Tuesday 23 July 2013

हिंदुस्तान से एक खत : इंतिज़ार हुसैन


(अनुवाद - नन्द किशोर विक्रम)

अंजींज-अंज-जान (जान से प्यारे) सआदतो-ए-इकबाल के निशान (सौभाग्य व प्रताप के प्रतीक) बरंखुर्दार कामरान, तूल उम्र: (खुदा लम्बी आयु करे) बाद दुआ और तमन्ना-ए-दीदार के स्पष्ट हो कि यह जमाना तुम्हारी ंखैरियत न मालूम होने की वजह से बहुत बेचैनी में गुंजरा। मैंने विभिन्न माध्यमों से ंखैरियत भेजने और खैरियत मंगाने की कोशिश की मगर व्यर्थ। एक चिट्ठी लिखकर इब्राहीम के बेटे युसुफ को भेजी और आग्रह किया कि इसे तुरन्त कराची के पते पर भेजो और उधर से जो चिट्ठी आये मुझे वापसी डाक से रवाना करो। तुम्हें पता होगा कि वह कुवैत में है और अच्छी कमाई कर रहा है। बस इसी में वह अपनी औकात भूल गया और पलटकर लिखा ही नहीं कि चिट्ठी भेजी या नहीं और उधर से जवाब आया या नहीं आया। शेख सिद्दीकी हसन खान का बेटा लन्दन जा रहा था तो उसे भी मैंने एक ंखत लिखकर दिया था कि उसे कराची के लिए लिंफांफे में बन्द करके लन्दन के लैटर बॉक्स में डाल देना। उस हरामंखोर ने भी कुछ पता न दिया कि खत उसने भेजा या नहीं।
सबसे ज्यादा चिन्ता इमरान मियां की तरफ से रही कि वे वहां पहुँचे या नहीं पहुँचे। पहुँचे तो किसी तौर तो उन्हें अपनी खैरियत का खत भिजवाना था। हाल यह है कि समझ लो कि गुलाबी जाड़ा था। मैं अपना पलंग कमरे से दालान में ले आया था। रात गये दस्तक हुई। मैं परेशान हुआ कि इलाही खैर। इस बे-वक्त कौन आया है और क्यों आया है? जाकर दरवांजा खोला, दस्तक देने वाले को सिर से पैर तक देखा। हैरान-परेशान कि यह कौन आ गया है। खून ने खून को पहचाना वर्ना वहां अब पहचानने के लिए क्या रह गया था।तुम क्या हाल बनाकर आये हो? मगर फिर मैं अपने किये पर आप लज्जित हुआ। यह क्या कम था कि हमारी अमानत हमें वापस मिल गयी। बन्दे को चाहिए कि हर हाल में खुदा का शुक्र करे। शिकायत का शब्द जबान पर न लाये। ऐसा न हो कि वह शिकायत कलमा-ए-कुफ्र (वह बात जिससे धर्म का अनादर हो) बन जाए और कहने वाला पाप के दंड का अधिकारी बने। कमजोर बुनियाद के इनसान ने इस दुनिया में आने के बाद क्या कुछ किया है कि उसके साथ जो भी हो उस पर शिकायत की गुंजाइश नहीं। आदमी बस चुप रहे और खुदा के प्रकोप से डरता रहे।
तुम्हारी चची ने इमरान मियां को देखा तो हक-दक रह गयीं। गले लगाया और बहुत रोयीं। मैं तो चुप रहा था मगर वे पूछ बैठीं कि बहू कहां है? बच्चों को कहां छोड़ा? इस पर उस अंजींज की हालत खराब हो गयी। मैं और तुम्हारी चची दोनों घबरा गये। फिर सावधानी बरती कि ऐसा कोई प्रसंग बीच में न आये।
इमरान मियां यहां तीन दिन रहे मगर क्या रहे। न बोलना न हंसना। बस गुमसुम। तीसरे दिन इमरान मियां को खयाल आया कि मियां जानी की कब्र पर चला जाए। मैंने सिर पर हाथ फेरा और कहा बेटे तुम पच्चीस बरस बाद दादा की कब्र पर 'फातिहा' (मुर्दे की आत्मा को शान्ति पहुंचाने के लिए दुआ) पढ़ोगे। मगर दिन में इस तरह जाना ठीक नहीं। तुम इस मिट्टी में पैदा हुए हो, पहचाने जाओगे। इस पर वह अंजींज खिसियानी हंसी हंसा और बोला, चचा जान मैं घर आने से पहले बस्ती में घूम-फिर लिया हूं। इस मिट्टी ने मुझे नहीं पहचाना। मैंने कहा, बेटा अब इसी में खैरियत है कि यह मिट्टी तुम्हें न पहचाने। खैर, तो मैं शाम पड़े इमरान मियां को कब्रिस्तान ले गया। नई कब्रों से मैंने परिचित कराया। पुरानी कब्रों को उन्होंने खुद पहचान लिया। अंधेरा था इसलिए कुछ कब्रों को पहचानने में कुछ दिक्कत पेश आयी। मियां जानी की कब्र अब बहुत पुरानी हो चुकी है। सिरहाने खड़ा हुआ हरसिंगार का पेड़ गिर चुका है। तुम्हें याद होगा कि मियां जानी को हरसिंगार का बहुत शौक था। उन्होंने बाग में बहुत शौक से कई पेड़ लगाए थे और उनसे इतने फूल उतरते थे कि साल भर तक बच्चियों के दुपट्टे उनमें रंगे जाते थे और हर दावत पर बिरयानी में डाले जाते थे, फिर भी बच रहते थे। मगर हरसिंगार ध्यान चाहता है। मैं अकेला किस-किस चींज पर ध्यान दूं! हरसिंगार का यह आंखिरी पेड़ था जो मियां जानी के सिरहाने खड़ा रह गया था। जंग से पहले वाली बरसात में वह भी गिर गयी। अब हमारा बांग और हमारा कब्रिस्तान दोनों हरसिंगार से खाली हैं। रहे नाम अल्लाह का। बांग बचा रह गया यही बहुत है। कब्रिस्तान से मिला होने की वजह से कब्रिस्तान में शुमार हुआ और हाथ से जाते-जाते बच गया। मगर इन सत्ताईस बरसों में इतने पेड़ गिरे हैं और उनके साथ इतनी यादें दंफन हो गयी हैं कि अब इस बाग को भी कब्रिस्तान ही समझना चाहिए। जो पेड़ बाकी रह गये हैं वे गुजरे दिनों के कत्बे (शिलालेख) नंजर आते हैं। खैर, बांग का जो हाल है वह इमरान मियां देख गये हैं। अगर पहुंच गये होंगे तो बताया होगा। यहां से तो वह उसी सुबह को चले गये थे। रात भर मियां जानी की कब्र के सिरहाने बैठकर गुजार दी। मैं भी बैठा रहा। जब झुटपुटा हुआ और चिड़ियां बोलीं तो वह अंजींज झुरझुरी लेकर उठा और मुझसे रुंखसत चाही। मैंने हैरानी से पूछा, क्यों जा रहे हो? आ गये हो तो रहो। फीकेपन से बोला कि यहां तो मुझे कोई पहचानता ही नहीं। मैंने कहा कि अंजींज अब न पहचाने जाने ही में खैरियत है मगर वह मेरी बात से कायल न हुआ। संफर उस पर सवार था। मैंने पूछा, मगर बेटे जाओगे कहां? बोला जहां कदम ले जाएंगे। मैंने उसकी बातों से अन्दाज लगाया कि काठमांडू जाकर वहां से कराची जाने की सूरत निकालते की नीयत है। दिल तो बहुत दुखा मगर कुछ उसका आग्रह और कुछ मेरा यह डर कि कहीं यह खबर न निकल जाए। अत: मैंने सब्र किया। अपने बाजू से दुआ-ए-नूर खोलकर उसके बाजू पर बांधी और अल्लाह की हिंफांजत में उसे रुंखसत किया। चलते-चलते ताकीद की थी कि सीमा से निकलते ही जिस तरह भी हो खैरियत की सूचना देना। मगर वह दिन है और आज का दिन खैरियत की खबर न मिली।
उधर की खबर इधर कम पहुँचती है और पहुँचती भी है तो इस तरह की उस पर विश्वास करने को जी नहीं चाहता। एक रोज शेख़ सिद्दीकी हसन ने आकर सूचना सुनायी कि पाकिस्तान में सब सोशलिस्ट हो गये हैं। और प्याज पाँच रुपये सेर बिक रहा है। यह खबर सुनकर दिल बैठ गया। मगर, फिर मैंने सोचा कि शेख साहब पुराने काँग्रेसी हैं पाकिस्तान के बारे में जो खबर सुनाएंगे उस पर ऐतबार न करना चाहिए। चन्द दिनों बाद ही एक ऐसी ंखबर सुन ली जिससे बुरी अंफवाहों को खंडन हो गया। खबर सुनी कि मिर्जाइओं को गैर-मुस्लिम करार दिया गया है। शेख साहब को मैंने यह खबर सुनायी तो अपना-सा मुंह लेकर रह गये। अल्लाह तआला पाकिस्तान पर अपनी रहमत करे और इस कौम को उसकी नेकी का फल दे। हम तो कुफ्रिस्तान में हैं। गैर-इस्लामी रस्में और तौर-तरंके रखते हैं और बोल नहीं सकते। करीब ही गैर मुकल्लिदों (वे मुसलमान जो इस्लाम धर्म के चारों इमामों में से किसी के अनुयायी नहीं) ने अपनी मस्जिद बना ली है वहां वे ऊँची आवांज में 'आमीन' कहते हैं और हम चुप रहते है।
हा/, शेख सिद्दीकी हसन तुम्हारे बारे में एक मर्तबा खबर लाए। खबर सुनायी कि तुमने कोठी बनवायी है। बैठक में सोफे बिछे हुए हैं और टेलीविजन रखा है। यह सुनकर खुशी हुई। खुदा का शुक्र अदा किया कि यहां की क्षतिपूर्ति वहां हो गयी है। यहां हवेली का हाल अच्छा नहीं है। पिछली बरसात में झुकी हुई कड़ियां और झुक गयीं। दीवानंखाने का हाल यह है कि छत की तरफ देखो तो आसमान नंजर आता है। हमारी बेकारी और कंर्जे के बोझ का हाल तुम्हें अच्छी तरह मालूम है, तुम कुछ रकम भेज सको तो मियां जानी की कब्र की मरम्मत करा दी जाए और दीवानंखाने की छत पर मिट्टी डलवा दी जाए। इससे ज्यादा अभी करना भी नहीं चाहिए। हवेली के मुकद्दमे का अभी तक फैसला नहीं हुआ। किबला भाई साहब मरहूम 1947 में चलते वक्त मुकद्दमे के कांगंजात मेरे सुपुर्द कर गये थे। खुदा का शुक्र है कि उस वक्त से लेकर अब तक मैंने सब पेशियां कामयाबी से भुगतायी हैं और लायक वकीलों से परार्मश किया है। खुदा की जात से उम्मीद है कि मुकद्दमे का फैसला जल्दी होगा और हमारे हक में होगा। मगर मृत्यु-दूत का पता नहीं कि किस रोज सिर पर आ खड़ा हो। कभी-कभी बहुत चिन्तित होता हूं कि मेरे बाद यह मुकद्दमा कौन लड़ेगा।
जिस तरफ नंजर डालता हूं अंधेरा ही अंधेरा नंजर आता है। हमारे साहबंजादे के लच्छन ये हैं कि अपना नाम प्रेमी रख लिया है और रेडियो पर जाकर ड्रामों में काम करता है। छोटे भैया मरहूम की साहबंजादी ने हिन्दू से शादी कर ली है। अब वह खुले मुंह रहती है और साड़ी बांधती है और माथे पर बिन्दी लगाती है। पाकिस्तान में जो खानदान का नक्शा है वह तुम पर मुझसे ज्यादा रोशन होना चाहिए। सुना है कि आपा जानी की लड़की नर्गिस ने अपनी मर्जी से शादी की है और जिससे की है वह वहाबी है। खुद आपा जानी का हाल मैंने यह सुना है कि खुले मुंह बेटे की मोटर में बैठती हैं और बजाजों से बिना पर्दा बात करके कपड़ा खरीदती हैं।
यह सब कुछ देखने के लिए मैं ही जिन्दा रह गया हूं। किबला भाई साहब और छोटे भैया दोनो अच्छे दिनों में सिधार गये। जब में कब्रिस्तान जाता हूं और मियां जाती और छोटे भैया की ंकब्रों पर फातिहा पढ़ता हूं तो किबला भाई साहब बहुत याद आते हैं। क्या वंक्त आया है कि अब हममें से कोई जाकर उनकी कब्र पर फातिहा भी नहीं पढ़ सकता। जो खानदान एक जगह जिया, एक जगह मरा अब उसकी कब्र तीन कब्रिस्तानों में बंटी हुई हैं। मैंने किबला भाई साहब से बड़े अदब से अर्ज किया था कि अगर आप हमें छोड़ ही रहे हैं तो मुनासिब यह है कि आप कामरान मियां के पास कराची जाइए। मगर छोटे बेटे की मुहब्बत उन्हें ढाका ले गयी। उनकी बे-वंक्त मौत हम सबके लिए बहुत बड़ा सदमा थी। मगर अब मैं सोचता हूं कि उनके उठ जाने में भी अल्लाह तआला ने कुछ भलाई सोची होगी। वे नेक आत्मा थे। कुदरत को यह मंजूर न था कि वे भय और पीड़ा के दिन देखने के लिए जिन्दा रहें। यह दिन तो मुझ पापी को देखने थे।
अब जबकि बड़ों का साया सिर से उठ चुका है और हमारा खानदान हिन्दुस्तान और पाकिस्तान और बांग्लादेश में बंटकर बिखर चुका है और मैं कब्र के किनारे बैठा हूं, मैं सोचता हूं कि मेरे पास जो अमानत है उसे तुम तम पहुंचा दूं कि अब तुम ही इस खानदान के बड़े हो। मगर अब अमानत हाफिजे के माध्यम से ही स्थानान्तरित की जा सकती है। ंखानदान की यादगारें वंशावली समेत ढाका ले गये थे। जहा/ खानदान के सदस्य नष्ट हुए वहीं वे यादगारें भी नष्ट हो गयीं। इमरान मियां यहां बिलकुल खाली हाथ आये थे। सबसे बड़ी घटना यह हुई कि हमारी वंशावली गुम हो गयी। हमारे पूर्वज कि सादात अजाम में से थे। इतिहास ने बहुत से कष्ट और तकलींफें देखी हैं मगर वंशावली के गुम होने का दुख हमें सहना था। अब हम मुसीबत का मारा खानदान हैं जो अपनी वंशावली गुम कर चुका है और अस्त-व्यस्तता का शिकार है। कोई हिन्दुस्तान में खेत हुआ, कोई बांग्लादेश में गुम हुआ और कोई पाकिस्तान में मारा-मारा फिरता है। आस्था में खलल पड़ चुका है। गैर इस्लामी तौर-तरींके अपना लिये हैं, दूसरे धर्म और सम्प्रदायों में शादियाँ कर रहे हैं। यही हाल रहा तो थोड़ी मुद्दत में हमारे खानदान की असल नस्ल बिलकुल ही नष्ट हो जाएगी और कोई यह बताने वाला भी नहीं रहेगा कि हम कौन हैं और क्या हैं।
बेटे सुन कि हम मां-बाप दोनों की तरफ से सैयद हैं। हजरत इमाम रजी कांजिम से हमारी वंशावली मिलती है। मगर खुदा का शुक्र है कि हम राफिंजी (हंजरत अली के वे अनुयायी जिन्होंने जमल की लड़ाई में उनका साथ छोड़ दिया) सही आस्था रखने वाले हनफी मुसलमान (वे सुन्नी मुसलमान जो इमाम अबूहनीफा के अनुयायी हैं। सच्चे मुसलमान) हैं। अहले-बेत (हंजरत मुहम्मद के परिवार के सदस्य) से मुहब्बत रखते हैं। मियां जानी का तरीका चला आता था कि आशूर (मुहर्रम की दस तारीख, हंजरत इमाम हुसैन की शहादत का दिन) के दिन रोजा रखते और दिन भर मुसल्ले (नमाज पढ़ने की चटाई या दरी) पर बैठे रहते। हमारे घर में एक तसबीह थी कि आशूर के दिन शाम की नमाज के समय सुर्ख हो जाएा करती थी। मियां जानी बताते थे कि ये खास उस मिट्टी के दाने हैं जहां हमारे वंश प्रवर्तक सैय्यद हंजरत इमाम हुसैन घोड़े से फर्श-ए-जमीन पर आये थे। इस तसबीह के सुर्ख होने के साथ वालिद मर्हूम की तन्मयता बढ़ जाएा करती थी। मियां जानी बताते थे मगर छाती पीटने और रुदन से परहेज करते थे कि यह अनुचित रस्म है। हां खिचड़े की देगें पकती थीं जो गरीबों और दीन दुखियों में बांटी जाती थीं। बंटवारे के बाद बस एक देग रह गयी थी। पिछले बरस हम उस एक देग से भी गये। कबूली का देगचा पकवाया और गरीबों में बांट दिया, अगले बरस का हाल अल्लाह मियां को मालूम है। महंगाई बढ़ती जा रही है और हमारा हाल खस्ता होता जा रहा है। बेटे हमें यह तो मालूम है कि पाकिस्तान में प्याज किस भाव बिक रही है। मगर एक बात सुन लो कीमतें चढ़कर गिरा नहीं करतीं और अंख्लाक गिरकर संभला नहीं करते अत: पनाह मांगो उस वक्त से जब चींजों की कीमतें चढ़ने लगें और अख्लाक गिरने लगें। जब ऐसा वक्त आ जाए तो बन्दों को चाहिए पापों की क्षमा मांगें और तौबा करें और कलाम-ए-पाक की तलावत (पठन) करें कि आद और समूह की बस्तियों के जिक्र में समझ-बूझ रखनेवालों के लिए बहुत-सी निशानियां हैं।
खैर, मैं जिक्र अपने खानदान का कर रहा था जिसे मैंने इकट्ठा भी देखा मगर बिखरते हुए ज्यादा देखा। हम तीनों भाइयों को अपने हुजूर में बिठाकर मियां जानी ने बयान किया कि खुदा उनकी कब्र को हरसिंगार की सुगन्ध से सजाए रखे। वे फर्माते थे कि मेरे वालिद बुजुर्गवार सैयद हातिम अली ने उस वक्त, जब उनका यात्रा-समय करीब आया, फर्माया जनाब ने, कि मुझसे बयान किया मेरे बाप सैयद रुस्तम अली ने उस तजकरे के प्रसंग से कि जिसमें हमारे खानदानी हालात दर्ज हैं और जो नष्ट हो गया है। उस समय जब उन्होंने सन सत्तावन में बाईस ख्वाजा की चौखट को छोड़ा और बरस-बरस परेशान हाल जगह-जगह फिरे। और प्रसंग से उन बुंजुर्गों के बयान करता हूं मैं तुमसे कि हम असल में अस्फिहान कि मिट्टी हैं। जब शहंशाह हुमायूं ने अपने राज्य की प्राप्ति के लिए इस शहर में अपनी फौज तैयार की तो हमारे मूल पुरुष मीर मंसूर मुहद्दिस जो खजूर विक्रेता थे और हदीस (हंजरत मुहम्मद साहब के कथन) की विद्या के असीम सागर थे। अस्फिहान निस्फ जहान से उस वंक्त जनाब के हमरकाब (साथ) हुए और जुलमत कदा (अंधेरा मकान) हिन्द में दांखिल हुए, ईमान के प्रकाश-स्तम्भ बने। अकबरबाद में उनका मजार आज भी सबके आकर्षण का केन्द्र है। ंकब्र कच्ची है। कंवारियां मिट्टी उठाकर मांग में डालती हैं और वह मांग का सिन्दूर बन जाती है। खाली गोद ब्याहियां मिट्टी आंचल में बांधकर ले जाती हैं और बरस बाद हरी गोद के साथ वापस आती हैं और चादर चढ़ाती हैं। शाहजहां के वक्त में इस बुजुर्ग की औलाद ने यात्रा का सामान बांधा और जहानाबाद पहुंची फिर सन सत्तावन की हलचल में वहां से निकली, हमारे दादा मीर रुस्तम अली ने अपनी दौलत में से दमड़ी साथ न ली बस वंशावली को पटके के साथ कमर पर मजबूत बांधा, कागजों और दस्तावेंजों का पुलिन्दा बगल में दबाया और निकल खड़े हुए। इसी पुलन्दे में खानदान का तजकरा भी था। राह में बटमारों से मुकाबला हुआ, इस अफरातफरी में पुलन्दा बिखर गया कुछ कागज गिर गये। कुछ रह गये। गिर जाने वाले कांगंजों में तजकरा भी थी। मगर शुक्र, सौ-सौ शुक्र वंशावली का हर्फ भी मैला न हुआ।
बहुत खाक छानने के बाद इस बस्ती से कि जहां तुम्हारा चचा खाकनशीन है, गुजर हुआ। यहां की ंजमीन को मेहरबान पाकर डेरा किया। जानना चाहिए कि जब जमीन मेहरबान होती है तो महबूबा की गोद की तरह नरम और मां की गोद की तरह खुली हो जाती है। जब ना-मेहरबान होती है तो अत्याचारी पदाधिकारी की भांति सख्त औरर् ईष्यालु के दिल की तरह तंग हो जाती है। सच यह है कि इस जमीन ने एक मुद्दत तक हम पर दया की। उसने हमारे बढ़ते-फैलते ंखानदान को बरस-बरस तक इस प्रकार अपनी गोद में समेटे रखा जैसे मां अपने बच्चे की सीने से लगाए रखती है और किसी को आंखों से ओझल नहीं होने देती। बंटवारे से पहले इस खानदान के सिर्फ तीन व्यक्ति बाहर निकले थे। भाई अशरफ अली, भैया फारुक और प्यारे भाई अशरफ अली हमारे चच्चा जानी के बेटे थे और उम्र में किबला भाई साहब से एक साल बड़े थे। इस ऐतबार से तुम्हारे ताया हुए। खुदा की मेहरबानी से डिप्टी कलक्टर थे और बाहर के जिलों में नियुक्त रहते थे मगर डाली यहीं पहुँचती थी। भैया फारुक उनके छोटे भाई थे और मेरे हम-उम्र थे। जंगलात के विभाग में थे। उम्र सी.पी. में गुजरी। हमारी हवेली में लकड़ी का जितना सामान है वह उन्हीं का बनवाया हुआ था। दोनों भाई परिवार का गर्व थे। उम्र बाहर गुंजारी मगर अन्त में आराम अपनी मिट्टी में आकर किया।
प्यारे मियां फूफी अम्मा के लाड़ले बेटे थे। लाड़-प्यार में ऐसे बिगड़े कि सातों ऐब करने लगे। हमारे ंखानदान में वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बाईस्कोप देखा। एक बार मैं भी उनके कहे में आकर बहक गया। माधुरी को देखकर दिल बेकाबू हो गया मगर मैंने अपने आप को सभांला और फिर उस तरफ का रुख न किया। प्यारे मियां पहले नाटक के मतवाले थे, बाईस्कोप शहर में आया तो उसके रसिया बन गये।
'बम्बई की बिल्ली' देखकर सुलोचना पर मर मिटे। एक रोज फूफी अम्मा की सीने की बालियां चुराकर घर से निकल गये और सीधे बम्बई पहुँचे। मियां जानी ने कहला भेजा साहबजादे अब इधर का रुख न करना। बम्बई में एक नटनी ने उन्हें झांसा दिया कि तुम्हें सुलोचना से मिलाऊंगी। सुलोचना से तो न मिलाया खुद गले पड़ गयी। सारी जवानी बम्बई में गुजारी। फूफी अम्मा के मरने की खबर पहुंची तो आये। बुढ़ापा आ चुका था। लम्बी सफेद दाढ़ी, हाथ में तसबीह। मां को बहुत रोये। हम सबने कहा अब तुम यहीं रहो। बोले कि मियां जानी की इजांजत के बंगैर यहां कैसे टिक सकता हूं। मियां जानी पहले ही सिधार चुके थे। इजाजत कौन देता। फिर बम्बई चले गये। 1947 ई. लग चुका था और गाड़ियों में हादसे हो रहे थे, सबने समझाया, न माने। गाड़ी में सवार हो गये मगर बम्बई तो पहुँचे नहीं। जाने रास्ते में उन पर क्या गुंजरी।
प्यारे मियां हमारे खानदान की तरफ से 47 के दंगों में पहली भेंट थे। मैंने आंकडे ऌकट्ठे किये हैं तब से अब तक हमारे खानदान के इकत्तीस व्यक्ति अल्लाह को प्यारे हुए। इक्कीस कत्ल हुए, नौ कुदरती मौत मरे, सात को हिन्दुओ ने शहीद कर डाला। चौदह पाकिस्तान जाकर मुसलमान भाइयों के हाथों अल्लाह के प्यारे हुए। इन चौदह में से एक को कराची में अय्यूब खान के आदमियों ने इलैक्शन के अवसर पर मोहतरमा फातिमा जनाह की हिमायत करने के कारण गोली मार दी। बाकी दस व्यक्ति पूर्वी पाकिस्तान में हलाक हुए। इन व्यक्तियों में मैंने इमरान मियां का शुमार नहीं किया है। बन्दे को अल्लाह की रहमत से मायूस नहीं होना चाहिए। मेरा दिल कहता है कि वह हमारे जिगर का टुकड़ा अगर अभी तक कराची नहीं पहुंचा है तो काठमांडू में है। काठमांडू से याद आया कि भैया फारुक का लड़का शरांफत भी यहां से गुजरा था। वह ढाका से बच निकला था और काठमांडू जा रहा था कि यहां रुक गया। वह बना-बनाया प्यारे मियां है। इस दुर्घटना ने उस पर जरा भी असर किया हो। जितने दिन यहां रहा है, बे-धड़क बाईस्कोप देखता रहा। चलने के लिए तैयार हुआ तो काठमांडू की बजाय बम्बई के लिए बिस्तर बांधा। मैंने बम्बई जाने का कारण पूछा तो कहा कि वहां राजेश खन्ना से मिलूंगा। मैंने कहा कि अबे बेईमान राजेश खन्ना कौन-सा इबिलमोरिया डी बिलमोरिया है जो उससे मिलने के लिए व्याकुल है मगर उसने मेरी एक कान सुनी और दूसरे कान उड़ायी और बम्बई रवाना हो गया। बाद में उसका लंका से खरियत का ंखत आया। पता नहीं कि किन रास्तों पर भटकर वह वहां पहुंचा।
शरांफत को जिन्दा देखकर खुदा का शुक्र अदा किया मगर उसके लच्छन देखकर दिल खुश नहीं हुआ। वैसे मैंने जो कुछ सुना है उससे यह प्रकट होता है कि पाकिस्तान जाकर हमारे खानदान की लड़कियां ज्यादा आंजाद हो गयी हैं। मैं तो जिस लड़की के बारे में सुनता हूं यही कि उसने अपनी मर्जी से शादी कर ली है। हमारे खानदान में तकसीम से पहले एक घटना ऐसी हुई थी जो खानदान को बदनाम कर सकती थी मगर उसे भी बड़े अच्छे ढंग से दबा लिया गया। छोटी फूफी की छत पर एक रोज कनकव्वा आके गिरा। तुम जानो कि जिस घर में लड़की जवान हो रही हो उस घर की अंगनाई में रोड़े का गिरना और छत पर कनकव्वे का झुकाव खाना अच्छा लक्षण नहीं हैं। उन दिनों छोटी फूफी की बड़ी लड़की खदीजा कद निकाल रही थी। फूफी ने इस घटना का जिक्र मियां जानी से आकर किया। कनकव्वे के साथ जो पत्र छत पर आकर गिरा था, वह भी सामने रख दिया। मियां जानी आग-बबूला हो गये। बहुत गरजे-बरसे कि रंजा अली के बेटे की यह मजाल कि हमारी छत पर कनकव्वा गिरता है। मगर जब छोटी फूफी ने ऊंच-नीच समझाई तो नीचे पड़े। अब इसके सिवा चारा ही क्या था कि उस दुराचारी के साथ दो बोल पढ़ाए जाएं और लड़की को रुखसत कर दिया जाए। रंजा अली तो सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि इस घर की बेटी उनकी बहू बनेगी। तुरन्त निकाह पर राजी हो गये मगर ऐन वक्त पर सवाल उठाया कि सीगा (शिया समुदाय के पाणिग्रहण स्वीकार करने का तरीका) पढ़ाया जाएगा। मियां जानी खून का-सा घूँट पीकर रह गये, मगर क्या करते हां कर दी। मगर उसका नतीजा क्या हुआ। यही कि खदीजा की औलाद आधी तीतर आधी बटेर है। एक ग्यारहवीं शरीफ की नियांज (चढ़ावा) चढ़ाता है तो दूसरा मुहर्रम में अजादारी (सोग) करता है। मगर खैर अब तो हमारा पूरा खानदान ही आधा तीतर आधा बटेर है। और हम सब अजादार हैं कि वंशावली हमारी खो गयी है। और असल नस्ल का अता-पता नष्ट हुआ। खानदानों में यह खानदान कैसे पहचाना जाएगा? अब यह खानदान काहे को है दरख्त से झड़े हुए पत्ते हैं कि हवा में उड़ते फिरते हैं और खाक में रुलते-मिलते हैं।
अंजींज! अब मैं उड़ते पत्तों का सोगवार हूं। उन दिनों को, जब यह खानदान फल और पत्तों से लदा-फंदा दरख्त था, याद करता हूं और आवारा पत्तों को शुमार करता हूं। मैंने मरने वालों के आंकड़े जमा नहीं किये हैं, जिनकी जिन्दों में गिनती है उनको ही शुमार करता हूं। सबके नाम, पते और हालात लिखे हैं। गवेषणा की है कि खानदान के सदस्यों में से कौन किस मुल्क में आवारा है और किस नगर में रह रहा है। यह शिक्षा भरा चिट्ठा मैं तुम्हें भिजवा दूंगा। अपना क्या ऐतबार कि प्रभात काल का दिया हैं। दिया बुझा चाहता है और आंख बन्द हुआ चाहती हैं। तुम इस बदकिस्मत खानदान के नए सुपुत्र हो। अंधेरे में भटकते हुओं को अगर तुम उजाले में लाने की कोशिश करो तो यह तुम्हारी आज्ञाकारिता होगी। वैसे तो निरीक्षण में यही आया है कि तिनके बिखर गये सो बिखर गये। तितर-बितर खानदान कभी सिमटते नहीं देखे गये मगर कोशिश करना इनसान का फर्ज है। इस दीन-हीन खानदान के संरक्षक बनो। आवारों की खैर-खबर लो। अब तो रास्ते खुलने लगे हैं। इधर का भी एक फेरा लगा जाओ। अपनी सूरत दिखा जाओ, हमारी सूरत देख जाओ। तुम्हारी चची का तगादा है कि दुल्हन को साथ लेकर आओ। हां मियां, अकेले मत चले आना, इस बहाने तुम्हारे बच्चों को भी देख लेंगे कि किसकी क्या शक्ल-सूरत है। कौन गोरा है, कौन काला है। एक बात और पाकिस्तान जाकर इस खानदान में जो वृद्धि हुई है, उसका विवरण मैंने नामों की हद तक लिखा है शक्ल-सूरत का विवरण दर्ज नहीं किया जा सकता।
यह खाना तुम खुद भर लेना। इस ढाई पौने तीन साल के समय में जो खानदान में कमी या वृध्दि हुई उसका दर्ज होना भी जरूरी है। तुम ऐसा करो कि इस मुद्दत में उधर जो गुंजर गये और जो नए पैदा हुए उनका विवरण मालूम करके मुझे लिखो। मैं अलग-अलग कहां खत लिखूं। डाक खुली तो है मगर इतनी महंगी कि अब तुच्छ-सा पोस्ट कार्ड लिखते हुए भी यह लगता है कि तार भेज रहे हैं। यह क्या सुन रहा हूं कि खदीजा की छोटी बेटी ने पति से तलाक ले लिया है? और परिवार नियोजन के दफ्तर में भर्ती हो गयी है। खुद तो काम से गयी दूसरों के पतित्व के वजीफे में खंडत डालती फिरती है। हां मियां वंशावली तो खो गयी अब यह खानदान जो भी करे थोड़ा है। मगर सुनता हूं कि दूसरे खानदान वाले इससे भी बढ़कर कर रहे हैं। कोई बता रहा था कि इब्राहीम ने आटे में चूरी और चरी पीस-पीस कर एक और मिल बना ली है और मियां फैजुद्दीन ने जो यहां फटेहालों फिरते थे काले पैसे से कोठियां खड़ी कर ली हैं। मैं पूछता हूं कि क्या पाकिस्तान में सब ही खानदानों की वंशावलियां खो गयी हैं? हैरत की बात है कि हमने हिन्दुस्तान में शताब्दियां बसर कीं। ऐश का जमाना भी गुजारा, उधार के दिन भी देखे। उसकी शान के कुर्बान, हुकूमतें भी कीं। पराधीन भी रहे मगर वंशावली हर हाल में बड़ी सावधानी से रखी। उधर लोगों ने चौथाई शताब्दी में अपनी वंशावलियां गुम कर दीं। खैर, खुश रहो!
क्या-क्या लिखूं? लिखने को बहुत है। मगर तुम इस लिखे को बहुत जानो। अपनी खैरियत भेजो। आने की सूचना दो। खत खत्म करता हूं कि अब नमांज का वंक्त हो रहा है और उसके बाद मुकद्दमे के कांगंज तर्तीब देने हैं। कल फिर पेशी है। यह चार सौ सत्ताईसवीं पेशी है। इंशाअल्लाह यह भी खुश असलूबी से भुगतायी जाएगी, शायद मैं इन्हीं पेशियों के लिए जिन्दा हूं। वर्ना अब तुम्हारे बूढ़े चच्चा में कुछ बाकी नहीं रह गया है। यहां तक कि जीने की इच्छा भी बाकी नहीं रही। दुनिया में आकर बहुत कुछ देखा। जो न देखना था वह भी देखा। अब तो जल्दी आँख बन्द हो कि वह देखें जो देखने की एक मुद्दत से इच्छा है।
तुम्हारा बहुत दूर का निवासी गुमनाम कुर्बान अली, मोरखा 28 रमज़ान-उल-मुबारक 1394 हिज्री, मुताबिक 15 अक्टूबर 1947 ई.।



अनबूझ अनुवाद


स्वतंत्र मिश्र

हिंदी अनुवाद का काम आजकल बड़े पैमाने पर हो रहा है, लेकिन इसका स्तर अक्सर बेहद खराब होता है. ‘प्रकाशक प्रति शब्द 10 या 15 पैसे देता है. इसके बाद आप उम्मीद करें कि बढ़िया अनुवाद हो जाए. क्या यह संभव है? 'विश्व क्लासिकल साहित्य शृंखला (राजकमल प्रकाशन) के संपादक सत्यम के ये शब्द उस बीमारी की एक वजह बताते हैं जिसकी जकड़ में हिंदी अनुवाद की दुनिया आजकल है. अनुवाद यानी वह कला जिसकी उंगली पकड़कर एक भाषा की अभिव्यक्तियां दूसरी भाषा के संसार में जाती हैं और अपने पाठकों का दायरा फैलाती हैं. लेकिन इस कला की सेहत आजकल ठीक नहीं. जानकारों के मुताबिक हिंदी में होने वाले अनुवाद का स्तर बहुत खराब है. इसके चलते दूसरी भाषा की अच्छी रचनाओं को हिंदी में पढ़ने का आनंद काफी हद तक जाता रहता है. जैसा कि कवि और पत्रकार पंकज चौधरी कहते हैं, ‘बहुत सारी अंग्रेजी भाषाओं के  प्रसिद्ध लेखकों की कृतियों को पढ़ने का मन होता है. लेकिन कई बार अंग्रेजी से  अनूदित होकर हिंदी में आई किसी किताब को पढ़कर लगता है कि इससे अच्छा तो मूल किताब ही पढ़ ली जाती.’
अपने काम को लेकर ज्यादातर अनुवादकों के अनुभव अच्छे नहीं होते. कहानीकार और दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर प्रभात रंजन कहते हैं, ‘पेंगुइन जैसा बड़ा प्रकाशक डिमाई आकार के एक पन्ने (औसतन 300-350 शब्द) के लिए 80 रुपये देता है. राजकमल और वाणी प्रकाशन का रेट थोड़ा ठीक है. वे प्रति शब्द 40 पैसे देते हैं.’ पेंगुइन प्रकाशन में हिंदी संपादक की जिम्मेदारी संभाल चुके सत्यानंद निरुपम भी कहते हैं, ‘प्रकाशक प्रति शब्द 22 पैसे मेहनताना देते हैं जबकि गैरसरकारी संगठन (एनजीओ) एक रुपया प्रति शब्द या इससे ज्यादा भी दे देते हैं. जबकि साहित्य की सामग्री का अनुवाद एनजीओ की सामग्री की तुलना में कहीं ज्यादा कठिन होता है.’ पेंगुइन प्रकाशन में हिंदी संपादक रियाज उल हक का कहना है, ‘अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद की दर अब 100-135 रुपये प्रति पृष्ठ कर दी गई है.’ लेकिन कुछ अनुवादकों का मानना है कि यह दर भी बहुत राहत देने वाली नहीं है.
लेकिन अनुवाद की बदहाली का कारण सिर्फ कम मेहनताना नहीं है. विशेषज्ञता की कमी भी इसके लिए जिम्मेदार है. सत्यम कहते हैं, ‘यूरोप में विशेषज्ञ अनुवादकों की लंबी परंपरा रही है. मसलन चेखव का अनुवाद करने वाले उनके साहित्य के शोधार्थी रहे हैं. उन पर लगातार लिखने या उन्हें जानने वालों को ही यह जिम्मा मिलता रहा है. वहां प्रकाशक अनुवादकों को काम सौंपते समय बहुत सतर्क रहते हैं. लेकिन भारत में आपको ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जिनमें अनुवादकों को अनुवाद के विषय की कोई जानकारी नहीं होती है. यही वजह है कि स्थिति 'हंसिया के ब्याह में खुरपी का गीत' जैसी हो जाती है.’
प्रकाशकों द्वारा अनुवादकों का नाम नहीं दिया जाना भी एक बड़ा कारण है. ‘गीतांजलि के हिंदी अनुवाद’  पुस्तक के लेखक देवेंद्र कुमार देवेश कहते हैं‘प्रकाशक अनुवादकों का नाम किताब में शामिल नहीं करना चाहते.’ इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं, ‘दरअसल वे अनुवाद के काम को दोयम दर्जे का मानते हैं. खास तौर पर बांग्ला से हिंदी में अनूदित किताबों में नाम देने की परंपरा रही ही नहीं है. नाम दिए जाने से अनुवादकों की जिम्मेदारी तय होती है और जाहिर- सी बात है कि वे काम को गंभीरता से लेते हैं.’ कमोबेश यही आलम अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद में भी है. एक अनुवादक और लेखक नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद के काम को चलन में लाने वाला प्रभात प्रकाशन आम तौर पर अपने अनुवादकों का नाम किताब में शामिल नहीं करता.
अनुवादकों की जिम्मेदारी के बारे में अनुवादक विमल मिश्र कहते हैं, ‘मूल रचनाकार अपनी रौ में लिखता जाता है, उस पर कोई बंदिश नहीं होती. लेकिन अनुवादक को रेलगाड़ी की तरह पटरी पर चलना पड़ता है.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘जैसे इंिजन के ड्राइवर की जिम्मेदारी होती है मुसाफिरों को उनके गंतव्य तक सुरक्षित पहुंचाने की, ठीक वैसी ही जिम्मेदारी अनुवादक की होती है मूल रचना के भाव को अनूदित रचना में समेकित करने की. अनुवादक को जवाब देना पड़ता है – प्रकाशक को, पाठकों को और मूल पुस्तक के रचनाकार को भी.’ हालांकि जब हम मुद्दे के दूसरे पहलू यानी प्रकाशकों को टटोलते हैं तो समस्या की एक और भी वजह सामने आती दिखती है. वाणी प्रकाशन के मालिक अरुण माहेश्वरी कहते हैं‘काम और पैसे देने वालों की कोई कमी नहीं है. हमने सआदत हसन मंटो की कहानी उर्दू से हिंदी में करवाई. अनुवादक महोदय ने चवन्नी नामक पात्र को चन्नी कर दिया. इसमें पैसे का मामला कहां है? हम मेहनताना तय करना अनुवादकों पर छोड़ देते हैं. हकीकत तो यह है कि अनुवाद की किताबें हमारे लिए मुनाफा देने वाली नहीं होती हैं. ‘ऐसा पूछने पर कि इसकी वजह क्या है, माहेश्वरी कहते हैं, ‘अनुवाद की किताब तैयार करने में अनुवादक, प्रूफ रीडर और संपादक को अलग-अलग पैसा देना होता है.’ अनुवादकों को मुंहमांगी कीमत देने के नाम पर माहेश्वरी महात्मा गांधी के पौत्र और पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी का नाम गिनाते हैं. गांधी ने वाणी प्रकाशन के लिए विक्रम सेठ की किताब ‘ए सुटेबल ब्वॉय’ का अनुवाद किया है.
‘मूल रचनाकार पर कोई बंदिश नहीं होती. लेकिन अनुवादक को रेलगाड़ी की तरह पटरी पर चलना पड़ता है’
लेकिन जानकारों के मुताबिक ऐसे उदाहरण इक्का-दुक्का हैं और ज्यादातर अनुवादक गोपाल कृष्ण गांधी की तरह अपना मेहनताना खुद तय करने जैसी स्थिति में नहीं होते. और रही बात कम मुनाफे की तो अगर ऐसा होता तो इस समय बाजार में अनूदित सामग्री की जो बाढ़ आई हुई है वह नहीं दिखती. इस बाढ़ का बड़ा हिस्सा अंग्रेजी के प्रकाशकों पेंगुइन और हार्पर कॉलिन्स से आता है. सत्यम कहते हैं, ‘ज्यादातर मामलों में अनुवाद मशहूर किताबों का ही होता है. अंग्रेजी के बड़े लेखकों की किताब का हिंदी में अनुवाद कराया जाता है, इसलिए लाइब्रेरी से खरीद बड़े पैमाने पर हो जाती है. इन किताबों के अनुवाद के कई संस्करण प्रकाशित होते हैं और इनसे प्रकाशक लंबे समय तक मुनाफा कमाते हैं.’वैसे वजहों पर भले ही सहमति न हो, लेकिन इस पर सब सहमत हैं कि अनुवाद के स्तर में गिरावट आई है. अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद के मामले में ऐसे भी कई उदाहरण मिल जाते हैं जहां दो शब्दों से लेकर तीन-तीन पैराग्राफ या कई पन्ने छोड़ दिए जाते हैं. अंग्रेजी के कई मुहावरे जिनका हिंदी में अनुवाद हो सकता है और जो पाठकों की दिलचस्पी बढ़ाने में मददगार हो सकते हैं, उन्हें अनुवादक हिंदी पाठकों के स्तर का हवाला देकर छोड़ देते हैं. इसे समझने के लिए यहां यथार्थवाद के प्रवर्तक और प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखक स्तांधाल के सबसे चर्चित उपन्यास ‘सुर्ख और स्याह’ का सहारा लिया जा सकता है. इस उपन्यास में विभिन्न अध्यायों की शुरुआत में कोई पद्यांश या सूक्ति या फिर कथन दिया गया है जिसके साथ किसी विख्यात हस्ती का नाम है. ये उपन्यास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. मगर हिंदी में पहली बार प्रकाशित अनुवाद से ये नदारद थे.
अनुवाद में लापरवाही का यह सिलसिला अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद तक ही सीमित नहीं है. बांग्ला के कई क्लासिक उपन्यासों के अनूदित संस्करण दशकों से हिंदी पाठकों के बीच बहुत लोकप्रिय रहे हैं. लेकिन इनमें भी बड़ी भूलें मौजूद हैं. 20वें पुस्तक मेले में शरतचंद्र और रवींद्रनाथ ठाकुर के उपन्यासों के नए हिंदी अनुवाद का विमोचन किया गया. इन किताबों का नए सिरे से अनुवाद कराने की जरूरत पर राजकमल प्रकाशन के मालिक अशोक माहेश्वरी का कहना था, ‘ये किताबें अब रॉयल्टी से बाहर हो चुकी हैं. मगर इन किताबों के जो हिंदी संस्करण बाजार में बिक रहे हैं वे आधे-अधूरे हैं. उनके अनुवाद बहुत खराब हैं. पन्ने के पन्ने गायब हैं. बांग्ला में कुछ कहा गया है और हिंदी अनुवाद में कुछ और.’ राजकमल से प्रकाशित ‘पथ का दावा’ के अनुवादक विमल मिश्र किताब की भूमिका में लिखते हैं, ‘शरत बाबू के उपन्यास ‘पथेर दाबी’ का हिंदी अनुवाद ‘पथ का दावा’ होगा न कि ‘पथ के दावेदार’. दरअसल इस उपन्यास के कथानक का मूल आधार ‘पथ का दावा’ नाम की समिति है. हिंदी के ‘दावेदार’ शब्द के लिए बांग्ला में ‘दाबिदार’ शब्द है.'
खराब अनुवाद की एक बड़ी वजह अनुवादकों में नजरिये का अभाव होना भी है. किसी समाज में किसी शब्द का क्या मतलब है, इसे समझे बगैर अनुवाद कर देने से अर्थ का अनर्थ होना तय है. दिल्ली विश्वविद्यालय में एमए अंग्रेजी में ‘कंपरेटिव लिटरेचर’ के तहत मुंशी प्रेमचंद का प्रसिद्ध उपन्यास ‘गोदान’ का अंग्रेजी अनुवाद पढ़ाया जा रहा है.  गोदान शीर्षक की व्याख्या करते हुए अनुवादक ने इसे ‘अ गिफ्ट ऑफ काऊ’ लिखा है जबकि इसका ठीक अनुवाद ‘ऑफरिंग ऑफ अ काऊ’ होगा. किसी प्रियजन के मरने के बाद ब्राह्मण आत्मा को मुक्त करने के नाम पर यजमान पर दान-दक्षिणा के लिए दबाव बनाता है. इसे यजमान की इच्छा पर नहीं छोड़ता. ‘गोदान’ का पूरा कथानक ही वर्णवादी व्यवस्था की इस कुरीति के खिलाफ है. वरिष्ठ पत्रकार राजेश वर्मा कहते हैं, ‘अनुवाद हमेशा भाव का होता है. शब्द का अनुवाद करने की कोशिश करेंगे तो हमेशा गड़बड़ियां पैदा होंगी.’
एक और अहम बात यह है कि तीन-चार दशक पहले तक कई नामी-गिरामी साहित्यकार व्यापक स्तर पर अनुवाद किया करते थे. उनका काम बाकी लोगों के लिए मिसाल होता था. अशोक माहेश्वरी अनुवादकों की फेहरिस्त सामने रखते हुए मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, निर्मल वर्मा और द्रोणवीर कोहली जैसे नामवर साहित्यकारों का भी नाम लेना नहीं भूलते.

ऐसे में सवाल उठता है कि क्यों आज नामचीन साहित्यकार अनुवाद की कला से दूर होने लगे हैं. इसके जवाब में अशोक माहेश्वरी कहते हैं, ‘आज साहित्यकारों के लिए अनुवाद रोजी-रोटी का विकल्प नहीं रह गया है. विश्वविद्यालय में पढ़ाने से लेकर फिल्म और टेलीविजन की दुनिया में पटकथा लेखन तक उनके लिए कई दरवाजे खुल गए हैं.’ दरअसल अनुवाद एक भाषा की सामग्री को दूसरी भाषा में बदल देने की कला भर नहीं है. इसके जरिए एक भाषा में कही गई बात, उसमें छिपे या प्रकट भावों को बहुत ही संजीदगी से दूसरी भाषा में अनूदित करना होता है. निरुपम कहते हैं, ‘अनुवाद के जरिए आप एक संस्कृति का भी अनुवाद कर रहे होते हैं. इसे समझे बगैर अच्छा अनुवाद नहीं किया जा सकता. अगर यह काम ठीक से नहीं होगा तो भाषा की समृद्धि का सवाल  पीछे छूटेगा ही, साथ ही अनूदित किताबों के बाजार की संभावनाएं भी कमजोर होंगी.’ (tehelkahindi.com से साभार)

नाखून क्यों बढ़ते हैं? : हजारी प्रसाद द्विवेदी


बच्चे कभी-कभी चक्कर में डाल देने वाले प्रश्न कर बैठते हैं। अल्पज्ञ पिता बड़ा दयनीय जीव होता है। मेरी लड़की ने उस दिन पूछ लिया कि नाखून क्यों बढते हैं, तो मैं कुछ सोच ही नहीं सका। हर तीसरे दिन नाखून बढ़ जाते हैं, बच्चे कुछ दिन तक अगर उन्हें बढ़ने दें, तो माँ-बाप अकसर उन्हें डाँटा करते हैं। पर कोई नहीं जनता कि ये अभागे नाखून क्यों इस प्रकार बढ़ा करते हैं। काट दीजिए, वे चुपचाप दंड स्वीकार कर लेंगे; पर निर्लज्ज अपराधी की भाँति फिर छूटते ही सेंध पर हाजिर। आखिर ये इतने बेहया क्यों हैं?

कुछ लाख वर्षों की बात है, जब मनुष्य जंगली था; बनमानुष जैसा। उसे नाखून की जरूरत थी। उसकी जीवन रक्षा के लिए नाखून बहुत जरूरी थे। असल में वही उसके अस्त्र थे। दाँत भी थे, पर नाखून के बाद ही उसका स्थान था। उन दिनों उसे जूझना पड़ता था, प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ना पड़ता था, नाखून उसके लिए आवश्यक अंग था। फिर वह अपने अंग से बाहर की वस्तुओं का सहारा लेने लगा। पत्थर के ढेले और पेड़ की डालें काम में लाने लगा (रामचन्द्रजी की वानरी सेना के पास ऐसे ही अस्त्र थे)। उसने हड्डियों के भी हथियार बनाये। इन हड्डी के हथियारों में सबसे मजबूत और सब से ऐतिहासिक था देवताओं के राजा का वज्र, जो दधीचि मुनि की हड्डियों से बना था। मनुष्य और आगे बढ़ा। उसने धातु के हथियार बनाये। जिनके पास लोहे के शस्त्र और अस्त्र थे, वे विजयी हुए। देवताओं के राजा तक को मनुष्यों के राजा से इसलिए सहायता लेनी पड़ती थी कि मनुष्यों के राजा के पास लोहे के अस्त्र थे। असुरों के पास अनेक विधाएँ थीं, पर लोहे के अस्त्र नहीं थे, शायद घोड़े भी नहीं थे। आर्यों के पास ये दोनों चीजें थीं। आर्य विजयी हुए। फिर इतिहास अपनी गति से बढ़ता गया। नाग हारे, सुपर्ण हारे, यक्ष हारे, गन्धर्व हारे, असुर हारे, राक्षस हारे। लोहे के अस्त्रों ने बाजी मार ली। इतिहास आगे बढ़ा। पलीते-वाली बंदूकों ने, कारतूसों ने, तोपों ने, बमों ने बमवर्षक वायुयानों ने इतिहास को किस कीचड़-भरे घाट तक घसीटा है, यह सबको मालूम है। नख-धर मनुष्य अब भी बढ़ रहे हैं। अब भी प्रकृति मनुष्य को उसके भीतर वाले अस्त्र से वंचित नहीं कर रही है, अब भी वह याद दिला देती है कि तुम्हारे नाखून को भुलाया नहीं जा सकता। तुम वही लाख वर्ष पहले के नख-दन्तावलम्बी जीव हो - पशु के साथ एक ही सतह पर विचरने वाले और चरने वाले।

इवान तुर्गनेव की कहानी


प्रेम


शिकार से लौटते हुए मैं बगीचे के मध्य बने रास्ते पर चला जा रहा था, मेरा कुत्ता मुझसे आगे-आगे दौड़ा जा रहा था। अचानक उसने चौंककर अपने डग छोटे कर दिए और फिर दबे कदमों से चलने लगा, मानो उसने शिकार को सूँघ लिया हो। मैंने रास्ते के किनारे ध्यान से देखा। मेरी नजर गौरेया के उस बच्चे पर पड़ी जिसकी चोंच पीली और सिर रोंएदार था। तेज हवा बगीचे के पेड़ों को झकझोर रही थी। बच्चा घोंसले से बाहर गिर गया था। और अपने नन्हे अर्द्धविकसित पंखों को फड़फड़ाते हुए असहाय-सा पड़ा था।
कुत्ता धीरे-धीरे उसके नजदीक पहुँच गया था। तभी समीप के पेड़ से एक काली छाती वाली बूढ़ी गौरेया कुत्ते के थूथन के एकदम आगे किसी पत्थर की तरह आ गिरी और दयनीय एवं हदयस्पर्शी चीं…चीं..चूँ…चूँ…चें…चें… के साथ कुत्ते के चमकते दाँतों वाले खुले जबड़े की दिशा में फड़फड़ाने लगीं।
वह बच्चे को बचाने के लिए झपटी थी और अपने फड़फड़ाते पंखों से उसे ढक-सा लिया था। लेकिन उसकी नन्ही जान मारे डर के काँप रही थी, उसकी आवाज फट गई और स्वर बैठ गया था। उसने बच्चे की रक्षा के लिए खुद को मौत के मुँह में झोंक दिया था।
उसे कुत्ता कितना भयंकर जानवर नजर आया होगा! फिर भी यह गौरेया अपनी ऊँची सुरक्षित डाल पर बैठी न रह सकी। खुद को बचाए रखने की इच्छा से बड़ी ताकत ने उसे डाल से उतरने पर मजबूर कर दिया था। मेरा टेजर रुक गया, पीछे हट गया… जैसे उसने भी इस ताकत को महसूस कर लिया था।
मैंने कुत्ते को जल्दी से वापस बुलाया और सम्मानपूर्वक पीछे हट गया। नहीं, हँसिए नहीं। मुझमें उस नन्ही वीरांगना चिड़िया के प्रति, उसके प्रेम के आवेग के प्रति श्रद्धा ही उत्पन्न हुई।
मैंने सोचा, प्रेम मृत्यु और मृत्यु के डर से कहीं अधिक शक्तिशाली है। केवल प्रेम पर ही जीवन टिका हुआ है और आगे बढ़ रहा है।
भिखारी
मैं एक सड़क के किनारे जा रहा था। एक बूढ़े जर्जर भिखारी ने मुझे रोका। लाल सुर्ख और आँसुओं में तैरती–सी आँखें, नीले होंठ,गंदे और गले हुए चिथड़े सड़ते हुए घाव... ओह,गरीबी ने कितने भयानक रूप से इस जीव को खा डाला है। उसने अपना सड़ा हुआ, लाल, गंदा हाथ मेरे सामने फैला दिया और मदद के लिए गिड़गिड़ाया।
मैं एक–एक करके अपनी जेब टटोलने लगा। न बटुआ मिला, न घड़ी हाथ लगी, यहाँ तक कि रूमाल भी नदारद था... मैं अपने साथ कुछ भी नहीं लाया था और भिखारी अब भी इंतजार कर रहा था। उसका फैला हुआ हाथ बुरी तरह काँप रहा था, हिल रहा था।
घबराकर, लज्जित हो मैंने वह गंदा, काँपता हुआ हाथ उमगकर पकड़ लिया, ‘‘नाराज मत होना, मेरे दोस्त! मेरे पास भी कुछ नहीं हैं,भाई!’’

भिखारी अपनी सुर्ख आँखों से एकटक मेरी ओर देखता रह गया। उसके नीले होंठ मुस्करा उठे और बदले में उसने मेरी ठंडी उँगुलियाँ थाम लीं, ‘‘तो क्या हुआ, भाई!’’ वह धीरे से बोला, ‘‘इसके लिए भी शुक्रिया, यह भी तो मुझे कुछ मिला, मेरे भाई!’’ और मुझे ज्ञात हुआ कि मैंने भी अपने उस भाई से कुछ पा लिया था।

अंतोनियो ग्राम्शी और उसका सांस्कृतिक आधिपत्यवाद : ओमप्रकाश कश्यप


यह एक विचित्र संयोग है कि यूरोप के बौद्धिक जगत में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाले इटली के अधिकांश विद्वानों ने अपने जीवन का लंबा और महत्त्वपूर्ण हिस्सा कारावास में बिताया तथा वहीं रहते हुए उन्होंने अपना सर्वश्रेष्ठ लेखन भी किया। उनके लेखन और विचार-क्षेत्र में भी गजब की समानता थी। उनके चिंतन का प्रमुख उद्देश्य उत्पीड़ित जनता के सामंतवादी-पूंजीवादी शोषण से मुक्ति की राह खोजना था। इसके लिए वे शैक्षिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन के समर्थक थे। प्लेटो से प्रभावित तोमासो कंपानेला (1568-1638) जीवन में शिक्षा को अत्यधिक महत्त्व देता था। उसका मानना था कि नगर-राज्य के शासकों का चयन धन अथवा जन्म के आधार पर न होकर, उनकी शिक्षा के आधार पर किया जाना चाहिए। केवल शिक्षा ही व्यक्ति की योग्यता का मापदंड हो सकती है। इटालियन भाषा में लिखी गई उसकी पुस्तक 'सिटी ऑफ दि सन' असल में एक आदर्शलोक का बयान करती है, जिसमें उसने संपत्ति पर निजी अधिकारिता के आगे प्रश्नचिह्न लगाते हुए लिखा था कि 'सामाजिक शांति और सद्भाव का स्थायित्व तथा व्यक्तिमात्र की खुशी निजी संपत्ति के उन्मूलन पर निर्भर करती है।' उसके अनुसार 'निजी संपत्ति सामाजिक सुरक्षा और शांति के लिए सबसे बड़ा खतरा है। यह सामाजिक एकता को स्थायी रूप से क्षति पहुंचाती है।' इसलिए अपने 'यूटोपिया' में उसने सभी वस्तुओं को सामूहिक आधिकारिता में सम्मिलित किया है। प्लेटो से प्रेरणा लेते हुए 'सिटी ऑफ सन' में उसने ऐसे आदर्श नगर-राज्य की परिकल्पना की है, जिसमें सभी साथ-साथ रहते हैं। एक रसोई का बना भोजन करते हैं। उनमें आपसी विश्वास और सहिष्णुता की भावना है। उनके संयुक्त आवासकक्षों, शयनकक्षों में इतनी नीरवता व्याप्त रहती है, जैसी गिरजाघर के प्रांगण में। यहां कंपानेला को याद करने का उद्देश्य मात्र यह बताना है कि महान दार्शनिक फ्रांसिस बेकन के समकालीन कंपानेला ने अपनी उपर्युक्त पुस्तक की रचना सताईस वर्ष के कारावास की दीर्घावधि सजा भोगते हुए की थी।
कंपानेला की भांति अंतोनियो ग्राम्शी ने भी अपना महत्त्वपूर्ण कार्य कारावास में ही पूरा किया था। जेल में रहते हुए उसने 2848 पृष्ठों की विशद पांडुलिपि तैयार की, जो 'कैदी की डायरी' (दि प्रिजन नोटबुक) के नाम से चर्चित है। समय-समय पर लिखी गई वे डायरीनुमा टिप्पणियां मार्क्सवाद पर सर्वथा नए ढंग से विमर्श करती हैं। पूंजीवाद के प्रसार-प्रचार के लिए उसने 'सांस्कृतिक अधिनायकवाद' को दोषी माना है। उसके अनुसार पूंजी का समाज के शीर्षस्थ वर्गों की ओर अंतरण सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभावों की देन होता है। इसलिए समानांतर संस्कृति के विकास से ही आर्थिक-सामाजिक विषमता की खाई को पाटा जा सकता है।
अंतोनियो ग्राम्शी का जन्म 22 जनवरी 1891 को सरदीनिया द्वीप के केगलियरी प्रांत में हुआ था। यह क्षेत्र इटली के सर्वाधिक निर्धनता-ग्रस्त क्षेत्रों में गिना जाता है। कुल सात भाई-बहनों में चैथी संतान ग्राम्शी के पिता का नाम फ्रांस्सिको ग्राम्शी तथा मां का नाम जियुसिपिना मार्सियस था। अल्बीनिया मूल के ग्राम्शी की अपने पिता से कम ही बनती थी, किंतु वह अपनी मां के बेहद करीब था। जियुसिपिना अच्छी किस्सागो थी। यथार्थ को छूती उसकी कहानियों में तीखा व्यंग्य छिपा होता था। बचपन में मां के मुंह से सुनी गई कहानियों का ग्राम्शी पर गहरा प्रभाव पड़ा। मां के मुंह से लोक-कहानियों के प्रति जन्मा अनुराग ही प्रकारांतर में युवा अंतोनियो के अंतर्मन में साहित्य-प्रेम के रूप में विकसित हुआ।
फ्रांस्सिको ग्राम्शी एक सरकारी कार्यालय में छोटे पद पर काम करते थे। परिवार बड़ा था। इस कारण समस्याएं भी थीं। मगर जियुसिपिना की कुशलता से परिवार की गाड़ी जैसे-तैसे खिंच रही थी। अंतोनियो के जीवन में बड़ा मोड़ उस समय आया जब मामूली अपराध के लिए उसके पिता को नौकरी से बेदखल कर उन्हें पांच वर्ष की कैद की सजा सुनाई गई। पिता फ्रांस्सिको परिवार की अर्थव्यवस्था का एकमात्र संबल थे। उनके कारावास में जाते ही परिवार पूर्णतः निराश्रित हो गया। रोजगार की तलाश में मां जियुसिपिना अपने बच्चों के साथ गिलर्जा के लिए प्रस्थान कर गईं, जहां अंतोनियो को पाठशाला में प्रवेश दिला दिया गया। उसके परिवार के लिए वे दिन भीषण अभावों और गरीबी से भरे दिन थे। लेकिन दुखों का अंत यहीं सीमित नहीं था। अंतोनियो के जीवन की एक और दुर्घटना उसका पीछा कर रही थी। उन्हीं दिनों की बात है। एक दिन अंतोनियो का नौकर उसे गोद में लेकर घुमाने निकला हुआ था। अचानक वह नौकर की गोद से फिसल गया। गिरने पर अंतोनियो की रीढ़ की हड्डी में चोट आई, जिससे उसका शारीरिक विकास अवरुद्ध हो गया। बड़े होने पर उसका कद पांच फुट से भी दो इंच कम था, जो सामान्य से बहुत कम था। इस असामान्यता ने ग्राम्शी को अंतर्मुखी बनाया। वह अपनी कल्पना की दुनिया पुस्तकों में सजाने लगा। ग्यारह वर्ष का होते-होते अंतोनियो को लगने लगा था कि परिवार के आर्थिक संकट के चलते आगे पढ़ना संभव न होगा। इसलिए पाठशाला की पढ़ाई पूरी करते ही उसे नौकरी करनी पड़ी। अगले दो वर्ष उसने एक कराधान कार्यालय में मामूली नौकरी करते हुए बिताए। ग्राम्शी के लिए जीवन के वे दिन बेहद अभावग्रस्त और चुनौती-भरे थे।
जीवन संघर्ष ने ग्राम्शी को जुझारू बनाया। अभाव-भरे दिनों में भी उसका अध्ययन चल रहा था। कालांतर में उसे विद्यालय जाने का अवसर मिला, जहां उसने स्वयं को विलक्षण प्रतिभावान विद्यार्थी सिद्ध किया। उसने सभी विषयों में उच्च अंक प्राप्त किए थे। प्राथमिक अध्ययन के बाद उसने संत लसर्जियु के विद्यालय में प्रवेश ले लिया। यह स्थान गिलर्जा से लगभग 16 किलोमीटर दूर था। लसर्जियु में पढ़ाई पूरी करने के उपरांत उसने केगलियरी के डेटरी लाइसियम में प्रवेश ले लिया। उसका भाई जिनेरो भी वहीं अध्ययन करता था। केगलियरी के आसपास औद्योगिक श्रमिकों की सघन बस्तियां थीं। उस समय तक इटली में पूंजीवाद अपना शिकंजा कसने लगा था। वहां की तानाशाह सरकार के साथ मिलकर वह श्रम-शोषण के नए-नए तरीके ईजाद कर रहा था। उससे मुक्ति की वांछा के साथ श्रमिक आंदोलन होते ही रहते थे। वहां रहते हुए ग्राम्शी को श्रमिकों की समस्याओं को जानने का अवसर मिला। वह समाजवादी विचारकों, श्रमिक नेताओं और सुधारवादियों के संपर्क में भी आया। अंतोनियो नौकरी और पढ़ाई साथ-साथ कर रहा था। इसके बावजूद उसके जीवन के अभाव और पिता पर निर्भरता कम नहीं हुई थी। पिता की ओर से समय पर आर्थिक मदद न मिलने पर भी वह परेशान रहता था। अपने पत्रों में अंतोनियो ने अपने पिता पर आर्थिक मदद करने में जानबूझकर विलंब करने तथा उपेक्षा बरतने का आरोप लगाया है। लगातार काम और पढ़ाई के बीच उसका स्वास्थ्य निरंतर बिगड़ता जा रहा था। उसके स्नायुतंत्र में भी कमजोरी आने लगी थी, जो आगे चलकर उसके लिए भारी कष्ट का कारण बनी। यह ग्राम्शी की जिजीविषा ही थी, जो उसे संघर्ष के लिए निरंतर प्रेरित करती आ रही थी। 1911 में ग्राम्शी ने स्नातक परीक्षा पास की। वह अपने अध्ययन को आगे बढ़ाना चाहता था, किंतु परिवार की आर्थिक स्थिति सर्वथा प्रतिकूल थी। मगर जहां संकल्प वहां विकल्प। युवा अंतोनियो ने एक परीक्षा में हिस्सा लिया और उच्च अंक प्राप्त करने के कारण उसे सदर्निया के सम्राट की ओर से छात्रवृत्ति का पात्र मान लिया गया। अंतोनियो के लिए यह बड़ी उपलब्धि थी, जिसने उसके उच्च अध्ययन के लिए रास्ता खोल दिया।
अंतोनियो के साथ छात्रवृत्ति प्राप्त करने वालों में पालमिरो तोगलियत्ती भी था, जिससे उसकी दोस्ती बन गई। तोगलियत्ती आगे चलकर इटली की कम्युनिस्ट पार्टी का महासचिव बना और उसने स्वयं को एक दमदार नेता सिद्ध किया। अपने अध्ययन को आगे बढ़ाने के लिए ग्राम्शी ने उच्च अध्ययन के लिए तूरिन विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया। तूरिन उन दिनों औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया से गुजर रहा था। उसके आसपास के क्षेत्रों में गरीब श्रमिकों की संख्या बहुतायत थी। इसलिए वहां श्रम-शक्ति इटली के बाकी हिस्सों से सस्ती थी। वहां रहते हुए वह समाजवादी नेताओं के संपर्क में आया। इनमें से एक का नाम एंजलो तास्का का था। तास्का कालांतर में 'इटालियन समाजवादी पार्टी' का सदस्य बना और ग्राम्शी के साथ अनेक संघर्षपूर्ण अभियानों में हिस्सा लिया। लेकिन जीवन के अभाव, परिवार की ओर मिल रही उपेक्षा तथा बीमारी, इन सभी ने अंतोनियो के लिए विकट परेशानियां खड़ी की हुई थीं। उसकी शारीरिक विकलांगता बढ़ती जा रही थी, विशेषकर स्नायुतंत्र की समस्या, जिससे मुक्ति का कोई उपाय उसे नजर नहीं आ रहा था। चुनौतियों से कदम-कदम पर जूझते, भूख, गरीबी, अभाव और संघर्षों से गुजरते हुए अंतोनियो ने न केवल अपनी पढ़ाई की निरंतरता को बनाए रखा, बल्कि मानविकी, समाजविज्ञान, भाषाशास्त्र, राजनीति, दर्शनशास्त्र आदि क्षेत्रों में अनेक उपाधियां प्राप्त कर लीं। अंतोनियो के अध्यापक उसकी प्रतिभा से चमत्कृत थे। विशेषकर समाजविज्ञान और भाषाविज्ञान में तो उसका ज्ञान अप्रतिम था। अध्ययन के दौरान वह तत्कालीन बुद्धिजीवियों के संपर्क में आया, जिनमें बेनडिट्टो क्रूस जैसे प्रखर मार्क्सवादी विद्वान के अलावा रोन्डोल्फो मानडोल्फो, जियोवनी जेंटिल, अंतोनियो लाब्रओला आदि प्रमुख थे। उन्हीं के बीच रहते हुए ग्राम्शी ने हीगेल के द्वंद्ववाद, फायरबाख की धर्म-संबंधी अवधारणा तथा मार्क्स के वैज्ञानिक भौतिकवाद का गहरा अध्ययन किया। मार्क्स ने ग्राम्शी को प्रभावित तो किया परंतु उसके दर्शन की असंगतियां उससे छिप न सकीं।
पढ़ाई पूरी करने के पश्चात अंतोनियो जैसे प्रतिभाशाली छात्र के लिए अवसरों की कमी न थी। अध्यापन का क्षेत्र तो उसके स्वागत के लिए पूरी तरह तैयार था। किंतु एक ही ढर्रे से बंधा जीवन उसे स्वीकार न था। खूब सोच-विचार के बाद उसने पत्रकारिता को कैरियर के रूप में प्रधानता दी। 1914 से ही उसके लेख समाजवादी पत्रों में छपने लगे थे, जिन्हें व्यापक प्रसिद्धि मिली। फलस्वरूप एक लेखक-पत्रकार के रूप में ग्राम्शी की प्रतिष्ठा निरंतर बढ़ रही थी। तूरिन के राजनीतिक, आर्थिक परिदृश्य को लेकर लिखे गए उसके लेख आंखें खोल देने वाले होते थे। 1916 में उसे तूरिन से प्रकाशित होने वाले प्रतिष्ठित समाचारपत्र 'अवांति' में सहसंपादक चुन लिया गया। इससे जीवन में कुछ आर्थिक स्थायित्व आया। पत्रकारिता के साथ-साथ ग्राम्शी ने खाली समय में श्रमिकों को पढ़ाने की जिम्मेदारी भी ओट रखी थी। एक कुशल वक्ता और नेतृत्वकर्ता के रूप में भी उसका नाम लोगों की जुबान पर चढ़ा हुआ था। श्रमिक संगठनों के बीच दिए गए उसके भाषण सदैव चर्चा का विषय बनते थे। वह रोमिन रोलेंड के प्रगतिवादी उपन्यासों, पेरिस कम्यून, फ्रांस तथा इटली की क्रांति, स्त्री-मुक्ति के प्रश्नों और मार्क्सवादी साहित्य पर अक्सर श्रमिकों के बीच विमर्श करता रहता था। इटली, विशेषकर उसके तूरिन प्रांत में समाजवादी विचारधारा का असर बढ़ता ही जा रहा था। लोग पूंजीवादी शोषण के विरुद्ध संगठित हो रहे थे। सरकार ने समाजवाद के उफान को थामने के लिए ताकत का इस्तेमाल किया। परिणाम यह हुआ कि 1916 में एक-एक कर इटली के अधिकांश समाजवादी नेता गिरफ्तार कर लिए गए। सरकार की दमनकारी नीति के विरोध में 1917 में श्रमिक आक्रोश भड़क उठा। ग्राम्शी की श्रमिक संगठनों के बीच विश्वसनीयता थी। श्रमिकगण उसके एक आवाह्न पर संगठित हो जाते थे। उसकी ख्याति एक समाजवादी विचारक एवं नेता की थी। 1919 में ग्राम्शी ने एंजलो तास्का, उम्ब्रेटो तारसिनी तथा तोगलियाती के साथ मिलकर समाजवादी विचारधारा के समाचारपत्र 'दि न्यू आर्डर: अ वीकली रिव्यू ऑफ सोशलिस्ट कल्चर' की शुरुआत की। कालांतर में वह बहुत प्रभावशाली समाचारपत्र सिद्ध हुआ। प्रारंभ में उसका प्रकाशन साप्ताहिक आधार पर किया जाता था, बाद में उसे द्वैमासिक कर दिया गया। उस पत्र ने श्रमिकों के बीच वर्गचेतना जाग्रत करने का काम किया। प्रगतिशील साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों का बड़ा वर्ग पहले से ही श्रमिकों के समर्थन में था। ग्राम्शी और उसके सहयोगियों पर श्रमिकों के नेतृत्व का दायित्व था।
1917 की सोवियत क्रांति ने विश्व-भर के श्रमिक संगठनों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था। लेनिन से प्रभावित ग्राम्शी श्रमिक आंदोलनों की सफलता के लिए रात-दिन काम कर रहा था, किंतु श्रमिक नेताओं के आपसी मनमुटाव के कारण सरकार उनके आंदोलन को कुचलने में कामयाब हो गई। ग्राम्शी अकेला पड़ गया। आंदोलन की असफलता ने ग्राम्शी को रूस की भांति इटली में भी साम्यवादी दल के गठन के बारे में सोचने को विवश कर दिया। अपने सोच को कार्यान्वित करते हुए उसने 21 जनवरी 1921 को 'कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इटली' का गठन किया। ग्राम्शी को उसकी केंद्रीय समिति में स्थान मिला। बावजूद इसके वह पार्टी के कार्यक्रमों को लेकर कोई अग्रणी भूमिका निभाने में नाकाम रहा। तानाशाह बेनिटो मुसोलिनी के नेतृत्व में इटली की फासिस्ट सरकार मनमानी पर उतारू थी। देश में उत्तरोत्तर गंभीर होती जा रही सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक समस्याओं के निदान का कोई भी गणतांत्रिक हल उसे स्वीकार्य न था। नवंबर 1926 में तानाशाह सम्राट ने एक विशेष प्रस्ताव के जरिए इटली की संसद के साथ सभी विपक्षी संगठनों को भंग कर, उनके प्रकाशनों पर रोक लगा दी। विरोधी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। इटली में समाजवाद का पथ सहसा अवरुद्ध हो गया। 1922 में कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य के रूप में वह रूस की यात्रा पर निकला, वहां उसका संपर्क जूलिया सुचेत नामक वायलिन वादक से हुआ। शीघ्र ही दोनों दांपत्य बंधन में बंध गए। जूलिया स्वयं रूस की कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य थी। उसने दो बेटों डेलिनो और गुलियानो को जन्म दिया। जिन दिनों वह रूस प्रवास पर था, इटली में तानाशाह मुसोलिनी समाजवादी नेताओं पर कहर बरपा रहा था। अधिकांश विरोधी कैद कर लिए गए थे। देश से बाहर रहकर भी ग्राम्शी पार्टी को बचाए रखने का भरसक प्रयत्न करता रहा। 1924 में उसे इटली की कम्युनिस्ट पार्टी का महासचिव चुन लिया गया। इससे पार्टी-नेतृत्व की समस्त जिम्मेदारी उसके ऊपर आ गई। पार्टी संगठन के लिए काम करते हुए उसने उसके मुखपत्र 'यूनिटी' का प्रकाशन आरंभ किया। इस दौरान वह स्वयं रोम के प्रवास पर था, जबकि उसका परिवार मॉस्को में रह रहा था।
1921 से 1926 के वर्ष ग्राम्शी के जीवन के सर्वाधिक कठिन दिन थे। उसने स्वयं उस अवधि को 'संघर्ष और चुनौती' से भरे वर्ष माना है। इटली में तानाशाह मुसोलिनी तथा विरोधी आमने-सामने थे। पूरे देश में तनाव व्याप्त था। 31 अक्टूबर, 1926 को मुसोलिनी पर विरोधियों द्वारा जानलेवा हमला किया गया। गुस्साए तानाशाह ने आपातस्थिति की घोषणा कर दी। साम्यवादी पार्टी के सभी बड़े नेता एक झटके में गिरफ्तार कर लिए गए। ग्राम्शी को इस षड्यंत्र की कोई जानकारी न थी। तानाशाह सरकार भी यह जानती थी। तो भी 8 नवंबर, 1226 की शाम पुलिस ने ग्राम्शी को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया। यह गिरफ्तारी ग्राम्शी को 'कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इटली' की बैठक में सम्मिलित होने से रोकने के लिए की गई थी। फासीवादी सरकार किसी भी तरह समाजवादी आंदोलन को कुचल देना चाहती थी। गिरफ्तार ग्राम्शी को 'रेजिन कोइली' नामक जेल में ले जाया गया। रोम स्थित इस जेल में खतरनाक और कुख्यात अपराधियों को कैद करके रखा जाता था। उस समय ग्राम्शी की उम्र मात्र 35 वर्ष थी और शरीर अनेक व्याधियों से ग्रस्त। लेकिन सरकार तो उसके विचारों से आतंकित थी। ग्राम्शी की गिरफ्तारी पर मुसोलिनी की प्रतिक्रिया थी-'हमें इसके दिमाग के सोचने पर लगाम लगा देनी चाहिए।' अपने तानाशाह सम्राट की इच्छा को दोहराते हुए मुकदमे के दौरान अभियोजन पक्ष के वकील ने कहा था-'हमें इसके दिमाग के सोचने पर अगले बीस वर्षों तक अंकुश लगा देना चाहिए।''
तानाशाह की अदालत ने वही फैसला दिया जो तानाशाह चाहता था। ग्राम्शी पर राष्ट्रदोह का आरोप लगाकर पांच वर्ष की सजा सुनाई गई। उसे उसटिका के सुदूर टापू पर कैद कर दिया गया। ग्राम्शी को खतरनाक जेल में कैद कर देने से ही सरकार को संतोष न हुआ। अगले ही वर्ष उसकी सजा बढ़ाकर बीस वर्ष कर दी गई। ग्राम्शी पहले से ही शारीरिक व्याधियों से ग्रस्त था। जेल के वातावरण का सबसे बुरा असर उसके स्वास्थ्य पर पड़ा। जेल प्रशासन ने ग्राम्शी पर बाहर से आए लोगों से मिलने-जुलने पर प्रतिबंध लगाया हुआ था। केवल उसका भाई उससे संपर्क कर सकता था। जेल के प्रतिकूल वातावरण में ग्राम्शी का स्वास्थ्य निरंतर गिरता जा रहा था। ग्राम्शी को दी गई सजा की प्रतिक्रिया अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुई । कई देशों ने उसे दी गई सजा की आलोचना की। 1932 में रूस ने इटली सरकार के समक्ष राजनीतिक बंदियों के आदान-प्रदान का प्रस्ताव रखा, किंतु इतालवी सरकार ने उसे अस्वीकार कर दिया। 1934 में ग्राम्शी की तबीयत अचानक गंभीर हो जाने से सरकार के सामने समस्या खड़ी हो गई। अंततः तानाशाह सरकार ग्राम्शी को कड़ी शर्तों के आधार पर आजाद करने को तैयार हो गई। ग्राम्शी को उपचार के लिए अस्पताल में भर्ती कराया गया, किंतु उस समय तक काफी देर हो चुकी थी। डाक्टरी उपचार उसके स्वास्थ्य को स्थायी लाभ पहुंचाने में असमर्थ रहा। अंततः 27 अप्रैल, 1937 को उसने रोम स्थित कोसिसना नामक अस्पताल में अंतिम सांस ली। इस तरह बीसवीं शताब्दी का सर्वाधिक मौलिक विचारक, मनुष्यता के लिए सतत जूझता हुआ इस दुनिया से सदा के लिए कूच कर गया।
ग्राम्शी के विरोधी उसके विचारों से भय खाते थे। उनकी कामना थी कि वह अपने दिमाग से काम न ले। किसी तरह सोचना बंद कर दे। इसके लिए उन्होंने उसे गहन कारावास में बंद भी किया था। ऐसे कारावास में जहां खूंखार कैदियों को बंद रखा जाता था। यह सोचकर कि जेल की अंधेरी, सीलनभरी कोठियों में उसका दिमाग अपने आप जकड़ जाएगा। लेकिन उनके ये मनसूबे कामयाब न हो सके। जेल में भी ग्राम्शी का मस्तिष्क सतत सक्रिय बना रहा। बल्कि कालकोठरी के एकांत और उसकी गहन नीरवता ने उसे और भी सक्रिय कर दिया था। तानाशाह के मनसूबों पर पानी फेरते हुए ग्राम्शी ने गिरफ्तार होने के तुरंत बाद अपनी वैचारिक परिकल्पनाओं को लेकर नए सिरे से अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया था। वह सांस्कृतिक आधिपत्यवाद को पूंजीवाद के विकास में सहायक मानता था। जेल में रहते हुए लेखन-संबंधी भावी योजनाओं का उल्लेख उसने अपनी साली ततियाना को 9 मार्च, 1927 को लिखे गए एक पत्र में किया था। पत्र में उसने कुछ ऐसा लिखने का उल्लेख किया था, जिसमें उसके निजी जीवन के साथ इटली के प्रख्यात बुद्धिजीवियों तथा उनके विचारों को लेकर व्यापक विमर्श हो, जिसमें भाषा-विमर्श के साथ इटली के समाज और राजनीति पर भी विशद चर्चा हो। साथ ही उसके अपने समाज की चिंताएं तथा लोगों का दुख-दर्द भी हो।
एक अन्य पत्र में ग्राम्शी ने दावा किया था-'मैं अंधेरे में पत्थर उछालने का कोई इरादा नहीं रखता। मेरे पास कहने के लिए कुछ खास बातें हैं।' पत्र लिखते समय ग्राम्शी के दिमाग में क्या था, वह पूरी तरह तो सामने नहीं आ सका। नियति ने उसे इतना अवसर ही नहीं दिया कि वह अपने मस्तिष्क में समाए विचारों को पूरी तरह कागज पर उतार सके। तो भी जेल प्रवास के दौरान वह अपनी वैचारिक चेतना को शब्दों के माध्यम से कागज पर उतारता रहा। उसकी मृत्यु के समय जेल में लिखी गई उसकी तैंतीस डायरियां बरामद हुई थीं। ततियाना उन्हें बचाकर इटली से बाहर ले जाने में सफल हो गई। यूं तो ग्राम्शी ने कारावास से बाहर रहकर भी सारगर्भित लेखन किया था, लेकिन उसकी ख्याति तैंतीस डायरियों तथा उन पत्रों के कारण हैं जो जेल में लिखे गए थे। उसकी मृत्यु पर टिप्पणी करते हुए पादरी ने हालांकि कहा था कि मरणासन्न अवस्था में ग्राम्शी को पुनर्जन्म पर विश्वास हो चला था, उसने अपने पापों के लिए पादरी के समक्ष ईश्वर से क्षमा मांगते हुए प्राण त्यागे थे। लेकिन जेल के दस्तावेज दर्शाते हैं कि मृत्यु के समय उसके पास कोई भी पादरी नहीं था। न ही उसने उस अवसर पर किसी से धार्मिक विश्वास का जिक्र ही किया था। रही पापों की बात, ग्राम्शी जैसा विचारक, जिसने अपना पूरा जीवन विपन्नों-शोषितों के कल्याण की चिंता में बिताया था, कभी पाप का भागी हो ही सकता। उसके संघर्ष को पापकर्म बताने वाली धर्मसत्ता तानाशाह सरकार को झेलने तथा उसे समर्थन देते रहने के लिए स्वयं पाप की भागी थी।
सांस्कृतिक आधिपत्यवाद
बीसवीं शताब्दी के महानतम चिंतकों में अंतोनियो ग्राम्शी का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। उसने मार्क्स के विचारों को अपनाया। किंतु बंधे-बंधाए ढर्रे पर चलने, उसकी रूढ़िग्रस्त परिभाषाओं को अपनाने के बजाय उसने मार्क्स द्वारा प्रणीत वैज्ञानिक समाजवाद की अपने ढंग से व्याख्या की। वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत की व्याख्या के लिए उसने संस्कृति को आधार बनाया और सांस्कृतिक आधिपत्य को शोषण के प्रमुख कारणों में गिना। अपने दस वर्ष से लंबे कारावास के दौरान उसने 30 से अधिक डायरियां तथा लगभग 500 पत्र लिखे थे। इनके अतिरिक्त लगभग 3000 पृष्ठों की सामग्री इतिहास और सामाजिक विश्लेषण को लेकर प्राप्त हुई है। उसके लेखन को 'कैदी की डायरियां' शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित किया गया है। ग्राम्शी ने 'सांस्कृतिक आधिपत्यवाद' को पूंजीवाद के सुरक्षाकवच की संज्ञा दी है। उसके अनुसार शोषण से मुक्ति का एक ही रास्ता है, सांस्कृतिक विषमता की गहरी खाई को पाटना। सांस्कृतिक-जातीय कुंठा के दायरों से बाहर निकलकर समानतावादी सोच को अपनाना। उसने श्रमिकों को प्रोत्साहित किया था कि वे शिक्षा पर जोर दें तथा अपने भीतर से समर्पित बुद्धिजीवी पैदा करें। प्रसंगवश उल्लेख किया जा सकता है कि 'सांस्कृतिक आधिपत्यवाद' ग्राम्शी की मौलिक स्थापना नहीं थी। इस अवधारणा का सर्वप्रथम उल्लेख व्लादिमिर लेनिन द्वारा किया गया था। 'सांस्कृतिक आधिपत्य' से लेनिन का आशय श्रमिक वर्ग के संगठित राजनीतिक शक्ति को लोकतांत्रिक क्रांति के निमित्त तत्पर करने से था। ग्राम्शी ने इस अवधारणा का विस्तार करते हुए उन कारणों की व्यापक समीक्षा की थी, जो उसे मार्क्सवाद के प्रचार के अवरोधक जान पड़ते थे, जो समाज में पूंजीवाद को संरक्षण प्रदान करते हैं, जिनके कारण समाजवाद की स्थापना का सपना, जिसे मार्क्सवाद अपने आरंभ से ही देखता आ रहा था-बीसवीं शताब्दी में पूरा न हो सका था। इसी के कारण पूंजीवाद आज पहले से कहीं अधिक मजबूत एवं सुरक्षित है। ग्राम्शी इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए पूंजीवाद न केवल हिंसा और राजनीतिक-आर्थिक मनमानी का सहारा लेता है, बल्कि वह सामाजिक आदर्शों एवं सांस्कृतिक प्रतीकों को भी अपने विमर्श में मनमाना रूप दे देता है। परिणामस्वरूप नौकरशाही और बुर्जुआवाद जनसाधारण की सामान्य तर्कबुद्धि में गहरे पैठ जाते हैं। इससे समाज, विशेषकर श्रमिक वर्ग के बीच यह रजामंदी बनने लगती है कि कामगार वर्ग तथा बुर्जुआ वर्ग के हित परस्पर स्वतंत्र एवं एक-दूसरे से भिन्न हैं। यह प्रवृत्ति उन्हें परिस्थिति से अनुकूलन की ओर ले जाती है। इससे दोनों के बीच व्याप्त कृत्रिम स्तरीकरण नैसर्गिक व्यवस्था का रूप लेने लगता है, जो अंततः श्रमिक आक्रोश और उसके संघर्ष को कमजोर करता है। अपनी दुरवस्था को श्रमिक अपनी नियति मानने लगता है और उसके निदान के लिए पराभौतिक शक्तियों की शरण में चला जाता है। इससे न केवल उसका संघर्ष कमजोर पड़ता है, बल्कि दुरवस्था के लिए जिम्मेदार कारकों से मुक्ति की उसकी छटपटाहट भी कमजोर पड़ने लगती है। उसकी यह प्रवृत्ति धर्मसत्ता को समाज में अपरिहार्य एवं शक्तिसंपन्न बनाती है, जो सर्वहारा के मुक्ति-संघर्ष को कमजोर करने का काम करता है।
ग्राम्शी के चिंतन का मुख्य बिंदु भी यही है। उसके अनुसार सांस्कृतिक संरक्षणवाद सामाजिक शक्ति-केंद्रों पर राज करता है। मनुष्य केवल विवेक से 'सांस्कृतिक आधिपत्य' की जकड़न से बाहर आ सकता है। शिक्षा, जिसका प्रमुख लक्ष्य मनुष्यमात्र को अज्ञान के अंधेरे से बाहर निकालना है, इस लक्ष्य की प्राप्ति में मनुष्य का मार्गदर्शन कर सकती है। इसलिए श्रमिकों को चाहिए कि वे शिक्षा को महत्त्व देते हुए अपने बीच से प्रतिबद्ध और संकल्पवान बुद्धिजीवी पैदा करें। किंतु बुद्धिजीवियों की विश्वसनीयता का पैमाना क्या हो? 'सांस्कृतिक आधिपत्य' का सामना करने के लिए वैकल्पिक सांस्कृतिक मूल्यों, प्रतीकों का गठन भी तो बुद्धिजीवियों के सहयोग और समर्थन के बगैर संभव नहीं है। जेल की कालकोठरी में जीवन जीते हुए ग्राम्शी ने इस अवस्था पर भी गंभीर विचार किया था। उसके अनुसार बुद्धिजीवियों की पहचान सामाजिक परिवर्तन के निमित्त उनकी भूमिका से आंकी जानी चाहिए। न कि सिर्फ उनके लेखन और वक्तव्यों के आधार पर। यानी परिवर्तन के इच्छुक बुद्धिजीवी का सामाजिक रूप से सक्रिय होना आवश्यक है। ऐसे बुद्धिजीवियों को, जो अपने समूह की चिंताओं, समस्याओं से परिचित हों; तथा उनके निदान के लिए निरंतर आंदोलनरत रहने का साहस भी रखते हों, वरीयता दी जानी चाहिए। ग्राम्शी के अनुसार सामाजिक निष्क्रियता के दौर में तकनीकी तथा राजनीतिक नेतृत्व धीरे-धीरे अपनी पकड़ बनाने लगते हैं और कालांतर में दूसरों को छोड़कर इतना आगे निकल जाते हैं कि उनके वर्चस्व से मुक्ति जनसाधारण के लिए असंभव-सी हो जाती है। उन्हें नियंत्रण में रखने के लिए आवश्यक है कि श्रमिक वर्ग अपने बुद्धिजीवियों की मदद से समानांतर राजनीतिक-सांस्कृतिक संस्थाओं का विकास करे।
ग्राम्शी की 'बुद्धिजीवी' की परिभाषा व्यापक है। उसके अनुसार हर वह व्यक्ति बुद्धिजीवी है जो धनार्जन के लिए सीधे श्रम के बजाय बुद्धिबल से काम लेता है तथा श्रम की अपनी आवश्यकता बाजार से पूरी करता है। तदनुसार उसने 'पूंजीवादी उद्योगपति' को प्रथम 'बुद्धिजीवी स्वीकार किया है जो अपने साथ तकनीक विशेषज्ञ, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ, संस्कृतिकर्मी, विधिवेत्ताओं का समुच्चय बनाता है तथा उन्हें अपने हितों के अनुरूप उपयोग में लाता है। वह स्वयं इस संगठन के शीर्ष पर विराजमान रहता है तथा अपने समूह के सदस्यों के स्तर-निर्धारण के लिए एकमात्र निर्णायक शक्ति होता है। सहायक बुद्धिजीवियों की मदद से वह श्रमिकों के दिलों में यह बात भली-भांति बिठा देता है कि उनकी दुर्दशा के कारण कहीं और विद्यमान हैं और वह उनका सर्वप्रथम शुभचिंतक है। ग्राम्शी के अनुसार हमें मालूम होना चाहिए कि बहुत-से बुद्धिजीवी अपने समूह के भीतर स्वयं को स्वतंत्र और सर्वेसर्वा घोषित कर शीर्षस्थ स्थान कब्जाए रखते हैं। वे स्वयं और अपने समूह को दूसरों से अलग तथा विशिष्ट माने रहते हैं। यह विशिष्टताबोध उन्हें आय का बड़ा हिस्सा अपने पास रखने, अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए दूसरों पर शासन करने को प्रेरित करता है। ऐसा कोई भी सामाजिक समूह जो पूर्ववर्ती आर्थिक संरचना का निषेध कर इतिहास में दस्तक देना चाहता है, उसे समकालीन बुद्धिजीवियों से बौद्धिक स्तर पर भी जूझना पड़ता है। उससे उम्मीद की जाती है कि वह परिवर्तनों को, चाहे वे कितने ही प्रगतिगामी क्यों न हों, इतिहासक्रम को बगैर झुठलाए तथा प्रचलित व्यवस्थाओं को नुकसान पहुंचाए बिना पूरा करे। ऐसे बुद्धिजीवियों को ग्राम्शी ने 'परंपरा-पोषक बुद्धिजीवी' के विशेषण से नवाजा है। ऐसे बुद्धिजीवियों में प्रशासक, रूढ़िवादी दार्शनिक, सिद्धांतकार, विधिवेत्ता, शिक्षक, प्रोफेसर, वैज्ञानिक आदि होते हैं। ऐसे कथित बुद्धिजीवियों को यदा-कदा 'क्लर्क' से भी संबोधित किया जाता है, जो इन छद्म विद्वानों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त संबोधन है। यदि हम छद्म बुद्धिजीवियों की पहचान के लिए कोई सार्वत्रिक कसौटी बनाने की कोशिश करें या उनके विचारों के सहारे गतिशील सामाजिक समूहों का अध्ययन करने का प्रयास करें तो यह असंभव है। इसलिए कि अपनी प्रगतिशीलता का मुखौटा लगाए ये छद्म बुद्धिजीवी सच को आसानी से बाहर नहीं आने देते। इस प्रकार के बुद्धिजीवियों की बौद्धिक गतिविधियों की व्याख्या करना, बजाय इसके कि जिस समाज में ये बुद्धिजीवी रहते हैं, उनका अध्ययन किया जाए, सैद्धांतिक रूप से अनुचित होगा। छद्म बुद्धिजीवियों का एक लक्षण यह भी है कि वे बौद्धिक श्रम को शारीरिक श्रम पर वरीयता देते हैं, तथा समाज में वर्गभेद का समर्थन करते हैं। इससे वास्तविक उत्पादक को, जो अपने श्रम-कौशल से उत्पादन को संभव बनाता है, उत्पादन का पूरा लाभ नहीं मिल पाता। इससे शोषण को बढ़ावा मिलता है। अपने प्रतिक्रियावादी चिंतन द्वारा ये बुद्धिजीवी समाज में यथास्थिति बनाए रखने में सहयोग करते हैं। परिणामस्वरूप सामाजिक विकास अवरुद्ध हो जाता है।
ग्राम्शी ने वर्गभेद की समस्या के निदान के लिए शिक्षा की आवश्यकता पर जोर दिया है। उसके अनुसार केवल शिक्षा ही ऐसा उपक्रम है, जिससे इन छद्म बुद्धिजीवियों के प्रलोभन में आने से बचा जा सकता है। इसलिए श्रमिक वर्ग को चाहिए कि वह अपने भीतर से समर्थक बुद्धिजीवी पैदा करे। ऐसे बुद्धिजीवी जो समानांतर संस्कृति को जन्म देने में सक्षम हों। कालांतर में ये बुद्धिजीवी इस अवधारणा को कि मध्यवर्गी जीवनमूल्य समाज ही वास्तविक मूल्यों का पर्याय हैं, उखाड़ फेंकने में सक्षम होंगे। इनके प्रभाव से बुद्धिजीवी वर्ग का ध्यान शोषित वर्गों की ओर आकर्षित होगा, जो कालांतर में आमूल परिवर्तनों को जन्म देगा। ग्राम्शी का यह सिद्धांत 'सांस्कृतिक आधिपत्यवाद' कहलाता है, जिसमें विकसित संस्कृति अपने भीतर के अल्पविकसित सांस्कृतिक समूहों को भ्रमित किए रहती है। वह उन्हें अपनी दुरवस्था के कारणों की तह में जाने से रोकती है। लेनिन का विचार था कि संस्कृति राजनीतिक लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायक है। दूसरी ओर ग्राम्शी का मानना था कि वर्तमान परिदृश्य में सत्ता प्राप्ति के लिए सांस्कृतिक आधिपत्य के बिना संभव नहीं, इसलिए समानांतर संस्कृति के विकास द्वारा पहले सांस्कृतिक वर्चस्व प्राप्त करना चाहिए। ग्राम्शी का विश्वास था कि कोई भी समूह जो आधुनिक परिदृश्य में समाज के नेतृत्व की जिम्मेदारी उठाना चाहता है, उसे अपने क्षुद्र आर्थिक स्वार्थों से ऊपर उठकर बौद्धिक एवं नैतिक नेतृत्वकारी योग्यता अपने भीतर पैदा करनी होगी। साथ ही उसे विभिन्न प्रकार के संगठनों और सहयोगियों के साथ तालमेल बनाना चाहिए, तभी वह चारों और से उमड़कर आने वाली चुनौतियों का सामना कर सकता है। ग्राम्शी ने सामाजिक बलों के संगठन को 'ऐतिहासिक गुट' की संज्ञा दी थी। यह पद उसने उनीसवीं शताब्दी के फ्रांसीसी वामपंथी विचारक जार्ज सोरेल से उधार लिया था। उसने उम्मीद जाहिर की थी कि ऐतिहासिक गुटों का गठन पूर्व निर्धारित सामाजिक व्यवस्थाओं के अनुसार किया जाएगा, जो विभिन्न संस्थाओं के साथ गठजोड़ कर सामाजिक संबंधों और धारणाओं का विकास करेंगी।
ग्राम्शी का मानना था कि पश्चिम में बुर्जुआ संस्कृति के मूल्य धर्म से आबद्ध थे। इसलिए वर्चस्ववादी संस्कृति की अधिकांश व्याख्याएं धार्मिक रीति-रिवाजों और मूल्यों को समर्पित रही हैं। कहीं न कहीं वह रोमन कैथोलिज्म से प्रेरित और प्रभावित था और मानता था कि चर्च ने उच्च शिक्षित और अल्प शिक्षित नागरिकों के धर्म के बीच खाई को बढ़ने से रोका है। समाज में अमीर और गरीब के बीच आर्थिक विभाजन चाहे जितना बढ़ा हो, किंतु धार्मिक आधार पर उनके बीच बहुत कम अंतर देखने को मिलता है। लेकिन धार्मिक कर्मकांडों में समानता व्यक्ति को उसकी आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता से विमुख किए रखती है, जिससे वह अपने शोषण के लिए अपनी नियति को दोषी मानने लगता है। उसका मानना था कि केवल मार्क्सवाद ने ही धर्म की विशुद्ध वैज्ञानिक आधार पर आलोचना की है और उसे उदार मानवतावाद के रूप में पहचान दिलाने के लिए संघर्षरत रहा है। उसकी यह भी मान्यता थी कि मार्क्सवाद धर्म को केवल उस अवस्था में चुनौती दे सकता है, जब वह जनसाधारण की पराभौतिक जिज्ञासाओं का समाधान करने में सफल हो तथा आम जनता उसे अपने अनुभव के माध्यम से अभिव्यक्त कर सके। धर्म वस्तुतः एक जटिल अवधारणा है। मनुष्य की पारलौकिक जिज्ञासाओं के शमन का दायित्व दर्शन और अध्यात्म का है। धर्म में सामाजिक आचार-विचार और अध्यात्म घुल-मिल जाते हैं। मार्क्सवाद स्वयं एक दर्शन है, किंतु मार्क्स तथा उसके अनुयायियों द्वारा मार्क्सवाद के प्रचार-प्रसार के लिए वही रास्ते अपनाए गए, जो उस समय तक धर्म के लिए लगभग आरक्षित थे। मार्क्स को उसके समर्थकों द्वारा भगवान मान लिया गया। मार्क्सवाद को लेकर कुछ ऐसी ही स्थिति आज भी है। ग्राम्शी इस अतिशय समर्पण के खतरों को पहचानता था। वह शिक्षा को परिवर्तनकारी शक्ति मानता था। उसका मनुष्यमात्र में गहरा विश्वास था। उसका मानना था कि 'सभी मनुष्य प्रतिभासंपन्न होते हैं… । वे तर्कसम्मत और प्रतिभाशाली लोगों से युक्त संगठनों का संचालन भी करते हैं…लेकिन वे सभी प्रतिभासंपन्न लोग, बुद्धिमानों जैसे सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह नहीं करते।'
बुद्धिजीवियों की चारित्रिक विशेषता की ओर संकेत करते हुए उसने लिखा था कि वे प्राचीन दार्शनिकों की भांति महज चिंतक और वक्ता नहीं हैं, जो समाज को अपने ज्ञान से समृद्ध कर निर्लिप्तता ओढ़ लेते हों। अपने समाज का प्रबोधीकरण, व्यक्तिमात्र का चारित्रिक उत्थान उनके आचरण का सहज-स्वाभाविक हिस्सा था, न कि व्यवसाय। इसके वह निजी सुख की परवाह किए बिना कर्तव्य मानकर करते थे। दूसरी ओर आधुनिक बुद्धिजीवी पूर्णतः व्यावहारिक तथा जोड़-घटाव करने वाले नौकरशाहों जैसे हैं। वे शिक्षा, संचार आदि समाजोपयोगी माध्यमों का उपयोग समाज में वर्गभेद पैदा करने तथा सामाजिक स्तरीकरण को बढ़ावा देने के लिए करते हैं। इस तरह वे समाज में पूंजीवाद को मजबूत करने में सहायक की भूमिका निभाते हैं। इन स्थितियों पर नियंत्रण कैसे किया जाए, कैसे उन छद्म बुद्धिजीवियों से जनसामान्य को मुक्ति दिलाई जाए-ग्राम्शी ने इसपर विस्तार से लिखा है। उसका मानना था कि प्रायोगिक शिक्षा समाज में श्रम-संस्कृति के विकास में सहायक हो सकती है। अतएव उसने ऐसी शिक्षा के विकास पर जोर दिया था, जो न केवल श्रमिकों को आत्मनिर्भर बनाए बल्कि उनके बीच से संकल्पवान बुद्धिजीवी पैदा कर सके। ग्राम्शी के अनुसार ऐसे बुद्धिजीवी न केवल सर्वहारा वर्ग की मदद के बगैर समाजवादी विचारधारा को स्थापित करने के लिए तत्पर होंगे, बल्कि अभिजात संस्कृति को जन संस्कृति में बदलने के लिए भी प्रयासरत होंगे। ग्राम्शी के शिक्षा-संबंधी विचारों का प्रायोगिक विस्तार आगे चलकर ब्राजील के दार्शनिक पाब्लो फ्रेरा के चिंतन-कर्म में देखने को मिलता है।
ग्राम्शी का 'सांस्कृतिक आधिपत्यवाद' पूंजीवादी राज्य की विशेषताओं की ओर संकेत करता है जिसका आशय है बल और सहमति द्वारा राज करना। पूंजीवादी शक्तियों के समर्थन पर टिका राज्य अपनी नीतियों एवं कर्तव्यों द्वारा श्रमविरोधी आचरण अपनाता है। वहां आम जन की उपयोगिता एक उपभोक्ता वस्तु जितनी ही होती है। सरकार की समस्त नीतियां और अन्यान्य व्यवस्थाएं इसी को बनाए रखने को प्रयासरत होती हैं। लेकिन पूंजीवाद की अच्छी सेहत के लिए सस्ता श्रम चाहिए और भरपूर उपभोक्ता भी। इसलिए पूंजीवादी सरकार अपने समस्त आयोजन आम सहमति के नाम पर करती है। कह सकते हैं कि पूंजीवादी राज्य लोकतंत्र को अपने सुरक्षा कवच की भांति अपनाए रहते हैं। इससे जनसहमति के नाम बना पूरा का पूरा तंत्र पूंजीवादी मंसूबों को साधने वाली मशीन बन जाता है। यहां 'राज्य' का आशय केवल सरकार तक सीमित नहीं है। बल्कि वह व्यापक अर्थ लिए हुए है। 'राज्य' पद से ग्राम्शी का आशय 'राजनीतिक समुदाय' तथा 'जनसमुदाय' के समुच्चय से है। पुनः राजनीतिक समुदाय से उसका अभिप्राय समस्त राजनीतिक संस्थानों एवं संवैधानिक उपक्रमों से है, जो आधुनिक समाज को व्यवस्थित बनाए रखने के लिए अनिवार्य माने गए हैं। इसी प्रकार जनसमुदाय से ग्राम्शी का आशय निजी और राज्येतर संस्थाओं से है, जिन्हें कोई जीवंत समाज स्वेच्छा और स्वतःअनुशासन की भावना से गठित करता है। इनमें 'राजनीतिक समुदाय' बल का प्रतीक है, जबकि 'जनसमुदाय' स्वानुशासन की उदात्त भावना का। ग्राम्शी ने आग्रहपूर्वक कहा था कि उपर्युक्त वर्गीकरण विशुद्ध वैचारिक है। वास्तव में ये दोनों परस्पर इतने घुले-मिले हैं कि इनके बीच स्पष्ट विभाजन-रेखा खींच पाना असंभव-सा है।
ग्राम्शी का मानना था कि आधुनिक पूंजीवाद पहले की अपेक्षा कहीं अधिक चतुर और स्वार्थी है। इसमें बुर्जुआ वर्ग समाज पर अपना आर्थिक नियंत्रण बनाए हुए है। यदा-कदा श्रमिकों को भुलावे में रखने के लिए वह उनके संगठनों की कुछ शर्तें भले ही स्वीकार कर ले, किंतु उसके समस्त प्रयत्न स्वार्थ-केंद्रित तथा समाजवाद की पवित्र भावना के प्रतिकूल होते हैं। वह पूंजीवाद को समाजवाद के विकल्प के रूप में स्थापित करने का प्रयास कर, उसके विरुद्ध संघर्ष की दिशा बदलने का प्रयास करता है। ग्राम्शी ने बुर्जुआ वर्ग के आचरण को 'निष्क्रिय क्रांति' की संज्ञा दी है, जो अपने आर्थिक-राजनीतिक स्वार्थ से परे कुछ सोच ही नहीं पाता। इस प्रकार वह समाज में स्तरीकरण को बढ़ावा देने का कारण बनता है। मैकियावेली से प्रेरणा लेते हुए उसने क्रांतिकारी संगठनों को 'आधुनिक युवराज' की उपमा देते हुए परिकल्पना की थी कि ये 'आधुनिक युवराज' श्रमिक वर्ग को अपने भीतर वास्तविक बुद्धिजीवी पैदा करने के लिए प्रेरित करेंगे, जिससे जन समाज में एक वैकल्पिक नेतृत्व शक्ति का जन्म होगा। उसका विश्वास था कि सर्वहारा समाज का ऐतिहासिक लक्ष्य स्वतः अनुशासित समाज की स्थापना करना है। इसके लिए उसने राज्य को महिमा मंडित करने के बजाय, उसे लोकानुशासन में ढालने की कामना की है।
मार्क्सवाद की आलोचना
ग्राम्शी ने मार्क्स के विचारों की उनकी अतिशय अर्थकेंद्रिक प्रवृत्ति के कारण आलोचना की है। 1917 में अपने एक लेख, ''दास कैपीटल' के विरुद्ध क्रांति'' में उसने मार्क्स पर आरोप लगाया था कि उसका चिंतन पूंजी के इर्द-गिर्द घूमता है। मानव जीवन को प्रभावित करने वाले अन्य मुद्दे उसके यहां लगभग उपेक्षित हैं। पूंजी के प्रति अतीव केंद्रता अंततः पूंजीवाद को ही संबल, संरक्षण प्रदान करती है। इस कारण वह सर्वहारा वर्ग से अधिक पूंजीपतियों का हित-साधन करता है। मार्क्स की इस विचारधारा कि पूंजीवाद का अत्यधिक विस्तार ही एक दिन उसके पतन का कारण बनेगा, के बारे में ग्राम्शी का कहना था कि अगर ऐसा हो तो समाजवादी क्रांति की सफलता के लिए पूंजीवाद के चरमोत्कर्ष तक प्रतीक्षा करनी होगी यानी उतने समय तक ही पूंजीवाद को मनमानी करने का अवसर देना होगा, ताकि क्रांति के अनुकूल वातावरण बन सके। यह तो उपचार से पहले रोग को फलने-फूलने की छूट देने जैसा घातककर्म हुआ। इसी लेख में ग्राम्शी ने उदाहरण देकर बताया था कि मार्क्स की इस अवधारणा को इतिहास ने झुठला दिया है। उसने दावा किया था कि रूस में अक्टूबर क्रांति की घटना ने मार्क्स की इस स्थापना को अमान्य कर दिया है कि समाजवादी क्रांति के लिए पूंजीवादी उत्पादन तंत्र के चरम उभार तक प्रतीक्षा करनी होगी। रूस की बोल्शेविक क्रांति का विश्लेषण करते हुए उसके तत्काल बाद ग्राम्शी ने लिखा था, 'यह पूरी तरह साफ हो चुका है कि बोल्शेविक क्रांति रूसी जनता के संघर्ष का सुफल है। दो माह पहले तक अतिवादी इस प्रयास में थे कि सबकुछ ठीक-ठाक चलता रहे। उसकी भविष्योन्मुखी यात्रा में कहीं अवरोध पैदा न हो। इसके लिए वे सर्वमान्य समझौते के प्रति भी सहमति व्यक्त कर चुके थे, जो वास्तव में पूंजीवाद की हदों के बीच हुआ 'बुर्जुआ समझौता' था। अब यही अतिवादी तत्व शक्तिकेंद्रों तथा उत्पादन-स्रोतों को अपने अधिकार में ले, उनपर अपना आधिपत्य जमा लेने के पश्चात सत्ता के समाजवादी ढांचे को मूर्त रूप देने का प्रयास कर रहे हैं। यदि वे आगे भी बिना किसी वाद-विवाद के, अपनी अब तक की अपरिमित उपलब्धियों के साथ जिन्हें वे सायास प्राप्त कर चुके हैं, परस्पर एकता एवं सामंजस्य बनाए रखने में सफल होते हैं, तभी यह जनक्रांति अपने पवित्र लक्ष्य को प्राप्त कर सकेगी।'
बोल्शेविक क्रांति के परिणामों के आधार पर मार्क्सवाद की आलोचना करते हुए ग्राम्शी ने इसी लेख में आगे लिखा था,'बोल्शेविक क्रांति घटनाओं से कहीं अधिक अपने भीतर आदर्शों को समाहित किए हुए है। वस्तुतः यह कार्ल मार्क्स की 'पूंजी' के विरुद्ध जनक्रांति है। रूस में मार्क्स की 'पूंजी' सर्वहारा वर्ग से अधिक पूंजीपतियों का महाग्रंथ है। यह इस तथ्य की सविस्तार व्याख्या करता है कि घटनाएं किस प्रकार पूर्व-निर्धारित चक्र से गुजरती हैं। यह दर्शाता है कि रूस में किस प्रकार पूंजीपति वर्ग विकसित हुआ था। वहां सर्वहारा वर्ग द्वारा विद्रोह की बात भी दिमाग में लाने, क्रांति के बारे में सोचने अथवा अपनी वर्गीय मांगों को सामने रखने पर विचार करने से भी बहुत पहले ही, पश्चिमी सभ्यता से प्रेरणा लेकर पूंजीवादी युग की नींव रखी जा चुकी थी। इसके बावजूद क्रांति ने अंततः कागजी आदर्शों पर विजय पा ही ली… ।बोल्शेविकों ने कार्ल मार्क्स को किनारे कर दिया है, तथा उनकी सुस्पष्ट गतिविधियों तथा सफलताओं ने यह सिद्ध कर दिया है कि ऐतिहासिक भौतिकवाद की तोपें इतनी मारक नहीं जितना इनके बारे में सोचा-समझा गया था… ।मार्क्स की कल्पना वहीं तक थी, जहां तक वह परिकल्पना कर सकता था। वह यूरोप के युद्ध की विभीषिका की परिकल्पना नहीं कर पाया था। यहां तक कि युद्ध इतना लंबा खिंचेगा, उसके ऐसे दुष्परिणाम होंगे जो इन दिनों सामने आ रहे हैं, का आकलन करने में भी वह नाकाम रहा था।'
लेख में मार्क्सवाद की असफलता के कारणों के मूल में जाते हुए ग्राम्शी ने लिखा था कि, 'इस प्रकार की सामूहिक इच्छा का निर्माण सामान्यतः एक दीर्घकालिक और क्रमिक विकास का सुफल होता है। इसके लिए कार्यकारी समूहों के गहनतर अनुभव की दरकार होती है, जबकि सुस्ती, आलस्य, स्वार्थपरता, चपलता आदि मानवमात्र की सामान्य दुर्बलताएं हैं। इस कारण समय-समय पर उसका जागरण-प्रबोधीकरण करते रहने की आवश्यकता पड़ती है। ग्राम्शी के अनुसार प्रबोधीकरण का कार्य सर्वप्रथम संगठनों और संघों के रूप में किया जाता है। तदनंतर एक अनवरत-समर्पित प्रयास द्वारा उनके विचारों, इच्छाओं, महत्त्वाकांक्षाओं आदि में परिवर्तन लाने की कोशिश की जाती है। उनके बहुआयामी और दीर्घसंचित आक्रोश को निरंतर भड़काया जाता है।' लेख के माध्यम से ग्राम्शी इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि मार्क्सवाद कोई सुस्थापित दर्शन नहीं है। मार्क्स की अतिशय भावुकता उसे जगह-जगह अतिगामी बनाती है। इससे वह तथ्यों की बहुआयामी समीक्षा-व्याख्या करने में असफल रहता है। तो भी ग्राम्शी ने स्वीकार किया है कि मार्क्सवाद उनीसवीं शताब्दी का सर्वाधित चर्चित एवं प्रभावशाली दर्शन है। आवश्यकता पड़ने पर उसने मार्क्सवाद के आलोचकों की भी खिंचाई की है। उसके अनुसार उत्पादक शक्तियों की वरीयता का सिद्धांत असल में मार्क्सवाद की अधूरी समझ का नतीजा है। आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन दोनों ही 'मूल ऐतिहासिक प्रक्रिया' हैं। इनमें से किसी एक को दूसरे से श्रेष्ठ अथवा प्रभावशाली ठहराना अनुचित होगा। मार्क्सवाद के आरंभिक दिनों में श्रमिक आंदोलनों में यह भ्रांति बहुत गहरे तक पैठी हुई थी कि 'ऐतिहासिक नियम', जिसमें पूंजीवाद के स्वतः पराभव की कल्पना की गई है, के फलस्वरूप उनकी विजय अवश्यंभावी है। इस विचार को मिली व्यापक जनस्वीकृति के पीछे कारणों की खोज के लिए ग्राम्शी संस्कृति की तह में जाता है। उसके अनुसार श्रमिक अर्से तक इस भ्रांति से इसलिए सहजतापूर्वक चिपके रहे, क्योंकि वे मूलतः सुरक्षात्मक प्रयासों के समर्थक होते हैं। हिंसक क्रांति उनके मूल स्वभाव का हिस्सा नहीं है। इसलिए ऐसी भारी-भरकम भाग्यपरक सैद्धांतिकी से श्रमिकों को उस समय तक दूर रखा जाना चाहिए था, जब तक वे स्वयं पहल करने के लिए तैयार नहीं हो जाते। मार्क्सवाद कोरा सिद्धांत न होकर असल में 'क्रियात्मक दर्शन' है। इस कारण वह सामाजिक परिवर्तन के लिए किन्हीं अनदेखे, अयाचित और अमूर्त 'ऐतिहासिक नियमों' पर भरोसा नहीं कर सकता। इतिहास स्वयं मानव-समाज के आपसी संबंधों, क्रियाओं एवं अंतर्द्वंद्वों की अनुकृति होता है। उसे मानवेच्छा से निरपेक्ष नहीं माना जा सकता। अतएव प्रत्येक परिस्थिति में केवल श्रमिकों की इच्छाशक्ति से सफलता की आस लगाए रहना अनुचित है। यदि किसी परिवर्तनकामी लक्ष्य के लिए श्रमिक संगठित प्रयास करते हैं तो उन्हें स्वाभाविक रूप अपने प्रतिद्विंद्वियों के अलावा उन सांस्कृतिक-सामाजिक अवरोधों से भी संघर्ष करना पड़ता है, जो समाजीकरण की सुदीर्घ परंपरा में जन्मे हैं, जिन्हें एकाएक बदल पाना संभव ही नहीं होता। विकास की राह में आगे बढ़ने के लिए मनुष्य को इन अवरोधों से गुजरना ही पड़ता है। वैसे भी विकास सीधी-सादी प्रक्रिया न होकर अनेकानेक जटिल प्रक्रियाओं की देन होता है। इसलिए विकास की ओर बढ़ता समाज भविष्य में कब, कौन-सा रूप धारण कर लेगा, इसके बारे में सटीक परिकल्पना कर पाना असंभव होता है। खासकर तब जब पूंजीवाद नए पैंतरों के साथ कदम-कदम पर चुनौती बनकर खड़ा हो। ऐसे पूंजीवाद का सामना करने के लिए वर्ग संघर्ष की साम्यवादी चेतना को भी नए हथियारों से लैस होना पड़ेगा। आंदोलन के नए क्षेत्रों की पड़ताल करनी होगी। ग्राम्शी के अनुसार सुनियोजित पूंजीवाद ने(श्रम-आंदोलनों के लिए) न केवल ठोस रियायतें दी हैं, बल्कि एक विस्तृत जनसमाज की सरंचना में भी उसकी भूमिका रही है, जिसमें श्रम-संगठनों का सघन जाल, राजनीतिक दल, सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली, लोकप्रिय समाचारपत्र तथा अनेकानेक स्वयंसेवी संस्थाएं भी सम्मिलित हैं, जिनके प्रति श्रमिक वर्ग की भी सहमति रही है। आने वाले समय में वर्ग-संघर्ष केवल राज्य की सत्ता हथिया लेने तक सीमित नहीं रहेगा। उसे मात देने के लिए 'सीधी लड़ाई' से काम नहीं चलने वाला। बल्कि उसकी जगह लेने के लिए लंबी और सोची-समझी लड़ाई लड़नी पड़ेगी। जिसमें वर्तमान सामाजिक-आर्थिक संस्थाओं में आमूल परिवर्तन तथा उनका नए सिरे से संगठन अनिवार्य होगा जो पूरी तरह से समाजवादी आदर्श के प्रति समर्पित हो।'
ग्राम्शी ने मार्क्सवाद की अतिशय अर्थकेंद्रिक प्रवृत्ति को इटली के श्रमिक-संघों की आलोचना का आधार भी बनाया है। अपने विश्लेषण को आगे बढ़ाते हुए उसने लिखा था कि इटली के अधिकांश श्रमिक नेता स्वयं को गर्व के साथ सुधारवादी कहते थे। यह देखा जाए तो बुरा भी नहीं है। लेकिन वे बिसार देते हैं कि श्रम-सुधार के वृहद लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक, अर्थात तीन मोर्चों पर अनवरत संघर्ष अपरिहार्य है, जबकि इटली के श्रम-संगठन केवल आर्थिक असमानता की खाई को पाटने का लक्ष्य-संधन करते रहे। राजनीति और सामाजिक समानता के लक्ष्य को उन्होंने अपने संघर्ष-क्षेत्र में सम्मिलित ही नहीं किया। यही कारण है कि वे वास्तविक सफलता से अभी तक वंचित हैं। ग्राम्शी को श्रम-संगठनों की उपयोगिता एवं क्षमताओं पर पूर्ण विश्वास था। वह उन्हें पूंजीवादी आधिपत्य से जूझने के लिए निर्णयकारी शक्ति मानता था। उसे इस बात का क्षोभ था कि श्रमिक नेता व्यवस्था में आमूल परिवर्तन की अपेक्षा उसके भीतर महज कुछ सुधारों की मांग कर रहे हैं। यह अनपेक्षित और सर्वहारा विरोधी कृत्य है। इस तरह वे पूंजीवाद से मुक्ति पाने के बजाय उसे बचाए रखने का माध्यम बने हुए हैं। ऐसे श्रम संगठनों को उसने 'अशिष्ट अर्थसत्तावादी' कहा है। उसके अनुसार श्रम संगठनों को 'श्रम-सुधार' की अपेक्षा 'श्रम-मुक्ति' की मांग पर जोर देना चाहिए और अपनी शक्ति एवं ऊर्जा का उपयोग श्रम-मुक्ति के निमित्त किया जाना चाहिए। उल्लेखनीय है कि श्रम-मुक्ति का सपना मार्क्स भी देखता है। 'पूंजी' के प्रथम खंड में उसने इसपर विस्तार से चर्चा की है। लेकिन मार्क्स की श्रम-मुक्ति की अवधारणा श्रमिक पूंजीवाद के चंगुल से बाहर आ जाने तक सीमित है, जबकि ग्राम्शी के लिए श्रम-मुक्ति का विचार केवल आर्थिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं था। उसके लिए श्रम-मुक्ति का आशय आर्थिक मुक्ति के साथ-साथ राजनीतिक और सामाजिक स्वाधीनता से भी जुड़ा था। इसको उसने सांस्कृतिक आधिपत्य से मुक्ति की अवस्था कहा है।
ऐतिहासिक भौतिकवाद की आलोचना
बीसवीं शताब्दी में मार्क्सवाद जैसे-जैसे संसार में फैला, हर जगह वह अपने अनुयायी बनाता चला गया। उसका बौद्धिक प्रभामंडल इतना चकाचौंध-युक्त था कि जो भी उसके विचारों के संपर्क में आया, वह या तो अनुयायी बना अथवा तीव्र आलोचक। मार्क्स के समर्थकों में ऐसे अनेक लोग हुए जिनके लिए उसका लिखा एक-एक शब्द आप्तवचन था। उसमें जरा-भी संशोधन, तनिक-सा व्यतिरेक उन्हें स्वीकार नहीं है। दूसरी ओर ऐसे विद्वान बिरले ही हुए हैं जिन्होंने मार्क्स की अद्वितीय प्रतिभा का लोहा तो माना, उसके विचारों से सहमति भी रही, बल्कि सामाजिक परिवर्तन के बृहद लक्ष्य के लिए उन्होंने मार्क्स के विचारों, बिना उसके बौद्धिक प्रभामंडल की चकाचौंध से प्रभावित हुए, उसका समर्थन-अनुसरण भी किया-बावजूद इसके जिन बिंदुओं पर उनकी मार्क्स से असहमति रही, उन पर खुलकर विमर्श भी किया, बिना यह सोचे कि आलोचना उनके अपने ही संगठन को नुकसान पहुंचा सकती है, मार्क्सवाद के विरोधियों को आलोचना के नए तर्क दे सकती है; या संगठन में ही उनके अपने विरोधी खड़े कर सकती है। ग्राम्शी को ऐसे ही मार्क्सवादियों में गिना जा सकता है, जिसने मार्क्स के विचारों से वहीं तक सहमति व्यक्त की, जहां तक वे उसे सही जान पड़े। असहमति के बिंदुओं पर उसने मार्क्स की खुलकर आलोचना भी की है। ग्राम्शी को मार्क्स के विचार जहां अतिशय अर्थकेंद्रित लगते हैं, वहीं वह उसकी ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या से भी असंतुष्ट था। इसलिए उसने मार्क्स के भौतिकवाद की भी आलोचना की है। मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद दरअसल इतिहास की आर्थिक दृष्टिकोण से पड़ताल थी। उसके अनुसार सामाजिक परिवर्तन उत्पादन-प्रविधियों से प्रेरित-प्रभावित होते हैं। अपने प्रारंभ से ही ऐतिहासिक भौतिकवाद बुद्धिजीवियों की आलोचनाओं-प्रत्यालोचनाओं का शिकार रहा है। यह प्रश्न अकसर उठाया जाता है कि क्या जटिल ऐतिहासिक परिवर्तन की व्याख्या मात्र आर्थिक गतिविधियों के एकरैखिक आधार पर की जा सकती है? जिसके अनुसार सामाजिक परिवर्तनचक्र अपनी स्वाभाविक गति से चलता हुआ, जैसा कि मार्क्स ने ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या के दौरान दर्शाया है-उत्पादन के प्राचीन तौर-तरीकों से सामंतवाद, सामंतवाद से पूंजीवाद और फिर पूंजीवाद से साम्यवाद के क्रम में अपनी यात्रा पूरी करता है। यदि यही सच है तो क्या इतिहास-चक्र को उल्टे क्रम में घुमा पाना संभव है? इस तरह क्या साम्यवाद से पूंजीवाद, उसके बाद सामंतवाद और तत्पश्चात उत्पादन की प्राचीनतम पद्धतियों के दौर में समाज की वापसी संभव है? आइंस्टाइन ने सापेक्षिकता के सिद्धांत की व्याख्या करते समय ऐसी संभावना जाहिर अवश्य की थी। लेकिन यह प्रयोगरूप से संभव नहीं हो पाया है। हो पाएगा, यह भी संभव नहीं दिखता। क्योंकि समय एकांगी परिघटना नहीं है। वह अनेकानेक घटनाओं का जटिल समुच्चय है। यदि समय वापस लौटने भी लगे या लौट भी रहा हो उसकी पहचान कर पाना असंभव होगा। क्योंकि उस समय उसमें हो रही घटनाएं वह नहीं होंगी, जो पिछली बार थीं। यदि वह ऊर्जा है, तो भी उसे अपने प्रदर्शन हेतु कोई न कोई आधार चाहिए। इस कारण व्यावहारिक रूप से समय को वापस लौटा पाना असंभव है। मानवेतिहास में ऐसा कोई उदाहरण भी नहीं है। ऐसे में यह कैसे माना जा सकता है कि उत्पादन के उपर्युक्त चरण ही अंतिम हैं, तथा उनको प्रभावित करने वाले अन्य कोई कारण नहीं हैं। आखिर क्या कारण है कि संस्कृति जैसी नितांत काल्पनिक अवधारणा, अपने भीतर अनेकानेक रूढ़ियां छिपाए होने के बावजूद लोगों का दिल जीत लेती है। करोड़ों लोग उससे नेह लगाए रहते हैं। सामाजिक परिवर्तन के इस द्वैध पर ग्राम्शी गंभीरतापूर्वक विचार करता है तथा असहमति के बिंदुओं के आगे प्रश्नचिह्न भी लगाता है।
ऐतिहासिक भौतिकवाद की कमजोरियों को पकड़ते हुए ग्राम्शी लिखता है कि मार्क्स उन स्थितियों पर कोई ध्यान नहीं देता जो मानव-नियंत्रण से बाहर हैं, जिनका मनुष्य से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। भौतिक संसार से बाहर यदि वह किसी अन्य सत्ता का नाम लेता है तो वह है-जनसाधारण का ईश्वर पर विश्वास, जिसके भौतिक रूप में होने की कोई संभावना नहीं है। यदि ईश्वरीय सत्ता का भौतिक साक्ष्य होता तो मार्क्स के लिए धर्म की आलोचना कर पाना संभव ही नहीं होता। ग्राम्शी के अनुसार धर्म की आलोचना करते समय मार्क्स फायरबाख को दोहराता है। उसका अपना कोई ठोस विचार नहीं है। इसलिए उसके द्वारा की गई धर्म की आलोचना के आधार पर यह दावा नहीं किया जा सकता कि वह ईश्वर का विरोधी था। ग्राम्शी धर्म के बजाय संस्कृति पर विचार करने पर जोर देता है। उसके अनुसार संस्कृति एक जटिल प्रत्यय है। इसमें व्यक्ति के देनंदिन व्यवहार के अलावा अध्यात्म, रीति-रिवाज, उत्पादन-प्रविधियां तथा वे सभी संस्कार सम्मिलित हैं, जिन्हें व्यक्ति पिछली पीढ़ी से प्राप्त करता है तथा उतने ही स्नेह-निष्ठा से आगामी पीढ़ी को सौंपने का प्रयत्न करता है। अपने प्रभाव को अक्षुण्ण बनाए रखने, उसे निरंतर प्रभावशाली बनाने पूंजीवाद संस्कृति का ही सहारा लेता है। सांस्कृतिक आधिपत्य के ही प्रभावस्वरूप एक वर्ग यह मान लेता है कि उसका प्रमुख कर्तव्य दूसरे वर्ग के निर्देशन में काम करना है। अतः बिना किसी विरोध के वह दूसरे वर्ग, जो कतिपय विकसित संस्कृति में जीता है, के निर्देशों का पालन करता जाता है। यह गुलामी से स्वैच्छिक समझौता है, जिसे मनुष्य स्थितियों से अनुकूल की अवस्था में बिना किसी प्रतिवाद के निभाए जाता है। शोषणकारी व्यवस्था से समझौतावादी रवैया क्रांति की संभावना को क्षीण करता है। अपने स्थायित्व के लिए बुर्जुआ संस्कृति साहित्य तथा कलाओं को भी अपने नियंत्रण में रखती है। परिणामस्वरूप समाज में छद्म नायक रातों-रात खड़े कर दिए जाते हैं, जो विभेदकारी नीतियों के समर्थक हों। संस्कृति-कर्मी एवं बुद्धिजीवियों का एक वर्ग इन नायकों के महिमामंडन में लगा रहता है। वह उनका बढ़-चढ़कर बखान करता है। वैकल्पिक संस्कृति के अभाव में लोकमानस विभ्रम का शिकार होकर धीरे-धीरे यथास्थितिवाद का समर्थन करने लगता है। इससे विकास के वास्तविक लक्ष्य काफी पीछे छूट जाते हैं और विमर्श के दायरे में ऐसी चीजें आ जाती हैं, जिनका मनुष्य के विकास से कोई संबंध नहीं होता।
ग्राम्शी के अनुसार सांस्कृतिक हीनताबोध एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति की दासता के लिए विवश करता है। अतएव पूंजीवाद से मुक्ति के निमित्त संस्कृति आधिपत्य से मुक्ति अपरिहार्य है। उसके अनुसार यद्यपि यह आवश्यक नहीं है कि सांस्कृतिक प्रतीकों में पूंजीपति वर्ग की अपनी भी कोई आस्था हो, तथापि वह सदैव इस प्रयास में रहता है कि सांस्कृतिक प्रतीकों, प्रत्ययों तथा उनकी शैलीगत विशेषताओं को विमर्श के दायरे में बनाए रखा जाए। इसलिए वह उन्हें चर्चा में बनाए रखने का कोई न कोई निरंतर आयोजन रचता रहता है। भाड़े के बुद्धिजीवी और संस्कृतिकर्मी उसके सहायक बनते हैं। आवश्यकता पड़ने पर वह सांस्कृतिक प्रतीकों का व्यावसायिक लाभ उठाने का भरपूर प्रयास करता है। संस्कृति के मानक चूंकि बहुतायत की जीवनशैली को नियंत्रित करते हैं, इसलिए वह उनके प्रति अपनी निष्ठा जताने, उनका सम्मान तथा प्रचार-प्रसार को अपनी वाणिज्य-नीति का हिस्सा बना लेता है। परिणाम यह होता है कि जनसमाज अपने विकास के वास्तविक लक्ष्य से भटक जाता है। सामाजिक बहस के केंद्र में ऐसे मुद्दे सायास पैदा कर दिए जाते हैं, जिनका विकास से दूर तक कोई नाता नहीं होता। किसी कारणवश यदि सांस्कृतिक विक्षोभ की स्थिति उत्पन्न होती है, व्यक्ति उन आरोपित प्रतीकों को ही वास्तविक मानकर उनके माध्यम से विकास की ओर उन्मुख होने का प्रयास करता है तो वह तत्काल उसके समर्थन में खड़ा हो जाता है। इस बार वह संस्कृति संरक्षण को अपने वणिज का हिस्सा बनाता है; तथा जनसमाज का नए सिरे से दोहन करने लगता है। ग्राम्शी के अनुसार सांस्कृतिक हीनताबोध एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति की दासता के लिए विवश करता है। अतएव पूंजीवाद से मुक्ति के निमित्त संस्कृति आधिपत्य से मुक्ति अपरिहार्य है। उसके अनुसार यद्यपि यह आवश्यक नहीं है कि सांस्कृतिक प्रतीकों में पूंजीपति वर्ग की अपनी भी कोई आस्था हो, तथापि वह सदैव इस प्रयास में रहता है कि सांस्कृतिक प्रतीकों, प्रत्ययों तथा उनकी शैलीगत विशेषताओं को विमर्श के दायरे में बनाए रखा जाए। इसलिए वह उन्हें चर्चा में बनाए रखने का कोई न कोई निरंतर आयोजन रचता रहता है। भाड़े के बुद्धिजीवी और संस्कृतिकर्मी उसके सहायक बनते हैं। आवश्यकता पड़ने पर वह सांस्कृतिक प्रतीकों का व्यावसायिक लाभ उठाने का भरपूर प्रयास करता है। संस्कृति के मानक चूंकि बहुतायत की जीवनशैली को नियंत्रित करते हैं, इसलिए वह उनके प्रति अपनी निष्ठा जताने, उनका सम्मान तथा प्रचार-प्रसार को अपनी वाणिज्य-नीति का हिस्सा बना लेता है। परिणाम यह होता है कि जनसमाज अपने विकास के वास्तविक लक्ष्य से भटक जाता है। सामाजिक बहस के केंद्र में ऐसे मुद्दे सायास पैदा कर दिए जाते हैं, जिनका विकास से दूर तक कोई नाता नहीं होता। किसी कारणवश यदि सांस्कृतिक विक्षोभ की स्थिति उत्पन्न होती है, व्यक्ति उन आरोपित प्रतीकों को ही वास्तविक मानकर उनके माध्यम से विकास की ओर उन्मुख होने का प्रयास करता है तो वह तत्काल उसके समर्थन में खड़ा हो जाता है। इस बार वह संस्कृति संरक्षण को अपने वणिज का हिस्सा बनाता है; तथा जनसमाज का नए सिरे से दोहन करने लगता है - 'एक सामाजिक व्यवस्था है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कितना विस्फोटक है। उसे समझ पाना कठिन है, ठीक ऐसे ही जैसे किसी कपटी और दुष्कर्मी शासक की छलनीति को समझना आसान नहीं होता। वह हमें सिखाता है कि शासक वही सक्षम है जो बिना किसी बाहरी दबाव के समाज को कर्मोन्मुखी बनाए, लोगों को कर्तव्यपथ पर चलना सिखाए।'
अंत में एक स्वाभाविक-सा प्रश्न उठता है कि मार्क्सवाद से तीखे मतांतरों के बावजूद क्या ग्राम्शी को समाजवादी माना जा सकता है। इसका उत्तर तो निस्संदेह 'हां' में ही होगा, हालांकि समाजवादी विचारक के रूप में ग्राम्शी के योगदान को अभी पूरी तरह से रेखांकित किया जाना बाकी है। दूसरे विश्वयुद्ध के उपरांत 'इटली कम्युनिस्ट पार्टी' की बागडोर संभालने वाले, 'यूरो कम्युनिज्म' के समर्थक तोगलियाती के अनुसार उन दिनों इटली की कम्युनिस्ट पार्टी की अधिकांश गतिविधियां ग्राम्शी के विचारों के अनुकूल थीं। बल्कि कहा जा सकता है कि इटली का साम्यवादी आंदोलन की ग्राम्शी के चिंतन पर टिका था। इस कारण उसे निःशंक समाजवादी माना जा सकता है। कुछ विद्वानों के अनुसार ग्राम्शी वस्तुतः उग्र वामपंथी था। उन विद्वानों के अनुसार यदि उसे जेल में न भेजा गया होता तो मार्क्सवाद की तीखी आलोचना, अपने मौलिक एवं प्रखर समाजवादी चिंतन लिए भी उसका गिरफ्तार कर लिया जाना अवश्यंभावी था। आखिर हुआ भी ऐसा ही था। मार्क्सवादी संगठनों में ग्राम्शी के विचार पहले ही उपेक्षित थे, विशेषकर उन विद्वानों के बीच जो मार्क्सवाद की परंपरागत परिभाषा से परे कुछ सोचना ही नहीं चाहते थे। बावजूद इसके ग्राम्शी के बौद्धिक प्रभामंडल की उपेक्षा कर पाना उसके कट्टर विरोधियों के लिए भी संभव नहीं है। उसके योगदान का आकलन मार्क्सवाद के अधूरेपन को भरने, उसे अकादमिक गांभीर्य प्रदान करने के लिए भी किया जाना चाहिए; और इसलिए भी कि उसने पूंजीवाद की आलोचना के नए और मौलिक औजार बुद्धिजीवियों को दिए। ग्राम्शी पर मार्क्सवाद के क्रियात्मक चरित्र को अधिक जटिल बनाने का आरोप भी लगाया जा सकता है, जिससे मार्क्स का दर्शन जो शोषणकारी व्यवस्था से मुक्ति हेतु सीधी कार्रवाही पर जोर देता था, वह अधिक शालीन और बौद्धिक बना। मैकियावैली, हेनरी बर्गंसा, जार्ज सोरेल, विल्फ्रेड पारटो से प्रभावित ग्राम्शी ने बीसवीं शताब्दी के असंख्य बुद्धिजीवियों को प्रभावित किया है। मौलिक सोच और निर्भीक अभिव्यक्ति के कारण ही उसे गत शताब्दी के कतिपय सर्वाधिक मौलिक, प्रतिभावान मार्क्सवादी चिंतक का सम्मान दिया जाता है। उसका कहना था कि 'आधुनिकता की सबसे बड़ी चुनौती है कि हम न तो स्वयं भ्रमित हों, न दूसरों को भ्रम में डालने का काम करें।' थॉमस बेट ने ग्राम्शी के विपुल लेखन का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि ग्राम्शी का लेखन 'एक सामाजिक व्यवस्था है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कितना विस्फोटक है। उसे समझ पाना कठिन है, ठीक ऐसे ही जैसे किसी कपटी और दुष्कर्मी शासक की छलनीति को समझना आसान नहीं होता। वह हमें सिखाता है कि शासक वही सक्षम है जो बिना किसी बाहरी दबाव के समाज को कर्मोन्मुखी बनाए, लोगों को कर्तव्यपथ पर चलना सिखाए।'
अपने इसी चिंतनशील लेखन के लिए ग्राम्शी इकीसवीं शताब्दी के समाजवादी, मानवतावादी विचारकों में शीर्ष स्थान रखता है। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि मार्क्सवाद के कट्टर समर्थक उसे समाजवादी मानते हैं अथवा नहीं। परंतु आधुनिक समाज की विसंगतियों, असमानता आदि को समझने के लिए उसका 'सांस्कृतिक आधिपत्य' का सिद्धांत, मार्क्सवादी दर्शन की उन खाइयों को पाटने की बेहतरीन कोशिश है, जो मार्क्स के अतिशय पूंजीकेंद्रित चिंतन द्वारा जन्मी थीं। यूरोप के अलावा विश्व के अन्य भागों में मशीनीकरण उतना उग्र रूप नहीं धारण कर पाया था। वहां आर्थिक असमानता होने के बावजूद स्थितियां भिन्न थीं। इससे वहां के नेताओं और विचारकों ने मार्क्सवाद को अपनी-अपनी स्थितियों के अनुसार संशोधित कर काम चलाया। ग्राम्शी इन स्थितियों पर व्यापक संदर्भ में चर्चा करता है। हालांकि परिस्थितियोंवश अपने विचारों को वैकल्पिक दर्शन का रूप देने में नाकाम भी रहता है। मगर इससे उसकी प्रतिभा और जनकल्याण के प्रति समर्पण की भावना को हल्का करके नहीं आंका जा सकता। इतिहास का काम स्मृतियों को सहेजना है। इसलिए वह ग्राम्शी के साथ-साथ तानाशाह मुसोलिनी की यादों को सहेजने का भी समान उपक्रम करेगा। उसे करना भी चाहिए। लेकिन तानाशाह की कटु स्मृतियों में जहां मनुष्यता की आह सुनाई देगी, वहीं लेखक-विचारक ग्राम्शी को पढ़ते हुए पाठक की आंखों में एक खूबसूरत सपना अंगड़ाई लेने लगेगा। उसका संदेश भी रुपहला होगा, ठीक ऐसे जैसे पौ फटने से पहले आसमान का नजारा होता है।