्तु इसका कारण कुछ नेताओं की गलतियों में ढँढ़ कर छुट्टी पा लेते थे। उन्होंने कभी गहरे में जा कर इसका कारण पार्टी के लेनिनवादी तानाशाही ढाँचे में नहीं खोजा जहाँ हर स्वाधीन आवाज को दबा दिया जाता था। न ही उन्होंने कभी पार्टी की चरम बौद्धिक दासता और सिद्धान्तहीन दिशाहीनता का निर्भीक आलोचनात्मक विश्लेषण किया जो उसे उत्तरोतर भारत की जन-चेतना से उन्मूलित करती गयी और अन्तत: उसे एक हाशिए की पार्टी बनाकर छोड़ गयी। क्या यह इतिहास की क्रूर विडम्बना नहीं थी कि जो पार्टी अपने को ‘किसान-मजदूर वर्गों’ का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी घोषित करती आयी थी, वह इस हद तक सैद्धान्तिक दिवालिएपन का शिकार हो गयी, कि संकट की हर निर्णायक घड़ी में वह कभी ब्रिटेन, कभी सोवियत संघ, कभी चीन की पार्टियों से मार्ग-निर्देशन पाने के लिए मुंह जोहने लगी। मोहित सेन का कम्युनिस्ट पार्टी से मोहभंग अवश्य हुआ, किन्तु कोई वे ऐसा वैकल्पिक रास्ता नहीं ढूंढ़ सके जो पार्टी के बाहर एक व्यापक जनवादी राष्ट्रीय मोर्चे का निर्माण करने में योगदान कर सके। यह करने के बजाय जो रास्ता मोहित सेन और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने चुना, वह काँग्रेस से हाथ मिला कर पीछे मुड़ने का रास्ता था, जो अन्धी गली में जाता था। मोहित सेन भूल गये कि इन्दिरा की काँग्रेस वह नहीं है, जो कभी नेहरू और गांधी के लोकतांत्रिक आदर्शों को मूर्तिमान करती थी। यह एक विचित्र विरोधाभास था कि जब कम्युनिस्ट पार्टी नेहरू का साथ दे कर भारत की राष्ट्रीय चेतना को अधिक परिपक्व और व्यापक कर सकती थी, तब वह उसका विरोध कर रही थी और अब ऐसी घड़ी में जब काँग्रेस इन्दिरा गांधी के हाथ की कठपुतली बन चुकी थी, तब वह उसका जोर-शोर से समर्थन कर रही थी। आपात-काल के भीषण दिनों में यह विरोधाभास कितना तीखा और भयावह बन गया, मोहित सेन इसका वर्णन तो करते हैं, किन्तु इतनी कठोर परीक्षा के बाद भी इन्दिराजी के प्रति उनका सम्मोहन कम नहीं होता।
हम कितना अपने अतीत की गलतियों से सीखते हैं कहना मुश्किल है। शायद जीवन के हर चरण में नयी परिस्थितियों के बीच हम अपनी गलतियों को पुन: दुहराने के लिए अभिशप्त हैं। मोहित सेन की आत्मकथा से यह तो पता चलता है, कि सारी ऊंच-नीच के बावजूद मार्क्‍सवाद में उनकी आस्था अटूट बनी रहती है, किन्तु दुनिया का कम्युनिस्ट आन्दोलन मानव-मुक्ति के मार्क्‍सवादी आदर्श के लिए कितना घातक सिद्ध हुआ है, इसके बारे में वह कुछ नहीं कहते। समाजवाद के मानवीय आदर्शों को सोवियत संघ की स्तालिनवादी नीतियों और उसके नेतृत्व में चलनेवाली कम्युनिस्ट पार्टियों ने कितना विकृत और कलुषित किया है, मोहित सेन इस बारे में भी चुप रहते हैं। हम सिर्फ आशा कर सकते है, कि मोहित सेन ने अपनी आत्मकथा में जो रिक्त स्थान छोडे हैं, उन्हें कभी कोई कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी भविष्य में भर सकने का साहस और विवेक जुटा पाएगा। (चिंतन-सृजन से साभार)

सम्यक भारत : श्यौराज सिंह बेचैन


सम्यक भारत के विशेषांक 'श्यौराज सिंह बेचैन: व्यक्तित्व एवं कृतित्व' में विभिन्न आलेखों और साक्षात्कार के जरिए श्यौराज सिंह के जीवन के उन पहलुओं को बारीकी से उकेरा गया है, जो उनमें सामाजिक असमानता के खिलाफ लडऩे की ललक पैदा करते हैं.
उनका बचपन उन अभावों में गुजरा, जहां समाज ने उनसे मानवीय अस्मिता तक छीन ली, जहां रोटी-कपड़े तक के लाले थे. वे अमानवीय और बदतर जीवन जीने को मजबूर थे. लेकिन इन्हीं हालात में उन्होंने अपने हौसलों को बुलंद किया और मनुष्य जीवन की एक नई इबारत लिखी.
श्यौराज की आत्मकथा अनेक सामाजिक, राजनैतिक परिप्रेक्ष्य बुनती है और कई सवाल खड़े करती है. ये सवाल मौजूदा दलित आंदोलन की आंतरिक बुनावट में बदलाव की मांग करते हैं और आर्य समाजी अथवा गांधीवादी सुधार आंदोलनों की सीमाओं को भी साफ करते हैं. वस्तुत: यह दलितोत्थान के तमाम मौजूदा प्रतिमानों की परतें पलटती है, वहीं दलित चेतना की सीमाओं को भी उजागर करती है. यह रचना उनके अस्मिता बोध को तो बनाती ही है साथ ही उनकी पहचान को भी मुकर्रर करती है.
उन्होंने सदियों से चले आ रहे अंधविश्वास, कुरीतियों, दलित अत्याचारों और तिरस्कारों पर गहरा कुठाराघात किया है. साथ ही उन्होंने स्त्रियों की पीड़ा का भी मार्मिक चित्रण किया है. अपने कृतित्व के जरिए वे समाज को एक संदेश देने में सफल होते हैं.
उन्होंने युवा वर्ग के साथ स्त्रियों को भी शिक्षा देने की वकालत की है और कहा है कि किसी भी कीमत पर पढ़ो-लिखो, चाहे बाकी काम अधूरे ही क्यों न पड़े रहें. श्यौराज के लेखन की यह विशेषता है कि पाठक उनके साथ हर मोड़ पर खुद को एक संवाद स्थापित करते हुए महूसस करते हैं. भाषा की रचना में श्यौराज का कोई मुकाबला नहीं है.वे जटिल परिस्थितियों का सहज भाषा में चित्रण करते हैं. पाठकों के आगे बिना कोई चीत्कार किए, अपने लिए किसी भी तरह की सहानुभूति और समानुभूति की लालसा से मुक्त और विद्रोही मुद्रा में अपने भोगे हुए यथार्थ से एक दूरी बनाकर न्याय की बात करते हैं. (आजतक से साभार)

छायावादी स्तंभ महादेवी वर्मा


महादेवी वर्मा हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्रियों में से हैं। वे हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों[क] में से एक मानी जाती हैं। आधुनिक हिन्दी की सबसे सशक्त कवयित्रियों में से एक होने के कारण उन्हें आधुनिक मीरा के नाम से भी जाना जाता है। कवि निराला ने उन्हें “हिन्दी के विशाल मन्दिर की सरस्वती” भी कहा है। महादेवी ने स्वतंत्रता के पहले का भारत भी देखा और उसके बाद का भी। वे उन कवियों में से एक हैं जिन्होंने व्यापक समाज में काम करते हुए भारत के भीतर विद्यमान हाहाकार, रुदन को देखा, परखा और करुण होकर अन्धकार को दूर करने वाली दृष्टि देने की कोशिश की। न केवल उनका काव्य बल्कि उनके सामाजसुधार के कार्य और महिलाओं के प्रति चेतना भावना भी इस दृष्टि से प्रभावित रहे। उन्होंने मन की पीड़ा को इतने स्नेह और शृंगार से सजाया कि दीपशिखा में वह जन-जन की पीड़ा के रूप में स्थापित हुई और उसने केवल पाठकों को ही नहीं समीक्षकों को भी गहराई तक प्रभावित किया।
उन्होंने खड़ी बोली हिन्दी की कविता में उस कोमल शब्दावली का विकास किया जो अभी तक केवल बृजभाषा में ही संभव मानी जाती थी। इसके लिए उन्होंने अपने समय के अनुकूल संस्कृत और बांग्ला के कोमल शब्दों को चुनकर हिन्दी का जामा पहनाया। संगीत की जानकार होने के कारण उनके गीतों का नाद-सौंदर्य और पैनी उक्तियों की व्यंजना शैली अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने अध्यापन से अपने कार्यजीवन की शुरूआत की और अंतिम समय तक वे प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या बनी रहीं। उनका बाल-विवाह हुआ परंतु उन्होंने अविवाहित की भांति जीवन-यापन किया। प्रतिभावान कवयित्री और गद्य लेखिका महादेवी वर्मा साहित्य और संगीत में निपुण होने के साथ-साथ[4] कुशल चित्रकार और सृजनात्मक अनुवादक भी थीं। उन्हें हिन्दी साहित्य के सभी महत्त्वपूर्ण पुरस्कार प्राप्त करने का गौरव प्राप्त है। भारत के साहित्य आकाश में महादेवी वर्मा का नाम ध्रुव तारे की भांति प्रकाशमान है। गत शताब्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय महिला साहित्यकार के रूप में वे जीवन भर पूजनीय बनी रहीं। वर्ष २००७ उनकी जन्म शताब्दी के रूप में मनाया गया। सन १९५५ में महादेवी जी ने इलाहाबाद में साहित्यकार संसद की स्थापना की और पं इलाचंद्र जोशी के सहयोग से साहित्यकार का संपादन संभाला। यह इस संस्था का मुखपत्र था। उन्होंने भारत में महिला कवि सम्मेलनों की नीव रखी। वे हिंदी साहित्य में रहस्याद की प्रवर्तिका भी मानी जाती हैं।
महादेवी का रचना संसार
महादेवी जी कवयित्री होने के साथ-साथ विशिष्ट गद्यकार भी थीं। उनकी कृतियाँ इस प्रकार हैं।
पन्थ तुम्हारा मंगलमय हो। महादेवी के हस्ताक्षर
महादेवी वर्मा की प्रमुख गद्य रचनाएँ
कविता संग्रह
     १. नीहार (१९३०)
     २. रश्मि (१९३२)
     ३. नीरजा (१९३४)
     ४. सांध्यगीत (१९३६)
     ५. दीपशिखा (१९४२)
     ६. सप्तपर्णा (अनूदित-१९५९)
     ७. प्रथम आयाम (१९७४)
     ८. अग्निरेखा (१९९०)
श्रीमती महादेवी वर्मा के अन्य अनेक काव्य संकलन भी प्रकाशित हैं, जिनमें उपर्युक्त रचनाओं में से चुने हुए गीत संकलित किये गये हैं, जैसे आत्मिका, परिक्रमा, सन्धिनी (१९६५), यामा (१९३६), गीतपर्व, दीपगीत, स्मारिका, नीलांबरा और आधुनिक कवि महादेवी आदि।
महादेवी वर्मा का गद्य साहित्य
    रेखाचित्र: अतीत के चलचित्र (१९४१) और स्मृति की रेखाएं (१९४३),
    संस्मरण: पथ के साथी (१९५६) और मेरा परिवार (१९७२ और संस्मरण (१९८३))
    चुने हुए भाषणों का संकलन: संभाषण (१९७४)
    निबंध: शृंखला की कड़ियाँ (१९४२), विवेचनात्मक गद्य (१९४२), साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध (१९६२), संकल्पिता (१९६९)
    ललित निबंध: क्षणदा (१९५६)
    कहानियाँ: गिल्लू
    संस्मरण, रेखाचित्र और निबंधों का संग्रह: हिमालय (१९६३),
अन्य निबंध में संकल्पिता तथा विविध संकलनों में स्मारिका, स्मृति चित्र, संभाषण, संचयन, दृष्टिबोध उल्लेखनीय हैं। वे अपने समय की लोकप्रिय पत्रिका ‘चाँद’ तथा ‘साहित्यकार’ मासिक की भी संपादक रहीं। हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने प्रयाग में ‘साहित्यकार संसद’ और रंगवाणी नाट्य संस्था की भी स्थापना की।
महादेवी वर्मा का बाल साहित्य
महादेवी वर्मा की बाल कविताओं के दो संकलन छपे हैं।
    ठाकुरजी भोले हैं
    आज खरीदेंगे हम ज्वाला

प्रेमचंद एक सफल अनुवादक भी थे


प्रेमचंद के उपनाम से लिखने वाले धनपत राय श्रीवास्तव हिन्दी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक हैं। उन्हें मुंशी प्रेमचंद व नवाब राय नाम से भी जाना जाता है और उपन्यास सम्राट[2] के नाम से अभिहित किया जाता है। इस नाम से उन्हें सर्वप्रथम बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने संबोधित किया था। प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिसने पूरी शती के साहित्य का मार्गदर्शन किया। आगामी एक पूरी पीढ़ी को गहराई तक प्रभावित कर प्रेमचंद ने साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नींव रखी। उनका लेखन हिन्दी साहित्य की एक ऐसी विरासत है जिसके बिना हिन्दी के विकास का अध्ययन अधूरा होगा। वे एक संवेदनशील लेखक, सचेत नागरिक, कुशल वक्ता तथा सुधी संपादक थे। बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में, जब हिन्दी में की तकनीकी सुविधाओं का अभाव था, उनका योगदान अतुलनीय है। प्रेमचंद के बाद जिन लोगों ने साहित्‍य को सामाजिक सरोकारों और प्रगतिशील मूल्‍यों के साथ आगे बढ़ाने का काम किया, उनमें यशपाल से लेकर मुक्तिबोध तक शामिल हैं।
प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी के निकट लमही गाँव में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी था तथा पिता मुंशी अजायबराय लमही में डाकमुंशी थे। उनकी शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवनयापन का अध्यापन से। पढ़ने का शौक उन्‍हें बचपन से ही लग गया। 13 साल की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्मे होशरूबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिरजा रुसबा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों से परिचय प्राप्‍त कर लिया। १८९८ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी १९१० में उन्‍होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया और १९१९ में बी.ए. पास करने के बाद शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में पिता का देहान्त हो जाने के कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनका पहला विवाह उन दिनों की परंपरा के अनुसार पंद्रह साल की उम्र में हुआ जो सफल नहीं रहा। वे आर्य समाज से प्रभावित रहे, जो उस समय का बहुत बड़ा धार्मिक और सामाजिक आंदोलन था। उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन किया और १९०६ में दूसरा विवाह अपनी प्रगतिशील परंपरा के अनुरूप बाल-विधवा शिवरानी देवी से किया। उनकी तीन संताने हुईं- श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव। १९१० में उनकी रचना सोजे-वतन (राष्ट्र का विलाप) के लिए हमीरपुर के जिला कलेक्टर ने तलब किया और उन पर जनता को भड़काने का आरोप लगाया। सोजे-वतन की सभी प्रतियाँ जब्त कर नष्ट कर दी गईं। कलेक्टर ने नवाबराय को हिदायत दी कि अब वे कुछ भी नहीं लिखेंगे, यदि लिखा तो जेल भेज दिया जाएगा। इस समय तक प्रेमचंद ,धनपत राय नाम से लिखते थे। उर्दू में प्रकाशित होने वाली ज़माना पत्रिका के सम्पादक और उनके अन्यास मंगलसूत्र पूरा नहीं हो सका और लम्बी बीमारी के बाद ८ अक्टूबर १९३६ को उनका निधन हो गया।उनका अंतिम उपन्यास मंगल सूत्र उनके पुत्र अमृत ने पूरा किया।
प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर उनकी पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसंबर अंक में १९१५ में सौत नाम से प्रकाशित हुई और १९३६ में अंतिम कहानी कफन नाम से। बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। उनसे पहले हिंदी में काल्पनिक, एय्यारी और पौराणिक धार्मिक रचनाएं ही की जाती थी। प्रेमचंद ने हिंदी में यथार्थवाद की शुरूआत की। " भारतीय साहित्य का बहुत सा विमर्श जो बाद में प्रमुखता से उभरा चाहे वह दलित साहित्य हो या नारी साहित्य उसकी जड़ें कहीं गहरे प्रेमचंद के साहित्य में दिखाई देती हैं।"  प्रेमचंद के लेख 'पहली रचना' के अनुसार उनकी पहली रचना अपने मामा पर लिखा व्‍यंग्‍य थी, जो अब अनुपलब्‍ध है। उनका पहला उपलब्‍ध लेखन उनका उर्दू उपन्यास 'असरारे मआबिद' है। प्रेमचंद का दूसरा उपन्‍यास 'हमखुर्मा व हमसवाब' जिसका हिंदी रूपांतरण 'प्रेमा' नाम से 1907 में प्रकाशित हुआ। इसके बाद प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह सोज़े-वतन नाम से आया जो १९०८ में प्रकाशित हुआ। सोजे-वतन यानी देश का दर्द। देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत होने के कारण इस पर अंग्रेज़ी सरकार ने रोक लगा दी और इसके लेखक को भविष्‍य में इस तरह का लेखन न करने की चेतावनी दी। इसके कारण उन्हें नाम बदलकर लिखना पड़ा। 'प्रेमचंद' नाम से उनकी पहली कहानी बड़े घर की बेटी ज़माना पत्रिका के दिसंबर १९१० के अंक में प्रकाशित हुई। मरणोपरांत उनकी कहानियाँ मानसरोवर नाम से 8 खंडों में प्रकाशित हुई। कथा सम्राट प्रेमचन्द का कहना था कि साहित्यकार देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है। यह बात उनके साहित्य में उजागर हुई है। १९२१ में उन्होंने महात्मा गांधी के आह्वान पर अपनी नौकरी छोड़ दी। कुछ महीने मर्यादा पत्रिका का संपादन भार संभाला, छह साल तक माधुरी नामक पत्रिका का संपादन किया, १९३० में बनारस से अपना मासिक पत्र हंस शुरू किया और १९३२ के आरंभ में जागरण नामक एक साप्ताहिक और निकाला। उन्होंने लखनऊ में १९३६ में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन की अध्यक्षता की। उन्होंने मोहन दयाराम भवनानी की अजंता सिनेटोन कंपनी में कहानी-लेखक की नौकरी भी की। १९३४ में प्रदर्शित मजदूर नामक फिल्म की कथा लिखी और कंट्रेक्ट की साल भर की अवधि पूरी किये बिना ही दो महीने का वेतन छोड़कर बनारस भाग आये क्योंकि बंबई (आधुनिक मुंबई) का और उससे भी ज़्यादा वहाँ की फिल्मी दुनिया का हवा-पानी उन्हें रास नहीं आया। उन्‍होंने मूल रूप से हिंदी में 1915 से कहानियां लिखना और 1918 (सेवासदन) से उपन्‍यास लिखना शुरू किया। प्रेमचंद ने कुल करीब तीन सौ कहानियां, लगभग एक दर्जन उपन्यास और कई लेख लिखे। उन्होंने कुछ नाटक भी लिखे और कुछ अनुवाद कार्य भी किया। प्रेमचंद के कई साहित्यिक कृतियों का अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन सहित अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। गोदान उनकी कालजयी रचना है. कफन उनकी अंतिम कहानी मानी जाती है। उन्‍होंने हिंदी और उर्दू में पूरे अधिकार से लिखा। उनकी अधिकांश रचनाएं मूल रूप से उर्दू में लिखी गई हैं लेकिन उनका प्रकाशन हिंदी में पहले हुआ। तैंतीस वर्षों के रचनात्मक जीवन में वे साहित्य की ऐसी विरासत सौप गए जो गुणों की दृष्टि से अमूल्य है और आकार की दृष्टि से असीमित।
कृतियाँ
प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि विभिन्न साहित्य रूपों में प्रवृत्त हुई। बहुमुखी प्रतिभा संपन्न प्रेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की। प्रमुखतया उनकी ख्याति कथाकार के तौर पर हुई और अपने जीवन काल में ही वे ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि से सम्मानित हुए। उन्होंने कुल १५ उपन्यास, ३०० से कुछ अधिक कहानियाँ, ३ नाटक, १० अनुवाद, ७ बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है।
प्रेमचंद के उपन्‍यास न केवल हिन्‍दी उपन्‍यास साहित्‍य में बल्कि संपूर्ण भारतीय साहित्‍य में मील के पत्‍थर हैं। प्रेमचन्द कथा-साहित्य में उनके उपन्याकार का आरम्भ पहले होता है। उनका पहला उर्दू उपन्यास (अपूर्ण) ‘असरारे मआबिद उर्फ़ देवस्थान रहस्य’ उर्दू साप्ताहिक ‘'आवाज-ए-खल्क़'’ में ८ अक्तूबर, १९०३ से १ फरवरी, १९०५ तक धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। उनका दूसरा उपन्‍यास 'हमखुर्मा व हमसवाब' जिसका हिंदी रूपांतरण 'प्रेमा' नाम से 1907 में प्रकाशित हुआ। चूंकि प्रेमचंद मूल रूप से उर्दु के लेखक थे और उर्दू से हिंदी में आए थे, इसलिए उनके सभी आरंभिक उपन्‍यास मूल रूप से उर्दू में लिखे गए और बाद में उनका हिन्‍दी तर्जुमा किया गया। उन्‍होंने 'सेवासदन' (1918) उपन्‍यास से हिंदी उपन्‍यास की दुनिया में प्रवेश किया। यह मूल रूप से उन्‍होंने 'बाजारे-हुस्‍न' नाम से पहले उर्दू में लिखा लेकिन इसका हिंदी रूप 'सेवासदन' पहले प्रकाशित कराया। 'सेवासदन' एक नारी के वेश्‍या बनने की कहानी है। डॉ रामविलास शर्मा के अनुसार 'सेवासदन' में व्‍यक्‍त मुख्‍य समस्‍या भारतीय नारी की पराधीनता है। इसके बाद किसान जीवन पर उनका पहला उपन्‍यास 'प्रेमाश्रम' (1921) आया। इसका मसौदा भी पहले उर्दू में 'गोशाए-आफियत' नाम से तैयार हुआ था लेकिन 'सेवासदन' की भांति इसे पहले हिंदी में प्रकाशित कराया। 'प्रेमाश्रम' किसान जीवन पर लिखा हिंदी का संभवतः पहला उपन्‍यास है। यह अवध के किसान आंदोलनों के दौर में लिखा गया। इसके बाद 'रंगभूमि' (1925), 'कायाकल्‍प' (1926), 'निर्मला' (1927), 'गबन' (1931), 'कर्मभूमि' (1932) से होता हुआ यह सफर 'गोदान' (1936) तक पूर्णता को प्राप्‍त हुआ। रंगभूमि में प्रेमचंद एक अंधे भिखारी सूरदास को कथा का नायक बनाकर हिंदी कथा साहित्‍य में क्रांतिकारी बदलाव का सूत्रपात कर चुके थे। गोदान का हिंदी साहित्‍य ही नहीं, विश्‍व साहित्‍य में महत्‍वपूर्ण स्‍थान है। इसमें प्रेमचंद की साहित्‍य संबंधी विचारधारा 'आदर्शोन्‍मुख यथार्थवाद' से 'आलोचनात्‍मक यथार्थवाद' तक की पूर्णता प्राप्‍त करती है। एक सामान्‍य किसान को पूरे उपन्‍यास का नायक बनाना भारतीय उपन्‍यास परंपरा की दिशा बदल देने जैसा था। सामंतवाद और पूंजीवाद के चक्र में फंसकर हुई कथानायक होरी की मृत्‍यु पाठकों के जहन को झकझोर कर रख जाती है। किसान जीवन पर अपने पिछले उपन्‍यासों 'प्रेमाश्रम' और 'कर्मभूमि' में प्रेमंचद यथार्थ की प्रस्‍तुति करते-करते उपन्‍यास के अंत तक आदर्श का दामन थाम लेते हैं। लेकिन गोदान का कारुणिक अंत इस बात का गवाह है कि तब तक प्रेमचंद का आदर्शवाद से मोहभंग हो चुका था। यह उनकी आखिरी दौर की कहानियों में भी देखा जा सकता है। 'मंगलसूत्र' प्रेमचंद का अधूरा उपन्‍यास है। प्रेचचंद के उपन्‍यासों का मूल कथ्‍य भारतीय ग्रामीण जीवन था।प्रेमचंद ने हिंदी उपन्‍यास को जो ऊंचाई प्रदान की, वह परवर्ती उपन्‍यासकारों के लिए एक चुनौती बनी रही। प्रेमचंद के उपन्‍यास भारत और दुनिया की कई भाषाओं में अनुदित हुए, खासकर उनका सर्वाधिक चर्चित उपन्‍यास गोदान।
उपन्‍यासों के साथ प्रेमचंद की कहानियों का सिलसिला भी चलता रहा। उनकी पहली उर्दू कहानी दुनिया का सबसे अनमोल रतन कानपुर से प्रकाशित होने वाली ज़माना नामक पत्रिका में १९०८ में छपी। प्रेमंचद के कुल नौ कहानी संग्रेह प्रकाशित हुए- 'सप्‍त सरोज', 'नवनिधि', 'प्रेमपूर्णिमा', 'प्रेम-पचीसी', 'प्रेम-प्रतिमा', 'प्रेम-द्वादशी', 'समरयात्रा', 'मानसरोवर' : भाग एक व दो, और 'कफन'। उनकी मृत्‍यु के बाद उनकी कहानियां 'मानसरोवर' शीर्षक से 8 भागों में प्रकाशित हुई। प्रेमचंद के अध्‍येता कमलकिशोर गोयनका व प्रेमचंद के बेटे अमृतराय ने प्रेमचंद की कई अप्रकाशित कहानियों को ढूंढकर प्रकाशित कराया। प्रेमचंद साहित्‍य के कॉपीराइट से मुक्‍त होते होते ही ढेरों संपादकों और प्रकाशकों ने प्रेमचंद की कहानियों के संकलन तैयार कर प्रकाशित कराए। प्रेमचंद ने मुख्‍य रूप से ग्रामीण जीवन व मध्‍यवर्गीय जीवन पर कहानियां लिखीं। प्रेमचंद की ऐतिहासिक कहानियाँ तथा प्रेमचंद की प्रेम संबंधी कहानियाँ भी काफी लोकप्रिय साबित हुईं। प्रेमचंद की प्रमुख कहानियों में ये नाम लिये जा सकते हैं- 'पंच परमेश्‍वर', 'गुल्‍ली डंडा', 'दो बैलों की कथा', 'ईदगाह', 'बडे भाई साहब', 'पूस की रात', 'कफन', 'ठाकुर का कुंआ', 'सद्गति', 'बूढी काकी', 'तावान', 'विध्‍वंश', 'दूध का दाम', 'मंत्र' आदि.
प्रेमचंद ने 'संग्राम' (1923), 'कर्बला' (1924), और 'प्रेम की वेदी' (1933) नाटकों की रचना की। ये नाटक शिल्‍प और संवेदना के स्‍तर पर अच्‍छे हैं लेकिन उनकी कहानियों और उपन्‍यासों ने इतनी ऊँचाई प्राप्‍त कर ली थी कि नाटक के क्षेत्र में प्रेमचंद को कोई खास सफलता नहीं मिली। ये नाटक वस्‍तुतः संवादात्‍मक उपन्‍यास ही बन गए हैं।
प्रेमचंद एक संवेदनशील कथाकार ही नहीं, सजग नागरिक व संपादक भी थे। उन्‍होंने 'हंस', 'माधुरी', 'जागरण' आदि पत्र-पत्रिकाओं का संपादन करते हुए व तत्‍कालीन अन्‍य सहगामी साहित्यिक पत्रिकाओं 'चांद', 'मर्यादा', 'स्‍वदेश' आदि में अपनी साहित्यिक व सामाजिक चिंताओं को लेखों या निबंधों के माध्‍यम से अभिव्‍यक्‍त किया। अमृतराय द्वारा संपादित 'प्रेमचंद : विविध प्रसंग' (तीन भाग) वास्‍तव में प्रेमचंद के लेखों का ही संकलन है। प्रेमचंद के लेख प्रकाशन संस्‍थान से 'कुछ विचार' शीर्षक से भी छपे हैं। प्रेमचंद के मशहूर लेखों में निम्‍न लेख शुमार होते हैं- साहित्‍य का उद्देश्‍य, पुराना जमाना नया जमाना, स्‍वराज के फायदे, कहानी कला (1,2,3), कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार, हिंदी-उर्दू की एकता, महाजनी सभ्‍यता, उपन्‍यास, जीवन में साहित्‍य का स्‍थान आदि।
प्रेमचंद एक सफल अनुवादक भी थे। उन्‍होंने दूसरी भाषाओं के जिन लेखकों को पढा और जिनसे प्रभावित हुए, उनकी कृतियों का अनुवाद भी किया। 'टॉलस्‍टॉय की कहानियां' (1923), गाल्‍सवर्दी के तीन नाटकों का 'हडताल' (1930), 'चांदी की डिबिया' (1931) और 'न्‍याय' (1931) नाम से अनुवाद किया। उनके द्वारा रतननाथ सरशार के उर्दू उपन्‍यास 'फसान-ए-आजाद' का हिंदी अनुवाद 'आजाद कथा' बहुत मशहूर हुआ।
प्रेमचन्द उर्दू का संस्कार लेकर हिन्दी में आए थे और हिन्दी के महान लेखक बने। हिन्दी को अपना खास मुहावरा और खुलापन दिया। कहानी और उपन्यास दोनो में युगान्तरकारी परिवर्तन किए। उन्होने साहित्य में सामयिकता प्रबल आग्रह स्थापित किया। आम आदमी को उन्होंने अपनी रचनाओं का विषय बनाया और उसकी समस्याओं पर खुलकर कलम चलाते हुए उन्हें साहित्य के नायकों के पद पर आसीन किया। प्रेमचंद से पहले हिंदी साहित्य राजा-रानी के किस्सों, रहस्य-रोमांच में उलझा हुआ था। प्रेमचंद ने साहित्य को सच्चाई के धरातल पर उतारा। उन्होंने जीवन और कालखंड की सच्चाई को पन्ने पर उतारा। वे सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, जमींदारी, कर्जखोरी, गरीबी, उपनिवेशवाद पर आजीवन लिखते रहे। प्रेमचन्द की ज्यादातर रचनाएं उनकी ही गरीबी और दैन्यता की कहानी कहती है। ये भी गलत नहीं है कि वे आम भारतीय के रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में वे नायक हुए, जिसे भारतीय समाज अछूत और घृणित समझा था. उन्होंने सरल, सहज और आम बोल-चाल की भाषा का उपयोग किया और अपने प्रगतिशील विचारों को दृढ़ता से तर्क देते हुए समाज के सामने प्रस्तुत किया। १९३६ में प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कहा कि लेखक स्वभाव से प्रगतिशील होता है और जो ऐसा नहीं है वह लेखक नहीं है। प्रेमचंद हिन्दी साहित्य के युग प्रवर्तक हैं। उन्होंने हिन्दी कहानी में आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की एक नई परंपरी शुरू की।
इतने महान रचनाकार होने के बावजूद प्रेमचंद का जीवन आरोपों से मुक्‍त नहीं है। प्रेमचंद के अध्‍येता कमलकिशोर गोयनका ने अपनी पुस्‍तक 'प्रेमचंद : अध्‍ययन की नई दिशाएं' में प्रेमचंद के जीवन पर कुछ आरोप लगाकर उनके साहित्‍य का महत्‍व कम करने की कोशिश की. प्रेमचंद पर लगे मुख्‍य आरोप हैं- प्रेमचंद ने अपनी पहली पत्‍नी को बिना वजह छोडा और दूसरे विवाह के बाद भी उनके अन्‍य किसी महिला से संबंध रहे (जैसा कि शिवरानी देवी ने 'प्रेमचंद घर में' में उद्धृत किया है), प्रेमचंद ने 'जागरण विवाद' में विनोदशंकर व्‍यास के साथ धोखा किया, प्रेमचंद ने अपनी प्रेस के वरिष्‍ठ कर्मचारी प्रवासीलाल वर्मा के साथ धोखाधडी की, प्रेमचंद की प्रेस में मजदूरों ने हडताल की, प्रेमचंद ने अपनी बेटी के बीमार होने पर झाड-फूंक का सहारा लिया आदि. कमलकिशोर गोयनका द्वारा लगाए गए ये आरोप प्रेमचंद के जीवन का एक पक्ष जरूर हमारे सामने लाते हैं जिसमें उनकी इंसानी कमजोरियों जाहिर होती हैं लेकिन उनके व्‍यापक साहित्‍य के मूल्‍यांकन पर इन आरोपों का कोई असर नहीं पड पाया है।
प्रेमचंद को प्रायः "मुंशी प्रेमचंद" के नाम से जाना जाता है। प्रेमचंद के नाम के साथ 'मुंशी' कब और कैसे जुड़ गया? इस विषय में अधिकांश लोग यही मान लेते हैं कि प्रारम्भ में प्रेमचंद अध्यापक रहे। अध्यापकों को प्राय: उस समय मुंशी जी कहा जाता था। इसके अतिरिक्त कायस्थों के नाम के पहले सम्मान स्वरूप 'मुंशी' शब्द लगाने की परम्परा रही है। संभवत: प्रेमचंद जी के नाम के साथ मुंशी शब्द जुड़कर रूढ़ हो गया। प्रोफेसर शुकदेव सिंह के अनुसार प्रेमचंद जी ने अपने नाम के आगे 'मुंशी' शब्द का प्रयोग स्वयं कभी नहीं किया। उनका यह भी मानना है कि मुंशी शब्द सम्मान सूचक है, जिसे प्रेमचंद के प्रशंसकों ने कभी लगा दिया होगा। यह तथ्य अनुमान पर आधारित है। लेकिन प्रेमचंद के नाम के साथ मुंशी विशेषण जुड़ने का प्रामाणिक कारण यह है कि 'हंस' नामक पत्र प्रेमचंद एवं 'कन्हैयालाल मुंशी' के सह संपादन मे निकलता था। जिसकी कुछ प्रतियों पर कन्हैयालाल मुंशी का पूरा नाम न छपकर मात्र 'मुंशी' छपा रहता था साथ ही प्रेमचंद का नाम इस प्रकार छपा होता था- (हंस की प्रतियों पर देखा जा सकता है)।
'हंस के संपादक प्रेमचंद तथा कन्हैयालाल मुंशी थे। परन्तु कालांतर में पाठकों ने 'मुंशी' तथा 'प्रेमचंद' को एक समझ लिया और 'प्रेमचंद'- 'मुंशी प्रेमचंद' बन गए। यह स्वाभाविक भी है।[20] सामान्य पाठक प्राय: लेखक की कृतियों को पढ़ता है, नाम की सूक्ष्मता को नहीं देखा करता। आज प्रेमचंद का मुंशी अलंकरण इतना रूढ़ हो गया है कि मात्र 'मुंशी' से ही प्रेमचंद का बोध हो जाता है तथा 'मुंशी' न कहने से प्रेमचंद का नाम अधूरा-अधूरा सा लगता है।
प्रेमचंद ने अपनी कला के शिखर पर पहुँचने के लिए अनेक प्रयोग किए। जिस युग में प्रेमचंद ने कलम उठाई थी, उस समय उनके पीछे ऐसी कोई ठोस विरासत नहीं थी और न ही विचार और प्रगतिशीलता का कोई मॉडल ही उनके सामने था सिवाय बांग्ला साहित्य के। उस समय बंकिम बाबू थे, शरतचंद्र थे और इसके अलावा टॉलस्टॉय जैसे रुसी साहित्यकार थे। लेकिन होते-होते उन्होंने गोदान जैसे कालजयी उपन्यास की रचना की जो कि एक आधुनिक क्लासिक माना जाता है। उन्होंने चीजों को खुद गढ़ा और खुद आकार दिया। जब भारत का स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था तब उन्होंने कथा साहित्य द्वारा हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं को जो अभिव्यक्ति दी उसने सियासी सरगर्मी को, जोश को और आंदोलन को सभी को उभारा और उसे ताक़तवर बनाया और इससे उनका लेखन भी ताक़तवर होता गया। प्रेमचंद इस अर्थ में निश्चित रुप से हिंदी के पहले प्रगतिशील लेखक कहे जा सकते हैं। १९३६ में उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन को सभापति के रूप में संबोधन किया था। उनका यही भाषण प्रगतिशील आंदोलन के घोषणा पत्र का आधार बना। प्रेमचंद ने हिन्दी में कहानी की एक परंपरा को जन्म दिया और एक पूरी पीढ़ी उनके कदमों पर आगे बढ़ी, ५०-६० के दशक में रेणु, नागार्जुन औऱ इनके बाद श्रीनाथ सिंह ने ग्रामीण परिवेश की कहानियाँ लिखी हैं, वो एक तरह से प्रेमचंद की परंपरा के तारतम्य में आती हैं। प्रेमचंद एक क्रांतिकारी रचनाकार थे, उन्होंने न केवल देशभक्ति बल्कि समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों को देखा और उनको कहानी के माध्यम से पहली बार लोगों के समक्ष रखा। उन्होंने उस समय के समाज की जो भी समस्याएँ थीं उन सभी को चित्रित करने की शुरुआत कर दी थी। उसमें दलित भी आते हैं, नारी भी आती हैं। ये सभी विषय आगे चलकर हिन्दी साहित्य के बड़े विमर्श बने। प्रेमचंद हिन्दी सिनेमा के सबसे अधिक लोकप्रिय साहित्यकारों में से हैं। सत्यजित राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फ़िल्में बनाईं। १९७७ में शतरंज के खिलाड़ी और १९८१ में सद्गति। उनके देहांत के दो वर्षों बाद के सुब्रमण्यम ने १९३८ में सेवासदन उपन्यास पर फ़िल्म बनाई जिसमें सुब्बालक्ष्मी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। १९७७ में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी कफ़न पर आधारित ओका ऊरी कथा नाम से एक तेलुगू फ़िल्म बनाई जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। १९६३ में गोदान और १९६६ में गबन उपन्यास पर लोकप्रिय फ़िल्में बनीं। १९८० में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक निर्मला भी बहुत लोकप्रिय हुआ था।
हिंदी साहित्‍य व आलोचना में प्रेमचंद को प्रतिष्ठित करने का श्रेय डॉ रामविलास शर्मा को दिया जाता है। उन्‍होंने प्रेमचंद पर दो प्रमुख किताबें लिखीं- 'प्रेमचंद' और 'प्रेमचंद और उनका युग'। प्रेमचंद के पत्रों को सहेजने का काम अमृतराय और मदनगोपाल ने किया। प्रेमचंद पर हुए नए अध्‍ययनों में कमलकिशोर गोयनका और डॉ. धर्मवीर का नाम उल्‍लेखनीय है। कमलकिशोर गोयनका ने प्रेमचंद के जीवन के कमजोर पक्षों को उजागर करने के साथ-साथ 'प्रेमचंद का अप्राप्‍य साहित्‍य' (दो भाग) व 'प्रेमचंद विश्‍वकोश' (दो भाग) का संपादन भी किया है। डॉ. धर्मवीर ने दलित दृष्टि से प्रेमचंद साहित्‍य का मूलयांकन करते हुए 'प्रेमचंद : सामंत का मुंशी' व 'प्रेमचंद की नीली आंखें' नाम से पुस्‍तकें लिखी हैं।
प्रेमचंद की स्मृति में भारतीय डाकतार विभाग की ओर से ३१ जुलाई १९८० को उनकी जन्मशती के अवसर पर ३० पैसे मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया गया। गोरखपुर के जिस स्कूल में वे शिक्षक थे, वहाँ प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है। इसके बरामदे में एक भित्तिलेख है जिसका चित्र दाहिनी ओर दिया गया है। यहाँ उनसे संबंधित वस्तुओं का एक संग्रहालय भी है। जहाँ उनकी एक वक्षप्रतिमा भी है। प्रेमचंद की १२५वीं सालगिरह पर सरकार की ओर से घोषणा की गई कि वाराणसी से लगे इस गाँव में प्रेमचंद के नाम पर एक स्मारक तथा शोध एवं अध्ययन संस्थान बनाया जाएगा। प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने प्रेमचंद घर में नाम से उनकी जीवनी लिखी और उनके व्यक्तित्व के उस हिस्से को उजागर किया है, जिससे लोग अनभिज्ञ थे। यह पुस्तक १९४४ में पहली बार प्रकाशित हुई थी, लेकिन साहित्य के क्षेत्र में इसके महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसे दुबारा २००५ में संशोधित करके प्रकाशित की गई, इस काम को उनके ही नाती प्रबोध कुमार ने अंजाम दिया। इसका अँग्रेज़ी व हसन मंज़र का किया हुआ उर्दू अनुवाद भी प्रकाशित हुआ। उनके ही बेटे अमृत राय ने कलम का सिपाही नाम से पिता की जीवनी लिखी है। उनकी सभी पुस्तकों के अंग्रेज़ी व उर्दू रूपांतर तो हुए ही हैं, चीनी, रूसी आदि अनेक विदेशी भाषाओं में उनकी कहानियाँ लोकप्रिय हुई हैं।

पुस्‍तक संस्‍कृति विकसित करने की जरूरत है


कृष्ण कुमार
मैं एक ऐसी बात कहना चाहूँगा जो शायद आपको कुछ नागवार गुजरे। कोई भी इस बात से असहमत नहीं है कि स्कूलों में लाइब्रेरी होनी चाहिए और पढ़ने पर जोर होना चाहिए। बावजूद तमाम सहमति के स्कूलों में पुस्तकालय नहीं हैं या जो हैं भी वे ठीक से नहीं चल पा रहे हैं। पढ़ने की क्षमता का विकास करने वाली परिस्थितियाँ स्कूलों में क्या, शिक्षकों के प्रशिक्षण संस्थानों में भी नहीं हैं। और बहुत करके हमारे महाविद्यालयों में भी नहीं हैं तो शायद इसका एक कारण है कि आज हमारी शिक्षा व्यवस्था जिस भी स्थिति में है, इस शिक्षा व्यवस्था को दरअसल लाइब्रेरी की जरूरत नहीं है। और जिस चीज की जरूरत नहीं है अगर वह पैदा नहीं होती या पैदा की जाने पर भी अगर वह पल्लवित नहीं होती तो बहुत चकित और न ही बहुत निराश होना चाहिए। जिस चीज की जरूरत नहीं है वह अगर ठीक से काम नहीं कर रही है तो कौन सा आश्चर्य है। इस बात को कहते हुए मैं वास्तव में इस दृष्टिकोण से विचार करना चाहता हूँ कि क्या हमारी स्कूली व्यवस्था में लाइब्रेरी की आवश्यकता है?
मुदालियार आयोग, जो 1952-53 में स्थापित हुआ था, से लेकर कोठारी आयोग से गुजरते हुए राममूर्ति इत्यादि आयोगों से होते हुए और अभी जो राष्ट्रीय पाठयचर्चा की रूपरेखा यानी नैशनल करिकुलम फ्रेमवर्क-2005 बना है (और जो अब एक नीति बन चुकी है), वहाँ तक आएँगे तो आपको लगेगा कि भारत में आजादी के पहले से ही लगातार इस बात को लेकर सहमति रही है कि स्कूलों में लाइब्रेरी होनी चाहिए।
मुझे लगता है कि सबसे पहले इसकी पुरजोर वकालत मुदालियार आयोग ने शुरू में ही कर दी थी। अगर उसके भी पीछे जाएँ तो आजादी के बाद के पहले राधाकृष्णन आयोग ने भी विश्वविद्यालयी शिक्षा के सन्दर्भ में लाइब्रेरी के महत्व पर बहुत गहरा प्रकाश डाला था। तो हर दस्तावेज ने माना है कि लाइब्रेरी होनी चाहिए, ठीक से चलनी चाहिए। और जहाँ तक लाइब्रेरी चलाने के लिए विशेषज्ञों की जरूरत है या प्रशिक्षण की जरूरत है, उसके भी पर्याप्त साधन हमारे देश में विकसित हुए हैं।
हम देखते हैं कि बी.लिब., एम.लिब. कोर्सेज आजकल अनेक विश्वविद्यालयों में दिए जा रहे हैं। तो ऐसा नहीं है कि लाइब्रेरियन नाम का व्यक्ति बनाने की ओर ध्‍यान नहीं गया है। ये सब हुआ है और राष्ट्रीय और प्रान्तीय स्तर पर भी कुछ-कुछ प्रयास होता ही रहा है। राष्ट्रीय पुस्तकालय, कोलकाता एक राष्ट्रीय स्तर की संस्था है, सम्मानित है भले ही कई समस्याओं और दुविधाओं से ग्रस्त है लेकिन फिर भी इसका एक महत्‍व है। राजा राम मोहन राय नाम से एक न्यास यानी एक ट्रस्ट केन्द्र सरकार ने स्थापित किया था। यह देश भर में प्रान्तीय सरकारों और ग़ैर सरकारी संगठनों को पुस्तकालय चलाने के लिए अनुदान देने का भी काम कर रहा है और उसके अनुदान से कई पुस्तकें पहुँच भी रही हैं।
इस तरह से देखें तो ऐसा लगता है कि जहाँ तक दस्तावेजों और नीतियों का प्रश्न है, कोई भी इससे असहमत नहीं दिखता है कि लाइब्रेरी नहीं होनी चाहिए। फिर भी मैं यह बात आपसे कुछ जोर देकर और मजाक के तौर पर नहीं वास्तव में कहना चाहता हूँ कि हमारी व्यवस्था में दरअसल लाइब्रेरी की जरूरत नहीं है। इसका एक कारण है और मेरी इस बात का कारण दरअसल आपको मालूम है। अगर आप अपने इर्द-गिर्द बहुत अच्छे नम्बर पाने वाले लड़के-लड़कियों पर गौर करें जो कि दसवीं व बारहवीं की परीक्षा में ऊँचे अंक लेकर निकलते हैं तो आप पाएँगे कि उनकी इस उपलब्धि स्तर में पुस्तकालय का योगदान नाममात्र का या प्रतीक जैसा भी नहीं है।
अगर आप देखना चाहते हैं जमीन के स्तर पर, तो किसी आला से आला समझे जानेवाले स्कूल में पूरा दिन बिताइए। देखिए कि उस दिन का कितना हिस्सा अध्यापकों ने या बच्चों ने लाइब्रेरी में बिताया। अगर एक दिन से आपको बहुत सन्तुष्टि नहीं मिलती है और आप सोचते होंगे कि आज सोमवार हो सकता है या कोई विशिष्ट दिन, तो हम मंगलवार को चलते हैं। मेरा आपसे आग्रह है कि आप पूरा सप्ताह वहाँ बिताएँ। चाहे उदयपुर, जयपुर या दिल्ली में या ऐसी संस्था में जो अच्छी ख़ासी फीस लेती हो। अँग्रेजी माध्यम स्कूल हो, यह सब चीजें उसमें हों और आप पूरा सप्ताह वहाँ बिताएँ और देखें कि लाइब्रेरी का उपयोग कितने बच्चों ने किया? कितने अध्यापकों ने किया तो आप यह देखकर हैरान होंगे कि लाइब्रेरी का कोई विशेष इस्तेमाल पूरे सप्ताह में नहीं होता।
दरअसल अगर आप इस प्रश्न के थोड़ा और गहराई में जाएँगे तो आप पाएँगे कि ये कोई देखने लायक बात ही नहीं है। क्योंकि हमारी शिक्षा व्यवस्था में परीक्षा इतनी प्रमुख है कि उसके लिए शिक्षा के किसी भी मूल्य की बलि चढ़ाना, किसी भी मूल्य को एकदम छोड़ देना भी उपयोगी माना जाता है। मान लीजिए कि परीक्षा के विषय में आप जो पढ़ें ईमानदारी से पढ़ें, समझ कर पढ़ें और जितना आता है ईमानदारी से उतना बताएँ। अगर इन उसूलों पर कोई लड़का या लड़की चले तो वह शायद पास भी नहीं हो सकता। फर्स्ट क्लास या मेरिट लिस्ट में आना तो सम्भव ही नहीं होगा। बहुत ऊँचे अंक आप तभी लेकर आ सकते हैं परीक्षाओं में, जब आप उसूलों पर न चलें। यानी आप ज्यादा से ज्यादा ज्ञान रट लें, उसको समझने में ज्यादा ध्‍यान न दें। गणित हो चाहे विज्ञान हो, आप बार-बार अभ्यास करें। आप बगैर समझे हुए इतना अभ्यास करें कि प्रश्न क्या है, आप उसका उत्तर लिख सकें तो आप पाएँगे कि ऐसा करने पर आपके अंक बढ़ जाएँगे।
यही कारण है कि इस तरह की ट्रेंनिंग देनेवाली संस्थाएँ इतना पैसा हमारे शहरी माता-पिताओं से कमा रही हैं। इन संस्थाओं को कोचिंग इन्स्टीटयूट बोलते हैं। नैशनल करिकुलम फ्रेमवर्क में इनको “स्कूल आउट साइड द स्कूल” की संज्ञा दी गई है। वो स्कूल जहाँ बच्चे स्कूल के बाहर जाते हैं। वहाँ उनको ऐसी दक्षताएँ दी जाती हैं जिससे कि वो इम्तहानों में अच्छे अंक पा सकें। सिर्फ इम्तहानों में ही नहीं वो हमारे देश की सर्वोच्च माने जानेवाली आई.आई.टी. और मेडीकल कॉलेजों में प्रवेश के लिए होनेवाली परीक्षाओं मे भी अच्छे से अच्छे अंक लेकर अपनी प्रतियोगी हैसियत बना सकें। उस पूरी प्रक्रिया के लिए कहीं इस तरह की चीज का कोई महत्‍व नहीं है कि कोई लाइब्रेरी का इस्तेमाल करनेवाला हो या कि लाइब्रेरी जाकर किताबों में मशगूल रहनेवाला हो, तरह-तरह की किताबें पढ़ता हो। ऐसा बच्चा आज आई.आई.टी. में प्रवेश नहीं पा सकता, किसी मेडीकल कॉलेज में नहीं आ सकता। मेरा तो अन्दाज है कि वो दिल्ली विश्वविद्यालय में या कि और विश्वविद्यालयों में भी नहीं आ सकता क्योंकि इन विश्वविद्यालयों में एक सघन प्रतियोगिता से आप गुजरते हैं, तभी आप पहुँच पाते हैं। यह प्रतियोगिता पूरी तरह परीक्षा पर आधारित है। और आज की परीक्षा व्यवस्था में इस बात की गुंजाइश नहीं है कि वह इस बात पर ध्‍यान दे कि किसी बच्चे को लाइब्रेरी के केटलॉग का इस्तेमाल करना आता है कि नहीं। क्या उसने बगैर किसी के कहे हुए वर्ष में आठ-दस किताबें खुद अपनी रुचि से पढ़ीं या कि उसमें किताबें पढ़ने की रुचि है भी कि नहीं।
यह मुद्दा सिर्फ परीक्षा व्यवस्था का ही है, ऐसा मत सोचिए। आप किसी नामीगिरामी स्कूल के रिपोर्ट कार्ड पर विचार करें। अब तो सरकारी स्कूलों में भी ऐसे कार्ड बनने लगे हैं जिनसे हर महीने हर युनिट टेस्ट के बाद माता-पिताओं को बताया जाता है कि क्या-क्या चीजें उनके बच्चे में ठीक से चल रही हैं। तो आप पाएँगे कि उसमें अलग-अलग विषयों के नम्बर लिखे होंगे। साथ में कुछ और विशेषताएँ भी लिखी होंगी कि उसका व्यवहार कैसा है, उसमें नेतृत्व की क्षमता है कि नहीं, दूसरों से सहयोग करता है कि नहीं। एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टीविटीज में उसकी रुचि है कि नहीं। इससे आशय होता है कि कला में रुचि है कि नहीं इत्यादि। लेकिन आपको किसी कार्ड पर ऐसा नहीं मिलेगा कि इस वर्ष उसने कितने उपन्यास पढ़े। क्या उसकी बाल साहित्य में रुचि है? क्या वह अपने आप कुछ किताबें ढूँढ़ता है? अच्छे से अच्छे स्कूल में आपको प्राइमरी या अपर प्राइमरी स्तर पर, सैकण्डरी स्तर पर कहीं ऐसा कोई उल्लेख रिपोर्ट कार्ड में नहीं मिलेगा। इसलिए अगर किसी बच्चे की पढ़ने में रुचि जागृत हो गई है और वह पढ़ता है, व ढूँढ़कर किताबें पढ़ता है तो इसका कोई प्रतिबिम्ब आपको उसकी प्रगति पुस्तिका में नहीं मिलेगा।
इस पूरे दृष्टान्त से मैं यह सिद्ध करना चाहता था कि अगर आज स्कूल में पुस्तकालयों की दशा अच्छी नहीं है तो हमें इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि हमारी शिक्षा व्यवस्था में पुस्तकालय की जरूरत कैसे पैदा की जाए? क्योंकि आज वह जरूरत नहीं है।
इस सब में आप यह भी जोड़ लें कि जिस सांस्कृतिक स्थिति में स्कूल चल रहा है, उसमें भी दरअसल बच्चों के लिए पुस्तकें पढ़ना कोई बहुत अच्छी बात नहीं मानी जाती है। एक बड़ा भारी फर्क हमारी व्यवस्था करती है। हमारी संस्कृति भी करती है। एक वो जिन्हें पाठ्यपुस्तक कहा जाता है - पढ़ने लायक किताब। और दूसरी पुस्तकें, दीन-हीन पुस्तकें, जो पाठ्य नहीं हैं। पाठ्यपुस्तक क्यों पाठ्य है? क्योंकि परीक्षा उससे जुडी हुई है। अगर पाठ्यपुस्तक कोई बच्चा कायदे से पढ़ेगा तो परीक्षा में उसके अच्छे अंक लेकर आने की सम्भावना बढ़ जाएगी। श्रेष्ठ बालक तो वो माना जाता है जो न केवल पाठ्यपुस्तक पढ़ता है बल्कि सिर्फ पाठ्यपुस्तक पढ़ता है और अन्य पुस्तकों की ओर देखता भी नहीं है। अगर आप माता-पिताओं का सर्वेक्षण करें (ऐसे सर्वेक्षण सन् 50 के दशक से ही लगातार होते रहे हैं) तो ऐसा विचार आपको आम तौर पर सुनने को मिलेगा कि बच्‍चा अनाप-शनाप किताबें पढ़ता रहता है। जो पढ़ने लायक हैं उस पर ध्‍यान नहीं देता है।
सामान्य किताबों को लेकर, खासकर साहित्य को लेकर लड़के और लड़क़ियों दोनों के सन्दर्भ में एक संशय हमारी संस्कृति में बहुत समय से विद्यमान रहा है। यह संशय लड़कियों के सन्दर्भ में विशेष इस्तेमाल किया जाता है। लड़कों के सन्दर्भ में कुछ कम, लेकिन दोनों के ही सन्दर्भ में इस्तेमाल होता है। यह संशय कुछ-कुछ उन्हीं रूपों में प्रकट होता है जिस तरह वो सिनेमा के सन्दर्भ में प्रकट होता है। हम लोगों की पीढ़ी में तो कहा ही जाता था कि सिनेमा देखोगे तो बरबाद हो जाओगे। सिनेमा भाग-भागकर देखना हमारी पीढ़ी के लिए एकमात्र विकल्प था। उस पीढ़ी में भी किसी शिक्षाविद् ने इस पर विचार नहीं किया कि क्या कारण है कि मार-मार कर तो बच्चा स्कूल जाता है लेकिन भाग-भाग कर सिनेमा जाता है? ऐसा क्या आकर्षण है सिनेमा में जो स्कूल में नहीं है? वह जीवन का कौन सा पक्ष है, जीवन के कौन से आयाम हैं जिनको स्कूल नहीं खोल पा रहा है? कुछ-कुछ यही हिस्सा साहित्य पर लागू होता है।
अनेक जीवनियों में आप ऐसे किस्से पढ़ेंगे कि जिन लोगों को साहित्य पढ़ने की इच्छा थी बचपन में उन्होंने भी पाठ्यपुस्तक में छिपाकर उपन्यास पढ़ा। ख़ासकर उपन्यास की विधा तो हमारी संस्कृति में बहुत समय से जब से इसका जन्म हुआ तभी से बदनाम रही है। क्योंकि उपन्यास को एक तो पढ़ने में समय लगता है और उसमें जीवन की कथा होती है। और बड़ों और बच्चों के बीच हमारे समाज में आधुनिक समय में रिश्ता ही कुछ ऐसा बना है कि बड़े यह नहीं चाहते हैं बच्चों को बचपन में ही जीवन के बारे में मालूम चल जाए। बहुत से प्रश्नों के उत्तर में बच्चों से बड़े कह भी देते हैं कि जब बड़े हो जाओगे तब सब समझ जाओगे। अभी तो नकाब पहनकर सिर्फ पढ़ाई करो।
कुछ बच्चों में येन-केन प्रकारेण किसी प्रकार रुचि हो भी जाती है बावजूद इसके कि हर व्यक्ति इस रुचि को तोड़ने की कोशिश करता है, हतोत्साहित करता है। पढ़ने की किताबों से वंचित रखने का प्रबन्ध हमारी संस्कृति - घरेलू भी, सामाजिक भी और स्कूल की संस्कृति भी - करती है, जिससे वह साहित्य की ओर कहीं प्रवृत्त न हो जाए। कविता भी कुछ इस तरह से काफी समय तक बदनाम रही है। कई बार मुझे लगता है कि आजकल जो हमारे समय में हिन्दी में कविता लिखी जाती है, जिसको आधुनिक कविता कहते हैं, वैसे ही लोकप्रिय नहीं है। उसके जन्म का संस्कार भी ऐसे ही पड़ा होगा कि अब यह कविता ऐसे लोगों को आकर्षित नहीं करेगी, तो कम से कम बदनाम तो नहीं होगी वरना पहले के समय में कविता के बारे में भी यही भावना थी कि इसमें जज्बात होते हैं, भावनाएँ होती हैं। कम से कम लड़कियों के लिए तो जज्बात उपयोगी नहीं माने जाते हैं। आजादी के आन्दोलन में ही यह बात विकसित होने लगी थी जब लगता था कि एक देशप्रेमी बनने के लिए जिस तरह का पौरुष जरूरी है साहित्य उस तरह के पौरुष को हटाएगा।
इस पूरे माहौल का कुछ-कुछ एहसास मुझको पहली बार अपनी एक ऐसी यात्रा में हुआ जिसमें एक बहुत ही अनोखी बात देखी। कुछ वर्ष पहले जब बर्लिन विश्वविद्यालय में एक दिन रहकर एक बहुत बड़ा आँगन देखने का मौका मिला। बहुत ही बड़ा आँगन! उस विशाल आँगन के बारे में हमें बताया गया था कि इस आँगन में 1930 के दशक के मध्‍य में बहुत बड़ी तादाद में विश्व साहित्य को जलाया गया था। इसको बुक बर्लिन ब्लास्ट के रूप में जाना जाता है। इसकी स्मृति में वहाँ बहुत खूबसूरत स्मारक बर्लिन विश्वविद्यालय ने बनवाया। हर वर्ष जिस दिन यहाँ किताबें बड़ी मात्रा में जलाई गई थीं, उस दिन बर्लिन विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों की ओर से एक बहुत बड़ा आयोजन होता है। उस मैदान को किताबों से भर दिया जाता है और उस मैदान पर उन हजारों लेखकों व कवियों के नाम भी लिखे जाते हैं जिनकी पुस्तकें वहाँ जलाई गई थीं। संयोग से मैं उस दिन वहाँ था जिस दिन यह आयोजन होना था। उन नामों से गुजरते हुए निगाहें एक नाम पर पड़ीं - टैगोर की ‘गीतांजलि’ पर। ‘गीतांजलि’ को भी वहाँ जलाया गया था।
मेरे एक मित्र जो कि वहाँ प्रोफेसर हैं, मैंने उनसे पूछा कि ये किताबें किस आधार पर चुनी गई थीं? उनकी संख्या दसियों हजार की तादाद में थी। तो उन्होंने बताया कि ये हिटलर के उत्कर्ष का युग था। नाजीवाद में मान्यता थी कि जो भी साहित्य मनुष्य की भावनाओं को जगाता है या भावनात्मक रूप से उसको गहराई देता है वो साहित्य जर्मनी को सबल नहीं बना सकता। अगर जर्मनी को एक मजबूत देश बनना है, एक पुरुषार्थी देश बनना है जो कि दुनियाभर पर हमला करके उसे जीत ले, तो ऐसा देश बनने के लिए ऐसे कमजोर लोगों से काम नहीं चल सकता है जिनकी भावनाएँ रह-रहकर  उमड़ती हों, इसलिए ऐसे सभी लेखकों को चुना गया था। ऐसे सभी कवियों को चुना गया था जो मनुष्य की भावनाओं को अभिव्यक्त करते हैं। भारत से यह गौरव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की मशहूर कृति ‘गीतांजलि’ को प्राप्त हुआ था जिसको नोबेल पुरस्कार मिला है। आँगन में उस दिन विश्व साहित्य का शायद ही कोई नाम होगा जो न लिखा हो। उस दिन की स्मृति में पूरे बर्लिन शहर में जगह-जगह किताबों को पढ़कर सुनाया जाता है। छोटे-छोटे बच्चों को लेकर दर्जनों की तादाद में माँएँ, पिता, आम लोग आते हैं। छोटे-छोटे कमरों में बैठकर रेस्तराओं मे बैठकर, चौराहों पर बैठकर, पार्क में बैठकर पूरे दिन पूरे शहर में देख सकते हैं कि लोग कोई किताब पढ़कर सुना रहे हैं। ऐसा माना जाता है कि नाजीवाद की तरह यह दिन भी जर्मनी के इतिहास का काला दिन था। इसलिए ऐसा दिन फिर कभी न आए, ऐसा करने के लिए इस दिन को एक महत्‍वपूर्ण तारीख मान लिया गया है।
बहुत सी ऐसी गुत्थियाँ हैं जो मेरे दिमाग में अपने देश को लेकर रही हैं और आज भी हैं। कुछ-कुछ उस दिन समझ में आईं कि हम लोग क्यों बच्चों के हाथ में किताब देने से संकोच करते हैं? क्यों सोचते हैं कि केवल मान्य पाठ्यपुस्तक जिसको सरकार ने लिखवाया हो, वही बच्चों के हाथ में जानी चाहिए। कोई अनाप-शनाप किताब उनके हाथ में न चली जाए। कौन-कौन सी शंकाएँ हमारे मन में हैं? कैसा संशय है किताब को लेकर? हमारे मन में इन संशयों ने आधुनिक समय में एक नया रूप भी हासिल किया है। आप देखते होंगे कि अक्सर शिक्षा व्यवस्था की आलोचना करते समय जिन जुमलों का, नारों का प्रयोग होता है उनमें से एक नारा यह भी होता है कि 'बुकिश लर्निंग’, क्या किताबी कीड़ा बन रहे हो, 'कुछ करके देखो।' मेरी प्रिय संस्था ‘किशोर भारती’ और ‘एकलव्य’ ने भी एक नारा इसी तरह दिया था ''लर्निंग बाइ डूइंग'',  जो कोई नया नारा नहीं है। उन्होंने हिन्दी में इसको प्रचारित किया और एक आन्दोलन खड़ा कर दिया, ''खुद करके देखो''। हालाँकि यह नारा विज्ञान के सन्दर्भ में था, पर यह कहीं न कहीं एक गहरे स्तर पर लोगों को किताब में दिए गए ज्ञान से कुछ-कुछ विरक्त और अपने हाथ से किए गए, अपने अनुभव से पैदा किए गए  ज्ञान के प्रति कुछ-कुछ अनुरक्त बनाने के लिए एक सूक्ष्म स्तर पर काम करता है। एक ऐसी संस्कृति में जहाँ किताब पहले ही दुर्लभ है, अगर प्रकट भी होती है तो प्राय: बदनाम हो जाती है। या बच्चों के हाथ तक नहीं पहुँचने दी जाती है। ऐसी संस्कृति में जो बुकिश लर्निंग या किताबी कीड़ा बनने से परहेज करनेवाली जो बातें हैं, ये भी कहीं न कहीं उस संस्कृति को उत्साहित करती है जिसमें किताब को सन्देह की दृष्टि से देखा जाता है।
सौ-डेढ़ सौ साल पहले आधुनिक शिक्षा की जो संस्कृति जन्मी उसमें भी तरह-तरह से आँख के काम या ज्यादा बारीकी से काम करने वाले विद्वान का मजाक उड़ाया जाता था। पहले इसलिए भी क्योंकि वो अँग्रेजी पढ़ लेता था लेकिन कुछ-कुछ इसलिए भी क्योंकि उससे हाथ से काम करने की प्रवृत्ति घट जाती थी। बहुत-सा आधुनिक शिक्षा-विज्ञान अगर आप इस दृष्टिकोण से देखें तो आपको लगेगा कि किताब को हटाकर हाथ के काम को प्रमुख बनाने का विज्ञान है। कोई आश्चर्य भी नहीं कि गाँधी को भी स्वयं यह काम करना पड़ा क्योंकि वास्तव में हमारे धर्म में यह बहुत महत्‍वपूर्ण हिस्सा था कि हम कैसे हाथ के अनुभव को महत्वपूर्ण बनाएँ। इसीलिए किताब की, किताबी आदमी की जिसकी आँख कमजोर हो गई है, जिसको चश्मा लग गया है, ऐसी चीजों की आलोचना करते हुए कुल मिलाकर हम किताबी संस्कृति की आलोचना करना उचित मानते हैं। भारतेन्दु ने 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में ही लिख दिया था कि ''घड़ी, छड़ी, चश्मा भये, छत्रिन के हथियार।'' ऐसी संस्कृति आई है कि नई शिक्षा  में क्षत्रियों ने तलवार की जगह अब चश्मा लगाना शुरू कर दिया है और कटार की जगह कलम इस्तेमाल करने लगे हैं। ये पूरा सन्दर्भ मैं इसलिए नहीं दे रहा हूँ जिससे कि कोई अनोखी, नई बात कही जाए बल्कि इसलिए दे रहा हूँ जिससे कि हम इस बात को समझें कि अगर पुस्तकालयों को, पुस्तक पढ़ने की संस्कृति को, वास्तव में एक जरूरत बनाना है समाज की, शिक्षा की, स्कूली व्यवस्था की, तो इसमें काम और सोच दोनों को ही काफ़ी गहराई से करना होगा।
भारत लगातार एक बदलता हुआ देश है। इसने बहुत कम समय में, मुश्किल से 150-200 वर्ष में कई ऐसी यात्राएँ की हैं जिनको यूरोप ने 400-500 वर्षों में किया। कई ऐसी यात्राएँ अभी भी चालू हैं जो हमारे जीवन में पूरी नहीं होंगी बल्कि कई पीढ़ियाँ इन यात्राओं में निकल जाएँगी। इन्हीं में से एक यात्रा है पढ़ने-लिखने की। पढ़ने-लिखने की संस्कृति को सामान्य बनाने की, हर इन्सान को किताबों के प्रति आकर्षित करने की, और किताब को एक ऐसा माध्‍यम बनाने की जिससे समाज में एक-दूसरे की बात सुनने की, एक दूसरे की बात सहने की, अपनी बात आत्मविश्वास के साथ कहने की तहजीब पैदा हो, चिल्लाकर कहने की नौबत न आए। हथियार उठाने की नौबत न आए। शान्ति की संस्कृति जो कि अपनी बात कहती है लेकिन उससे जब कोई सहमत नहीं होता तो इतना गुस्सा नहीं करती कि दूसरे को लगे कि उसकी बात बिल्कुल व्यर्थ है। ये एक राजनीतिक मसला भी है। इसमें एक सांस्कृतिक अनुगूँज है, एक ऐतिहासिक मसला भी है, और इसकी राजनीति आज के समय में आप देख ही रहे होंगे जहाँ किताबों का चयन अपने आप में अक्सर एक राजनीतिक प्रश्न बन जाता है। फिर पाठ्यपुस्तकों का निर्माण ही नहीं बल्कि सामान्य पुस्तकों का चयन भी एक राजनैतिक प्रश्न बन जाता है क्योंकि ये डर लगता है कि हमारी किताबें आएँगी या उनकी किताबें आएँगी। अगर किताबें पहुँचनी हैं तो बच्चों के हाथ में किनकी किताबें पहुँचें? क्योंकि हमारे माहौल में बच्चों पर भरोसा नहीं है किसी का, हर आदमी सोचता है कि हम बच्चों को अपनी तरह का इन्सान बना दें। बच्चे खुद कैसे इन्सान बनेंगे, इस बात में हमारे यकीन नहीं हैं। इसलिए लगातार एक कशिश, एक तनाव, समाज में उठने वाली हिंसा - मतों को लेकर, विचारों को लेकर, बातों को लेकर - पैदा होती रहती है।
दरअसल दूसरा हिस्सा जो मुझे अपनी बात का कहना है, वह यह कि आप पुस्तकालय की संस्कृति बनाने निकले हैं। लाइब्रेरियों का निर्माण करने निकलते हैं, सोचते हैं कि हम हर स्कूल में लाइब्रेरी बनाएँगे। हर कक्षा में लाइब्रेरी बनाएँगे या कि नगर-नगर में, गाँवों में लाइब्रेरी होगी, तो किन समस्याओं से हम पेश आते हैं। उनमें से कुछ का नजारा, कुछ की बानगी आपको नजर आ गई होगी। और शायद इनमें दो समस्याएँ सबसे प्रमुख हैं जिनकी ओर मैं संक्षेप में इशारा करना चाहूँगा। दोनों ही ऐसी समस्याएँ हैं जिनसे उस हर शख्स को पेश आना पड़ेगा जो एक छोटी-सी भी लाइब्रेरी बनाने के लिए निकला है। इसलिए पेश आना पडेग़ा क्योंकि लाइब्रेरी एक सार्वजनिक संस्था है।
अगर आप अपने घर में लाइब्रेरी बना रहे हैं तो एक अलग मसला है। अगर लाइब्रेरी का अर्थ ही है कि वह जगह जहाँ चार अपरिचित लोग आएँगे, तो आपका वास्ता इन दो समस्याओं से जरूर पड़ेगा जिनकी ओर मैं इशारा करने जा रहा हूँ। इनमें से पहली समस्या है चयन की, जिसकी ओर थोड़ा सा इशारा मैंने आपसे पहले किया - कि कौन सी किताबें आएँगी यहाँ? कौन चुनेगा इन किताबों को? किस आधार पर चुनेगा इन किताबों को? कौन होता है वो चुननेवाला? ये चारों प्रश्न एक साथ प्रकट होंगे। जब ये प्रश्न सरकारी सन्दर्भों में प्रकट होते हैं तो प्राय: इतने प्रच्छन रूप से प्रकट होते हैं कि आम जन को दिखाई नहीं देते कि ये कितने गम्भीर प्रश्न हैं। क्योंकि किताबों का मसला ऐसा नहीं है कि आप जेब में पैसे लेकर निकलें और बाजार से कुछ किताबें खरीदकर लाएँ। किताबें मिठाइयाँ नहीं हैं जो पहले से पता हो कि फलाने की दुकान पर मिलती हैं। किताबों का मसला बहुत ही जटिल है। अव्वल तो इतनी किताबें हैं और उनमें से कुछ को ही खरीदने की हमारी कुव्वत है। दूसरे, किताबें जगह लेती हैं और जगह लेती हैं तो इस तरह से लेती हैं कि पसरकर बैठ जाती हैं। एक बार आपने कुछ किताबें खरीद लीं तो जो जगह आपके स्कूल में या आपकी संस्था में थी, वो आपने भर ली। अब अगर आपको कुछ वर्ष बाद ये दिव्य ज्ञान हो भी कि वो किताबें बहुत अच्छी नहीं थीं, तो उन किताबों से मुक्ति पाना बड़ा मुश्किल काम है। क्योंकि अगर आप किताबों को हटाते हैं तो चार लोग आपकी आलोचना करना शुरू कर देंगे कि देखो किताबें हटा रहे हैं। आप उनको फाड़ेंगे, जलाएँगे तो वही समस्या आएगी जो मैंने आपसे पहले बताई। आपके मन में भी एक प्रश्न होगा कि मैं भी किताबों को नष्ट करनेवाला बन गया। कैसा आदमी हूँ? आप सोचेंगे कि अच्छा होता किसी को दे देते। तो आपके मन में दो बार यह खयाल ज़रूर आएगा कि जिन किताबों को मैं नहीं रखना चाहता वो दूसरों को देना कोई अच्छी बात है क्या? अगर ये किताबें अच्छी होतीं तो मैं ही इनको रखता और हम इन्हें दूसरों को दे रहे हैं जिसके पास मेरी तुलना में भी कम किताबें हैं। तो मैं उसको ऐसी किताब दूँ जो कि कुछ बेहतर हो लेकिन मैं वो किताबें दे रहा हूँ जो कि मैं हटाना चाहता हूँ। ये सारे प्रश्न किताबों को लेकर आपके मन में आएँगे।
किताबों का चयन एक बहुत ही मुश्किल काम है। जब सरकारें ऐसी समिति बनाती हैं जिसको ये जिम्मा दिया जाता है कि भई कुछ किताबों की सूची बनाओ तो समिति के सामने बड़े इस तरह के पेचीदा सवाल उभरते हैं कि हम कैसे ये सूची बनाएँ? अव्वल तो कोई ऐसा इन्सान नहीं होता जिसको पता हो कि दुनिया में जितनी तमाम किताबें हैं उनमें से कौन सी लेने लायक हैं। अगर पता हो, तो भी यह प्रश्न उठता है कि उस समिति में हर व्यक्ति की राय किस तरह शामिल हो पाएगी? सरकारी समितियों के साथ जो सबसे बड़ी सीमा होती है, समय की होती है। समिति आज बनी और उससे कहा जाता है कि 25 तारीख तक सूची जमा कर दो। उस बीच दस हजार किताबों में से उसको आठ सौ चुननी हैं। अगर वो व्यक्ति अरस्तु भी हो तो भी उसके लिए बड़ा मुश्किल है कि वो दस हज़ार किताबें 25 तारीख तक पढ़कर उसमें से आठ सौ चुन ले। अगर चार-छह आदमी उसमें हैं तो आप समझिए कि यह असम्भव है। तो प्राय: किताबों को यूँ ही पलटकर देखकर कह देते हैं कि हाँ भाई ठीक है ले लो। यहाँ पर अनेक प्रकार की भावनाएँ, अनेक प्रकार के पूर्वाग्रह काम आते हैं। बहुत से लोगों को वो किताबें ठीक लगती हैं जो उन्होंने खुद पढ़ रखी हैं बचपन में। बहुत से लोगों को नागवार गुजरती हैं जो उनके शत्रुओं ने पढ़ी हों। बहुत से लोगों को किताबें देखकर एहसास हो जाता है कि ये लेने लायक हैं या नहीं। हमारी व्यवस्था में तो आप जानते हैं इम्तिहान की कॉपी देखकर ही बहुत से लोगों को पता चल जाता है कि इसको 'साठ' नम्बर मिलने चाहिएँ, इसको 'चालीस'। हमारे यहाँ  इस तरह की बुक रीडिंग बहुत होती है या नोट बुक रीडिंग। ऐसी स्थिति में ये बड़ा मुश्किल होता है कि किताबों का चयन दिए गए समय में कैसे किया जाए? चयन के लिए प्राय: पुस्तकें पर्याप्त मात्रा में एक जगह उपलब्ध भी नहीं होतीं। और यहाँ आता है दूसरा पहलू जो इसी सन्दर्भ में मुझे आपके सामने रखना है। वो पहलू है एक ऐसे बाजार का जिसके अपने कोई नियम नहीं हैं। किताबों का बाजार, किताबों के निर्माण का उद्योग।
आप बहुत ज्यादा बुरा न मानें। हो सकता है आपकी भावनाओं को मैं आहत करूँ, इसलिए मैं पहले से ही भूमिका दे रहा हूँ। किताबों का बाजार, किताबों का उद्योग, उद्योगों में अगर गिना जाए तो सबसे भ्रष्ट उद्योगों में से है। जिसमें आज एक प्रकार की ऐसी तलछट देखने को मिलती है जिसमें से कोई चीज कायदे से ढूँढ़कर निकालना बड़ा मुश्किल है। कौन-सी किताब छपेगी? कौन-सी नहीं छपेगी? इसके आधार अधिकांश प्रकाशकों के पास नहीं हैं। अनाप-शनाप सब कुछ छपता है। और क्यों छप रहा है इसके भी अनेक कारण होते हैं। बहुत-सी पुस्तकें केवल इसलिए छपती हैं जिससे वे सरकारी बिक्री में आ सकें। बहुत से प्रकाशक अनेक नामों से पुस्तकें छापते हैं। बहुत से लेखक अनेक नामों से पुस्तकें लिखते हैं। इस पूरे जगत में कोई सामान्य इन्सान पहुँच जाए तो उसको वास्तव में लगेगा कि मैं कहाँ आ गया। इससे अच्छा तो मैं उस दुनिया में था जहाँ कोई किताब नहीं थी, जहाँ पेड़ ही थे, जानवर थे। वरना इस जगह पर यह तय करना कि ये किताब मेरे तक कैसे पहुँची, बड़ा मुश्किल काम है।
कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए हमको इस बात से कि अगर आप आज किसी डाइट के पुस्तकालय में जाएँ, सर्व शिक्षा अभियान के अन्तर्गत बहुत बड़ी मात्रा में किताबों की ख़रीद हुई है, गाँव-गाँव में पुस्तकें पहुँची हैं। ज्यादा नहीं, तीस-चालीस ही सही। पर आप वो स्कूल खुलवाकर उसकी लाइब्रेरी की अलमारी खुलवा कर गौर करें तो आप कुछ विलाप की मुद्रा में तुरन्त आ जाएँगे कि ये किताबें ली गई हैं। इन किताबों को कौन पढ़ेगा? बहुत-सी किताबें इसलिए ली गई हैं कि दिखने में कुछ शोख लग रही थीं, कुछ-कुछ इस तरह के उनके कवर थे जिस तरह से एक शादी का कार्ड होता है, चमकदार तेज रंग वाले चित्र उसमें थे। थोड़ा बारीकी से आप देखेंगे तो बड़े क्रूर चेहरे, अटपटी भाषा मिलेगी। किसी चीज़ पर कोई ध्‍यान नहीं दिया गया था फिर भी बिक गई क्योंकि मूल्य बहुत कम था। मूल्य इसलिए बहुत कम था क्योंकि असली मूल्य पहले ही दिया जा चुका था। तो जो छपा हुआ मूल्य है बहुत आकर्षक लगता है समिति को। नियम भी कुछ इस तरह के हैं कई बार, कि कोई किताब 8 रुपए में मिल रही है और उसके बरअक्‍स दूसरी किताब 48 रुपए में है, तो 8 रुपएवाली को प्राथमिकता मिलेगी। भले ही सबको पता हो कि 8 रुपए में आज कोई किताब नहीं छप सकती।
सरकार भी बहुत से संशय लेकर चलती है और कोशिश करती है कि भ्रष्टाचार कम से कम हो। पर किताबों का व्यवसाय ही ऐसा है कि जितने नियम भ्रष्टाचार को कम करने के लिए बनाए जाते हैं, ठीक उन्हीं नियमों की आड़ में भ्रष्टाचार बढ़ जाता है। और इस तरह से एक ऐसी परिस्थिति पैदा होती है जिसमें रह-रहकर बार-बार पैसा दिए जाने के बावजूद हमारी शिक्षण संस्थाओं में ऐसी किताबें नहीं पहुँच पाती हैं जो बच्चों को आकर्षित कर सकें, जो अध्यापकों को आकर्षित कर सकें। अगर आप पिछले 60-62 साल की कई योजनाओं पर विचार करें तो पाएँगे कि पहली योजना से लेकर आज 11वीं योजना तक शायद ही कोई पंचवर्षीय योजना रही हो जिसमें किताबों की खरीद के लिए प्रावधान न किया गया हो। एक-दो योजनाएँ तो बहुत बड़ी किताबों की खरीद लेकर आईं, जैसे कि ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड, जो कि नई शिक्षा नीति के सन्दर्भ में चला और उसमें भी ऐसे कई कांड हुए जिनमें से अभी भी कई का समाधान हो रहा है। किताबों की खरीद को लेकर बहुत बड़ी समस्याएँ उस पूरे ऑपरेशन में आईं। जब ये किताबें स्कूल पहुँचती हैं तो इनका चूँकि ऐसा कोई कारण स्कूल में इस्तेमाल का नहीं है, जैसा मैंने पहले भी कहा, तो ये किताबें पड़ी रहती हैं। इसलिए आनेवाले अधिकारियों को भी लगता है कि ये पैसा बरबाद हुआ। अब क्यों फिर से पैसा लगाया जाए।
तो मुझे आशा है कि आप में से बहुत से लोग इन प्रश्नों पर भी विचार करेंगे कि अगर हम अपनी स्कूली व्यवस्था में परीक्षा प्रणाली, अध्‍यापकों के प्रशिक्षण, इन तमाम चीजों पर अधिक ध्‍यान देकर और उन तमाम सांस्कृतिक, शैक्षणिक प्रश्नों से जूझ भी लें जिनकी ओर मैंने पहले इशारा किया और एक पढ़ने का माहौल और एक लाइब्रेरी की ज़रूरत पैदा कर भी दें, तो भी ये प्रश्न रहेगा कि इसमें किस प्रकार सामग्री पहुँचे। एक ऐसे बाज़ार से होकर इस सामग्री को पहुँचना है, जो बाज़ार अपने आप में बहुत नैतिक बाजार नहीं है। और इस वजह से उस पर निर्भर होना बहुत मुश्किल काम है।
तो एक तरह से जरूरत और समस्याओं के बाद मैं अपने तीसरे और अन्तिम हिस्से पर आता हूँ जहाँ में मुझे साधनों की बात करनी है। इस पूरे परिदृश्य में बदलाव लाने के क्या साधन हैं? खासकर दो साधनों की मुझे आपसे बात करनी है। एक तो शैक्षणिक साधन और दूसरे तकनीकी साधन। शैक्षणिक साधनों में सबसे महत्‍वपूर्ण साधन शायद वो साधन हैं जो कि पढ़ना सिखाने के शिक्षण को प्रभावित कर सकते हैं। ये एक ऐसा विषय है जिस पर एन.सी.ई.आर.टी. इस समय काफी गहराई से काम करने का प्रयास कर रही है। एन.सी.ई.आर.टी. ने एक रीडिंग डिवेलपमेंट सेल सर्व शिक्षा अभियान के अनुदान से खोला है। इस सेल में हमारी कोशिश है कि हम लोग नए तरह के पढ़ना सिखाने के कौशलों का प्रशिक्षण देश में प्रचारित कर सकें। इस सिलसिले में बाल साहित्य का इस्तेमाल, क्रमिक पुस्तकमाला का इस्तेमाल, नई तरह की सामग्री का इस्तेमाल हम देश के राज्यों में प्रसारित करने की कोशिश कर रहे हैं। इस पूरी परियोजना के पीछे पढ़ने को लेकर एक दृष्टि है। वो दृष्टि पढ़ने की स्थापित संस्कृति से विपरीत है या उसकी विपरीत दिशा में जाती है। पढ़ने की स्थापित संस्कृति आज पढ़ने को एक यांत्रिक कौशल के रूप में विकसित करती है। अगर आप जुलाई के आरम्‍भ में कक्षा 1 में जाएँ, तो अधिकांश सरकारी स्कूलों में और बहुत से प्रायव्हेट स्कूलों में भी आपको यही दृश्य देखने को मिलेगा कि बच्चे अक्षरों की आकृति से परिचित हो रहे हैं। उनके नाम याद कर रहे हैं और कुछ इस तरह की आवाज़ें आपको स्कूल से गुजरते समय आएँगी “क का कि की कु कू'' या कि ''अ आ इ ई'' या ''क पे उ की मात्रा कू। ग, पे, उ की मात्रा गू”। इस तरह से बच्चे रटते हुए आपको मिलेंगे जो कि अक्षरों और ध्‍वनियों के बीच सम्‍बन्ध बना रहे हैं। और ये सिलसिला कई महीनों तक चलेगा।
शिक्षा विज्ञान की दृष्टि से देखें तो ये सिलसिला न केवल पूर्णत: अवैज्ञानिक है, इसलिए अमान्य है, बल्कि साथ में ये एक बहुत दु:ख भरा सिलसिला भी है क्योंकि बच्चों के बारे में हम जानते हैं कि अगर बच्चों में सबसे तीव्र किसी बात की इच्छा होती है तो वो यही होती है कि वो संसार को समझें। ऐसा कोई भी अनुभव जो उनकी समझने की इच्छा को प्रोत्साहित नहीं करता, उद्दीप्त नहीं करता, ऐसा अनुभव उनको नागवार गुजरता है। ऐसे अनुभव से पेश आते समय उनको बड़ा कष्ट होता है। ये जो अनुभव है अक्षरों की आकृतियाँ पहचानना, वर्णमाला याद करना, उसके क्रम को समझना और उसके बाद ध्‍वनियों को याद करना और फिर अक्षरों और ध्‍वनियों में सम्बन्ध बिठाना, फिर मात्राओं को याद करना और इसके बाद कहीं जाकर पहला शब्द पढ़ने का मौक़ा मिलना, जैसे कि ''क म ल'', कक्षा 1 के बच्चे के लिए बहुत-ही बड़ी त्रासदी है।
यह कोई आश्चर्य नहीं है कि हमारे अनेक अध्‍ययन यह सिद्ध करते हैं कि पढ़ना सिखाने की यह पारम्‍परिक विधियाँ बहुत बड़े पैमाने पर बच्चों को स्कूल में आते रहने को निरुत्साहित करती हैं। क्योंकि पढ़ना सिखाने की ऐसी पद्धति जो कि उबाऊ हो और जिसमें बार-बार प्रयास करने पर भी बच्चा पढ़ना न सीख पाए, अन्तत: बच्चे को न केवल निराश करती है बल्कि दूसरों की निगाह में बदनाम भी करती है। दो-तीन महीने, चार महीने बाद भी अगर बच्चा कुछ नहीं पढ़ पाता तो जो ऐसे माता-पिता हैं जिन्होंने स्वयं पढ़ना नहीं सीखा था, वो बच्चे से पूछते हैं कि तुम चार महीनों से जा रहे हो, पढ़ना नहीं सीख पाए? इसका मतलब? इसका मतलब वो यह नहीं समझते हैं कि स्कूल में कोई कमी है। इसका मतलब वो समझते हैं कि बच्चे में कोई कमी है। वो कहते हैं इसका मतलब तुम बुद्धू हो। और अगर वो बच्चा लड़की हुआ तो आप मानकर चलिए कि उसको इससे ज्यादा समय नहीं दिया जाएगा। ठीक है तुम बकरी चराओ, छोटे बच्चों को देखो, पढ़ने से तुम्हारा कोई वास्ता नहीं है। तुम्हारा इतना दिमाग नहीं है। कक्षा 1 से 5 के बीच में ये दुर्घटनाएँ लगातार होती हैं। बहुत से सन्दर्भों में आप कई जगह, कई इलाकों में देखेंगे कक्षा 5 का बच्चा भी स्वतन्त्र रूप से पढ़ नहीं सकता है। बहुत से लोग इसी को लेकर व्यवस्था पर पिल पड़ते हैं कि “फिर आपने पाँचवीं में पहुँचाया ही क्यों?”
इस तरह के प्रश्न तमाम उठते हैं और मुझे आशा है कि आप भी इस पर विचार करेंगे। लेकिन इस पूरी चर्चा को यहाँ लाने का मैंने इसलिए सोचा कि जब तक पढ़ना सिखाने की विधियों में और वो भी एकदम शैशव काल में, बचपन में विकास नहीं होगा, बदलाव नहीं होगा, तब तक हमारा ये जो अरमान है कि लाइब्रेरी स्कूल का अंग बने, उसकी जरूरत बने और बच्चों में पढ़ने की इच्छा हो ये अरमान भी हमारा पूरा नहीं होगा। हमारी आज की स्कूली शिक्षा व्यवस्था या तो परीक्षार्थी बनाती है या बहुत साक्षर बनाती है। वो पाठक नहीं बनाती किसी को। इसी कारण से हम अपनी भाषाओं में देखते हैं कि बहुत अच्छे लेखक की किताब की हज़ार दो हजार प्रतियाँ बिक पाती  हैं। बल्कि दो हजार प्रतियाँ अगर हिन्दी में किसी उपन्यास की बिक जाएँ तो बहुत माना जाता है। भले ही 47 करोड़ लोगों की भाषा वाला देश है ये। बड़ा भारी प्रश्न है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था इतना समय लगाती है फिर भी पाठक क्यों नहीं बना पाती। माँग-माँगकर पढ़ने वाले बच्चे क्यों नहीं आ पाते?
कुछेक प्रदेश हैं जैसे केरल, बंगाल जिनमें पाठक बनते हैं। शिक्षा व्यवस्था की वजह से बनते हैं या कोई और सांस्कृतिक कारण है क्योंकि इन प्रदेशों में अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में किताबें बिकती हैं? यहाँ सार्वजनिक प्रयास हुए हैं। जैसे कि केरल शास्त्र साहित्य परिषद् ने बहुत बड़े पैमाने पर पुस्तकों की संस्कृति को केरल में विकसित किया। सार्वजनिक पुस्तकालयों के लिए 1930 के दशक से ही केरल में एक आन्दोलन जैसा चला जिसकी वजह से आज वहाँ के गाँव-गाव में पुस्तकालय मिलते हैं। कई समस्याओं को जिनको हम हिन्दी प्रदेश में आज भी झेल रहे हैं, उन समस्याओं को केरल जीत चुका है। ऐसा नहीं है कि वो चयन के प्रश्न को जीत चुका है। नहीं जीता, बल्कि अभी आपने देखा कि पिछले दिनों केरल में एक पुस्तक को लेकर इतना झगड़ा हुआ कि एक हेडमास्टर की हत्या कर दी गई जबकि उस पुस्तक से उसका कोई लेना देना नहीं था। उस पुस्तक की प्रतियाँ जलाई गईं उस प्रदेश में जिसको देश का सबसे साक्षर प्रदेश कहते हैं। ज़ाहिर है वो साक्षर तो हो गया लेकिन किताबों की संस्कृति के मामले में अभी बहुत निरक्षर है या कि असहनशील है। वरना एक किताब को जलाने की नौबत नहीं आती। उस किताब में कुछ ऐसा लिखा जिससे लोग सहमत नहीं थे, तो वो दूसरी किताब लिखते क्योंकि अन्तत: किताब का जवाब तो किताब ही है। किताबों का जवाब तो हर बच्चे के पास है, हर नागरिक के पास है। क्योंकि वो अगर सचमुच एक जीवित लोकतंत्र का नागरिक है तो उसमें इतनी कुव्वत होगी कि कौन-सी किताब में बकवास लिखी है और कौन-सी किताब में कोई ढंग की बात लिखी है। ये निर्णय अन्तत: नागरिक का है, बच्चे का है। उसके हाथ से किताब छीनकर पहले ही जला देना या छिपा देना जिससे वो न पढ़ने पाए, ये दृष्टिकोण कुछ-कुछ वैसा ही है जैसा कि मैंने कुछ समय पहले जर्मनी का दृष्टांत देते हुए आपके सामने रखने की कोशिश की थी।
अन्त में वो दूसरा साधन जिसकी ओर आजकल बहुत लोग आशा के दृष्टिकोण से देखते हैं,  ये जो नई सूचना प्रोद्यौगिकी है जिसको आई.सी.टी. के नाम से जाना जाता है। क्या ये नई संस्कृति किताबों की संस्कृति को प्रोत्साहित कर सकती है? अगर किताबों को छोड़ भी दें, तो क्या यह पढ़ने की संस्कृति को प्रोत्साहित कर सकती है। बहुत पेचीदा प्रश्न है क्योंकि इसमें सन्देह नहीं कि इस टेक्नॉलॉजी की मदद से आज ये सम्भव हुआ है कि बहुत से लोग जो कि किताबों से वंचित रखे गए हैं, जिनके गाँव शहर तक किताबें नहीं पहुँचतीं, वो भी किसी प्रकार उन विचारों को खुद पढ़ सकें जिन विचारों को वो किताबों में नहीं पढ़ सकें। आज यह सम्भव हुआ है और इस दृष्टिकोण से देखें तो ये टेक्नॉलॉजी हमारे सामने एक ऐसा बिहान जगाती है, ऐसा लगता है कि एक ऐसी सुबह होने जा रही है जैसी सुबह कभी किसी ने देखी नहीं है। लेकिन परेशानियाँ भी हैं।
परेशानियाँ इस कारण हैं कि जो समस्याएँ किताबों के जंगल से किताबें बीनकर ख़रीदने में होती थी वो इंटरनेट के जंगल में भी वैसी ही हैं। क्योंकि इंटरनेट का जंगल भी कोई बहुत नैतिक जंगल नहीं है। डार्विन ने कहा था कि जंगल का मतलब ही यह है कि जहाँ शक्ति का बोलबाला हो, नीति का स्थान न हो। वो बात तो वहाँ भी लागू होती है और हर तरह की सूचना वहाँ उपलब्ध है। दुनिया में हज़ारों की मात्रा में गुमराह किए जाते हुए युवक भी इंटरनेट के विश्वविद्यालय से ही पढ़ रहे हैं। लाखों की मात्रा में निराश होते हुए विकृत मानसिकता की ओर बढ़ते हुए बच्चों के लिए भी इंटरनेट का रास्ता खुला हुआ है। इंटरनेट पर किसी का जोर नहीं है। अगर इंटरनेट को इस्तेमाल करना है, स्कूल की संस्कृति में पढ़ने-लिखने की जगह बनाने के लिए, सुनने-सुनाने की जगह बनाने के लिए, एक अहिंसक शांतिपूर्ण जगह बनाने के लिए, तो भी अंत में हमारे पास इसका कोई विकल्प नहीं होगा कि हम एक ऐसे जगत की कल्पना करें जिसमें क्या बकवास है और क्या नहीं है, यह निर्णय करने का अधिकार भी विद्यार्थी के पास हो और इस निर्णय को करने की क्षमता भी उसमें विकसित की जा चुकी हो।
दूसरा मसला है, आई.सी.टी. के विद्वान भी बहुत स्पष्ट नहीं बता पा रहे हैं कि क्या आई.सी.टी. में वो क्षमता है या वो क्षमता उस पीढ़ी को दिखलाई दे रही है, जो किताबों की मदद से जिज्ञासा पैदा कर सकी, बनाए रख सकी? आज आई.सी.टी. की मदद से उसको पूरा किए ले रही है। लेकिन कल के दिन अगर सिर्फ आई.सी.टी. ही होगी और किताबें नहीं होंगी तो क्या वैसा माहौल पैदा हो पाएगा कि हम बच्चे से उम्मीद करें कि वो कोई प्रश्न लेकर मन में चले और उसका तुरन्त उत्तर न मिलने पर निराश न हो, महीनों तक उसकी खोज करता रहे, अनेक तरह की चीजें पढ़ता रहे, देखता रहे तब जाकर उसके मन में कोई विचार बने।
शिक्षा के बहुत महत्‍वपूर्ण मूल्यों में से एक है अनिश्चय में रहना, फिर भी सुखी रहना। आई.सी.टी. की संस्कृति में कहीं न कहीं समय का प्रबन्धन एक बहुत बड़ा प्रश्न है। जैसे कि पारम्‍परिक लाइब्रेरी के निर्माण में जगह का प्रबन्धन एक बहुत बड़ी समस्या थी वैसे ही आई.सी.टी. के संदर्भ में समय का प्रबन्धन बहुत मुश्किल है। क्योंकि ये जो नई टेक्नॉलॉजी है ये जगह तो नहीं माँगती लेकिन समय को लेकर एक नई समस्या पैदा करती है कि इनके आने के बाद किसी में धैर्य नहीं रहता। लोग तुरन्त अपने प्रश्न का उत्तर चाहते हैं और तुरन्त अगर कोई जवाब नहीं मिलता तो निराश हो जाते हैं। मैं देखता हूँ कि अगर आप किसी के ई-मेल का जवाब हफ्ता दो हफ्ता न दें तो वो सोचता है कि अब आप सचमुच सरकारी अधिकारी बन गए। यानी कि अब आप कुन्द हो गए। ई-मेल लिखने वाले को लगता है कि जितना समय मुझे इसको भेजने में लगा उतना ही समय आपको इसको समझने में लगना चाहिए। इतने ही समय में आपको इसका जवाब दे देना चाहिए। ई-मेल, इंटरनेट का एक पहलू भर है लेकिन वो इसकी सांस्कृतिक संरचना भी है। वो एक मानसिक संरचना भी है। किताबों की संस्कृति और आई.सी.टी. की संस्कृति में समय के प्रबन्धन को लेकर एक गहरी बहस छिपी हुई है, फंसी हुई है। मुझे आशा है आप इस बहस को आज शुरू करेंगे छोटे समूहों में। इससे जुड़े हुए प्रश्न उभारेंगे। (प्रो. कृष्ण कुमार का यह व्‍याख्‍यान विद्याभवन सोसायटी द्वारा प्रकाशित पत्रिका ‘खोजबीन’ में प्रकाशित हुआ था।)

बहुभाषाभाषी साहित्य शिल्पी राम प्रसाद 'बिस्मिल'


राम प्रसाद 'बिस्मिल' भारत के महान क्रान्तिकारी व अग्रणी स्वतन्त्रता सेनानी, उच्च कोटि के कवि, शायर, अनुवादक, बहुभाषाभाषी, इतिहासकार व साहित्यकार थे जिन्होंने भारत की आजादी के लिये अपने प्राणों की आहुति दे दी। 'बिस्मिल' उनका उर्दू तखल्लुस (उपनाम) था जिसका हिन्दी में अर्थ होता है आत्मिक रूप से आहत। बिस्मिल के अतिरिक्त वे राम और अज्ञात के नाम से भी लेख व कवितायें लिखते थे। उन्होंने सन् १९१६ में १९ वर्ष की आयु में क्रान्तिकारी मार्ग में कदम रखा और ३० वर्ष की आयु में फाँसी चढ़ गये। ग्यारह वर्ष के क्रान्तिकारी जीवन में उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं जिनमें से ग्यारह उनके जीवन काल में प्रकाशित भी हुईं। ब्रिटिश सरकार ने उन सभी पुस्तकों को ज़ब्त कर लिया।
राम प्रसाद बिस्मिल ने कई महीने यहाँ के निर्जन जंगलों में घूमते हुए गाँव के गुर्जर लोगों की गाय भैंस चराईं। इसका बड़ा रोचक वर्णन उन्होंने अपनी आत्मकथा के द्वितीय खण्ड : स्वदेश प्रेम में किया है। यहीं रहकर उन्होंने अपना क्रान्तिकारी उपन्यास बोल्शेविकों की करतूत लिखा। वस्तुतः यह उपन्यास मूलरूप से बांग्ला भाषा में लिखित पुस्तक निहिलिस्ट-रहस्य का हिन्दी - अनुवाद है जिसकी भाषा और शैली दोनों ही बड़ी रोचक हैं। अरविन्द घोष की एक अति उत्तम बांग्ला पुस्तक यौगिक साधन का हिन्दी - अनुवाद भी उन्होंने भूमिगत रहते हुए ही किया था। उन्होंने १९१८ में प्रकाशित अँग्रेजी पुस्तक दि ग्रेण्डमदर ऑफ रसियन रिवोल्यूशन का हिन्दी - अनुवाद इतना अच्छा किया कि उनके सभी साथियों को यह पुस्तक बहुत पसन्द आयी। इस पुस्तक का नाम उन्होंने कैथेराइन रखा था। इतना ही नहीं, बिस्मिल ने सुशीलमाला सीरीज से कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित कीं थीं जिनमें मन की लहर नामक कविताओं का संग्रह, कैथेराइन या स्वाधीनता की देवी - कैथेराइन ब्रश्कोवस्की की संक्षिप्त जीवनी, स्वदेशी रंग व उपरोक्त बोल्शेविकों की करतूत नामक उपन्यास प्रमुख थे। स्वदेशी रंग के अतिरिक्त अन्य तीनों पुस्तकें आम पाठकों के लिये आजकल पुस्तकालयों में उपलब्ध हैं।
 क्रान्तिकारी पार्टी की ओर से १ जनवरी १९२५ को किसी गुमनाम जगह से प्रकाशित एवं २८ से ३१ जनवरी १९२५ के बीच समूचे हिन्दुस्तान के सभी प्रमुख स्थानों पर वितरित ४ पृष्ठ के पैम्फलेट "दि रिवोल्यूशनरी" में राम प्रसाद बिस्मिल ने विजय कुमार के छद्म नाम से अपने दल की विचार-धारा का लिखित रूप में खुलासा करते हुए साफ शब्दों में घोषित कर दिया था कि क्रान्तिकारी इस देश की शासन व्यवस्था में किस प्रकार का बदलाव करना चाहते हैं और इसके लिए वे क्या-क्या कर सकते हैं? केवल इतना ही नहीं, उन्होंने गान्धी जी की नीतियों का मजाक बनाते हुए यह प्रश्न भी किया था कि जो व्यक्ति स्वयं को आध्यात्मिक कहता है वह अँग्रेजों से खुलकर बात करने में डरता क्यों है? मरने से पूर्व आत्मकथा के रूप में वे एक ऐसी धरोहर हमें अवश्य सौंप गये जिसे आत्मसात् करके हिन्दुस्तान ही नहीं, सारी दुनिया में लोकतन्त्र की जड़ें मजबूत की जा सकती हैं। यद्यपि उनकी यह अद्भुत आत्मकथा आज इण्टरनेट पर मूल रूप से हिन्दी भाषा में भी उपलब्ध है। प्रताप प्रेस कानपुर से काकोरी के शहीद नामक पुस्तक के अन्दर जो आत्मकथा प्रकाशित हुई थी उसे ब्रिटिश सरकार ने न केवल जब्त किया अपितु अँग्रेजी भाषा में अनुवाद करवाकर समूचे हिन्दुस्तान की खुफिया पुलिस व जिला कलेक्टर्स को सरकारी टिप्पणियों के साथ भेजा भी था कि इसमें जो कुछ राम प्रसाद बिस्मिल ने लिखा है वह एक दम सत्य नहीं है। उसने सरकार पर जो आरोप लगाये गये हैं वे निराधार हैं।
भारतवर्ष को ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्त कराने में यूँ तो असंख्य वीरों ने अपना अमूल्य बलिदान दिया परन्तु राम प्रसाद बिस्मिल एक ऐसे अद्भुत क्रान्तिकारी थे जिन्होंने अत्यन्त निर्धन परिवार में जन्म लेकर साधारण शिक्षा के बावजूद असाधारण प्रतिभा और अखण्ड पुरुषार्थ के बल पर हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ के नाम से देशव्यापी संगठन खड़ा किया जिसमें एक - से - बढकर एक तेजस्वी व मनस्वी नवयुवक शामिल थे जो उनके एक इशारे पर इस देश की व्यवस्था में आमूल परिवर्तन कर सकते थे किन्तु अहिंसा की दुहाई देकर उन्हें एक-एक करके मिटाने का क्रूरतम षड्यन्त्र जिन लोगों ने किया उनके नाम का सिक्का आज पूरे भारत में चलता है।
वर्ष १९८५ में विज्ञान भवन नई दिल्ली में आयोजित भारत और विश्व साहित्य पर अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में एक भारतीय प्रतिनिधि ने अपने लेख के साथ पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल की कुछ लोकप्रिय कविताओं का द्विभाषिक काव्य रूपान्तर (हिन्दी-अंग्रेजी) में प्रस्तुत किया था जिसे उनकी पुस्तकों से साभार उद्धृत करके यहाँ दिया जा रहा है ताकि हिन्दी के पाठक भी उन रचनाओं का आनन्द ले सकें।
सरफरोशी की तमन्ना
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है?
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आस्माँ!
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है?
रहबरे-राहे-मुहब्बत! रह न जाना राह में,
लज्जते-सेहरा-नवर्दी दूरि-ए-मंजिल में है।
खींच कर लायी है सब को कत्ल होने की उम्मीद,
आशिकों का आज जमघट कूच-ए-कातिल में है।
अब न अगले वल्वले हैं और न अरमानों की भीड़,
एक मिट जाने की हसरत अब दिले-'बिस्मिल' में है ।
बिस्मिल की उपरोक्त गज़ल क्रान्तिकारी जेल से पुलिस की लारी में अदालत में जाते हुए, अदालत में मजिस्ट्रेट को चिढ़ाते हुए व अदालत से लौटकर वापस जेल आते हुए कोरस के रूप में गाया करते थे। बिस्मिल के बलिदान के बाद तो यह रचना सभी क्रान्तिकारियों का मन्त्र बन गयी। जितनी रचना यहाँ दी जा रही है वे लोग उतनी ही गाते थे।
जज्वये-शहीद
हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रह कर,
हमको भी पाला था माँ-बाप ने दुःख सह-सह कर ,
वक्ते-रुख्सत उन्हें इतना भी न आये कह कर,
गोद में अश्क जो टपकें कभी रुख से बह कर ,
तिफ्ल उनको ही समझ लेना जी बहलाने को !
अपनी किस्मत में अजल ही से सितम रक्खा था,
रंज रक्खा था मेहन रक्खी थी गम रक्खा था ,
किसको परवाह थी और किसमें ये दम रक्खा था,
हमने जब वादी-ए-ग़ुरबत में क़दम रक्खा था ,
दूर तक याद-ए-वतन आई थी समझाने को !
अपना कुछ गम नहीं लेकिन ए ख़याल आता है,
मादरे-हिन्द पे कब तक ये जवाल आता है ,
कौमी-आज़ादी का कब हिन्द पे साल आता है,
कौम अपनी पे तो रह-रह के मलाल आता है ,
मुन्तजिर रहते हैं हम खाक में मिल जाने को !
नौजवानों! जो तबीयत में तुम्हारी खटके,
याद कर लेना कभी हमको भी भूले भटके ,
आपके अज्वे-वदन होवें जुदा कट-कट के,
और सद-चाक हो माता का कलेजा फटके ,
पर न माथे पे शिकन आये कसम खाने को !
एक परवाने का बहता है लहू नस-नस में,
अब तो खा बैठे हैं चित्तौड़ के गढ़ की कसमें ,
सरफ़रोशी की अदा होती हैं यूँ ही रस्में,
भाई खंजर से गले मिलते हैं सब आपस में ,
बहने तैयार चिताओं से लिपट जाने को !
सर फ़िदा करते हैं कुरबान जिगर करते हैं,
पास जो कुछ है वो माता की नजर करते हैं ,
खाना वीरान कहाँ देखिये घर करते हैं!
खुश रहो अहले-वतन! हम तो सफ़र करते हैं ,
जा के आबाद करेंगे किसी वीराने को !
नौजवानो ! यही मौका है उठो खुल खेलो,
खिदमते-कौम में जो आये वला सब झेलो ,
देश के वास्ते सब अपनी जबानी दे दो ,
फिर मिलेंगी न ये माता की दुआएँ ले लो ,
देखें कौन आता है ये फ़र्ज़ बजा लाने को ?
मुखम्मस में प्रत्येक बन्द या चरण ५-५ पंक्ति का होता है पहले चरण में एक-सी लयबद्धता होती है और बाद के सभी बन्द अन्तिम पंक्ति में उसी लय में आबद्ध होते रहते हैं।
बिस्मिल का यह उपरोक्त उर्दू मुखम्मस भी उन दिनों सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ करता था यह उनकी अद्भुत रचना है यह इतनी अधिक भावपूर्ण है कि लाहौर कान्स्पिरेसी केस के समय जब प्रेमदत्त नाम के एक कैदी ने अदालत में गाकर सुनायी थी तो श्रोता रो पडे थे। जज अपना फैसला तत्काल बदलने को मजबूर हो गया और उसने प्रेमदत्त की सजा उसी समय कम कर दी थी। अदालत में घटित इस घटना का उदाहरण भी इतिहास में दर्ज हो गया।
जिन्दगी का राज
चर्चा अपने क़त्ल का अब दुश्मनों के दिल में है,
देखना है ये तमाशा कौन सी मंजिल में है ?
कौम पर कुर्बान होना सीख लो ऐ हिन्दियो !
ज़िन्दगी का राज़े-मुज्मिर खंजरे-क़ातिल में है !
साहिले-मक़सूद पर ले चल खुदारा नाखुदा !
आज हिन्दुस्तान की कश्ती बड़ी मुश्किल में है !
दूर हो अब हिन्द से तारीकि-ए-बुग्जो-हसद ,
अब यही हसरत यही अरमाँ हमारे दिल में है !
बामे-रफअत पर चढ़ा दो देश पर होकर फना ,
'बिस्मिल' अब इतनी हविश बाकी हमारे दिल में है !
बिस्मिल की उपरोक्त गजल में जीवन का वास्तविक दर्शन निहित है शायद इसीलिये उन्होंने इसका नाम राजे मुज्मिर या जिन्दगी का राज मुजमिर (कहीं-कहीं यह भी मिलता है) दिया था। वास्तव में अपने लिये जीने वाले मरने के बाद विस्मृत हो जाते हैं पर दूसरों के लिये जीने वाले हमेशा-हमेशा के लिये अमर हो जाते हैं।
बिस्मिल की तड़प
मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या !
दिल की बर्वादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या !
मिट गईं जब सब उम्मीदें मिट गए जब सब ख़याल ,
उस घड़ी गर नामावर लेकर पयाम आया तो क्या !
ऐ दिले-नादान मिट जा तू भी कू-ए-यार में ,
फिर मेरी नाकामियों के बाद काम आया तो क्या !
काश! अपनी जिंदगी में हम वो मंजर देखते ,
यूँ सरे-तुर्बत कोई महशर-खिराम आया तो क्या !
आख़िरी शब दीद के काबिल थी 'बिस्मिल' की तड़प ,
सुब्ह-दम कोई अगर बाला-ए-बाम आया तो क्या !
गोरखपुर जेल से चोरी छुपे बाहर भिजवायी गयी इस गजल में प्रतीकों के माध्यम से अपने साथियों को यह सन्देशा भेजा था कि अगर कुछ कर सकते हो तो जल्द कर लो वरना सिर्फ पछतावे के कुछ भी हाथ न आयेगा लेकिन इस बात का उन्हें मलाल ही रह गया कि उनकी पार्टी का कोई एक भी नवयुवक उनके पास उनका रिवाल्वर तक न पहुँचा सका। उनके अपने वतन शाहजहाँपुर के लोग भी इसमें भाग दौड के अलावा कुछ न कर पाये। बाद में इतिहासकारों ने न जाने क्या-क्या मन गढन्त लिख दिया।
बिस्मिल के साहित्य का अनुसन्धान व प्रकाशन
उन्होंने १९ वर्ष की आयु में क्रान्ति के कण्टकाकीर्ण मार्ग में प्रवेश किया और ३० वर्ष की आयु में कीर्तिशेष होने तक अपने जीवन के मूल्यवान ११ वर्ष देश को स्वतन्त्र कराने में लगा दिये। आज तक राम प्रसाद बिस्मिल की जो भी प्रामाणिक पुस्तकें पुस्तकालयों में उपलब्ध हैं, उनका विवरण इस प्रकार है:
    सरफरोशी की तमन्ना (भाग एक): क्रान्तिकारी बिस्मिल के सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व का लेखक द्वारा २५ अध्यायों में सन्दर्भ सहित समग्र मूल्यांकन।
    सरफरोशी की तमन्ना (भाग दो): अमर शहीद राम प्रसाद 'बिस्मिल' की २०० से अधिक जब्तशुदा आग्नेय कवितायें सन्दर्भ सूत्र व छन्द संकेत सहित।
    सरफरोशी की तमन्ना (भाग तीन): अमर शहीद राम प्रसाद 'बिस्मिल' की मूल आत्मकथा-निज जीवन की एक छटा, १९१६ में जब्त अमेरिका की स्वतन्त्रता का इतिहास, बिस्मिल द्वारा बाँग्ला से हिन्दी में अनूदित यौगिक साधन (मूल रचनाकार: अरविन्द घोष), तथा बिस्मिल द्वारा मूल अँग्रेजी से हिन्दी में लिखित संक्षिप्त जीवनी कैथेराइन या स्वाधीनता की देवी ।
    सरफरोशी की तमन्ना (भाग चार): क्रान्तिकारी जीवन (बिस्मिल के स्वयं के लेख तथा उनके व्यक्तित्व पर अन्य क्रान्तिकारियों के लेख)।
    क्रान्तिकारी बिस्मिल और उनकी शायरी संकलन/अनुवाद: 'क्रान्त'(भूमिका: डा० रामशरण गौड सचिव हिन्दी अकादमी दिल्ली) बिस्मिल की उर्दू कवितायें (देवनागरी लिपि में) उनके हिन्दी काव्यानुवाद सहित।
    बोल्शेविकों की करतूत: स्वतन्त्र भारत में प्रथम बार सन् २००६ में प्रकाशित रामप्रसाद 'बिस्मिल' का क्रान्तिकारी उपन्यास।
    मन की लहर: स्वतन्त्र भारत में प्रथम बार सन् २००६ में प्रकाशित रामप्रसाद 'बिस्मिल' की कविताओं का संकलन।
    क्रान्ति गीतांजलि: स्वतन्त्र भारत में प्रथम बार सन् २००६ में प्रकाशित रामप्रसाद 'बिस्मिल' की कविताओं का संकलन।
इनके अतिरिक्त रामप्रसाद 'बिस्मिल' की जिन अन्य पुस्तकों का विवरण मिलता है, उनके नाम इस प्रकार हैं-
    मैनपुरी षड्यन्त्र,
    स्वदेशी रंग,
    चीनी-षड्यन्त्र (चीन की राजक्रान्ति),
    तपोनिष्ठ अरविन्द की कैद-कहानी,
    अशफाक की याद में,
    सोनाखान के अमर शहीद-'वीरनारायण सिंह',
    जनरल जार्ज वाशिंगटन
    अमरीका कैसे स्वाधीन हुआ?

आंच : सूर्यपाल सिंह


बजरंग बिहारी तिवारी

सन् 1857 इतिहासकारों, समाजशास्त्रियों, राजनीतिशास्त्रियों के साथ साहित्यकारों का भी प्रिय विषय रहा है. कई उपन्यास व तमाम कहानियां प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के इर्द-गिर्द बुनी गई हैं. वरिष्ठ कथाकार सूर्यपाल सिंह का उपन्यास आंच इसी कड़ी को आगे बढ़ाने का काम करता है. सृजन की एक परंपरा में होते हुए भी आंच के सरोकार नए हैं.
अवध में अंग्रेजी राज कायम होना, नवाब वाजिद अली शाह की बेदखली, दिल्ली में बहादुरशाह जफर को बंदी बना कर रंगून भिजवाना उपन्यास के पूर्वपरिचित कथा-पड़ाव हैं. उपन्यास में दोनों चरित्रों को ऐसे पेश कि या गया है कि उनकी हालत करुणा उपजाती है. स्थापित साक्ष्यों को बरकरार रखना ऐतिहासिक उपन्यास लेखन की शर्तों में शामिल है. पहले से ज्ञात घटनाक्रम सृजनात्मक कल्पना के अवसर क्षीण कर देते हैं. ऐसे में साहित्य और इतिहास की रचनाधर्मी संगति बना पाना खासा कठिन होता है. सूर्यपाल ने इसके लिए पूरी कोशिश की है. तथ्यों से छेड़छाड़ किए बगैर. उपन्यास में बद्री, हम्जा, ईमान और मौलवी फखरुद्दीन जैसे पात्र सूर्यपाल की ही सृष्टि हैं.
पर उपन्यास का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष बेगम हजरत महल का जीवन है. नवाब वाजिद अली शाह के अंतःपुर की इस अज्ञातकुल औरत के साथ उपन्यासकार ने भरसक न्याय किया है. तवायफों के एक कोठे की मालकिन अमामन को कहीं से एक लड़की मिली. उन्होंने उसे नाम दिया आयशा. कोठे की रस्म के मुताबिक नाचना-गाना सिखाया. उसकी आवाज और घुंघरू की लय नवाब के कानों तक पहुंची. शाही महल पर बुलावा हुआ. वाजिद अली उसकी कलादक्षता और खूबसूरती पर रीझ गए और नाम दिया महकपरी. नवाब ने उससे निकाह भी कर लिया.
फिर नाम बदला इफ्तिखारुन्निसा बेगम. कोठे से छूटी आयशा परीखाने में कैद हो गई. उसने बेगमों की ‘घाघरा पलटन’ बनाई. इफ्तिखारुन्निसा ने मल्लिका-ए-आलिया से वचन ले लिया कि नवाब नई शादी नहीं करेंगे. नवाब का मन फिर एक बांदी पर आया. मलिका से उन्हें अनुमति न मिली. खैर, इफ्तिखारुन्निसा ने नवाब के बेटे को जन्म दिया, जिसका नाम पड़ा बिर्जीस कद्र. मां बनने के बाद इफ्तिखारुन्निसा को नया नाम मिला-हजरत महल. पहले ही महल से निकाली जा चुकीं हजरत महल ने परीखाने में वापसी से इनकार कर दिया. लखनऊ में विद्रोहियों और अंग्रेजी फौज में युद्ध चल पड़ा. पंचायत बैठी और हजरत महल की हिम्मत ने उनके बेटे बिर्जीस कद्र को गद्दीनशीन किया. नाबालिग बिर्जीस की संरक्षिका हजरत महल को बनाया गया. उन्होंने शासन अपने हाथ में लिया. अवध के सभी राजाओं और बागियों को इकट्ठा कर अंग्रेजी सेना को भरपूर टक्कर दी.
इस उपन्यास में सूचनाएं और विवरण खूब हैं. कई बार लगता है कि यह कोई कथा-कृति नहीं है. लेकिन उपन्यासकार कथा-अन्विति को फिर-फिर जोड़ देता है. आजमगढ़ से लेकर कानपुर तक हजरत महल की सघन सक्रियता आंच का प्राणतत्व है. अवाम के बीच से राजमहल तक पहुंची इस स्त्री का रेखांकन भारतीय इतिहास में युगांतर की सूचना है. हजरत महल की यह कहानी क्षेपक की तरह जोड़े गए पहले अध्याय ‘अथ जिज्ञासा’ की अनु नामक पात्र की जबानी पेश की गई है. नाना की बेटी, महिला सेना की प्रमुख नैना, स्वतंत्रता सेनानियों की मदद करने वाली अजीजन बाई, ऊदा देवी, झलकारी बाई, लक्ष्मी बाई आदि चरित्रों को जोड़ दें तो यह उपन्यास 1857 को स्त्री-दृष्टि से, स्त्री-चरित्रों के माध्यम से रचता है. (आजतक से साभार)

सच हुए सपने : रश्मि बंसल


हर ओर जब भ्रष्टाचार और स्वार्थ का शोर सुनाई दे रहा हो और हर दूसरी खबर किसी काले कारनामे से जुड़ी हो. ऐसे माहौल में इस किताब का हाथ में आना वाकई किसी सुखद एहसास से कम नहीं है. इसे पढऩे के बाद कहा जा सकता है कि उम्मीद अभी बाकी है. स्टे हंगरी स्टे फुलिश और करेक्ट द डॉट जैसी बेस्टसेलर किताबें लिखने वाली रश्मि बंसल की यह किताब उम्मीदें जगाने वाले 20 लोगों से रू-ब-रू कराती है. ये वे लोग हैं जिन्होंने सवा सौ करोड़ अन्य भारतीयों के विपरीत अपने कंफर्ट जोन से आगे बढ़कर कुछ करने की ठानी है. ये ऐसे 20 सामाजिक उद्यमी हैं जो हम आप में से ही हैं लेकिन ये किसी की व्यथा को देखकर उस पर दुख जताकर अपना फर्ज निभाने वाले नहीं हैं. उन्होंने जो सोचा उसी राह पर बढ़े और फिर पलटकर नहीं देखा. फिर चाहे राह में कितनी भी परेशनियां क्यों न आएं.
हमेशा से कहा जाता रहा है कि क्रांति सबसे पहले खुद से ही शुरू होती है. कुछ ऐसा ही सपने सच हुए में रश्मि बंसल ने भी कहा है. इस किताब को पढ़ते हुए नेपोलियन की बात दिमाग में दौड़ जाती है, ‘‘अगर आप चाहते हैं कि कोई चीज उत्कृष्ट तरीके से हो तो आप उसे खुद कीजिए.’’ सभी कहानियां यही बात चरितार्थ करती लगती हैं.
रश्मि ने किताब को इंटरेस्टिंग बनाने के लिए इसे तीन हिस्सों में बांटा है: मेघदूत, परिवर्तनकर्ता और दैवीय पूंजीपति. मेघदूत में शौचालय प्रसाधन क्रांति के जनक सुलभ इंटरनेशनल के बिंदेश्वर पाठक से शुरुआत की गई है. एक ब्राह्मण जिसने भारत में मैला ढोने वालों को उनके कार्यों से मुक्ति दिलाने में अहम भूमिका निभाई. बिंदेश्वर किताब में कहते हैं, ‘‘हम महसूस करते हैं कि वैश्वीकरण का लाभ निर्धन तक पहुंचे. यह काम दिमाग से नहीं, केवल दिल से हो सकता है.’’ इसी दिल की बात को सुनकर ही उन्होंने सुलभ इंटरनेशनल के जरिए एक क्रांति को जन्म दिया.
परिवर्तनकर्ता में सुपर-30 के आनंद कुमार एक ऐसा नाम हैं, जिन्होंने हजारों गरीब बच्चों का जीवन बदल कर रख दिया है. वे भारत की अंधेरी गलियों से नगीनों को खोजने और उन्हें तराशने के काम में लगे हैं. उनका कैंब्रिज में पढऩे का ख्वाब तो सच नहीं हो सका था लेकिन वे दूसरे छात्रों का जीवन बदल रहे हैं. किताब में वे कहते हैं, ‘‘मैं भागलपुर, नालंदा व गया के विद्यार्थियों की कह्नाएं मोबाइल फोन पर लेता.’’ छात्रों को फायदा पहुंचाने के उनके जज्बे का खुलासा इस बात से बखूबी जाहिर हो जाता है. इसी खंड में एक और नाम अरविंद केजरीवाल का है. जिन्होंने इन दिनों आम आदमी के हक में अपनी आवाज बुलंद कर रखी है और आए दिन नए खुलासों से भ्रष्टों का जीवन हलकान किए हुए हैं. उनका ख्वाब एक ऐसे सच्चे लोकतंत्र का है जहां एक साधारण आदमी को अपने मनमाफिक जीने का अधिकार हासिल हो.
देश में सूचना का अधिकार लागू होने का श्रेय भी इसी पूर्व आइआरएस अधिकारी को जाता है. वे युवा उद्यमियों को सलाह देते हैं, ‘‘जिस तरह हम अपने-अपने परिवारों की भलाई की जिम्मेदारी लेते हैं, उसी तरह हमें देश की भलाई की भी जिम्मेदारी लेनी चाहिए...प्रजातंत्र हमारी सक्रिय सहभागिता के बिना नहीं चल सकता. हमें सोचना होगा, वरना यह ढह जाएगा, और यह ढह ही तो रहा है.’’
इनके अलावा, कंजर्व इंडिया की अनीता आîजा, आविष्कार सोशल वेंचर फंड के विनीत राय, रंगसूत्र की सुष्मिता घोष, देसी क्रू की सलोनी मल्होत्रा, स्पीति इकोस्फीयर की इशिता खन्ना, सेल्को के हरीश हांडे, पीपल ट्री के संतोष पारुलेकर और प्रोजेक्ट चिलिका के दीनबंधु साî, बेलूर मठ के श्रीश जाधव, परिवार आश्रम के विनायक लोहानी जैसे कई लोगों की प्रेरणादायक कहानियों को रश्मि ने बखूबी अपनी कलम से पिरोया है. सच हुए सपने रश्मि बंसल की अंग्रेजी किताब आइ हैव अ ड्रीम का हिंदी अनुवाद है. हमेशा की तरह रश्मि ने एकदम सिंपल भाषा का इस्तेमाल किया है. अनुवाद में भी काफी हद तक अंग्रेजी की इसी पंरपरा को निभाने की कोशिश की गई है. हालांकि कुछ शब्द ऐसे हैं, जो कहीं अटकते हैं और आम पाठक के लिहाज से थोड़े मुश्किल हो जाते हैं.
उद्यमी और लेखिका रश्मि की पहली दो किताबों स्टे हंगरी स्टे फुलिश और करेक्ट द डॉट की पांच लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं और उसके दस से ज्यादा भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी हो चुके हैं. आइआइएम-अहमदाबाद से एमबीए रश्मि के लेखन में मुख्य स्वर युवाओं को प्रेरित करने का रहता है. इसलिए उन्हें यूथ ओरिएंटेड सब्जेक्ट्स की स्पेशलिस्ट भी माना जाता है.
अगर इस किताब के लिखने के उद्देश्य की बात करें तो साफ तौर पर युवाओं को मैं से निकालकर हम की संकल्पना से रू-ब-रू कराते हुए कथनी से ज्यादा करनी के लिए प्रेरित करना लगता है. रश्मि कहती हैं, ‘‘ये परिवर्तनशील लोग उद्यमियों की तरह सोचते हैं. ये लोग मैं के मायाजाल से निकलकर हम की अवधारणा पर अमल करने वाले हैं.’’
ये ऐसे लोग हैं जो मैनेजमेंट के सिद्धांतों और आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल से विश्व को रहने के लिए एक बेहतर जगह बनाने की कोशिशों में लगे हैं. वसुधैव कुटुंबकम् और कमजोरों को सशक्त बनाने की अवधारणा से लैस यह किताब युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत का काम तो कर ही सकती है, इसके अलावा हमारे समय के सामाजिक क्रांतिकारियों की हकीकत को भी बखूबी हमारे सामने पेश करने का काम करती है. (आजतक से साभार)

चुनिंदा बाल साहित्य

प्रेमचंद : बाल साहित्य समग्र, संपादक : कमलकिशोर गोयनका, प्रतिनिधि बाल एकांकी, संपादक : श्रीकृष्ण, योगेंदकुमार लल्ला, बच्चों के सौ नाटक, संपादक : डॉ. हरिकृष्ण देवसरे, उमंग (नाटक संग्रह), संपादक : अशोक वाजपेयी, बच्चों के 12 उपन्यास, संपादक : राधेश्याम प्रगल्भ, बच्चों की सौ कविताएं, संपादक : डॉ. हरिकृष्ण देवसरे, बचपन एक समंदर (कविता संग्रह), संपादक : कृष्ण शलभ, इक्कीसवीं सदी की बाल कहानियां (दो भाग), संपादक : जाकिर अली रजनीश, चुनी हुई बाल कहानियां (दो भाग), संपादक : रोहिताश्व अस्थाना, हिंदी की श्रेष्ठ बाल कहानियां, संपादक : डॉ. उषा यादव एवं डॉ. राजकिशोर सिंह।

ज्ञान-विज्ञान साहित्य
प्राचीन भारत के महान वैज्ञानिक : गुणाकर मुले, भास्कराचार्य : गुणाकर मुले, अंकों की कहानी लेखक : गुणाकर मुले, झिलमिलाते सितारे (अंतरिक्ष विज्ञान), लेखक : रमेश वर्मा, बस्ता बोला (रोचक विज्ञान), लेखक : प्रमोद जोशी, कीड़ों की कहानी, कीड़ों की जबानी, लेखक : प्रमोद जोशी, कितना अनजाना हमारा कारखाना (शरीर विज्ञान), लेखक : जयप्रकाश भारती, विज्ञान की विभूतियां, लेखक : जयप्रकाश भारती, नील गगन पर उड़ते विमान, लेखक : हरिकृष्ण देवसरे, ग्रामोफोन और चलचित्र के आविष्कारक एडीसन की कहानी, लेखक : श्रीकांत व्यास, दूरबीन की कहानी, लेखक : वेद मित्र, विज्ञान की कहानियां, लेखक : रत्नप्रकाश शील, फिल्म कैसे बनती है, लेखक : ख्वाजा अहमद अब्बास, रोमांचक साहसिक यात्राएं, लेखक : मनमोहन सरल, वैज्ञानिकों की रोचक बातें, लेखक : दिलीप एम. सालवी, फसलें कहें कहानी, लेखक : देवेंद मेवाड़ी, हमारे वृक्ष, लेखक : राजेश्वरप्रसाद नारायण सिंह, हमारे प्यारे जीव, लेखक : रामेश बेदी, प्रसिद्ध वैज्ञानिक और उनके आविष्कार, लेखक : सुरजीत, साधारण आविष्कारों की असाधारण सफलताएं, लेखक : लक्ष्मण प्रसाद, विनोद कुमार मिश्र।

इस बगीची में बार-बार



जयप्रकाश त्रिपाठी

महान होने की पाठशाला तो हर मन में खुली होती है, प्रश्न ये घेरे रहता है कि वह मन किस किस्म की महानता का कायल है, खुद के लिए तथा बाकी सबके लिए। वह रचना का क्षेत्र हो, राजनीति का, समाज के किसी भी पक्ष-विपक्ष का। महान हिटलर भी होना चाहता था। कातिल के महान होने के अभिप्राय और कविता की गुनगुनी पंक्तियों के अर्थ का जो अंतर हमारे जीवन और विचारों की राह सुझाता है, वही से हम अलग-अलग चल पड़ते हैं। यहां फेस बुक पर रोजाना जितने किस्म की सामग्रियां परोसी जाती हैं, एक दिन उन्हीं पर निगाह गड़ा लें तो कई चीजें स्वयं साफ होती चली जाती हैं। एक कामना तो सामान्यतः सभी किस्म की रचनाओं में अंतरनिहित होती है कि उसका ही परोसा हर कोई   सरपोटे, जैसा कि संभव नहीं रहता हैं। हमे कविताएं भी ललचाती हैं, क्षणिकाएं और बहुरंगी चित्र भी, जिस प्रस्तुति में, जिसके हिस्से की चासनी जितनी सघन होती है, वह उतना उसमें लिप्त हो लेता है। अपने हिस्से की मिठास लूट ले जाता है, दूसरे के हिस्से का कसैलापन छोड़ जाता है।
हर तरह की विचार विथिकाओं में, हर तरह के मंचों पर, समूहों में जीवन इसी तरह के विविध रंग लेकर उतरता है, डोलता-थिरकता है और शब्दों-संवादों का आदान-प्रदान हमे आह्लादित-आंदोलित करता रहता है। ये बातें प्रसंगवश हैं, अनायास नहीं। जैसे हम कविताओं की रेलमपेल मचाये रहते हैं, नरेंद्र मोदी का जिक्र होते ही लिखने के लिए बेकाबू हो लेते हैं, एक-दूसरे की वाह-वाह करते, बाकी को हाशिये का कीड़ा-मकोड़ा जानते हुए आगे सरक लेते हैं, यह चाल बड़ी संदिग्ध-सी लगती है लेकिन जिजीविषा का क्रंदन ब़ड़ा बेहया होता है, उसका ताप किसी को भी अपनी लक्ष्मण रेखा से यूं सलामत नहीं निकल जाने देता है, क्योकि उसका एक लक्ष्य होता है। स्वांतः सुखाय हो तो कोई बात ही नहीं। आप क्यों अपने किस्म-किस्म के चेहरों, वस्त्रों, परिस्थियों के बेढंगेपन सामूहिक रूप से यहां साझा करना चाहते हैं, बेतुके बलगम परोसते हुए अपना समय जाया करते रहते हैं, और किंचित अन्यों का भी।
खैर, सबका अपना-अपना मन, अपनी-अपनी जीवन जीने की कला, अपनी-अपनी आदत, जैसा जी में आये करे, उन्हें और कोई रोकने वाला होता कौन है, लेकिन सच को उसके चेहरे की रंगिमा-भंगिमा में उतर आने देना, सार्वजनिक हो लेने देना भी कोई अन्यथा का उपक्रम नहीं। टालस्टॉय और गोर्की हर समय उपन्यास और कहानियां ही नहीं  लिखते थे, न ब्लॉग, फेसबुक और ट्विटर के दुनियादार चौबीसो घंटे यहीं पर मंडराते रहते हैं। मनजौक भी हो, लेकिन दाल में नमक जैसी। सब लार-पोटा यही बरसा देने का इरादा इस मंच को भी अभिशप्त सा करने लगता है, शायद!