Sunday 6 October 2013

वो 'मैं' और 'वे'

तब न इतना विश्वास का संकट था, न अपने चारो तरफ धूर्तता और पाखंड की इतनी ऊंची-ऊंची दीवारें कि उसके पार खूब जोर मारकर भी कुछ नजर न आ सके..... 

तब समय इतना जानवर नहीं था, न लोग इतने जटिल, घुमावदार, सिर्फ अपने कल के लिए जीने वाले गिरगिट की तरह क्षण-क्षण रंग बदलते हुए..... 

रात में नाना चारपाई पकड़ने से पहले दरवाजे की नीम की लटकती डाल पर खैनी-चूने से भरी थैली लटकाना नहीं भूलते थे ताकि सुबह दिशा-मैदान के लिए उधर से गुजरने वाले पास-पड़ोसी को एक चुटकी के लिए उदास न होना पड़े...

उस दिन चार साल का था। पिता लाल-लाल डांट पिला गये थे। मैं नींद में था। मुझे क्या पता। सुबह जागने पर रोज की तरह दालान की चौखट पर जा बैठा। आहिस्ते से पीछे से नानी आई और एक हाथ से पीठ, दूसरे से सिर सहलाने लगी। पिता की डांट को मेरे देह का घाव समझ कर.....

दसवीं के बाद नाना, बारहवीं के बाद पिता ने कहा- अब मैं तुम्हें नहीं पढ़ा पाऊंगा। मैंने अपने कालेज के महंत प्रबंधक से आपबीती सुनाई। वह कालेज से सटी कुटिया में रहते थे। बाबा हरिहरनाथ। बाबा ने मेरा दर्द पढ़ते हुए तुरंत कालेज से तीन टीचर बुलवा लिए- क्लास टीचर, लायब्रेरियन और वाइस प्रिंसिपल। उनके जिम्मे मुझे कर दिया कि इसकी आगे की पढ़ाई तुम जानो, कैसे होगी......

एक बार मुरादाबाद में कवि माहेश्वर तिवारी से मुलाकात कर मऊनाथ भंजन लौट रहा था। तब ट्रेन यात्राओं का रत्ती भर अनुभव नहीं था। किधर फर्स्ट, किधर थर्ड क्लास। चढ़ लिया एक भुसे-ठुसे डिब्बे में। खड़ा होने भर को जगह नहीं। ऊनी कपड़े बेचने वाले नेपाली जनो से आह-कराह मची हुई। दो सीटों के बीच में खड़ा हो लिया। एक सीट पर दो सिपाही बैठे थे। बोले कुर्ता-पाजामा से तो कवि लगते हो। मैं चौंका। ये कैसे जान गये! दोनो के बीच बैठ गया। बैठते ही उनमें से एक सिपाही बोला- कविता सुनाओ नहीं तो अभी सीट से उठा दूंगा। मैं ट्रेन अगले स्टेशन पर पहुंचने तक उन्हें कविताएं सुनाता रहा......