Saturday 27 July 2013

वापसी / उषा प्रियंवदा


गजाधर बाबू ने कमरे में जमा सामान पर एक नजर दौड़ाई - दो बक्‍स, डोलची, बालटी - 'यह डिब्‍बा कैसा है, गनेशी?' उन्‍होंने पूछा। गनेशी बिस्‍तर बाँधता हुआ, कुछ गर्व, कुछ दुख, कुछ लज्‍जा से बोला, 'घरवाली ने साथ को कुछ बेसन के लड्डू रख दिए हैं। कहा, बाबूजी को पसंद थे। अब कहाँ हम गरीब लोग, आपकी कुछ खातिर कर पाएँगे।' घर जाने की खुशी में भी गजाधर बाबू ने एक विषाद का अनुभव किया, जैसे एक परिचित, स्‍नेह, आदरमय, सहज संसार से उनका नाता टूट रहा हो।
'कभी-कभी हम लोगों की भी खबर लेते रहिएगा।' गनेशी बिस्‍तर में रस्‍सी बाँधता हुआ बोला।
'कभी कुछ जरूरत हो तो लिखना गनेशी। इस अगहन तक बिटिया की शादी कर दो।'
गनेशी ने अँगोछे के छोर से आँखें पोंछीं, 'अब आप लोग सहारा न देंगे, तो कौन देगा? आप यहाँ रहते तो शादी में कुछ हौसला रहता।'
गजाधर बाबू चलने को तैयार बैठे थे। रेलवे क्‍वार्टर का यह कमरा, जिसमें उन्‍होंने कितने वर्ष बिताए थे, उनका सामान हट जाने से कुरूप और नग्‍न लग रहा था। आँगन में रोपे पौधे भी जान-पहचान के लोग ले गए थे और जगह-जगह मिट्टी बिखरी हुई थी। पर पत्‍नी, बाल-बच्‍चों के साथ रहने की कल्‍पना में यह बिछोह एक दुर्बल लहर की तरह उठ कर वि‍लीन हो गया।
गजाधर बाबू खुश थे, बहुत खुश। पैंतीस साल की नौकरी के बाद वह रिटायर हो कर जा रहे थे। इन वर्षों में अधिकांश समय उन्‍होंने अकेले रह कर काटा था। उन अकेले क्षणों में उन्‍होंने इसी समय की कल्‍पना की थी, जब वह अपने परिवार के साथ रह सकेंगे। इसी आशा के सहारे वह अपने अभाव का बोझ ढो रहे थे। संसार की दृष्टि में उनका जीवन सफल कहा जा सकता था। उन्‍होंने शहर में एक मकान बनवा लिया था, बड़े लड़के अमर और लड़की कांति की शादियाँ कर दी थीं, दो बच्‍चे ऊँची कक्षाओं में पढ़ रहे थे। गजाधर बाबू नौकरी के कारण प्रायः छोटे स्‍टेशनों पर रहे और उनके बच्‍चे और पत्‍नी शहर में, जिससे पढ़ाई में बाधा न हो। गजाधर बाबू स्‍वभाव से बहुत स्‍नेही व्‍यक्ति थे और स्‍नेह के आकांक्षी भी। जब परिवार साथ था, ड्यूटी से लौट कर बच्‍चों से हँसते-बोलते, पत्‍नी से कुछ मनोविनोद करते, उन सबके चले जाने से उनके जीवन में गहन सूनापन भर उठा। खाली क्षणों में उनसे घर में टिका न जाता। कवि प्रकृति के न होने पर भी उन्‍हें पत्‍नी की स्‍नेहपूर्ण बातें याद आती रहतीं। दोपहर में गर्मी होने पर भी, दो बजे तक आग जलाए रहती और उनके स्‍टेशन से वापस आने पर गरम-गरम रोटियाँ सेंकती... उनके खा चुकने और मना करने पर भी थोड़ा-सा कुछ और थाली में परोस देती, और बड़े प्‍यार से आग्रह करती। जब वह थके-हारे बाहर से आते, तो उनकी आहट पा वह रसोई के द्वार पर निकल आती और उसकी सलज्‍ज आँखें मुस्‍करा उठतीं। गजाधर बाबू को तब हर छोटी बात भी याद आती और वह उदास हो उठते... अब कितने वर्षों बाद वह अवसर आया था, जब वह फिर उसी स्‍नेह और आदर के मध्‍य रहने जा रहे थे।

टोपी उतार कर गजाधर बाबू ने चारपाई पर रख दी, जूते खोल कर नीचे खिसका दिए, अंदर से रह-रह कर कहकहों की आवाज आ रही थी। इतवार का दिन था और उनके सब बच्‍चे इकठ्ठे हो कर नाश्‍ता कर रहे थे। गजाधर बाबू के सूखे चेहरे पर स्निग्‍ध मुस्‍कान आ गई, उसी तरह मुस्कराते हुए वह बिना खाँसे अंदर चले आए। उन्‍होंने देखा कि नरेंद्र कमर पर हाथ रखे शायद गत रात्रि की फिल्‍म में देखे गए किसी नृत्‍य की नकल कर रहा था और बसंती हँस-हँस कर दुहरी हो रही थी। अमर की बहू को अपने तन-बदन, आँचल या घूँघट का कोई होश न या और वह उन्‍मुक्‍त रूप से हँस रही थी। गजाधर बाबू को देखते ही नरेंद्र धप से बैठ गया और चाय का प्‍याला उठा कर मुँह से लगा लिया। बहू को होश आया और उसने झट से माथा ढक लिया, केवल बसंती का शरीर रह-रह कर हँसी दबाने के प्रयत्‍न में हिलता रहा।

गजाधर बाबू ने मुस्कराते हुए उन लोगों को देखा। फिर कहा, 'क्‍यों नरेंद्र, क्‍या नकल हो रही है?' 'कुछ नहीं बाबूजी।' नरेंद्र ने सिटपिटा कर कहा। गजाधर बाबू ने चाहा था कि वह भी इस मनोविनोद में भाग लेते, पर उनके आते ही जैसे सब कुंठित हो चुप हो गए। उससे उनके मन में थोड़ी-सी खिन्‍नता उपज आई। बैठते हुए बोले, 'बसंती, चाय मुझे भी देना। तुम्‍हारी अम्‍मा की पूजा अभी चल रही है क्‍या?'

बसंती ने माँ की कोठरी की ओर देखा, 'अभी आती ही होंगी', और प्‍याले में उनके लिए चाय छानने लगी। बहू चुपचाप पहले ही चली गई थी, अब नरेंद्र भी चाय का आखिरी घूँट पी कर उठ खड़ा हुआ, केवल बसंती, पिता के लिहाज में, चौके में बैठी माँ की राह देखने लगी। गजाधर बाबू ने एक घूँट चाय पी, फिर कहा, 'बिट्टी - चाय तो फीकी है।'

'लाइए चीनी और डाल दूँ।' बसंती बोली।

'रहने दो, तुम्‍हारी अम्‍मा जब आएगी, तभी पी लूँगा।'

थोड़ी देर में उनकी पत्‍नी हाथ में अर्ध्‍य का लोटा लिए निकली और अशु्द्ध स्‍तुति कहते हुए तुलसी में डाल दिया। उन्‍हें देखते ही बसंती भी उठ गई। पत्‍नी ने आ कर गजाधर बाबू को देखा और कहा, 'अरे, आप अकेले बैठे हैं - ये सब कहाँ गए?' गजाधर बाबू के मन में फाँस-सी करक उठी, 'अपने-अपने काम में लग गए है - आखिर बच्‍चे ही है।'

पत्‍नी आ कर चौके में बैठ गईं, उन्‍होंने नाक-भौं चढ़ा कर चारों ओर जूठे बर्तनों को देखा। फिर कहा, 'सारे में जूठे बर्तन पड़े हैं। इस घर में धरम-धरम कुछ नहीं। पूजा करके सीधे चौके में घुसो।' फिर उन्‍होंने नौकर को पुकारा, जब उत्‍तर न मिला तो एक बार और उच्‍च स्‍वर में, फिर पति की ओर देख कर बोलीं, 'बहू ने भेजा होगा बाजार।' और एक लंबी साँस ले कर चुप हो रही।

गजाधर बाबू बैठ कर चाय और नाश्‍ते का इंतजार करते रहे। उन्‍हें अचानक ही गनेशी की याद आ गई। रोज सुबह, पैसेंजर आने से पहले वह गरम-गरम पूरियाँ और जलेबी बनाता था। गजाधर बाबू जब तक उठ कर तैयार होते, उनके लिए जलेबियाँ और चाय ला कर रख देता था। चाय भी कितनी बढ़िया, काँच के गिलास में ऊपर तक भरी लबालब, पूरे ढाई चम्‍मच चीनी और गाढ़ी मलाई। पैसेंजर भले ही रानीपुर लेट पहुँचे, गनेशी ने चाय पहुँचाने मे कभी देर नहीं की। क्‍या मजाल कि कभी उससे कुछ कहना पड़े।

पत्‍नी का शिकायत-भरा स्‍वर सुन उनके विचारों में व्‍याघात पहुँचा। वह कह रही थीं, 'सारा दिन इसी खिच-खिच में निकल जाता है। इस गृहस्‍थी का धंधा पीटते-पीटते उमर बीत गई। कोई जरा हाथ भी नहीं बँटाता।'

'बहू क्‍या किया करती है?' गजाधर बाबू ने पूछा।

'पड़ी रहती है। बसंती को तो, फिर कहो कॉलेज जाना होता है।'

गजाधर बाबू ने प्‍यार से समझाया, 'तुम सुबह पढ़ लिया करो। तुम्‍हारी माँ बूढ़ी हुई, उनके शरीर में अब वह शक्ति नहीं बची हैं। तुम हो, तुम्‍हारी भाभी है, दोनों मिल कर काम में हाथ बँटाना चाहिए।'

बसंती चुप रह गई। उसके जाने के बाद उसकी माँ ने धीरे से कहा, 'पढ़ने का तो बहाना है। कभी जी ही नहीं लगता। लगे कैसे? शीला से ही फुरसत नहीं, बड़े-बड़े लड़के हैं उनके घर में, हर वक्‍त वहाँ घुसा रहना, मुझे नहीं सुहाता। मना करूँ तो सुनती नहीं।'

नाश्‍ता कर गजाधर बाबू बैठक में चले गए। घर छोटा था और ऐसी व्‍यवस्‍था हो चुकी थी कि उसमें गजाधर बाबू के रहने के लिए कोई स्‍थान न बचा था। जैसे किसी मेहमान के लिए कुछ अस्‍थायी प्रबंध कर दिया जाता है, उसी प्रकार बैठक में कुरसियों को दीवार से सटा कर बीच में गजाधर बाबू के लिए पतली-सी चारपाई डाल दी गई थी। गजाधर बाबू उस कमरे में पड़े-पड़े, कभी-कभी अनायास ही, इस अस्‍थायित्‍व का अनुभव करने लगते। उन्‍हें याद हो आती उन रेलगाड़ियों की, जो आतीं और थोड़ी देर रुक कर किसी और लक्ष्‍य की ओर चली जातीं।

घर छोटा होने के कारण बैठक में ही अब अपना प्रबंध किया था। उनकी पत्‍नी के पास अंदर एक छोटा कमरा अवश्‍य था, पर वह एक ओर के मर्तबान, दाल-चावल के कनस्‍तर और घी के डिब्‍बों से घिरा था; दूसरी ओर पुरानी रजाइयाँ दरियों में लिपटी और रस्‍सी से बँधी रखी थीं; उसके पास एक बड़े-से टीन के बक्‍स में घर भर के गरम कपड़े थे। बीच में एक अलगनी बँधी हुई थी, जिस पर प्रायः बसंती के कपड़े लापरवाही से पड़े रहते थे। वह भरसक उस कमरे में नहीं जाते थे। घर का दूसरा कमरा अमर और उसकी बहू के पास था, तीसरा कमरा, जो सामने की ओर था, बैठक था। गजाधर बाबू के आने से पहले उसमें अमर की ससुराल से आया बेंत की तीन कुरसियों का सेट पड़ा था, कुरसियों पर नीली गद्दियाँ और बहू के हाथों के कढ़े कुशन थे।

जब कभी उनकी पत्‍नी को काई लंबी शि‍कायत करनी होती, तो अपनी चटाई बैठक में डाल पड़ जाती थीं। वह एक दिन चटाई ले कर आ गईं। गजाधर बाबू ने घर-गृहस्‍थी की बातें छेड़ीं, वह घर का रवैया देख रहे थे। बहुत हल्‍के से उन्‍होंने कहा कि अब हाथ में पैसा कम रहेगा, कुछ खर्च कम होना चाहिए।

'सभी खर्च तो वाजिब-वाजिब हैं, किसका पेट काटूँ? यही जोड़-गाँठ करते-करते बूढ़ी हो गई, न मन का पहना, न ओढ़ा।'

गजाधर बाबू ने आहत, विस्मित दृष्टि से पत्‍नी को देखा। उनसे अपनी हैसियत छिपी न थी। उनकी पत्‍नी तंगी का अनुभव कर उसका उल्‍लेख करतीं। यह स्‍वाभाविक था, लेकिन उनमें सहानुभूति का पूर्ण अभाव गजाधर बाबू को बहुत खटका। उनसे यदि राय-बात की जाय कि प्रबंध कैसे हो, तो उन्‍हें चिंता कम, संतोष अधिक होता। लेकिन उनसे तो केवल शिकायत की जाती थी, जैसे परिवार की सब परेशानियों के लिए वही जिम्‍मेदार थे।

'तुम्‍हें किस बात की कमी है अमर की माँ - घर में बहू है, लड़के-बच्‍चे हैं, सिर्फ रुपए से ही आदमी अमीर नहीं होता।' गजाधर बाबू ने कहा और कहने के साथ ही अनुभव किया। यह उनकी आंतरिक अभिव्‍यक्ति थी - ऐसी कि उनकी पत्‍नी नहीं समझ सकती। 'हाँ, बड़ा सुख है न बहू से। आज रसोई करने गई है, देखो क्‍या होता है?'

कह कर पत्‍नी ने आँखें मूँदीं और सो गईं। गजाधर बाबू बैठे हुए पत्‍नी को देखते रह गए। यही थी क्‍या उनकी पत्‍नी, जिसके हाथों के कोमल स्‍पर्श, जिसकी मुस्‍कान की याद में उन्‍होंने संपूर्ण जीवन काट दिया था? उन्‍हें लगा कि लावण्‍यमयी युवती जीवन की राह में कहीं खो गई है और उसकी जगह आज जो स्‍त्री है, वह उनके मन और प्राणों के लिए नितांत अपरिचित है। गाढ़ी नींद में डूबी उनकी पत्‍नी का भारी-सा शरीर बहुत बेडौल और कुरूप लग रहा था, चेहरा श्रीहीन और रूखा था। गजाधर बाबू देर तक निस्‍संग दृष्टि से पत्‍नी को देखते रहे और फिर लेट कर छत की और ताकने लगे।

अंदर कुछ गिरा और उनकी पत्‍नी हड़बड़ा कर उठ बैठीं, 'लो बिल्‍ली ने कुछ गिरा दिया शायद', और वह अंदर भागीं। थोड़ी देर में लौट कर आईं तो उनका मुँह फूला हुआ था, 'देखा बहू को, चौका खुला छोड़ आई, बिल्‍ली ने दाल की पतीली गिरा दी। सभी तो खाने को हैं, अब क्‍या खिलाऊँगी?' वह साँस लेने को रुकीं और बोलीं, 'एक तरकारी और चार पराँठे बनाने में सारा डिब्‍बा घी उँड़ेल कर रख दिया। जरा-सा दर्द नहीं है, कमाने वाला हाड़ तोड़े और यहाँ चीजें लुटें। मुझे तो मालूम था कि यह सब काम किसी के बस का नहीं है।'

गजाधर बाबू को लगा कि पत्‍नी कुछ और बोलेगी तो उनके कान झनझना उठेंगे। ओंठ भींच, करवट ले कर उन्‍होंने पत्‍नी की ओर पीठ कर ली।

रात का भोजन बसंती ने जान-बूझ कर ऐसा बनाया था कि कौर तक निगला न जा सके। गजाधर बाबू चुपचाप खा कर उठ गए, पर नरेंद्र थाली सरका कर उठ खड़ा हुआ और बोला, 'मैं ऐसा खाना नहीं खा सकता।'

बसंती तुनक कर बोली, 'तो न खाओ, कौन तुम्‍हारी खुशामद करता है।'

'तुमसे खाना बनाने को कहा किसने था?' नरेंद्र चिल्‍लाया।

'बाबूजी ने।'

'बाबूजी को बैठे-बैठे यही सूझता है।'

बसंती को उठा कर माँ ने नरेंद्र को मनाया और अपने हाथ से कुछ बना कर खिलाया। गजाधर बाबू ने बाद में पत्‍नी से कहा, 'इतनी बड़ी लड़की हो गई और उसे खाना बनाने तक का शऊर नहीं आया।'

'अरे, आता तो सब कुछ है, करना नहीं चाहती।' पत्नी ने उत्तर दिया। अगली शाम माँ को रसोई में देख, कपड़े बदल कर बसंती बाहर आई, तो बैठक से गजाधर बाबू ने टोक दिया, 'कहाँ जा रही हो?'

'पड़ोस में शीला के घर।' बसंती ने कहा।

'कोई जरूरत नहीं है, अंदर जा कर पढ़ो।' गजाधर बाबू ने कड़े स्‍वर में कहा। कुछ देर अनिश्चित खड़े रह कर बसंती अंदर चली गई। गजाधर बाबू शाम को रोज टहलने चले जाते थे, लौट कर आए तो पत्‍नी ने कहा, 'क्‍या कह दिया बसंती से? शाम से मुँह लपेटे पड़ी है। खाना भी नहीं खाया।'

गजाधर बाबू खिन्‍न हो आए। पत्‍नी की बात का उन्‍होंने कुछ उत्तर नहीं दिया। उन्‍होंने मन में निश्‍चय कर लिया कि बसंती की शादी जल्‍दी ही कर देनी है। उस दिन के बाद बसंती पिता से बची-बची रहने लगी। जाना होता तो पिछवाड़े से जाती। गजाधर बाबू ने दो-एक बार पत्‍नी से पूछा तो उत्तर मिला, 'रूठी हुई है।' गजाधर बाबू को रोष हुआ। लड़की के इतने मिजाज, जाने को रोक दिया तो पिता से बोलेगी नहीं। फिर उनकी पत्‍नी ने ही सूचना दी कि अमर अलग रहने की सोच रहा है।

'क्‍यों?' गजाधर बाबू ने चकित हो कर पूछा।

पत्‍नी ने साफ-साफ उत्तर नहीं दिया। अमर और उसकी बहू की शिकायतें बहुत थीं। उनका कहना था कि गजाधर बाबू हमेशा बैठक में ही पड़े रहते हैं, कोई आने-जानेवाला हो तो कहीं बिठाने को जगह नहीं। अमर को अब भी वह छोटा-सा समझते थे और मौके-बेमौके टोक देते थे। बहू को काम करना पड़ता था और सास जब-तब फूहड़पन पर ताने देती रहती थीं। 'हमारे आने से पहले भी कभी ऐसी बात हुई थी?' गजाधर बाबू ने पूछा। पत्‍नी ने सिर हिला कर बताया कि नहीं। पहले अमर घर का मालिक बन कर रहता था, बहू को कोई रोक-टोक न थी, अमर के दोस्‍तों का प्रायः यहीं अड्डा जमा रहता था और अंदर से नाश्‍ता चाय तैयार हो कर जाता रहता था। बसंती को भी वही अच्‍छा लगता था।

गजाधर बाबू ने बहुत धीरे से कहा, 'अमर से कहो, जल्‍दबाजी की कोई जरूरत नहीं है।'

अगले दिन वह सुबह घूम कर लौट तो उन्‍होंने पाया कि बैठक में उनकी चारपाई नहीं है। अंदर जा कर पूछने ही वाले थे कि उनकी दृष्टि रसोई के अंदर बैठी पत्‍नी पर पड़ी। उन्‍होंने यह कहने को मुँह खोला कि बहू कहाँ है, पर कुछ याद कर चुप हो गए। पत्‍नी की कोठरी में झाँका तो अचार, रजाइयों और कनस्‍तरों के मध्‍य अपनी चारपाई लगी पाई। गजाधर बाबू ने कोट उतारा और कहीं टाँगने को दीवार पर नजर दौड़ाई। फिर उसे मोड़ कर अलगनी के कुछ कपड़े खिसका कर एक किनारे टाँग दिया। कुछ खाए बिना ही अपनी चारपाई पर लेट गए। कुछ भी हो, तन आखिरकार बूढ़ा ही था। सुबह-शाम कुछ दूर टहलने अवश्‍य चले जाते, पर आते-जाते थक उठते थे। गजाधर बाबू को अपना बड़ा-सा क्‍वार्टर याद आ गया। निश्चित जीवन, सुबह पैसेंजर ट्रेन आने पर स्‍टेशन की चहल-पहल, चिर-परिचित चेहरे और पटरी पर रेल के पहियों की खट-खट, जो उनके लिए मधुर संगीत की तरह थी। तूफान और डाक गाड़ी के इंजनों की चिंघाड़ उनकी अकेली रातों की साथी थी। सेठ रामजी मल की मिल के कुछ लोग कभी-कभी पास आ बैठते, वही उनका दायरा था, वही उनके साथी। वह जीवन अब उन्‍हें एक खोई निधि-सा प्रतीत हुआ। उन्‍हें लगा कि वह जिंदगी द्वारा ठगे गए हैं। उन्‍होंने जो कुछ चाहा, उसमें से उन्‍हें एक बूँद भी न मिली।

लेटे हुए वह घर के अंदर से आते विविध स्‍वरों को सुनते रहे। बहू और सास की छोटी-सी झड़प, बाल्टी पर खुले नल की आवाज, रसोई के बर्तनों की खटपट और उसी में दो गौरैयों का वार्तालाप और अचानक ही उन्‍होंने निश्‍चय कर लिया कि अब घर की किसी बात में दखल न देंगे। यदि गृहस्‍वामी के लिए पूरे घर में एक चारपाई की जगह नहीं है, तो यहीं पड़े रहेंगे। अगर कहीं और डाल दी गई तो वहाँ चले जाएँगे। यदि बच्‍चों के जीवन में उनके लिए कहीं स्‍थान नहीं, तो अपने ही घर में परदेसी की तरह पड़े रहेंगे... और उस दिन के बाद सचमुच गजाधर बाबू कुछ नहीं बोले। नरेंद्र रुपए माँगने आया तो बिना कारण पूछे उसे रुपए दे दिए। बसंती काफी अँधेरा हो जाने के बाद भी पड़ोस में रही तो भी उन्‍होंने कुछ नहीं कहा - पर उन्‍हें सबसे बड़ा गम यह था कि उनकी पत्‍नी ने भी उनमें कुछ परिवर्तन लक्ष्‍य नहीं किया। वह मन-ही-मन कितना भार ढो रहे हैं, इससे वह अनजान ही बनी रहीं। बल्कि उन्‍हें पति के घर के मामले में हस्‍तक्षेप न करने के कारण शांति ही थी। कभी-कभी कह भी उठतीं, 'ठीक ही है, आप बीच में न पड़ा कीजिए, बच्‍चे बड़े हो गए हैं, हमारा जो कर्तव्य था, कर रहे हैं। पढ़ा रहे हैं, शादी कर देंगे।'

गजाधर बाबू ने आह‍त दृष्टि से पत्‍नी को देखा। उन्‍होंने अनुभव किया कि वह पत्‍नी और बच्‍चों के लिए केवल धनोपार्जन के निमित्त मात्र हैं। जिस व्‍यक्ति के अस्तित्‍व से पत्‍नी माँग में सिंदूर डालने की अधिकारिणी है, समाज में उसकी प्रतिष्‍ठा है, उसके सामने वह दो वक्‍त भोजन की थाली रख देने से सारे कर्तव्‍यों से छुट्टी पा जाती है। वह घी और चीनी के डिब्‍बों में इतनी रमी हुई है कि अब वही उसकी संपूर्ण दुनिया बन गई है। गजाधर बाबू उनके जीवन के केंद्र नहीं हो सकते, उन्‍हें तो अब बेटी की शादी के लिए भी उत्‍साह बुझ गया। किसी बात में हस्‍तक्षेप न करने के निश्‍चय के बाद भी उनका अस्तित्‍व उस वातावरण का एक भाग न बन सका। उनकी उपस्थिति उस घर में ऐसी असंगत लगने लगी थी, जैसे सजी हुई बैठक में उनकी चारपाई थी। उनकी सारी खुशी एक गहरी उदासीनता में डूब गई।

इतने सब निश्‍चयों के बावजूद एक दिन बीच में दखल दे बैठे। पत्‍नी स्‍वभावानुसार नौकर की शिकायत कर रही थीं, 'कितना कामचोर है, बाजार की भी चीज में पैसा बनाता है, खाने बैठता है, तो खाता ही चला जाता है।' गजाधर बाबू को बराबर यह महसूस होता रहता था कि उनके घर का रहन-सहन और खर्च उनकी हैसियत से कहीं ज्‍यादा है। पत्‍नी की बात सुन कर कहते कि नौकर का खर्च बिलकुल बेकार है। छोटा-मोटा काम है, घर में तीन मर्द हैं, कोई न कोई कर ही देगा। उन्‍होंने उसी दिन नौकर का हिसाब कर दिया। अमर दफ्तर से आया तो नौकर को पुकारने लगा। अमर की बहू बोली, 'बाबूजी ने नौकर छुड़ा दिया है।'

'क्‍यों?'

'कहते हैं खर्च बहुत है।'

यह वार्तालाप बहुत सीधा सा था, पर जिस टोन में बहू बोली, गजाधर बाबू को खटक गया। उस दिन जी भारी होने के कारण गजाधर बाबू टहलने नहीं गए थे। आलस्‍य में उठ कर बत्ती भी नहीं जलाई थी - इस बात से बेखबर नरेंद्र माँ से कहने लगा, 'अम्‍माँ, तुम बाबूजी से कहती क्‍यों नहीं? बैठे-बिठाए कुछ नहीं तो नौकर ही छुड़ा दिया। अगर बाबूजी यह समझें कि मैं साइकिल पर गेहूँ रख आटा पिसाने जाऊँगा, तो मुझ से यह नहीं होगा।' 'हाँ अम्‍माँ,' बसंती का स्‍वर था, 'मैं कॉलेज भी जाऊँ और लौट कर घर में झाड़ू भी लगाऊँ, यह मेरे बस की बात नहीं है।'

'बूढ़े आदमी हैं,' अमर भुनभुनाया, 'चुपचाप पड़े रहें। हर चीज में दखल क्‍यों देते हैं?' पत्‍नी ने बड़े व्‍यंग्‍य से कहा, 'और कुछ नहीं सूझा, तो तुम्‍हारी बहू को ही चौके में भेज दिया। वह गई तो पंद्रह दिन का राशन पाँच दिन में बना कर रख दिया।' बहू कुछ कहे, इससे पहले वह चौके में घुस गईं। कुछ देर में अपनी कोठरी में आईं और बिजली जलाई तो गजाधर बाबू को लेटे देख बड़ी सिटपिटाईं। गजाधर बाबू की मुख-मुद्रा से वह उनमें भावों का अनुमान न लगा सकीं। वह चुप आँखें बंद किए लेटे रहे।

गजाधर बाबू चिट्ठी हाथ में लिए अंदर आए और पत्‍नी को पुकारा। वह भीगे हाथ निकलीं और आँचल से पोंछती हुई पास आ खड़ी हुईं। गजाधर ने बिना किसी भूमिका के कहा, 'मुझे सेठ रामजी मल की चीनी मिल में नौकरी मिल गई है। खाली बैठे रहने से तो चार पैसे घर में आएँ, वही अच्‍छा है। उन्‍होंने तो पहले ही कहा था, मैंने ही मना कर दिया था।' फिर कुछ रुक कर, जैसे बुझी हुई आग में चिनगारी चमक उठे, उन्‍होंने धीमे स्‍वर में कहा, 'मैंने सोचा था कि बरसों तुम सबसे अलग रहने के बाद, अवकाश पा कर परिवार के साथ रहूँगा। खैर, परसों जाना है। तुम भी चलोगी?' 'मैं?' पत्‍नी ने सकपका कर कहा, 'मैं चलूँगी तो यहाँ का क्‍या होगा? इतनी बड़ी गृहस्‍थी, फिर सियानी लड़की...'
बात बीच में काट गजाधर बाबू ने हताश स्‍वर में कहा, 'ठीक है, तुम यहीं रहो। मैंने तो ऐसे ही कहा था।' और गहरे मौन में डूब गए।
नरेंद्र ने बड़ी तत्‍परता से बिस्‍तर बाँधा और रिक्‍शा बुला लाया। गजाधर बाबू का टीन का बक्‍स और पतला-सा बिस्‍तर उस पर रख दिया गया। नाश्‍ते के लिए लड्डू और मठरी की डलिया हाथ में लिए गजाधर बाबू रिक्‍शे पर बैठ गए। दृष्टि उन्‍होंने अपने परिवार पर डाली। फिर दूसरी ओर देखने लगे और रिक्शा चल पड़ा।
उनके जाने के बाद सब अंदर लौट आए। बहू ने अमर से पूछा, 'सिनेमा ले चलिएगा न?' बसंती ने उछल कर कहा, 'भइया, हमें भी।'
गजाधर बाबू की पत्‍नी सीधे चौके में चली गईं। बची हुई मठरियों को कटोरदान में रख कर अपने कमरे में लाईं और कनस्‍तरों के पास रख दिया, फिर बाहर आ कर कहा, 'अरे नरेंद्र, बाबू की चारपाई कमरे से निकाल दे। उसमें चलने तक की जगह नहीं है।'

ब्रह्मराक्षस का शिष्य / गजानन माधव मुक्तिबोध


उस महाभव्य भवन की आठवीं मंजिल के जीने से सातवीं मंजिल के जीने की सूनी-सूनी सीढियों पर उतरते हुए, उस विद्यार्थी का चेहरा भीतर से किसी प्रकाश से लाल हो रहा था।
वह चमत्कार उसे प्रभावित नहीं कर रहा था, जो उसने हाल-हाल में देखा। तीन कमरे पार करता हुआ वह विशाल वज्रबाहु हाथ उसकी आँखों के सामने फिर से खिंच जाता। उस हाथ की पवित्रता ही उसके खयाल में जाती किन्तु वह चमत्कार, चमत्कार के रूप में उसे प्रभावित नहीं करता था। उस चमत्कार के पीछे ऐसा कुछ है, जिसमें वह घुल रहा है, लगातार घुलता जा रहा है। वह कुछ क्या एक महापण्डित की जिन्दगी का सत्य नहीं है? नहीं, वही है! वही है!
पाँचवी मंजिल से चौथी मंजिल पर उतरते हुए, ब्रह्मचारी विद्यार्थी, उस प्राचीन भव्य भवन की सूनी-सूनी सीढियों पर यह श्लोक गाने लगता है।

मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभवः श्यामास्तमालद्रुमैः - इस भवन से ठीक बारह वर्ष के बाद यह विद्यार्थी बाहर निकला है। उसके गुरू ने जाते समय, राधा-माधव की यमुना-कूल-क्रीडा में घर भूली हुई राधा को बुला रहे नन्द के भाव प्रकट किये हैं। गुरू ने एक साथ श्रृंगार और वात्सल्य का बोध विद्यार्थी को करवाया। विद्याध्ययन के बाद, अब उसे पिता के चरण छूना है। पिताजी! पिताजी! माँ! माँ! यह ध्वनि उसके हृदय से फूट निकली।

किन्तु ज्यों-ज्यों वह छन्द सूने भवन में गूँजता, घूमता गया त्यों-त्यों विद्यार्थी के हृदय में अपने गुरू की तसवीर और भी तीव्रता से चमकने लगी।

भाग्यवान् है वह जिसे ऐसा गुरू मिले!

जब वह चिडियों के घोंसलों और बर्रों के छत्तों-भरे सूने ऊँचे सिंहाद्वार के बाहर निकला तो एकाएक राह से गुजरते हुए लोग भूत भूत कह कर भाग खडे हुए। आज तक उस भवन में कोई नहीं गया था। लोगों की धारणा थी कि वहाँ एक ब्रह्मराक्षस रहता है।

बारह साल और कुछ दिन पहले --

सडक़ पर दोपहर के दो बजे, एक देहाती लडक़ा, भूखा-प्यासा अपने सूखे होठों पर जीभ फेरता हुआ, उसी बगल वाले ऊँचे सेमल के वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था। हवा के झोकों से, फूलों के फलों का रेशमी कपास हवा में तैरता हुआ, दूर-दूर तक और इधर-उधर बिखर रहा था। उसके माथे पर फिक्रें गुँथ-बिंध रही थीं। उसने पास में पडी हुई एक मोटी ईंट सिरहाने रखी और पेड-तले लेट गया।

धीरे-धीरे, उसकी विचार-मग्नता को तोडते हुए कान के पास उसे कुछ फुसफुसाहट सुनाई दी। उसने ध्यान से सुनने की कोशिश की। वे कौन थे?

उनमें से एक कह रहा था, ''अरे, वह भट्ट। नितान्त मूर्ख है और दम्भी भी। मैंने जब उसे ईशावास्योपनिषद् की कुछ पंक्तियों का अर्थ पूछा, तो वह बौखला उठा। इस काशी में कैसे-कैसे दम्भी इकठ्ठे हुए हैं?

वार्तालाप सुनकर वह लेटा हुआ लडक़ा खट से उठ बैठा। उसका चेहरा धूल और पसीने से म्लान और मलिन हो गया था, भूख और प्यास से निर्जीव।

वह एकदम, बात करनेवालों के पास खडा हुआ। हाथ जोडे, माथा जमीन पर टेका। चेहरे पर आश्चर्य और प्रार्थना के दयनीय भाव! कहने लगा, हे विद्वानों! मैं मूर्ख हूँ। अपढ देहाती हूँ किन्तु ज्ञान-प्राप्ति की महत्वाकांक्षा रखता हूँ। हे महाभागो! आप विद्यार्थी प्रतीत होते हैं। मुझे विद्वान गुरू के घर की राह बताओ।

पेड-तले बैठे हुए दो बटुक विद्यार्थी उस देहाती को देखकर हँसने लगे; पूछा -

कहाँ से आया है?

दक्षिण के एक देहात से! ...पढने-लिखने से मैंने बैर किया तो विद्वान् पिताजी ने घर से निकाल दिया। तब मैंने पक्का निश्चय कर लिया कि काशी जाकर विद्याध्ययन करूँगा। जंगल-जंगल घूमता, राह पूछता, मैं आज ही काशी पहुँचा हूँ। कृपा करके गुरू का दर्शन कराइए।

अब दोनों विद्यार्थी जोर-जोर से हँसने लगे। उनमें-से एक, जो विदूषक था, कहने लगा --

देख बे सामने सिंहद्वार है। उसमें घुस जा, तुझे गुरू मिल जायेगा। कह कर वह ठठाकर हँस पडा।

आशा न थी कि गुरू बिलकुल सामने ही है। देहाती लडक़े ने अपना डेरा-डण्डा सँभाला और बिना प्रणाम किये तेजी से कदम बढाता हुआ भवन में दाखिल हो गया।

दूसरे बटुक ने पहले से पूछा, तुमने अच्छा किया उसे वहाँ भेज कर? उसके हृदय में खेद था और पाप की भावना।

दूसरा बटुक चुप था। उसने अपने किये पर खिन्न होकर सिर्फ इतना ही कहा, आखिर ब्रह्मराक्षस का रहस्य भी तो मालूम हो।

सिंहद्वार की लाल-लाल बरें गूँ-गूँ करती उसे चारों ओर से काटने के लिए दौडी; लेकिन ज्यों ही उसने उसे पार कर लिया तो सूरज की धूप में चमकनेवाली भूरी घास से भरे, विशाल, सूने आँगन के आस-पास, चारों ओर उसे बरामदे दिखाई दिये -- विशाल, भव्य और सूने बरामदे जिनकी छतों में फानूस लटक रहे थे। लगता था कि जैसे अभी-अभी उन्हें कोई साफ करके गया हो! लेकिन वहाँ कोई नहीं था।

आँगन से दीखनेवाली तीसरी मंजिल की छज्जेवाली मुँडेरे पर एक बिल्ली सावधानी से चलती हुई दिखाई दे रही थी। उसे एक जीना भी दिखाई दिया, लम्बा-चौडा, साफ-सुथरा। उसकी सीढियाँ ताजे गोबर से पुती हुई थीं। उसकी महक नाक में घुस रही थी। सीढियों पर उसके चलने की आवाज गूँजती; पर कहीं, कुछ नहीं!

वह आगे-आगे चढता-बढता गया। दूसरी मंजिल के छज्जे मिले जो बीच के आँगन के चारों ओर फैले हुए थे। उनमें सफेद चादर लगी गद्दियाँ दूर-दूर तक बिछी हुई थीं। एक ओर मृदंग, तबला, सितार आदि अनेक वाद्य-यन्त्र करीने से रखे हुए थे। रंग-बिरंगे फानूस लटक रहे थे और कहीं अगरबत्तियाँ जल रही थीं।

इतनी प्रबन्ध-व्यवस्था के बाद भी उसे कहीं मनुष्य के दर्शन नहीं हुए। और न कोई पैरों की आवाजें सुनाई दीं, सिवाय अपनी पग-ध्वनि के। उसने सोचा शायद ऊपर कोई होगा।

उसने तीसरी मंजिल पर जाकर देखा। फिर वही सफेद-सफेद गद्दियाँ, फिर वही फानूस, फिर वही अगरबत्तियाँ। वही खाली-खालीपन, वही सूनापन, वही विशालता, वही भव्यता और वही मनुष्य-हीनता।

अब उस देहाती के दिल में से आह निकली। यह क्या? यह कहाँ फँस गया; लेकिन इतनी व्यवस्था है तो कहीं कोई और जरूर होगा। इस खयाल से उसका डर कम हुआ और वह बरामदे में से गुजरता हुआ अगले जीने पर चढने लगा।

इन बरामदों में कोई सजावट नहीं थी। सिर्फ दरियाँ बिछी हुई थीं। कुछ तैल-चित्र टँगे थे। खिडक़ियाँ खुली हुई थीं जिनमें-से सूरज की पीली किरणें आ रही थीं। दूर ही से खिडक़ी के बाहर जो नजर जाती तो बाहर का हरा-भरा ऊँचा-नीचा, माल-तलैयों, पेडों-पहाडों वाला नजारा देखकर पता चलता कि यह मंजिल कितनी ऊँची हैं और कितनी निर्जन।

अब वह देहाती लडक़ा भयभीत हो गया। यह विशालता और निर्जनता उसे आतंकित करने लगी। वह डरने लगा। लेकिन वह इतना ऊपर आ गया था कि नीचे देखने ही से आँखों में चक्कर आ जाता। उसने ऊपर देखा तो सिर्फ एक ही मंजिल शेष थी। उसने अगले जीने से ऊपर की मंजिल चढना तय किया।

डण्डा कन्धे पर रखे और गठरी खोंसे वह लडक़ा धीरे-धीरे अगली मंजिल का जीना चढने लगा। उसके पैरों की आवाज उसी से जाने क्या फुसलाती और उसकी रीढ

क़ी हड्डी में-से सर्द संवेदनाएँ गुजरने लगतीं।

जीन खत्म हुआ तो फिर एक भव्य बरामदा मिला, लिपा-पुता और अगरू-गन्ध से महकता हुआ। सभी ओर मृगासन, व्याघ्रासन बिछे हुए। एक ओर योजनों विस्तार-दृश्य देखती, खिडक़ी के पास देव-पूजा में संलग्न-मन मुँदी आँखोंवाले ॠषि-मनीषि कश्मीर की कीमती शाल ओढे ध्यानस्थ बैठे।

लडक़े को हर्ष हुआ। उसने दरवाजे पर मत्था टेका। आनन्द के आँसू आँखों में खिल उठे। उसे स्वर्ग मिल गया।

ध्यान-मुद्रा भंग नहीं हुई तो मन-ही-मन माने हुए गुरू को प्रणाम कर लडक़ा जीने की सर्वोच्च सीढी पर लेट गया। तुरन्त ही उसे नींद आ गयी। वह गहरे सपनों में खो गया। थकित शरीर और सन्तुष्ट मन ने उसकी इच्छाओं को मूर्त-रूप दिया। ..वह विद्वान् बन कर देहात में अपने पिता के पास वापस पहुँच गया है। उनके चरणों को पकडे, उन्हें अपने आँसुओं से तर कर रहा है और आर्द्र-हृदय हो कर कह रहा है, पिताजी! मैं विद्वान बन कर आ गया, मुझे और सिखाइए। मुझे राह बताइए। पिताजी! पिताजी! और माँ अंचल से अपनी आँखें पोंछती हुई, पुत्र के ज्ञान-गौरव से भर कर, उसे अपने हाथ से खींचती हुई गोद में भर रही है। साश्रुमुख पिता का वात्सल्य-भरा हाथ उसके शीश पर आशीर्वाद का छत्र बन कर फैला हुआ है।

वह देहाती लडक़ा चल पडा और देखा कि उस तेजस्वी ब्राह्मण का दैदिप्यमान चेहरा, जो अभी-अभी मृदु और कोमल होकर उस पर किरनें बिखेर रहा था, कठोर और अजनबी होता जा रहा है।

ब्राह्मण ने कठोर होकर कहा, तुमने यहाँ आने का कैसे साहस किया? यहाँ कैसे आये?लडक़े ने मत्था टेका, भगवन्! मैं मूढ हूँ, निरक्षर हूँ, ज्ञानार्जन करने के लिए आया हूँ।

ब्राह्मण कुछ हँसा। उसकी आवाज धीमी हो गयी किन्तु दृढता वही रही। सूखापन और कठोरता वही।

तूने निश्चय कर लिया है?

जी!

नहीं, तुझे निश्चय की आदत नहीं है; एक बार और सोच ले! ...ज़ा फिलहाल नहा-धो उस कमरे में, वहाँ जाकर भोजन कर लेट, सोच-विचार! कल मुझ से मिलना।

दूसरे दिन प्रत्युष काल में लडक़ा गुरू से पूर्व जागृत हुआ। नहाया-धोया। गुरू की पूजा की थाली सजायी और आज्ञाकारी शिष्य की भांति आदेश की प्रतीक्षा करने लगा। उसके शरीर में अब एक नई चेतना आ गयी थी। नेत्र प्रकाशमान थे।

विशालबाहु पृथु-वक्ष तेजस्वी ललाटवाले अपने गुरू की चर्या देखकर लडक़ा भावुक-रूप से मुग्ध हो गया था। वह छोटे-से-छोटा होना चाहता था कि जिससे लालची चींटी की भाँति जमीन पर पडा, मिट्टी में मिला, ज्ञान की शक्कर का एक-एक कण साफ देख सके और तुरन्त पकड सके!

गुरू ने संशयपूर्ण दृष्टि से देख उसे डपट कर पूछा; सोच-विचार लिया?

जी! की डरी हुई आवाज!

कुछ सोच कर गुरू ने कहा, नहीं, तुझे निश्चय करने की आदत नहीं है। एक बार पढाई शुरू करने पर तुम बारह वर्ष तक फिर यहाँ से निकल नहीं सकते।

सोच-विचार लो। अच्छा, मेरे साथ एक बजे भोजन करना, अलग नहीं!

और गुरू व्याघ्रासन पर बैठकर पूजा-अर्चा में लीन हो गये। इस प्रकार दो दिन और बीत गये। लडक़े ने अपना एक कार्यक्रम बना लिय था, जिसके अनुसार वह काम करता रहा। उसे प्रतीत हुआ कि गुरू उससे सन्तुष्ट हैं।

एक दिन गुरू ने पूछा, तुमने तय कर लिया है कि बारह वर्ष तक तुम इस भवन के बाहर पग नहीं रखोगे?

नतमस्तक हो कर लडक़े ने कहा, जी!

गुरू को थोडी हँसी आयी, शायद उसकी मूर्खता पर या अपनी मूर्खता पर, कहा नहीं जा सकता। उन्हें लगा कि क्या इस निरे निरक्षर के आँखें नहीं है? क्या यहाँ का वातावरण सचमुच अच्छा मालूम होता है? उन्होंने अपने शिष्य के मुख का ध्यान से अवलोकन किया। एक सीधा, भोला-भाला निरक्षर बालमुख! चेहरे पर निष्कपट, निश्छल ज्योति!

अपने चेहरे पर गुरू की गडी हुई दृष्टि से किंचित विचलित होकर शिष्य ने अपनी निरक्षर बुध्दिवाला मस्तक और नीचा कर लिया।

गुरू का हृदय पिघला! उन्होंने दिल दहलाने वाली आवाज से, जो काफी धीमी थी, कहा, देख! बारह वर्ष के भीतर तू वेद, संगीत, शास्त्र, पुराण, आयुर्वेद, साहित्य, गणित आदि-आदि समस्त शास्त्र और कलाओं में पारंगत हो जावेगा। केवल भवन त्याग कर तुझे बाहर जाने की अनुज्ञा नहीं मिलेगी। ला, वह आसन। वहाँ बैठ।

और इस प्रकार गुरू ने पूजा-पाठ के स्थान के समीप एक कुशासन पर अपने शिष्य को बैठा, परंपरा के अनुसार पहले शब्द-रूपावली से उसका विद्याध्ययन प्रारम्भ कराया।

गुरू ने मृदुता ने कहा, -- बोलो बेटे --

रामः, रामौ, रामाः

और इस बाल-विद्यार्थी की अस्फुट हृदय की वाणी उस भयानक निःसंग, शून्य, निर्जन, वीरान भवन में गूँज-गूँज उठती।

सारा भवन गाने लगा --

रामः रामौ रामाः -- प्रथमा!

धीरे-धीरे उसका अध्ययन सिध्दान्तकौमुदी तक आया और फिर अनेक विद्याओं को आत्मसात् कर, वर्ष एक-के-बाद-एक बीतने लगे। नियमित आहार-विहार और संयम के फलस्वरूप विद्यार्थी की देह पुष्ट हो गयी और आँखों में नवीन तारूण्य की चमक प्रस्फुटित हो उठी। लडक़ा, जो देहाती था अब गुरू से संस्कृत में वार्तालाप भी करने लगा।

केवल एक ही बात वह आज तक नहीं जान सका। उसने कभी जानने का प्रयत्न नहीं किया। वह यह कि इस भव्य-भवन में गुरू के समीप इस छोटी-सी दुनिया में यदि और कोई व्यक्ति नहीं है तो सारा मामला चलता कैसे है? निश्चित समय पर दोनों गुरू-शिष्य भोजन करते। सुव्यवस्थित रूप से उन्हें सादा किन्तु सुचारू भोजन मिलता। इस आठवीं मंजिल से उतर सातवीं मंजिल तक उनमें से कोई कभी नहीं गया। दोनों भोजन के समय अनेक विवादग्रस्त प्रश्नों पर चर्चा करते। यहाँ इस आठवीं मंजिल पर एक नई दुनिया बस गयी।

जब गुरू उसे कोई छन्द सिखलाते और जब विद्यार्थी मन्दाक्रान्ता या शार्दूल्विक्रीडित गाने लगता तो एकाएक उस भवन में हलके-हलके मृदंग और वीणा बज उठती और वह वीरान, निर्जन, शून्य भवन वह छन्द गा उठता।

एक दिन गुरू ने शिष्य से कहा, बेटा! आज से तेरा अध्ययन समाप्त हो गया है। आज ही तुझे घर जाना है। आज बारहवें वर्ष की अन्तिम तिथि है। स्नान-सन्ध्यादि से निवृत्त हो कर आओ और अपना अन्तिम पाठ लो।

पाठ के समय गुरू और शिष्य दोनों उदास थे। दोनों गम्भीर। उनका हृदय भर रहा था। पाठ के अनन्तर यथाविधि भोजन के लिए बैठे।

दूसरे कक्ष में वे भोजन के लिए बैठे थे। गुरू और शिष्य दोनों अपनी अन्तिम बातचीत के लिए स्वयं को तैयार करते हुए कौर मुँह में डालने ही वाले थे कि गुरू ने कहा, बेटे, खिचडी में घी नहीं डाला है?

शिष्य उठने ही वाला था कि गुरू ने कहा, नहीं, नहीं, उठो मत! और उन्होंने अपना हाथ इतना बढा दिया कि वह कक्ष पार जाता हुआ, अन्य कक्ष में प्रवेश कर क्षण के भीतर, घी की चमचमाती लुटिया लेकर शिष्य की खिचडी में घी उडेलने लगा। शिष्य काँप कर स्तम्भित रह गया। वह गुरू के कोमल वृध्द मुख को कठोरता से देखने लगा कि यह कौन है? मानव है या दानव? उसने आज तक गुरू के व्यवहार में कोई अप्राकृतिक चमत्कार नहीं देखा था। वह भयभीत, स्तम्भित रह गया।

गुरू ने दुःखपूर्ण कोमलता से कहा, शिष्य! स्पष्ट कर दूँ कि मैं ब्रह्मराक्षस हूँ किन्तु फिर भी तुम्हारा गुरू हूँ। मुझे तुम्हारा स्नेह चाहिए। अपने मानव-जीवन में मैंने विश्व की समस्त विद्या को मथ डाला किन्तु दुर्भाग्य से कोई योग्य शिष्य न मिल पाया कि जिसे मैं समस्त ज्ञान दे पाता। इसीलिए मेरी आत्मा इस संसार में अटकी रह गयी और मैं ब्रह्मराक्षस के रूप में यहाँ विराजमान रहा।

तुम आये, मैंने तुम्हें बार-बार कहा, लौट जाओ। कदाचित् तुममें ज्ञान के लिए आवश्यक श्रम और संयम न हो किन्तु मैंने तुम्हारी जीवन-गाथा सुनी। विद्या से वैर रखने के कारण, पिता-द्वारा अनेक ताडनाओं के बावजूद तुम गँवार रहे और बाद में माता-पिता-द्वारा निकाल दिये जाने पर तुम्हारे व्यथित अहंकार ने तुम्हें ज्ञान-लोक का पथ खोज निकालने की ओर प्रवृत्त किया। मैं प्रवृत्तिवादी हूँ, साधु नहीं। सैंकडों मील जंगल की बाधाएँ पार कर तुम काशी आये। तुम्हारे चेहरे पर जिज्ञासा का आलोक था। मैंने अज्ञान से तुम्हारी मुक्ति की। तुमने मेरा ज्ञान प्राप्त कर मेरी आत्मा को मुक्ति दिला दी। ज्ञान का पाया हुआ उत्तदायित्व मैंने पूरा किया। अब मेरा यह उत्तरदायित्व तुम पर आ गया है। जब तक मेरा दिया तुम किसी और को न दोगे तब तक तुम्हारी मुक्ति नहीं।

शिष्य, आओ, मुझे विदा दो।

अपने पिताजी और माँजी को प्रणाम कहना। शिष्य ने साश्रुमुख ज्यों ही चरणों पर मस्तक रखा आशीर्वाद का अन्तिम कर-स्पर्श पाया और ज्यों ही सिर ऊपर उठाया तो वहाँ से वह ब्रह्मराक्षस तिरोधान हो गया।

वह भयानक वीरान, निर्जन बरामदा सूना था। शिष्य ने ब्रह्मराक्षस गुरू का व्याघ्रासन लिया और उनका सिखाया पाठ मन-ही-मन गुनगुनाते हुए आगे बढ ग़या।

राजा निरबंसिया / कमलेश्वर


''एक राजा निरबंसिया थे,'' मां कहानी सुनाया करती थीं। उनके आसपास ही चार-पांच बच्चे अपनी मुठ्ठियों में फूल दबाए कहानी समाप्त होने पर गौरों पर चढाने के लिए उत्सुक-से बैठ जाते थे। आटे का सुन्दर-सा चौक पुरा होता, उसी चौक पर मिट्टी की छः गौरें रखी जातीं, जिनमें से ऊपरवाली के बिन्दिया और सिन्दूर लगता, बाकी पांचों नीचे दबी पूजा ग्रहण करती रहतीं। एक ओर दीपक की बाती स्थिर-सी जलती रहती और मंगल-घट रखा रहता, जिस पर रोली से सथिया बनाया जाता। सभी बैठे बच्चों के मुख पर फूल चढाने की उतावली की जगह कहानी सुनने की सहज स्थिरता उभर आती।

''एक राजा निरबंसिया थे,'' मां सुनाया करती थीं, ''उनके राज में बडी ख़ुशहाली थी। सब वरण के लोग अपना-अपना काम-काज देखते थे। कोई दुखी नहीं दिखाई पडता था। राजा के एक लक्ष्मी-सी रानी थी, चंद्रमा-सी सुन्दर और राजा को बहुत प्यारी। राजा राज-काज देखते और सुख-से रानी के महल में रहते। ''

मेरे सामने मेरे ख्यालों का राजा था, राजा जगपती! तब जगपती से मेरी दांतकाटी दोस्ती थी, दोनों मिडिल स्कूल में पढने जाते। दोनों एक-से घर के थे, इसलिए बराबरी की निभती थी। मैं मैट्रिक पास करके एक स्कूल में नौकर हो गया और जगपती कस्बे के ही वकील के यहां मुहर्रिर। जिस साल जगपती मुहर्रिर हुआ, उसी वर्ष पास के गांव में उसकी शादी हुई, पर ऐसी हुई कि लोगों ने तमाशा बना देना चाहा। लडक़ीवालों का कुछ विश्वास था कि शादी के बाद लडक़ी की विदा नहीं होगी।

ब्याह हो जाएगा और सातवीं भांवर तब पडेग़ी, जब पहली विदा की सायत होगी और तभी लडक़ी अपनी ससुराल जाएगी। जगपती की पत्नी थोडी-बहुत पढी-लिखी थी, पर घर की लीक को कौन मेटे! बारात बिना बहू के वापस आ गई और लडक़ेवालों ने तय कर लिया कि अब जगपती की शादी कहीं और कर दी जाएगी, चाहें कानी-लूली से हो, पर वह लडक़ी अब घर में नहीं आएगी। लेकिन साल खतम होते-होते सब ठीक-ठाक हो गया। लडक़ीवालों ने माफी मांग ली और जगपती की पत्नी अपनी ससुराल आ गई।

जगपती को जैसे सब कुछ मिल गया और सास ने बहू की बलाइयां लेकर घर की सब चाबियां सौंप दीं, गृहस्थी का ढंग-बार समझा दिया। जगपती की मां न जाने कब से आस लगाए बैठीं थीं। उन्होंने आराम की सांस ली। पूजा-पाठ में समय कटने लगा, दोपहरियां दूसरे घरों के आंगन में बीतने लगीं। पर सांस का रोग था उन्हें, सो एक दिन उन्होंने अपनी अन्तिम घडियां गिनते हुए चन्दा को पास बुलाकर समझाया था - ''बेटा, जगपती बडे लाड-प्यार का पला है। जब से तुम्हारे ससुर नहीं रहे तब से इसके छोटे-छोटे हठ को पूरा करती रही हूं , अब तुम ध्यान रखना।'' फिर रुककर उन्होंने कहा था, ''जगपती किसी लायक हुआ है, तो रिश्तेदारों की आंखों में करकने लगा है। तुम्हारे बाप ने ब्याह के वक्त नादानी की, जो तुम्हें विदा नहीं किया। मेरे दुश्मन देवर-जेठों को मौका मिल गया। तूमार खडा कर दिया कि अब विदा करवाना नाक कटवाना है। जगपती का ब्याह क्या हुआ, उन लोगों की छाती पर सांप लोट गया। सोचा, घर की इज्जत रखने की आड लेकर रंग में भंग कर दें। अब बेटा, इस घर की लाज तुम्हारी लाज है। आज को तुम्हारे ससुर होते, तो भला....'' कहते कहते मां की आंखों में आंसू आ गए, और वे जगपती की देखभाल उसे सौंपकर सदा के लिए मौन हो गई थीं।

एक अरमान उनके साथ ही चला गया कि जगपती की सन्तान को, चार बरस इन्तजार करने के बाद भी वे गोद में न खिला पाईं। और चन्दा ने मन में सब्र कर लिया था, यही सोचकर कि कुल-देवता का अंश तो उसे जीवन-भर पूजने को मिल गया था। घर में चारों तरफ जैसे उदारता बिखरी रहती, अपनापा बरसता रहता। उसे लगता, जैसे घर की अंधेरी, एकान्त कोठरियों में यह शान्त शीतलता है जो उसे भरमा लेती है। घर की सब कुण्डियों की खनक उसके कानों में बस गई थी, हर दरवाजे की चरमराहट पहचान बन गई थीं।

''एक रोज राजा आखेट को गए,'' मां सुनाती थीं, ''राजा आखेट को जाते थे, तो सातवें रोज ज़रूर महल में लौट आते थे। पर उस दफा जब गए, तो सातवां दिन निकल गया, पर राजा नहीं लौटे। रानी को बडी चिन्ता हुई। रानी एक मन्त्री को साथ लेकर खोज में निकलीं । ''

और इसी बीच जगपती को रिश्तेदारी की एक शादी में जाना पडा। उसके दूर रिश्ते के भाई दयाराम की शादी थी। कह गया था कि दसवें दिन जरूर वापस आ जाएगा। पर छठे दिन ही खबर मिली कि बारात घर लौटने पर दयाराम के घर डाका पड ग़या। किसी मुखबिर ने सारी खबरें पहुंचा दी थीं कि लडक़ीवालों ने दयाराम का घर सोने-चांदी से पाट दिया है,आखिर पुश्तैनी जमींदार की इकलौती लडक़ी थी। घर आए मेहमान लगभग विदा हो चुके थे। दूसरे रोज जगपती भी चलनेवाला था, पर उसी रात डाका पडा। जवान आदमी, भला खून मानता है! डाकेवालों ने जब बन्दूकें चलाई, तो सबकी घिग्घी बंध गई पर जगपती और दयाराम ने छाती ठोककर लाठियां उठा लीं। घर में कोहराम मच गया फ़िर सन्नाटा छा गया। डाकेवाले बराबर गोलियां दाग रहे थे। बाहर का दरवाजा टूट चुका था। पर जगपती ने हिम्मत बढाते हुए हांक लगाई, ''ये हवाई बन्दूकें इन ठेल-पिलाई लाठियों का मुकाबला नहीं कर पाएंगी, जवानो।''

पर दरवाजे तड-तड टूटते रहे, और अन्त में एक गोली जगपती की जांघ को पार करती निकल गई, दूसरी उसकी जांघ के ऊपर कूल्हे में समा कर रह गई।

चन्दा रोती-कलपती और मनौतियां मानती जब वहां पहुँची, तो जगपती अस्पताल में था। दयाराम के थोडी चोट आई थी। उसे अस्पताल से छुट्टी मिल गई थीं। जगपती की देखभाल के लिए वहीं अस्पताल में मरीजों के रिश्तेदारों के लिए जो कोठरियां बनीं थीं, उन्हीं में चन्दा को रुकना पडा। कस्बे के अस्पताल से दयाराम का गांव चार कोस पडता था। दूसरे-तीसरे वहां से आदमी आते-जाते रहते, जिस सामान की जरूरत होती, पहुंचा जाते।

पर धीरे-धीरे उन लोगों ने भी खबर लेना छोड दिया। एक दिन में ठीक होनेवाला घाव तो था नहीं। जांघ की हड्डी चटख गई थी और कूल्हे में ऑपरेशन से छः इंच गहरा घाव था।

कस्बे का अस्पताल था। कम्पाउण्डर ही मरीजों की देखभाल रखते। बडा डॉक्टर तो नाम के लिए था या कस्बे के बडे आदमियों के लिए। छोटे लोगों के लिए तो कम्पोटर साहब ही ईश्वर के अवतार थे। मरीजों की देखभाल करनेवाले रिश्तेदारों की खाने-पीने की मुश्किलों से लेकर मरीज की नब्ज तक संभालते थे। छोटी-सी इमारत में अस्पताल आबाद था। रोगियों को सिर्फ छः-सात खाटें थी। मरीजों के कमरे से लगा दवा बनाने का कमरा था, उसी में एक ओर एक आरामकुर्सी थी और एक नीची-सी मेज। उसी कुर्सी पर बडा डॉक्टर आकर कभी-कभार बैठता था, नहीं तो बचनसिंह कपाउण्डर ही जमे रहते। अस्पताल में या तो फौजदारी के शहीद आते या गिर-गिरा के हाथ-पैर तोड लेनेवाले एक-आध लोग। छठे-छमासे कोई औरत दिख गई तो दीख गई, जैसे उन्हें कभी रोग घेरता ही नहीं था। कभी कोई बीमार पडती तो घरवाले हाल बताके आठ-दस रोज क़ी दवा एक साथ ले जाते और फिर उसके जीने-मरने की खबर तक न मिलती।

उस दिन बचनसिंह जगपती के घाव की पट्टी बदलने आया। उसके आने में और पट्टी खोलने में कुछ ऐसी लापरवाही थी, जैसे गलत बंधी पगडी क़ो ठीक से बांधने के लिए खोल रहा हो। चन्दा उसकी कुर्सी के पास ही सांस रोके खडी थी। वह और रोगियों से बात करता जा रहा था। इधर मिनट-भर को देखता, फिर जैसे अभ्यस्त-से उसके हाथ अपना काम करने लगते। पट्टी एक जगह खून से चिपक गई थी, जगपती बुरी तरह कराह उठा। चन्दा के मुंह से चीख निकल गई। बचनसिंह ने सतर्क होकर देखा तो चन्दा मुख में धोती का पल्ला खोंसे अपनी भयातुर आवाज दबाने की चेष्टा कर रही थी। जगपती एकबारगी मछली-सा तडपकर रह गया। बचनसिंह की उंगलियां थोडी-सी थरथराई कि उसकी बांह पर टप-से चन्दा का आंसू चू पडा।

बचनसिंह सिहर-सा गया और उसके हाथों की अभ्यस्त निठुराई को जैसे किसी मानवीय कोमलता ने धीरे-से छू दिया। आहों, कराहों, दर्द-भरी चीखों और चटखते शरीर के जिस वातावरण में रहते हुए भी वह बिल्कुल अलग रहता था, फोडों को पके आम-सा दबा देता था, खाल को आलू-सा छील देता था। उसके मन से जिस दर्द का अहसास उठ गया था, वह उसे आज फिर हुआ और वह बच्चे की तरह फूंक-फूंककर पट्टी को नम करके खोलने लगा। चन्दा की ओर धीरे-से निगाह उठाकर देखते हुए फुसफुसाया, ''च..च रोगी की हिम्मत टूट जाती है ऐसे।''

पर जैसे यह कहते-कहते उसका मन खुद अपनी बात से उचंट गया। यह बेपरवाही तो चीख और कराहों की एकरसता से उसे मिली थी, रोगी की हिम्मत बढाने की कर्तव्यनिष्ठा से नहीं। जब तक वह घाव की मरहम-पट्टी करता रहा, तब तक किन्हीं दो आंखों की करूणा उसे घेरे रही।

और हाथ धोते समय वह चन्दा की उन चूडियों से भरी कलाइयों को बेझिझक देखता रहा, जो अपनी खुशी उससे मांग रही थीं। चन्दा पानी डालती जा रही थी और बचनसिंह हाथ धोते-धोते उसकी कलाइयों, हथेलियों और पैरों को देखता जा रहा था। दवाखाने की ओर जाते हुए उसने चन्दा को हाथ के इशारे से बुलाकर कहा, ''दिल छोटा मत करना जांघ का घाव तो दस रोज में भर जाएगा, कूल्हे का घाव कुछ दिन जरूर लेगा। अच्छी से अच्छी दवाई दूंगा। दवाइयां तो ऐसी हैं कि मुर्दे को चंगा कर दें। पर हमारे अस्पताल में नहीं आतीं, फिर भी..''
''तो किसी दूसरे अस्पताल से नहीं आ सकतीं वो दवाइयां?'' चन्दा ने पूछा।
''आ तो सकती हैं, पर मरीज को अपना पैसा खरचना पडता है उनमें । ''बचनसिंह ने कहा।

चन्दा चुप रह गई तो बचनसिंह के मुंह से अनायास ही निकल पडा, ''किसी चीज क़ी जरूरत हो तो मुझे बताना। रही दवाइयां, सो कहीं न कहीं से इन्तजाम करके ला दूंगा। महकमे से मंगाएंगे, तो आते-अवाते महीनों लग जाएंगे। शहर के डॉक्टर से मंगवा दूंगा। ताकत की दवाइयों की बडी ज़रूरत है उन्हें। अच्छा, देखा जाएगा। '' कहते-कहते वह रुक गया।

चन्दा से कृतज्ञता भरी नजरों से उसे देखा और उसे लगा जैसे आंधी में उडते पत्ते को कोई अटकाव मिल गया हो। आकर वह जगपती की खाट से लगकर बैठ गई। उसकी हथेली लेकर वह सहलाती रही। नाखूनों को अपने पोरों से दबाती रही।

धीरे-धीरे बाहर अंधेरा बढ चला। बचनसिंह तेल की एक लालटेन लाकर मरीज़ों के कमरे के एक कोने में रख गया। चन्दा ने जगपती की कलाई दबाते-दबाते धीरे से कहा, ''कम्पाउण्डर साहब कह रहे थे '' और इतना कहकर वह जगपती का ध्यान आकृष्ट करने के लिए चुप हो गई।
''क्या कह रहे थे?'' जगपती ने अनमने स्वर में बोला।
''कुछ ताकत की दवाइयां तुम्हारे लिए जरूरी हैं!''
''मैं जानता हूं।''
''पर.. ''
''देखो चन्दा, चादर के बराबर ही पैर फैलाए जा सकते हैं। हमारी औकात इन दवाइयों की नहीं है।
''औकात आदमी की देखी जाती है कि पैसे की, तुम तो..''
''देखा जाएगा।''
''कम्पाउण्डर साहब इन्तजाम कर देंगे, उनसे कहूंगी मैं।''
''नहीं चन्दा, उधारखाते से मेरा इलाज नहीं होगा चाहे एक के चार दिन लग जाएं।''
''इसमें तो ''
''तुम नहीं जानतीं, कर्ज क़ोढ क़ा रोग होता है, एक बार लगने से तन तो गलता ही है, मन भी रोगी हो जाता है।''
''लेकिन..''कहते-कहते वह रुक गई।

जगपती अपनी बात की टेक रखने के लिए दूसरी ओर मुंह घुमाकर लेटा रहा।

और तीसरे रोज जगपती के सिरहाने कई ताकत की दवाइयां रखी थीं, और चन्दा की ठहरने वाली कोठरी में उसके लेटने के लिए एक खाट भी पहुंच गई थी। चन्दा जब आई, तो जगपती के चेहरे पर मानसिक पीडा की असंख्य रेखाएं उभरी थीं, जैसे वह अपनी बीमारी से लडने के अलावा स्वयं अपनी आत्मा से भी लड रहा हो । चन्दा की नादानी और स्नेह से भी उलझ रहा हो और सबसे ऊपर सहायता करनेवाले की दया से जूझ रहा हो।

चन्दा ने देखा तो यह सब सह न पाई। उसके जी में आया कि कह दे, क्या आज तक तुमने कभी किसी से उधार पैसे नहीं लिए? पर वह तो खुद तुमने लिए थे और तुम्हें मेरे सामने स्वीकार नहीं करना पडा था। इसीलिए लेते झिझक नहीं लगी, पर आज मेरे सामने उसे स्वीकार करते तुम्हारा झूठा पौरूष तिलमिलाकर जाग पडा है। पर जगपती के मुख पर बिखरी हुई पीडा में जिस आदर्श की गहराई थी, वह चन्दा के मन में चोर की तरह घुस गई, और बडी स्वाभाविकता से उसने माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, ''ये दवाइयां किसी की मेहरबानी नहीं हैं। मैंने हाथ का कडा बेचने को दे दिया था, उसी में आई हैं।''
''मुझसे पूछा तक नहीं और..'' जगपती ने कहा और जैसे खुद मन की कमजोरी को दबा गया - कडा बेचने से तो अच्छा था कि बचनसिंह की दया ही ओढ ली जाती। और उसे हल्का-सा पछतावा भी था कि नाहक वह रौ में बडी-बडी बातें कह जाता है, ज्ञानियों की तरह सीख दे देता है।

और जब चन्दा अंधेरा होते उठकर अपनी कोठरी में सोने के लिए जाने को हुई, तो कहते-कहते यह बात दबा गई कि बचनसिंह ने उसके लिए एक खाट का इन्तजाम भी कर दिया है। कमरे से निकली, तो सीधी कोठरी में गई और हाथ का कडा लेकर सीधे दवाखाने की ओर चली गई, जहां बचनसिंह अकेला डॉक्टर की कुर्सी पर आराम से टांगें फैलाए लैम्प की पीली रोशनी में लेटा था। जगपती का व्यवहार चन्दा को लग गया था, और यह भी कि वह क्यों बचनसिंह का अहसान अभी से लाद ले, पति के लिए जेवर की कितनी औकात है। वह बेधडक-सी दवाखाने में घुस गई। दिन की पहचान के कारण उसे कमरे की मेज-क़ुर्सी और दवाओं की अलमारी की स्थिति का अनुमान था, वैसे कमरा अंधेरा ही पडा था, क्योंकि लैम्प की रोशनी केवल अपने वृत्त में अधिक प्रकाशवान होकर कोनों के अंधेरे को और भी घनीभूत कर रही थी। बचनसिंह ने चन्दा को घुसते ही पहचान लिया। वह उठकर खडा हो गया। चन्दा ने भीतर कदम तो रख दिया पर सहसा सहम गई, जैसे वह किसी अंधेरे कुएं में अपने-आप कूद पडी हो, ऐसा कुआं, जो निरन्तर पतला होता गया है और जिसमें पानी की गहराई पाताल की पर्तों तक चली गई हो, जिसमें पडकर वह नीचे धंसती चली जा रही हो, नीचे ..अंधेरा..एकान्त, घुटन..पाप!

बचनसिंह अवाक् ताकता रह गया और चन्दा ऐसे वापस लौट पडी, जैसे किसी काले पिशाच के पंजों से मुक्ति मिली हो। बचनसिंह के सामने क्षण-भर में सारी परिस्थिति कौंध गई और उसने वहीं से बहुत संयत आवाज में जबान को दबाते हुए जैसे वायु में स्पष्ट ध्वनित कर दिया - ''चन्दा!'' वह आवाज इतनी बे-आवाज थी और निरर्थक होते हुए भी इतनी सार्थक थी कि उस खामोशी में अर्थ भर गया। चन्दा रुक गई। बचनसिंह उसके पास जाकर रुक गया।
सामने का घना पेड स्तब्ध खडा था, उसकी काली परछाई की परिधि जैसे एक बार फैलकर उन्हें अपने वृत्त में समेट लेती और दूसरे ही क्षण मुक्त कर देती। दवाखाने का लैम्प सहसा भभककर रुक गया और मरीजों के कमरे से एक कराह की आवाज दूर मैदान के छो तक जाकर डूब गई।

चन्दा ने वैसे ही नीचे ताकते हुए अपने को संयत करते हुए कहा, ''यह कडा तुम्हें देने आई थी।''
''तो वापस क्यों चली जा रही थीं?''

चन्दा चुप। और दो क्षण रुककर उसने अपने हाथ का सोने का कडा धीरे-से उसकी ओर बढा दिया, जैसे देने का साहस न होते हुए भी यह काम आवश्यक था। बचनसिंह ने उसकी सारी काया को एक बार देखते हुए अपनी आंखें उसके सिर पर जमा दीं, उसके ऊपर पडे कपडे क़े पार नरम चिकनाई से भरे लम्बे-लम्बे बाल थे, जिनकी भाप-सी महक फैलती जा रही थी। वह धीरे-धीरे से बोला, ''लाओ।''
चन्दा ने कडा उसकी ओर बढा दिया। कडा हाथ में लेकर वह बोला, ''सुनो।''
चन्दा ने प्रश्न-भरी नजरें उसकी ओर उठा दी। उनमें झांकते हुए, अपने हाथ से उसकी कलाई पकडते हुए उसने वह कडा उसकी कलाई में पहना दिया। चन्दा चुपचाप कोठरी की ओर चल दी और बचनसिंह दवाखाने की ओर।

कालिख बुरी तरह बढ ग़ई थी और सामने खडे पेड क़ी काली परछाई गहरी पड ग़ई थी। दोनों लौट गए थे। पर जैसे उस कालिख में कुछ रह गया था, छूट गया था। दवाखाने का लैम्प जो जलते-जलते एक बार भभका था, उसमें तेल न रह जाने के कारण बत्ती की लौ बीच से फट गई थी, उसके ऊपर धुएं की लकीरें बल खाती, सांप की तरह अंधेरे में विलीन हो जाती थीं।

सुबह जब चन्दा जगपती के पास पहुंची और बिस्तर ठीक करने लगी तो जगपती को लगा कि चन्दा बहुत उदास थी। क्षण-क्षण में चन्दा के मुख पर अनगिनत भाव आ-जा रहे थे, जिनमें असमंजस था, पीडा थी और निरीहता थी। कोई अदृश्य पाप कर चुकने के बाद हृदय की गहराई से किए गए पश्चाताप जैसी धूमिल चमक?

''रानी मन्त्री के साथ जब निराश होकर लौटीं, तो देखा, राजा महल में उपस्थित थे। उनकी खुशी का ठिकाना न रहा।'' मां सुनाया करती थीं, ''पर राजा को रानी का इस तरह मन्त्री के साथ जाना अच्छा नहीं लगा। रानी ने राजा को समझाया कि वह तो केवल राजा के प्रति अटूट प्रेम के कारण अपने को न रोक सकी। राजा-रानी एक-दूसरे को बहुत चाहते थे। दोनों के दिलो में एक बात शूल-सी गडती रहती कि उनके कोई सन्तान न थी। राजवंश का दीपक बुझने जा रहा था। सन्तान के अभाव में उनका लोक-परलोक बिगडा जा रहा था और कुल की मर्यादा नष्ट होने की शंका बढती जा रही थी।''

दूसरे दिन बचनसिंह ने मरीजों की मरहम-पट्टी करते वक्त बताया था कि उसका तबादला मैनपुरी के सदर अस्पताल में हो गया है और वह परसों यहां से चला जाएगा। जगपती ने सुना, तो उसे भला ही लगा। आए दिन रोग घेरे रहते हैं, बचनसिंह उसके शहर के अस्पताल में पहुंचा जा रहा है, तो कुछ मदद मिलती ही रहेगी। आखिर वह ठीक तो होगा ही और फिर मैनपुरी के सिवा कहां जाएगा? पर दूसरे ही क्षण उसका दिल अकथ भारीपन से भर गया। पता नहीं क्यों, चन्दा के अस्तित्व का ध्यान आते ही उसे इस सूचना में कुछ ऐसे नुकीले कांटे दिखाई देने लगे, जो उसके शरीर में किसी भी समय चुभ सकते थे, जरा-सा बेखबर होने पर बींध सकते थे। और तब उसके सामने आदमी के अधिकार की लक्ष्मण-रेखाएं धुएं की लकीर की तरह कांपकर मिटने लगीं और मन में छुपे सन्देह के राक्षस बाना बदल योगी के रूप में घूमने लगे।

और पन्द्रह-बीस रोज बाद जब जगपती की हालत सुधर गई, तो चन्दा उसे लेकर घर लौट आई। जगपती चलने-फिरने लायक हो गया था। घर का ताला जब खोला, तब रात झुक आई थी। और फिर उनकी गली में तो शाम से ही अंधेरा झरना शुरू हो जाता था। पर गली में आते ही उन्हें लगा, जैसे कि वनवास काटकर राजधानी लौटे हों। नुक्कड पर ही जमुना सुनार की कोठरी में सुरही फिंक रही थी, जिसके दराजदार दरवाजों से लालटेन की रोशनी की लकीर झांक रही थी और कच्ची तम्बाकू का धुंआ रूंधी गली के मुहाने पर बुरी तरह भर गया था। सामने ही मुंशीजी अपनी जिंगला खटिया के गङ्ढे में, कुप्पी के मध्दिम प्रकाश में खसरा-खतौनी बिछाए मीजान लगाने में मशगूल थे। जब जगपती के घर का दरवाजा खडक़ा, तो अंधेरे में उसकी चाची ने अपने जंगले से देखा और वहीं से बैठे-बैठे अपने घर के भीतर ऐलान कर दिया - ''राजा निरबंसिया अस्पताल से लौट आए क़ुलमा भी आई हैं।''

ये शब्द सुनकर घर के अंधेरे बरोठे में घुसते ही जगपती हांफकर बैठ गया, झुंझलाकर चन्दा से बोला, ''अंधेरे में क्या मेरे हाथ-पैर तुडवाओगी? भीतर जाकर लालटेन जला लाओ न।''
''तेल नहीं होगा, इस वक्त जरा ऐसे ही काम.. ''
''तुम्हारे कभी कुछ नहीं होगा । न तेल न..'' कहते-कहते जगपती एकदम चुप रह गया। और चन्दा को लगा कि आज पहली बार जगपती ने उसके व्यर्थ मातृत्व पर इतनी गहरी चोट कर दी, जिसकी गहराई की उसने कभी कल्पना नहीं की थी। दोनों खामोश, बिना एक बात किए अन्दर चले गए।

रात के बढते सन्नाटे में दोनों के सामने दो बातें थीं। जगपती के कानों में जैसे कोई व्यंग्य से कह रहा था - राजा निरबंसिया अस्पताल से आ गए!
और चन्दा के दिल में यह बात चुभ रही थी - तुम्हारे कभी कुछ नहीं होगा। और सिसकती-सिसकती चन्दा न जाने कब सो गई। पर जगपती की आंखों में नींद न आई। खाट पर पडे-पडे उसके चारों ओर एक मोहक, भयावना-सा जाल फैल गया। लेटे-लेटे उसे लगा, जैसे उसका स्वयं का आकार बहुत क्षीण होता-होता बिन्दु-सा रह गया, पर बिन्दु के हाथ थे, पैर थे और दिल की धडकन भी। कोठरी का घुटा-घुटा-सा अंधियारा, मटमैली दीवारें और गहन गुफाओं-सी अलमारियां, जिनमें से बार-बार झांककर देखता था और वह सिहए उठता था फ़िर जैसे सब कुछ तब्दील हो गया हो। उसे लगा कि उसका आकार बढता जा रहा है, बढता जा रहा है। वह मनुष्य हुआ, लम्बा-तगडा-तन्दुरूस्त पुरूष हुआ, उसकी शिराओं में कुछ फूट पडने के लिए व्याकुलता से खौल उठा। उसके हाथ शरीर के अनुपात से बहुत बडे, ड़रावने और भयानक हो गए, उनके लम्बे-लम्बे नाखून निकल आए वह राक्षस हुआ, दैत्य हुआ..आदिम, बर्बर!

और बडी तेजी से सारा कमरा एकबारगी चक्कर काट गया। फिर सब धीरे-धीरे स्थिर होने लगा और उसकी सांसें ठीक होती जान पडीं। फ़िर जैसे बहुत कोशिश करने पर घिग्घी बंध जाने के बाद उसकी आवाज फ़ूटी, ''चन्दा!''

चन्दा की नरम सांसों की हल्की सरसराहट कमरे में जान डालने लगी। जगपती अपनी पाटी का सहारा लेकर झुका। कांपते पैर उसने जमीन पर रखे और चन्दा की खाट के पाए से सिर टिकाकर बैठ गया। उसे लगा, जैसे चन्दा की इन सांसों की आवाज में जीवन का संगीत गूंज रहा है। वह उठा और चन्दा के मुख पर झुक गया। उस अंधेरे में आंखें गडाए-गडाए जैसे बहुत देर बाद स्वयं चन्दा के मुख पर आभा फूटकर अपने-आप बिखरने लगी। उसके नक्श उज्ज्वल हो उठे और जगपती की आंखों को ज्योति मिल गई। वह मुग्ध-सा ताकता रहा।

चन्दा के बिखरे बाल, जिनमें हाल के जन्मे बच्चे के गभुआरे बालों की-सी महक, दूध की कचाइंध, शरीर के रस की-सी मिठास और स्नेह-सी चिकनाहट और वह माथा जिस पर बालों के पास तमाम छोटे-छोटे, नरम-नरम-नरम-से रोएं- रेशम से और उस पर कभी लगाई गई सेंदुर की बिन्दी का हल्का मिटा हुआ-सा आभास । नन्हें-नन्हें निर्द्वन्द्व सोए पलक! और उनकी मासूम-सी कांटों की तरह बरौनियां और सांस में घुलकर आती हुई वह आत्मा की निष्कपट आवाज क़ी लय फ़ूल की पंखुरी-से पतले-पतले ओंठ, उन पर पडी अछूती रेखाएं, जिनमें सिर्फ दूध-सी महक!

उसकी आंखों के सामने ममता-सी छा गई, केवल ममता, और उसके मुख से अस्फुट शब्द निकल गया, ''बच्ची!''

डरते-डरते उसके बालों की एक लट को बडे ज़तन से उसने हथेली पर रखा और उंगली से उस पर जैसे लकीरें खींचने लगा। उसे लगा, जैसे कोई शिशु उसके अंक में आने के लिए छटपटाकर, निराश होकर सो गया हो। उसने दोनों हथेलियों को पसारकर उसके सिर को अपनी सीमा में भर लेना चाहा कि कोई कठोर चीज उसकी उंगलियों से टकराई। वह जैसे होश में आया।
बडे सहारे से उसने चन्दा के सिर के नीचे टटोला। एक रूमाल में बंधा कुछ उसके हाथ में आ गया। अपने को संयत करता वह वहीं जमीन पर बैठ गया, उसी अन्धेरे में उस रूमाल को खोला, तो जैसे सांप सूंघ गया, चन्दा के हाथों के दोनों सोने के कडे उसमें लिपटे थे!

और तब उसके सामने सब सृष्टि धीरे-धीरे टुकडे-टुकडे होकर बिखरने लगी। ये कडे तो चन्दा बेचकर उसका इलाज कर रही थी। वे सब दवाइयां और ताकत के टॉनिक,उसने तो कहा था, ये दवाइयां किसी की मेहरबानी नहीं हैं, मैंने हाथ के कडे बेचने को दे दिए थे पर उसका गला बुरी तरह सूख गया। जबान जैसे तालु से चिपककर रह गई। उसने चाहा कि चन्दा को झकाझोरकर उठाए, पर शरीर की शक्ति बह-सी गई थी, रक्त पानी हो गया था। थोडा संयत हुआ, उसने वे कडे उसी रूमाल में लपेटकर उसकी खाट के कोने पर रख दिए और बडी मुश्किल से अपनी खाट की पाटी पकडकर लुढक गया। चन्दा झूठ बोली! पर क्यों? कडे आज तक छुपाए रही। उसने इतना बडा दुराव क्यों किया? आखिर क्यों? किसलिए? और जगपती का दिल भारी हो गया। उसे फिर लगा कि उसका शरीर सिमटता जा रहा है और वह एक सींक का बना ढांचा रह गया नितान्त हल्का, तिनके-सा, हवा में उडकर भटकने वाले तिनके-सा।

उस रात के बाद रोज जगपती सोचता रहा कि चन्दा से कडे मांगकर बेच ले और कोई छोटा-मोटा कारोबार ही शुरू कर दे, क्योंकि नौकरी छूट चुकी थी। इतने दिन की गैरहाजिरी के बाद वकील साहब ने दूसरा मुहर्रिर रख लिया था। वह रोज यही सोचता पर जब चन्दा सामने आती, तो न जाने कैसी असहाय-सी उसकी अवस्था हो जाती। उसे लगता, जैसे कडे मांगकर वह चन्दा से पत्नीत्व का पद भी छीन लेगा। मातृत्व तो भगवान ने छीन ही लिया। वह सोचता आखिर चन्दा क्या रह जाएगी? एक स्त्री से यदि पत्नीत्व और मातृत्व छीन लिया गया, तो उसके जीवन की सार्थकता ही क्या? चन्दा के साथ वह यह अन्याय कैसे करे? उससे दूसरी आंख की रोशनी कैसे मांग ले? फिर तो वह नितान्त अन्धी हो जाएगी और उन कडों कोमांगने के पीछे जिस इतिहास की आत्मा नंगी हो जाएगी, कैसे वह उस लज्जा को स्वयं ही उधारकर ढांपेगा?

और वह उन्हीं खयालों में डूबा सुबह से शाम तक इधर-उधर काम की टोह में घूमता रहता। किसी से उधार ले ले? पर किस सम्पत्ति पर? क्या है उसके पास, जिसके आधार पर कोई उसे कुछ देगा? और मुहल्ले के लोग जो एक-एक पाई पर जान देते हैं, कोई चीज ख़रीदते वक्त भाव में एक पैसा कम मिलने पर मीलों पैदल जाकर एक पैसा बचाते हैं, एक-एक पैसे की मसाले की पुडिया बंधवाकर ग्यारह मर्तबा पैसों का हिसाब जोडकर एकाध पैसा उधारकर, मिन्नतें करते सौदा घर लाते हैं; गली में कोई खोंचेवाला फंस गया, तो दो पैसे की चीज क़ो लड-झगडकर - चार दाने ज्यादा पाने की नीयत से दो जगह बंधवाते हैं। भाव के जरा-से फर्क पर घण्टों बहस करते हैं, शाम को सडी-ग़ली तरकारियों को किफायत के कारण लाते हैं, ऐसे लोगों से किस मुंह से मांगकर वह उनकी गरीबी के अहसास पर ठोकर लगाए! पर उस दिन शाम को जब वह घर पहुंचा, तो बरोठे में ही एक साइकिल रखी नजर आई। दिमाग पर बहुत जोर डालने के बाद भी वह आगन्तुक की कल्पना न कर पाया। भीतरवाले दरवाजे पर जब पहुंचा, तो सहसा हंसी की आवाज सुनकर ठिठक गया। उस हंसी में एक अजीब-सा उन्माद था। और उसके बाद चन्दा का स्वर - ''अब आते ही होंगे, बैठिए न दो मिनट और! अपनी आंख से देख लीजिए और उन्हें समझाते जाइए कि अभी तन्दुरूस्ती इस लायक नहीं, जो दिन-दिन-भर घूमना बर्दाश्त कर सकें।''
''हां भई, कमजोरी इतनी जल्दी नहीं मिट सकती, खयाल नहीं करेंगे तो नुकसान उठाएंगे!'' कोई पुरूष-स्वर था यह।

जगपती असमंजस में पड ग़या। वह एकदम भीतर घुस जाए? इसमें क्या हर्ज है? पर जब उसने पैर उठाए, तो वे बाहर जा रहे थे। बाहर बरोठे में साइकिल को पकडते ही उसे सूझ आई, वहीं से जैसे अनजान बनता बडे प्रयत्न से आवाज क़ो खोलता चिल्लाया, ''अरे चन्दा! यह साइकिल किसकी है? कौन मेहरबान..''
चन्दा उसकी आवाज सुनकर कमरे से बाहर निकलकर जैसे खुश-खबरी सुना रही थी, ''अपने कम्पाउण्डर साहब आए हैं। खोजते-खोजते आज घर का पता पाए हैं, तुम्हारे इन्तजार में बैठे हैं।''
''कौन बचनसिंह? अच्छा..अच्छा। वही तो मैं कहूं, भला कौन..'' कहता जगपती पास पहुंचा, और बातों में इस तरह उलझ गया, जैसे सारी परिस्थिति उसने स्वीकार कर ली हो। बचनसिंह जब फिर आने की बात कहकर चला गया, तो चन्दा ने बहुत अपनेपन से जगपती के सामने बात शुरू की, ''जाने कैसे-कैसे आदमी होते हैं । ''
''क्यों, क्या हुआ? कैसे होते हैं आदमी?'' जगपती ने पूछा।
''इतनी छोटी जान-पहचान में तुम मर्दों के घर में न रहते घुसकर बैठ सकते हो? तुम तो उल्टे पैरों लौट आओगे।'' चन्दा कहकर जगपती के मुख पर कुछ इच्छित प्रतिक्रिया देख सकने के लिए गहरी निगाहों से ताकने लगी।

जगपती ने चन्दा की ओर ऐसे देखा, जैसे यह बात भी कहने की या पूछने की है! फिर बोला, ''बचनसिंह अपनी तरह का आदमी है, अपनी तरह का अकेला।''
''होगा,पर'' कहते-कहते चन्दा रुक गई।
''आडे वक्त काम आने वाला आदमी है, लेकिन उससे फायदा उठा सकना जितना आसान है उतना...मेरा मतलब है कि ज़िससे कुछ लिया जाएगा, उसे दिया भी जाएगा।'' जगपती ने आंखें दीवार पर गडाते हुए कहा। और चन्दा उठकर चली गई।

उस दिन के बाद बचनसिंह लगभग रोज ही आने-जाने लगा। जगपती उसके साथ इधर-उधर घूमता भी रहता। बचनसिंह के साथ वह जब तक रहता, अजीब-सी घुटन उसके दिल को बांध लेती, और तभी जीवन की तमाम विषमताएं भी उसकी निगाहों के सामने उभरने लगतीं, आखिर वह स्वयं एक आदमी है,बेकार.. यह माना कि उसके सामने पेट पालने की कोई इतनी विकराल समस्या नहीं, वह भूखों नहीं मर रहा है, जाडे में कांप नहीं रहा है, पर उसके दो हाथ-पैर हैं,शरीर का पिंजरा है, जो कुछ मांगता है,कुछ! और वह सोचता, यह कुछ क्या है? सुख? शायद हां, शायद नहीं। वह तो दुःख में भी जी सकने का आदी है, अभावों में जीवित रह सकने वाला आश्चर्यजनक कीडा है। तो फिर वासना? शायद हां, शायद नहीं। चन्दा का शरीर लेकर उसने उस क्षणिकता को भी देखा है। तो फिर धन...शायद हां, शायद नहीं। उसने धन के लिए अपने को खपाया है। पर वह भी तो उस अदृश्य प्यास को बुझा नहीं पाया। तो फिर? तो फिर क्या? वह कुछ क्या है, जो उसकी आत्मा में नासूर-सा रिसता रहता है, अपना उपचार मांगता है? शायद काम! हां, यही, बिल्कुल यही, जो उसके जीवन की घडियों को निपट सूना न छोडे, ज़िसमें वह अपनी शक्ति लगा सके, अपना मन डुबो सके, अपने को सार्थक अनुभव कर सके, चाहे उसमें सुख हो या दुख, अरक्षा हो या सुरक्षा, शोषण हो या पोषण..उसे सिर्फ काम चाहिए! करने के लिए कुछ चाहिए। यही तो उसकी प्रकृत आवश्यकता है, पहली और आखिरी मांग है, क्योंकि वह उस घर में नहीं पैदा हुआ, जहां सिर्फ जबान हिलाकर शासन करनेवाले होते हैं। वह उस घर में भी नहीं पैदा हुआ, जहां सिर्फ मांगकर जीनेवाले होते हैं। वह उस घर का है, जो सिर्फ काम करना जानता है, काम ही जिसकी आस है। सिर्फ वह काम चाहता है, काम।

और एक दिन उसकी काम-धाम की समस्या भी हल हो गई। तालाब वाले ऊंचे मैदान के दक्षिण ओर जगपती की लकडी क़ी टाल खुल गई। बोर्ड् तक टंग गया। टाल की जमीन पर लक्ष्मी-पूजन भी हो गया और हवन भी हुआ। लकडी क़ो कोई कमी नहीं थी। गांव से आनेवाली गाडियों को, इस कारोबार में पैरे हुए आदमियों की मदद से मोल-तोल करवा के वहां गिरवा दिया गया। गांठें एक ओर रखी गईं, चैलों का चट्टा करीने से लग गया और गुद्दे चीरने के लिए डाल दिए गए। दो-तीन गाडियों का सौदा करके टाल चालू कर दी गई। भविष्य में स्वयं पेड ख़रीदकर कटाने का तय किया गया। बडी-बडी स्क़ीमें बनीं कि किस तरह जलाने की लकडी से बढाते-बढाते एक दिन इमारती लकडी क़ी कोठी बनेगी। चीरने की नई मशीन लगेगी। कारबार बढ ज़ाने पर बचनसिंह भी नौकरी छोडकर उसी में लग जाएगा। और उसने महसूस किया कि वह काम में लग गया है, अब चौबीसों घण्टे उसके सामने काम है,उसके समय का उपयोग है। दिन-भर में वह एक घण्टे के लिए किसी का मित्र हो सकता है, कुछ देर के लिए वह पति हो सकता है, पर बाकी समय? दिन और रात के बाकी घण्टे,उन घण्टों के अभाव को सिर्फ उसका अपना काम ही भर सकता है और अब वह कामदार था

वह कामदार तो था, लेकिन जब टाल की उस ऊंची जमीन पर पडे छप्पर के नीचे तखत पर वह गल्ला रखकर बैठता, सामने लगे लकडियों के ढेर, कटे हुए पेड क़े तने, जडों को लुढक़ा हुआ देखता, तो एक निरीहता बरबस उसके दिल को बांधने लगती। उसे लगता, एक व्यर्थ पिशाच का शरीर टुकडे-टुकडे करके उसके सामने डाल दिया गया है।फिर इन पर कुल्हाडी चलेगी और इनके रेशे-रेशे अलग हो जाएंगे और तब इनकी ठठरियों को सुखाकर किसी पैसेवाले के हाथ तक पर तौलकर बेच दिया जाएगा। और तब उसकी निगाहें सामने खडे ताड पर अटक जातीं, जिसके बडे-बडे पत्तों पर सुर्ख गर्दनवाले गिद्ध पर फडफ़डाकर देर तक खामोश बैठे रहते। ताड क़ा काला गडरेदार तना और उसके सामने ठहरी हुई वायु में निस्सहाय कांपती, भारहीन नीम की पत्तियां चकराती झडती रहतीं धूल-भरी धरती पर लकडी क़ी गाडियोंके पहियों की पडी हुई लीक धुंधली-सी चमक उठती और बगलवाले मूंगफल्ली के पेंच की एकरस खरखराती आवाज क़ानों में भरने लगती। बगलवाली कच्ची पगडण्डी से कोई गुजरकर, टीले के ढलान से तालाब की निचाई में उतर जाता, जिसके गंदले पानी में कूडा तैरता रहता और सूअर कीचड में मुंह डालकर उस कूडे क़ो रौंदते दोपहर सिमटती और शाम की धुन्ध छाने लगती, तो वह लालटेन जलाकर छप्पर के खम्भे की कील में टांग देता और उसके थोडी ही देर बाद अस्पतालवाली सडक से बचनसिंह एक काले धब्बे की तरह आता दिखाई पडता। गहरे पडते अन्धेरे में उसका आकार धीरे-धीरे बढता जाता और जगपती के सामने जब वह आकर खडा होता, तो वह उसे बहुत विशाल-सा लगने लगता, जिसके सामने उसे अपना अस्तित्व डूबता महसूस होता।

एक-आध बिक्री की बातें होतीं और तब दोनों घर की ओर चल देते। घर पहुंचकर बचनसिंह कुछ देर जरूर रुकता, बैठता, इधर-उधर की बातें करता। कभी मौका पड ज़ाता, तो जगपती और बचनसिंह की थाली भी साथ लग जाती। चन्दा सामने बैठकर दोनों को खिलाती।

बचनसिंह बोलता जाता, ''क्या तरकारी बनी है। मसाला ऐसा पडा है कि उसकी भी बहार है और तरकारी का स्वाद भी न मरा। होटलों में या तो मसाला ही मसाला रहेगा या सिर्फ तरकारी ही तरकारी। वाह! वाह! क्या बात है अन्दाज की!''
और चन्दा बीच-बीच में टोककर बोलती जाती, ''इन्हें तो जब तक दाल में प्याज का भुना घी न मिले, तब तक पेट ही नहीं भरता।''
या - ''सिरका अगर इन्हें मिल जाए, तो समझो, सब कुछ मिल गया। पहले मुझे सिरका न जाने कैसा लगता था, पर अब ऐसा जबान पर चढा है कि '' या - ''इन्हें कागज-सी पतली रोटी पसन्द ही नहीं आती। अब मुझसे कोई पतली रोटी बनाने को कहे, तो बनती ही नहीं, आदत पड ग़ई है, और फिर मन ही नहीं करता.. '' पर चन्दा की आंखें बचनसिंह की थाली पर ही जमीं रहतीं। रोटी निबटी, तो रोटी परोस दी, दाल खत्म नहीं हुई, तो भी एक चमचा और परोस दी। और जगपती सिर झुकाए खाता रहता। सिर्फ एक गिलास पानी मांगता और चन्दा चौंककर पानी देने से पहले कहती, ''अरे तुमने तो कुछ लिया भी नहीं!'' कहते-कहते वह पानी दे देती और तब उसके दिल पर गहरी-सी चोट लगती, न जाने क्यों वह खामोशी की चोट उसे बडी पीडा दे जाती पर वह अपने को समझा लेती, कोई मेहमान तो नहीं हैं मांग सकते थे। भूख नहीं होगी।

जगपती खाना खाकर टाल पर लेटने चला जाता, क्योंकि अभी तक कोई चौकीदार नहीं मिला था। छप्पर के नीचे तख्त पर जब वह लेटता, तो अनायास ही उसका दिल भर-भर आता। पता नहीं कौन-कोन से दर्द एक-दूसरे से मिलकर तरह-तरह की टीस, चटख और ऐंठन पैदा करने लगते। कोई एक रग दुखती तो वह सहलाता भी, जब सभी नसें चटखती हों तो कहां-कहां राहत का अकेला हाथ सहलाए!

लेटे-लेटे उसकी निगाह ताड क़े उस ओर बनी पुख्ता कब्र पर जम जाती, जिसके सिराहने कंटीला बबूल का एकाकी पेड सुन्न-सा खडा रहता। जिस कब्र पर एक पर्दानशीन औरत बडे लिहाज से आकर सवेरे-सवेरे बेला और चमेली के फूल चढा जाती, घूम-घूमकर उसके फेरे लेती और माथा टेककर कुछ कदम उदास-उदास-सी चलकर एकदम तेजी से मुडकर बिसातियों के मुहल्ले में खो जाती। शाम होते फिर आती। एक दीया बारती और अगर की बत्तियां जलाती, फिर मुडते हुए ओढनी का पल्ला कन्धों पर डालती, तो दीये की लौ कांपती, कभी कांपकर बुझ जाती, पर उसके कदम बढ चुके होते, पहले धीमे, थके, उदास-से और फिर तेज सधे सामान्य-से। और वह फिर उसी मुहल्ले में खो जाती और तब रात की तनहाइयों में बबूल के कांटों के बीच, उस सांय-सांय करते ऊंचे-नीचे मैदान में जैसे उस कब्र से कोई रूह निकलकर निपट अकेली भटकती रहती।

तभी ताड पर बैठे सुर्ख गर्दनवाले गिध्द मनहूस-सी आवाज में किलबिला उठते और ताड क़े पत्ते भयानकता से खडबडा उठते। जगपती का बदन कांप जाता और वह भटकती रूह जिन्दा रह सकने के लिए जैसे कब्र की इंटों में, बबूल के साया-तले दुबक जाती। जगपती अपनी टांगों को पेट से भींचकर, कम्बल से मुंह छुपा औंधा लेट जाता। तडक़े ही ठेके पर लगे लकडहारे लकडी चीरने आ जाते। तब जगपती कम्बल लपेट, घर की ओर चला जाता

''राजा रोज सवेरे टहलने जाते थे,'' मां सुनाया करती थीं, ''एक दिन जैसे ही महल के बाहर निकलकर आए कि सडक पर झाडू लगानेवाली मेहतरानी उन्हें देखते ही अपना झाडूपंजा पटककर माथा पीटने लगी और कहने लगी, ''हाय राम! आज राजा निरबंसिया का मुंह देखा है, न जाने रोटी भी नसीब होगी कि नहीं न जाने कौन-सी विपत टूट पडे!'' राजा को इतना दुःख हुआ कि उल्टे पैरों महल को लौट गए। मन्त्री को हुक्म दिया कि उस मेहतरानी का घर नाज से भर दें। और सब राजसी वस्त्र उतार, राजा उसी क्षण जंगल की ओर चले गए। उसी रात रानी को सपना हुआ कि कल की रात तेरी मनोकामना पूरी करनेवाली है। रानी बहुत पछता रही थी। पर फौरन ही रानी राजा को खोजती-खोजती उस सराय में पहुंच गई, जहां वह टिके हुए थे। रानी भेस बदलकर सेवा करने वाली भटियारिन बनकर राजा के पास रात में पहुंची। रातभर उनके साथ रही और सुबह राजा के जगने से पहले सराय छोड महल में लौट गई। राजा सुबह उठकर दूसरे देश की ओर चले गए। दो ही दिनों में राजा के निकल जाने की खबर राज-भर में फैल गई, राजा निकल गए, चारों तरफ यही खबर थी । ''

और उस दिन टोले-मुहल्ले के हर आंगन में बरसात के मेह की तरह यह खबर बरसकर फैल गई कि चन्दा के बाल-बच्चा होने वाला है।

नुक्कड पर जमुना सुनार की कोठरी में फिंकती सुरही रुक गई। मुंशीजी ने अपना मीजान लगाना छोड विस्फारित नेत्रों से ताककर खबर सुनी। बंसी किरानेवाले ने कुएं में से आधी गईं रस्सीं खींच, डोल मन पर पटककर सुना। सुदर्शन दर्जी ने मशीन के पहिए को हथेली से रगडकर रोककर सुना। हंसराज पंजाबी ने अपनी नील-लगी मलगुजी कमीज की आस्तीनें चढाते हुए सुना। और जगपती की बेवा चाची ने औरतों के जमघट में बडे विश्वास, पर भेद-भरे स्वर में सुनाया - ''आज छः साल हो गए शादी को न बाल, न बच्चा, न जाने किसका पाप है उसके पेट में। और किसका होगा सिवा उस मुसटण्डे कम्पोटर के! न जाने कहां से कुलच्छनी इस मुहल्ले में आ गई! इस गली की तो पुश्तों से ऐसी मरजाद रही है कि गैर-मर्द औरत की परछाई तब नहीं देख पाए। यहां के मर्द तो बस अपने घर की औरतों को जानते हैं, उन्हें तो पडोंसी के घर की जनानियों की गिनती तक नहीं मालूम।'' यह कहते-कहते उनका चेहरा तमतमा आया और सब औरतें देवलोक की देवियां की तरह गम्भीर बनीं, अपनी पवित्रता की महानता के बोझ से दबी धीरे-धीरे खिसक गई।

सुबह यह खबर फैलने से पहले जगपती टाल पर चला गया था। पर सुनी उसने भी आज ही थी। दिन-भर वह तख्त पर कोने की ओर मुंह किए पडा रहा। न ठेके की लकडियां चिराई, न बिक्री की ओर ध्यान दिया, न दोपहर का खाना खाने ही घर गया। जब रात अच्छी तरह फैल गई, वह हिंसक पशु की भांति उठा। उसने अपनी अंगुलियां चटकाई, मुठ्ठी बांधकर बांह का जोर देखा, तो नसें तनीं और बाह में कठोर कम्पन-सा हुआ। उसने तीन-चार पूरी सांसें खींचीं और मजबूत कदमों से घर की ओर चल पडा। मैदान खत्म हुआ, कंकड क़ी सडक आई,सडक खत्म हुई, गली आई। पर गली के अन्धेरे में घुसते वह सहम गया, जैसे किसी ने अदृश्य हाथों से उसे पकडकर सारा रक्त निचोड लिया, उसकी फटी हुई शक्ति की नस पर हिम-शीतल होंठ रखकर सारा रस चूस लिया। और गली के अंधेरे की हिकारत-भरी कालिख और भी भारी हो गई, जिसमें घुसने से उसकी सांस रुक जाएगी,घुट जाएगी।

वह पीछे मुडा, पर रुक गया। फिर कुछ संयत होकर वह चोरों की तरह निःशब्द कदमों से किसी तरह घर की भीतरी देहरी तक पहुंच गया।

दाईं ओर की रसोईवाली दहलीज में कुप्पी टिमटिमा रही थीं और चन्दा अस्त-व्यस्त-सी दीवार से सिर टेके शायद आसमान निहारते-निहारते सो गई थी। कुप्पी का प्रकाश उसके आधे चेहरे को उजागर किए था और आधा चेहरा गहन कालिमा में डूबा अदृश्य था। वह खामोशी से खडा ताकता रहा। चन्दा के चेहरे पर नारीत्व की प्रौढता आज उसे दिखाई दी। चेहरे की सारी कमनीयता न जाने कहां खो गई थी, उसका अछूतापन न जाने कहां लुप्त हो गया था। फूला-फूला मुख। जैसे टहनी से तोडे फ़ूल को पानी में डालकर ताजा किया गया हो, जिसकी पंखुरियों में टूटन की सुरमई रेखाएं पड ग़ई हों, पर भीगने से भारीपन आ गया हो। उसके खुले पैर पर उसकी निगाह पडी, तो सूजा-सा लगा। एडियां भरी, सूजी-सी और नाखूनों के पास अजब-सा सूखापन। जगपती का दिल एक बार मसोस उठा। उसने चाहा कि बढकर उसे उठा ले। अपने हाथों से उसका पूरा शरीर छू-छूकर सारा कलुष पोंछ दे, उसे अपनी सांसों की अग्नि में तपाकर एक बार फिर पवित्र कर ले, और उसकी आंखों की गहराई में झांककर कहे- देवलोक से किस शापवश निर्वासित हो तुम इधर आ गई, चन्दा? यह शाप तो अमिट था।

तभी चन्दा ने हडबडाकर आंखें खोलीं। जगपती को सामने देख उसे लगा कि वह एकदम नंगी हो गई हो। अतिशय लज्जित हो उसने अपने पैर समेट लिए। घुटनों से धोती नीचे सरकाई और बहुत संयत-सी उठकर रसोई के अंधेरे में खो गई। जगपती एकदम हताश हो, वहीं कमरे की देहरी पर चौखट से सिर टिका बैठ गया। नजर कमरे में गई, तो लगा कि पराए स्वर यहां गूंज रहे हैं, जिनमें चन्दा का भी एक है। एक तरफ घर के हर कोने से, अन्धेरा सैलाब की तरह बढता आ रहा था।एक अजीब निस्तब्धता,असमंजस। गति, पर पथभ्रष्ट! शक्लें, पर आकारहीन।

''खाना खा लेते,'' चन्दा का स्वर कानों में पडा। वह अनजाने ऐसे उठ बैठा, जैसे तैयार बैठा हो। उसकी बात की आज तक उसने अवज्ञा न की थी। खाने तो बैठ गया, पर कौर नीचे नहीं सरक रहा था। तभी चन्दा ने बडे सधे शब्दों में कहा, ''कल मैं गांव जाना चाहती हूं।''
जैसे वह इस सूचना से परिचित था, बोला, ''अच्छा।''
चन्दा फिर बोली, ''मैंने बहुत पहले घर चिठ्ठी डाल दी थी, भैया कल लेने आ रहे हैं।''
''तो ठीक है।'' जगपती वैसे ही डूबा-डूबा बोला।

चन्दा का बांध टूट गया और वह वहीं घुटनों में मुंह दबाकर कातर-सी फफक-फफककर रो पडी। न उठ सकी, न हिल सकी।

जगपती क्षण-भर को विचलित हुआ, पर जैसे जम जाने के लिए। उसके ओठ फडक़े और क्रोध के ज्वालामुखी को जबरन दबाते हुए भी वह फूट पडा, ''यह सब मुझे क्या दिखा रही है? बेशर्म! बेगैरत! उस वक्त नहीं सोचा था, जब..ज़ब..मेरी लाश तले..''
''तब.. तब क़ी बात झूठ है । '', सिसकियों के बीच चन्दा का स्वर फूटा, ''लेकिन जब तुमने मुझे बेच दिया...''

एक भरपूर हाथ चन्दा की कनपटी पर आग सुलगाता पडा। और जगपती अपनी हथेली दूसरी से दबाता, खाना छोड क़ोठरी में घुस गया और रात-भर कुण्डी चढाए उसी कालिख में घुटता रहा। दूसरे दिन चन्दा घर छोड अपने गांव चली गई।

जगपती पूरा दिन और रात टाल पर ही काट देता, उसी बीराने में, तालाब के बगल, कब्र, बबूल और ताड क़े पडोंस में। पर मन मुर्दा हो गया था। जबरदस्ती वह अपने को वहीं रोके रहता। उसका दिल होता, कहीं निकल जाए। पर ऐसी कमजोरी उसके तन और मन को खोखला कर गई थी कि चाहने पर भी वह जा न पाता। हिकारत-भरी नजरें सहता, पर वहीं पडा रहता। काफी दिनों बाद जब नहीं रह गया, तो एक दिन जगपती घर पर ताला लगा, नजदीक के गांव में लकडी कटाने चला गया। उसे लग रहा था कि अब वह पंगु हो गया है, बिलकुल लंगडा, एक रेंगता कीडा, जिसके न आंख है, न कान, न मन, न इच्छा। वह उस बाग में पहुंच गया, जहां खरीदे पेड कटने थे। दो आरेवालों ने पतले पेड क़े तने पर आरा रखा और कर्र-कर्र का अबाध शोर शुरू हो गया। दूसरे पेड पर बन्ने और शकूरे की कुल्हाडी बज उठी। और गांव से दूर उस बाग में एक लयपूर्ण शोर शुरू हो गया। जड पर कुल्हाडी पडती तो पूरा पेड थर्रा जाता।

करीब के खेत की मेड पर बैठे जगपती का शरीर भी जैसे कांप-कांप उठता। चन्दा ने कहा था, ''लेकिन जब तुमने मुझे बेच दिया'' क्या वह ठीक कहती थी! क्या बचनसिंह ने टाल के लिए जो रूपए दिए थे, उसका ब्याज इधर चुकता हुआ? क्या सिर्फ वही रूपए आग बन गए, जिसकी आंच में उसकी सहनशीलता, विश्वास और आदर्श मोम-से पिघल गए?

''शक़ूरे!'' बाग से लगे दडे पर से किसी ने आवाज लगाई। शकूरे ने कुल्हाडी रोककर वहीं से हांक लगाई, ''कोने के खेत से लीक बनी है, जरा मेड मारकर नंघा ला गाडी।''

जगपती का ध्यान भंग हुआ। उसने मुडकर दडे पर आंखें गडाईं। दो भैंसा-गाडियां लकडी भरने के लिए आ पहुंची थीं। शकूरे ने जगपती के पास आकर कहा, ''एक गाडी का भुर्त तो हो गया, बल्कि डेढ क़ा,अब इस पतरिया पेड क़ो न छांट दें?''

जगपती ने उस पेड क़ी ओर देखा, जिसे काटने के लिए शकूरे ने इशारा किया था। पेड क़ी शाख हरी पत्तियों से भरी थी। वह बोला, ''अरे, यह तो हरा है अभी इसे छोड दो।''
''हरा होने से क्या, उखट तो गया है। न फूल का, न फल का। अब कौन इसमें फल-फूल आएंगे, चार दिन में पत्ती झुरा जाएंगी।'' शकूरे ने पेड क़ी ओर देखते हुए उस्तादी अन्दाज से कहा।
''जैसा ठीक समझो तुम,'' जगपती ने कहा, और उठकर मेड-मेड पक्के कुएं पर पानी पीने चला गया।

दोपहर ढलते गाडियां भरकर तैयार हुईं और शहर की ओर रवाना हो गईं। जगपती को उनके साथ आना पडा। गाडियां लकडी से लदीं शहर की ओर चली जा रही थीं और जगपती गर्दन झुकाए कच्ची सडक की धूल में डूबा, भारी कदमों से धीरे-धीरे उन्हीं की बजती घण्टियों के साथ निर्जीव-सा बढता जा रहा था

''कई बरस बाद राजा परदेस से बहुत-सा धन कमाकर गाडी में लादकर अपने देश की ओर लौटे, ''मां सुनाया करती थीं,'' राजा की गाडी का पहिया महल से कुछ दूर पतेल की झाडी में उलझ गया। हर तरह कोशिश की, पर पहिया न निकला। तब एक पण्डित ने बताया कि सकट के दिन का जन्मा बालक अगर अपने घर की सुपारी लाकर इसमें छुआ दे, तो पहिया निकल जाएगा। वहीं दो बालक खेल रहे थे। उन्होंने यह सुना तो कूदकर पहुँचे और कहने लगे कि हमारी पैदाइश सकट की है, पर सुपारी तब लाएंगे, जब तुम आधा धन देने का वादा करो। राजा ने बात मान ली। बालक दौडे-दौडे घर गए। सुपारी लाकर छुआ दी, फिर घर का रास्ता बताते आगे-आगे चले। आखिर गाडी महल के सामने उन्होंने रोक ली।

राजा को बडा अचरज हुआ कि हमारे ही महल में ये दो बालक कहां से आ गए? भीतर पहुँचे, तो रानी खुशी से बेहाल हो गई।

''पर राजा ने पहले उन बालकों के बारे में पूछा, तो रानी ने कहा कि ये दोनों बालक उन्हीं के राजकुमार हैं। राजा को विश्वास नहीं हुआ। रानी बहुत दुखी हुई।''

गाडियां जब टाल पर आकर लगीं और जगपती तखत पर हाथ-पैर ढीले करके बैठ गया, तो पगडण्डी से गुजरते मुंशीजी ने उसके पास आकर बताया, अभी उस दिन वसूली में तुम्हारी ससुराल के नजदीक एक गांव में जाना हुआ, तो पता लगा कि पन्द्रह-बीस दिन हुए, चन्दा के लडक़ा हुआ है।'' और फिर जैसे मुहल्ले में सुनी-सुनाई बातों पर पर्दा डालते हुए बोले, ''भगवान के राज में देर है, अंधेर नहीं, जगपती भैया!''

जगपती ने सुना तो पहले उसने गहरी नजरों से मुंशीजी को ताका, पर वह उनके तीर का निशाना ठीक-ठीक नहीं खोज पाया। पर सब कुछ सहन करते हुए बोला, ''देर और अंधेर दोनों हैं!''
''अंधेर तो सरासर है,तिरिया चरित्तर है सब! बडे-बडे हार गए हैं,'' कहते-कहते मुंशीजी रुक गए, पर कुछ इस तरह, जैसे कोई बडी भेद-भरी बात है, जिसे उनकी गोल होती हुई आंखें समझा देंगी। जगपती मुंशीजी की तरफ ताकता रह गया। मिनट-भर मनहूस-सा मौन छाया रहा, उसे तोडते हुए मुंशीजी बडी दर्द-भरी आवाज में बोले, ''सुन तो लिया होगा, तुमने?''
''क्या?'' कहने को जगपती कह गया, पर उसे लगा कि अभी मुंशीजी उस गांव में फैली बातों को ही बडी बेदर्दी से कह डालेंगे, उसने नाहक पूछा।

तभी मुंशीजी ने उसकी नाक के पास मुंह ले जाते हुए कहा, ''चन्दा दूसरे के घर बैठ रही है,क़ोई मदसूदन है वहीं का। पर बच्चा दीवार बन गया है। चाहते तो वो यही हैं कि मर जाए तो रास्ता खुले, पर रामजी की मर्जी। सुना है, बच्चा रहते भी वह चन्दा को बैठाने को तैयार है।''

जगपती की सांस गले में अटककर रह गई। बस, आंखें मुंशीजी के चेहरे पर पथराई-सी जडी थीं।
मुंशीजी बोले, ''अदालत से बच्चा तुम्हें मिल सकता है। अब काहे का शरम-लिहाज!''
''अपना कहकर किस मुंह से मांगूं, बाबा? हर तरफ तो कर्ज से दबा हूं, तन से, मन से, पैसे से, इज्जत से, किसके बल पर दुनिया संजोने की कोशिश करूं?'' कहते-कहते वह अपने में खो गया।

मुंशीजी वहीं बैठ गए। जब रात झुक आई तो जगपती के साथ ही मुंशीजी भी उठे। उसके कन्धे पर हाथ रखे वे उसे गली तक लाए। अपनी कोठरी आने पर पीठ सहलाकर उन्होंने उसे छोड दिया। वह गर्दन झुकाए गली के अंधेरे में उन्हीं ख्यालों में डूबा ऐसे चलता चला आया, जैसे कुछ हुआ ही न हो। पर कुछ ऐसा बोझ था, जो न सोचने देता था और न समझने। जब चाची की बैठक के पास से गुजरने लगा, तो सहसा उसके कानों में भनक पडी - ''आ गए सत्यानासी! कुलबोरन!''

उसने जरा नजर उठाकर देखा, तो गली की चाची-भौजाइयां बैठक में जमा थीं और चन्दा की चर्चा छिडी थी। पर वह चुपचाप निकल गया।

इतने दिनों बाद ताला खोला और बरोठे के अंधेरे में कुछ सूझ न पडा, तो एकाएक वह रात उसकी आंखों के सामने घूम गई, जब वह अस्पताल से चन्दा के साथ लौटा था। बेवा चाची का वह जहर-बुझ तीर, ''आ गए राजा निरबंसिया अस्पताल से।'' और आज ''सत्यानासी! कुलबोरन!'' और स्वयं उसका वह वाक्य, जो चन्दा को छेद गया था, ''तुम्हारे कभी कुछ न होगा।'' और उस रात की शिशु चन्दा!

चन्दा का लडक़ा हुआ है। वह कुछ और जनती, आदमी का बच्चा न जनती। वह और कुछ भी जनती, कंकड-पत्थर! वह नारी न बनती, बच्ची ही बनी रहती, उस रात की शिशु चन्दा। पर चन्दा यह सब क्या करने जा रही है? उसके जीते-जी वह दूसरे के घर बैठने जा रही है? कितने बडे पाप में धकेल दिया चन्दा को पर उसे भी तो कुछ सोचना चाहिए। आखिर क्या? पर मेरे जीते-जी तो यह सब अच्छा नहीं। वह इतनी घृणा बर्दाश्त करके भी जीने को तैयार है, या मुझे जलाने को। वह मुझे नीच समझती है, कायर,नहीं तो एक बार खबर तो लेती। बच्चा हुआ तो पता लगता। पर नहीं, वह उसका कौन है? कोई भी नहीं। औलाद ही तो वह स्नेह की धुरी है, जो आदमी-औरत के पहियों को साधकर तन के दलदल से पार ले जाती है नहीं तो हर औरत वेश्या है और हर आदमी वासना का कीडा। तो क्या चन्दा औरत नहीं रही? वह जरूर औरत थी, पर स्वयं मैंने उसे नरक में डाल दिया। वह बच्चा मेरा कोई नहीं, पर चन्दा तो मेरी है। एक बार उसे ले आता, फिर यहां रात के मोहक अंधेरे में उसके फूल-से अधरों को देखता,निर्द्वन्द्व सोई पलकों को निहारता,साँसों की दूध-सी अछूती महक को समेट लेता।

आज का अंधेरा! घर में तेल भी नहीं जो दीया जला ले। और फिर किसके लिए कौन जलाए? चन्दा के लिए पर उसे तो बेच दिया था। सिवा चन्दा के कौन-सी सम्पत्ति उसके पास थी, जिसके आधार पर कोई कर्ज देता? कर्ज न मिलता तो यह सब कैसे चलता? काम पेड कहां से कटते? और तब शकूरे के वे शब्द उसके कानों में गूंज गए, ''हरा होने से क्या, उखट तो गया है। '' वह स्वयं भी तो एक उखटा हुआ पेड है, न फल का, न फूल का, सब व्यर्थ ही तो है। जो कुछ सोचा, उस पर कभी विश्वास न कर पाया। चन्दा को चाहता रहा, पर उसके दिल में चाहत न जगा पाया। उसे कहीं से एक पैसा मांगने पर डांटता रहा, पर खुद लेता रहा और आज वह दूसरे के घर बैठ रही है उसे छोडकर वह अकेला है, हर तरफ बोझ है, जिसमें उसकी नस-नस कुचली जा रही हैं, रग-रग फट गई है। और वह किसी तरह टटोल-टटोलकर भीतर घर में पहुंचा।

''रानी अपने कुल-देवता के मन्दिर में पहुंचीं,'' मां सुनाया करती थीं, ''अपने सतीत्व को सिध्द करने के लिए उन्होंने घोर तपस्या की। राजा देखते रहे। कुल-देवता प्रसन्न हुए और उन्होंने अपनी दैवी शक्ति से दोनों बालकों को तत्काल जन्मे शिशुओं में बदल दिया। रानी की छातियों में दूध भर आया और उनमें से धार फूट पडी, ज़ो शिशुओं के मुंह में गिरने लगी। राजा को रानी के सतीत्व का सबूत मिल गया। उन्होंने रानी के चरण पकड लिए और कहा कि तुम देवी हो! ये मेरे पुत्र हैं! और उस दिन से राजा ने फिर से राज-काज संभाल लिया। ''

पर उसी रात जगपती अपना सारा कारोबार त्याग, अफीम और तेल पीकर मर गया क्योंकि चन्दा के पास कोई दैवी शक्ति नहीं थी और जगपती राजा नहीं, बचनसिंह कम्पाउण्डर का कर्जदार था।

''राजा ने दो बातें कीं,'' मां सुनाती थीं, ''एक तो रानी के नाम से उन्होंने बहुत बडा मन्दिर बनवाया और दूसरे, राज के नए सिक्कों पर बडे राजकुमार का नाम खुदवाकर चालू किया, जिससे राज-भर में अपने उत्तराधिकारी की खबर हो जाए । ''

जगपती ने मरते वक्त दो परचे छोडे, एक चन्दा के नाम, दूसरा कानून के नाम।
चन्दा को उसने लिखा था, ''चन्दा, मेरी अन्तिम चाह यही है कि तुम बच्चे को लेकर चली आना।अभी एक-दो दिन मेरी लाश की दुर्गति होगी, तब तक तुम आ सकोगी। चन्दा, आदमी को पाप नहीं, पश्चाताप मारता है, मैं बहुत पहले मर चुका था। बच्चे को लेकर जरूर चली आना।''
कानून को उसने लिखा था, ''किसी ने मुझे मारा नहीं है,क़िसी आदमी ने नहीं। मैं जानता हूं कि मेरे जहर की पहचान करने के लिए मेरा सीना चीरा जाएगा। उसमें जहर है। मैंने अफीम नहीं, रूपए खाए हैं। उन रूपयों में कर्ज क़ा जहर था, उसी ने मुझे मारा है। मेरी लाश तब तक न जलाई जाए, जब तक चन्दा बच्चे को लेकर न आ जाए। आग बच्चे से दिलवाई जाए। बस।''

मां जब कहानी समाप्त करती थीं, तो आसपास बैठे बच्चे फूल चढाते थे।
मेरी कहानी भी खत्म हो गई, पर.....


किले में औरत / रघुवीर सहाय

उस शहर में मुझे सिर्फ तीन दिन रहना था। होने को इन्‍हीं तीन में से किसी एक दिन मेरी हत्‍या हो जा सकती थी। पढ़ा था कि इस शहर में रोज हत्‍याएँ होती हैं। लोग हमला बोल कर मार डालते हैं। अखबार में सिर्फ इतना छपता था - आज चार और मरे। इससे जाहिर था कि वे कोई और थे जो मरते थे; अखबार पढ़ सकनेवालों में वे नहीं थे, नहीं तो अखबार उनका नाम-धाम भी छापता। उधर शहर में पहुँच कर मैंने देखा - चौक में तमाम लोग मरे नहीं हैं, चल-फिर रहे हैं। उनको भी यह डर न था कि रोज हत्‍या होती है तो आज भी और उन्‍हीं की हो सकती है। वे आश्‍वस्‍त थे कि और ही लोग होंगे जो मारे जाएँगे।

मैं एक होटल में ठहरा। होटल आत्‍मरक्षा के लिए कि़लेबन्‍दी के तरीके पर बना हुआ था। मगर वह बना तो तब का था जब हत्‍याएँ इस शहर में नहीं, गाँवों में हुआ करती थीं और वहाँ की खबरें छपती ही न थीं - आज तो बिना नाम के छप भी जाती हैं। वे सब स्‍थान होटल से बहुत दूर और ऐसे गरीबों के थे जो इस जन्‍म में इस होटल में आ ही नहीं सकते थे। तब होटल का यह नक्‍शा आत्‍मरक्षा के लिए नहीं, खाली रोआब डालने के लिए बनाया गया होगा। पर आज यह कितने काम आ रहा था! आखिर हत्‍याओं का सिलसिला नीचे से ऊपर की ओर सरकता आ रहा था न। किसी दिन होटल में भी पहुँचता। इतिहास बताता है कि ध्‍वस्‍त नगर में हमेशा एक आलीशान होटल ही शरणालय के रूप में बच रहा करता है।

अपने आप से मैं इस होटल में कभी न ठहरा होता। जिस दुकान का मैं काम कर रहा था, वह काम के सिलसिले में चाहती थी कि मैं इसमें रहूँ। मैं यह जानता था कि अगर मैं इसमें ठहरा तो जब हमला होगा कोई मुझे औरों से अलग न मानेगा। मगर मुझे अपना वेतन कमाने के लिए काम करने के अलावा यह खतरा भी उठाना था।

मैं यहाँ पहुँचा तो सबसे पहले दरबान दिखाई दिया। उसके हाथ में पुराने जमाने की बंदूक थी, जैसी मैंने बचपन में बरातों में छुड़ाई जाती देखी थी। मैंने उसे पहचान लिया, बन्‍दूक को नहीं, दरबान को। वह गोंडा जिले का था। उसने मुझे पहचान लिया। मैं भी वहीं का हूँ। मेरा खर्च कोई और दे रहा था, उसकी वर्दी कोई और दे रहा था। फिर भी उसने मुझे उसी तरह सलाम किया जैसे वह किसी जमाने में कलकत्ते के साहबों को करता होगा। अब गोंडा के लोग भी बाहर निकलकर इस होटल में घुसने लायक हो गए हैं। यह जान कर मारे खुशी के वह फूल नहीं गया। उसे यह शक नहीं था कि शायद मैं बहुत अमीर हूँ। उसे विश्‍वास था कि मैं उससे कुछ अधिक पैसेवाला हूँ और बस इतना अधिक भी होऊँ तो काफी है कि उसे कुछ इनाम दे सकूँ। गरीबी और गिरावट का एक दिन होता है जब आदमी अपने से जरा-से मजबूत आदमी से डरने लगता है। इसी को लोग कर्तव्‍य और संतुलन कहते हैं। वह दिन उसकी जिन्‍दगी में आ चुका था।

शीशे का दरवाजा पार करते ही एक बरोठा मिला जिसमें आदमी के शरीर से बड़े आकार की कुछ कुर्सियों पर लोग बैठे हुए थे। ये न जाने क्‍या समझ कर इतने भड़कीले कपड़े पहन कर आए थे। शायद उनके पास पैसा बहुत था जिसे ये कपड़ों पर खर्च कर डालना चाहते थे। शायद इनके पास अपनी अक्‍ल इतनी कम थी कि ये तय नहीं कर सकते थे कि उन्‍हें क्‍या पहनना चाहिए। वे बैठे इस शान से थे जैसे होटल में रहने के सच्‍चे हकदार वही हैं जिनके पास पैसा ज्‍यादा और अक्‍ल कम है।

जिस कमरे में मुझे जाना था उसकी चाभी मैंने पटरे पर रखी देखी। वह बहुत बड़ी चीज थी जैसे किसी खजाने की चाभी हो। उसका पुछल्‍ला उससे भी बड़ा था। ये दोनों चीजें मिल कर काफी भारी एक चीज बन गई थीं जिससे कमरे में घुसने का अधिकार एक और भारी चीज बन गया था।

कई सूने बरामदे और बरोठे पार करके मैं लिफ्ट के सामने पहुँचा। लिफ्टवाले ने मुझे दाखिल करके एक बड़ा भारी हैंडिल घुमाया। घूँ-घूँ करके लिफ्ट चली। मुझे लग रहा था कि इसमें कोई गड़बड़ है, नहीं तो सिर्फ बटन दबा कर में खुद लिफ्ट को ले जा सकता था। लिफ्टवाला कहाँ का रहनेवाला है, मैं सोचने लगा। वह मेरी ओर देखे तो पहचानूँ। वह दीवाल की ओर मुँह किए खड़ा रहा। जब वह इधर घूमा तो मैंने कहा, बस्‍ती, नहीं बेगूसराय। उसके चेहरे पर एक फुफ्फल मोटापा था जो लगातार असन्‍तुलित आहार से आ जाया करता है। कितना मुश्किल था उसे पहचानना - इस तरह के चेहरेवाले हिन्‍दुस्‍तानियों का प्रदेश इतना बड़ा है। वह भी वर्दी पहने हुए था और बड़ी सख्‍त वर्दी थी वह। जैसे उसकी तनख्‍वाह की सारी कमी पूरी कर देगी। खास तौर से कड़ी गोल टोपी जो किसी विलायती लिफ्टवाले पर सैनिक सजावट का धोखा देती। इसको वह बेबसी की तस्‍वीर बना रही थी। इसके बच्‍चे क्‍या पहने होंगे, मैंने सोचा - छोटी लड़कियाँ अपनी बड़ी बहनों की उतरनें और बड़े, बूचे कुरते जो उनकी मारी गई बाढ़ के साथ ऐसे फि़ट हो गए होंगे कि जन्‍म भर वे धो-धो कर उन्‍हें पहन सकेंगी। लिफ्टवाले ने सलाम किया। जिसका मतलब था कि मैं उसे एक रुपया दूँ जिसका मतलब था कि वह वरदी होटल से पाएगा और गुजारा सलाम करके। मैंने उसे रुपया नहीं दिया। मैं उस गरीबी में शामिल नहीं था जो उसकी थी। होता तो रुपया देना और भी बदसलूक होता। मैं उस अमीरी में शामिल नहीं था जो इस तरह रुपया देनेवालों की होती है। होता तो मैं मैं न होता। पर मैं कितनी चालाकी से छुट्टी पा रहा था - यहाँ हो कर भी और यह जान कर भी कि मुझे यहाँ नहीं होना चाहिए था। लिफ्टवाले ने यह सब कुछ नहीं भाँपा। उसने यही समझा कि फिर कभी देंगे। बख्‍शीश न देने से मेरे और उसके बीच कोई अपनापा उपजा है, यह भी उसने नहीं जताया। जो मैं यह जताता तो यह मेरी चालाकी की हद होती और वह, मैं, उसके गाँव का भी होता तो भी न मानता कि मैं उसकी जमात का हूँ। वह गाँव से अपनी औकात ले कर शहर में आया था और यहाँ वह उससे सम्‍बद्ध हर कागज पर दर्ज कर दी जा चुकी थी।

कमरे में जा कर मैं बैठ गया। ऐसा लगा जैसे अब यहाँ कोई न आ सकेगा। फौरन कमरे से बाहर निकल कर मैंने देखा, दूर-दूर तक कोई न था। इधर-उधर कोई दिखाई भी पड़ता तो वह ऐसा व्‍यक्ति होता जो बात करने के लिए नहीं, खिदमत के लिए रखा गया था। सब खिदमतगार निहत्‍थे थे और धीरे-धीरे इतने पतित हो चुके थे कि कोई आक्रमण न कर सकते थे। ऊपर से बाहर दरबान मौजूद था। खतरे का कहीं नामोनिशान नहीं। मगर मुझे इतना बेखबर होने की जरूरत ही क्‍या थी? कोई जरूरत नहीं थी। सहसा यह अद्भुत विचार मन में आया कि ये सब कमरे एकान्‍त अध्‍ययन के लिए कितने उपयुक्‍त हैं, परंतु इतने महँगे हैं ये कमरे कि इनमें पहुँचते ही यह खयाल दिमाग में घर करने लगता है कि यहाँ अपना एकदम निजी व्‍यभिचार करने के लायक आदर्श एकान्‍त है।

थोड़ी देर में भूख लगने लगी। सन्‍नाटे में बरामदों और बरोठों का दाएँ-बाएँ मुड़ता एक सिलसिला पार करके मुझे खाने के कमरे में जाना था। वहाँ पहुँच कर मैंने दरअसल समझा कि यह इमारत कितनी बड़ी है। इसके हर दो कमरों में जहाँ भीड़ हो सकती है, परस्‍पर बहुत फासला है और वह फासला सूने बरामदों और बरोठों से भरा हुआ है।

खाने की ऊँची छत और झाड़फानूसवाले कमरे में कई लोग थे। जितने ग्राहक थे उनसे ज्‍यादा बैरे थे। वे चुपचाप खड़े मानो आशा कर रहे थे कि जो कोई आएगा, खूब खाएगा। खाना उसकी जिन्‍दगी में एक तरह का फैशन होगा। वरना वह यहाँ आए ही क्‍यों और बैरों को काम ही क्‍यों मिले? वह खाने के लिए न खाएगा। वैसा करे तो बड़ी निराशा होगी। शायद उसको भूख भी न हो। वह खाएगा क्‍योंकि शाम हो गई है और जब तक वह खा न ले शाम खत्‍म न होगी। उसके पास कितना ही वक्‍त क्‍यों न हो, कभी-न-कभी शाम को खत्‍म करना उसकी जिन्‍दगी में व्‍यवस्‍था के लिए जरूरी होगा।

खाना बहुत ही बदमजा था। गोश्‍त से मानो बकरे की जिन्‍दगी की एकरसता महक बन कर उठ रही थी। रोटी में नंगे बदन की-सी वह गरमाई न थी जो तन्‍दूर उसे देता है, वह गिजगिजी और बूढ़ी-सी थी। अचारों और चटनियों से एक खट्टी सड़ाँध उठ रही थी जैसे किसी ने इन्‍हें गंदे हाथों छू लिया हो और ये फफूँदिया रही हों। मैंने जल्‍दी-जल्‍दी खत्‍म किया। जिन परिस्थितियों में मेरे जीवन के इतने वर्ष बीते थे उनमें मुझे हबड़-हबड़ करके खाने की आदत पड़ चुकी थी।

बाकी किसी को जल्‍दी न थी। मानो वे किसी का इंतजार कर रहे हों। एकाएक बत्तियाँ गुल हो गईं। सब नहीं। एक गुलाबी रोशनी जल रही थी। कई आदमी बाजों के सामने खड़े दिखाई दिए। एक क्षण को लगा कि मैं इन्‍हें पहचानता हूँ। शायद ये वही लिफ्टवाले और दरबान हैं। इनको दूसरी वर्दी पहना दी गई है। दूसरी वर्दी तो थी ही। वे लोग भी दूसरे थे। एक ने झाँझ पर चोट मारी और ऐसे मटक कर खड़ा हो गया मानो मस्‍त हो गया हो।

एक व्‍यक्ति उस बड़े कमरे में आया। वह एक औरत थी। वह समझ रही थी कि वह सुन्‍दर है। यह उसकी चाल-ढाल से प्रकट था। मैंने सोचा, गाना गाएगी। मगर उसने पहले एक बाँह उठाई फिर एक टाँग उठाई जैसे इन हरकतों से उसके किसी रहस्‍य का द्वार आधा खुल कर रह जाएगा। बाकी आधा खोलने के लिए लोग व्‍याकुल हो उठेंगे। फिर उसने सीने पर हाथ रखा जैसे उसकी पोशाक वहीं से अटकी हुई है और वह हाथ हटा लेगी तो गिर पड़ेगी। वह नहीं, पोशाक। थोड़ी-सी इधर-उधर की अदाओं के बाद उसने अपने साए में हाथ डाल कर उसे, साए को नहीं हाथ को, ऐसे हिलाना शुरु किया जैसे देखनेवाला अपने हाथ को उसके साए में हिलाना चाहता। मेहरबानी करके कपड़े पहने रहो, मैं उससे कहना चाहता था, ऐसे ही गनीमत है। कपड़े पहने हुए तुम एक भरी-पूरी औरत मालूम होती हो। तुम्‍हारे साथ बातचीत भी की जा सकती है- कोई जरूरी नहीं कि बहुत सूक्ष्‍म अनुभूति की बातचीत हो - कुछ भी हो जिसमें तुम सच्‍चे मन से बोल सको : फोश हो, फैशन की हो, तुम्‍हारे अपने दो टूक फलसफे की हो। मगर तुमने कपड़े उतारे नहीं कि विषय बदला। कपड़े मत उतारो। घटिया और भड़कीले ही सही, उन्‍हें पहने रहो।

औरत ने साए के अन्‍दर से एक जाँघिया निकालकर दोनों हाथों में ले कर उसका आकार सब को दिखाया। उसे हवा में नचा कर उसने फेंक दिया। गिटार बजानेवाला एक आदमी बड़ी अदा से उठा कर उसे ले गया। औरत ने साया समेट कर एक जाँघ दिखाई। मुड़ कर देखा तो एक आदमी जिसे अब तक मैं खानेवालों के इंतजार में खड़ा बैरा समझ रहा था, एक बड़े लैम्‍प को औरत पर बैठा रहा था। ऐसे कई बड़े-बड़े लैंप कमरे में दिखाई दिए। ये सब कहीं दीवालों में लगे खड़े थे। तमाशा शुरु होते ही इन्‍हें कमरे के बीच लाया गया था। तमाशे में किस मौके पर कहाँ से कौन-सी रोशनी डाली जाएगी, यह तय था। इसी के अनुसार लैम्‍पों की जगहें निश्चित थीं। जो लोग इन्‍हें लाए थे वे, मैंने फिर गौर से देखा तो, बैरे ही दिखाई दिए। बैरे ही थे वे। उन सब की वर्दी एक-सी थी। उन्‍हें वेतन खाना खिलाने का मिलता था और औरत पर रोशनी वे बेगार में डालते थे। जरा देर और ठहरूँ तो शायद मुझे खाने की तश्‍तरी मेज पर पटक कर लैम्‍प सँभालने दौड़ता हुआ कोई बैरा दिखाई दे जाए कि रोशनी के इंतजार में औरत को कुछ अधिक कम उघड़े न रहना पड़े। न, वहाँ विनोद तो किसी को छू भी न गया था।

औरत फर्श पर चित लेट कर हिलने लगी। नहीं जानता था कि किस वजह से लोग कुर्सी छोड़ कर खड़े नहीं हो गए क्‍योंकि बिना खड़े हुए उसकी रति देख नहीं सकते थे। वह जरा ही देर हिली, ठीक उतनी देर जितनी देर में आप तय न कर पाएँ कि खड़े हों या न खड़े हों और आपको काफी पीड़ा मिल जाए - इतनी ज्‍यादा नहीं कि आप ठगे जाने का अनुभव करने लगें। पहले पंजों और घुटनों के बल हो कर उसने हसरत-भरी निगाह हवा में डाली जैसे इतने पुरुषों के रहते भी वह अतृप्‍त रह गई है।

मैं सब खानेवालों को तो एक साथ नहीं देख सकता था, एक मेज पर मैंने ध्‍यान लगाया। उस पर तीन आदमी काला सूट पहने बैठे थे और एक धोती-कुरताधारी थे। धोती-कुरते का चेहरा पहली-पहली बार किसी महान सफलता के सुख से पसरा जा रहा था। उसका नौसिखियापन उसकी बाँछों में खिला पड़ रहा था जिससे उसके लिए सहानुभूति पैदा होती थी। हो सकता है, यह शराब का असर रहा हो। बाकी तीन आदमी जो काले कपड़े पहने थे उनमें मैल का कलफ जान पड़ता था। उनके चेहरे हड़ैले और बेलौस थे और उन पर संतुलित खुशी थी जिससे वह हवा में टँगे-से जान पड़ते थे।

औरत इसी मेज पर आई। उसने धोती-कुरता को बख्‍श दिया; वह जानती थी कि सूटवाले धोती-कुरता को खुश कर रहे हैं और उसे सूटवालों को ही खुश करना चाहिए -धोती-कुरता को बदहवास कर देने से क्‍या फायदा, जबकि उसे सिर्फ ललचाने में फायदा है। वह एक काले सूट की गोद में जा बैठी और उसके मुँह से सिगरेट निकाल कर पीने लगी। चारों पुरुष ऐसे हँसने की कोशिश करने लगे जैसे वे मुरली मनोहर हों जबकि वे दौलत कमाने में इतने घिस चुके थे कि उनका चेहरा लालसा की झलक आते ही बूढ़ा दिखाई देता।

अगले दस मिनट में औरत ने एक-एक करके सब कपड़े उतारे। अंतिम कपड़ा - एक लँगोट - उतारने के साथ लाल-पीली रोशनियाँ बुझ गईं। धुँधले उजास में वह नंगी खड़ी थी।

वह कहाँ की रहनेवाली है, मैंने पूछा, गोंडा, बस्‍ती, बेगूसराय, बहराइच, आरा, छपरा, राँची?

असम्‍भव था जानना। वह इतनी नंगी थी।

एक दुशाला ओढ़ कर वह भाग गई। शर्म दिखाने का उसका काम कायदे से तो सही था मगर उसकी उम्र ज्‍यादा दिखी, शर्म कम। मैंने नतीजा निकाला कि जब भी कोई तेजी से जाता है उसकी सही उम्र छिपाए नहीं छिपती चाहे वह साइकिल चलाए, चाहे दौड़े…

जैसा कि मैं बता चुका हूँ, मैं तीन दिन उस होटल में रहा। पहली शाम को जो देखा था ठीक वही दूसरी और तीसरी शाम को देखा। ठीक जब छातियाँ कपड़े से बाहर निकालने का वक्‍त आता, हरी रोशनीवाला खानसामा लपक कर अपने लैम्‍प के पीछे खड़ा हो जाता। उसके ऊपर तनाव साफ दिखता था। पर वह नंगी औरतें देखने का तनाव नहीं था। रोज नंगी औरत देखने से ऊब और रोज ठीक वक्‍त पर लैम्‍प न जला पाने के डर का मेल था वह तनाव। सब बाजा बजानेवाले औरत की तरफ थे और वे उसे मिल कर पीटते।

दूसरी शाम को मैंने बाजा शुरू करनेवालों को भी ठीक कल की तरह झाँझ पर पहली चोट मारते ही मस्‍त हो जाते देखा। तीसरी शाम को मैं यह भी पहचानने लगा कि पूरी धुन में कहाँ-कहाँ, किस-किस बाजेवाले का मस्‍त होना और कौन-सी अदा दिखाना निश्चित है। वे जानते थे कि सुननेवाले मजा लेने की ताकत खो चुके हैं - एक अदना वादक भी यह पहचान लेता है।

खानेवाले - नहीं, मैं दावे से नहीं कह सकता कि वे तीनों दिन वहीं थे या उन्‍होंने तीनों दिन वहीं खाया। देखिए न कि इन सब के बीच वही तो थे जिनके पास कुछ मनोरंजन कर सकने लायक पैसा था। वे उसे तरह-तरह के खाने पर फूँक सकते थे बगैर यह जाने हुए कि वे क्‍या खाना चाहते हैं? वे खाते जाते और होटल चलता रहता।

बाकी सब गरीब लोग थे। वे इस किले में सुरक्षित थे। वे इस शर्त पर सु‍रक्षित थे कि वर्दी पहनेंगे, सलाम करेंगे, बाजा बजाएँगे और औरत पर ठीक जगह, निश्चित समय पर, रोज-रोज रोशनी डालेंगे। और वे चिड़चिड़ाएँगे नहीं। औरत को मैं नहीं जानता, पता ही नहीं चला कि वह कहाँ की रहनेवाली है। अनायास एक बात मेरे दिमाग में आई। शहर में हत्‍याएँ हो रही हैं। कभी इस किले में हत्‍या होगी तो ये लोग नहीं मारे जाएँगे, मैंने कहा, मुझे उम्‍मीद है कि वे लोग औरत को भी नहीं मारेंगे, इससे क्‍या हुआ कि उसके शहर का मुझे पता नही! और अगर यही लोग मारेंगे तो भी औरत को नहीं मारेंगे, इससे क्‍या हुआ कि वह अब कहीं की नहीं रही।

नैना जोगिन / फणीश्वरनाथ रेणु


रतनी ने मुझे देखा तो घुटने से ऊपर खोंसी हुई साड़ी को 'कोंचा' की जल्दी से नीचे गिरा लिया। सदा साइरेन की तरह गूँजनेवाली उसकी आवाज कंठनली में ही अटक गई। साड़ी की कोंचा नीचे गिराने की हड़बड़ी में उसका 'आँचर' भी उड़ गया।
उस सँकरी पगडंडी पर, जिसके दोनों और झरबेरी के काँटेदार बाड़े लगे हों, अपनी 'भलमनसाहत' दिखलाने के लिए गरदन झुका कर, आँख मूँद लेने के अलावा बस एक ही उपाय था। मैंने वही किया। अर्थात पलट गया। मेरे पीछे-पीछे रतनी ने अपने उघड़े हुए 'तन-बदन' को ढँक लिया और उसके कंठ में लटकी हुई एक उग्र-अश्लील गाली पटाके की तरह फूट पड़ी।
मैं लौट कर अपने दरवाजे पर आ गया और बैठ कर रतनी की गालियाँ सुनने लगा।

नहीं, वह मुझे गाली नहीं दे रही थी। जिसकी बकरियों ने उसके 'पाट' का सत्यानाश किया है, उन बकरीवालियों को गालियाँ दे रही है वह। सारा गाँव, गाँव के बूढ़े-बच्चे-जवान, औरत-मर्द उसकी गालियाँ सुन रहे हैं। लेकिन... लेकिन क्यों, शायद सच ही, उनके सुनने और मेरे सुनने में फर्क है। मैं 'सचेतन रुपेण' अर्थात जिस तरह रेडियो से प्रसारित महत्वपूर्ण वार्ताएँ सुनता हूँ, इन गालियों को सुन रहा हूँ। कान में उँगली डालने के ठीक विपरीत... एक-एक गाली को कान में डाल रहा हूँ। उसकी एक-एक गाली नंगी, अश्लील तसवीर बनाती है - 'ब्लू फिल्मों' के दृश्य।

...उदाहरण? उदाहरण दे कर 'थाना-पुलिस-अदालत-फौजदारी' को न्योतना नहीं चाहता।

रमेसर की माँ ने टोका शायद!

गाँव-भर की बकरीवालियों को सार्वजनिक गालियाँ दागने के बाद रतनी ने रमेसर की माँ के 'प्रजास्थान' को लक्ष्य करके एक महास्थूल गाली दी। रमेसर की माँ ने टोका - 'पहले खेत में चल कर देखो। एक भी पत्ती जो कहीं चरी हो...।'

रतनी अब तक इसी टोक की प्रतीक्षा में थी, शायद। अब उसकी बोली लयबद्ध हो गई। वह प्रत्येक शब्द पर विशेष बल दे कर, हाथ और उँगलियों से भाव बतला कर कहने लगी कि 'वह पाट के खेत में जा कर क्या देखेगी, अपना...?' (भले घर की लड़की होती तो कहती 'अपना सिर', किंतु रतनी सिर के बदले में अपने अन्य हिस्से का नाम लेती है!)

इसके बाद बहुत देर तक रतनी की बातें सुनता रहा। ...लेकिन उन्हें लिख नहीं सकता। वारंट का डर है।

किंतु, रतनी के बारे में अब कुछ नहीं लिखा गया तो जीवन में कभी नहीं लिखा जाएगा। क्योंकि रतनी की गालियों में मर्माहत और अपमानित करने के अलावा उत्तेजित करने की तीव्र शक्ति है - यह मैं हलफ ले कर कह सकता हूँ।

रतनी का नाम 'नैना जोगिन' मैने ही दिया था, एक दिन। तब वह सात-आठ साल की रही होगी। ...नैना जोगिन? देहात में झाड़-फूँक करनेवाले ओझा-गुणियों के हर 'मंतर' के अंतिम आखर में बंधन लगाते हुए कहा जाता है - दुहाए इस्सर महादेव गौरा पारबती, नैना जोगिन... इत्यादि। लगता है, कोई नैना जोगिन नाम की भैरवी ने इन मंत्रों को सिद्ध किया था।

...सात साल की उम्र में ही रतनी ने गाँव के एक धनी, प्रतिष्ठित वृद्ध को 'फिलचक्कर' में डाल दिया था। उसकी बेवा माँ, वृद्ध की हवेली की नौकरानी थी। पंचायत में सात साल की रतनी ने अपना बयान जिस बुलंदी और विस्तार से दिया था, कोई जन्मजात नैना जोगिन ही दे सकती थी! अब तो उसकी जामुन की तरह कजराई आँखें भी उसके नाम को सार्थक करती हैं, किंतु सात साल की उम्र में ही इलाके में कहर मचानेवाली लड़की से आँख मिलाने की ताकत गाँव के किसी बहके हुए नौजवान में भी नहीं हुई कभी। उसको देखते ही आँखों के सामने पंचायत, थाना, पुलिस, फौजदारी, अदालत, जेल नाचने लगते।

...रतनी की माँ सरकारी वकील को भी कानून सिखा आई है। ...बहस कर आई है सेशन-कोर्ट में!

सो, पिछले ग्यारह वर्षों में रतनी की माँ ने मुँह के जोर से ही पंद्रह एकड़ जमीन 'अरजा' है। पिछवाड़े में लीची के पेड़ हैं, दरवाजे पर नीबू। सूद पर रुपए लगाती है। 'दस पैसा' हाथ में है और घर में अनाज भी। इसलिए अब गाँव की जमींदारिन भी है वही। गाँव के पुराने जमींदार और मालिक जब किसी रैयत पर नाराज होते तो इसी तरह गुस्सा उतारते थे। यानी उसकी बकरी, गाय वगैरह को परती जमीन पर से ही हाँक कर दरवाजे पर ले आते थे और गालियाँ देते, मार-पीट करते और अँगूठे का निशान ले कर ही खुश होते थे।

रमेसर की माँ कल हाट जाते समय लीची की टोकरी नहीं ले गई ढो कर, इसलिए रतनी और रतनी की माँ ने आज इस झगड़े का 'सिरजन' किया है - जान-बूझ कर।

रमेसर का बाप मेरा हलवाहा है। रमेसर हमारे भैंसों का रखवाला यानी 'भैंसवार' है। रमेसर की माँ हमारे घर बर्तन-बासन माँजती है, धान कूटती है। इसलिए रतना अब अपनी गालियों का मुख धीरे-धीरे हमारी ओर करने लगी - 'तू किसका डर दिखलाती है? सहर से आए भतार का? रोज मांस-मछली और 'ब्राँडिल' पी कर तेरे (प्रजास्थान में) तेल बढ़ गया है! एँ...?'

मुझे अचानक रमेसर की माँ की गंदी - हल्दी-प्याज-लहसन पसीना-मैल की सम्मिलित गंध-भरी साड़ी की महक लगी। लगा, अब रतनी मुझे बेपर्द करेगी। नंगा करेगी। खुद अपने को उसने पिछले एक घंटे में साठ बार नंगा किया है अर्थात जब-जब उसने गाली का रुख हमारी ओर किया, हर बार यह कहना ना भूली कि रमेसर की माँ जिसका डर दिखलाती है वह 'मुनसा'(व्यक्ति!) रतनी का 'अथि' भी नहीं उखाड़ सकता! ...ऐसे-ऐसे 'मद्दकी मुनसा' को वह अपने 'अथि' में दाहिने-बाएँ बाँध रखेगी। ...बगुला-पंखी धोती-कुरता और घड़ी-छड़ी-जूतावाले शहरी छैलचिकनियाँ लोग ऊपर से लकदक और भीतर फोक होते हैं। ...सफाचट मोंछ मुँडाए मुछमुँडा लोगों की सूरत देख कर भूलनेवाली बेटी नहीं रतनी! ...रतनी की माँ को इसका गुमान है कि बड़े-बड़े वकील-मुख्तार के बेटों को देख कर भी उसकी बेटी की 'अथि' अर्थात जीभ नहीं पनियायी कभी। डकार भी नहीं किया।

रतनी अपने आँगन से निकल आई थी। रमेसर की माँ ने कोई जवाब दिया होगा शायद। अब रतनी और रतनी की माँ दोनों मिल कर नाचने लगीं। उसका घर दरवाजे से दस रस्सी दूर है, लेकिन सामने है। मैं रतनी और रतनी की माँ का नाच देखने को बाध्य था। रतनी की काव्य-प्रतिभा ने मुझे अचंभे में डाल दिया। उसकी टटकी और तुरत रची हुई पंक्तियों में वह सब कुछ था जो कविता में होता है - बिंब, प्रतीक, व्यंग तथा गंध! बतौर बानगी - अटना का साहब और पटना की मेम, रात खाए मुरगी और सुबह करे नेम, तेरा झुमका और नथिया और साबुन महकौवा - तू पान में जरदा खाए नखलौवा...!

रतनी और रतनी की माँ की यह काव्य-नाटिका समाप्त हुई तो मैंने दरवाजे पर बैठे - गाँव के दो-तीन नौजवानों की ओर देखा। मेरा चेहरा तमतमाया हुआ था, किंतु वे निर्विकार और निर्मल मुद्रा में थे। परिवार तथा 'पट्टीदार' के 'मर्द पुरुषों' की ओर देखा, वे पान चबा रहे थे, हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। लगता था, इन लोगों ने रतनी की गालियाँ सुनी ही नहीं। मैंने जब भोजन के समय बात चलाई तो परिवार के एक व्यक्ति ने (जिन्हें शहर के नाम से ही जड़ैया बुखार धर दबाता है) हँस कर कहा, 'शहर से आने के बाद आप कुछ दिन तक ऐसी असभ्यता ही करेगें, यह हमें मालूम है। इन छोटे लोगों की गाली पर इस तरह ध्यान कोई भलामानुस नहीं देता। इस तरह गालियों के अर्थ को प्याज के छिलके की तरह उतार-उतार कर समझने का क्या मतलब? शहर में क्या औरतें गाली नहीं देतीं?'

अजब इंसाफ है - गाली सुन कर समझना अन्याय है! असभ्यता है! मन में मैल है मेरे?

अश्लील और घिनौने मुकदमे के कारण रतनी की बदनामी बचपन से ही फैलती गई। जवान हुई तो बदनामियाँ भी जवान हुईं। फलत: गाँव के हिसाब से 'पक' जाने पर भी कोई दूल्हा नहीं मिला। मिलता भी तो 'घर-जमाई' हो कर नहीं रहना चाहता था। दो साल हुए, निमोंछिया जवान न जाने किस गाँव से आया साँझ में और रात में भात खाने के लिए घर के अंदर गया तो रतनी की माँ एक हाथ में सिंदूर की पुड़िया और दूसरे में फरसा लेकर खड़ी थी - 'छदोड़ी की सीथ में सिंदूर डालो, नहीं तो अभी हल्ला करती हूँ, घर में चोर घुसा है।'...तो सींकिया नौजवान जो हर सुबह को शीशम की कोमल पत्तियाँ तोड़ कर ले जाता है, वही है रतनी का रतन-धन!

पूछताछ करने पर पता चला कि हाल ही में एक रात को रतनी ने इसको लात से मारा, घर से निकाल कर चिल्लाने लगी, 'पूछे कोई इससे कि इतना दूध, मलाई, दही, मांस-मछली, कबूतर तिस पर 'धात-पुष्टई' दवा, तो अलान-ढेकान खा कर भी जिस 'मर्द' को आधी रात को हँफनी शुरु हो, उसका क्या कहा जाए? लोग 'दोख' देते हैं मेरे कोख को, कि रतनी बाँझ है। निमकहराम और किसको कहते हैं?'

मैं अब इसे मानसिक विकार मानने लगा हूँ। अब तक 'सामाजिक' समझ रहा था कि छोटी जात की औरत गाँव की मालकिन हुई है...।

नहीं, सामाजिक भी है। मेरे पट्टीदार के एक भाई ने कहा, 'कोई उसका क्या बिगाड़ सकता है। गाँव के सभी किस्म के चोर अर्थात लती-पती और सिन्नाजोर दिन डूबते ही उसके आँगन में जमा हो जाते हैं। इलाके का मशहूर डकैत परमेसरा रतनी की बात पर उठता-बैठता है। मुखिया और सरपंच रतनी की माँ के खिलाफ चूँ भी नहीं कर सकते। ...रतनी की माँ से कोई 'रार' मोल नहीं लेना चाहता इसीलिए, दिन-भर गाँव के हर टोले में दोनों घूम-घूम कर झगड़ा करती फिरती है। ...रतनी अकेली खस्सी (बकरे) को जिबह कर देती है, रतनी की माँ चोरी का माल खरीदती है - थाली-लोटा-गिलास...।'

सुबह को मालूम हुआ, शहर से आया हुआ मेरा प्रेस्टिज प्रेशर कुकर गायब है। दोपहर के बाद धोती गुम! रात में रमेसर की माँ फिसफिसा कर आँगन में कह रही थी - 'रतनी बोलती थी कि 'सिध' करके छोड़ेगी इस बार! ...उस दिन इस तरह पीठ दिखाना अच्छा नहीं हुआ शायद!'

और यह सब इसलिए कि मैंने रतनी के तथाकथित 'पुरुष' को बुला कर उसका पता-ठिकाना पूछा था, और उसको समझाया था कि गाँव में अब एक नई बात चल पड़ी है। उसने बीवी की मार सह ली - नतीजा यह हुआ है कि कई औरतों ने अपने घरवालों को पीटा इस गाँव में...।

रतनी ने चिल्ला-चिल्ला कर सारे गाँव के लोगों को सूचना देने के लहजे से सुनाया था, 'सुन लो हो लोगों! अब इस गाँव में फिर एक सेशन मोकदमा उठेगा सो जान लो। ई शहर का कानून यहाँ छाँटने आया है! कोई अपने घरवाले को लात मारे या 'चुम्मा' ले, दूसरा कोई बोलनेवाला कौन? देहात से ले कर शहर तक तो 'छुछुआते' फिरता है, काहे न कोई 'मौगी' मुँह में चुम्मा लेती है?'

मैं रोज हारता, रतनी रोज जीतती। मुझे स्वजनों ने सतर्क किया - साँझ होने के पहले ही मैदान से घर लौट आया करुँ। किसी ने शहर लौट जाने की सलाह दी। मुझे लगता, रोज ताल ठोक कर एक नंगी औरत-पहलवान मुझे चुनौती देती है। थप्पड़-घूँसे चलाती है। भागूँगा तो गाँव की सीमा के बाहर तक पीछे-पीछे फटा कनस्तर पीटती और बकरे की तरह 'बो बो बो बो' करती जाएगी, गाँव-भर के लोग तालियाँ बजा कर हँसेंगे।

मुझे हथियार डाल देना चाहिए। एक औरत, सो भी ऐसी औरत से टकराना बुद्धिमानी नहीं। एक सप्ताह तक चोरी-चपाटी करवाने के बाद एक नया उत्पात शुरु किया। रात-भर हमारे दरवाजे और आँगन में हड्डियों की 'बरखा' होती। ...नंगी औरत ताल ठोक कर ललकार रही है - मर्द का बेटा है तो मैदान में आ...!

मैदान में मुझे उतरना ही पड़ा। रात में नींद खुली। दरवाजे के सामने जो नया बाग हम लोगों ने लगाया है, उसमें भैंस का बच्चा घुस गया है, शायद! मैं धीरे-धीरे बाड़े के पास गया। पट्ट...!

अमलतास के कोमल पौधे को तोड़ कर, गुलमोहर की ओर बढ़ते हुए हाथ को मैंने 'खप्प' से पकड़ा। कलम-घिसाई के बावजूद पंजे की पकड़ में अब तक खम बचा हुआ था! ...'क्यों?' मैंने बहुत धीरे से पूछा।

'छोड़िए!' जवाब भी उसी अंदाज में मिला।

'क्यों तोड़ा है? क्या मिला? क्यों?'

'तोड़ा तो क्या कर लीजिएगा?'

'मैं लोगों को पुकारता हूँ।'

'खुद फँस जाइएगा। ...हाथ छोड़िए।'

'फँसा के देखो। मैं नहीं डरता हूँ।'

'क्या चाहते है आप?'

'मैं जानना चाहता हूँ कि तुम... तुम इस तरह मेरे पीछे क्यों पड़ी हो? इस पौधे को क्यों तोड़ा है?'

'वह तो पौधा ही है। जी तो आप को ही तोड़ देने को करता है। ...हाथ छोड़िए!'

मैंने देखा उसकी कनपटी पर एक साँप का फण - फण नहीं, भाला! बरछे की फली! मैंने हाथ छोड़ दिया। वह भागी नहीं, खड़ी रही। मुझे चुप और अवाक देख कर बोली, 'चिल्लाऊँ?'

'कोढ़ी डरावे थूक से!'

रतनी हँसी। तारों की रोशनी में उसकी हँसी झिलमिलाई।

'जाइए, थोड़ा 'ब्राँडिल' और चढ़ाइए!'

'तुम - तुम नैना जोगिन...!'

'हाँ, नैना जोगिन ही हूँ। तब? माधो बाबू... अब रतनी करीब सट आई, 'मेरा क्या कसूर है जो बारह साल से बनवास दिये हुए हैं आप लोग! उस बूढ़े को करनी का फल चखाया तो क्या बेजा किया? मैं उस समय उसकी पोती की उम्र की थी। ...सो, आप लोगों ने खासकर आप दोनों भाइयो ने हम लोगों को 'रंडी' से बदतर कर दिया। ...आखिर आपके जन्म के दिन रतनी की माँ ही सौर-घर में थी - पाँच साल तक आप रतनी की माँ की गोद और आँचर में रहे, और आप की आँख में जरा भी पानी नहीं। ...मै जवान हुई, आप लोगों ने आँख उठा कर कभी देखा नहीं कि आखिर गाँव-घर की एक लड़की ऐसी जवान हो गई और शादी क्यों नहीं होती? ...अब इस बार आए हैं तो कभी आपके मन में यह नहीं हुआ कि रतनी की शादी हुए ढाई साल हो रहे हैं और रतनी को कोई बच्चा क्यों न हुआ? अटना-पटना-दिल्ली-दरभंगा में आपके इतने डागडर-डागडरनी जान-पहचान के हैं - आखिर, रतनी के माँ का दूध साल-भर तक पिया है आपने। रतनी की माँ को बहुत दिन तक आपने माँ कहा था, लोगों को याद है। ...दूध का भी एक संबंध होता है।'

मैंने कहा, 'रतनी! रमेसर जग रहा है।...मैं कुछ नहीं समझता। तुम जाओ। कोई देख लेगा।'

'देख कर क्या कर लेगा?'

रतनी ने बेलाग-बेलौस एक अश्लील बात अँधेरे में, आग की तरह उगल दी - 'देख कर आपका 'अथि' और मेरा 'अथि' उखाड़ लेगा? ...बोलिए, मैं पापिन हूँ? मैं अछूत हूँ? रंडी हूँ? जो भी हूँ, आपकी हवेली में पली हूँ... तकदीर का फेर... माधो बाबू... रतनी नाम भी आपके ही बाबू जी का दिया है। आपने उसको बिगाड़ कर नैना जोगिन दिया! किस कसूर पर? आप लोगों का क्या बिगाड़ा था रतनी की माँ ने जो इस तरह बोल-चाल, उठ-बैठ एकदम बंद!'

मैंने धीरे से कहा, 'ऐसे गाँव में अब कोई भला आदमी कैसे रह सकता है?'

लगा, नागिन को ठेस लगी, फुफकार उठी - 'भला-आदमी? भला आदमी? भला आदमी को 'पूछ-सिंग' होता है?'

'नहीं होता है। इसीलिए...।'

पूछ-सिंग... जानवर... औरत-मर्द... नंगे... बेपर्द... अंधकार... प्रकाश... गुर्राहट... आँखों की चमक... बड़े-बड़े नाखून... बिल्ली... शिवा... गॄद्धासया... योनिस्या भगिनी... भोगिनी... महांकुश... स्वरूप... छिन्नमस्ता अट्टहास...!

अट्टहास सुन कर चौंका - रतनी कहाँ है? वह तो साक्षात नील सरस्वती थी!

इस बार गाँव में, गाँव के आसपास, यह खबर बहुत तेजी से फैली की नैना जोगिन का 'जोग' माधो बाबू पर खूब ठिकाने से लगा है! ...रमेसर की माँ को एक दिन खोई हुई चीजें टोकरी में मिलीं - घर में ही। रतनी ने माधो बाबू को 'भेड़ा' बनाया है तो माधो बाबू ने रतनी का 'विषदंत' उखाड़ दिया है। बोले तो एक भी गाली - गंदी या अच्छी?

रतनी और उसके नामर्द मर्द को मैं अपने साथ शहर लेता आया हूँ। डॉक्टर को अचरज होता है कि मैं रतनी के लिए इतना चिंतित क्यों हूँ! उन्हें कैसे समझाऊँ कि यदि रतनी को कोई बच्चा नहीं हुआ तो वह... वह मेरे बाग के हर पौधे तोड़ देगी, गाँव के सभी पेड़-पौधे को तोड़ देगी, गाँव के सभी लोगों को तोड़ेगी, गाँव में हड्डियाँ बरसावेगी, नंगी नाचेगी, अश्लील गालियाँ देती हुई सभी को ललकारेगी! वह साँवली-सलोनी लंबी स्वरुप पूर्ण यौवना नैना जोगिन! जाँच-पड़ताल के समय जब रतनी की लंबाई नापी जाती है, वजन लिया जाता है, पेट टटोला जाता है... तो... मेडिकल कॉलेज की लेडी स्टूडेंट्‌स से ले कर डॉक्टर तक हैरत से मुँह बाए रहते हैं!... औरत, ऐसी?

पाँच दिन हुए हैं, पड़ोस के मलहोत्रा साहब की नौकरानी को दो दिन वह फ्लैट के नीचे उठा कर फेंकने की धमकी दे चुकी है। ...शहर की सड़ी हुई गरमी को रोज पाँच अश्लील गालियाँ देती है!

उसका घरवाला गाँव लौटने को कुनमुनाता है तो वह घुड़क देती है... 'हाँ, जब आ गई हूँ तो यहाँ हो चाहे लहेरिया सराय, चाहे कलकत्ता... जहाँ से हो, कोख तो भरके ही लौटूँगी, गाँव तुमको जाना हो तो माधो बाबू टिकस कटा कर गाड़ी में बैठा देंगे। मैं किस मुँह से लौटूँगी खाली...?'

कोई जादू जानती है सचमुच रतनी!

कोई शब्द उसके मुँह में अश्लील नहीं लगता!