Saturday 16 November 2013

मुंड़ेरों पर गौरैया

देवेंद्र

आदमी का इतिहास जब कभी सही ढंग से लिखा जायेगा तो चाहे उसमें चक्रवर्ती सम्राटों और उनकी लड़ाइयों का जिक्र न हो, गौरैया का जिक्र जरूर होगा! बगैर गौरैया, आदमी और उसकी कलाएँ, कल्पनाएँ, सुख-दुख के किस्से, उसके संगीत, उसकी प्रेम कहानियों के बारे में कुछ जान पाना संभव नही होगा। गौरैया की नन्हीं आँखों में एक दिन जरूर लिखा और पढ़ा जायेगा सभ्यता का क्रूर इतिहास। यह कोई पुरानी बात नही है। अभी कल तक गाँव के हमारे घरों में, हमारे बीच गौरैयों के झुंड रहा करते थे। बैलों के हरे चारे और सूखे पुवाल की गंध में चहचहाती, उड़ती-फुदकती गौरैया सुबह-सबेरे सूरज की किरणों से पहले ही चली आती थीं। काम से फुर्सत पाकर माँ जब कभी देहरी पर बैठतीं, गिलहरी और गौरैयों का झुंड उन्हे घेर लेता था। हमारे चारों तरफ बिखरे अन्न के दानों पर ही वो पलती थीं। माँ को विश्वास था कि हमारे अनाम पुरखे गौरैयों की शक्ल में हमें देखने-सुनने आते हैं। कैंसर से असहनीय दर्द से तड़पती-छटपटाती मेरी माँ का चेहरा गौरैया की तरह हो गया था। अन्न के दानों को अपनी नन्ही चोंच में दबाये वे अपने घोसलों में जाती थीं, जहाँ उनके बच्चे चीं...चीं.. करते बेसब्री से उनकी प्रतीक्षा करते थे। एक आत्मीय उल्लास का मोहक संगीत हर समय हमारे चारों तरफ बजता रहता था। वे हमारे अभावों और संपन्नता के दिन थे। इन्ही चिड़ियों के पंख लेकर माँ के किस्सों और हमारे सपनों में परियाँ आती थीं। देखा जाए तो हमारा बचपन इन्हीं के बीच पला और विकसित हुआ है। विज्ञान ने प्रकृति के सारे रहस्यों को खोलकर आदमी को सौंप दिया है, दर्प और हठधर्मिता में आकंठ डूबी आज की सभ्यता मनुष्य को खतरनाक रास्तों की ओर ले जा रही है। वर्तमान हमेशा सफल और शक्तिशाली लोगों का होता है। इतिहास सार्थक लोगों का। अगर स्वयं द्वारा किया गया मूल्यांकन ही अंतिम सच होता तो सटोरियों और गिरहकटों को भी गलत साबित कर पाना ना-मुमकिन होगा। प्रकृति के सारे संतुलन केंद्रों को रात-दिन लगातार क्षति-ग्रस्त करते हुए चाहे हम खुद को कितना भी श्रेष्ठ कह लें, लेकिन यह तय है, कि हमारे विकास का वर्तमान ढाँचा क्षण-प्रतिक्षण मनुष्यता की बची-खुची संभावनाओं को लीलता जा रहा है। मशीनें मनुष्य को विस्थापित कर रही हैं। तकनीक और बाजार के संयुक्त दुश्चक्र में मनुष्य के भीतर से मनुष्यता का विस्थापन भयावह रूप से जारी है। हमने गौरैया के घोंसले उजाड़ डाले हैं। नोच डाले गये उनके मुलायम पंख, जो हमें गर्मी की दुपहरी में अपने ठंडे स्पर्श से सहलाते थे। न्यूयार्क और वाशिंगटन की तर्ज पर जगह-जगह उगने वाले कंक्रीट के जंगलों में हमारी सभ्यता का भयावह कब्रगाह तैयार हो रहा है। मृत्यु लेख पर अनिवार्य रूप से दर्ज किया जा चुका है - “एक ऐसी प्रजाति, जिसने अपनी संततियों का सारा हिस्सा खाने के बाद अपनी भूख से तड़प कर सामूहिक आत्महत्या कर ली थी।” जीवन के स्रोत सूखते जाएँ और जीवन लहलहाता रहेगा - इस पागल कल्पना की गुंजाइश बहुत दूर तक नहीं रहेगी। प्रकृति के रहस्यों को जान कर उसे बाजार में बेचना और मुनाफा कमाना सभ्यता है? या वह बोध कि, प्रकृति के असीमित संसाधनों पर अंततः हमारा अधिकार सीमित ही है? यह तय करना बेहद जरूरी है, कि तकनीकी दक्षता हासिल कर चुका कोई समाज मृत्यु की हद तक गैर जिम्मेदार रहकर सभ्यता और विकास का मानक बनेगा? या वह प्रकृति पर अपनी निर्भरता को पहचानते हुए, अपनी सीमिति क्षमता और अदम्य जिजीविषा के बल पर उसे बनाये और बचाये रखने के लिए अंतिम दम तक कृत संकल्प है। शिक्षा और विज्ञान अगर आज बाजार की दासता स्वीकार कर चुके हैं, तो चाहे जैसे भी संभव हो, सभ्यता और विकास के वास्तविक मूलभूत अर्थों को थोड़े समय के लिए इससे अपने को बचाते हुए बाजार से लड़ना होगा। यह अनायास ही नहीं है, कि मानवरोधी तमाम बुराइयों और अपराधों का उत्सव तथाकथित शिक्षित, सक्षम, सभ्य और संपन्न लोगों के भीतर है। बौद्धिक समुदाय निर्लज्ज और खतरनाक हद तक इन्हें समर्थन दे रहा है। यह अनायास ही नहीं है, कि सभ्यता और विकास के नाम पर कुछ लोग जंगलों पर आधिपत्य के लिए उतावले हैं, ताकि बाजार में उनकी कीमत लग सके। वहीं कुछ अशिक्षित, अर्ध-शिक्षित गुमराह और व्यवस्था विरोधी नक्सलाइट किस्म के लोग उन्हीं जंगलों और जलाशयों को बचाने के लिए रोज-रोज अपने प्राण गँवा रहे हैं। वे लोग जो अपनी कुल आमदनी का चौथाई बजट दुनिया के बाजारों से हथियार खरीदने में खर्च करते है, वही उन्हें हिंसक बताते हुए अहिंसा का पाठ पढ़ा रहे हैं, बाजार की नजरों में वे खतरनाक किस्म के लोग है। जिन्होंने गौरैया की तरह संचय और जरूरत से ज्यादा संग्रह की वृत्ति को नहीं अपनाया है। वे जानते हैं कि जरूरत भर की सूखी लकड़ियों के लिए दूर-दूर तक फैले जंगल का हरा-भरा होना जरूरी है। शायद इसीलिए सभ्यता और बाजार की नजरों में वे जंगली और बर्बर हैं। वे इसलिए भी असभ्य, विकास विरोधी और खतरनाक है, कि जनतांत्रिक सरकारों के क्रूर दमन की वैधानिक शक्ति को ठेंगा दिखाते हुए परमाणु युग के दौर में अपने परंपरागत हथियारों और विश्वासों के साथ जंगलों, नदियों, और चिड़ियों को बचाने के लिए कृत संकल्प है। बाजार और मुनाफे में उनकी कोई दिलचस्पी नही। वे जानते है, कि विश्वग्राम की मुँड़ेर पर गौरैया और उनके घोंसले उजाड़ डाले जाते हैं। सभ्यताओं के संघर्ष के नाम पर होने वाले सेमिनारों के सारे बौद्धिक विमर्शों में उनकी दिलचस्पी इसलिए नही हैं, क्योंकि वे खुद सभ्यताओं के शिकार हैं। वे जानते हैं, कि आज देश और राजनीति की मुख्य धारा कुछ सटोरियों, विश्व बैंक के पालतू अर्थशास्त्रियों और माफियाओं से होकर बाजार के मल मूत्र में लिथड़ी पड़ी है। गौरैया सिर्फ किसी पक्षी का नाम नही है, वे ढेर सारी चीजों, जो हमारे बीच से एक-एक कर गायब होती जा रही हैं, उनकी शक्ल, सूरत उनकी आदतें गौरैयों से मिलती-जुलती होती हैं। गाँवों की सबसे बड़ी त्रासदी है, चरागाहों और पोखरों के निशान मिट जाना। सिर्फ इसलिए नहीं कि अब वहाँ झुंड के झुंड बकरियाँ, गाय, भैंसे, नहीं दिखतीं। ये सब गाँव के सामुदायिक जीवन की रीढ़ थे। वहीं गौरैया फुदकती थी। उनके सहवास और मैथुन की आदिम गंध से बसंत महकता था। धीरे-धीरे और एक-एक कर वहाँ से वे सारी चीजें, जो पेड़ों और चिड़ियों को आदमी से जोड़ती थीं, विस्थापित होती जा रही हैं। विकास और सभ्यता के इस क्रूर दस्तक से डरी-सहमी गौरैया अब न तो कभी हमारी स्मृतियों में चहचहाती है, न सपनों में फुदकती है। ढेर सारी मरी हुई गौरैयों और परियों के पंख हमारे विकास पथ पर नुचे-खुचे, छितराये पड़े हैं। सभ्यता के तहखाने में बंद हमारी उदासी हमारी साँसों में भरती जा रही है। शायद अब कभी इन मुँड़ेरों पर गौरैया नहीं आयेगी।