Friday 1 November 2013

काशीनाथ सिंह की तीन 'काल' कथाएं



अकाल


यह वाकया दुद्धी तहसील के एक परिवार का है। पिछले रोज चार दिनों से गायब मर्द पिनपिनाया हुआ घर आता है और दरवाजे से आवाज देता है। अन्दर से पैर घसीटती हुई उसकी औरत निकलती है। मर्द अपनी धोती की मुरींसे दस रुपये का एक मुड़ा-तुड़ा नोट निकालता है और औरत के हाथ पर रखकर बोलता है कि जब वह शाम को लौटे तो उसे खाना मिलना चाहिए। औरत चिन्तित होकर पूछती है, ‘अनाज कहां है?’ ‘जुहन्नुम में।’ मर्द डपटकर कहता है और बाहर निकल जाता है। औरत नोट को गौर से देखती है और जतन से ताख पर रख देती हैं। वह अपने चार साल के लड़के को-जो खेलते-खेलते सो गया है- जगाती है और कहती है, ‘तुम घर देखो, मैं अभी आ रही हूं।’ लड़का आंख मलता है और वह उसे लौटकर अपने साथ बाजार ले चलने का लालच देता है! लड़का चुपचाप अपनी मां को देखता रहता है। औरत कटकटाए बर्तनों को उठाती है और मलने के लिए बाहर चली आती है। वह चटपट बर्तन मलकर घर आती है और चैखट पर पहुंचकर दंग रह जाती है। नीचे जमीन पर नोट के टुकड़े पड़े हैं। वह बर्तन फेंककर ताख के पास जाती है - नोट नदारद। लड़का खटिया पर जसका तस लेटा है। वह गुस्से में है और मुंह फुलाये है। वह लड़के को खींचकर मारना शुरू करती है और थक जाती है और रोने लगती है। शाम को मर्द आता है और चैक में पीढ़े पर बैठ जाता है। वह औरत को आवाज देता है कि तुरन्त खाना दो। औरत आंगन में बैठे बैठे बताती है कि जब वह बर्तन मलने गयी थी, लड़के ने नोट को फाड़ दिया था। मर्द अपनी सूखी जांघ पर एक मुक्का मारता है और उठ खड़ा होता है। वह लपककर चूल्हे के पास से हंसुआ उठाता है और आंगन में खड़ा होकर चिल्लाता है, ‘अगर कोई मेरे पास आया तो उसे कच्चा खा जाऊंगा। उसका मुंह अपनी औरत की ओर है। औरत बिना उसे देखे-सुने बैठी रहती है। मर्द झपट्टा मारकर लड़के को उठाता है और उस पर चढ़ बैठता है। फिर हंसुआ को झण्डे की तरह तानकर औरत को ललकारता है, ‘कच्चा खा जाऊंगा।’ औरत उसकी ओर कतई नहीं देखती। मर्द लड़के के गले पर हंसुआ दबाता है और गुस्से में कांखता है, ‘साले, तुझे हलाल करके छोडूंगा।’ और अपने ओठ भींच लेता है। लड़का - जो बिना चीखे, चिल्लाये, रोय उसके घुटनों के बीच दबा है- किसी तरह सांस लेता है, ‘ओह, ऐसे नही, धीरे-धीरे...। और पुलिस दूसरी सुबह नियमानुसार मर्द के साथ अपना फर्ज पूरा करती है।

पानी


पुलिस को खबर दी जाती है कि सात दिनों से भूख निठोहर कुएं में कूद गया है और वह बाहर नहीं आ रहा है। ‘इसमें परेशानी क्या है?’ पुलिस पूछती है। ‘हुजूर, वह मरना चाहता है।’ ‘अगर वह यही चाहता है तो हम क्या कर सकते हैं?’ पुलिस फिर कहती है और समझाती है कि वे उसके लिए मर जाने के बाद ही कुछ कर सकते हैं, इसके पहले नहीं। उन्हें इसके लिए ‘फायर-ब्रिगेड’ दफ्तर को खबर करनी चाहिए। खबर करनेवाले चिन्तित होते हैं और खड़े रहते हैं। ‘साहेब, वह कुएं में मर गया तो हम पानी कहां पियेंगे?’ उनमें से एक आदमी हिम्मत के साथ कहता है। ‘क्यों?’ ‘एक ही कुआं है।’ वह संकोच के साथ धीरे-से कहता है। दूसरा आदमी बात और साफ करता है। ‘उस कुएं को छोड़े पानी के लिए हमें तीन कोस दूर दूसरे गांव जाना पड़ेगा।’ काफी सोच विचार के बाद दो सिपाही कुएं पर आते हैं। वे झांक कर देखते हैं-पानी बहुत नीचे चला गया है और वहां अंधेरा दिखायी पड़ रहा है। पानी की सतह के ऊपर एक किनारे बरोह पकड़े हुए निठोहर बैठा है-नंगा और काला। सिपाही होली का मजा किरकिरा करने के लिए उन्हें गालियां देते हैं और डोर लाने के लिए कहते हैं। डोर लायी जाती है और कुएं में ढील दी जाती है। सिपाही अलग-अलग और एक साथ चिल्लाकर निठोहर से रस्सी पकड़ने के लिए कहते हैं। रस्सी निठोहर के सामने हिलती रहती है और वह चुपचाप बैठा रहता है। सिपाही उसे डांटते हैं, ‘बाहर आना हो तो डोर पकड़ो।’ काफी हो-हल्ला के बाद निठोहर अपनी आंखे डोर के सहारे ऊपर करता है, फिर सिर झुका लेता है। ‘वह डोर क्यों नहीं पकड़ रहा है?’ एक सिपाही बस्ती वालों से पूछता है। बस्ती वाले बताते हैं कि वह डोर पकड़ने के नहीं, मरने के इरादे से अन्दर गया है। वह भूख से तंग आ चुका है। सिपाही मसखरी करते हैं कि क्या वे उनके निठोहर के लिए रोटी हो जायें। सिपाहियों में से एक फिर चिल्लाता है कि अगर वह मरने पर ही आ गया हो तो उसे कोई रोक नहीं सकता लेकिन वह कम-से-कम आज नहीं मर सकता। आज होली है और यह गलत है। ‘हां, वह किसी दूसरे दिन मर सकता है, जब हम न रहें।’ दूसरा सिपाही बोलता है। जवाब में निठोहर के होंठ हिलते हुए मालूम होते हैं, लेकिन आवाज नहीं सुन पड़ती। ‘क्या बोलता है?’ एक सिपाही पूछता है। ‘मुंह चिढ़ा रहा है।’ दूसरा कहता है। ‘नहीं, वह गालियां दे रहा होगा, बड़ा गुस्सैल है।’ दूसरी तरफ से अन्दर झांकता हुआ एक आदमी कहता है। ‘गालियां? खींच लो। तुम सब खींच लो डोरे और साले को मर जाने दो!’ बाहर डोर पकड़े हुए बस्तीवालों पर एक सिपाही चीखता है। बस्तीवालों पर उसकी चीख का कोई असर नहीं पड़ता। ‘जाने दो। गाली ही दे रहा है, गा तो नहीं रहा है।’ उसका साथी फिर मसखरी करता है और ही-ही करके हंसता है। ‘अच्छा, ठीक है, बाहर आने दो।’ सिपाही खुद को शान्त करता है। डोर ऊपर खींच ली जाती है और उसे बाहर निकालने के लिए तरह-तरह के सुझाव आने लगते हैं। तय पाया जाता है कि वह भूखा है और रोटियां देखकर ऊपर आ जायेगा। लेकिन सवाल पैदा होता है कि रोटियां कहां से आयें? अगर रोटियां होती तो वह कुएं में क्यों बैठता? फिर बात इस पर भी आती है कि उसे यहीं से चारा दिखाया जाये। मुलायम और नरम पत्तियां। ‘क्यों, तुम सब उसे पाड़ा समझते हो?’ नाराज सिपाही पूछता है और अपना थल-थल शरीर हंसी से दलकाने लगता है। अंत में तय होता है कि कोई आदमी निकट के बाजार में चला जाये और वहां से कुछ भी ले आये। घंटे बाद पावभर सत्तू आता है। सिपाही पूरी बुद्धि के साथ एक गगरे में सत्तू घोलकर निठोहर के आगे ढील देते हैं। वह गगरे को हाथों में लेकर हिलाता है, उसमें झांकता है, सूंघता है। फिर एक सांस में पी जाता है। खाली गगरा फिर झूलने लगता है और ऊपर हंसी होती है। ‘अच्छा बनाया उसने,’ एक सिपाही कहता है। ‘अब तो वह और भी बाहर नहीं आयेगा।’ बस्ती का एक आदमी उदास होकर कहता है। ‘हां-हां, रुको। घबड़ाओ नहीं।’ थलथल सिपाही अंदर झांकता हुआ हाथ उठाकर चिल्लाता है। दूसरे भी झांकते हैं। निठोहर ने गगरा छिटाकर पानी पर फेंक दिया है और फंदा अपने गले में डाल लिया है। ‘उसने फंदा पकड़ लिया है।’ पहला सिपाही चिल्लाता है। ‘खींचों, मैं कहता हूं, खींचो साले को।’ दूसरा चीखता है और निठोहर खींच लिया जाता है। उसकी उंगलियां फन्दे पर कस गयी हैं। जीभ और आंखे बाहर निकल आयी हैं और टांगे किसी मरे मेंढक-सी तन गयी हैं। सिपाहियों को करतब दिखाने का जरिया मिलता है और बस्ती वालों को पानी।

प्रदर्शनी


खबर फैली है कि इस इलाके में अकाल देखने प्रधानमंत्री आ रही हैं। सरगर्मी बढ़ती है। जंगल के बीच से नमूने के तौर पर 50 कंगाल जुटाये जाते हैं और पन्द्रह दिन तक कैंप में रखकर उन्हें इस मौके के लिए तैयार किया जाता है। स्वागत की तैयारियां शुरू होती हैं। फाटक बनाये जाते हैं। तोरण और बन्दनवार सजाये जाते हैं। ‘स्वागतम्’ और ‘शुभागमनम्’ लटकाये जाते हैं। ‘जयहिन्द’ के लिए दो नेताओं में मतभेद हो जाता है इसलिए यह नहीं लटकाया जाता। गाड़ियां इधर से उधर दौड़ती हैं और उधर से इधर। पुलिस आती है, पत्रकार आते हैं, नेता और अफसर आते हैं। सी.आई.डी की सतर्कता बढ़ती है। अपने क्षेत्रों के विजेता नेता लोगों को समझाते हैं कि यह उनकी आवाज है जो प्रधानमंत्री को यहां घसीट लायी है। इस तरह अगले चुनाव में उनके विजय की भूमिका बनती है। दूसरे क्षेत्रों से आये नेताओं को कोफ्त होती है कि उनका क्षेत्र अकाल से क्यों वंचित रह गया। इस बीच अकाल भी जोर पकड़ लेता है। पेड़ों से बेल, महुवे, करौंदे, कुनरू, के बौर साफ हो चुकते हैं। अब पेड़ नंगे होने लगे हैं। उनकी पत्तियां –भरसक नरम और मुलायम-उठाली जा रही हैं और खायी जा रही हैं। यह सब तब तक चल रहा है, जब तक आगे है। ऐन वक्त पर प्रधानमंत्री आती हैं। वे दस रुपये की साड़ी में सौ वर्ग मील की यात्रा करती हैं। कुछ ही घंटों में इतनी लंबी यात्रा लोगों को सकते में डाल देती है। प्रधानमंत्री खुश रहती हैं क्योंकि लोग भूखे हैं फिर भी उन्हें देखने के लिए सड़कों पर धूप में खड़े हैं। जनता प्रधानमंत्री के प्रति अपने पूरे विश्वास और विनय के साथ अकाल में मर रही है। अंत में, प्रधानमंत्री का दस मिनट तक कार्यक्रम होता है। रामलीला मैदान में कहीं कोई तैयारी नहीं है। क्योंकि बाहर से लाये जाने वाले फल, गजरे, केले के गाछ कंगालों के बीच सुरक्षित नहीं रह सकते। और ऐसे भी यह कार्यक्रम जश्न मनाने के लिए नहीं है।कार्यक्रम से पहले प्रदर्शनी के लिए तैयार किये गये सैंतालीस कंगाल लाये जाते है। पचास में से तीन मर चुके हैं। कैम्प में आने के तरहवें दिन जब उन्हें खाने के लिए रोटियां दी गयीं तो वे पूरी की पूरी निगल गए। और हुआ यह कि रोटी सूखे गले में फंस गयी और वे दिवंगत हो गये। प्रधानमंत्री उनके और सारी भीड़ के आगे अपना कार्यक्रम पेश करती हैं। वे धूप में एक चबूतरे पर आ खड़ी होती हैं। बोलने की कोशिश में ओंठों को कंपाती हैं। आंखों को रूमाल से पोंछती हैं और सिर दूसरी ओर घुमा लेती हैं। रूमाल के एक कोने पर सुर्ख गुलाब कढ़ा है। भीड़ गदगद होती है। इस मौन कार्यक्रम के बाद प्रसन्न चेहरे के साथ प्रधानमंत्री विदा लेती है। नारे लगते हैं। जै-जैकार होता है। और दूसरे शहर के सबसे बड़े होटल में प्रधानमंत्री पत्रकारों के बीच वक्तव्य देती हैं कि ‘हम दृढ़ता, निश्चय और अपने बलबूते पर ही इसका मुकाबला कर सकते हैं। अफसर खुश होते हैं कि दौरा बिना किसी दुर्घटना के सम्पन्न हुआ है। भीड़ पहली बार अपने जीवन में प्रधानमंत्री का दर्शन पाकर छंट जाती है और वे सैंतालीस कंगाल घास और माथों की आंड़ी खाने के लिए जंगल की ओर हांक दिये जाते हैं।

भावी प्रधानमंत्रियों का पोंगा-विलाप

जयप्रकाश त्रिपाठी

प्रधानमंत्री पद के भाजपाई उम्मीदवार नरेंद्र मोदी और कांग्रेस के भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी अपनी-अपनी चुनाव सभाओं में मतदाताओं का मन भरमाने के लिए पोंगा विलाप करते डोल रहे हैं। एक जनाब कह रहे हैं, दादी-पिता की तरह उन्हें भी निशाने पर लिया जा सकता है। दूसरे सज्जन अलापते हैं, आशीर्वाद है कि मैं जिंदा हूं। प्रश्न उठता है कि भारतीय कानून व्यवस्था में जब देश के भावी प्रधानमंत्रियों के डर-भय का ये हाल है तो जनता का क्या होगा। लोकतांत्रिक देश है। कहने के लिए सबको समान अधिकार है। पूरी सुरक्षा व्यवस्था कुछ लोगों की रखवाली में है। उस पर अरबों रुपये सालाना खर्च हो रहा है जनता का। जनता के टैक्स पर अधिकारी और नेता मौज उड़ा रहे हैं।
प्रधानमंत्री के लिए ढोंग की भाषा बोलने की बजाय जनता की उन वास्तविक समस्याओं पर बोलने से ये नेता कतरा रहे हैं। इतनी चौकसी लपेटने के बावजूद उन्हें अपनी-अपनी जान का डर है। हैरत है। तो जनता क्या करे। वे क्यों बार-बार रैलियों में अपनी जान की दुहाई दे रहे हैं। जनता की जान क्या खैरियत में हैं। वे महंगाई पर महंगाई लादते हुए जनता की जान लेने पर आमादा हैं। अपराधियों को राजनेता बना कर जनता की बहू-बेटियों की इज्जत-आबरू खतरे में डाले हुए हैं। कानून व्यवस्था हर प्रदेश में हाशिये पर है। दिनदहाड़े लोग मारे जा रहे हैं, लूटे जा रहे हैं। श्रम कानूनों का अपहरण कर करोड़ों मेहनतकशों को मरने के लिए छोड़ दिया है। देश कर्जखोरी में डूबता जा रहा है और स्विस बैंक में वे देसी चोरी का माल तहियाते जा रहे हैं। क्या उन्हें देसी-विदेशी कंपनियों की चाटुकारिता करने के लिए प्यार किया जाए। महंगाई के कोड़े खाने के लिए चुना जाए!
वह किसके लोकतंत्र की हिफाजत के लिए राजधानियों में कुंडली मारना चाहते हैं। लोकपाल विधेयक पर क्यों बाएं-दाएं झांकते हैं! पटेल की गगन चुंबी प्रतिमा किसके पैसे से बनवा रहे हैं। किसके पैसे से दिनरात हवाई यात्राएं कर रहे हैं। आखिर कैसे उनके और अफसरों के लग्गू-भग्गू तक सियासी बाना ओढ़ते ही साल-छह महीने में लखपति-करोड़पति हो जा रहे हैं। दो रुपये में प्याज खरीद कर सौ रुपये में बेचने वाले जमाखोरों को संरक्षण कौन दे रहा है! जनता को सब पता है। हकीकत तो ये है, उसके सामने कोई तीसरा विकल्प नजर नहीं आ रहा है।
इसलिए वे अपनी रैलियों में चाहे जितने सयाने बन लें, जितने तरह के फर्जी विलाप कर लें, चैनल चाहे जितनी बेशर्मी से खलनायक को नायक बनाने का खेल खेल लें, जनता सब देख रही है। सब जान रही है। सच तो ये है कि अपनी अशिक्षा और नादानी के चलते वह इन खद्दरधारी दुरंगों, सरमायेदारों के चौकीदार-जोकरों, लुटेरों-मवालियों के सफेदपोश संरक्षकों, प्याज के जमाखोरों से चुनावी थैलियां खसोटने वाले जेबकतरों, किसी भी समय डीजल-पेट्रोल के दाम बढ़ा देने वाले वणिक-गायकों से तंग आ चुकी है। दीपावली ब्रांडेड हुंकार से नहीं, रोजी से मनेगी। चिथड़ा लपेट कर कैसे मनेगी, उन्हें भी अच्छी तरह पता है।