Monday 22 July 2013

समय ही असली स्रष्टा है / शिवमूर्ति


कहानी प्रत्रिका कथादेश  ने अपने परिवेश और रचना प्रक्रिया पर मैं और मेरा समय शीर्षक से विभिन्न लेखकों की लेखमाला शुरू की थी. शिवमूर्ति का यह आलेख 'समय ही असली श्रष्टा है' शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।

 लेखक के 'मैं' में कम से कम दो व्यक्तित्व समाये होते हैं। एक वह जो साधारण जन की तरह अपने समय से सीधे दो-दो हाथ कर रहा होता है। सब कुछ भोगता, झेलता, सहता और प्रतिक्रिया कर रहा होता है, दूसरा वह जो हर झेले, भोगे, सहे हुए को तीसरे की तरह देखता, सुनता, धुनता और सहेजता चलता है। यह दूसरा 'परायों' के झेले, भोगे को भी उसी तल्लीनता और सरोकार के साथ आत्मसात करता है जैसे स्वयं झेल, भोग रहा हो। कालांतर में इस अपने और पराये की दूरी धीरे-धीरे खत्म होती जाती है।
जब यह दूसरा व्यक्तित्व अपने किसी पात्र में इस झेले, भोगे गये अनुभव को आरोपित करता है, तब तक यह अनुभव खुद लेखक का अनुभव बन चुका होता है। इसीलिए काल्पनिक पात्र के काल्पनिक दुख को चित्रित करते समय निकलने वाले उसके आंसू वास्तविक होते हैं।
कैसे पड़ता है लेखन का बीज किसी के मन में? किस उम्र में पड़ता है? क्या यह जन्मजात होता है? हो सकता है भविष्य के वैज्ञानिक इसका सही और सटीक हल खोजें। पर इतना तो तय है कि प्रत्येक रचनाकार को प्रकृति एक विशिष्ट उपहार देती है। अति सम्वेदनशीलता का, परदुखकातरता का। अतीन्द्रियता का भी, जिससे वह प्रत्येक घटना को अपने अलग नजरिए से देखने, प्रभावित होने और विश्लेषित करने में सक्षम होता है। यह विशिष्टता अभ्यास के साथ अपनी क्षमता बढ़ाती जाती है। मां की तरह या धरती की तरह लेखक की भी अपनी खास 'कोख' होती है, जिसमें वह उपयोगी, उद्वेलित करने वाली घटना या विम्ब को टांक लेता है, सुरक्षित कर लेता है, अनुकूल समय पर रचना के रूप में अंकुरित करने के लिए। जिन परिस्थितियों में शिशु विकसित होता है, वही उसकी जिंदगी की भी नियामक बनती हैं और उसके लेखन की भी। फसल की तरह लेखक भी अपनी 'जमीन' की उपज होता है। जब मेरी रचनाओं में गांव, गरीब, खेत, खलिहान, बाग, गाय, बैल, वर्ण संघर्ष, फौजदारी और मुकदमेबाजी आती हैं तो यह केवल मेरी मरजी या मेरे चुनाव से नहीं होता। मेरे समय ने जिन अनुभवों को प्राथमिकता देकर मेरे अंतःकरण में संजोया है, स्मृति के द्वार खुलते ही उन्हीं की भीड़ निकलकर पन्नों पर फैल जाती है।
मुझे कलम पकड़ने के लिए बाध्य करने वाले मेरे पात्र होते हैं। उन्हीं का दबाव होता है जो अन्य कामों को रोकर कागज-कलम की खोज शुरू होती है। जिंदगी के सफर में अलग-अलग समय पर इन पात्रों से मुलाकात हुई, परिचय हुआ। इनकी जीवंतता, जीवट, दुख या इन पर हुए जुल्म ने इनसे निकटता पैदा की। ऐसे पात्रों की पूरी भीड़ है। ये बाहर आने को उतावली में हैं। कितने दिनों तक इन्हें 'हाइवरनेशन' में रखा जा सकता है। लिखने की मेरी मंदगति इन्हें हिंसक बना रही है। कितने-कितने लोग हैं। कछ जीवित, कुछ मृत। कुछ कई चरित्रों के समुच्चय। सब एक-दूसरे को पीछे ढकेल कर आगे आ जाना चाहते हैं। हमारे उस्ताद जियावन दरजी, जिनसे 8-9 साल की उम्र में मैंने सिलाई सीखी थी। डाकू नरेश गड़ेरिया- बहिन के अपमान का बदला लेने के लिए डाली गयी डकैती में मैं जिसका साथ नहीं दे सका। जंगू, जो गरीबों, विधवाओं, बेसहारों के साथ जोर-जुल्म करने वालों को दिन-दहाड़े पकड़कर उनकी टांग पेड़ की जड़ में अटकाकर तोड़ देता है। हर अन्यायी के खिलाफ अनायास किसी भी पीड़ित के पक्ष में खड़े हो जाने वाले धन्नू बाबा। बीसों साल तक बिना निराश हुए और डरे इलाके के जुल्मी सामंत के विरुद्ध लड़ने वाले संतोषी काका। पूरी भीड़। मुझसे और मेरे समय से परिचित होने के लिए आपको भी उन पात्रों, चरित्रों, दृश्यों व बिम्बों से परिचित होना पड़ेगा। विस्तार से न सही, संक्षेप ही में सही। शायद यह मेरे व्यक्तित्व व लेखन को समझने में भी सहायक हों।
मेरा घर-गांव से काफी हटकर, टोले के तीन-चार घरों से भी अलग एकदम पूरबी सिरे पर है। बचपन में चारों तरफ बांस रुसहनी, कंटीली झाड़ियों का जंगल और घनी महुवारी थी। आम के बाग तो कमोबेश अभी भी बचे रह गये हैं। जंगल झाड़ के बराबर ही जगह घेरते थे। गांव के चारों तरफ फैले 10-12 तालाब-बालम तारा, तेवारी तारा, दुलहिन तारा, सिंघोरा तारा, पनवरिया तारा, गोलाही तारा आदि। इसी जंगल झाड़, महुआवारी-अमराई के बीच से आना-जाना। इन्हीं के बीच खेलना। यह परिवेश बचपन का संघाती बन गया। परिचित और आत्मस्थ। आज भी मुझे अंधेरी रात के वीराने से डर नहीं लगता। डर लगता है महानगर की नियान लाइट की चकाचौंध वाली लंबी सुनसान सड़क पर चलने में। अंधेरे में आपके पास कहीं भी छिप सकने का विकल्प होता है। उजाले में यह नहीं रहता। जाहिर है मेरे मन में खतरे के रूप में हमेशा आदमी होता है। सांप-बिच्छू नहीं। सांप-बिच्छू या भूत-प्रेत के लिए मन में डर का विकास ही नहीं हुआ। यही भाव पानी के साथ है। यद्यपि लभग डूब जाने या पानी के बहाव में बह जाने की घटनाएं जीवन में कई बार घटीं पर नहर, तालाब, और नदी के रूप में जल स्त्रोतों से बचपन से इतना परिचय रहा कि पानी से डर नहीं लगता। अथाह अगम जल स्त्रोत देखर उसमें उतर पड़ने के लिए मन ललक उठता है।
कुछ बड़े होने पर शेर के शिकार की कथाएं पढ़ता तो लगता कि यह शेर मेरे पिछवाड़े सिघोरा तारा के भीटे की उस बकाइन वाली झाड़ी के नीचे ही छिपा रहा होगा। महामाई के जंगल में बना काईदार सीढ़ियों वाला पक्का सागर तब भी इतना ही पुरातन और पुरातात्विक लगता था। इसका काला-हरा पानी सम्मोहित करता। लगता कि यक्ष ने इसी सागर का पानी पीने के पहले पांडवों से अपने प्रश्न का उत्तर देने की शर्त रखी होगी। जेठ में, जब सारे कच्चे तालाबों का पानी सूख जाता, बचे-खुचे हिरनों का छोटा झुंड जानवरों के लिए बनाये गये घाट से पानी पीने के लिए उसमें उतरता था। प्यास उन्हें निडर बना देती। तेवारी तारा के भीटे पर अपने बच्चों को बीच में लेकर बैठे झुंड के पास आ जाने पर हिरनी उठकर अपने बच्चे व आगंतुक के बीच खड़ी हो जाती। ज्यादा पास पहुंचने पर सिर झुकाकर सींग दिखाती। खबरदार...पिताजी बताते हैं कि जहां अब खेत बन गए हैं, वहां जमींदारी उन्मूलन के पहले तक कई मील में फैले निर्जन भू-भाग पर हजारों की संख्या में हिरन थे। कई बार भेड़ों के झुंड के बीच मिलकर चरते थे। जमींदारी समाप्त होते-होते शिकारियों ने अंधाधुंध शिकार करके इनका समूल नाश कर दिया। तेवारी तारा के भीटे पर रहने वाला झुंड गांव वालों द्वारा शिकारियों का विरोध करने के कारण काफी दिनों तक बचा रह गया था।
घर के सामने और दायें-बायें फैली विशाल जहाजी पेड़ों वाली महुआवारी के पेड़ों पर शाम का बसेरा लेने वाले तोते इतना शोर मचाते कि और कुछ सुनना मुश्किल हो जाता। सावन-भादों के महीने में चारों तरफ पानी भर जाता। तब चार-पांच हाथ लंबे हरे मटमैले सांप महुए की डालों पर बसेरा लेते और चिपके, छिपे इंतजार करते कि कोई तोता पास में आकर बैठे तो वे झपट्टा लगायें। कभी-कभी पकड़ में आये तोते की फड़फड़ाहट से असंतुलित सांप छपाक से नीचे पानी में गिरता। टांय-टांय का अंतर्नाद पूरे जंगल में छा जाता। चैत के महीने में इन्हीं पेड़ के कोटर में घुस-घुसकर इनके अंडे-बच्चे खाते। तोते शोर मचा-मचाकर आसमान गुंजा देते पर न कोई थाना न पुलिस। मर न मुकदमा। कोटर का मुंह संकरा हुआ तो कभी-कभी सांप अंदर तो चले जाते पर बच्चों को खाने के बाद पेट फूल जाने के कारण बाहर न निकल पाते। हाथ-डेढ़ हाथ शरीर कोटर से बाहर निकाल कर दायें-बायें हिलाकर जोर लगाते और असफल होकर फिर अंदर सरक जाते।
महामाई के जंगल में घने पेड़ों के बीच बने पक्के सागर में नहाने के लिए गांव की औरतें, बच्चे आते तो पीछे-पीछे कुत्ते भी चले आते। सामने तेवारी तारा के भीटे पर दुपहरिया काटते निश्चिंत बैठे हिरनों का झुंड देखकर कुत्तों का अहम फन काढ़ता। दिन दहाड़े आंखों के सामने यह निश्चिंतता। वे भूकते हुए दौड़ते। तेवारी तारा के पूरब सियरहवा टोले से सटकर ऊसर की एक लंबी पट्टी दूर तक चली गयी थी, जिसमें सफेद रेह फूली रहती। जाड़े में इस पर नंगे पैर चलने पर बताशे की तरह फूटती और ठंडक पहुंचाती। गर्मी में पैर झुलसाती। कुत्तों को आता देख हिरनों का झुंड इसी पट्टी पर भागता। गजब के खिलाड़ी थे वे हिरन। उतना ही भागते, जिससे उनके और कुत्तों के बीच एक न्यूनतम सुरक्षित दूरी बनी रहे। कुत्ते भला उन्हें क्या पाते। उनके थककर रुकने के साथ ही हिरन भी रुक जाते। बिना सिर घुमाये ही वे कुत्तों का रुकना देख लेते। कुत्ते फिर दौड़ते। बार-बार यही तमाशा। कुत्ते भूक-भूक कर, दौड़-दौड़कर बेदम हो जाते। जीभ लटकाये लौट पड़ते। हिरन भी तुरंत लौटते लेकिन तब कुत्ते जानकर भी अनजान बन जाते। पीछे मुड़कर देखना बंद कर देते।
......दिमाग के कम्प्यूटर में कोई सेलेक्टर लगा रहता होगा। तभी तो एक ही दृश्य या अनुभव एक के लिए रोजमर्रा की सामान्य घटना होती है और दूसरा जिसे स्मृति में सुरक्षित कर लेता है। स्मृति का भाग बन चुके अनुभव या दृश्य में वक्त गुजरने के साथ मन अपनी इच्छा या कामना के अनुसार परिवर्तन करता रहता है। कालांतर में इस परिवर्तित दृश्य को ही वह खुद भी असली दृश्य मानने लगता है। आपको एक बार स्कूल में दो-तीन लड़कों ने घेर लिया था। आपके मुंह से एक शब्द नहीं निकला था। घिग्घी बंध गयी थी। आप डर कर कांपने लगे थे, लेकिन बाद में आपको लगा कि आपने भी उन्हें ललकारा था। बहुत बाद में कई बार सोचने पर आपको लगने लगा कि आपके तेवर देखकर ही तो वे लड़के डर कर पीछे हटे थे। बहुत सारे संवाद भी याद आते हैं, जो उस वक्त किसी ने नहीं सुने लेकिन अब आप गर्व से उन्हीं लड़कों को सुनाते हैं तो वे असमंजस में हुंकारी भरते हैं क्योंकि वे उस घटना को भूल चुके हैं।
बाद का देखा-सुना बहुत कुछ भूल जाता है लेकिन कोई खास दृश्य, कोई रंग, स्वाद, गंध, वाक्य, बिंब, मुस्कान, कनखी, चितवन, भंगिमा, चाल सुरक्षित रह जाती है। यह बस लेखकीय 'स्व' की पूंजी बनते चलते हैं। यह प्रक्रिया कभी-कभी दुर्घटना के रूप में भी सामने आती है। तब, जब किसी अन्य लेखक की पढ़ी हुई किसी रचना का प्रिय दृश्य या सोच कालांतर में अपना सोचा हुआ लगने लगता है। अवचेतन का अंश बन जाता है और बाद में अपनी किसी रचना में उतर आता है।
बचपन और किशोरावस्था में मन की स्लेट एकदम साफ और नयी-निकोरी रहती है। उस समय का देखा-सुना पूरी तरह जीवंत और चमकीले रूप में सुरक्षित रहता है। शायद यही उम्र होती है मन में लेखकीय बीज के पड़ने और अंकुरित होने की।
प्रेम, ममत्व, स्नेह और प्यार प्राप्ति के क्षण लंबी अवधि तक साथ देते हैं। एक मुराइन अइया (दादी) थीं। उनके द्वारा फूल के कटोरे में दी हुई मटर की गाढ़ी दाल (तब रोज-रोज दाल खाने को नहीं मिलती थी।) का रंग, स्वाद और गंध तीनों स्मृति में एकदम टटकी हैं। याद करते ही उनकी महक नासापुटों में महसूस होने लगती है। 'भूख लगी है? सिर्फ दाल ही तो है, ले।' कटोरा पकड़ाते हुए उनकी आंखों में उतरा ममत्व और तनिक हंसी के बीच दिखने वाले उनके सोने-मंढ़े दोनों दांत। एक तिवराइन (तिवारी का स्त्रीलिंग) अइया थीं। स्कूल से लौटने पर घर में खाने के लिए कुछ न होता या मां ताला लगाकर कहीं गयी होती तो मैं चारपाई के पाये में बस्ता लटकाकर तिवराइन अइया के घर की ओर सिधारता। बिना कुछ कहे-पूछे वे मेरी भूख देख लेतीं। रज्जू बुआ को आवाज लगातीं- एक मूठी दाना दै द्या बेटौना का। भुखान होये। फिर पूछतीं- बड़की (मेरी मां) नहीं है क्या घर में? अमीर नहीं थीं अइया। गरीबी के चलते ही तेवारी दादा का विवाह नहीं कर सकीं। पर दिल दरिया था। बड़े-से आंगन के कोने में स्थित फूस के ओसारे के नीचे पड़ी चारपाई पर बैठी उनकी बूढ़ी काया। बाहुमूल और कमर की लटकती झुर्रीदार चमड़ी। लंबे लटकते स्तन, जिन्हें ढंकने की उतनी तत्परता अब नहीं थी। जब इनमें दूध भरा रहता रहा होगा, तब ये कितने भारी रहे होंगे। इतना दूध पीने के चलते ही तेवारी दादा इतने भारी भरकम हैं। मेरी मां की छातियां इतनी बड़ी नहीं थीं। शायद तब मुझे इसका अफसोस भी रहा हो। मैंने एक बार उससे पूछा था- एक-एक सेर दूध होता रहा होगा तिवराइन अइया को, क्यों मां? मुझे तो अपनी वह जिज्ञासा भूल ही चुकी थी। अभी पिछले महीने मां आयी थी। मैं एकांत में फुरसत से उसके पास लेटा उसकी स्मृति से कुछ निकालने का प्रयत्न कर रहा था। तभी बातों-बातों में मां ने बताया। इतना तो मुझे याद है कि बचपन में जब भी किसी स्त्री को देखता, मन ही मन उसके स्तनों की तुलना मां के स्तनों से करता था। एकाध वरिष्ठ महिला लेखिकाओं के प्रति मेरे मन में इसलिए और भी ज्यादा आदरभाव है क्योंकि उन्हें देखकर इस संदर्भ में तिवराइन अइया की याद ताजा हो जाती है।
एक गाय थी। रात की रोटी उसे मैं ही देता था रोज। हम लोग एक-दूसरे को बहुत चाहते थे। एक दिन स्कूल से लौटा तो पता चला कि वह तो बिक गयी। गांव में ही बिकी थी। मैं बहुत रोया। शाम को रोटी लेकर उससे मिलने गया। उसने अंधेरे में भी दूर से पहचान लिया। हुं-हुं करने लगी। मैं उसके आगे बैठकर उसकी लिलरी (गले की नरम लटकती चमड़ी) सहलाने लगा। वह मेरे बाल चाटने लगी। सारे बाल गीले हो गये। बहुत दिन बीते। बयालीस साल बीत गये, लेकिन उस गोलेपन की ठंडक आज भी महसूस होती है।
अपमान, खतरा या आसन्न मृत्यु की स्मृतियां तो जीवन भर साथ देती हैं....एक बार हत्या करने के लिए पकड़ कर कोठरी में बंद कर दिया गया था। दोनों हाथ पीछे बंधे थे। पैर बंधे थे। मुंह में कपड़ा ठुंसा हुआ था। अंधेरी कोठरी में एक कोने में डाल दिया गया था कि रात गहरा जाये तो मारा जाय। इस अनुभव से गुजरे होने के कारण ही शायद कथाकार देवेंद्र के उसी उम्र के बेटे की हत्या से संबंधित कहानी 'क्षमा करो हे वत्स' पढ़ कर मैं उस दिन अपने कमरे से बाहर नहीं निकला। रोता ही रह गया था दिन भर।
उत्तर प्रदेश में अभी कुछ वर्ष पहले तक खसरा नामक भू-अभिलेख में यह प्रविष्टि करने का प्रावधान था कि किसके खेत पर किसका कब्जा है। लोक मानस में इसे 'वर्ग नौ' दर्ज करना कहते थे। जमींदारी उन्मूलन के पहले और बाद में भी खेत के मालिक बड़े किसान और छोटे जमींदार अपना खेत सालाना पोत या लगान लेकर भूमिहीन किसानों को जोतने के लिए दे दिया करते थे। ये भूमिहीन किसान प्रायः पिछड़ी अथवा अनुसूचित जाति के होते थे। यदि किसी खेत पर किसी जोतदार का कब्जा बारह वर्षों तक प्रमाणित हो जाय तो उस खेत पर कब्जेदार को स्वामित्तव प्राप्त हो जाता था। पर पटवारी को मिलाकर बड़े किसान कब्जेदारों का कब्जा खसरे पर दर्ज करने से प्रायः बचा लेते थे। जमींदारी उन्मूलन के बाद पोत-लगान देकर खेत जोतेने वालों का वास्तविक आंकड़ा निकालने तथा उन्हें स्वामित्व प्रदान करने के उद्देश्य से वर्ग-9 दर्ज करने के लिए विशेष अभियान चलाया गया। इसकी भनक लगने पर बड़े किसानों ने जोतदारों को खेतों से बेदखल करना शुरू कर दिया। बड़े किसान व जमींदार ज्यादातर ठाकुर थे। गांव में उनका दबदबा और आतंक था। उनकी तुलना में जोतदार हर प्रकार से कमजोर थे। इसलिए बेदखली का विरोध करने का किसी को साहस नहीं होता था। मेरे पिताजी भी गांव के एक ठाकुर के कुछ खेत पोतऊ (पोत पर) लेकर जोतते आ रहे थे। उस समय गेहूं की फसल बोयी गयी थी और खेत में महीने भर की डाभी हरियाई थी, जब ठाकुर ने इसमें हल चलवाकर खेत उलट दिया और अपना बीज बो दिया। साथ ही बड़े-बड़े थान बनाकर उनमें सिर से भी ऊंचे आम के पड़े लगवा दिये। इतने बड़े पेड़ इसलिए ताकि मुकदमेबाजी की नौबत आने पर इन पेड़ों की उम्र के आधार पर 10-12 साल पुराना कब्जा साबित किया जा सके।
पिता जी पुराने जमाने के सन 28-29 के चहारम पास थे। पहलवान, हैकड़, निडर और जवान थे। खसरे में उनका कब्जा दर्ज था। इसलिए लगातार घुड़की-धमकी मिलने के बावजूद वे इस अन्याय के खिलाफ खड़े हो गये। मुकदमा दायर कर दिया। गांव के ठाकुर के खिलाफ गांव का ही शूद्र, खुद अपना ही रियाया, 'मनई', जिसको- जमींदारी काल में अपनी जगह जमीन देकर बसाया गया था, मुकदमा लड़ेगा? अब तक, जमींदारी खत्म होने तक हम इलाके के राजा थे। सरकार ने धोखा किया तो इन कीड़े-मकोड़ों, भुनगों को भी सींग निकल आई है। पूरी ठाकुर बिरादरी की नाक काटने पर उतारू है यह आदमी। इतनी हिम्मत! धमकाया कि गांव छोड़कर भाग जाओ नहीं तो मारकर महामाई के सागर में डाल दिया जायेगा। एक-दो बार मारा-पीटा भी। पिताजी डटे रह गये। मुकदमेबाजी शुरू हो गयी। कुछ दिन बाद सब कुछ सामान्य-सा लगने लगा। एक शाम मैं गांव की दुकान से कोई सौदा लेने जा रहा था। गांव से पक्की सड़क को जोड़ने वाली पगडंडी के दोनों ओर ऊंची खाई थी और उस पर सरपत और उसकी ऊंची झाड़ियां। गोहटे वाली (जिस पर गोहटा या गोह रहती थी, पता नहीं अब रहती है या नहीं! ) ऐतिहासिक जामुन के पेड़ के नीचे फैले गाढ़े अंधेरे में पहुंचकर मन में डर की शुरुआत होने ही वाली थी कि किसी ने पीछे से कसकर दबोच लिया। वे दो थे। मुंह दबाकर दाहिने हाथ बाग की झाड़ी में ले गये और मुंह में कपड़ा ठूंसकर अंगोछे से बांध दिया। धमकाया- आवाज किए तो तुरंत रेत डालूंगा। पकड़ने और बांधने वाला कोई बाहर का बलिष्ठ आदमी था। धमकाने वाले वही थे, जिनसे मुकदमेबाजी चल रही थी। दोनों ने मिलकर एक चादर में मुझे गठरी की तरह बांधा और खांची में रखकर घर ले गये। एक कोठरी में पटका। चादर खोलकर रस्सी से हाथ पीछे करके बांधे। पैर बांधे औक कोठरी की सांकल लगाकर चले गये। निःशब्द आंसू बहाता मैं हाथ-पैर चलाकर बंधनमुक्त होने में जुट गया। आभास हो गया कि रात गहराने पर वे मारेंगे और गांव के पश्चिम से गुजरने वाली इलाहाबाद-फैजाबाद रेलवे लाइन पर डाल देंगे। शायद चैत का महीना था। भय से शरीर पसीने-पसीने हो रहा था। धड़कन तेज थी। सबसे पहले मुंह बंधनमुक्त हुआ। फिर मुंह का कपड़ा निकाला। शायद किसी खूंटी या जांत के हथौड़े की नोक में फंसाकर। फिर पैर छूटे। हाथ पीछे बंधे थे और बंधन इतना कसा था कि उंगलियां सुन्न पड़ रही थीं। कोई जोर नहीं चल रहा था। तभी किवाड़ों की सेंधि से प्रकाश की पतली रेखा अंदर आयी। सांकल खड़की। मैं किवाड़ के बगल की दीवार से चिपक गया। किवाड़ खुले। ठाकुर की पत्नी एक हाथ में ढिबरी और दूसरे में थाली लेकर अंदर आयीं। वह पकाने के लिए राशन निकालने आयी थीं। शायद उन्हें मेरे बारे में सावधान नहीं किया गया होगा। उनके आगे बढ़ते ही मैं दबे पांव आंगन में निकला। इस बखरी के भूगोल से मैं पूर्व परिचित था। कई बार खलिहान से धान ढोकर यहां ला चुका था। औरतों के दिशा-मैदान हेतु बाहर जाने के लिए आंगन के कोने में बनी खिड़की से मैं बाहर भागा। घर कैसे पहुंचा? मां ने हाथ का बंधन खोलते हुए क्या-क्या पूछा? मैंने क्या बताया? यह सब आज कुछ भी याद नहीं। पर वह पकड़, वह बंधन और काल कोठरी में बीते डेढ़-दो घंटे आज भी स्मृति पटल पर एकदम टटके हैं।
मृत्यु के मुख से होने वाली प्रत्येक वापसी आपकी जीवन-दृष्टि को गहराई तक प्रभावित करती है। आप वहीं नहीं रह जाते, जो पहले होते हैं। पिछले दिनों गांव गया। वही ठाकुर अपने नाती की मार्कसीट लेकर आये और उसे कहीं नौकरी दिलाने की चिरौरी करने लगे। मैं उनकी आंखों में आंखें डालकर यह जानने का प्रयास करने लगा कि क्या मुझे सामने पाकर वे अपनी उस दिन की असफलता पर अब भी दुखी होते होंगे। सोचता हूं कि एक दिन पूछ लूं? यह भी कि वह दूसरा कौन था? अब तो यह सब कहा-सुना जा सकता है।
एक और दृश्य भी मानस पटल पर उसी तरह सुरक्षित है। शायद अपहरण वाली घटना के पांच-छह महीने बाद की बात होगी। एक शाम खेतों की ओर से मुद्दई का हलवाहा प्रकट हुआ। पिताजी को एक तरफ ले जाकर कुछ फुसफुसाया और अंधेरे में गुम हो गया। हलवाहा दलित था और पिताजी से सहानुभूति रखता था। उसे खबर मिली तो आगाह करने के लिए आ गया। उसने बताया कि मुद्दई ने बाहर से बदमाश बुलाये हैं। आज रात मेरे घर डकैती पड़ेगी। डकैती तो दिखावे के लिए होगी। असली मकसद है पिताजी की हत्या। उसके जाने के बाद मां और पिताजी चिंतित हो गये। पिताजी सारे बर्तन-भांड़े एक खांची में रखकर कुछ दूर स्थित गन्ने के खेत में छिपा आये। मां ने अपने दो-चार गहनों और मुकदमे के कागजों की पोटली बनायी, साथ ले चलने के लिए। कथरी-गुदरी पिछवाड़े की झाड़ियों में छिपा दी। दो बैल थे। एक गाय और एक बकरी। किसी को न पाकर वे लोग गाय-बैल ही हांक कर बेंच सकते हैं। इसलिए गाय-बैलों का पगहा खोलकर महुआरी में हांक देना था। केवल बूढ़ी अंधी दादी बच रही थीं। वे मंड़हे में बिछी चारपाई पर पड़ी रहती थीं। बकरी उन्हीं की चारपाई के पीछे लकड़ियों की आड़ में बांध दी गयी। साथ ले चलने पर उसकी चिल्लाहट हम लोगों के लिए खतरा बन सकती थी। गाय-बैलों की तरह हांकने पर भेड़िए का शिकार हो जाने का खतरा था। यहां बंधी हुई चुप रह गयी तो बच जायेगी। चिल्लाई तभी मारे जाने का डर था। घर में ताला लगाकर दोनों बैलों और गाय को हांकते हुए करीब दो घंटा रात बीतते-बीतते हम लोग निकले। पिता जी के सिर पर एक बक्सा, हाथ में लाठी। मां के सिर पर एक बक्सा और गोद में सो चुकी छोटी बहन। मेरे सिर पर मां की पोटली और कंधे पर बस्ता। बे-आवाज निकलना था। फिर भी बकरी को आभास हो गया। नई जगह बांधते ही वह चिल्लाने लगी। झबुआ शाम को नहीं था। निकलते-निकलते वह भी आ गया।
मुझे लगा कि अपना घर-दुआर, पेड़-पालव, खासकर जीवित अंधी बूढ़ी दादी और असहाय बकरी को छोड़कर हम लोग हमेशा-हमेशा के लिए चले जा रहे हैं। मैं रोने लगा....अंधेरी रात की वह यात्रा...यह तो खुटना के बाग में पहुंचकर पता लगा कि मां हम भाई-बहनों को लेकर यहीं पेड़ के नीचे सोयेगी और पिताजी लौटकर घर के पास की झाड़ियों में छिपकर बैठेंगे ताकि जान सकें कि क्या कुछ हुआ। किसी के घर इसलिए नहीं गये ताकि डरकर घर छोड़ने की बात किकी को पता न चले। आततायी आये। हम लोगों को न पाकर किवाड़ तोड़ा। लाठी से घर की गगरी कुचुरी फोड़ा, बैलों की नांद हौदी फोड़ा। ओसारे का छप्पर पीटा और दादी को एक लाठी मारकर बकरी कंधेर पर लादकर चले गये। उनके जाने के बाद पिताजी बाग में आये। मां के साथ मैं भी जगा था। वापसी की यात्रा शुरू हुई। भोर होते-होते दोनों बैल और गाय भी पिताजी खोजकर हांक लाये। असुरक्षा और आतंक के ऐसे प्रसंगों ने, जो कई हैं और उम्र के अलग-अलग पड़ाव पर घटित हुए हैं, मुझे अपना पक्ष चुनने में निर्णायक भूमिका निभायी होगी।
प्रसंगतः, तत्कालीन लेखपाल के षड्यंत्र के कारण उस मुकदमे में पिताजी को आंशिक सफलता ही मिली। हमारा कब्जा आधे रकबे पर ही माना गया। पिछले दिनों गांव गया तो उस मुकदमे की पेचीदगी जानने के लिए मैंने तत्कालीन लेखपाल राम अंजोर को बुलवाया। उन्होंने बताया कि ठाकुरों के भारी दबाव और धमकी के चलते उन्होंने कब्जे वाले अभिलेख में एक के नीचे 'बटा दो' लगा दिया था। यानी पूरे रकबे पर नहीं बल्कि आधे पर कब्जा है। राम अंजोरजी ने कहा कि पूरी नौकरी में यही एक काम मैंने ऐसा किया, जिसके लिए आज तक पछताता हूं। भगत (मेरे पिताजी) की लड़ाई उन दिनों चर्चा में थी, जिसमें मेरी वजह से इन्हें आधी सफलता पर संतोष करना पड़ा। इसका मुझे दंड भी मिला। पूरे सेवाकाल का एकमात्र दंड। टेप किये गये राम अंजोरजी के शब्दों में ''मुझे 'बैड इंट्री' मिली और एक इंक्रीमेंट रोक दिया गया, हमेशा के लिए। क्योंकि बाद की जांच में नक्शे में की गयी यह ओवर राइटिंग पकड़ में आ गयी थी।''
उस दिन पिताजी को बताया कि राम अंजोर गुप्ता लेखपाल को बुलाया है तो छूटते ही बोले- 'उस बेईमान को? क्या जरूरत है? वही तो मेरे महाभारत का सकुनी है।' पर राम अंजोरजी के दंड-प्रणाम करते ही उनका मन निर्मल हो गया।
सांप-बिच्छू के काटने और पेड़ से गिरने के प्रसंग तो कई हैं। जहां मेरा घर सत्तर-पचहत्तर साल पहले बना, वहां जमीन थोड़ी ऊंची और कंकरीली थी। लगता है, वहां सांपों की बांबियां थीं। आज भी हर साल सावन-भादों के महीने में किवाड़ के बीच कोई-न-कोई सांप दबकर मरता है। पिताजी की गोनरी के नीचे बैठा हुआ या आंगन में टहलता हुआ दिखायी पड़ता है। किवाड़ में दबकर मरने वाले सांप की लंबाई व रंग हर साल आश्चर्यजनक रूप से एक-सा रहता है। पिछले दिनों अजगर का एक बच्चा निकल आया जाड़े में। संयोग से मैं भी पहुंच गया था। मारने से मना कर दिया। घर के बगल में पसरा धूप का आनंद लेता रहा कई दिनों तक। मेरे लौटने के बाद दूसरे गांव से काम पर आये मजदूरों ने डरकर मार दिया। घर में रहने वाले इन सांपों ने कभी किसी को नहीं काटा। दोनों बार मुझे काटने वाले सांप बाहरी थे। एक स्कूल में और दूसरी बार खेत में। अषढ़ियां थे। जहर नहीं चढ़ा। कई बार पेड़ से गिरना इसलिए स्वाभाविक था कि गर्मी का हमारा खेल पेड़ों पर चढ़ने और कूदने वाला था। एक खेल होता है हमारे यहां- चिल्हर पाती। टांगों के नीचे से लकड़ी का छोटा डंडा फेंका जाता है और जब तक 'चोर' लड़का उस डंडे को लाकर निर्धारित जगह पर रखे, तब तक सारे लड़कों को पेड़ पर चढ़ जाना होता है। चोर लड़का पेड़ पर चढ़कर लड़कों को छूने का प्रयास करता है। और लड़के इस प्रयास में रहते हैं कि छू जाने के पहले जमीन पर रखे उस डंडे को कूदकर अपने कब्जे में ले लें। यानी बंदर की तेजी से दौड़कर पेड़ पर चढ़ना और उतनी ही तेजी से डाल से कूदकर (तने की तरफ से उतरकर नहीं) डंडे तक पहुंचना। तो इसमें बहुत बार डाल टूट जाती है और आप डाल सहित नीचे। या हाथ से छूट जाती है और आपकी गति डाल से चूके बंदर वाली हो जाती है।
पानी में डूबने का अनुभव बहुत आतंकित और निराश करता है, क्योंकि आपको लगता है कि आपकी दुनिया छूट रही है और आप निरुपाय होते हैं। चैतन्यहीनता धीरे-धीरे हावी होती है, डूबने से भी कई बार बचा हूं पर ऐसे दो अनुभव दिमाग में एकदम चटक हैं। एक अपने उस्ताद द्वारा डुबाये जाने का, दूसरा मां के साथ डूबकर बहने का।
गांव में मेरे एक उस्ताद थे- जियावन दर्जी। पिताजी ने यह सोचकर आठ साल की उम्र में ही मुझे जियावन का शागिर्द बना दिया कि हाथ में एक हुनर हो जायेगा तो रोटी के लिए मोहताज नहीं रहेगा मेरा बेटा। जियावन मास्टर कानपुर से टेलरिंग सीखकर आये थे। बाईस-तेईस की उम्र। रंगीला स्वभाव। मशीन चलाते हुए फिल्मी गाने गाया करते। 'काज-बटन' के साथ मुझे भी बहुत से गीत याद हो गये। उस्ताद लेडीज कपड़ों के एक्सपर्ट माने जाने लगे। मुझे भी समझाना शुरू किया। पांच तक पढ़ लिये, बहुत है। अब पूरा समय सीखने में लगाओ। काम के अम्बार और हसीन चेहरों से जिंदगी भर घिरे रहोगे। वे कपड़ों की नाप बहुत सही और बहुत देर तक लेते थे। उस जमाने में भी ट्रायल के लिए बुलाते थे। इसी के चलते बाद में प्रेम में असफल होकर पागल हो गये। गले में लाल रूमाल बांधकर 'रेशमी सलवार' गाते हुए घूमते। एक बार में मुझे नहर में नहाते देख लिया। वे गुजर रहे थे तभी मैं नहर से निकल कर पुल से कूदने के लिए सड़क पर आया। अरे! उनका शागिर्द नंगे दौड़ रहा है। मेरे कूदने के साथ ही वे भी पानी में कूदे। डांटकर जांघिया पहनने को विवश किया। फिर खुद नहलाने लगे। इतनी मैल! अचानक डुबकियां लगवाना शुरू किया तो बंद न करें। दम घुटने लगा। चिल्लाने तक का मौका नहीं। किसी तरह छिटकर अलग हुआ तो भागने के लिए रास्ता गहरे पानी की ओर से मिला। आगे पुल की मोहड़ी (मुहाना)। मोहड़ी के निचले तल और पानी की सतह के बीच मात्र चार-पांच अंगुल की जगह। नाक बाहर निकालने तक की गुंजाइश नहीँ। बीस फीट की मोहड़ी पार करने भर का दम शेष नहीं। बेहाल हो गया। पानी पी लिया। ढीला पड़ गया। बहने लगा। बाप रे! गये आज! किसने पकड़ कर निकाला, याद नहीँ। औंधा करके पेट का पानी निकालना याद है। खटोले पर रखर लाया गया। खटोले का हिलना-डुलना याद है।
लेकिन दूसरी बार का बचना तो सचमुच चमत्कार था। जमीन वाला मुकदमा खत्म होने के साथ ही पिताजी का मन घर-गृहस्थी से उचट गया। मुकदमे के दौरान वे क्रमशः धार्मिक होते गए। हर मंगलवार को एक स्थानीय देवी 'चंद्रिकन' के दर्शन करने पांच कोस जाते। हर पूर्णिमा को पैदल पच्चीस कोस चलकर गंगा स्नान करने जाते। फिर एक बाबाजी की कुटी पर जाने लगे- सात कोस चलकर। गांजा पीने लगे। जब मैं दर्जा सात में था, उस साल कुटी पर गये तो लौटे ही नहीं। वहीं रम गये। दो महीने हो गये। खेती-बारी का नुकसान होने लगा। मामा उन्हें खोजते हुए पहुंचे तो उन्होंने दो टूक फैसला सुना दिया- अब हम घर-गृहस्थी के जंजाल में नहीं पड़ेंगे। भव सागर भी तो पार करना होगा। उसका उपाय कब करूंगा? बहुत समझाने-बुझाने पर लौटे लेकिन धान लगाने के बाद फिर चले गये। जाने के पहले वाली शाम को मुझे बुलाकर दूर खेतों में ले गये। अंधेरे में एक मेड़ पर बैठे। मुझे बगल में बैठाया, फिर धीमी आवाज में समझाया- देखो भाई, अभिमन्यु ने चौदह साल की उम्र में चक्रव्यूह का भेदन किया था। तुम भी चौदह के हो रहे हो। अब अपनी घर-गृहस्थी संभालो। मुझे मुक्त करो। भवसागर...
मैं चुप ही रहा। हम लोग मेड़ पर आगे-पीछे चलते हुए लौट आये। सबेरे उनकी चारपाई सूनी थी।
बरसात बीती, जाड़ा बीता, गर्मी बीती। फिर बरसात आयी। धान बोने का समय निकला जा रहा था। वे नहीं लौटे। लोगों ने मां को समझाया- तुम खुद बेटे के साथ जाओ। बाबा के सामने रोओ कि हमारी गृहस्थी बिगड़ी जा रही है। बेटे को उनके चरणों में डाल दो। वे भी देख लें कि अभी यह किस काम लायक है। बाबा वापस भेजेंगे तो उन्हें आना ही पड़ेगा।
बाबा की कुटी सात कोस दूर थी। हम मां-बेटे बड़े सवेरे निकले। सावन बीत रहा था। रास्ता नहर, ऊसर, बाहा और बागों से होकर जाता था। कुटी पर पहुंचते-पहुंचते दोपहर हो गयी। दिन लटक गया। थककर पस्त। आंखें भर आयीं। बाबा ने मां का रोना-गाना सुना। फिर अपना निर्णय सुनाया- न मैंने बुलाया है, न जाने के लिए कहूंगा। भगवान ने बुलाया है, भगवान ही जानें।
भगवान कुछ बोले नहीं। पिताजी माने नहीं। शायद रात में औरतों को कुटी पर रहने का निषेध था, या क्या कारण था, हम लोगों को लौटना पड़ा। कुटी से चले तो एक-डेढ़ घंटे दिन ही शेष था। रास्ते में पानी भी बरसने लगा। भूख लग आयी थी। बाबाजी की कुटी पर एक-एक टिक्कर और थोड़ी-सी खिचड़ी मिली थी दोपहर में। जो चावल हम लेकर गये थे, वे कुटी के भगवान को चढ़ा दिये थे। शिवगढ़ के बाहे तक पहुंचते-पहुंचते घुप्प अंधियरिया घिर आयी। आसमान बादलों से ढंका था। शिवगढ़ के बाहे पर पक्का पुल बनने की शुरुआत हो चुकी थी। पिलर्स की नींव पड़ गयी थी और मोटी लंबी लोहे की सरिया आसमान की ओर मुंह किये पुंज में पानी के बीच खड़ी थी- बरसात बीतने की प्रतीक्षा में। बहाव के चढ़ाव की तरफ, बगल में ग्रामीणों ने बांस का कामचलाऊ पुल बनाया था- चार बांस यानी डेढ़ फीट की चौड़ाई वाला- जिस पर बारी-बारी से एक-एक आदमी पार होता था। तनी हुई रस्सी पर चलने वाले नट से थोड़ी ही कम सावधानी के साथ। हम लोग बाहे पर पहुंचे तो थोड़ी देर पहले बरसे पानी के चलते बाहा उमड़ आया था। बांस का पुल डूब चुका था। अंधेरे में अंदाज से उसे खोजते हुए हम पानी में डूबी मेड़ पर संभल-संभल कर आगे बढ़ रहे थे। पानी कमर तक आ गया। बहाव तेज था। लगता था पुल दायें-बायें कहीं छूट रहा है। तभी मैं फिसला और गड़प की आवाज के साथ गायब हो गया। निर्माणाधीन पुल के दोनों सिरों पर मिट्टी डालने के लिए मेड़ के बगल में खंती खोदी गयी थी। पानी भरा होने और अंधेरे के कारण उसका पता नहीं चल रहा था। ठीक पीछे चलती हुई मां डरकर चीखी होगी। वह भी डगमगायी और खंती के पेट में समा गयी। पुल वाली जगह से गुजरने के बाद बाहा थोड़ा-सा बायीं और मुड़ता था। बहते-तैरते हुए मैं उसी घुमाव के दाहिने किनारे पर लगा तो मां को आवाज देने लगा। मां की आवाज आयी- बच गयी हूं। लोहे की सरियों के सहारे टिकी हूं। मां भी तैरना जानती थी, लेकिन घुप्प अंधेरा था। धार का, थाह का, विस्तार का अंदाज नहीं था। इसलिए मैंने उसे चिल्लाकर आगाह किया- सरिया छोड़ना नहीं।
बाहे के चारों तरफ डेढ़-दो मील तक कोई गांव-गिरांव नहीं था। चिल्लाना, गोहार लगाना बेकार था। शिवगढ़ की ओर दीये की मद्धिम टिमटिमाहट दिख रही थी। मैं उधर ही गया। पांच-छह लोग आये। तब तक बाढ़ भी कुछ घट गयी। उन लोगों ने मां को निकाला। शिवगढ़ और बेलसौना के बीच के महाऊसर का विस्तार पार करते-करते कपड़े सूख गये। हम लोग घर पहुंचे तो सूरज निकल रहा था।
उन दिनों के किसी प्राणी की सबसे ज्यादा याद आती है तो वह है मकरा बैल। जब पिताजी ने घर छोड़ा तो मैं कद में इतना छोटा था कि हल की मूठ मेरे कंधे तक आती थी। (सामान्यतः इसे कमर तक रहना चाहिए) हराई की समाप्ति के दौरान या फार में घास-दूब 'अरझ' जाने पर दस किलो का कुढ़ा उठाकर दूब गिराना मेरे बस में नहीं था। एक हाथ से कौन कहे, दोनों हाथों से कठिन था। अभ्यास न होने कारण पहली साल तो हराई फनाते समय हर का मुंह सीधा रखना ही कठिन था। ऐसे में मेरे 'मकरे' ने हलवाहे की भूमिका भी खुद ही निभायी। वह दाहिने चलता था। वह खुद ही निर्णय लेता था कि कहां मुड़ना है और कहां सीधे चलना है। बायें चलने वाला 'ललिया' सीधा और सचमुच थोड़ा 'बैल' था, लेकिन पूरी तरह मकरे का नियंत्रण मानता था। चारा देने, पानी पिलाने या रात में खवाई-पिवाई के बाद उनको मिलने वाली रोटी देने में देर होने पर तो वह हुंकार मारकर याद दिलाता ही था, एकाध बार तो ऐसा भी हुआ कि हल नाधने का समय हो गया, वह समय पर स्वयं उठकर खड़ा हो गया। पेशाब-गोबर किया। तब तक भी मैं जुवाठ लेकर उसके पास नहीं पहुंचा तो वह हुंकार भरकर सचेत करने लगा। मानो कह रहा हो, इतना आलस ठीक नहीं। आदमी को समय का ध्यान न रहा तो बरक्कत क्या खाक होगी। जुवाठ देखर तुरंत खड़ा होना और लपक कर गर्दन आगे करना तो उसकी पहले की आदत थी। उन दिनों मकरे ने मेरी जितनी मदद की, उतनी तो किसी आदमी ने नहीं की।
मकरा इतना चालाक और ज्ञानी था कि खूंटे से अपना पगहा दांतों से पकड़कर निकालता और पीठ पर फेंक देता। खासकर गर्मी के महीने में जब हरे चारे का अभाव हो जाता और सूखा भूसा खाते-खाते ऊब जाता। तब दिन में चरने के दौरान पह सांवा, गन्ना या उरद-मूंग के खेतों की पड़ताल किये रहता और रात को जाकर उन पर जीभ साफ करता। रास्ते में पड़ने वाले अपने खेत को छोड़ देता और दूर के दूसरे के खेत को चरता। पहचान में आ सके कि किसके जानवर ने यह सत्यानाश किया है, वह गीले खेत में न घुसकर उसकी मेड़ पकड़कर चलता। चर-खाकर वापस अपने खूंटे पर ही आकर बैठता। यदि आपके पास कभी इतना समझदार बैल नहीं रहा होगा तो आप हंस रहे होंगे कि अपने बैल की बड़ाई में मैं अविश्वनीय ब्योरे दे रहा हूं।
जिस समय मकरा खरीदकर लाया गया, वह उदंत था। या शायद दो दांत का रहा हो। खेत वाला मुकदमा जीतने के अगले साल की बात होगी। देखने-सुनने में चरफर और फुन्नैत। खूंटा बदलने की उदासी दो दिन से ज्यादा नहीं रही। घरबार पहचानने लगा। पास से गुजरने वाले अजनबी तक को हूं-हूं करके विश करता। पीठ सहलवाना पसंद नहीं करता था। हुंकार कर, पिछला पैर पटककर, पूंछ सटका कर मना कर देता। सहलाना ही है तो लिलरी सहलाइये। वह मुंह ऊपर उठा देता। चरने के लिए छूटता तो चरने से ज्यादा इस झुंड से उस झुंड में चर रहे जानवरों के बीच दौड़-दौड़कर पहुंचता। सूंघता, जान-पहचान करता या रण रोपता। गरम गाय के पीछे दौड़ने वाले झुंड में शामिल होता। झुंड में भारी भरकरम सांड और नुकीले सींग वाले मरकहे बैलों का दबदबा होता। मकरे जैसे मामूली कद-काठी वाले किस गिनती में। फिर भी अपने कौशल से वह एकाध हबार चढ़ने की जुगत भिड़ा लेता। सारे चरवाहे अपने-अपने बैलों-बछड़ों की सफलता पर ताली बजाते। मुझे विश्वास रहता कि मेरा मकरा मुझे भी ताली बजाने का मौका जरूर देगा, लेकिन मकरे के जीवन का यह 'स्वर्ण युग' एक ही साल रहा। किसान की मान्यता है कि अंडू बैल की ऊर्जा यौन-चिंतन और संसर्ग में खर्च होने के कारण उसके पास हल जोतने के लिए पर्याप्त शक्ति संचित नहीं रह पाती। वह जल्दी 'चुक' जाता है। उसका खाया-पीया देह में लगे, मांसपेशियां मजबूत हों, कम से कम दस माटी हल जोतने की शक्ति संचित हो सके, इसलिए उसका 'खुनाया' जाना आवश्यक है। खुनाना अर्थात उसके अंडकोश और लिंग को जोड़ने वाली नसों को हल्दी-तेल लगाकर पत्थर के लोढ़े से कूंचकर निर्जीव करना। ताकि वह गरम गाय के पीछे भागने लायक न रह जाये। यह दुर्घटना 'मघा' नक्षत्र में हुई। चार-पांच लोगों ने मकरे के चारों पैरों को मजबूत रस्से से बांधा। धड़ में रस्सा लपेटा। एक मजबूत आदमी ने सींग पकड़े। फिर सबने मिलकर उसे पटका। लोढ़े के प्रत्येक प्रहार पर मकरा अपनी लंबी जीभ निकाकर बां-बां करने लगा। उसकी आंखें आतंक से फैल गयीं। उसका आर्तनाद सुनकर पास बंधा दूसरा बैल और गाय होंकड़ने-डकरने लगे। मेरे रोंगटे खड़े हो गये। उधर देखा नहीं जा रहा था। बंधन खुलने के बाद भी वह शाम तक वहीं बैठा रह गया। उसकी आंखों में आतंक की जगह 'दीनता' उतर आयी। शाम को हल्दी-माठा पिलाने के बाद उसे लात मारकर उठाया गया। वह अपनी जगह से हिल तक नहीं पा हा था। सिकुड़ा खड़ा रह गया। इतना दर्द। इतनी बेचारगी। जैसे पूछता हो- क्यों की मेरे साथ इतनी घटियारी। किस जनम का बदला लिया?
पिताजी एक किस्सा सुनाते थे, सदन कसाई का। सदन कसाई के घर एक बार मेहमान आये तो पकाने के लिए घर में सालन नहीं था। पैसा भी नहीं था। परेशान हो गये तो पत्नी ने उपाय बताया- घर पर जो भैंसा बंधा है, उसे तो दो-चार दिन में कट ही जाना है। उसका अंडकोश अब उसके किस काम का। काट लाइए। एक किलो से कम क्या होगा? आज का काम चल जायेगा। सदन कसाई बांका लेकर गये। भैंसे को अपने आने का प्रयोजन बताया। भैंसा बोला- भइया सदन, हमारे आपके बीच मूंड़कटौवल तो पीढ़ियों से है पर अब यह नयी परंपरा? जीते जी पेल्हर-कटौवल। अरे वही तो भगवान ने बिना भेदभाव के एक सुख का साज दिया है हर जोनि के मर्द को। उसको भी मेहरिया के कहने से....अरे काटना ही है तो पहले मूंड़ काट लीजीए। फिर जो मरजी काटते रहिएगा।
और सदन कसाई सिर झुकाकर लौट आये। न सिर्फ लौट आये बल्कि बांका फेंक कर भगत हो गये। शबरी, अजामिल, गीध की तरह उन्हें श्रीराम ने 'तार' दिया। पिताजी तन्मय होकर गाते- शबरी का तारया, कसाई का तारया, राम, हमहूं का ना, ल्या सरनिया मा हलाई/राम, हमहूं का ना। यानी खुद पिताजी भी शबरी और सदन का हवाला देकर तरने की कामना करते थे। सोचता हूं, कई-कई बार इस किस्से को सुनाने वाले पिताजी मकरे की आंखों की याचना क्यों नहीं पढ़ सके? मकरे को इस हादसे से उबरने में हफ्तों लगे। वह धीरे-धीरे चरने-खाने लगा। हम लोगों को माफ कर दिया होगा, लेकिन उनका इस झुंड से उस झुंड में होंकड़ते-डकरते हुए दौड़ना छूट गया।
पिताजी गये तो मैं दर्जा सात में था और बहन दर्जा दो में। उनके गृहत्याग को हमने नियति का क्रूर मजाक मानकर स्वीकार कर लिया। नानी ने सहायता स्वरूप एक बकरी दी। उसका नाम भूल रहा हूं। उसके एक ही साथ तीन बच्चे हुए। तीनों मादा। नाम थे- खैली, निमरी और पुटकाही। फिर इन तीनों की संततियां आयीं। बहन पढ़ाई छोड़कर उन्हें चराने लगी। मैं स्कूल से लौटता तो इनके लिए पीपल, पाकड़ या महुए की पत्तियों का इंतजाम करता। रविवार के दिन इनके लिए विशेष रूप से बेर, बबूल, या नीम की डाल छिनगाता। इनका झुंड बड़ा होता गया। दस-बारह हो गयीं। जिस दिन कोई पाला-पोसा बकरा चिकवे के हाथ बेचा जाता और वह उसे साइकिल के फ्रेम के नीचे विशेष रूप से बनाये गये बोरे में बांधकर ले चलता, बकरे की चिल्लाहट से सारा माहौल गमगीन हो जाता। सारा घर रोने लगता। उस शाम बिना खाये हम तीनों प्राणी चुपचाप अपनी-अपनी चारपाइयों पर पड़ जाते। बकरियां उसकी याद में रातभर खोभार में अललाती रहतीं।

बिंदा : महादेवी वर्मा



 भीत-सी आँखोंवाली उस दुर्बल, छोटी और अपने-आप ही सिमटी-सी बालिका पर दृष्टि डाल कर मैंने सामने बैठे सज्जन को, उनका भरा हुआ प्रवेशपत्र लौटाते हुए कहा-'आपने आयु ठीक नहीं भरी है। ठीक कर दीजिए, नहीं तो पीछे कठिनाई पड़ेगी।' 'नहीं, यह तो गत आषाढ़ में चौदह की हो चुकी', सुनकर मैने कुछ विस्मित भाव से अपनी उस भावी विद्यार्थिनी को अच्छी तरह देखा, जो नौ वर्षीय बालिका की सरल चंचलता से शून्य थी और चौदह वर्षीय किशोरी के सलज्ज उत्साह से अपरिचित।

उसकी माता के संबंध में मेरी जिज्ञासा स्वगत न रहकर स्पष्ट प्रश्न ही बन गयी होगी, क्योंकि दूसरी ओर से कुछ कुंठित उत्तर मिला-'मेरी दूसरी पत्नी है, और आप तो जानती ही होंगी...' और उनके वाक्य को अधसुना ही छोड़कर मेरा मन स्मृतियों की चित्रशाला में दो युगों से अधिक समय की भूल के नीचे दबे बिंदा या विन्ध्येश्वरी के धुंधले चित्र पर उँगली रखकर कहने लगा--ज्ञात है, अवश्य ज्ञात है।

बिंदा मेरी उस समय की बाल्यसखी थी, जब मैंने जीवन और मृत्यु का अमिट अन्तर जान नहीं पाया था। अपने नाना और दादी के स्वर्ग-गमन की चर्चा सुनकर मैं बहुत गम्भीर मुख और आश्वस्त भाव से घर भर को सूचना दे चुकी थी कि जब मेरा सिर कपड़े रखने की आल्मारी को छूने लगेगा, तब मैं निश्चय ही एक बार उनको देखने जाऊँगी। न मेरे इस पुण्य संकल्प का विरोध करने की किसी को इच्छा हुई और न मैंने एक बार मर कर कभी न लौट सकने का नियम जाना। ऐसी दशा में, छोटे-छोटे असमर्थ बच्चों को छोड़कर मर जाने वाली माँ की कल्पना मेरी बुद्धि में कहाँ ठहरती। मेरा संसार का अनुभव भी बहुत संक्षिप्त-सा था। अज्ञानावस्था से मेरा साथ देने वाली सफेद कुत्ती-सीढ़ियों के नीचे वाली अंधेरी कोठरी में आँख मूंदे पड़े रहने वाले बच्चों की इतनी सतर्क पहरेदार हो उठती थी कि उसका गुर्राना मेरी सारी ममता-भरी मैत्री पर पानी फेर देता था। भूरी पूसी भी अपने चूहे जैसे नि:सहाय बच्चों को तीखे पैने दाँतों में ऐसी कोमलता से दबाकर कभी लाती, कभी ले जाती थी कि उनके कहीं एक दाँत भी न चुभ पाता था। ऊपर की छत के कोने पर कबूतरों का और बड़ी तस्वीर के पीछे गौरैया का जो भी घोंसला था, उसमें खुली हुई छोटी-छोटी चोचों और उनमें सावधानी से भरे जाते दोनों और कीड़े-मकोड़ों को भी मैं अनेक बार देख चुकी थी। बछिया को हटाते हुए ही रँभा-रँभा कर घर भर को यह दु:खद समाचार सुनाने वाली अपनी श्यामा गाय की व्याकुलता भी मुझसे छिपी न थी। एक बच्चे को कन्धे से चिपकाये और एक उँगली पकड़े हुए जो भिखरिन द्धार-द्धार फिरती थी, वह भी तो बच्चों के लिए ही कुछ माँगती रहती थी। अत: मैंने निश्चित रूप से समझ लिया था कि संसार का सारा कारबार बच्चों को खिलाने-पिलाने, सुलाने आदि के लिए ही हो रहा है और इस महत्वपूर्ण कर्तव्य में भूल न होने देने का काम माँ नामधारी जीवों को सौंपा गया है।

और बिंदा के भी तो माँ थी जिन्हें हम पंडिताइन चाची और बिंदा 'नई अम्मा' कहती थी। वे अपनी गोरी, मोटी देह को रंगीन साड़ी से सजे-कसे, चारपाई पर बैठ कर फूले गाल और चिपटी-सी नाक के दोनों ओर नीले कांच के बटन सी चमकती हुई आँखों से युक्त मोहन को तेल मलती रहती थी। उनकी विशेष कारीगरी से संवारी पाटियों के बीच में लाल स्याही की मोटी लकीर-सा सिन्दूर उनींदी-सी आँखों में काले डोरे के समान लगने वाला काजल, चमकीले कर्णफूल, गले की माला, नगदार रंग-बिरंगी चूड़ियाँ और घुँघरूदार बिछुए मुझे बहुत भाते थे, क्योंकि यह सब अलंकार उन्हें गुड़िया की समानता दे देते थे।

यह सब तो ठीक था; पर उनका व्यवहार विचित्र-सा जान पड़ता था। सर्दी के दिनों में जब हमें धूप निकलने पर जगाया जाता था, गर्म पानी से हाथ मुँह धुलाकर मोजे, जूते और ऊनी कपड़ों से सजाया जाता था और मना-मनाकर गुनगुना दूध पिलाया जाता था, तब पड़ोस के घर में पंडिताइन चाची का स्वर उच्च से उच्चतर होता रहता था। यदि उस गर्जन-तर्जन का कोई अर्थ समझ में न आता, तो मैं उसे श्याम के रँभाने के समान स्नेह का प्रदर्शन भी समझ सकती थी; परन्तु उसकी शब्दावली परिचित होने के कारण ही कुछ उलझन पैदा करने वाली थी। 'उठती है या आऊँ', 'बैल के-से दीदे क्या निकाल रही है', मोहन का दूध कब गर्म होगा', 'अभागी मरती भी नहीं', आदि वाक्यों में जो कठोरता की धारा बहती रहती थी, उसे मेरा अबोध मन भी जान ही लेता था।

कभी-कभी जब मैं ऊपर की छत पर जाकर उस घर की कथा समझने का प्रयास करती, तब मुझे मैली धोती लपेटे हुए बिंदा ही आंगन से चौके तक फिरकनी-सी नाचती दिखाई देती। उसका कभी झाडू देना, कभी आग जलाना, कभी आँगन के नल से कलसी में पानी लाना, कभी नई अम्मा को दूध का कटोरा देने जाना, मुझे बाजीगर के तमाशा जैसे लगता था; क्योंकि मेरे लिए तो वे सब कार्य असम्भव-से थे। पर जब उस विस्मित कर देने वाले कौतुक की उपेक्षा कर पंडिताइन चाची का कठोर स्वर गूँजने लगता, जिसमें कभी-कभी पंडित जी की घुड़की का पुट भी रहता था, तब न जाने किस दु:ख की छाया मुझे घेरने लगती थी। जिसकी सुशीलता का उदाहरण देकर मेरे नटखटपन को रोका जाता था, वहीं बिंदा घर में चुपके-चुपके कौन-सा नटखटपन करती रहती है, इसे बहुत प्रयत्न करके भी मैं न समझ पाती थी। मैं एक भी काम नहीं करती थी और रात-दिन ऊधम मचाती रहती; पर मुझे तो माँ ने न मर जाने की आज्ञा दी और न आँखें निकाल लेने का भय दिखाया। एक बार मैंने पूछा भी - 'क्या पंडिताइन चाची तुमरी तरह नहीं है?' माँ ने मेरी बात का अर्थ कितना समझा यह तो पता नहीं, उनके संक्षिप्त 'हैं' से न बिंदा की समस्या का समाधान हो सका और न मेरी उलझन सुलझ पाई।

बिंदा मुझसे कुछ बड़ी ही रही होगी; परन्तु उसका नाटापन देखकर ऐसा लगता था, मानों किसी ने ऊपर से दबाकर उसे कुछ छोटा कर दिया हो। दो पैसों में आने वाली खँजड़ी के ऊपर चढ़ी हुई झिल्ली के समान पतले चर्म से मढ़े और भीतर की हरी-हरी नसों की झलक देने वाले उसके दुबले हाथ-पैर न जाने किस अज्ञात भय से अवसन्न रहते थे। कहीं से कुछ आहट होते ही उसका विचित्र रूप से चौंक पड़ना और पंडिताइन चाची का स्वर कान में पड़ते ही उसके सारे शरीर का थरथरा उठना, मेरे विस्मय को बढ़ा ही नहीं देता था, प्रत्युत् उसे भय में बदल देता था। और बिंदा की आँखें तो मुझे पिंजड़े में बन्द चिड़िया की याद दिलाती थीं।

एक बार जब दो-तीन करके तारे गिनते-गिनते उसने एक चमकीले तारे की ओर उँगली उठाकर कहा - 'वह रही मेरी अम्मा', तब तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। क्या सबकी एक अम्मा तारों में होती है ओर एक घर में? पूछने पर बिंदा ने अपने ज्ञान-कोष में से कुछ कण मुझे दिये और तब मैंने समझा कि जिस अम्मा को ईश्वर बुला लेता है, वह तारा बनकर ऊपर से बच्चों को देखती रहती है और जो बहुत सजधज से घर में आती है, वह बिंदा की नई अम्मा जैसी होती है। मेरी बुद्धि सहज ही पराजय स्वीकार करना नहीं जानती, इसी से मैंने सोचकर कहा - 'तुम नई अम्मा को पुरानी अम्मा क्यों नहीं कहती, फिर वे न नई रहेंगी और न डाँटेंगी।'

बिंदा को मेरा उपाय कुछ जँचा नहीं, क्योंकि वह तो अपनी पुरानी अम्मा को खुली पालकी में लेटकर जाते और नई को बन्द पालकी में बैठकर आते देख चुकी थी, अत: किसी को भी पदच्युत करना उसके लिए कठिन था।

पर उसकी कथा से मेरा मन तो सचमुच आकुल हो उठा, अत: उसी रात को मैंने माँ से बहुत अनुनय पूर्वक कहा - 'तुम कभी तारा न बनना, चाहे भगवान कितना ही चमकीला तारा बनावें।' माँ बेचारी मेरी विचित्र मुद्रा पर विस्मित होकर कुछ बोल भी न पायी थी कि मैंने अकुंठित भाव से अपना आशय प्रकट कर दिया - 'नहीं तो, पंडिताइन चाची जैसी नई अम्मा पालकी में बैठकर आ जाऐगी और फिर मेरा दूध, बिस्कुट, जलेबी सब बन्द हो जाएगी - और मुझे बिंदा बनना पड़ेगा।' माँ का उत्तर तो मुझे स्मरण नहीं, पर इतना याद है कि उस रात उसकी धोती का छोर मुट्ठी में दबाकर ही मैं सो पाई थी।

बिंदा के अपराध तो मेरे लिए अज्ञात थे; पर पंडिताइन चाची के न्यायालय से मिलने वाले दण्ड के सब रूपों से मैं परिचित हो चुकी थी। गर्मी की दोपहर में मैंने बिंदा को आँगन की जलती धरती पर बार-बार पैर उठाते ओर रखते हुए घंटो खड़े देखा था, चौके के खम्भे से दिन-दिन भर बँधा पाया था और भूश से मुरझाये मुख के साथ पहरों नई अम्मा ओर खटोले में सोते मोहन पर पंखा झलते देखा था। उसे अपराध का ही नहीं, अपराध के अभाव का भी दण्ड सहना पड़ता था, इसी से पंडित जी की थाली में पंडिताइन चाची का ही काला मोटा और घुँघराला बाल निकलने पर भी दण्ड बिंदा को मिला। उसके छोटे-छोटे हाथों से धुल न सकने वाले, उलझे, तेलहीन बाल भी अपने स्वाभाविक भूरेपन ओर कोमलता के कारण मुझे बड़े अच्छे लगते थे। जब पंडिताइन चाची की कैंची ने उन्हें कूड़े के ढेर पर, बिखरा कर उनके स्थान को बिल्ली की काली धारियों जैसी रेखाओं से भर दिया तो मुझे रूलाई आने लगी; पर बिंदा ऐसे बैठी रही, मानों सिर और बाल दोनों नई अम्मा के ही हों।

और एक दिन याद आता है। चूल्हे पर चढ़ाया दूध उफना जा रहा था। बिंदा ने नन्हें-नन्हें हाथों से दूध की पतीली उतारी अवश्य; पर वह उसकी उँगलियों से छूट कर गिर पड़ी। खौलते दूध से जले पैरों के साथ दरवाजे पर खड़ी बिंदा का रोना देख मैं तो हतबुद्धि-सी हो रही। पंडिताइन चाची से कह कर वह दवा क्यों नहीं लगवा लेती, यह समझाना मेरे लिए कठिन था। उस पर जब बिंदा मेरा हाथ अपने जोर से धड़कते हुए ह्रदय से लगाकर कहीं छिपा देने की आवश्यकता बताने लगी, तब तो मेरे लिए सब कुछ रहस्मय हो उठा।

उसे मैं अपने घर में खींच लाई अवश्य; पर न ऊपर के खण्ड में माँ के पास ले जा सकी और न छिपाने का स्थान खोज सकी। इतने में दीवारें लाँघ कर आने वाले, पंडिताइन चाची के उग्र स्वर ने भय से हमारी दिशाएँ रूँध दीं, इसी से हड़बडाहट में हम दोनों उस कोठरी में जा घुसीं, जिसमें गाय के लिए घास भरी जाती थी। मुझे तो घास की पत्तियाँ भी चुभ रही थीं, कोठरी का अंधकार भी कष्ट दे रहा था; पर बिंदा अपने जले पैरों को घास में छिपाये और दोनों ठंडे हाथें से मेरा हाथ दबाए ऐसे बैठी थी, मानों घास का चुभता हुआ ढेर रेशमी बिछोना बन गया हो।

मैं तो शायद सो गई थी; क्योंकि जब घास निकालने के लिए आया हुआ गोपी इस अभूतपूर्व दृश्य की घोषणा करने के लिए कोलाहल मचाने लगा, तब मैंने आँखें मलते हुए पूछा, 'क्या सबेरा हो गया?'

माँ ने बिंदा के पैरों पर तिल का तेल और चूने का पानी लगाकर जब अपने विशेष सन्देशवाहक के साथ उसे घर भिजवा दिया, तब उसकी क्या दशा हुई, यह बताना कठिन है; पर इतना तो मैं जानती हूँ कि पंडिताइन चाची के न्याय विधान में न क्षमता का स्थान था, न अपील का अधिकार।

फिर कुछ दिनों तक मैंने बिंदा को घर-आँगन में काम करते नहीं देखा। उसके घर जाने से माँ ने मुझे रोक दिया था; पर वे प्राय: कुछ अंगूर और सेब लेकर वहाँ हो आती थीं। बहुत खुशामद करने पर रूकिया ने बताया कि उस घर में महारानी आई हैं। 'क्या वे मुझसे नहीं मिल सकती' पूछने पर वह मुँह में कपड़ा ठूँस कर हँसी रोकने लगी। जब मेरे मन का कोई समाधान न हो सका, तब मै। एक दिन दोपहर को सभी की आँख बचाकर बिंदा के घर पहुँची। नीचे के सुनसान खण्ड में बिंदा अकेली एक खाट पर पड़ी थी। आँखें गड्ढ़े में धँस गयी थीं, मुख दानों से भर कर न जाने कैसा हो गया था और मैली-सी सादर के नीचे छिपा शरीर बिछौने से भिन्न ही नहीं जान पड़ता था। डाक्टर, दवा की शीशियाँ, सिर पर हाथ फेरती हुई माँ और बिछौने के चारों चक्कर काटते हुए बाबूजी ने बिना भी बीमारी का अस्तित्व है, यह मैं नहीं जानती थी, इसी से उस अकेली बिंदा के पास खड़ी होकर मैं चकित-सी चारों ओर देखती रह गयी। बिंदा ने ही कुछ संकेत और कुछ अस्पष्ट शब्दों में बताया कि नई अम्मा मोहन के साथ ऊपर खण्ड में रहती हैं, शायद चेचक के डर से। सबेरे-शाम बरौनी आकर उसका काम कर जाती है।

फिर तो बिंदा को दुखना सम्भव न हो सका; क्योंकि मेरे इस आज्ञा उल्लंघन से माँ बहुत चिन्तित हो उठी थीं।

एक दिन सबेरे ही रूकिया ने उनसे न जाने क्या कहा कि वे रामायण बन्द कर बार-बार आँखें पोंछती हुई बिंदा के घर चल दीं। जाते-जाते वे मुझे बाहर न निकलने का आदेश देना नहीं भूली थीं, इसी से इधर-उधर से झाँककर देखना आवश्यक हो गया। रूकिया मेरे लिए त्रिकालदर्शी से कम न थी; परन्तु वह विशेष अनुनय-विनय के बिना कुछ बताती ही नहीं थी और उससे अनुनय-विनय करना मेरे आत्म-सम्मान के विरूद्ध पड़ता था। अत: खिड़की से झाँककर मैं बिंदा के दरवाजे पर जमा हुए आदमियों के अतिरिक्त और कुछ न देख सकी और इस प्रकार की भड़ से विवाह और बारात का जो संबंध है, उसे मैं जानती थी। तब क्या उस घर में विवाह हो रहा है, और हो रहा है तो किसका? आदि प्रश्न मेरी बुद्धि की परीक्षा लेने लगे। पंडित जी का विवाह तो तब होगा, जब दूसरी पंडिताइन चाची भी मर कर तारा बन जाऐंगी और बैठ न सकने वाले मोहन का विवाह संभव नहीं, यही सोच-विचार कर मैं इस परिणाम तक पहुँची कि बिंदा का विवाह हो रहा है ओर उसने मुझे बुलाया तक नहीं। इस अचिन्त्य अपमान से आहत मेरा मन सब गुड़ियों को साक्षी बनाकर बिंदा को किसी भी शुभ कार्य में न बुलाने की प्रतिज्ञा करने लगा।

कई दिन तक बिंदा के घर झाँक-झाँककर जब मैंने माँ से उसके ससुराल से लौटने के संबंध में प्रश्न किया, तब पता चला कि वह तो अपनी आकाश-वासिनी अम्मा के पास चली गयी। उस दिन से मैं प्राय: चमकीले तारे के आस-पास फैले छोटे तारों में बिंदा को ढूंढ़ती रहती; पर इतनी दूर से पहचानना क्या संभव था?

तब से कितना समय बीत चुका है, पर बिंदा ओर उसकी नई अम्मा की कहानी शेष नहीं हुई। कभी हो सकेगी या नहीं, इसे कौन बता सकता है?

सयानी बुआ : मन्नू भंडारी



 सब पर मानो बुआजी का व्यक्तित्व हावी है। सारा काम वहाँ इतनी व्यवस्था से होता जैसे सब मशीनें हों, जो कायदे में बँधीं, बिना रुकावट अपना काम किए चली जा रही हैं। ठीक पाँच बजे सब लोग उठ जाते, फिर एक घंटा बाहर मैदान में टहलना होता, उसके बाद चाय-दूध होता।उसके बाद अन्नू को पढने के लिए बैठना होता। भाई साहब भी तब अखबार और ऑफिस की फाइलें आदि देखा करते। नौ बजते ही नहाना शुरू होता। जो कपडे बुआजी निकाल दें, वही पहनने होते। फिर कायदे से आकर मेज पर बैठ जाओ और खाकर काम पर जाओ।

सयानी बुआ का नाम वास्तव में ही सयानी था या उनके सयानेपन को देखकर लोग उन्हें सयानी कहने लगे थे, सो तो मैं आज भी नहीं जानती, पर इतना अवश्य कँगी कि जिसने भी उनका यह नाम रखा, वह नामकरण विद्या का अवश्य पारखी रहा होगा।

बचपन में ही वे समय की जितनी पाबंद थीं, अपना सामान संभालकर रखने में जितनी पटु थीं, और व्यवस्था की जितना कायल थीं, उसे देखकर चकित हो जाना पडता था। कहते हैं, जो पेंसिल वे एक बार खरीदती थीं, वह जब तक इतनी छोटी न हो जाती कि उनकी पकड में भी न आए तब तक उससे काम लेती थीं। क्या मजाल कि वह कभी खो जाए या बार-बार नाेंक टूटकर समय से पहले ही समाप्त हो जाए। जो रबर उन्होंने चौथी कक्षा में खरीदी थी, उसे नौवीं कक्षा में आकर समाप्त किया।

उम्र के साथ-साथ उनकी आवश्यकता से अधिक चतुराई भी प्रौढता धारण करती गई और फिर बुआजी के जीवन में इतनी अधिक घुल-मिल गई कि उसे अलग करके बुआजी की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। उनकी एक-एक बात पिताजी हम लोगों के सामने उदाहरण के रूप में रखते थे जिसे सुनकर हम सभी खैर मनाया करते थे कि भगवान करे, वे ससुराल में ही रहा करें, वर्ना हम जैसे अस्त-व्यस्त और अव्यवस्थित-जनों का तो जीना ही हराम हो जाएगा।

ऐसी ही सयानी बुआ के पास जाकर पढने का प्रस्ताव जब मेरे सामने रखा गया तो कल्पना कीजिए, मुझ पर क्या बीती होगी? मैंने साफ इंकार कर दिया कि मुझे आगे पढना ही नहीं। पर पिताजी मेरी पढाई के विषय में इतने सतर्क थे कि उन्होंने समझाकर, डाँटकर और प्यार-दुलार से मुझे राजी कर लिया। सच में, राजी तो क्या कर लिया, समझिए अपनी इच्छा पूरी करने के लिए बाध्य कर दिया। और भगवान का नाम गुहारते-गुहारते मैंने घर से विदा ली और उनके यहाँ पहुँची।

इसमें संदेह नहीं कि बुआजी ने बडा स्वागत किया। पर बचपन से उनकी ख्याति सुनते-सुनते उनका जो रौद्र रूप मन पर छाया हुआ था, उसमें उनका वह प्यार कहाँ तिरोहित हो गया, मैं जान ही न पाई। हाँ, बुआजी के पति, जिन्हें हम भाई साहब कहते थे, बहुत ही अच्छे स्वभाव के व्यक्ति थे। और सबसे अच्छा कोई घर में लगा तो उनकी पाँच वर्ष की पुत्री अन्नू।

घर के इस नीरस और यंत्रचालित कार्यक्रम में अपने को फिट करने में मुझे कितना कष्ट उठाना पडा और कितना अपने को काटना-छाँटना पडा, यह मेरा अंतर्यामी ही जानता है। सबसे अधिक तरस आता था अन्नू पर। वह इस नन्ही-सी उमर में ही प्रौढ हो गई थी। न बच्चों का-सा उल्लास, न कोई चहचहाहट। एक अज्ञात भय से वह घिरी रहती थी। घर के उस वातावरण में कुछ ही दिनों में मेरी भी सारी हँसी-खुशी मारी गई।

यों बुआजी की गृहस्थी जमे पंद्रह वर्ष बीच चुके थे, पर उनके घर का सारा सामान देखकर लगता था, मानाें सब कुछ अभी कल ही खरीदा हो। गृहस्थी जमाते समय जो काँच और चीनी के बर्तन उन्होंने खरीदे थे, आज भी ज्यों-के-त्यों थे, जबकि रोज उनका उपयोग होता था। वेसारे बर्तन स्वयं खडी होकर साफ करवाती थीं। क्या मजाल, कोई एक चीज भी तोड दे। एक बार नौकर ने सुराही तोड दी थी। उस छोटे-से छोकरे को उन्होंने इस कसूर पर बहुत पीटा था। तोड-फोड से तो उन्हें सख्त नफरत थी, यह बात उनकी बर्दाश्त के बाहर थी। उन्हेंबडा गर्व था अपनी इस सुव्यवस्था का। वे अक्सर भाई साहब से कहा करती थीं कि यदि वे इस घर में न आतीं तो न जाने बेचारे भाई साहब का क्या हाल होता। मैं मन-ही-मन कहा करती थी कि और चाहे जो भी हाल होता, हम सब मिट्टी के पुतले न होकर कम-से-कम इंसान तो अवश्य हुए होते।

बुआजी की अत्यधिक सतर्कता और खाने-पीने के इतने कंट्रोल के बावजूद अन्नू को बुखार आने लगा, सब प्रकार के उपचार करने-कराने में पूरा महीना बीत गया, पर उसका बुखार न उतरा। बुआजी की परेशानी का पार नहीं, अन्नू एकदम पीली पड गई। उसे देखकर मुझे लगता मानो उसके शरीर में ज्वर के कीटाणु नहीं, बुआजी के भय के कीटाणु दौड रहे हैं, जो उसे ग्रसते जा रहे हैं। वह उनसे पीडित होकर भी भय के मारे कुछ कह तो सकती नहीं थी, बस सूखती जा रही है।

आखिर डॉक्टरों ने कई प्रकार की परीक्षाओं के बाद राय दी कि बच्ची को पहाड पर ले जाया जाए, और जितना अधिक उसे प्रसन्न रखा जा सके, रखा जाए। सब कुछ उसके मन के अनुसार हो, यही उसका सही इलाज है। पर सच पूछो तो बेचारी का मन बचा ही कहाँ था? भाई साहब के सामने एक विकट समस्या थी। बुआजी के रहते यह संभव नहीं था, क्योंकि अनजाने ही उनकी इच्छा के सामने किसी और की इच्छा चल ही नहीं सकती थी। भाई साहब ने शायद सारी बात डॉक्टर के सामने रख दी, तभी डॉक्टर ने कहा कि माँ का साथ रहना ठीक नहीं होगा। बुआजी ने सुना तो बहुत आनाकानी की, पर डॉक्टर की राय के विरुध्द जाने का साहस वे कर नहीं सकीं सो मन मारकर वहीं रहीं।

जोर-शोर से अन्नू के पहाड जाने की तैयारी शुरू हुई। पहले दोनों के कपडों की लिस्ट बनी, फिर जूतों की, मोजों की, गरम कपडों की, ओढने-बिछाने के सामान की, बर्तनों की। हर चीज रखते समय वे भाई साहब को सख्त हिदायत कर देती थीं कि एक भी चीज खोनी नहीं चाहिए- 'देखो, यह फ्रॉक मत खो देना, सात रुपए मैंने इसकी सिलाई दी है। यह प्याले मत तोड देना, वरना पचास रुपए का सेट बिगड जाएगा। और हाँ, गिलास को तुम तुच्छ समझते हो, उसकी परवाह ही नहीं करोगे, पर देखो, यह पंद्रह बरस से मेरे पास है और कहीं खरोंच तक नहीं है, तोड दिया तो ठीक न होगा।

प्रत्येक वस्तु की हिदायत के बाद वे अन्नू पर आईं। वह किस दिन, किस समय क्या खाएगी, उसका मीनू बना दिया। कब कितना घूमेगी, क्या पहनेगी, सब कुछ निश्चित कर दिया। मैं सोच रही थी कि यहाँ बैठे-बैठे ही बुआजी ने इन्हें ऐसा बाँध दिया कि बेचारे अपनी इच्छा के अनुसार क्या खाक करेंगे! सब कह चुकीं तो जरा आर्द्र स्वर में बोलीं, 'कुछ अपना भी खयाल रखना, दूध-फल बराबर खाते रहना। हिदायतों की इतनी लंबी सूची के बाद भी उन्हें यही कहना पडा, 'जाने तुम लोग मेरे बिना कैसे रहोगे, मेरा तो मन ही नहीं मानता। हाँ, बिना भूले रोज एक चिट्ठी डाल देना।

आखिर वह क्षण भी आ पहुँचा, जब भाई साहब एक नौकर और अन्नू को लेकर चले गए। बुआजी ने अन्नू को खूब प्यार किया, रोई भी। उनका रोना मेरे लिए नई बात थी। उसी दिन पहली बार लगा कि उनकी भयंकर कठोरता में कहीं कोमलता भी छिपी है। जब तक ताँगा दिखाई देता रहा, वे उसे देखती रहीं, उसके बाद कुछ क्षण निर्र्जीव-सी होकर पडी रहीं। पर दूसरे ही दिन से घर फिर वैसे ही चलने लगा।

भाई साहब का पत्र रोज आता था, जिसमें अन्नू की तबीयत के समाचार रहते थे। बुआजी भी रोज एक पत्र लिखती थीं, जिसमें अपनी उन मौखिक हिदायतों को लिखित रूप से दोहरा दिया करती थीं। पत्रों की तारीख में अंतर रहता था। बात शायद सबमें वही रहती थी। मेरे तो मन में आता कि कह दूँ, बुआजी रोज पत्र लिखने का कष्ट क्यों करती हैं? भाई साहब को लिख दीजिए कि एक पत्र गत्ते पर चिपकाकर पलंग के सामने लटका लें और रोज सबेरे उठकर पढ लिया करें। पर इतना साहस था नहीं कि यह बात कह सकूँ।

करीब एक महीने के बाद एक दिन भाई साहब का पत्र नहीं आया। दूसरे दिन भी नहीं आया। बुआजी बडी चिंतित हो उठीं। उस दिन उनका मन किसी भी काम में नहीं लगा। घर की कसी-कसाई व्यवस्था कुछ शिथिल-सी मालूम होने लगी। तीसरा दिन भी निकल गया।

अब तो बुआजी की चिंता का पार नहीं रहा। रात को वे मेरे कमरे में आकर सोईं, पर सारी रात दु:स्वप्न देखती रहीं और रोती रहीं। मानो उनका वर्षों से जमा हुआ नारीत्व पिघल पडा था और अपने पूरे वेग के साथ बह रहा था। वे बार-बार कहतीं कि उन्होंने स्वप्न में देखाहै कि भाई साहब अकेले चले आ रहे हैं, अन्नाू साथ नहीं है और उनकी आँखें भी लाल हैं और वे फूट-फूटकर रो पडतीं। मैं तरह-तरह से उन्हें आश्वासन देती, पर बस वे तो कुछ सुन नहीं रही थीं। मेरा मन भी कुछ अन्नू के ख्याल से, कुछ बुआजी की यह दशा देखकर बडा दु:खी हो रहा था।

तभी नौकर ने भाई साहब का पत्र लाकर दिया। बडी व्यग्रता से काँपते हाथों से उन्होंने उसे खोला और पढने लगीं। मैं भी साँस रोककर बुआजी के मुँह की ओर देख रही थी कि एकाएक पत्र फेंककर सिर पीटती बुआजी चीखकर रो पडीं। मैं धक् रह गई। आगे कुछ सोचने का साहस ही नहीं होता था। आँखों के आगे अन्नू की भोली-सी, नन्ही-सी तस्वीर घूम गई। तो क्या अब अन्नू सचमुच ही संसार में नहीं है? यह सब कैसे हो गया? मैंने साहस करके भाई साहब का पत्र उठाया। लिखा था-

प्रिय सयानी,

समझ में नहीं आता, किस प्रकार तुम्हें यह पत्र लिखूँ। किस मुँह से तुम्हें यह दु:खद समाचार सुनाऊँ । फिर भी रानी, तुम इस चोट को धैर्यपूर्वक सह लेना। जीवन में दु:ख की घडियाँ भी आती हैं, और उन्हें साहसपूर्वक सहने में ही जीवन की महानता है। यह संसार नश्वर है। जो बना है वह एक-न-एक दिन मिटेगा ही, शायद इस तथ्य को सामने रखकर हमारे यहाँ कहा है कि संसार की माया से मोह रखना दु:ख का मूल है। तुम्हारी इतनी हिदायतों के और अपनी सारी सतर्कता के बावजूद मैं उसे नहीं बचा सका, इसे अपने दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कँ।यह सब कुछ मेरे ही हाथों होना था ...आँसू-भारी आँखों के कारण शब्दों का रूप अस्पष्ट से अस्पष्टतर होता जा रहा था और मेरे हाथ काँप रहे थे। अपने जीवन में यह पहला अवसर था, जब मैं इस प्रकार किसी की मृत्यु का समाचार पढ रही थी। मेरी आँखें शब्दों को पार करती हुई जल्दी-जल्दी पत्र के अंतिम हिस्से पर जा पडी- 'धैर्य रखना मेरी रानी, जो कुछ हुआ उसे सहने की और भूलने की कोशिश करना। कल चार बजे तुम्हारे पचास रुपए वाले सेट के दोनों प्याले मेरे हाथ से गिरकर टूट गए। अन्नू अच्छी है। शीघ्र ही हम लोग रवाना होने वाले हैं।

एक मिनट तक मैं हतबुध्दि-सी खडी रही, समझ ही नहीं पाई यह क्या-से-क्या हो गया। यह दूसरा सदमा था। ज्यों ही कुछ समझी, मैं जोर से हँस पडी। किस प्रकार मैंने बुआजी को सत्य से अवगत कराया, वह सब मैं कोशिश करके भी नहीं लिख सकूँगी। पर वास्तविकता जानकारी बुआजी भी रोते-रोते हँस पडीं। पाँच आने की सुराही तोड देने पर नौकर को बुरी तरह पीटने वाली बुआजी पचास रुपए वाले सेट के प्याले टूट जाने पर भी हँस रही थीं, दिल खोलकर हँस रही थीं, मानो उन्हें स्वर्ग की निधि मिल गई हो।

सयानी बुआ : मन्नू भंडारी

 सब पर मानो बुआजी का व्यक्तित्व हावी है। सारा काम वहाँ इतनी व्यवस्था से होता जैसे सब मशीनें हों, जो कायदे में बँधीं, बिना रुकावट अपना काम किए चली जा रही हैं। ठीक पाँच बजे सब लोग उठ जाते, फिर एक घंटा बाहर मैदान में टहलना होता, उसके बाद चाय-दूध होता।उसके बाद अन्नू को पढने के लिए बैठना होता। भाई साहब भी तब अखबार और ऑफिस की फाइलें आदि देखा करते। नौ बजते ही नहाना शुरू होता। जो कपडे बुआजी निकाल दें, वही पहनने होते। फिर कायदे से आकर मेज पर बैठ जाओ और खाकर काम पर जाओ।

सयानी बुआ का नाम वास्तव में ही सयानी था या उनके सयानेपन को देखकर लोग उन्हें सयानी कहने लगे थे, सो तो मैं आज भी नहीं जानती, पर इतना अवश्य कँगी कि जिसने भी उनका यह नाम रखा, वह नामकरण विद्या का अवश्य पारखी रहा होगा।

बचपन में ही वे समय की जितनी पाबंद थीं, अपना सामान संभालकर रखने में जितनी पटु थीं, और व्यवस्था की जितना कायल थीं, उसे देखकर चकित हो जाना पडता था। कहते हैं, जो पेंसिल वे एक बार खरीदती थीं, वह जब तक इतनी छोटी न हो जाती कि उनकी पकड में भी न आए तब तक उससे काम लेती थीं। क्या मजाल कि वह कभी खो जाए या बार-बार नाेंक टूटकर समय से पहले ही समाप्त हो जाए। जो रबर उन्होंने चौथी कक्षा में खरीदी थी, उसे नौवीं कक्षा में आकर समाप्त किया।

उम्र के साथ-साथ उनकी आवश्यकता से अधिक चतुराई भी प्रौढता धारण करती गई और फिर बुआजी के जीवन में इतनी अधिक घुल-मिल गई कि उसे अलग करके बुआजी की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। उनकी एक-एक बात पिताजी हम लोगों के सामने उदाहरण के रूप में रखते थे जिसे सुनकर हम सभी खैर मनाया करते थे कि भगवान करे, वे ससुराल में ही रहा करें, वर्ना हम जैसे अस्त-व्यस्त और अव्यवस्थित-जनों का तो जीना ही हराम हो जाएगा।

ऐसी ही सयानी बुआ के पास जाकर पढने का प्रस्ताव जब मेरे सामने रखा गया तो कल्पना कीजिए, मुझ पर क्या बीती होगी? मैंने साफ इंकार कर दिया कि मुझे आगे पढना ही नहीं। पर पिताजी मेरी पढाई के विषय में इतने सतर्क थे कि उन्होंने समझाकर, डाँटकर और प्यार-दुलार से मुझे राजी कर लिया। सच में, राजी तो क्या कर लिया, समझिए अपनी इच्छा पूरी करने के लिए बाध्य कर दिया। और भगवान का नाम गुहारते-गुहारते मैंने घर से विदा ली और उनके यहाँ पहुँची।

इसमें संदेह नहीं कि बुआजी ने बडा स्वागत किया। पर बचपन से उनकी ख्याति सुनते-सुनते उनका जो रौद्र रूप मन पर छाया हुआ था, उसमें उनका वह प्यार कहाँ तिरोहित हो गया, मैं जान ही न पाई। हाँ, बुआजी के पति, जिन्हें हम भाई साहब कहते थे, बहुत ही अच्छे स्वभाव के व्यक्ति थे। और सबसे अच्छा कोई घर में लगा तो उनकी पाँच वर्ष की पुत्री अन्नू।

घर के इस नीरस और यंत्रचालित कार्यक्रम में अपने को फिट करने में मुझे कितना कष्ट उठाना पडा और कितना अपने को काटना-छाँटना पडा, यह मेरा अंतर्यामी ही जानता है। सबसे अधिक तरस आता था अन्नू पर। वह इस नन्ही-सी उमर में ही प्रौढ हो गई थी। न बच्चों का-सा उल्लास, न कोई चहचहाहट। एक अज्ञात भय से वह घिरी रहती थी। घर के उस वातावरण में कुछ ही दिनों में मेरी भी सारी हँसी-खुशी मारी गई।

यों बुआजी की गृहस्थी जमे पंद्रह वर्ष बीच चुके थे, पर उनके घर का सारा सामान देखकर लगता था, मानाें सब कुछ अभी कल ही खरीदा हो। गृहस्थी जमाते समय जो काँच और चीनी के बर्तन उन्होंने खरीदे थे, आज भी ज्यों-के-त्यों थे, जबकि रोज उनका उपयोग होता था। वेसारे बर्तन स्वयं खडी होकर साफ करवाती थीं। क्या मजाल, कोई एक चीज भी तोड दे। एक बार नौकर ने सुराही तोड दी थी। उस छोटे-से छोकरे को उन्होंने इस कसूर पर बहुत पीटा था। तोड-फोड से तो उन्हें सख्त नफरत थी, यह बात उनकी बर्दाश्त के बाहर थी। उन्हेंबडा गर्व था अपनी इस सुव्यवस्था का। वे अक्सर भाई साहब से कहा करती थीं कि यदि वे इस घर में न आतीं तो न जाने बेचारे भाई साहब का क्या हाल होता। मैं मन-ही-मन कहा करती थी कि और चाहे जो भी हाल होता, हम सब मिट्टी के पुतले न होकर कम-से-कम इंसान तो अवश्य हुए होते।

बुआजी की अत्यधिक सतर्कता और खाने-पीने के इतने कंट्रोल के बावजूद अन्नू को बुखार आने लगा, सब प्रकार के उपचार करने-कराने में पूरा महीना बीत गया, पर उसका बुखार न उतरा। बुआजी की परेशानी का पार नहीं, अन्नू एकदम पीली पड गई। उसे देखकर मुझे लगता मानो उसके शरीर में ज्वर के कीटाणु नहीं, बुआजी के भय के कीटाणु दौड रहे हैं, जो उसे ग्रसते जा रहे हैं। वह उनसे पीडित होकर भी भय के मारे कुछ कह तो सकती नहीं थी, बस सूखती जा रही है।

आखिर डॉक्टरों ने कई प्रकार की परीक्षाओं के बाद राय दी कि बच्ची को पहाड पर ले जाया जाए, और जितना अधिक उसे प्रसन्न रखा जा सके, रखा जाए। सब कुछ उसके मन के अनुसार हो, यही उसका सही इलाज है। पर सच पूछो तो बेचारी का मन बचा ही कहाँ था? भाई साहब के सामने एक विकट समस्या थी। बुआजी के रहते यह संभव नहीं था, क्योंकि अनजाने ही उनकी इच्छा के सामने किसी और की इच्छा चल ही नहीं सकती थी। भाई साहब ने शायद सारी बात डॉक्टर के सामने रख दी, तभी डॉक्टर ने कहा कि माँ का साथ रहना ठीक नहीं होगा। बुआजी ने सुना तो बहुत आनाकानी की, पर डॉक्टर की राय के विरुध्द जाने का साहस वे कर नहीं सकीं सो मन मारकर वहीं रहीं।

जोर-शोर से अन्नू के पहाड जाने की तैयारी शुरू हुई। पहले दोनों के कपडों की लिस्ट बनी, फिर जूतों की, मोजों की, गरम कपडों की, ओढने-बिछाने के सामान की, बर्तनों की। हर चीज रखते समय वे भाई साहब को सख्त हिदायत कर देती थीं कि एक भी चीज खोनी नहीं चाहिए- 'देखो, यह फ्रॉक मत खो देना, सात रुपए मैंने इसकी सिलाई दी है। यह प्याले मत तोड देना, वरना पचास रुपए का सेट बिगड जाएगा। और हाँ, गिलास को तुम तुच्छ समझते हो, उसकी परवाह ही नहीं करोगे, पर देखो, यह पंद्रह बरस से मेरे पास है और कहीं खरोंच तक नहीं है, तोड दिया तो ठीक न होगा।

प्रत्येक वस्तु की हिदायत के बाद वे अन्नू पर आईं। वह किस दिन, किस समय क्या खाएगी, उसका मीनू बना दिया। कब कितना घूमेगी, क्या पहनेगी, सब कुछ निश्चित कर दिया। मैं सोच रही थी कि यहाँ बैठे-बैठे ही बुआजी ने इन्हें ऐसा बाँध दिया कि बेचारे अपनी इच्छा के अनुसार क्या खाक करेंगे! सब कह चुकीं तो जरा आर्द्र स्वर में बोलीं, 'कुछ अपना भी खयाल रखना, दूध-फल बराबर खाते रहना। हिदायतों की इतनी लंबी सूची के बाद भी उन्हें यही कहना पडा, 'जाने तुम लोग मेरे बिना कैसे रहोगे, मेरा तो मन ही नहीं मानता। हाँ, बिना भूले रोज एक चिट्ठी डाल देना।

आखिर वह क्षण भी आ पहुँचा, जब भाई साहब एक नौकर और अन्नू को लेकर चले गए। बुआजी ने अन्नू को खूब प्यार किया, रोई भी। उनका रोना मेरे लिए नई बात थी। उसी दिन पहली बार लगा कि उनकी भयंकर कठोरता में कहीं कोमलता भी छिपी है। जब तक ताँगा दिखाई देता रहा, वे उसे देखती रहीं, उसके बाद कुछ क्षण निर्र्जीव-सी होकर पडी रहीं। पर दूसरे ही दिन से घर फिर वैसे ही चलने लगा।

भाई साहब का पत्र रोज आता था, जिसमें अन्नू की तबीयत के समाचार रहते थे। बुआजी भी रोज एक पत्र लिखती थीं, जिसमें अपनी उन मौखिक हिदायतों को लिखित रूप से दोहरा दिया करती थीं। पत्रों की तारीख में अंतर रहता था। बात शायद सबमें वही रहती थी। मेरे तो मन में आता कि कह दूँ, बुआजी रोज पत्र लिखने का कष्ट क्यों करती हैं? भाई साहब को लिख दीजिए कि एक पत्र गत्ते पर चिपकाकर पलंग के सामने लटका लें और रोज सबेरे उठकर पढ लिया करें। पर इतना साहस था नहीं कि यह बात कह सकूँ।

करीब एक महीने के बाद एक दिन भाई साहब का पत्र नहीं आया। दूसरे दिन भी नहीं आया। बुआजी बडी चिंतित हो उठीं। उस दिन उनका मन किसी भी काम में नहीं लगा। घर की कसी-कसाई व्यवस्था कुछ शिथिल-सी मालूम होने लगी। तीसरा दिन भी निकल गया।

अब तो बुआजी की चिंता का पार नहीं रहा। रात को वे मेरे कमरे में आकर सोईं, पर सारी रात दु:स्वप्न देखती रहीं और रोती रहीं। मानो उनका वर्षों से जमा हुआ नारीत्व पिघल पडा था और अपने पूरे वेग के साथ बह रहा था। वे बार-बार कहतीं कि उन्होंने स्वप्न में देखाहै कि भाई साहब अकेले चले आ रहे हैं, अन्नाू साथ नहीं है और उनकी आँखें भी लाल हैं और वे फूट-फूटकर रो पडतीं। मैं तरह-तरह से उन्हें आश्वासन देती, पर बस वे तो कुछ सुन नहीं रही थीं। मेरा मन भी कुछ अन्नू के ख्याल से, कुछ बुआजी की यह दशा देखकर बडा दु:खी हो रहा था।

तभी नौकर ने भाई साहब का पत्र लाकर दिया। बडी व्यग्रता से काँपते हाथों से उन्होंने उसे खोला और पढने लगीं। मैं भी साँस रोककर बुआजी के मुँह की ओर देख रही थी कि एकाएक पत्र फेंककर सिर पीटती बुआजी चीखकर रो पडीं। मैं धक् रह गई। आगे कुछ सोचने का साहस ही नहीं होता था। आँखों के आगे अन्नू की भोली-सी, नन्ही-सी तस्वीर घूम गई। तो क्या अब अन्नू सचमुच ही संसार में नहीं है? यह सब कैसे हो गया? मैंने साहस करके भाई साहब का पत्र उठाया। लिखा था-

प्रिय सयानी,

समझ में नहीं आता, किस प्रकार तुम्हें यह पत्र लिखूँ। किस मुँह से तुम्हें यह दु:खद समाचार सुनाऊँ । फिर भी रानी, तुम इस चोट को धैर्यपूर्वक सह लेना। जीवन में दु:ख की घडियाँ भी आती हैं, और उन्हें साहसपूर्वक सहने में ही जीवन की महानता है। यह संसार नश्वर है। जो बना है वह एक-न-एक दिन मिटेगा ही, शायद इस तथ्य को सामने रखकर हमारे यहाँ कहा है कि संसार की माया से मोह रखना दु:ख का मूल है। तुम्हारी इतनी हिदायतों के और अपनी सारी सतर्कता के बावजूद मैं उसे नहीं बचा सका, इसे अपने दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कँ।यह सब कुछ मेरे ही हाथों होना था ...आँसू-भारी आँखों के कारण शब्दों का रूप अस्पष्ट से अस्पष्टतर होता जा रहा था और मेरे हाथ काँप रहे थे। अपने जीवन में यह पहला अवसर था, जब मैं इस प्रकार किसी की मृत्यु का समाचार पढ रही थी। मेरी आँखें शब्दों को पार करती हुई जल्दी-जल्दी पत्र के अंतिम हिस्से पर जा पडी- 'धैर्य रखना मेरी रानी, जो कुछ हुआ उसे सहने की और भूलने की कोशिश करना। कल चार बजे तुम्हारे पचास रुपए वाले सेट के दोनों प्याले मेरे हाथ से गिरकर टूट गए। अन्नू अच्छी है। शीघ्र ही हम लोग रवाना होने वाले हैं।

एक मिनट तक मैं हतबुध्दि-सी खडी रही, समझ ही नहीं पाई यह क्या-से-क्या हो गया। यह दूसरा सदमा था। ज्यों ही कुछ समझी, मैं जोर से हँस पडी। किस प्रकार मैंने बुआजी को सत्य से अवगत कराया, वह सब मैं कोशिश करके भी नहीं लिख सकूँगी। पर वास्तविकता जानकारी बुआजी भी रोते-रोते हँस पडीं। पाँच आने की सुराही तोड देने पर नौकर को बुरी तरह पीटने वाली बुआजी पचास रुपए वाले सेट के प्याले टूट जाने पर भी हँस रही थीं, दिल खोलकर हँस रही थीं, मानो उन्हें स्वर्ग की निधि मिल गई हो।

गरीबों की बस्ती : मार्कंडेय



 यह है कलकत्ता का बहूबाज़ार, जिसके एक ओर सरकारी अफ़सरों तथा महाजनों के विशाल भवन हैं और दूसरी ओर पीछे उसी अटपट सड़क के पास मिल मज़दूरों तथा दूसरे प्रकार के श्रमजीवियों की बस्ती है।

नन्हे-नन्हे झोपड़ों तथा मकानों की बहुलता के कारण सारी बस्ती एक घर-सी दिखाई पड़ती है। निःसंदेह वह एक घर ही है जहां जीवन यथार्थ परिभाषा में चलता है। धर्म श्रम की छाया में विलीन है। चलना जानने वाला बच्चा भी गृह-कार्यों में सहायक है।

नूरी उसी बस्ती की एक कन्या है। वह नित्य संध्या समय अपनी एक छोटी बहन के साथ नन्हे-से काठ के ठेले को ठेल-ठेल कर मूंगफली बेचती है। आज से नहीं, दस वर्ष से वह मधुर गानों से उस सड़क पर चलने वालों से परिचित है। वह भी जीवन की गतिविधि के साथ अनुभवों का जाल बुनती जा रही है। एक ओर विशाल अट्टालिकाएँ उसकी ओर पीठ किये खड़ी हैं, दूसरी ओर वही बस्ती अपना दामन फैलाये उससे वर्षों से कह रही है, ''नूरी! आ तेरी मूंगफली के ग्राहक तो इस ओर बसे हैं। तू क्यों बेकार अपने मधुर संगीत को निर्जीव दीवारों के शुष्क उर पर लुटाती है।''

इस पर नूरी एक लंबी सांस लेकर कह उठी : ''चल मरियम, अपनी बस्ती की ओर चलें। वहां लड़के मूंगफली खरीदेंगे।'' और अपनी गाड़ी को टेढ़ी-मेढ़ी गलियों की ओर घुमा कर चल देती। नूरी की तेज आवाज़ को सुनते ही मज़दूरों के छोटे-छोटे बच्चे "नूरी आई, नूरी आई'' कह कर उसे घेर लेते। थोड़े ही समय में वह अपनी झोली साफ़ कर, पैसे को अपनी फटी-पुरानी ओढ़नी के किनारों में बांधकर, गाड़ी को खड़खड़ाती हुई घर की ओर चली आती।

नित्य जीवन की इतनी विषमता और कठोरता के बीच जीवन बिताने वाली नूरी का हृदय अनुभूतियों का घर बन गया था। उसे लगता था जैसे जीवन आवश्यकताओं से इतना जुड़ा हुआ है कि उसे अलग करना जीवन को निर्जीव बना देना है, इसी में गति है, इसी में प्रवाह है। वह सोचती, आज उसे एक सलवार और फ्राक की बहुत आवश्यकता है। यह कितना उपहासजनक सा ज्ञात हो रहा है कि ओढ़नी के तार-तार अलग हो गये हैं, अम्मा तो इसे देखती है पर वही बेचारी क्या करें; पैसे तो होंगे नहीं। सोच रही थी कि मां ने बाहर से पुकारा, ''नूरी! जा बेटी मूंगफली बेच आ, समय हो गया है'' और वह चौंक पड़ी। मां कहती गई, ''तेरे कपड़े फट गये हैं; मैं आज गुदड़ी बाजार जाऊँगी, यदि मिल गया तो लेती आऊंगी। कुछ अधिक बेच लिया करो बेटी।''

नूरी और मरियम अपने कंठस्वरों को मिलाती हुई, गा-गाकर उसी काठ के ठेले को खड़खड़ाती फिर उसी राह चल पड़ीं। आज नूरी अधिक उत्साहित थी क्योंकि यदि वह अधिक बेचेगी तो उसे सलवार मिल जायेगा। वह फिर उसी पुरानी सड़क पर अपने ठेले को बढ़ाती चली जा रही थी। गाते-गाते जब थक जाती थी तो कहीं-कहीं रुक कर आने वाले आदमियों को भी देख लिया करती थी।

कमल ने अपने भवन के ऊपरी भाग से इस कल-कण्ठ को सुना और सोचने लगा - यह कौन है जो इतने मीठे शब्दों में गा रही है। ऊपर से नीचे झांका तो एक युवती को एक छोटी-सी लड़की के साथ सर खोले देखा। उसके बाल संन्यासियों के बालों की तरह उलझे हुए थे। कमल को छह वर्ष पहले की बात याद आ गई। उस याद में उसने बालिका नूरी को देखा जिसमें एक समय चंचलता थी। वह दौड़ कर आती। ''बाबू जी यह मूंगफली है,'' कहकर वह फिर लौटने की चेष्टा करती और तब मैं कह उठता, ''पैसे तो लेती जा। हां, केवल मैने एक बार उससे यह अवश्य कह दिया था, ''नूरी तुम क्यों बेचती रहती हो!'' कितनी सरल थी वह, कितना भोलापन था उसमें! और फिर तीक्ष्ण स्वरों के गाने ने उसके विचारों को मग्न कर दिया।

कमल धीरे-धीरे नीचे उतरा तो देखते ही उसके मुख से निकल पड़ा, ''नूरी''! पर सहसा वह रुक गया, शायद कोई दूसरी लड़की न हो, पर नूरी ने देखकर पहचान लिया और लजा कर नीचे देखने लगी। कमल भी समझ गया कि यह वही नूरी है पर समय ने इस पर कितना रंग पोत दिया है। वह मौन खड़ा देख रहा था - कितना बिखरा सौन्दर्य है कि यदि इसे इकट्ठा कर लिया जाय तो देव कन्याएँ भी परास्त हो जायँ। गौरवर्णी स्वस्थ शरीर इन फटे चिथड़ों से उन्मुक्त होकर झांक रहा है। नेत्रों में कितना माधुर्य है, कितनी शीतलता है पर इस काठ की गाड़ी तथा इन फटे चिथड़ों में सब कुछ प्रच्छन्न है।

वह सहसा यह सब सोच गया और फिर एक बार उसने पुकारा - ''नूरी''!

"जी बाबू जी," नूरी ने नीचे ही सर किये कह दिया।

कमल ने उसकी ओर निर्भीकता से देखते हुए कहा, ''तू कहाँ रहती है!''

''मैं तो यहीं रहती हूँ, आप ही बहुत दिनों पर दिखाई दे रहे हैं,'' कहकर नूरी ने सर ऊपर किया तो देखा कमल उसकी ओर देख रहा था और फिर वह सहम कर नीचे देखने लगी।

कमल जैसे इस सुप्त सौन्दर्य को परख गया हो; उसका हृदय परबस हो गया। उसने कहा, ''मैं तो छह वर्ष से अपने मामा के यहां बम्बई में रह रहा हूं। उनके देहावसान के बाद सारा कारोबार मेरे ही सर पर तो आ पड़ा है।

नूरी कुछ न बोली। थोड़ी-सी मूंगफली निकाल कर मरियम के हाथों भिजवाते हुए, खड़ खड़ ...अपनी गाड़ी को ढेलकर वह चल पड़ी। कमल दोनों हाथों से मूंगफली लेता हुआ आज जैसे किसी के प्रेमपाश में बंधता जा रहा था। उसने पैसे निकाल कर देते हुए कहा, ''ले जा, दौड़! देख नूरी गाड़ी ठेलती जा रही है और वह वहीं खड़ा देखता रहा कि यह भी जीवन का एक रास्ता है जिसे नूरी इस प्रकार काट रही है।

संसार का क्या विधान है। वह उलझ गया सोचने में। यह नूरी फिर जब तक बस्ती में नहीं चली गई उसने अपने गीतों को नहीं गाया।

दिन बीतते गये, नूरी अपने कार्यक्रम को करती गई। पर अब वह स्वतंत्रतापूर्वक गा-गा कर नहीं बेचती थी। उसे लगता था जैसे कोई मेरे गीतों को सुनने के लिए छिपा है। उसका संयम दिन पर दिन बढ़ता गया और वह नित्य प्रति अपने में खोती गई। कमल भी अपनी उसी कोठरी में बैठा-बैठा मूंगफली पा जाता। पर देर होते देख उसका हृदय विकल हो उठता था। उसे रात पहाड़-सी लगती थी।

इधर नूरी अपने परबस हृदय की ठोकरों से विचलित हो उठती थी। जैसे उससे कोई कहता था ''यह बड़े-बड़े प्रासाद तेरे लिए नहीं नूरी! यह तो रंगीन तितलियों के लिए हैं; तेरा निवास तो वही तृण कुटीर है जिसने तुझे सुखपूर्वक जिलाया है।'' वह चौंक पड़ती और अपनी गाड़ी लेकर चली जाती।

एक दिन जब संध्या के विशाल वक्षस्थल को बस्ती के नन्हे-नन्हे घरों से निकलते हुए धुओं ने अत्यधिक धूमिल कर दिया था, कहीं-कहीं दीपक अपनी क्षीण प्रभा से मुस्कराने लगे थे। इधर नूरी अपनी मूंगफली बेचकर देर हो जाने के कारण शीघ्रता से गाड़ी दौड़ाये चली जा रही थी। उस बंगले के सामने पहुंचकर उसकी गति धीमी पड़ गई। पर वह रुकी नहीं। धीरे-धीरे चलती गई। किसी ने धीरे से पुकारा, ''नूरी!''

वह शब्द पहचान गई और बोल उठी, ''जी बाबू जी!'' ''क्या तुम मुझे समझती हो?'' कमल ने संभल कर कहा। ''अच्छी तरह, बाबू जी और मैं आपको बहुत प्यार करती हूँ; पर बाबू जी ! मैं एक मुसलमान की लड़की हूँ,'' नूरी न जाने कैसे यह एक सांस में कह गई।

कमल का हृदय उमड़ पड़ा। उसने कहा, ''नूरी! धर्म हमारे प्रेम की सीमा नहीं है; हमारे हृदय का कटघरा नहीं है; वह तो स्वयं इसी हृदय से पैदा होता है। फिर मैं अपने घर का मालिक हूँ; तू इसके लिए न डर।''

नूरी ने अपनी सारी शक्ति बटोरते हुए कहा, ''बाबू जी! मैं एक मजदूरिन की लड़की हूँ और आप धनी हैं। कितनी विषमता, कितना द्रोह है। बाबू जी; आप लोग सौन्दर्य के उपासक हैं और सौन्दर्य सदा सत्य नहीं है। वह तो समय के साथ घटता-बढ़ता रहता है और इसीलिए रूप के उपासकों का प्यार भी सौन्दर्य की धरती के साथ घटता जाता हैं। देखिए बाबू जी! वह काले-काले भौंरे फूलों से केवल पराग के लिए प्यार करते हैं और उसके प्राप्त होते ही उसका साथ छोड़कर उड़ जाते हैं।''

कमल नूरी की भावपूर्ण वाणी में उलझ गया। उसे लग रहा था जैसे नूरी अनुपम सौन्दर्य के साथ-साथ अपार अनुभूतियों से परिपूर्ण है। वह कुछ कहने ही जा रहा था कि नूरी ने कहा, ''देर हो रही है, मैं जा रही हूँ बाबू जी!'' और वह बिना उत्तर पाये ही अपनी गाड़ी को ठेलती बढ़ गई और दूसरे ही क्षण अन्धकार की काली दीवारों द्वारा कमल से अलग कर दी गई। कमल खड़ा खड़ा अन्तरिक्ष से आते हुए खड़ खड़...शब्द को सुनता रहा और सोचता रहा,''नूरी कितनी दृढ़ है। कितनी विचारशील है।

सारा बंगाल पैशाचिक नरसंहार का केन्द्र बन गया था। चारों ओर हिन्दू-मुसलमान की भावना विषैली सर्पिणी की की भाँति लोगों को डस रही थी। मासूम बच्चे माताओं के आगे ही जला डाले जाते थे। माताओं के स्तन काट लिये जाते थे; कन्याओं के साथ बलात्कार किया जाता था। चारों ओर घर-घर में, हृदय-हृदय में साम्प्रदायिकता का विषम ज्वर फैल गया था। पर यह बस्ती अब भी अपने आन्तरिक प्रदेश में वैसी ही थी। यद्यपि बाह्य रूप में भीषण समाचारों द्वारा अन्तर अवश्य था। लोगों ने आना-जाना बन्द कर दिया था। नूरी भी बन्दी की भांति अपने तृण कुटीर में पड़ी सोचा करती, यही है सम्पत्तिवालों का खिलवाड़ जो हमारी पवित्र बंगभूमि को नीच साम्प्रदायिकता की प्रचण्ड अग्नि में झोंक रहा है। वह अपने को भूल-सी जाती और कह उठती "कमल! तुम भी तो धनिक हो; क्या तुम भी ऐसा करते होगे? शायद तुम इस जीवन पर तरस खाते होगे पर देखो! आंखें खोल कर देखो! कितना मधुर है यह; क्योंकि इसी दरिद्रता के कारण देश में फैले हुए बहुत-से गरीबों का साथ हो पाता है। उनके दुखों को मनुष्य समझ पाता है। इसीलिए मैं कहती हूं, ''रहने दो मुझे, मैं यहीं रहूंगी। मुझे यहीं जीवन मिलेगा। मैं कर्मों के बीच, संघर्षों के बीच जी लूंगी। मुझे क्षमा करो, बाबू जी।" और यही सोचते-सोचते वह उसी कुटीर के तिनकों में अपनी दृष्टि बिखेर देती।

वह यह सब सोच ही रही थी कि मां ने बाहर से पुकारा, ''नूरी''!

नूरी उठकर दौड़ी गई, ''जी अम्मा''! कह कर, उसने जब देखा तो जैसे मां किसी सम्भावित विपत्ति के अनुमान से खिन्न हो उठी है और मरियम उसके कन्धे पर हाथ रखे खड़ी है।

मां बोली, ''तुमने नहीं सुना बेटी''!

''नहीं माँ,'' नूरी ने उत्तर दिया।

''हमारी बस्ती में भीषण रक्तपात की तैयारी हो रही है। चारों ओर से लोग इसे जला डालने के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। मैं अभी गिरती-पड़ती चली आ रही हूं। पूछती नहीं मरियम से, लोग बस्ती को एक ओर से घेर रहे हैं।''

''क्यों अम्मा!''

'यह तो मैं नहीं जानती बेटी!''

मरियम ने मुंह लटकाते हुए कहा, ''तुम्हारे बाबू जी भी तो गुण्डों के एक दल को ललकार रहे थे''।

''कौन! बाबू जी; मरियम'' नूरी ने विस्फारित नेत्रों से कांपते हुये कहा।

''बहन! वही बाबू जी,'' कहकर मरियम भय से रोने लगी। नूरी कांप उठी और सर पर हाथ रख कर बैठ गई। मां जैसे इन बातों को सुन ही रही थी। वह सोचती जा रही थी।, इतने में 'मार डालो, जला दो' के साथ रोने-चीखने के घोर स्वर से बस्ती गूंज उठी। मां ने घबरा कर कहा, ''नूरी! ओ नूरी! अब क्या हो बेटी?''

नूरी हताश हो गई थी। उसने लम्बी सांस लेकर कहा, ''क्या होगा मां; चलो यहां से'' और जैसे ही दोनों घर से बाहर निकलीं, गली में अपार भीड़ चीखती-चिल्लाती प्राण-रक्षा के लिए भागती जा रही थी। वे भी उसी में शामिल हो गईं। कोई गिरता था तो उसके ऊपर से हजारों आदमी दौड़ रहे थे और गुण्डे अपने पैशाचिक कृत्यों द्वारा अपने हाथों को निरीह जनता के रक्त से रंग रहे थे और धर्म के मुंह पर कालिख पोत रहे थे। गली लाशों से पट गई। सारी बस्ती धू- धू करके जल रही थी; जैसे धर्म की होली जल रही थी - मानवता की अर्थी जल रही थी।

अम्मा और मरियम का कहीं भी पता नहीं था। वे कहीं दब कर समाप्त हो गईं थीं। पर नूरी अब भी कुछ लोगों के साथ दौड़ती जा रही थी। इतने में एक भीड़ ने उसे घेर लिया। लाठियां चलने लगीं। किसी ने बढ़कर एक लाठी नूरी के सर पर मार ही तो दी और नूरी मत्थे पर हाथ रखती हुई गिर पड़ी। तेज रक्त की धार से उसका शरीर लथपथ हो गया। किसी ने पीछे से ललकारा, ''खूब किया, सलवार पहने थी।'' और बढ़ कर देखा तो अपनी सारी चेतनावों को फैलाकर चित्त लेट गई है। वही फटा सलवार और फ्राक! कमल पहचान गया और उसके सर को अपनी गोद में लेकर बैठ गया।

''नूरी! ओ नूरी!'', वह व्यथित होकर कह उठा, ''मुझे क्षमा कर दो; नूरी! आंखें खोलो।'' पर नूरी बेहोश ही रही। बहुत-से लोग इस नये नाटक को देखने के लिए एकत्र हो गये थे। नूरी ने एकाएक नेत्र खोले अपने को इस दशा में देख कर वह चौंक उठी। ऊपर देखा तो बाबू जी उसके सर को गोद में लिये आंसू बहा रहे हैं। आज उसके हृदय से सहानुभूति का पंछी पर फैलाकर उड़ चुका था। वह जैसे कमल की गोद में सर खींच लेना चाहती थी।

कमल ने कहा, ''नूरी! मेरी नूरी! मुझे...''

''कुछ नहीं, बाबू जी। वह धर्म की परिभाषा याद करिए, चले जाइए - हट जाइए - मुझे मरने दीजिए; इसमें बाधक न बनिए,'' कह कर नूरी ने अपने नेत्र बन्द कर दिये।

कमल पश्चात्ताप की अग्नि में जल रहा था। उसने कहा, नूरी! तू क्या कह रही है?

''ठीक कह रही हूं। देखिए! वह गरीबों की बस्ती, वह निरीहों की बस्ती जल रही है; निरपराध - अकारण। मेरी खिल्ली न उड़ाइए। बाबू जी देखिए...नूरी...तो उसी बस्ती... में...तड़फड़ा रही है। उस बस्ती...में मर...रही...है। यह तो...मोह है; आसक्ति ...है।''

वह बड़बड़ाती गई, ''क्षमा करो...बाबू...जी! इसे...न जलाओ; यहां...धर्म का...वही रूप ...है, जो...आपने...एक दिन...कहा था। देखो...तुम्हारी...नूरी तुमसे प्रार्थना कर...रही है। यह गरीबों की...बस्ती आबाद होते...हुए भी...बर्बाद है...इसे न उजाड़ो...।'' और वह अवसन्न हो गई; मूक हो गई। कमल ने देखा, नूरी अब उसकी नूरी नहीं रह गई है। वह गरीबों की बस्ती में उन्मत्त-सा, पागल-सा बकता हुआ, उसी जलती विभीषिका की ओर दौड़ पड़ा।

कुछ दिनों बाद सुना गया कि वहीं, गरीबों की बस्ती के उजड़े खँडहरों में एक पागल नवयुवक घूम-घूम कर कुछ ढूँढ़ता रहता है। नूरी! नूरी!... पुकार कर अपनी प्रतिध्वनि को पकड़ने के लिए दौड़ा करता है।


एक टोकरी-भर मिट्टी : माधवराव सप्रे


 किसी श्रीमान् जमींदार के महल के पास एक गरीब अनाथ विधवा की झोंपड़ी थी। जमींदार साहब को अपने महल का हाता उस झोंपड़ी तक बढा़ने की इच्‍छा हुई, विधवा से बहुतेरा कहा कि अपनी झोंपड़ी हटा ले, पर वह तो कई जमाने से वहीं बसी थी; उसका प्रिय पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोंपड़ी में मर गया था। पतोहू भी एक पाँच बरस की कन्‍या को छोड़कर चल बसी थी। अब यही उसकी पोती इस वृद्धाकाल में एकमात्र आधार थी। जब उसे अपनी पूर्वस्थिति की याद आ जाती तो मारे दु:ख के फूट-फूट रोने लगती थी। और जबसे उसने अपने श्रीमान् पड़ोसी की इच्‍छा का हाल सुना, तब से वह मृतप्राय हो गई थी। उस झोंपड़ी में उसका मन लग गया था कि बिना मरे वहाँ से वह निकलना नहीं चाहती थी। श्रीमान् के सब प्रयत्‍न निष्‍फल हुए, तब वे अपनी जमींदारी चाल चलने लगे। बाल की खाल निकालने वाले वकीलों की थैली गरम कर उन्‍होंने अदालत से झोंपड़ी पर अपना कब्‍जा करा लिया और विधवा को वहाँ से निकाल दिया। बिचारी अनाथ तो थी ही, पास-पड़ोस में कहीं जाकर रहने लगी।

एक दिन श्रीमान् उस झोंपड़ी के आसपास टहल रहे थे और लोगों को काम बतला रहे थे कि वह विधवा हाथ में एक टोकरी लेकर वहाँ पहुँची। श्रीमान् ने उसको देखते ही अपने नौकरों से कहा कि उसे यहाँ से हटा दो। पर वह गिड़गिड़ाकर बोली, ''महाराज, अब तो यह झोंपड़ी तुम्‍हारी ही हो गई है। मैं उसे लेने नहीं आई हूँ। महाराज क्षमा करें तो एक विनती है।'' जमींदार साहब के सिर हिलाने पर उसने कहा, ''जब से यह झोंपड़ी छूटी है, तब से मेरी पोती ने खाना-पीना छोड़ दिया है। मैंने बहुत-कुछ समझाया पर वह एक नहीं मानती। यही कहा करती है कि अपने घर चल। वहीं रोटी खाऊँगी। अब मैंने यह सोचा कि इस झोंपड़ी में से एक टोकरी-भर मिट्टी लेकर उसी का चूल्‍हा बनाकर रोटी पकाऊँगी। इससे भरोसा है कि वह रोटी खाने लगेगी। महाराज कृपा करके आज्ञा दीजिए तो इस टोकरी में मिट्टी ले आऊँ!'' श्रीमान् ने आज्ञा दे दी।

विधवा झोंपड़ी के भीतर गई। वहाँ जाते ही उसे पुरानी बातों का स्‍मरण हुआ और उसकी आँखों से आँसू की धारा बहने लगी। अपने आंतरिक दु:ख को किसी तरह सँभालकर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से भर ली और हाथ से उठाकर बाहर ले आई। फिर हाथ जोड़कर श्रीमान् से प्रार्थना करने लगी, ''महाराज, कृपा करके इस टोकरी को जरा हाथ लगाइए जिससे कि मैं उसे अपने सिर पर धर लूँ।'' जमींदार साहब पहले तो बहुत नाराज हुए। पर जब वह बार-बार हाथ जोड़ने लगी और पैरों पर गिरने लगी तो उनके मन में कुछ दया आ गई। किसी नौकर से न कहकर आप ही स्‍वयं टोकरी उठाने आगे बढ़े। ज्‍योंही टोकरी को हाथ लगाकर ऊपर उठाने लगे त्‍योंही देखा कि यह काम उनकी शक्ति के बाहर है। फिर तो उन्‍होंने अपनी सब ताकत लगाकर टोकरी को उठाना चाहा, पर जिस स्‍थान पर टोकरी रखी थी, वहाँ से वह एक हाथ भी ऊँची न हुई। वह लज्जित होकर कहने लगे, ''नहीं, यह टोकरी हमसे न उठाई जाएगी।''

यह सुनकर विधवा ने कहा, ''महाराज, नाराज न हों, आपसे एक टोकरी-भर मिट्टी नहीं उठाई जाती और इस झोंपड़ी में तो हजारों टोकरियाँ मिट्टी पड़़ी है। उसका भार आप जन्‍म-भर क्‍योंकर उठा सकेंगे? आप ही इस बात पर विचार कीजिए।"

जमींदार साहब धन-मद से गर्वित हो अपना कर्तव्‍य भूल गए थे पर विधवा के उपर्युक्‍त वचन सुनते ही उनकी आँखें खुल गयीं। कृतकर्म का पश्‍चाताप कर उन्‍होंने विधवा से क्षमा माँगी और उसकी झोंपड़ी वापिस दे दी।

बलवा हुजूम


 मिथिलेश प्रियदर्शी की कहानी

 यकीन मानें मेरा कि खूब खुश हो रहा हूँ, अपने भीतर का सब कुछ आपके आगे उड़ेलकर। अपनी बातें आपकी भाषा में लिखकर। इस तरह बातें करना वाकई बड़ा सहज और मजेदार है।

अक्षरों के टेढ़े-मेढ़ेपन पर मत जाइए। ज्यादा दिक्कत नहीं होगी। बस '' और '' तथा '' और '' और कभी कभी '' और '' को पढ़ते समय सावधान रहने की जरूरत है। दरअसल मेरी उँगलियाँ लकीरनुमा छत खींच कर उसके नीचे शब्दों को लटकाने की आदी नहीं है इसलिए दिखने और लिखने में लगभग एक समान लग रहे अक्षरों के साथ गड़बड़ी की संभावना का बन जाना मुश्किल नहीं है। जमीन पर पतली लकड़ी से पाठ सिखाते समय नानूसान कहते, 'शब्द जिंदा होते हैं। नीचे मिट्टी में लिख रहे हो तब तक ठीक है। कागज पर बिना रेखा खींचे शब्दों को हवा में लटकने दोगे, कागज हिलाते ही वे गिर पड़ेंगे।' मैं विस्मित होकर उन्हें ताकता, वे मुस्कराते और ठुड्डी पर टिकी उनकी लंबी सफेद दाढ़ी थोड़ी और लंबी हो जाती।

सीखने के शुरुआती दौर थे, जब मैं '' और '' में लगातार घालमेल कर रहा था। नानूसान मुझसे बार-बार 'काफ्का' लिखवा रहे थे। जमीन पर लिखते-मिटाते एक बार मैंने उनसे पूछ दिया 'काफ्का माने?'

'बहुत पहले पैदा हुआ एक बाहर देश का लेखक। उसकी किताबें तुम्हें पढ़ाऊँगा, जब हम यहाँ से बाहर होंगे।'

आगे के कई दिनों तक अनायास मेरे हाथ तिनके से 'काफ्का' लिखते रहे थे।

कइयों के लिए मेरा इस तरह से फर्राटेदार लिखना, समझना एकदम से दाँतों के नीचे उँगली रख लेने वाली बात हो सकती है। दुनिया-जहान में आजकल होने वाले कई अजूबों पर सर हिलाकर आश्चर्यमिश्रित सहमति कायम की जा सकती है, जैसे कि कल को प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति का पद पट्टे पर मिलने लग जाए (लोकतंत्र की स्थिति समझाते हुए नानूसान कहा करते हैं), या फिर कानून के मोटे पोथे में एक पन्ना और जुड़ जाए जो सोचने को अपराध मानने और उस पर दंड देने पर रँगा हो (कानून-व्यवस्था की बात निकलने पर उन्होंने यह बात कही थी), या यह कि शहर के तमाम चिड़ियाघर बंदरों, सियारों के साथ-साथ पेड़ भी दिखाने लग जाएँ या कि पीने के पानी के लिए समंदर से ही मोटी-मोटी पाइप लाइनें जोड़ी जाने लगे (पर्यावरण के लगातार छीजते जाने पर चिंतित होकर फीकी हँसी के साथ नानूसान ये बातें कहते हैं)।

ऐसी और न जाने कितनी अजीबोगरीब बातें, जो कल को हकीकत हो जा सकने वाली हों, बड़ी तेजी से फैलती समझदारी के कारण इन पर यकीन कर हामी भरने वालों और बातें करने पर भरसक चिंतित होने की कोशिश करने वालों की सख्या खूब-खूब है। पर मेरा या मुझ जैसे एक निपट जंगली आदिवासी का जेल में या जंगल में रह कर फर्राटेदार लिखना पढ़ना, वह भी उस भाषा में जो धरती की सबसे ज्यादा बोली जानी वाली भाषा हो। कइयों के लिए यह वाकई अविश्वास से भरकर सिर धुनने वाली बात है। पर होती रहे। यहाँ तो प्रमाण है, इस लिसलिसहे स्याही से बनते शब्दों से पटता जाता है यह कागज।

आगे बातें शुरू करने से पहले मैं अपने उन दोस्तों का नाम लेना चाहूँगा, जिन्होंने अपने असीम यातनाओं से भरे दिन-रात से कुछ बेहद धैर्य वाले घंटे निकाले, जिनकी बदौलत ढेलकुशी चलाने वाली मेरी उँगलियाँ अक्षर गढ़ने लगीं।

नानूसान, मेट, और बुच्चू।

लेकिन सबसे पहले नानूसान क्योंकि लिखने के लिए जरूरी चीजें कागज-कलम और ज्ञान सब उन्हीं का उपलब्ध कराया हुआ है।

मुझ जैसे जवान लड़कों को पहली ही नजर में बाप-दादा की उमर सरीखा लगने वाला, सफेद-धूसर लंबी दाढ़ी और उसके बीच हमेशा कायम रहने वाली एक गंभीर मुस्कान का धनी बूढ़ा नानूसान। जंगल और जंगल की पहचान, उसकी पीड़ाएँ उसकी नसों में भरी हैं, तभी तो दूसरे ही दिन सुबह नाश्ते के वक्त संकेतों से ही मुझे अपने करीब बुलाया, उसी स्थिर मुस्कान के बीच उनके होंठ हिले और एकदम से हमारे जंगल की भाषा झरी, 'जंगल से हो?' मैंने अचकचाकर हाँ तो कह दिया, लेकिन नाश्ते का कटोरा हाथ में लिए खड़ा कई पलों तक उन्हें ताकता रह गया। सुखद आश्वस्ति में डाल देने वाली यह उनसे मेरी पहली मुलाकात थी। पहली मुलाकात के तीसरे रोज ही हमारी दूसरी मुलाकात में उन्होंने सीधे पूछा, 'कुछ गड़बड़ किया जो पकड़े गए?' तब अपने अपराध के प्रति अनजान-सा उनकी आँखों में एकटक झाँकता मैं चुपचाप उकड़ूँ बैठा रहा था। मुझे यूँ खामोश देख, उन्होंने इस बार तनिक करीब आकर मेरे बेडौल, खुरदुरे हाथों को अपने हाथों में लेकर मेरी नाड़ी देखी थी और जरा चिंतित लहजे में हौले से मेरी ही जुबान में कहा था, 'तुम पर जंगल में सिपाहियों की अंदरूनी खबरें फैलाने का आरोप है। बतौर मुखबिर।'

सुनकर मैं सकते में नहीं आया था और न ही मैंने कोई सवाल उनकी नजरों पर टाँगा था क्योंकि पकड़कर तुरंत वहीं ढेर कर दिए जाने के मुकाबले यह सब तो कुछ भी नहीं था। पर बाद की मुलाकातों में ऐसे कई खामोश सवालों के जवाब मुझे मिलते गए थे।

नानूसान डॉक्टर हैं, जैसे बड़े अस्पतालों में हुआ करते हैं। लेकिन वे लोगों को अपने पास बुलाने के बजाय खुद उनके पास पहुँचने पर यकीन करते हैं।

उनके पास एक मोटरगाड़ी है, जिस पर कुछ मित्रों को लेकर वे दूर-दराज के इलाकों में इलाज के लिए निकल पड़ते थे। उनकी मोटर में हमेशा खूब दवाइयाँ होती थीं, जिन्हें वे अपनी देखरेख में बाँटा करते थे। इन इलाकों में इनके बैठने के दिन-समय तय होते थे। मोटर से मोड़ी-खोली जा सकने वाली मेज-कुर्सियाँ उतरतीं और किसी पेड़ की छाया के नीचे दवाखाना जम जाता। सुई लगाने से लेकर पानी चढ़ाने तक का काम खुले आसमान के नीचे होता। मलेरिया, फायलेरिया, कालाजार, डायरिया, टीबी, जैसे घातक रोगों के खूब रोगी होते थे। सब के सब हारे-थके, परेशान। भूत-प्रेतों और डाक्टरों पर एक साथ भरोसा करने वाले। इन सब पर नानूसान का इलाज चलता और साथ में समझाइश भी। इन जानलेवा रोगों के अलावे और कई रोग पसरे पड़े थे, पर जो सबसे बड़ा रोग था और जिससे प्रायः जूझ रहे थे और जिसका उपचार नानूसान के पास भी नहीं था, ऐसी भुखमरी ने कइयों को अकाल मौत के हवाले डाल दिया था। इसके पीड़ितों से इसके बारे में बात करना उनकी दुखती रग पर हाथ रखना होता था, लेकिन बातें होती थीं और बार-बार होती थीं। इस रोग की पहचान और इसके लक्षण तो साफ थे, बस इसके मूल और निदान पर लोगों के साथ नानूसान की चर्चाएँ जमती थीं। यह एक दुख था जो कहने से जरा कम टीस देता था।

हमारे जंगल का पश्चिम छोर, जहाँ से बाहर निकलने के लिए पेड़ों से बचबचाकर निकलती हुई कई पतली पगडंडियों से मिलकर बनी एक चौड़ी पगडंडी, जो आगे जाते-जाते कच्ची सड़क की शक्ल ले लेती है। जंगल से लगातार इसी राह के साथ दूर होते जाने पर कुछ छोटे गाँव और बाद में एक हाट पड़ता है, जहाँ से हम नमक और देह ढकने के लिए कपड़े लाते हैं। नानसून कहते हैं, वे इसी हाट में कई दफा आ चुके हैं, जहाँ से जंगल के रोगों-दुखों को टुकड़ों-टुकड़ों में ही सही, समझने का बढ़िया मौका मिला है। हालाँकि अफसोस कि नानूसान से मेरी मुलाकात कभी नहीं हो पाई, जबकि मैं पियार, केंद, बैर, लकड़ियाँ लेकर कई बार हाट जा चुका हूँ।

इसी तरह दुखों-बीमारियों का पीछा करते जंगल को समझते-बूझते वे जंगल के हो गए। जहाँ उन जैसों के लिए अपार काम था। वे रम गए। भाषा सीखी, संस्कृति को समझा, दर्द को महसूसा, दावेदारों को पहचाना, सब कुछ खोद कर लूट ले जाने को आतुर बाहर-भीतर के लुटेरों, गुंडों, ठेकेदारों को पहचाना। जंगल को जंगल न रहने देने की साजिशों में शामिल तत्वों को देश-दुनिया के सामने नंगा किया। उन्होंने पूरे जंगल का इलाज किया, सोचने-समझने, लड़ने लायक स्वस्थ बनाया। युद्धभूमि में मानवीयता के लिए बेखौफ समर्पित एक ऐसे वैद्य और प्याऊ की भूमिका उन्होंने निभाई, जिसके लिए हर घायल उसके कर्तव्य के दायरे में आता है। उन्होंने सबको दवाइयाँ दीं, सबकी मरहम-पट्टी की, सबको माने उनको भी जिनके करीब तक जाना मना किया गया था, जंगल आते समय।

प्रदेश के खलीफा, हुक्मरान जंगल के जिन रखवालों के शिकार के लिए जी-जान से जुटे थे और नाकाम होने पर मंदिरों में घंटियाँ तक टनटना रहे थे, नानूसान द्वारा चिकित्सक होने के नाते उनका भी दर्दे-ए-हाल लेते रहेने को भीषण जुर्म माना गया। बस, बिना जोखिम उठाए तुरंत के तुरंत नानूसान को भी शिकार घोषित कर पकड़ लिया गया।

जिससे जितना ज्यादा डर, उस पर उतने ज्यादा और भारी आरोप। राजद्रोह लगाया गया और वे तब से यहाँ हैं।

नानूसान के बारे में ये बातें खुद नानूसान ने नहीं, मेट ने और थोड़ी-बहुत बुच्चू ने बताई, जब मैं थोड़ा पुराना और हिंदी सुनने-समझने लायक हो गया।

सबसे पहले दोस्ती मेट से ही हुई थी। तब नानूसान से और बाद में बुच्चू से।

मेट अच्छा आदमी है और चालाक है। यहाँ इसलिए है कि उसकी ट्रक से नशे में धुत एक रईसजादा अपनी विदेशी कार सहित कुचला गया था। मरने वाले के बाप ने ऐसी जुगाड़ लगाई थी कि मेट उम्रकैद के फासले से चंद ही कदमों से बच पाया था। मालिक ने ट्रक तो छुड़ा लिया पर मेट को सड़ने के लिए छोड़ दिया और संयोग कि उस खूनी ट्रक को अब मेट का बेटा चला रहा है।

और बेचारा बुच्चू प्रेम में मारा गया। एक लड़की थी मीना, जिसके साथ बुच्चू ने भागकर शादी की। लड़की के परिवार वालों की ओर से अपहरण का मुकदमा दर्ज कर दिया गया। आनन-फानन में दोनों के दोनों पकड़ भी लिए गए। संयोग कि लड़की को अठारह पूरा करने में आठ दिन की कसर रह गई थी। काले कोट वालों ने पैसे को आगे और प्रेम को पिछवाड़े डालते हुए अपनी जिरह से साबित कर दिया कि बुच्चू ने नाबालिग लड़की को बहलाया, फुसलाया और उसे गुमराह करके अगवा कर लिया। बलात्कार की पुष्टि के लिए किए गए डाक्टरी जाँच में कुछ नहीं निकला, फिर भी बुच्चू तीन सालों के लिए रेल दिया गया और अभी तो पचास-पचपन दिन ही हुए हैं उसे।

मेरी उम्र के ही अगल-बगल फटकने वाले इस चमकदार लड़के की चमक बंद अहाते में रहते हुए बदरंग हो गई है। उसके भीतर फैले हुए सारे रंग उड़ने लगे हैं। वह खाली होता जा रहा है, आँखों में अतल सूनापन लिए। इतना कि कोई कभी भी आए कभी भी जाए फर्क नहीं पड़ता।

अपनी दमक और तेज खो देने वाला एक अकेला बुच्चू नहीं है यहाँ। कई हैं। जेल हुक्मरानों को इसी में चहारदीवारी की सफलता भी दीखती है। इस जगह को बनाया ही इस तरीके से गया है कि यहाँ लाए जाने वाले का पहले व्यक्तित्व मार खा जाए, फिर देह जंग खाकर निस्तेज हो जाए और अंत में सोच उसका साथ छोड़ दे। जब वह यह जगह छोड़े तो निरा पंगु होकर, मृत्युपर्यंत अपनी निरर्थकता के साथ।

मुझे खुद से ज्यादा रोज बूढ़ा होते हुए नानूसान की परवाह है, जिनकी परवाहों में गाँव है, जंगल है और हर वह आदमी है जो पीड़ित, बीमार और घायल है। डर भी लगता है कि प्रकृति, समाज और मानवता से दूर इस नितांत बंद जगह की जड़ता से हमारे माथे की गति प्रभावित न हो जाए। नानूसान कहते हैं, 'हृदयगति से कम खतरनाक मस्तिष्क की गति का रुक जाना नहीं है, जो व्यक्ति की पहचान, उसके अस्तित्व पर संकट ला देता है।

इस घेरे में गति का घोर अभाव है। यहाँ सब कुछ स्थिर और नियत है, जिससे हमारे भीतर एक ऊसर किस्म का सूनापन भरता जाता है।

वही-वही चेहरे, वही-वही आवाजें, घड़ियों के पीछे-पीछे बजने वाली घंटियों की टन-टन, धीरे-घीरे बनती-मिटती परछाइयाँ, पानी के विशालकाय जड़ हौदे, बुरी तरह से ढकी हुई कुएँ की मुँडेर, कोठरी के भीतर की चुप्पी, अँधेरा और सीलन, सूरज के उगने से लेकर तारों के ओझल होने तक की तयशुदा हलचलें, कोठरी से दीखती लाल-लाल दीवारें और उन पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखे उपदेशात्मक वाक्य कि 'अनुशासन ही देश को महान बनाता है', ऐसे और भी कई आधे-लिखे-मिटे चकतेनुमा शब्द-वाक्य, जिनसे अक्षर ज्ञान के बाद मैं चिढ़ता रहता हूँ। चौतरफा रचे-बसे ये सारे के सारे दृश्य आँखों से स्थायी रूप से चिपक-से गए हैं। ऊबकर इनसे टकराने से बचता हूँ, लेकिन बेकार।

पेशी के दिनों को छोड़ कर बाकी के दिन और तारीखें कैलेंडरों और रजिस्टरों में ही गतिमान हैं। इनका बदलना हमारे लिए कोई बदलाव लेकर नहीं आता है। लगता है, आज के दिन जैसे जिया, कल इससे अलग नहीं था या परसों भी या फिर पिछले दो सालों के लगभग सभी दिन, जब से यहाँ रखा गया हूँ। दिन-रात इस सुस्ती से सरकते हैं, मानों इस चाहरदीवारी के भीतर घंटों, मिनटों, और सेकेंडों की स्वाभाविक गति को थोड़ा घटा कर रखा गया है। शायद बाहर के तीन सेकेंड पर यहाँ एक सेकेंड होता हो या इसी तरह भीतर के एक मिनट में बाहर तीन मिनट गुजर जाते हों। समय के बड़े-बड़े बोझों से सबकी पेशानियों पर हताशा की एक स्थूल परत जम गई है। गाहे-बगाहे लाख खुलकर हँसने पर भी यह परत छिपती नहीं है।

यहाँ बंद हम कइयों से मिलने कोई नहीं आता, एक मरगिल्ले कुत्ते को छोड़ कर, जिसे चाहने वालों की संख्या पचास के पार है और वह जल्द ही पुचकारों और दुलारों से ऊबकर-थककर पूँछ हिलाना बंद कर देता है और बाहर चला जाता है। हम कुछ नए सहमे से रहने वाले लोग उसे छूने भर की तमन्ना लिए, अपनी बारी का इंतजार करते, किनारे बैठकर मन मसोसते रह जाते हैं। कभी-कभी उसे देखे पखवाड़े गुजर जाते हैं।

एक नीमरोज, जब अधिकतर लोग अपनी बैरकों में ऊँघ रहे थे और मैं पाखानाघर के सामने की घासें नोच रहा था, वह मुझे दिखा। वह मेरी ओर नहीं आ रहा था, जानकर मैं अचानक उसके सामने कूद पड़ा। बचकर वह भागने को हुआ लेकिन मैंने दोनों हाथों और पैरों का फैला हुआ घेरा दिखाकर उसे छेंक लिया। गोल और मीठा मुँह बनाकर धीमी आवाज में पुकारता-पुचकाराता मैं उसे पकड़ने में सफल रहा।

मैंने उसे अँकवार रखा था और महीनों से इकट्ठा हो रहा प्यार उड़ेलना चाहता था।

मैं उसकी रोओं में फँसी बाहर की हवा और महक पाना चाहता था। पाखानाघर के सामने कुत्ते को इस तरह अकेले में भींचे देखकर भीतर की पहरेदारी वाला सिपाही मेरी ओर ऐसे लपका, जैसे डंडे से मारकर मेरा सिर खोल देना चाहता हो। उसके चीते की तरह लपकने में मेरे द्वारा कुत्ते का आलिगंन, जैसे किसी अनर्थ, अपराध या अनुशासन भंग का हिस्सा हो और मेरे ऐसा करने से उसका देश महान बनने से रत्ती भर से रह गया हो या शायद जेल की अवधारणा में प्रेम का प्रस्फुटन या संबंधों का गाढ़पन जेल की स्वाभाविक यातनाओं को ठेंगा दिखाता हो या फिर वह मुझे कुत्ते के फेफड़े में भरी आजादी की उस हवा को चखने से रोक देना चाहता हो जिसको लेकर पूरे इतिहास भर में कई बगावतें हुईं, जैसा कि नानूसान बताते हैं।

खैर, कुत्ते को वहीं हड़बड़ाया-घबराया छोड़ मैं भागकर अपने पिंजड़े में दुबक गया। साँसों को तरतीब कर ही रहा था कि बीसियों गालियों के साथ दो-तीन रूल चूतड़ों पर चिपक गए, साथ में कई दिनों तक यह जलालत भरी अफवाह भी कि जंगलों के लोग कुत्ते-बकरियों तक को नहीं बख्शते। यह उसी सिपाही ने फैलाया था, जो मुलाकातियों से जमकर रुपए ऐंठा करता था। कई दफा उनकी दी हुई मिठाइयाँ और खाने वह पूरी की पूरी डकार जाता था। उसे मुझ जैसे कैदियों से घोर नफरत थी जिससे मिलने कोई नहीं आता।

कुत्ते वाली अप्रत्याशित घटना में मजा ढूँढ़ने वाले वे लोग थे, जो खाकी कपड़ों से ढकी टाँगें दबाते और उनकी थूकों में नमक लगा कर मजे से चटकारे लेते। इनमें से कइयों ने औरतों और बच्चों को रौंदा था, तो कइयों ने कइयों के गले और अँतड़ियों में खुखरियाँ घुमाई थीं। ये हत्यारे, बलात्कारी कहने को जेल की छड़ों के दूसरी ओर थे। जेल प्रशासन के नुमाइंदे के रूप में अघोषित राज इन्हीं का चलता था। इनकी क्रूर, वहशी और घाघ आँखों के चौकन्नेपन और खुफियागीरी से सिर्फ हम ही नहीं जेल के चूहे तक परिचित थे। इनमें भाड़े के खूनी, बौने कदों वाले नेता, सेठ-ठेकेदारों के गुर्गे, घरों और सड़कों के लुटेरे आदि सब शामिल थे, जो भ्रष्ट जेलर के साथ मिलकर साजिशों और खुसुर-पुसुर का माहौल गर्म रखते।

जंगल से बहुत-बहुत दूर यह एक ऐसी जगह थी, जहाँ दुनिया की किसी भी खूबसूरती को गलती से भी नहीं छोड़ा गया था। उल्टे, मानवता को लजा देने के लिए जिन-जिन नमूनों की जरूरत पड़ सकती है, ऐसे सारे तत्वों को यहाँ चुन-चुन कर रखा गया था। लेकिन प्रकृति की स्वच्छंदता के आगे किसी का जोर नहीं चलता। हमारे भीतर के सुख महसूसने वाले सारे तंत्रों को निष्क्रिय बना देने के पुरजोर प्रयासों में लगे जेलर को प्रकृति की कलाओं, रंगों और छटाओं से खासी मशक्कत करनी पड़ती।

प्रकृति का उत्सव हमारे लिए वाकई एक अलग खुशनुमा पहलू है, जो सारे दवाबों- तनावों को धो-पोंछ देता है।

मैंने देखा है, यहाँ भी लोगों को पुलकते हुए। उस दिन, जिस दिन बारिश की पहली बौछार पड़ती है। हमें लगता है, ये बूँदें बाहर से बेखटक हमसे मिलने आई हैं, जेल की दीवारों पर लिखे 'अनुशासन ही देश को महान बनाता है' जैसे सारे उपदेशों और कायदे- कानूनों को धोते हुए। हाथ बढ़ाकर हम बूँदों को हथेलियों और माथे पर मलते हैं, जीभ से उसका स्वाद लेते हैं। वाकई हम पुलकते होते हैं।

बारिश अपनी संपूर्ण शक्ति लगाकर भीतर हमारे लिए बदलाव चाहती है। जेल की ऊसर जमीन पर भी जेलर की नाक तले वह हमारे लिए प्यारी-प्यारी हरी दूबें जन्माता है। उनकी हरियाली और मुलायमियत हमारे दिलों में उतरती जाती है। निर्मोही जेलर को यह सब बदलाव नहीं सुहाता, वह इन प्यारी दूबों पर हमी से फावड़े चलवाता है। इन दूबों के साथ-साथ धरती पर आए लाल-सुनहले कीट-पतंगे भी खत्म हो जाते हैं।

बारिश के बाद आए मेढ़कों और झींगुरों की लोरी से हम मजेदार नींद की सैर करते हैं। प्रकृति दुष्ट जेलर के समूचे नियंत्रण को ध्वस्त कर हमें दुलारती-बहलाती है और असहाय जेलर हमें खुश होने और मजे लेने से नहीं रोक पाता है। वह चहारदीवारी के भीतर जन्म से ही कैद बारह सालों के जुड़वाँ अशोक के पेड़ों का बारिश में लहलहाना भी नहीं रोक पाता है या बसंत में अशोक की फुनगियों पर जंगल, पहाड़, नदी, गाँव और शहर की सैर कर आई कोयल का कूकना भी।

छोटे-मोटे गड्ढों में ठहरे बारिश के गँदले लेकिन आजाद पानी से खेलते हुए हम उसकी ठंडई अपनी रोओं में महसूसते हैं। हौदों और कुओं में कैद रंगहीन सर्द पानी के बजाय जी करता है हम उसी थोड़े पानी में नहाएँ या फिर नहाने के लिए जेल की गहरे तक गड़े दीवारों से नदी निकल पड़े और जिसमें ऊपर से भी बारिश होती रहे। जेल के बीचो-बीच होकर गुजरती यह नदी अपने भीतर असंख्य मछलियाँ समेटी हो, जिससे जेल के स्वादहीन खाने से हमें निजात मिल सके।

बरसात की तरह बसंत भी बाहरी दुनिया और हमारे बीच फर्क किए बगैर जेल की ऊँची-ऊँची दीवारों को फलाँगते हुए बेधड़क आता है और तब उसकी मादकता और मोहकता के जेल में करीने से सज जाने पर तमाम यातनाएँ हमें हँसी-खेल लगने लगती हैं। तब लगता है कि सजा की कुल दिनों की बात करते समय उसमें बसंत के दिनों को न जोड़ूँ।

अपने समूचे क्रूर प्रयासों के बाद भी हमें दुखी न देख जेलर कुढ़ता-झिंकता रहता है। बहुत ही ज्यादा बढ़ आए पोथे के कारण बेहद भद्दे अंदाज में टाँगें फैला कर फुदकता हुआ जेलर, गर्मियों के दिनों में अपेक्षाकृत ज्यादा शैतान लगता है।

पिछली गर्मी की लंबी दुपहरियों में जब सूरज कई-कई घंटों अपनी पूरी ताकत से जलता हुआ आकाश में टँगा रहता, हम पेट में कच्चे-पक्के, आधे-अधूरे अनाज लिए, पैर मोड़ते फैलाते झपकियाँ लेने की असफल कोशिशों में जुटे रहते। गर्मियों के लू-दाह वाले दिनों में भी जेलर इत्मिनान से घूम-घूम कर हमारा जायजा लेता रहता और लगभग उजड़ चुके अपने चुनिंदा बालों में ऊँगलियों से ऐंठ डालते हुए बर्फीला रंगीन पानी गटकता रहता। बलात्कारियों, खूनियों और ठगों की अविराम चापलूसियों से घिरा वह अश्लील लतीफे धड़ल्ले से सुनता-सुनाता और दूर-दूर तक सुनाई देने वाले लंबे-लंबे ठहाके लगाता।

सीखचों के इस पार से दिखने वाले सीमित दृश्यों को ताकते-ताकते आँखों में पर्याप्त बोरियत भर जाती। धुँधुँआ कर चलने वाली गर्म हवाओं से जेल का पूरा अहाता सुलगता रहता। दोपहर को धरती से निकलती हुई गर्मी से अहाते का सूनापन भी दहकने लगता। चौतरफा फैले ऐसे गर्म दृश्यों को देखने पर लगता आँखें झुलस जाएँगी।

सूरज का प्रकोप शाम खत्म होने पर भी कम नहीं होता। एक अदृश्य आग में हम लगातार धीमे-धीमे सिंक रहे होते। शाम को हम उसी पानी से हाथ-मुँह धोते जो दोपहर को खुले आसमान के नीचे खौलता होता। हम प्यास से अकुलाते यूँ ही पड़े रहते पर गर्म पानी हलक के नीचे नहीं जा पाता।

घंटी लगने पर जब रात में सोना होता, हम घंटों छत को और छत से लटकते पीले बल्ब को घूरते रहते। गर्मी से बेहाल हम करवटें बदलते, उठते-बैठते घंटों निकाल देते। ऊबने-थकने पर तब कहीं नींद आती। आधी रात या उसके आस-पास जब हम सारी थकान, गर्मी, और मच्छरों को भूलकर बेमतलब के सपनों में गिरते-पड़ते बेसुध पड़े होते, दुष्ट जेलर अपने दल-बल के साथ हमारी कोठरियों में टार्च की सफेद रोशनी चमकाता, रूल से सीखचों पर चोट करता औचक निरीक्षण करने में जुटा रहता। एकाएक नींद टूट जाने से हम हड़बड़ाकर उठ बैठते, घूमते दल-बल को देख झुँझलाहट होती और फिर गुस्से में मच्छरों के लिए हथेलियाँ चटचटाते अपनी खीझ और गुस्सा जाहिर करते। रतजग्गे वाले ऐसे समयों में हम अपने पिजड़ों में दाह-पसीने, चिपचिपाहट और बेचैनी के बीच अपनी सजा को और अधिक खिंचता हुआ महसूस करते। भर गर्मी हमें परेशान देख जेलर खूब पर्व मनाता और पुलका-पुलका रहता।

जाड़े में हमारे मजे औसत रहते। मीठी धूप में बैठना यदि नसीब होता तो हमारे भीतर की उचाटता नर्म धूप की गर्मी में पिघलकर बह जाती, नहीं तो कंबल के भीतर के अँधेरे और गर्मी में ही दिन-रात कट जाते।

जब मैं यह सब लिख रहा हूँ, सर्दी के शुरूआती दो महीने निकल चुके हैं, जो मेरे लिए कहीं से भी सुखद नहीं रहे हैं। पिछले के पिछले हफ्ते घटी घटना के बाद से जेल सुपरिटेंडेंट को हटाकर बहुत दूर एक कस्बाई जिले के जेल में भेज दिया गया है। उसकी जगह पर जो नया आया है, जो नानूसान की उम्र के आस-पास ही ठहरता है, सनकीपन की हद तक जाकर दौरे करता है। दुष्ट जेलर, हेड चीफ, वार्डर सब उसके पीछे जूते बजाते, रूल घुमाते, नफरत और वहशियाना नजरों से हमें घूरकर चले जाते हैं। असल में, उन्हें यह विश्वास करने में बड़ी दिक्कत हो रही है कि पिछले के पिछले हफ्ते घटी घटना में हमारी कहीं से कोई संलिप्तता नहीं है।

हमारे प्रति बनी उनकी धारणा और विश्वास इसलिए भी नहीं घट रहा है कि प्रारंभिक जाँच में घटना के समय हमारी गतिविधियाँ उनके लिए खटकने वाली थी। इतवार की सुबह मुलाकाती जब अपने बंधु-बांधवों से मुलाकात कर रहे थे, मैं और नानूसान, वार्डर और मेट की निगहबानी में कोहरा छँटने के बाद खिले जाड़े की सुषम धूप में देह के पोरों में गर्माहट भर रहे थे कि गेट के करीब वह कानफोड़ू धमाका हुआ था। 'ये क्या हुआ' की घोर जिज्ञासा वाले भाव के साथ वार्डर और मेट को भूलकर हम तत्क्षण गेट की ओर लपके थे, पर तुरंत पोजीशन में आए वार्डरों और सिपाहियों द्वारा हम गेट से दस-पंद्रह फर्लांग पहले ही धर लिए गए थे।

हम जिस तरह से जकड़े गए थे और वापस अलग-अलग कोठरियों में डाले गए थे, यह समझना कहीं से भी कठिन नहीं था, कि हमारे इस तरह अचानक दौड़ पड़ने को क्या समझ लिया गया है। हमारे प्रति बने-बनाए पूर्वागह और उस पर यह घटना जाहिर तौर पर उनके इतने गड़बड़ तरीके से समझ लिए जाने पर पूरी जाँच की शुरूआत हमसे ही हुई थी।

मुझे नानूसान से अलग करके कैद तन्हाई में डाल दिया गया था। कई आशंकाओं के भँवर में डूबता-उतराता मैं नानूसान के लिए चिंतित था मुझे डर था कि इस घटना के मार्फत नानूसान का मुकदमा और ज्यादा प्रभावित न कर दिया जाए।

धमाका और फिर तुरंत कैद तन्हाई, यह सब इतने त्वरित अंदाज में हुआ था कि घटना को लेकर हमारी अनभिज्ञता बनी ही रह गई थी। घटना के तुरंत बाद अहाते में कड़ाई व्याप्त गई थी। सारे ओहदों पर खूब फेर-बदल हुई थी। हमारा दोस्त मेट भी नहीं दिखता था जो कुछ बता सके।

अब तक जिए गए जेल जीवन के सबसे दर्दनाक दिन मेरे लिए यही रहे। अँधेरे में दिन-रात काटता मैं अपनी अब तक की जिंदगी जेल से जंगल को मन ही मन दुहराता चला जाता। घटनाओं के साथ-साथ लगने वाले दुख, पीड़ा, क्षोभ, अफसोस, खुशी, पछतावा जैसे भावों को दुहरा-तिहरा जीता मैं हर पल बेचैन होता रहता। मैं हफ्तों पहले देखे गए उगते-डूबते सूरज, उसकी गुनगुनी गर्मी, उड़ती चिड़ियाओं के झुंड और शाम ढले जेल के हाते के ठीक ऊपर से गुजरते थकान से भरे कबूतरों को याद कर मन मसोसता और लंबी ऊब और झुँझलाहट से भर देने वाली पूछताछ में साहबों का साथ देने की भरसक कोशिश करता।

दरअसल हम उस झमेले के शिकार हो गए थे जिसका हमको ठीक-ठीक पता तक नहीं था। घटना को लेकर उत्सुकता का आलम यह कि लंबी पूछताछ के दौरान साहबों की ओर से पूछे जाने वाले सवालों के जवाब में मन करता की बड़े भोलेपन से उल्टी पूछूँ कि कैसे क्या हुआ था साहब उस दिन? मैं असमंजस में पड़ा आँखें चिहार कर उन्हें देखता भर रह जाता। वे सवाल दर सवाल किए चले जाते। आखिर में वे अँधेरे में इधर-उधर गालियाँ बिखेर कर और दो तीन झन्नाटेदार थप्पड़ों से मेरी कनपट्टियाँ झन-झनाकर इस वायदे के साथ रुखसत होते कि वे फिर आएँगे। धमाके वाले इतवार कांड में कौन-कौन शामिल है, यह उगलवाने।

यह सब लगातार चलता रहा और जब जाँच में लगे साहबों के हाथ कुछ मजबूत सूत्र आए जिसमें हम कहीं नहीं थे और जब फरारियों को पकड़ कर कुछ नए आरोपों के साथ वापस जेल में ले आया गया तब जाकर मुझे कैद तन्हाई से मुक्ति मिली। हालाँकि नानूसान को किसी तरह की कोई राहत नहीं दी गई।

इतना कुछ हुआ, तब जाकर पता चला कि उस इतवार को आखिर हुआ क्या था?

असल में, घटना वाले इतवार एक मुलाकाती अपने साथ जो खाना लेकर आया था, उस टिफिन में ऊपर से तो गोल-गोल लिट्टियाँ रखी थीं, पर नीचे दो जिंदा देसी बम थे, जिन्हें विस्फोट कर दो लोगों को भगाया गया था। बुच्चू बता रहा था कि भाग निकले कैदी पकड़े नहीं जाते पर कुछ ऐसा हो गया कि दोनों के दोनों धरे गए।

धमाका कर मुलाकाती सिर्फ अपने भाई को भगाने आया था पर धुएँ और अफरातफरी का सहारा लेकर एक सजायाफ्ता कैदी और फरार हो गया, जो किसी ठेकेदार के चक्कर में पड़ कर अपनी प्यारी पत्नी को शक के कारण पीट पीटकर हत्या कर देने के आरोप में बीस बरसा भोग रहा था। भागकर दोनों महुआटाँड जाने वाली बस में सवार हो गए थे, पर महुआटाँड जाने के बजाय दोनों आपस में बातचीत कर वहाँ से लगभग पंद्रह-बीस किलोमीटर पहले ही एक गाँव के नजदीक उतर गए। उतरे तो ठीक, लेकिन जिसको भगाने के लिए बम फोड़ा गया था, उसकी लूटने-झपटने की पुरानी आदत। उतरते-उतरते उसने बस के दरवाजे पर खड़ी बुढ़िया से उसका लाल बाँका मुर्गा छीन लिया। यह आदमी पहले घाटी में गिरोह बनाकर बस-ट्रक लूटता था, वह भी पार्टी के नाम पर। गिरोह के सदस्यों को पुलिस तो खोज ही रही थी, पार्टी वाले भी पीछे पड़े थे, लेकिन पार्टी वालों के हाथ पड़ने से पहले ही गिरोह के चार आदमी पुलिस के हत्थे चढ़ गए। पार्टी के नाम पर उत्पात मचाना खूब भारी पड़ गया। थाना लूटने, पिकेट उड़ाने जैसे बीसियों आरोप और ऊपर से लाद दिए गए। दो साल से यूँ ही पड़े हुए थे। इन्हीं चार में से एक को उसके दुस्साहसी भाई ने बम पटक कर भगा लिया।

दूसरा कैदी जिसने मौका ताक कर चालाकी दिखाई थी और निकल लिया था, उसी की योजना थी, गाँव के नजदीक उतरने की, क्योंकि इस गाँव में उसकी फूफासास रहती थी। तुरंत के लिए यह ठिकाना उन्हें महफूज भी लगा था, पर संयोग कि लाल रंग वाले उस बाँके मुर्गे वाली बुढ़िया इसी गाँव की निकली और उसने इन दोनों को पहचान भी लिया। फिर तो गाँव वालों ने दोनों को भरदम मारा और थाने में दे दिया। जहाँ इन्होंने सब किस्सा बक दिया।

इस बम कांड ने बहुत कुछ उलट कर रख दिया है। अब तो पूरा इतवारी बम कांड झरने के पानी की तरह साफ है, पर जेल वालों के दिमाग में अब भी हमारे प्रति अविश्वास, सर्तकता और चौकन्नापन साफ झलक रहा है। हालाँकि मुझे कैद तन्हाई से छुटकारा दे दिया गया है, पर वापस नानूसान की देखभाल के लिए नहीं रखा गया है। उन्होंने मुझे ताकीद भी किया है कि मैं उनसे दूर रहूँ। मेरा अकेलापन हाट से बाहर की ओर आने वाले उस सड़क के सूनापन जैसा हो गया है जिस पर हाट खत्म होने और अँधेरा घिर आने की वजह से कोई एक कुत्ता तक मौजूद नहीं होता।

मैं बुच्चू के साथ भी नहीं हूँ। मुझे कोठरी में उचक्कों और चार सौ बीसों के साथ रखा गया है। ये लंपट हैं, चापलूस हैं, धूर्त, लोलूप झगड़ालू और कटखने भी। भद्दी-भद्दी बातें बतियाते हैं और बात-बात में कहकहे लगाते हैं। ये आपस में दोस्ती का नाटक करते हैंड, एक-दूसरे की तारीफ करते हैं, खुशामद करते हैं, फिर किसी बात पर एक दूसरे की माँ-बहनों पर चढ़ बैठते हैं, बाहर निकलकर सबक सिखाने की धमकियाँ देते हुए कुत्ते सूअरों की तरह लड़ते-भिड़ते हैं। अकेलेपन निराशा और अवसादों का यह दौर अब आगे भी जारी रहने वाला है। लगता है, अब सही मायने में जेल मुझे डराएगा और इस डर और हताशा से बचाकर मुझे सीखने बताने वाला कोई नहीं होगा।

मैं जान गया हूँ, जेल जैसे रेतीले-पथरीले और ऊसर जगह में मौसम की सारी अठखेलियाँ और ठिठोलियाँ नानूसान जैसों के संग ही समझी जा सकती हैं। अर्भी सर्दी है, सर्दी की कनकनी रातों में कछुए की तरह कंबल के अँधेरे में सर घुसाए, मैं इतना कुछ सोच लगातार काँपता रहता हूँ।

मुझे यह कँपकँपी नई नहीं लग रही है। मैं इसे पहले भी दो-तीन दफा महसूस कर चुका हूँ। बचपन में हुई ऐसी कँपकँपियों का तो मुझे ख्याल नहीं, पर इस कोठरी में आने के दो दिन पहले जंगल की उस मायूस साँझ की पहली और जरा कम तीव्रता वाली कँपकँपी, और उस साँझ के उतरने के बाद आई काली-कलूटी रात की भीषण कँपकँपी की झनक अब तक मेरी देह में बची है।

हौले से हरेक अंग को झनझना कर, रीढ़ की हड्डी में समाकर खत्म हो जाने वाली वह पहली कँपकँपी, मैंने गर्मी की उस साँझ महसूस की थी, जब जंगल की या कि मेरी त्रासदी अपनी प्रक्रिया में थी और इसके कुछ लक्षण मुझे अपनी प्रेमिका में भी दिखाई दे गए थे।

सुक्की , मैं और हमारा जंगल

हम प्यार करते थे और फूल गिरते थे। उन फूलों को बकरियाँ अपने गालों में दबाकर खा जाती थीं। हम प्यार करते थे और महुए टपकते थे, उन महुओं को भी बकरियाँ आँखें नचाकर खा जाती थीं। महुआ या जामुन की जड़ों पर जहाँ हम बैठे या अधलेटे होते, हमारी देहों पर या बिल्कुल करीब गिरे फूलों या महुओं को खाने कोई साहसी और समझदार बकरी आती या फिर कोई मासूम, छौना। छौना निधड़क और बड़ी कोमलता से फूलों या महुओं को चुभलाता हमारी ओर से बेपरवाह होता। हम मिलकर उसे आसानी से पकड़ते और बारी-बारी से चूमते। वह उसे छाती से चिपटाकर कहती, 'हम तीनों वहाँ घर बनाएँगे, जहाँ यह जंगल खत्म होता है और जहाँ इस धरती और आकाश का मिलन होता है। तब हमारे घर का दरवाजा जंगल की ओर होगा और घर की पिछली दीवार के रूप में क्षितिज का आसमान होगा, जिसकी ओट में हम बिल्कुल सुरक्षित होंगे। हालाँकि ऐसी तमाम कल्पनाओं में खोते हुए उसके चेहरे का रंग मलिन होता जाता, क्योंकि जंगल की आबोहवा तेजी से बदलती जा रही थी। इसका भान था मुझे और उसे भी, पर हम अलग- अलग दुखी हुआ करते थे, अलग-अलग समय में। वह हर साँझ, जब हम यूँ ही लेटे या अधलेटे होते, डूबते सूरज के साथ अपनी कल्पनाओं को, जंगल में आने वाली संभावित त्रासदी से दरकता हुआ पाती।

जंगल का गाढ़ापन जार-जार होकर बिखर रहा था और जंगल के बदलते मौसम के साथ-साथ हमारे प्यार का तिलिस्म भी चटक रहा था। जंगल में बढ़ आए फाँटों से अब कोई भी नया-पुराना जो मुँह उठाकर जंगल में घुसा चला आ रहा था, हमें आसानी से झाँक जाता था। पेड़ों की जिन जड़ों पर परसकर हम सपने बुना करते थे, वहाँ कुछ देर या बहुत देर पहले कइयों के होने की गंध और निशान बचे होते थे।

हम इस डर मिश्रित निराशा और दुख के साथ लगातार खामोशी भरे चौकन्नेपन में जिए जा रहे थे। जंगल के गंधाते जा रहे माहौल में अब सुक्की क्षितिज के भी सुरक्षित होने को लेकर आश्वस्त नहीं लगती थी। साँझ, सवेरे, दिन-दोपहर हमें प्रेम के लिए जगह तलाशनी पड़ रही थी। अपने ही घर में हम भटक-भटक कर प्रेम कर रहे थे। हमारी प्यारी मुर्गियाँ और बकरियाँ गायब हो रही थीं और हमारे परिजन भी। हमारी झोपड़ियाँ अचानक राख हो रही थीं और हमें जंगल से बाहर बने तंबुओं की ओर खदेड़ा जा रहा था।

हमारे दिलों में खौफ भरने वाले धीरे-धीरे पूरे जंगल में छितर रहे थे। इनमें से कई हमारे बंधु-बांधव थे और कई, बड़े शहरों से भेजे गए हरबे-हथियारों से लैस सिपाही। ये अपनी लोहेनुमा गाड़ियों में भरकर गोला-बारूद लाए थे और मुक्त हाथों हमारे बंधु-बांधवों को बाँट रहे थे ताकि जंगल के पुराने रखवालों से जंगल को खाली कराया जा सके। शहरी सिपाहियों ने हमारे लिए एक रेखा खींच रखी थी, जीवन और मृत्यु की कि इनकी ओर से हथियार उठाने पर जीवन अन्यथा सौ फीसदी मृत्यु। पर सच यह था कि कोई भी चुनाव शर्तिया मौत की ओर ही ले जाने वाला था। भाइयों से ही लड़ाने की स्थिति पैदा कर रखी थी इन्होंने।

जंगल में एक संभावित युद्ध शुरू होने वाला था और हम इसके सबसे आसान शिकार थे। बड़े शहरों से आए सिपाहियों ने हथियार चलाने के लिए हमारे बंधु-बांधवों का कंधा चुना था और मौज के लिए हमारे बहनों को, जो चंद पैसों पर या फिर मौत के विकल्प पर उन्हें उपलब्ध हो जा रहा थे। यह सब कुछ वाकई डरावना था।

उथल-पुथल से भरे ऐसे ही समय की वह साँझ, हमारी पिछली कई साँझों से बिल्कुल अलग और हमें एक-दूसरे से जुदा करने वाली थी।

उस साँझ जब वह आई तो रोजाना की तरह उसकी हाथों में हँसुआ नहीं, पलक झपकते मृत्यु की गलियों में भेज देने वाला एक खतरनाक हथियार था, जो निश्चित तौर पर सिपाहियों की ओर से ही दिया गया था। अलविदा कहते सूरज की सुरमई ताँबई रोशनी में वह हद से ज्यादा उदास और डूबती दिख रही थी।

महुओं का टपकना दिन भर से शुरू था और वे गिर कर बासी हो रहे थे। बकरियों का आना शायद अभी भी बाकी था।

मैंने उसे सहारा दिया और उसके हाथों से हथियार लेकर उलट-पुलट कर देखने लगा। वह वैसी ही अधलेटी उदास और थकी-थकी नजरों से मुझे देखती रही।

सूरज भरपूर रंगीन होता हुआ नीचे जा रहा था, जैसे किसी पेड़ पर गिरकर लटक जाएगा।

मैं उस हथियार को जतन से पोछता रहा और वह मुझे ताकती रही। शायद वह बहुत कुछ कहना चाहती थी या फिर कुछ भी नहीं। मैं भी बहुत कुछ पूछना चाहता था या फिर कुछ भी नहीं। हम अगले कई पलों तक अबोले बैठे रहे थे।

फिर मैं चुप्पी छोड़ आहिस्ते से उठा और अपनी पूरी ताकत से सामने जामुन की टहनियों की ओर उस हथियार को उछाल दिया। काले-काले, रस से भरे खूब सारे पके जामुन गदबदा कर पसर गए। मैं बड़े इत्मिनान से उन्हें चुन रहा था और उनमें धँसे छोटे-छोटे कंकड़ों-मिट्टियों को हटाकर, साफ जामुनों को बकरियों की तरह अपनों गालों के बीच दबाता जा रहा था।

कुछ साबुत जामुनों को दोनों हथेलियों में भरकर, जब मैं उसकी ओर मुड़ा, वह वहाँ नहीं थी।

सूरज अपनी रंगीनियाँ बिखेरकर जंगल के बाहर गिर गया था। जामुनों को वहीं बिखेरकर मैं तने और जमीन के ऊपर तक निकल आई मोटी-मोटी जड़ों का सहारा लेकर पसर गया। वह शायद इस जंगल की साँझ के साथ कहीं बिला गई थी, सोच कर रीढ़ की हड्डी के बीच से एक हौले से झुरझुरी के साथ एकबएक कँपकँपी उठी और मैं हिल गया।

साँझ खत्म हो जाने के बाद मद्धिम रात पसरने को थी और मैं यूँ ही पसरा रहा, एक धीमी किंतु स्थायी कँपकँपी के साथ। जामुन के कसैलेपन के साथ वाले खट्टेपन से मुझे अपने होंठ ज्यादा मोटे और भद्दे तरीके से लटके लग रहे थे। पिछले कई मिलनों में, खास कर गर्मियों वाली देर से उतरने वाली साँझों में, जब हम भरपेट आम जामुन खाकर, एक दूसरे को चूमते तो हमारे होठ अपेक्षाकृत ज्यादा मोटे, ठोस, मुलायम और झूलते मालूम होते थे। मैं जंगल और सुक्की के बारे में घंटों सोचता रहा।

चाँदनी छिटकने पर साधारण लकड़ी की तरह मालुम होता हथियार, बिखरे जामुन के बीच अब भी पड़ा था। सुक्की के इस तरह हथियार छोड़ चले जाने और रात की साँय- साँय भयानक तरीके से बढ़ आने से रीढ़ की हड्डी से उठा मेरा भय कनपटी पर आकर सनसनाने लगा। लग रहा था, जंगल में घुसपैठ कर फैल जाने वालों की खूनी नजरें अगल-बगल के पेड़ों से मुझे झाँक रही हैं। अचानक वे पेड़ों से सरसराते हुए उतर पड़ेंगे और क्षण भर में मुझे नोच-फाड़ खाएँगे। इतने भयानक ख्याल आते ही मुझे ठंड का अहसास हुआ और मैं डर कर सिकुड़ गया। मैं जामुनों के बीच पड़े उस हथियार की ओर फिर से देखे बगैर उसे वहीं छोड़ तुरंत उठ खड़ा हुआ और भागने लगा, सुक्की की झोंपड़ी की ओर जाने वाले रास्ते पर।

जामुन खाने से विकृत हुए होंठ और गले की भरपूर ताकत से एक भयंकर आवाज के साथ मैं चिल्लाना चाहता था, अपनी प्रेमिका के लिए कि वह सावधान हो जाए और बची रहे। हम जंगल नहीं छोड़ेंगे। हम आगे और प्रेम करेंगे। मैं पूरी ताकत लगाने पर भी भागता हुआ ऐसे नहीं चिल्ला सकता था, या शायद ठहरकर भी नहीं। मैं जितना अधिक जोर लगाता था, आवाज निकलने के बजाय मेरी कँपकँपी बढ़ जाती थी। और मैं हिरण की रफ्तार से नहीं भाग पा रहा था।

मेरा डर, मेरी आशंका सब कुछ सच था। मैं भागता हुआ सच में दबोच लिया गया था। मुझे अपनी गिरफ्त में लेने वाले जंगल के रखवाले नहीं थे। ये वही थे, जिनसे हम पिछले कई हफ्तों से भागते फिर रहे थे जो बाहरी सिपाहियों और उनके गोले-बारूदों के साथ मिलकर हमसे जंगल छोड़ने को कह रहे थे, जो हमारी प्यारी मुर्गियों और बकरियों को खा रहे थे। हमारे प्रिय परिजनों को गायब कर रहे थे। हमारी झोपड़ियाँ जला रहे थे और भेड़ियों की तरह झुंड में घूमते हुए हमारी बहनों को भंभोड़ रहे थे।

ये मुझे पहचानते थे और मैं उन्हें। मैं कई दिनों या हफ्तों या फिर महीनों से इनकी नजरों में चढ़ा था। ये एक साथ मुझपर गुर्रा रहे थे और फिर तुरंत, उन भेड़ियों ने मेरे धुर्रे उड़ा दिए। मेरी अँतड़ियाँ उलट गईं। आँखें पलट गईं, लेकिन पीड़ा के इस जोर से मेरी आवाज लौट आई जो डर से कुछ देर पहले भागते हुए जम सी गई थी। वे संपूर्ण ताकत से मुझे पीट रहे थे और मैं मारे जाते हुए सूअर की तरह भंयकर आवाज निकालता हुआ चीख रहा था, 'सुक्की सावधान रहना, तुम बची रहना। जंगल मत छोड़ना। हम बचेंगे और आगे और प्रेम करेंगे।'

मैं अपने भीतर की सारी आवाज सुक्की को सचेत करने में झोंक रहा था।

खूब पीट जाने पर लगा मेरी नसों में न रक्त बचा है, न शक्ति और न कोई आवाज।

और मैं मर गया।

अगली दोपहर मैंने जाना, मैं बच गया हूँ और चारों ओर जंगल का नामोनिशान नहीं हैं।

मैं बड़े शहर के सिपाहियों के बीच था जो मेरी ओर इशारा करते हुए जोर-जोर से मुखबिर-मुखबिर चिल्लाकर बातें कर रहे थे। अगले कई हफ्तों तक हर उसके पास जिसके सामने मेरी पेशी हुई, मेरे लिए मुखबिर शब्द ही कहा गया।

जेल की इस चाहरदीवारी में मैं इसी आरोप में बंद हूँ। उनकी नजरों में मैंने बेहद संगीन अपराध किया है। यदि किया है तो, और सब सोचते हैं मैंने यह जरूर किया है, नानूसान, मेट और बुच्चू को छोड़कर।

नानूसान दुखद स्थिति में हैं। गाँव, जंगल, पठार, पहाड़, शहर सब को चाहिए कि ये अपनी चिंताओं में नानूसान को और उन जैसों को शामिल करें जिन्होंने अपने पूरे जीवन को इस धरती की त्रासदियों से लड़ने-भिड़ने के लिए समर्पित कर दिया है।

नानूसान से अलग किया जाना मेरे लिए बेहद दुखदायी होगा और यह सुक्की से अलग होने से तनिक भी कम असहनीय नहीं होगा।

जंगल की लड़ाई शायद लंबी चले, क्योंकि कई अपने ही दूसरे खेमे से लड़ रहे हैं। अब तक तो गोलियों की दिन रात की बौछार और बमों की चिनगारियों से पेड़ों की पतियाँ, फूल और फल बिंध कर झर गए होंगे। बंदर, नीलगाय, खरगोश, चीतल, तेंदुए, और हिरण यहाँ तक की अपनी बाँबियों में दुबके विषधर भी बारूद की तेज भभकने वाली आग में भुन गए होंगे और हमारी झोपड़ियों के खाक हो जाने के बाद पेड़ों पर ठहरने वाली चिड़ियाओं के घोसलों का जलना-गिरना आम हो गया होगा।

और जंगल की इस आग में मेरी सुक्की का प्रेम करने के लिए बचा रह जाना, तालाब में पर्याप्त जहर छोड़ देने के बाद भी एक सुनहली मछली के जीवित तैरते रह जाने जैसा होगा।

मुझे नहीं मालूम कि इन आड़े-तिरछे अक्षरों, शब्दों और वाक्यों को निहार भर लेने के लिए सुक्की जिंदा है या नहीं, लेकिन लिखना सिख लेने के बाद मैं यह सब इसलिए भी लिख रहा हूँ ताकि दुनिया को कल अचानक घट जा सकने वाली बातों की बाबत पहले से इत्तिला कर सकूँ।

दरअसल, उस इतवारी बम कांड के बाद नामालूम क्यों, हम जेलर की नजरों में और अधिक संदिग्ध हो गए हैं। वह हमारी तकलीफें लगातार बढ़ाता जा रहा है। मालूम होता है, वह हमेशा हमें मारने के मौकों की तलाश में लगा रहता है, हालाँकि उसे ऐसे मौके हाथ नहीं लग रहे हैं, क्योंकि हम हमेशा बड़े संयमित और सचेत रहते हैं। स्पष्ट है, हम उसकी नजरों पर चढ़े हुए हैं। पर बात इतनी नहीं है। यह सब तो मैं अपने समान्य विवेक से पकड़ रहा हूँ। बुच्चू के मार्फत नानूसान ने कुछ सचमुच डरावनी बातें बताई हैं कि ऊपरी आकाओं के इशारों पर वे उनके साथ कुछ भी कर सकते हैं। बड़ी चालाकी से उनके लिए खामोश मौत की तैयारी की जा रही है। इसलिए नानूसान ने मुझे भी चौकन्ना रहने को कहा है।

नानूसान अपनी कोठरी में बीमार हैं और कभी-कभी खून की उल्टियाँ कर रहे हैं। जेलर आखिरकार उन्हें बीमारावस्था में धकेल देने की अपनी योजना में सफल हो गया है। इसलिए उसने जानबूझ कर उन्हें उल्टियाँ करते हुए छोड़ दिया है। बाहर किसी को भनक तक नहीं लगने दी जा रही है। हुक्मरान उनकी प्राकृतिक मौत हो आने की आस में टकटकी बाँधे बैठे हैं। दिखावे के लिए जेल का डॉक्टर उन्हें सुइयाँ लगाना चाहता है लेकिन उनके लिए सबसे खतरनाक बात यही है। डर यह है कि कहीं सुइयों में हवा भर कर नसों में पैवस्त कर नानूसान को मार न डाला जाए। इसलिए नानूसान शहर के किसी निजी अस्पताल में इलाज कराने की बात पर डटे हैं। मुझे तो यह भी डर है कि कहीं रोज-रोज उनके खाने में थोड़ा-थोड़ा जहर न दिया जा रहा हो। यह सब देखने-समझने वाला उनके पास कोई नहीं है।


यह सोलह आने सच है कि नानूसान के साथ कुछ भी किया जा सकता है क्योंकि ऊपर और उससे भी ऊपर और सबसे ऊपर के लोग भी उनके साथ ऐसा ही चाहते हैं। इसलिए नानूसान तो सावधान हैं ही, मुझे भी सावधान हो जाना चाहिए और जंगल, पहाड़, गाँव, शहर सबको भी, ताकि कल को कुछ ऐसा-वैसा हो जाए तो सब झूठे आश्चर्य में पड़ कर दिखावे में मुँह बाए न रह जाएँ।