Thursday 25 July 2013

सपनों की बाइबिल

 सिल्विया प्लाथ

रोजाना सुबह नौ बजे से शाम पाँच बजे तक मैं अपनी सीट पर बैठी दूसरों के ख्‍वाब टाइप करती रहती रही हूँ। मुझे इसीलिए मुलाजिम रखा गया है। मेरे अफसरों का हुक्‍म है कि मैं तमाम चीजें टाइप करूँ। ख्‍वाब, शिकायतें, माँ से मतभेद, बोतल और बिस्‍तर की समस्‍याएँ, बाप से झगड़ा, सरदर्द जो इतना तेज हो जाता है कि दुनिया की तमाम लज्‍जतें मंद पड़ जाती हैं, हमारे दफ्तर में सिर्फ वही लोग आते हैं जिनके घरों में अजाब भर चुके होते हैं।

मुमकिन है कि चूहा अपने जिस्‍मानी एतबार से बहुत समझ जाता हो कि दूर से आते दिखाई देनेवाले दो बड़े पाँव कायनात का निजाम किस तरह चलाते हैं, लेकिन जहाँ से दुनिया को देखती हूँ वहाँ से यही मालूम होता है कि दुनिया के निगहबान का नाम 'परेशान' है।

परेशानी की भी शक्‍ल हो सकती है। कुत्‍ता, तवायफ, चुड़ैल, शैतान... सो जाए या जागता रहे, वो परेशान ही रहता है।

जब लोग सवाल करते हैं कि मैं कहाँ काम करती हूँ, तो मैं उन्‍हें बताती हूँ कि मेरा काम शहर के अस्‍पताल के एक शोबे का रिकार्ड दुरुस्त रखना है। आमतौर पर ये जवाब काफी साबित होता है। इसके बाद कोई इस तरह की बात नहीं पूछता जिसके जवाब में मुझे बताना पड़े कि मैं पहले से मौजूद रिकार्ड की निगहदाश्‍त के अवाला नया रिकार्ड भी टाइप करती हूँ। दरअसल नया रिकार्ड टाइप करना ही मेरा पेशा है और मैं अपने पेशे से सच्‍चे दिल से जुड़ी हूँ। इसलिए कि मेरी तहवील में ख्‍वाबों के ढेर हैं और मैं किसी को ये नहीं बता सकती। नहीं बता सकती कि मैं अपने घर के कमरे में अस्‍पताल के कानूनों की पाबंद नहीं हूँ। यहाँ मैं फकत 'परेशान' के हुक्‍म पर अमल करती हूँ जो ख्‍वाब जमा करने की हिदायत करता है।

ख्‍वाब-दर-ख्‍वाब मैं बालिग हो रही हूँ और इसी रफ्तार से ख्‍वाबों से मेरी पहचान में इजाफा हो रहा है। ये सिलसिला जारी रहा तो एक दिन मैं दुनिया की सबसे बड़ी ख्‍वाब जाननेवाली बन जाऊँगी। लेकिन ख्‍वाब जानने की इंतिहा पर पहुँच कर भी मैं लोगों के ख्‍वाब रोकने की कोशिश नहीं करूँगी। ख्‍वाबों का नाजायज इस्‍तेमाल नहीं करूँगी। यहाँ तक कि मैं ख्‍वाबों का नतीजा बताने का भी कोई इरादा नहीं रखती। मैं तो सिर्फ ख्‍वाब जमा करना चाहती हूँ। उन्‍हें पहचानना चाहती हूँ। उनसे मुहब्‍बत करना चाहती हूँ। मैं 'परेशान' की कारकुन हूँ और ख्‍वाब जमा करना मेरे फर्ज में शामिल है। यही वजह है कि मैं अपने टाइपशुदा ख्‍वाब इतनी बार पढ़ती हूँ कि वो मुझे जबानी याद हो जाते हैं। फिर मैं घर जा कर उन्‍हें 'परेशान' की पवित्र किताब में दर्ज करती हूँ।

कभी-कभी मैं रात के वक्‍त अपने घर की छत पर चली जाती हूँ। वहाँ से नींद भरे शहर को देखना मुझे अच्‍छा लगता है। छत पर टहलते हुए वायलिन के तार की तरह हर वक्‍त लरजने के लिए तैयार रहती हूँ। सुबह के आसार नमूदार होने पर थकन से चूर अपने बिस्‍तर पर आती हूँ और किसी बुखारजदा शख्‍स की तरह हो जाती हूँ। शहर में मौजूद इंसानी सरों का शुमार और फिर उन सरों में आनेवाले नकली ख्‍वाबों का हिसाब मुझे बेइंतिहा थका देता है।

दूसरे दिन मुझे वही ख्‍वाब टाइप करने होते हैं जिन्‍हें मैं रात अपनी छत से महसूस कर चुकी हूँ। यकीनन शहर भर के ख्‍वाब असीम हैं और मैं शाम तक फकत उनका एक मामूली हिस्‍सा टाइप कर सकती हूँ, लेकिन इसके बावजूद मेरे दफ्तर में फाइलों का अंबार बढ़ता जा रहा है और बहुत जल्‍द वो दिन आने वाला है जब दफ्तर में सिवाय ख्‍वाबों की फाइलों के कोई दूसरी चीज रखने की जगह नहीं बचेगी।

यूँ भी होता है कि मैं लोगों को उनके ख्‍वाबों के हवाले से पहचानने लगती हूँ। बहुत-से मरीज ऐसे होते हैं कि मैं उनके नाम भूल जाती हूँ, लेकिन उनके ख्‍वाब याद रहते हैं। मसलन ये आदमी जो एक फैक्‍ट्री में काम करता है, ख्‍वाब में खुद को किसी मशीन के घूमते पहियों में फँसा हुआ महसूस करता है। ये ख्‍वाब में इतना खौफजदा हो जाता है कि आँख खुलने के बाद भी कुछ देर तक चीखता रहता है। इस तरह के लोग और भी हैं जो ख्‍वाब में देखते हैं कि वो किसी मशीन तले रौंदे जा रहे हैं या कोई ईजाद उन्‍हें निगल रही है। कभी-कभी ख्‍याल आता है कि जब मशीनें नहीं थीं उस वक्‍त लोग किस तरह के ख्‍वाबों से डरते होंगे?

मेरा अपना भी एक ख्‍वाब है। इस ख्‍वाब में एक बहुत बड़ी झील नजर आती हैं। इतनी बड़ी कि इसके किनारे हेलीकॉप्‍टर की शीशेवाली सीट से भी नजर नहीं आते जहाँ से मैं उसकी तह में झाँकती हूँ। झील का पानी खौफनाक बलाओं से भरा हुआ है। ऐसी बलाएँ जो पुराने जमाने में जमीन की सतह पर घूमती थीं। वो जमाना जब इंसान गुफाओं में रहता था। अभी उसने आग नहीं जलाई थी, फसल नहीं उगाई थी।

इस ख्‍वाब में सूरज चाँद सितारे और जमीन-आसमान के दरमियान पाई जानेवाली दूसरी तमाम चीजों की शक्‍लें और खासियत बदली हुई दिखाई देती हैं। अचानक झील की सतह बर्फ से ढक जाती है और मेरे हाथ-पाँव ठंडे पड़ने लगते हैं, यहाँ तक कि मैं जाग जाती हूँ। इस ख्‍वाब से निकलने के बाद कुछ देर तक किसी भी ख्‍वाब में अर्थ तलाश करना बेकार लगता है।

यही वो झील है जहाँ रात के वक्‍त शहर भर के ख्‍वाब बहते हुए आते हैं, यहाँ पहुँच कर तमाम दिमागों का गर्द व गुबार बैठ जाता है। जाहिर है कि ये झील शहर के आसपास पाए जानेवाले पीने के शफ्फाक पानी के उन जखीरों जैसी नहीं हो सकती जिनकी दिन-रात यूँ हिफाजत की जाती है जैसे वो काँटेदार जाली में रखे अनमोल हीरे हों, ये एक मुख्‍तलिफ झील है। सदियों के जमाशुदा गलते-सड़ते ख्‍वाबों से इस झील का पानी मटमैला और बदबूदार हो गया है और इसकी सतह से हर वक्‍त धुआँ उठता रहता है।

एक सर में रात भर में कितने ख्‍वाब आते हैं? और शहरी सरों की कुल तादाद क्‍या है? और दुनिया में इस तरह के कितने शहर पाए जाते हैं? और जमीन पर कितनी रातें गुजर चुकी हैं? मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो गणित में तेज होते हैं और बड़ी-बड़ी संख्‍याओं का पल भर में हिसाब लगा लेते हैं। मैं तो सिर्फ इस एक शहर में रात भर देखे जानेवाले ख्‍वाबों का शुमार करती हूँ, तो मेरा सर चकरा जाता है।

ये अजीब झील हैं। इसमें प्‍यार करनेवालों के चेहरे और फूली हुई लाशें और यादें और धुंध और धुआँ पुर्जे और साइंसी ईजादें और नफा-नुकसान एक-दूसरे से लिपटे तैरते रहते हैं और कभी-कभी मुझे इसमें मुर्दा पैदा होनेवाले बच्‍चे भी नजर आते हैं। मुर्दा पैदा होनेवाले बच्‍चे देख कर ऐसा लगता है जैसे वो झील की दूसरी तरफ बैठे महान रचनाकार के नामुकम्‍मल संदेश हों।

इस झील को कोई भी नाम दे लो। दुनिया के सारे लोग एक बिरादरी की सूरत में सिर्फ यहाँ नजर आते हैं। एक समूह, एक ढेर, एक समझ में न आनेवाला अंबार जो सोते में बिल्‍कुल एक चीज का बना लगता है, लेकिन ज्‍यों ही जागता है जुदा-जुदा हो जाता है। झील की इकाई में सब पाक हो जाते हैं, मगर जागते में उनको दोबारा अपनी-अपनी शख्सियत का लबादा ओढ़ना पड़ता है।

झील का ख्‍वाब मेरा जाती ख्‍वाब है। इसे मैं किसी रिकार्ड में दर्ज नहीं करूँगी। किसी फाइल में दफ्न नहीं होने दूँगी।

अहम बात ये है कि अस्‍पताल के जिस शोबे में मुझे नौकरी मिली है वो दूसरे शोबे में मुझे नौकरी मिली है वो दूसरे शोबों से बहुत मुख्‍तलिफ है। हमारे शोबे में दवाएँ नहीं दी जातीं, मरीज से सिर्फ मुफ्तगू की जाती है, उसकी सुनी जाती है, उसे महसूस किया जाता है। मुझे अपने शोबे का तरीका पसंद है। ये उन जिस्‍मानी बीमारियोंवाले शोबों के तरीके से बेहतर है जहाँ रंगीन घोल और पाउडर के ढेर लगे होते हैं। हमारे अस्‍पताल की इमारत नीम अँधेरी और तंग है जिसके कारण कभी-कभी दूसरे शोबों के मरीज और डॉक्‍टर भी हमारे कमरों में अस्‍थाई तौर पर आ जाते हैं। ऐसे दिनों में हमारे शोबे की अहमियत बढ़ जाती है।

मंगल और बुध के रोज जगह की कमी के सबब ऑपरेशनवाले मरीजों के पलंग हमारे शोबे के हॉल में खड़े कर दिए जाते हैं। टाइपिंग के दौरान मेरी नजर बार-बार उनकी तरफ उठ जाती है। जिस जगह मैं बैठती हूँ वहाँ से मरीजों के पाँव नजर आते हैं। सुर्ख कंबलों और सफेद चादरों से निकले साफ-सुथरे पीले पैरों की लंबी कतार।

किसी-किसी दिन स्‍नायु रोगियों के शोबेवाले भी हमारा कोई कमरा इस्‍तेमाल करते हैं। ये मरीज अजीबोगरीब बोलियाँ बोलते हैं। लैटिन और चीनी जबानों के गाने गाते हैं और सारा वक्‍त शोर मचाते रहते हैं। अगर ऐसे मरीजों की जिस्‍मानी हालत दुरुस्त साबित हो जाए तो स्‍नायु रोगियों के माहिर उन्‍हें हमारे शोबे में भेज देते हैं।

इन दुश्‍वारियों के बावजूद मैं अपने काम से गाफिल नहीं होती। सर झुकाए लगातार दूसरों के ख्‍वाब टाइप करती चली जाती हूँ। अब तो मेरे पास मरीजों के ख्‍वाबों के अलावा अपने भी एक से ज्‍यादा ख्‍वाब जमा हो चुके हैं। ये ख्‍वाब मैंने खुद रचे हैं। लेकिन मैं इन ख्‍वाबों को खुद से भी नहीं दोहराऊँगी। कुछ अर्से तक इन्‍हें उस बुत की तरह वक्‍त गुजारना होगा जो अपनी नकाब की रस्‍म से एक लम्‍हा पहले तक मखमल के सुर्ख कपड़े में सर से पाँव तक ढका रहता है।

मैं जो भी ख्‍वाब हासिल करती हूँ, जिस तरह भी हासिल करती हूँ - उस पर 'परेशान' के दस्‍तखत जरूर होते हैं। 'परेशान' को ड्रामाई अंदाज में जाहिर होना पसंद है। हरचंद कि वो जाहिर होने के लिए मुख्‍तलिफ जगहों और वक्‍तों का चुनाव करता है। मगर कोई जगह कोई वक्‍त हो, वो हमेशा ड्रामाई अंदाज में सामने आता है।

ख्‍वाबों का कारोबार बहुत खतरनाक होता है। अगर 'परेशान' अपनी तरफ से उसमें शायरी शामिल न कर दे तो ये कारोबार नाकाबिले-बरदाश्‍त हो जाए। ख्‍वाबों के कारोबार में शायरी शामिल करने पर मैं 'परेशान' की शुक्रगुजार हूँ।

चमड़े की जैकेट में उस नौजवान ने बताया था कि उसके ख्‍वाब... लेकिन मैं ये कैसे कह सकती हूँ कि ये उस नौजवान का ख्‍वाब है जो उस रोज स्‍याह जैकेट पहने हमारे क्लिनिक में दाखिल हुआ था? मुझे यकीन है कि ये उसका जाती ख्‍वाब है।

दिल में यकीन का जज्‍बा हो तो ताकत और इल्तिजाओं और आँसुओं से ख्‍वाब तहरीर किए जा सकते हैं। दूसरों के ख्‍वाब टाइप करना आसान काम है लेकिन जाती ख्‍वाब लिखने में बहुत ऊर्जा लगती है।

अस्‍पताल के सेंटर में एक और शोबा है जो हमारे शोबे से भी ज्‍यादा अहमियत रखता है, जिसके ख्‍वाब हमारे बस में न आ सकें उसे हम इमारत के सेंटर में भेज देते हैं। मैंने अस्‍पताल का वो शोबा आज तक नहीं देखा। हरचंद कि उसकी सेक्रेटरी मेरी पहचान की है (हम दोनों एक ही हॉल में दोपहर का खाना खाते हैं)। मगर उसका हुलिया और उठने-बैठने का अंदाज मुझे उससे दूर रखता है। उसका नाम भी अजीब-सा है। मैं अक्‍सर उसका नाम भूल जाती हूँ। कुछ इस तरह का नाम जैसे : मिलरवेज या मिलरोज। इस तरह के नाम टेलीफोन डायरेक्‍टरी में नजर नहीं आते।

मैंने एक बार टेलीफोन डायरेक्‍टरी के पन्‍ने पलटे थे और ये देख कर खुश हुई थी कि शहर में बहुत-से लोग ऐसे भी हैं जिनका नाम स्मिथ नहीं है।

बहरहाल ये मिलरवेज या मिलरोज नाम की औरत बड़ी सेहतमंद और ऊँची-लंबी है। इसका लिबास आम लिबास के बजाय किसी संस्‍था की वर्दी मालूम होता है (जरूरी नहीं कि ये संस्‍था कोई कानून लागू करती हो)। मिलरोज के संगीन चेहरे पर चंद गैरमामूली तिल भी हैं। ये तिल देख कर ख्‍याल आता है कि शायद मिलरोज का चेहरा सूरज की रोशनी में बहुत कम रहा है। धूप की तपिश हासिल न हो तो जिल्‍द पर तरह-तरह के दाग पड़ जाते हैं। मुमकिन है मिलरोज ने नकली रोशनियों तले परवरिश पाई हो। अगर इसके चेहरे से इसकी आँखें नोचने की कोशिश की जाए तो महसूस होगा जैसे कोई पत्‍थर खुरच रहा हैं।

मेरे वार्ड की हैड सेक्रेटरी का नाम मिस टेलर है। मिस टेलर पहले दिन से हमारे वार्ड से जुड़ी है। अजब इत्तिफाक है कि जिस दिन मैं पैदा हुई थी उसी रोज वार्ड का उदघाटन हुआ था। मिस टेलर अस्‍पताल के बारे में हर चीज जानती है। वो इसके तमाम डॉक्‍टरों, मरीजों, शोबों और मन्‍सूबों से वाकिफ है। अपने पेशे में इतनी लगन मैंने किसी और में नहीं देखी। वो अस्‍पताल में मौजूद हर जानदार और बेजान शै का हिसाब रखती है। उसे तमाम वक्‍त गणना में घिरा देख कर मुझे हैरत होती है।

दफ्तर में मेरी दिलचस्‍पी सिर्फ ख्‍वाब जमा करने की हद तक है। मुझे यकीन है अगर अस्‍पताल में आग लग जाए तो मिस टेलर खुद को बचाने से पहले आँकड़ों की फाइलें बचाने की कोशिश करेगी। मेरे और मिस टेलर के मशगले मुख्‍तलिफ होने के बावजूद हमारे आपस के तल्‍लुकात खुशगवार हैं। बस, मैं ये नहीं चाहती कि वो मुझे दफ्तर की फाइलों में पुराने ख्‍वाब पढ़ते देख ले। आम तौर पर शोबा बेपनाह मसरूफ रहता है, लेकिन फिर भी मुझे कभी-कभी ख्‍वाबों के पुराने रिकार्डो में झाँकने का मौका मिल ही जाता है। मगर इतनी उतावली में अनोखे और अछूते ख्‍वाबों का चनाव एक मुश्किल काम है। मेरे आर्ट का तकाजा है कि मैं फुर्सत से बैठूँ, ख्‍वाबों की गहराई में उतरूँ, उनके सारे पहलुओं को जाँचूँ, उन्‍हे हर कोण से परखूँ और फिर जिन ख्‍वाबों को हर तरह से मुकम्‍मल पाऊँ, उन्‍हें घर ले जा कर ख्‍वाबों की पवित्र किताब में दर्ज कर दूँ। अगर शराब का स्‍तर बतानेवाले जानकार पहली बूँद चखने से पहले एक घंटे तक शराब की खुशबू सूँघ सकते हैं तो मैं ख्‍वाबों के सिलसिले में इस फुरर्सत और सहूलत से क्‍यों महरूम हूँ?

कभी-कभी मेरा जी चाहता है की मैं एक बड़ा ट्रंक लाऊँ और ख्‍वाबों की सारी फाइलें उसमें भर कर ले जाऊँ। अस्‍पताल के गेट पर गैरमामूली किस्‍म की पोटलियों ओर बंडलों को खुलवा कर देखा जाता है और स्‍टाफ के चंद दूसरे लोग भी सरकारी सामान की निगरानी पर लगे हैं। मगर मैं टाइपराइटर या कोई कीमती दवा वगैरह चुराने का मन्‍सूबा नहीं बना रही। मैं तो बस पुराने ख्‍वाबों की फाइलें एक रात के लिए घर ले जाउँगी और दूसरी सुबह उन्‍हें उसी तरतीब से दोबरा अलमारी में सजा दूँगी। इसमें किसी का क्‍या नुकसान हैं? यूँ तो मैं ख्‍वाबों में फकत झाँकने से भी बहुत कुछ मालूम कर सकती हूँ, लेकिन मिस टेलर के आने-जाने का कोई वक्‍त मुकर्रर नहीं है, जिसके सबब मैं हर आहट और सरगोशी पर चौंक जाती हूँ और इस तरह मैं चंद लम्‍हों के लिए भी अपना शौक पूरी तवज्‍जो से पूरा नहीं कर पाती।

उदास दिनों में जब मेरे पास इतना वक्‍त भी नहीं होता कि पुरानी फाइलों से किसी ख्‍वाब की एक झलक ही देख लूँ, परेशान मेरी तरफ पीठ करके पहाड़ों जितना बुलंद हो जाता है और मुझ पर इतना खौफ तारी होता है कि मैं अपने होश गुम कर बैठती हूँ।

ऐसे मौके पर मेरी हालत उन भेड़ों की-सी होती है जो आँखों के सामने उगी घास चरने में इस कदर मशगूल हो जाती हैं कि चरागाह के आखिरी सिरे पर कुर्बानी के चबूतरे की मौजूदगी के आखिरी लम्‍हे तक बेखबर रहती हैं।

इससे ज्‍यादा खतरनाक बात ये है कि डॉक्‍टर हर रोज परेशान के आदमियों को उनकी पनाहगाहों से बाहर निकाल रहे हैं। डॉक्‍टरों के लिए परेशान के दरबार तक पहुँच रखनेवालों की भी कोई हैसियत नहीं है। हरचंद कि उसके गिरोह में फकत वही नुमायाँ ओहदे पर तैनात होता है जो ख्‍वाबों को याद रखे और ख्‍वाब देखनेवालों को भूल जाए। यूँ भी ख्‍वाबों के मुकाबले में ख्‍वाब देखनेवालों की क्‍या वकत है? मगर डॉक्‍टर ये नहीं मानते। उनके लिए तो परेशान मरीज के बदन में दाखिल होनेवाला काँच का टुकड़ा है जिसे वो रूहानी तरीकों से बाहर निकालने की कोशिश करते हैं।

'हैरी के साथ क्‍या हुआ था?' एतराज करनेवालों को डॉक्‍टर याद दिलाते हैं, 'जब हैरी हमारे शोबे में दाखिल हुआ था तो परेशान उसके कंधे पर हाथ रख चुका था। इसीलिए तो उसे पूरी दुनिया गंदगी का ढेर नजर आने लगी थी। उसने काम पर जाना छोड़ दिया था कि रास्‍ते में इंसानों के थूक और जानवरों की गंदगी पड़ी होती है। पहले ये गंदगी ज्‍यों की त्‍यों लगती है। वो कहता था कि जब घर आकर जूते उतारो तो हाथ नापाक हो जाते हैं। उसके बाद मुँह तक पहुँचने में उसे देर ही कितनी लगती है?

'हैरी को शारीरिक लाचार भी बुरे लगते थे। लाचारों के नाखून और कानों का पिछला हिस्‍सा मैल से अँटा होता है। वो अक्‍सर बातचीत की शुरूआत ही इस जुमले से करता था। लेकिन हमारे मशविरों और हिदायतों पर अमल करने से वो बिल्‍कुल नॉर्मल हो गया था। याद है? इलाज के आखिरी दिन उसने हम सब के साथ कैसी खुशादिली से हाथ मिलाया था और हमारा शुक्रिया अदा करके रुखसत हुआ था।'

मुझे याद है आखिरी दिन उसकी आँखों के शोले बुझे हुए थे और वो अहमकों की तरह मुस्‍कुराता हुआ हमारे क्लिनिक से रवाना हुआ था। अगर सूरतेहाल यही रही तो कितने हैरी आएँगे, स्‍वस्‍थ हो कर चले जाएँगे और मैं अपने ख्‍वाबों के जखीरे में कोई इजाफा नहीं सकूँगी। मुझे बहरहाल अपनी रफ्तार बढ़ानी है और मिस टेलर की मौजूदगी में ये नामुमकिन है।

इस मस्‍अले का सिर्फ यही हल है कि किसी दिन दफ्तर ही में रात गुजारूँ और सुबह तक तमाम फाइलों से अपने मतलब के ख्‍वाब डायरी में तहरीर कर लूँ।

दफ्तर में रात गुजारने का ख्‍याल कई दिनों से (कंबलों से निकले मरीजों के पीले पैरों की कतार की तरह) बार-बार मेरे सामने आ रहा है। एक दिन पाँच बजे शाम मैं खुद को दफ्तर के वाशरूम में छिपते देखती हूँ। गहरे होते अँधेरे के साथ दफ्तर से घर जानेवालों के कदमों की चाप आहिस्‍ता-आहिस्‍ता खो जाती है। मैं वाशरूम से बाहर निकलती हूँ तो दिन भर मसरूफ रहनेवाले अस्‍पताल की इमारत सोमवार के चर्च की तरह खाली और उदास महसूस होती है। मैं फौरन अपने कमरे में दाखिल होती हूँ। टाइपराइर्ट्स अपने खानों में बंद किए जा चुके हैं। टेलीफोनों में ताले पड़े हैं। दुनिया अपनी जगह मौजूद है।

मैं छत पर लगा हल्‍की ताकत का बल्‍ब रोशन करके रिकार्ड में मौजूद ख्‍वाबों की सबसे पुरानी फाइल का पहला पेज खोलती हूँ। फाइल का रंग शुरू में नीला रहा होगा मगर अब उसकी जिल्‍द जर्द हो गई है। मेरी पैदाइश के दिन ये फाइल बिल्‍कुल नई रही होगी। मैं सुबह तक इस फाइल को देखती हूँ। आधी रात के करीब मैं इस फाइल में दर्ज ख्‍वाब पढ़ती हूँ। मई की उन्‍नीस तारीख को एक नर्स अपने मरीज की अलमारी खोल कर लांड्री के थैले से पाँच कटे हुए सिर निकालती है। उनमें से एक सिर नर्स की माँ का है।

सर्द हवा का एक हल्‍का झोंका मेरी गर्दन को छूता गुजर जाता है। मैं ख्‍वाबों की फाइलों के सामने फर्श पर बैठी हूँ और अब टाँगों पर फाइल का बोझ महसूस कर रही हूँ। अचानक मेरी नजर सामनेवाले दरवाजे पर पड़ती है। दरवाजे के किवाड़ फर्श से उठे हुए हैं। दरवाजे की दूसरी तरफ दो मर्दाना जूते नजर आ रहे हैं। जूतों की नोकें मेरी तरफ हैं। भूरे चमड़े के बने हुए ऊँची एड़ियोंवाले ये जूते विदेशी ढंग के हैं। जूते स्थिर हैं, उनके ऊपर काले रंग की वो रेशमी जुराबें भी हैं जिनसे किसी की टाँगों की जर्द रंगत झलक रही है मगर जूते हिल नहीं रहे।

'बेचारी!' कोई बड़ी प्‍यार भरी आवाज में कहता है, 'बेचारी फर्श पर कैसे बैठी है। अब तक तो इसकी टाँगें अकड़ गई होंगी। इसकी मदद करो। सूरज निकलनेवाला है।'

दो हाथ मेरे बाजुओं तले से निकल कर मुझे खींच कर खड़ा कर देते हैं। मेरी टाँगे वाकई सुन्‍न हो चुकी हैं। मैं लड़खड़ाती हूँ। ख्‍वाबों की फाइल फर्श पर जा पड़ती है।

'कुछ देर तक यूँ ही खड़ी रहो। खून की गर्दिश दुरुस्त हो जाएगी।' अस्‍पताल के मालिक की सरगोशी मेरे कान में गूँजती है। मैं अपनी डायरी सीने से लगा लेती हूँ। ये मेरी आखिरी उम्‍मीद है।

'इसे कुछ नहीं मालूम है।'

'इसे कुछ नहीं मालूम।'

'इसे सब कुछ मालूम है!!'

चमकदार जूते की नोक ख्‍वाबों की फाइल को ठोकर मारती है। मेरी पैदाइश की पहली चीख के वक्‍त शहर में देखे जानेवाले तमाम ख्‍वाबों का रिकार्ड अलमारी की तह के अँधेरे में चला जाता है। वो मुझे इमारत के सेंटर की तरफ ले जा रहा है। मैं अपनी रफ्तार तेज कर देती हूँ ताकि कोई ये न समझे कि मुझे घसीटा जा रहा है।

'इससे पहले कि तुम मुझे निकालो,' मैं मजबूत लहजे में कहती हूँ, 'मैं खुद नौकरी छोड़ दूँगी।'

'तुम हमारे काम आती हो,' इस बार मालिक कहीं दूर से बोलता है, 'हमें तुम्‍हारी जरूरत है।'

मैं और मालिक चलते रहते हैं। यहाँ तक कि पेच-दर-पेच राहदारियों में दाखिल हो जाते हैं। उसके बाद सुरंगें आती हैं। आखिरी सुरंग के खात्‍मे पर लोहे का फाटक खुल जाता है। हमारे गुजरने के बाद ही पीठ पीछे फाटक यूँ बंद होता है जैसे मवेशियों को बूचड़खाने ले जानेवाली गाड़ी का दरवाजा बंद होता है।

हम एक अनजाने कमरे में दाखिल हो चुके हैं। कम से कम मेरे लिए ये कमरा बिल्‍कुल अजनबी है। मैं दूसरों के इलाके में आ गई हूँ और मेरा सामान पीछे रह गया है। हैंगर पर लटका कोट... और मेरे डेस्‍क की दराज में मेरा बटुआ पड़ा है। सिर्फ मेरी डायरी मेरे साथ है और परेशान है जिसकी तपिश मुझे बर्फबारी में जमने से बचा रही है। मैं तेज रोशनियों के नीचे खड़ी कर दी गई हूँ - आ गई हूँ।

'चुड़ैल!' मिस मिलरोज फौलादी डेस्‍क के पीछे खड़ी मुझे घूर रही है। कमरे की बनावट ऐसी है जैसे किसी समुद्री जहाज का निचला हिस्‍सा हो। किसी भी दीवार पर कोई खिड़की या रोशनदान नहीं है। सामने से परेशान के नायब नमूदार होते हैं। उनकी आँखें दहकते हुए कोयलों से ज्‍यादा सुर्ख और रोशन हैं। वो मुझे अजीब आवाजों में खुश आमदीद कहते हैं। उन्‍हें मालूम हो चुका है कि मैं परेशान की सफों में शामिल हूँ और वो जानना चाहते हैं कि दुनिया में परेशान के कारकुन किस हाल में हैं?

'शांति, मैं तुम्‍हारे लिए अमन व सलामती का पैगाम ले कर आई हूँ,' मैं अपना डायरीवाला हाथ बुलंद करके उन्‍हें मुखातिब करती हूँ।

'ये पुराना राग है बीबी।' मिलरोज हाथी की तरह झूम उठी है, 'अब हम ऐसी बातों से प्रभावित नहीं होंगे।'

मिस मिलरोज मुझ पर झटपती है। मैं बचने की कोशिश करती हूँ। मगर वो बहुत तेजरफ्तार और ताकतवर है। पहली बार उसका वार खाली जाता है मगर दूसरी बार वो मुझे दबोच लेती है।

'पुराना राग मत अलापो, ये डायरी हमारे हवाले कर दो।'

मिस मिलरोज की साँसों में पागल कर देनेवाली बू है। मैं उसकी गिरफ्त से निकलने की कोशिश में उसकी मर्दों जैसी मजबूत और बेरस छाती को अपने वजूद की पूरी कुव्‍वत से परे धकेलती हूँ। लेकिन मैं उसके मुकाबले में बहुत कमजोर हूँ। उसकी उँगलियाँ दरिंदे के पंजों की तरह मेरे बदन में घुस जाती हैं।

'मेरी बच्‍ची... मेरी बच्‍ची मेरे पास लौट आई है।' मेरे कानों में फुँफकारती है।

'ये लड़की...' अस्‍पताल के मालिक की आवाज से कमरा गूँजता है, 'परेशान के साथ वक्‍त गुजारती रही है।'

'बुरी बात...बुरी बात...'

सफेद लकड़ी का एक तख्‍त ऐन मेरे सामने बिछा दिया गया है। मिलरोज मेरी कलाई से घड़ी उतारती है। उँगलियों से अँगूठी निकालती है। बालों से पिन अलग करती है। फिर वो मेरा लिबास उतार कर मुझे मौसम की पहली बर्फ जैसी बेदाग और सफेद चादरों में लपेट देती है। अचानक कमरे के चारों कोनों से पथराई आँखोंवाले चार वजूद निकल कर मुझे सफेद तख्‍त पर ले जाते हैं। उन्‍होंने ऑपरेशन थिएटरवाले चार कपड़े और नकाब पहन रखे हैं। उनका मकसद परेशान की बादशाहत खत्‍म करना है। वो एक-एक करके मेरी दोनों टाँगों और बाजू को काबू में कर लेते हैं। दरवाजे से आनेवाला मेरे सर के पीछे खड़ा हो जाता है। मैं उसे नहीं देख सकती, मगर उसके हाथों में मौजूद तेज धारवाले औजार की खड़खड़ाहट सुन सकती हूँ।

परेशान के नुमाइंदे मेरी बेबसी पर प्रतिरोध करते हैं, वो गुनगुनाते हैं :

फकत खौफ से मुहब्‍बत की जा सकती है / खौफ से मुहब्‍बत चेतनशील होने की निशानी है / फकत खौफ, हर तरफ मुहब्‍बत खौफ का राज हो / फकत खौफ से मुहब्‍बत की जा सकती है। मिलरोज और अस्‍पताल का मालिक परेशान के नुमाइंदों को खामोश करने में नाकाम रहते हैं।

मेरे सर के पीछे खड़े शख्‍स को इशारा किया जाता है। अचानक मशीन और तेजधार पुर्जों के चलने की आवाज बाकी तमाम आवाजों पर हावी हो जाती है। ज्‍यों ही मैं खुद को ओझल होते महसूस करती हूँ छत पर लगी रोशनियों से परेशान का चेहरा झाँकता है। उसकी आँखों में बिजलियाँ कौंध रही हैं। आवाज की कड़क से कायनात पर साये पड़ रहे हैं।


मैं उम्र भर परेशान से जुड़ी रही हूँ और मुझे पहले दिन ही मालूम हो गया था कि ये जुड़ाव बीसवीं मंजिल से छलाँग है, गले में पड़ी रस्‍सी है, दिल पर रखे खंजर की नोक है। 
(अनुवादक हसन जमाल)

क्रान्तिकारी

अरनैस्ट हैमिंगवे

सन् 1919। वह इटली में रेल से सफर कर रहा था। पार्टी हेडक्वार्टर से वह मोमजामे का एक चौकोर टुकड़ा लाया था, जिस पर पक्के रंग से लिखा हुआ था कि बुदापेस्त में इस साथी ने ‘गोरों’ के बहुत अत्याचार सहे हैं। साथियों से अपील है कि वे हर तरह से इसकी मदद करें। टिकट की जगह वह इसे ही इस्तेमाल कर रहा था। वह युवक बहुत शर्मीला और चुप्पा था। टिकट बाबू उतरते, तो अगले को बता जाते। उसके पास पैसा नहीं था। वे उसे चोरी-छिपे खाना भी खिला देते।
वह इटली देखकर बहुत प्रसन्न था। बड़ा सुन्दर देश है, वह कहता। लोग बड़े भले हैं। वह कई शहर और बहुत-से चित्रों को देख चुका था। गियोट्टो, मसाचियो और पियरो डेला फ्रांसेस्का की प्रतिलिपियाँ भी उसने खरीदी थीं, जिन्हें वह ‘अवन्ती’ के अंक में लपेटे घूम रहा था। मांतेगना उसे पसन्द नहीं आया।
वह बोलोना आया, तो मैं उसे रोमाना साथ ले गया। मुझे एक से मिलना था। वह सफर मजे का रहा। सितम्बर शुरू के खुशनुमा दिन थे। वह मगयारी था और बहुत झेंपूँ। होर्थी के लोग उससे अच्छी तरह पेश नहीं आये थे। कुछ जिक्र उसने किया था। हंगरी के बावजूद, उसका विश्वास एक पूरी विश्वक्रान्ति में था।
“इटली में आन्दोलन का क्या हाल है?” उसने पूछा।
“बहुत बुरा!” मैंने कहा।
“पर यहाँ चलेगा खूब!” वह बोला, “यहाँ सब कुछ है। यही अकेला देश है, जिसके बारे में किसी को सन्देह नहीं है। सब यहीं से शुरू होगा!”
मैं कुछ नहीं बोला।
बोलोना में वह विदा हुआ। वहाँ से रेल से वह मिलान के लिए गया, मिलान से आओस्ता और वहाँ से उसे पैदल-पैदल दर्रा पार करके स्विटजरलैण्ड पहुँचना था। मिलान के श्री व श्रीमती मांतेगना का जिक्र मैंने किया। “उन्हें छोड़िए।” उसने झेंपते हुए कहा कि वे उसे जँचे नहीं। मिलान के साथियों और खाना खाने की जगहों के पते मैंने उसे दे दिये। उसने मुझे धन्यवाद दिया, पर उसके दिमाग में दर्रा पार करके आगे जाने की बात समायी हुई थी। मौसम ठीक रहते-रहते वह दर्रा पार कर लेना चाहता था। उसके बारे में मुझे अन्तिम खबर यही मिली कि स्विसों ने साइन के पास पकड़कर उसे जेल में डाल दिया है।

प्रेस की शक्ति

 ओ हेनरी

सुबह के आठ बजे दुकान पर समाचार पत्र के ताज़ा अंक रस्सी पर लटक रहे थे। ग्राहक चलते फिरते समाचार पत्र के शीर्षक देखते या फिर एक पेन्नी का सिक्का डिब्बे में डाल कर एक अंक खींच लेते। अपनी कुर्सी पर बैठा दुकानदार ग्राहक की ईमानदारी पर नज़र रखे हुए था।

हम जिस समाचार पत्र की बात कर रहे हैं वह एक ऐसा पत्र है जो समाज के हर वर्ग के लिए कुछ न कुछ परोसता है। इसलिए इस पत्र को एक शिक्षक, पथप्रदर्शक, हिमायती, सलाहकार और घरेलु परामर्शदाता का दर्जा मिला हुआ है।

आज के समाचार पत्र में तीन अलग-अलग सम्पादकीय हैं - एक में शुद्ध एवं सरल भाषा में माता-पिता और शिक्षकों से अपील की गई है कि बच्चों का पालन-पोषण बिना मार-पीट के किया जाय। दूसरा सम्पादकीय मज़दूर नेताओं के नाम है जिसमें यह आह्वान किया गया कि वो मज़दूरों को हड़ताल करने के लिए न उकसाए। तीसरे सम्पादकीय में पुलिस बल से मांग की गई है कि वे बल के प्रयोग से बचें और जनता से अपील है कि वे पुलिस को अपना मित्र समझें।

इन सम्पादकियों के अतिरिक्त ऐसे लेख भी हैं जिनमें युवकों को अपनी प्रेमिका का दिल जीतने के गुर बताए गए हैं; महिलाओं को सौंदर्य साधन के प्रयोग और सदाबहार सुंदरता के नुस्खे दिए गए हैं.... आदि आदि।

एक पन्ने के कोने में एक बक्से में ‘निजी’ संदेश छपा है जिसमें कहा गया है- "प्रिय जैक, मुझे माफ कर दो। तुम सही थे। आज सुबह ८-३० बजे मेडीसन के चौथे एवन्यु के नुक्कड़ पर मुझसे मिलो। हम दोपहर को निकल पड़ेंगे। - पश्चातापी।"

सुबह के आठ बजे दुकान पर एक युवक आया। उसके बाल बिखरे हुए थे, दाढ़ी बड़ी हुई थी और आँखों से लग रहा था कि वह रात भर जागता रहा है। उसने एक पेन्नी का सिक्का बक्से में डाला और समाचार पत्र लेकर निकल पड़ा। उसे नौ बजे दफ़्तर पहुँचना था और रास्ते में नाई की दुकान पर दाढ़ी भी बनवाना था। उसके पास अब समाचार पढ़ने के लिए समय नहीं था। इसलिए समाचार पत्र को उसने अपनी पैंट के पिछले जेब में ठूंस लिया।

वह नाई की दुकान में घुसा और फिर दफ़्तर की ओर निकल पड़ा। उसे पता ही नहीं चला कि समाचार पत्र कब उसकी जेब छोड़कर सड़क की धूल फाँक रहा है। तेज़ी से चलते-चलते उसने अपनी जेब पर हाथ लगाया तो पत्र गायब था। वह कुढ़कुढ़ाता हुआ लौट ही रहा था कि उसके होंटों पर मुस्कान की बारीक लकीर उभर आई। नुक्कड पर उसकी प्रेमिका खडी दिखाई दी। वह दौड़ी-दौड़ी आई और उसके हाथ थाम कर बोली, "मैं जानती थी जैक, तुम मुझे माफ कर दोगे और मुझसे मिलने ज़रूर आओगे।" वह बुदबुदा रहा था- ‘क्या कह रही है, समझ नहीं आता।....ठीक है, ठीक है।’

खैर, अब हम अपने समाचार पत्र की खबर लेते हैं। तेज़ हवा का झोंका आया और समाचार पत्र सड़क पर उड़ने लगा। पुलिसवाले ने इसे ट्रेफिक में व्यवधान मान कर अपनी लम्बी बाँहें पसारी और उसे दबोच लिया। एक पन्ने का शीर्षक था- ‘आप की सहायता के लिए पुलिस की सहायता कीजिए’। इतने में पुलिसवाले को देखते ही बगल के बार की खिड़की से आवाज़ आई- "एक पेग आपके लिए है श्रीमानजी"। एक ही घूँट में उसे गले के नीचे उतारते हुए वह पुनः अपनी ड्यूटी पर लग गया। शायद सम्पादक महोदय का संदेश बिन पढ़े भी ठीक स्थान पर पहुँच गया था या फिर उस पेग का असर था! पुलिसवाले ने अपने अच्छे मूड का प्रदर्शन करते हुए राह चलते एक लड़के की बगल में वह समाचार पत्र अटका दिया। जॉनी ने घर पहुँच कर अपनी बहन ग्लेडिस को वह समाचार पत्र थमा दिया। एक पन्ने पर सुंदरता के टिप्स दिए गए थे। ग्लेडिस ने बिना देखे वह पन्ना फाडकर अपना लंच पैक लपेटा और सड़क पर निकल पड़ी; मनचले सीटी बजा रहे थे। काश! ‘सुंदरता के टिप्स’ का पन्ना लिखनेवाला सम्पादक इस दृश्य को देखता।

जॉनी और ग्लेडिस का पिता मज़दूर नेता था। उसने समाचार पत्र के उस पन्ने को खींचा जिस पर मज़दूरों पर सम्पादकीय लिखा था। उसे फाड़ कर उसने पज़ल का अंश ले लिया और उसे हल करने बैठ गया। इसका परिणाम यह हुआ कि तीन घंटों की प्रतीक्षा के बाद भी यह नेता मज़दूरों के संघर्ष पर निर्णय लेने नहीं पहुँचा। अन्य नेताओं ने यह फैसला लिया कि आंदोलन को रद्द कर दिया जाय।

जॉनी ने बचे हुए पन्नों को उस जगह खोंस लिया जहाँ मास्टर की बेंत पड़ने की अधिक सम्भावना होती है। इस प्रकार आज उस सम्पादकीय की सार्थकता सिद्ध हुई जिसमें शिक्षकों को बच्चों से क्रूर व्यवहार न करने की बात कही गई थी।


इसके बाद अब प्रेस की शक्ति से क्या कोई इंकार कर सकता है???

कानून के दरवाज़े पर

 फ़्रांज काफ़्का

कानून के द्वार पर रखवाला खड़ा है। उस देश का एक आम आदमी उसके पास आकर कानून के समक्ष पेश होने की इजाज़त मांगता है। मगर वह उसे भीतर प्रवेश की इजाज़त नहीं देता।
आदमी सोच में पड़ जाता है। फिर पूछता है- ‘‘क्या कुछ समय बाद मेरी बात सुनी जाएगी?
‘‘देखा जाएगा” --कानून का रखवाला कहता है- ‘‘पर इस समय तो कतई नहीं!”
कानून का दरवाज़ा सदैव की भाँति आज भी खुला हुआ है। आदमी भीतर झाँकता है।
उसे ऐसा करते देख रखवाला हँसने लगता है और कहता है-- ‘‘मेरे मना करने के बावजूद तुम भीतर जाने को इतने उतावले हो तो फिर कोशिश करके क्यों नहीं देखते ; पर याद रखना मैं बहुत सख़्त हूँ; जबकि मैं दूसरे रखवालों से बहुत छोटा हूँ । यहाँ एक कमरे से दूसरे कमरे तक जाने के बीच हर दरवाज़े पर एक रखवाला खड़ा है और हर रखवाला दूसरे से ज़्यादा शक्तिशाली है। कुछ के सामने जाने की हिम्मत तो मुझ में भी नहीं है।”
आदमी ने कभी सोचा भी नहीं था कि कानून तक पहुँचने में इतनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। वह तो यही समझता था कि कानून तक हर आदमी की पहुँच हर समय होनी चाहिए। फर कोटवाले रखवाले की नुकीली नाक, बिखरी-लम्बी काली दाढ़ी को नज़दीक से देखने के बाद वह अनुमति मिलने तक बाहर ही प्रतीक्षा करने का निश्चय करता है। रखवाला उसे दरवाज़े की एक तरफ़ स्टूल पर बैठने देता है। वह वहाँ कई दिनों तक बैठा रहता है। यहाँ तक कि वर्षों बीत जाते हैं। इस बीच वह भीतर जाने के लिए रखवाले के आगे कई बार गिड़गिड़ाता है। रखवाला बीच-बीच में अनमने अंदाज़ में उससे उसके घर एवं दूसरी बहुत-सी बातों के बारे में पूछने लगता है, पर हर बार उसकी बातचीत इसी निर्णय के साथ ख़त्म हो जाती है कि अभी उसे प्रवेश नहीं दिया जा सकता।
आदमी ने सफ़र के लिए जो भी सामान इकट्ठा किया था और दूसरा जो कुछ भी उसके पास था , वह सब वह रखवाले को ख़ुश करने में खर्च कर देता है। रखवाला उससे सब-कुछ इस तरह से स्वीकार करता जाता है मानो उस पर अहसान कर रहा हो।
वर्षों तक आशा भरी नज़रों से रखवाले की ओर ताकते हुए वह दूसरे रखवालों के बारे में भूल जाता है! कानून तक पहुँचने के रास्ते में एकमात्र वही रखवाला उसे रुकावट नज़र आता है। वह आदमी जवानी के दिनों में ऊँची आवाज़ में और फिर बूढ़ा होने पर हल्की बुदबुदाहट में अपने भाग्य को कोसता रहता है। वह बच्चे जैसा हो जाता है। वर्षों से रखवाले की ओर टकटकी लगाए रहने के कारण वह उसके फर के कॉलर में छिपे पिस्सुओं के बारे में जान जाता है। वह पिस्सुओं की भी ख़ुशामद करता है ताकि वे रखवाले का दिमाग उसके पक्ष में कर दें। अंतत: उसकी आँखें जवाब देने लगती हैं। वह यह समझ नहीं पाता कि क्या दुनिया सचमुच पहले से ज़्यादा अँधेरी हो गई है या फिर उसकी आँखें उसे धोखा दे रही हैं। पर अभी भी वह चारों ओर के अंधकार के बीच कानून के दरवाज़े से फूटते प्रकाश के दायरे को महसूस कर पाता है।
वह नज़दीक आती मृत्यु को महसूस करने लगता है। मरने से पहले वह एक सवाल रखवाले से पूछना चाहता है जो वर्षों की प्रतीक्षा के बाद उसे तंग कर रहा था । वह हाथ के इशारे से रखवाले को पास बुलाता है क्योंकि बैठे-बैठे उसका शरीर इस कदर अकड़ गया है कि वह चाहकर भी उठ नहीं पाता। रखवाले को उसकी ओर झुकना पड़ता है क्योंकि कद में काफ़ी अंतर आने के कारण वह काफ़ी ठिगना दिखाई दे रहा था।
‘‘अब तुम क्या जानना चाहते हो” --रखवाला पूछता है-- ‘‘तुम्हारी चाहत का कोई अंत भी है?
‘‘कानून तो हरेक के लिए है” --आदमी कहता है-- ‘‘पर मेरी समझ में ये बात नहीं आ रही कि इतने वर्षो में मेरे अलावा किसी दूसरे ने यहाँ प्रवेश हेतु दस्तक क्यों नहीं दी?

रखवाले को यह समझते देर नहीं लगती कि वह आदमी अंतिम घडि़याँ गिन रहा है। वह उसके बहरे होते कान में चिल्लाकर कहता है-- ‘‘किसी दूसरे के लिए यहाँ प्रवेश का कोई मतलब नहीं था क्योंकि कानून तक पहुँचने का यह द्वार सिर्फ़ तुम्हारे लिए ही खोला गया था और अब मैं इसे बंद करने जा रहा हूँ।” 

अतीत नृत्य

 गी द मोपास्साँ

महान विपत्तियाँ मुझ पर कोई असर नहीं डालतीं। (ज्या ब्रिदेल ने कहा था। वह कुँआरा था और समझा जाता है कि शक्की मिजाज का भी था) मैंने लड़ाई का मैदान निकट से देखा है। बिना किसी दुख या पश्चात्ताप के मैं शवों पर से गुजर गया हूँ। प्रकृति अथवा मनुष्य द्वारा किये गये भीषण अत्याचार हममें डर और घृणा पैदा कर सकते हैं। मगर वे हमारे दिल में हमेशा बने नहीं रह सकते। कुछ तुच्छ, लेकिन पीड़ा पहुँचानेवाली घटनाओं की तरह वे कँपकँपा नहीं देते।

किसी माँ के लिए सबसे बड़ा दुख है उसके बच्चे की मौत और किसी आदमी के लिए उसकी माँ की मौत। यह दुख बहुत ही भयानक और दिल दहलानेवाला होता है। यह उस दुखी आदमी को तोड़ देता है और तबाह कर देता है। मगर फिर भी आदमी अन्ततः इससे उबर आता है। ठीक वैसे ही, जैसे रिसता घाव अन्ततः ठीक हो जाता है। मगर फिर भी कई बार कुछ लोगों के साथ ऐसी मुलाकातें हो जाती हैं -कुछ अर्ध प्रकट दुख अथवा भाग्य के कुछ ऐसे छल - जो हमारे अन्दर विचारों की एक दुखभरी दुनिया जगा देती हैं। ऐसे क्षण अनायास ही मानसिक कष्टों का एक रहस्यमय जगत हमारे सामने रख देते हैं -उलझन भरा, जो अत्यन्त हलका होने के कारण बेहद गहरे तक उतर जाता है, और चूँकि उसे वर्णित नहीं किया जा सकता, इसलिए उसका एहसास उतना ही तीखा भी होता है। इस तरह की बातें दिल में उदासी छोड़ जाती हैं और मोहभंग का एहसास भी दे जाती हैं, जिससे हम जल्दी नहीं उबर पाते।

मेरे दिमाग में अब भी दो-तीन घटनाएँ बेहद स्पष्ट हैं, जिन पर कदाचित दूसरे लोग ध्यान भी न देते, मगर जिन्होंने मुझे बुरी तरह बींध दिया है।

शायद आप न समझ सकें कि इन छोटे-छोटे अनुभवों से ऐसी भावनाएँ क्यों पैदा होती हैं। मैं आपको केवल एक उदाहरण दूँगा - एक बहुत पुराना उदाहरण, मगर इतना ताजा, जैसे कल ही घटित हुआ हो। मेरे अन्दर यह जो भावनाएँ पैदा करता है, सम्भव है, वह मेरी कल्पना के कारण ही हो।

मेरी उम्र इस समय पचास की है। यह घटना तब घटित हुई थी, जब मैं जवान था। मैं कानून का विद्यार्थी था... स्वप्निल और उदास। मुझे शोर-शराबेवाले काफे या हल्ला-गुल्ला मचानेवाले साथी छात्र अथवा बेवकूफ लड़कियाँ कतई पसन्द नहीं थीं। मैं सुबह जल्दी उठता था। सुबह आठ बजे जार्दिन ट्यू लक्समबोर्ग के नर्सरी बगीचे में अकेले घूमना मुझे पसन्द था।

यह नर्सरी बगीचा बहुत पुराना था। यह अठारहवीं सदी के किसी भूले-बिसरे बगीचे की तरह था... किसी बूढ़े, कोमल चेहरे की सुन्दर मुस्कान जैसा। घनी झाड़ियों और तरतीब से कटी पत्तियों को माली सदा काट-तराश कर रखता था। बीच-बीच में फूलों की कतारें थीं, जो स्कूल जाने वाली लड़कियों की दोहरी कतारों या गुलाब की झाड़ियों अथवा फूलों के पेड़ों की करीने से लगी कतारों की तरह लगती थीं।

इस खुशनुमा कुंज के एक कोने में मधुमक्खियों का बसेरा था। उनके छत्ते लकड़ी के तख्तों पर जमे हुए थे और उनके प्रवेश-द्वार सूरज की ओर थे। पूरे बगीचे की सँकरी पगडण्डियों पर सुनहरी मधुमक्खियाँ गुनगुनाती रहती थीं। वे उस शान्त कोरीडोर जैसे रास्तों की असली मालिक थीं।

मैं वहाँ लगभग हर सुबह जाता था। एक बेंच पर मैं पढ़ने बैठ जाता। कभी-कभी मैं किताब को घुटनों पर गिर जाने देता और दिवास्वप्नों में खो जाता। मेरे चारों ओर पेरिस का कोलाहल होता और मैं उस पुरानी दुनिया के लता-कुंजों का आनन्द लेता रहता।

मगर शीघ्र ही मुझे पता चला कि मैं ही एकमात्र ऐसा व्यक्ति नहीं था, जो बगीचे के दरवाजे खुलते ही वहाँ पहुँच जाता था। झाड़ियों के पास से मुड़ते हुए कभी-कभी मेरा सामना एक अजीबोगरीब बूढ़े से हो जाता था। वह तस्में बँधे जूते, लम्बी ब्रीचिज, नसवारी रंग का कोट और मफलर पहने रहता था। और उसके सिर पर एक चौड़ा-सा बीवर हैट होता था।

वह बहुत दुबला-पतला व्यक्ति था और हमेशा मुस्कराता रहता था। उसकी चमकीली आँखें फड़फड़ाती रहती थीं और पलकों के नीचे चारों ओर घूमती नजर आती थीं, उसके हाथ में हमेशा सोने की मूठवाली छड़ी रहती थी, जो जरूर कोई पुरानी यादगार रही होगी।

शुरू-शुरू में तो मुझे उस बूढ़े को देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ, पर बाद में मैं उसमें बहुत रुचि लेने लगा। पत्तियों की दीवार के बीच से मैं उसे देखा करता, कुछ दूर रहकर उसका पीछा करता, और मोड़ों पर मैं रुक जाता, ताकि वह मुझे देख न सके।

एक सुबह की बात है कि यह सोचकर कि वह वहाँ एकदम अकेला है, उसने कुछ अजीबोगरीब हरकतें करनी शुरू कर दीं। पहले तो वह काफी देर तक उछलता-सा रहा, उसके बाद उसने काफी झुककर अभिवादन-सा किया। तब उसकी सींकिया टाँगों ने एक और खूबसूरत प्रदर्शन किया, जिसके बाद उसने बड़े आकर्षक ढंग से घूमना शुरू कर दिया। बड़े अजीब ढंग से वह उछल और काँप रहा था-किसी काल्पनिक दर्शक-समूह की ओर देखकर वह मुसकराता रहा, अपनी बाँहों से कलात्मक हरकतें करता रहा और अपने कठपुतली-से शरीर को मोड़ता-घुमाता रहा। बीच-बीच में वह हवा में ही कुछ शुभेच्छा के शब्द उछालता जाता था। वह नाच रहा था!

मैं अवाक् खड़ा था-सोच रहा था, हममें से कौन पागल है।

मगर तभी अचानक वह रुक गया। स्टेज पर आगे बढ़ते हुए अभिनेता की तरह वह आगे बढ़ा। उसने सर झुकाया और फिर काँपते हाथों को होठों से छुलाकर चुम्बन देता हुआ किसी प्रमुख अभिनेत्री की शालीनता से वह पीछे हट गया।

फिर वह अपने रास्ते आगे बढ़ गया।

और तब से मैंने कभी उसे अपनी नजरों से ओझल नहीं होने दिया। और हर सुबह वह अपना अजीबोगरीब प्रदर्शन करता रहा।

मुझे उससे बातचीत करने की तीव्र इच्छा हो आयी। और तब, एक सुबह अभिवादन करते हुए मैंने कहा, “कितना सुहाना दिन है, महाशय!”

उसने सर झुकाते हुए मेरे अभिवादन का उत्तर दिया और कहा, “हाँ, महाशय। लगभग वैसा ही सुहाना, जैसा पहले कभी होता था।”

एक सप्ताह में ही हम मित्र बन गये। उसने मुझे अपनी कहानी सुनायी। वह लुई 15वें के समय में ऑपेरा नृत्य-शिक्षक था। उसकी सुनहरी छड़ी उसे कोन्ते दि क्लेरमोन्त ने उपहार में दी थी - नृत्य के विषय को लेकर वह धाराप्रवाह बोलता चला गया।

और तब एक दिन उसने मुझे बताया, “मेरी पत्नी का नाम ला केस्त्रिस है। यदि आप चाहेंगे, तो मैं उससे आपकी मुलाकात करा दूँगा। लेकिन वह यहाँ केवल दोपहर को आती है। यह बाग ही हमारा एकमात्र मनोरंजन है। हमारा जीवन है। पुराने दिनों की यही एक यादगार है। हम महसूस करते हैं कि यदि यह न होता, तो हम जिंदा न रह पाते। यह पुराना है और शालीन है। मुझे लगता है कि यहाँ मैं उसी हवा में साँस लेता हूँ, जो मेरे जवानी के दिनों से आज तक बदली नहीं है। मैं और मेरी पत्नी पूरी दोपहर यहाँ बिताते हैं। मगर मैं सुबह भी यहाँ आता हूँ। क्योंकि मैं जल्दी उठ जाता हूँ।”

दोपहर का भोजन समाप्त करने के तुरन्त बाद ही मैं लक्समबोर्ग पहुँच गया। शीघ्र ही मैंने देखा कि मेरा मित्र एक बूढ़ी औरत के साथ हाथ में हाथ डाले चला आ रहा है। औरत ने काली पोशाक पहनी हुई थी। हमारा परिचय कराया गया। वह महान नृत्यांगना ला केस्त्रिस थी - राजकुमारों और राजाओं की चहेती। उस रँगीली शताब्दी की नायिका, जिसने विश्व को प्रेम से सराबोर कर दिया था।

हम बेंच पर बैठ गये। मई का महीना था। फूलों की सुगन्ध से वातावरण महक रहा था। गर्म-आरामदेह धूप पत्तियों पर बिखरी हुई थी और हम पर तेज प्रकाश फेंक रही थी। ला केस्त्रिस की काली पोशाक उस प्रकाश में और भी गहरी हो उठी थी।

बाग खाली था, लेकिन दूर से बग्घियों की आवाज सुनाई दे रही थी।

मैंने उस बूढ़े नृत्य-शिक्षक से पूछा, “आज मुझे बताइए, मिनुएट क्या होता है?

वह कुछ चौंका, फिर बोला, “महाशय, मिनुएट् नृत्य भंगिमाओं की रानी है और रानियों की नृत्य भंगिमा है, और अब, जबकि राजा नहीं रहे, तो यह राजनृत्य भी नहीं रहा।”

और तब उसने विस्तार से मिनुएट के बारे में बताना शुरू किया। मैंने उससे इस नृत्य की भंगिमाओं के बारे में पूछा। उसने मुझे सब कुछ समझाने की चेष्टा की, लेकिन वैसा कर न पाया और उसे दुख होने लगा। वह उदास था और निराश भी। और तब अचानक वह अब तक चुप और गम्भीर बैठी पत्नी की ओर घूमा और उससे कहने लगा, “एलिजे, क्या तुम इन महोदय को वह राजनृत्य दिखाने को राजी हो? तुम्हारी बहुत कृपा होगी।”

चारों ओर सतर्क दृष्टि से देखती हुई वह उठ खड़ी हुई और बिना एक शब्द भी बोले उसके सामने अपने स्थान पर खड़ी हो गयी।

और तब मैंने एक ऐसा दृश्य देखा, जिसे मैं कभी नहीं भुला सकूँगा।

वे कदम मिलाकर आगे-पीछे नाच रहे थे, जो बड़ा बचकाना लग रहा था। वे एक-दूसरे को देखकर मुसकरा रहे थे, सिर झुका रहे थे, उछल रहे थे। ठीक वैसे ही, जैसे चाबी से चलनेवाली पुरानी गुड़ियों का जोड़ा, जो लगता था, अब कुछ गड़बड़ा गया है। पर जिसका निर्माण किसी ऐसे कलाकार ने किया होगा, जो अपने समय में काफी सक्षम रहा होगा।

जब मैं उन्हें देख रहा था, तो मेरा हृदय असाधारण संवेदना से भर गया था। मेरी आत्मा में अकथनीय उदासी घिर आयी थी। मेरे मन में बीती हुई सदी की एक दुख भरी याद ताजा हो आयी थी। साथ ही यह सब मुझे एक मजाक-सा लग रहा था। मैं एक साथ ही हँसना और रोना चाहता था।

अचानक ही वे रुक गये। कुछ क्षण तक वे एक-दूसरे के सामने खड़े रहे-अजीब-सी नजरें लिये। तब वे एक-दूसरे की बाँहों में डूब गये और सुबकने लगे।

तीन दिन बाद मैं प्राविंसिज रवाना होने वाला था। मैंने फिर उन्हें कभी नहीं देखा। दो साल बाद, जब मैं पेरिस लौटा, तो वह नर्सरी बाग लापता हो चुका था। मैं नहीं समझ पाया कि उस पुराने बाग के बिना, जिससे उन्हें इतना लगाव था, जिसमें वही पुरानी सुगन्ध थी और शानदार पगडण्डियाँ बनी हुई थीं, उनका क्या हुआ होगा?

हो सकता है, वे मर गये हों। या वे अब भी हमारी आधुनिक गलियों में निष्कासितों की तरह भटक रहे हों, और या वे प्रेत बन गये हों, जो किसी कब्रगाह में चाँदनी रात में वही पुराना राज नृत्य कर रहे हों।

उनकी स्मृति अब भी मुझे परेशान कर देती है, यह किसी न भरनेवाले घाव की तरह पीड़ा देनेवाली स्मृति है। मैं नहीं बता सकता कि ऐसा क्यों है - कदाचित आप मुझे मूर्ख कहेंगे!


ऑस्कर वाइल्ड की कहानी बुलबुल और गुलाब


"उसने कहा , वह मेरे साथ नाचेगी , अगर मैं उसे लाल गुलाब ला दूँ तो," युवा-छात्र ने रोते हुए कहा; "लेकिन मेरे सारे उपवन में लाल गुलाब कहीं है ही नहीं।"

शाहबलूत वृक्ष की टहनियों में घोंसले में बैठी बुलबुल ने उसे रोते हुए सुना, पत्तों की ओट से झाँक कर देखा और हैरान हो गई।

" कोई लाल गुलाब नहीं मेरे सारे उपवन में !" वह चिल्लाया और और उसकी सुन्दर आँखों में आँसू उमड़ आए। "आह , कितनी छोटी-छोटी बातों पर निर्भर होती है ख़ुशी! मैंने पढ़ा है जो भी बुद्धिमानों ने लिखा है ,दर्शन-शास्त्र के सब रहस्य भी मैं जानता हूँ, फिर भी एक लाल गुलाब की कमी ने मेरा जीना दूभर कर दिया है!"

"अन्तत: यह रहा असली प्रेमी! बुलबुल ने कहा । " न जाने कितनी ही रातों से मैंने इसी के बारे में गाया है, भले ही मैं इसे नहीं जानती; कितनी ही रातें गा-गा कर मैंने इसकी कहानी तारों को सुनाई है, और अब यह मेरे सामने है! इसके बाल सम्बूल की मंजरियों की तरह काले हैं और इसके होंठ इसकी चाहत के गुलाब-से लाल हैं लेकिन हसरतों ने इसके चेहरे को हाथी-दाँत-सा पीला कर दिया है। दु:ख ने इसके माथे पर अपनी मुहर लगा दी है।"

" राजकुमार कल नृत्य-उत्सव कर रहा है।" युवा प्रेमी बुदबुदाया, " और मेरी प्रेयसी भी वहीं होगी। अगर मैं उसे लाल गुलाब ला दूँ तो वह सुबह तक मेरे साथ नाचेगी । अगर मैं उसे लाल गुलाब ला दूँ तो मैं उसे अपनी बाहों में भर सकूँगा और उसका हाथ मेरे हाथ में कसा होगा लेकिन मेरे उद्यान में कोई लाल गुलाब नहीं है, इसलिए मैं अकेला बैठा रहूँगा और वह मेरे पास से गुज़र जाएगी , मुझे देखे बिना और मेरा दिल टूट जाएगा।"

" यह वास्तव में ही प्रेमी सच्चा प्रेमी है!" बुलबुल ने कहा । जिसके बारे में मैं गाती हूँ उसे व्यथित करता है; मेरे लिए जो आनन्द है,उसके लिए व्यथा है। प्रेम सचमुच अद्भुत वस्तु है! यह माणिकों से अधिक मँहगा और विमल दूधिया रत्नों से ज़्यादा कीमती होता है।मोतियों और दाड़िमों से इसे खरीदा नहीं जा सकता; न यह दुकानों में बिकता है ; न ही इसे दुकानदारों से इसे ख़रीदा जा सकता है और न ही यह सोने के तराज़ू पर तुलता है।"

"संगीतकार अपनी दीर्घा में बैठेंगे", युवा छात्र बोला, "और अपने सुरीले साज़ बजाएँगे और मेरी प्रेयसी वीणा और वायलिन की धुन पर नाचेगी । वह इतना बढ़िया नाचेगी कि उसके पाँव ज़मीन को छूएँगे भी नहीं ।चटक वस्त्र पहने दरबारियों का हजूम उसके इर्द-गिर्द होगा, लेकिन वह मेरे साथ नहीं नाचेगी, क्योंकि मेरे पास लाल गुलाब उसे देने को नहीं है;" उसने ख़ुद को घास पर पटक लिया , अपना मुँह अपनी हथेलियों में छिपा लिया और रोने लगा।

"यह रो क्यों रहा है?" एक नन्ही हरी छिपकली ने पूछा और उसके पास से होती हुई दुम उठाए गुज़र गई।

"आख़िर क्यों?" धूप की किरण पर हवा में तैरती तितली ने कहा।

"आख़िर क्यों रो रहा है यह? " नन्हें गुलबहार फूल ने फुसफुसाकर अपने पड़ोसी के कान में कहा।

"वह लाल गुलाब के लिए रो रहा है," बुलबुल ने कहा।

"लाल गुलाब के लिए?" वे सब चिल्लाए," कितना बड़ा मज़ाक है यह!" और हरी छिपकली जो ज़रा दोषदर्शी थी, ज़ोर से हँस दी।

लेकिन बुलबुल जानती थी छात्र के दु:ख का रहस्य,वह शाहबलूत वृक्ष पर चुपचाप बैठी प्रेम के रहस्य के बारे में सोच रही थी ।

अचानक उसने उड़ान के लिए अपने पर तोले, और ऊँचे आकाश में उड़ने लगी।साये की तरह वह उपवन में से उड़ी और साये की ही तरह उसने उपवन पार भी कर लिया।

घास वाले प्लाट के ठीक बीच में बहुत सुन्दर गुलाब का पौधा था,पौधे को देख बुलबुल उसकी एक टहनी पर बैठ गई।

"मुझे एक लाल गुलाब दे दो, " वह चिल्लाई," और बदले में मैं तुम्हारे लिए अपना सबसे मधुर गीत गाऊँगी।"

लेकिन पौधे ने ‘इन्कार’ में अपना सिर हिला दिया।

"मेरे गुलाब सफ़ेद हैं," उसने कहा," समुद्र के फेन की तरह,पहाड़ों पर जमी बर्फ़ से भी सफ़ेद। लेकिन तुम मेरे भाई के पास जाओ जो धूप-घड़ी के पास उगा है।"

बुलबुल धूप-घड़ी के पास उगे गुलाब के पौधे के पास गई। "मुझे एक लाल गुलाब दे दो, " उसने पुकार लगाई ," और बदले में मैं तुम्हारे लिए अपना सबसे मधुर गीत गाऊँगी।"

" मेरे गुलाब पीले हैं," उत्तर मिला," तृणमणि सिंहासन पर बैठी जलपरी के बालों जैसे पीले; घास काटे जाने से पहले वाली चरागाह में खिले नरगिस के फूलों से भी ज़्यादा पीले। लेकिन तुम छात्र की खिड़की के नीचे उगे मेरे भाई के पास जाओ जो शायद तुम्हारी इच्छा पूरी कर दे।"

बुलबुल छात्र की खिड़की के नीचे उगे गुलाब के पौधे के पास गई।

"मुझे एक लाल गुलाब दे दो," उसने पुकार लगाई, "और बदले में मैं तुम्हारे लिए अपना सबसे मधुर गीत गाऊँगी।"

लेकिन उस पौधे ने भी इन्कार में अपना सिर हिला दिया।"

" मेरे गुलाब लाल हैं," उसने कहा " फ़ाख़्ता के पंजों की तरह लाल और समुद्री कन्दराओं में झूल रहे प्रवाल-पंखों से भी ज़्यादा लाल। लेकिन सर्दी ने मेरी शिराओं को जमा दिया है, कोहरे ने मेरी पंखुड़ियाँ दबा ली हैं और तूफ़ान ने मेरी टहनियाँ तोड़ दी हैं , और अब सारा साल मुझपर गुलाब नहीं खिलेंगे।"

"लेकिन मुझे तो बस एक लाल गुलाब चाहिए ।" बुलबुल चिल्लाई," बस एक लाल गुलाब , क्या कोई उपाय नहीं कि मुझे एक लाल गुलाब मिल सके?"

"उपाय है, लेकिन इतना भयानक कि तुम्हें बताने का साहस मुझमें नहीं है।"

"अगर तुम्हें गुलाब चाहिए",पौधे ने कहा,"तो तुम्हें इसे चांदनी रात में संगीत से रचना होगा और अपने हृदय के रक्त से इसे सींचना होगा। अपना सीना मेरे काँटों से सटा कर तुम्हें गाना होगा। रातभर तुम्हें मेरे लिए गाना होगा,काँटे को तुम्हारे दिल में धँस जाना होगा,तुम्हारे रक्त को मेरी धमनियों बह कर मेरा हो जाना होगा।"

"लाल गुलाब के लिए मृत्यु एक बड़ा सौदा है, " बुलबुल ने कहा " और जीवन सबको प्रिय है। हरे जंगल में बैठ कर सूर्य को उसके स्वर्णिम रथ में और चाँदनी को उसके मोतियों के रथ में देखना मोहक है। सम्बूल की सुगंधि मधुर है, मधुर हैं घाटी में छिपे ब्लू-बेल्ज़ और पहाड़ों में बहने वाली समीर, परन्तु जीवन से बेहतर है प्रेम, और फिर मनुष्य के दिल की तुलना में एक पंछी का दिल है भी क्या?"

उसने अपने भूरे पंख उड़ान के लिए फैलाये और हवा में उड़ गई। साये की तरह वह उपवन के ऊपर से उड़ी और साये की ही तरह उसने उपवन पार भी कर लिया।

युवा छात्र अभी भी घास पर ही लेटा हुआ था,जहाँ बुलबुल उसे छोड़कर गई थी, आँसू उसकी ख़ूबसूरत आँखों से अभी सूखे नहीं थे।

"ख़ुश हो जाओ," बुलबुल ने कहा," ख़ुश हो जाओ; तुम्हें मिल जाएगा तुम्हारा लाल गुलाब।" मैं उसे चांदनी रात में संगीत से रचूँगी और अपने हृदय के रक्त से सींचूंगी।बदले में बस तुम इसी तरह सच्चे प्रेमी बने रहना क्योंकि प्रेम दर्शनशास्त्र से अधिक समझदार है; शक्ति से भी अधिक शक्तिशाली है, भले ही शक्ति भी शक्तिशाली है, तृणमणि के रंग के हैं उसके पंख और शरीर भी उसका तृणमणि के ही रंग का है। मधु से मधुर हैं उसके होंठ और उसकी साँसें हैं गुग्गल धूप की ख़ुश्बू जैसी।"

छात्र ने घास से ऊपर सर उठाकर देखा, सुना भी,लेकिन समझ नहीं पाया बुलबुल उससे क्या कह रही थी क्योंकि वह तो सिर्फ़ किताबों में लिखी बातें ही समझ पाता था।

लेकिन शाहबलूत पेड़ समझ गया,उदास हुआ क्योंकि वह नन्ही बुलबुल का बहुत बड़ा प्रशंसक था,बुलबुल ने अपना घोंसला भी उसी की टहनियों में बनाया हुआ था।

"मेरे लिए एक अंतिम गीत गा दो", उसने फुसफुसा कर कहा ; "तुम्हारे चले जाने के बाद मैं अकेला हो जाऊँगा" तब बुलबुल ने शाहबलूत के लिए गाया उसकी आवाज़ ऐसी थी मानो चाँदी के मर्तबान में पानी बुदबुदा रहा हो।"

बुलबुल गा चुकी तो छात्र उठा और उसने अपनी जेब से पेंसिल और नोट-बुक निकाली। "इसके पास रूप-विधान तो है,इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता लेकिन क्या इसके पास संवेदना भी होगी? मुझे डर है ,शायद नहीं होगी। वास्तव में वह भी अधिकांश कलाकारों की ही तरह है। उसके पास केवल शैली है , लेकिन हार्दिकता रहित। वह दूसरों के लिए बलिदान नहीं देगी। वह केवल संगीत के बारे में सोच सकती है और सब जानते है कि कलाएँ स्वार्थी होती हैं। फिर भी, यह स्वीकार करना होगा कि कि उसकी आवाज़ में मधुर स्वर हैं। लेकिन दु:ख की बात तो यह है कि ये मधुर स्वर निरर्थक हैं। इनका कोई व्यवहारिक लाभ नहीं है।"

और वह अपने कमरे में जाकर बिस्तर में लेट गया और अपनी प्रेयसी को याद करने लगा, काफ़ी देर बाद वह सो गया।

और जब चाँद आकाश में चमक उठा, बुलबुल उड़ कर गुलाब के पौधे पर जा बैठी और उसने काँटे से अपना वक्ष सटा दिया। सारी रात वह काँटे से अपना वक्ष सटाए गाती रही , ठण्डा बिल्लौरी चाँद नीचे झुक आया और उसे गाते हुए सुनता रहा । सारी रात वह गाती रही और काँटा उसके सीने में गहरे से गहरा धँसता गया और उसका जीवन-रक्त उससे दूर बह चला।

उसने गाया, सबसे पहले लड़की और लड़के के दिल में प्रेम उपजने के बारे में। उसने गाया गाने पर गाना और गुलाब के पौधे की सबसे ऊँची टहनी पर पंखुड़ी-पंखुड़ी कर एक सुन्दर गुलाब खिलने लगा । पहले तो यह हल्का पीला-सा था, नदी पर छाई धुन्ध की तरह, हल्का पीला-सा, सुबह की धूप के पैरों की तरह; चाँदी-सा, उषा के पंखों-सा । चाँदी के दर्पण में गुलाब की प्रतिछाया -सा; पानी के तालाब में गुलाब की परछाई -सा; कुछ ऐसा ही था वह गुलाब जो पौधे की सबसे ऊँची टहनी पर खिला था।

परन्तु पौधे ने चिल्ला कर बुलबुल से कहा कि वह अपने वक्ष में काँटे को ज़ोर से भींच ले। "ज़ोर से भींचो ,नन्ही बुलबुल! और भी ज़ोर से, इससे पहले कि गुलाब पूरा होने से पहले दिन हो जाये।"

बुलबुल ने काँटे को और भी ज़ोर से भींच लिया,उसके गाने की आवाज़ ऊँची से ऊँची होने लगी,क्योंकि वह पुरुष और स्त्री की आत्मा में चाहत के जन्म लेने के बारे में गा रही थी।

और गुलाब की पत्तियों में हल्की-सी गुलाबी रंगत आ गई। गुलाबी रंगत जो दुल्हन के होंठ चूमते हुए दूल्हे के चेहरे पर आती है। परन्तु काँटा अभी बुलबुल के सीने में धँसा नहीं था इसलिए गुलाब का हृदय अभी श्वेत ही था। क्योंकि केवल बुलबुल के हृदय का रक्त ही गुलाब के हृदय को गहरा रक्तिम लाल कर सकता है।

और पौधे ने चिल्ला कर बुलबुल से कहा कि वह अपने वक्ष में काँटे को ज़ोर से भींच ले। "ज़ोर से भींचो ,नन्ही बुलबुल! और भी ज़ोर से, इससे पहले कि गुलाब पूरा लाल होने से पहले दिन ढल जाये।"

इसलिए बुलबुल ने काँटे को पूरे ज़ोर से भींच लिया, और काँटे ने उसके हृदय को छलनी कर दिया। बुलबुल की दर्दभरी एक तेज़ चीख़ निकली। असहनीय थी उसकी पीड़ा। प्रचण्ड हो गया उसका गायन, क्योंकि वह मृत्यु से सम्पूर्ण होने वाले प्रेम के बारे में गा रही थी, उस प्रेम के बारे में जो कब्र में जाकर भी जीवित रहता है। और वह अद्भुत गुलाब रक्तिम हो गया पूर्वी आकाश-सा। रक्तिम था गुलाब की पंखुड़ियों का रंग और माणिक-सा गहरा लाल था उसका हृदय।

लेकिन बुलबुल की आवाज़ हल्की पड़ गई, फड़फड़ा उठे उसके नन्हें पंख, और उसकी आँखों में एक पर्त्त-सी आ गई। मद्धिम होता गया उसका गायन, अवरुद्ध होने लगा उसका कण्ठ।

और फिर उसने अपने संगीत की अंतिम स्वर-लहरी बिखेर दी। चाँद इसे सुनकर उषा को भूल गया और आकाश में जमा रहा। लाल गुलाब ने इसे सुना, आनन्दातिरेक में काँप उठा और अपनी पंखुड़ियाँ सुबह की ठण्डी हवा के लिए खोल दीं। गूँज ने इसे पहाड़ों की अपनी बैंगनी कन्दरा तक ले जाकर सोए हुए गडरियों को उनके सपनों से जगा दिया। नदी के सरकंडों से होती हुई गूँज उसका संदेश समुद्र तक ले गई।

‘देखो,देखो!’ पौधे ने कहा, "गुलाब अब सम्पूर्ण हो चुका है," परन्तु बुलबुल ने कोई उत्तर नहीं दिया क्योंकि वह लम्बी घास में मृत पड़ी थी। उसके दिल में काँटा चुभा हुआ था।

और दोपहर को छात्र ने अपनी खिड़की खोलकर बाहर देखा।

" कितना भाग्यशाली हूँ मैं!" वह चिल्लाया, "यह रहा गुलाब ! अपने जीवन में मैंने तो इतना सुन्दर गुलाब नहीं देखा।यह इतना सुन्दर है कि अवश्य इसका कोई लम्बा -सा लातीनी नाम होगा, " और उसने झुककर गुलाब तोड़ लिया।

हैट पहने ,लाल गुलाब हाथों में लिए , वह प्रोफ़ेसर के घर की ओर भागा। प्रोफ़ेसर की बेटी, रील पर नीला रेशमी धागा लपेटते हुए, दरवाज़े में बैठी थी, और उसका छोटा-सा कुत्ता उसके पास बैठा था।

"तुमने कहा था तुम मेरे साथ नाचोगी अगर मैं तुम्हें लाल गुलाब ला दूँ तो," छात्र चिल्लाया,"यह रहा विश्व का सबसे अधिक लाल गुलाब। तुम इसे अपने दिल के बिल्कुल पास सजाओगी और जब हम नाचेंगे तब मैं तुम्हें बताऊँगा कि मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूँ।" लेकिन लड़की ने भृकुटी तान ली।

"लेकिन यह तो मेरी पोशाक से मेल ही नहीं खाता और, प्रबन्धक के भतीजे ने मेरे लिए कुछ असली मणियाँ भिजवाई हैं, और सब जानते हैं कि मणियाँ फूलों से ज़्यादा कीमती होती हैं।" "मैं कसम खा कर कहता हूँ कि तुम बहुत कृतघ्न हो," छात्र ने नाराज़ हो कर कहा,और फूल को गली में फेंक दिया जहाँ से वह गन्दे नाले में गिर गया और एक ठेले के पहिए ने उसे कुचल दिया ।

"कृतघ्न !" लड़की ने कहा, "तुम कितने अशिष्ट हो और फिर , तुम हो भी कौन? बस एक छात्र !मुझे क्यों तुम पर विश्वास नहीं है? भले ही तुम्हारे जूतों में चाँदी के बकल्ज़ हैं, लेकिन वे तो प्रबन्धक के भतीजे के जूतों में भी हैं।" और वह अपनी कुर्सी से उठकर घर के भीतर चली गई।

" प्रेम भी कितनी हास्यास्पद चीज़ है!" छात्र ने कहा और वहाँ से चल दिया। यह तो तर्क-शास्त्र की तुलना में आधा भी लाभदायक नहीं क्योंकि इससे कुछ भी सिद्ध नहीं होता, और यह सदा हमें उन चीज़ों के बारे में बताता है जो कभी वास्तव में घटती ही नहीं, और हमें उन चीज़ों पर विश्वास करने को बाध्य करता है जो सत्य नहीं होतीं । वास्तव में प्रेम अव्यावहारिक है,और आज के युग में व्यावहारिक होना ही सबकुछ है, मैं फिर दर्शनशास्त्र और तत्व-मीमांसा का अध्ययन ही करूँगा।"


अपने कमरे में लौट कर उसने एक बड़ी-सी धूल-सनी किताब निकाली और पढ़ने लगा।