Friday 22 November 2013

दलित साहित्य में स्त्री विमर्श


संजीव खुदशाह

स्त्री विमर्श आज अपनी ऊचाईयां छू रहा है और समाज को एक नारी के प्रति नये दृष्टि कोण से देखने के लिए प्रेरित कर रहा है, साथ ही समाज की जमीनी सच्चाईयों से भी इनकार नही किया जा सकता कि नारी आज भी प्रताड़ित है। दरअसल उसकी इस प्रताड़ना के पीछे की वास्तविक कारणों की पड़ताल की आवश्यकता है। वह किससे प्रताड़ीत है तथा किसकी प्रताड़ना के विरूध लामबंद हुए है यह भी गौर करने योग्य है। यदि कुछ भौतिक असामनताओं को नजर-अंदाज कर दे, तो वास्तव में प्रकृति ने नर-नारी को एक जैसा ही बनाया है। इन असमानताओं को आधुनिक युग के अविष्कारों ने बहुत हद तक कम कर दिया है। एक दिलचस्प तथ्य यह है कि आदिम काल में पुरूष एवं स्त्री में कोई भेद(आश्य ऊंच-नीच से है) नहीं था। बल्कि शिकार के महत्व कम होने एवं कृषि की खोज के पहले तक मानव समाज में स्त्रियों का ही बोल-बाला था। इस बारे में श्री देवी प्रसाद चटोपाध्याय जी अपनी किताब लोकायत में लिखते है-''कृषि के प्रारंभिक चरण में देव स्तर पर स्त्री और पुरूष की प्रधानता उलटी हो गई। स्त्री आगे बढ़ गई और पुरूष को या तो पृष्ठभूमि में पीछे धकेल दिया गया या कम से कम इतना हुआ कि उसे स्त्री की नकल करने के लिए बाध्य होना पड़ा। ये सब बातें तर्क संगत थी। कृषि के प्रारंभिक चरण में स्त्री का सामाजिक महत्व बढ़ गया था क्योकि कृषि की खोज स्त्रियों ने ही की थी।`` वे आगे श्री जे.डी. बरनाला के हवाले से लिखते है -''चूकि खाद्य सामग्री इकट्ठा करना स्त्रियों का काम था इसलिए संभवत: उन्होने ही कृषि की खोज की। जो भी हो यह कृषि कार्य कम से कम तब तक स्त्रियां ही करती रही जब तक बैल व्दारा हल चलाने या जुताई करने की विधि का अविष्कार नही हुआ। जुताई एक प्रकार के हल से की जाती थी जो पाषाण-काल में खुदाई के काम में लाई जाने वाली लकड़ी के आधार पर बना था और जिसका प्रयो स्त्रियां जमीन से कंद-मूल निकालने के लिए करती थी। जहां जहां शिकार से अधिक महत्व खाद्य सामग्री जुटाने के लिए कृषि को मिला वहां स्त्रियों का स्तर उचा उठा और मातृ कुल के अनुसार वंशानुक्रम चलाने की बजाय पितृ कुल के अनुसार वंशानुक्रम चलाने की प्रवृत्ति रूकी और इसे उलट दिया गया। पितृ कुल के अनुसार वंशानुक्रम चलाने की प्रवृत्ति सबसे पहले शिकार वाले चरण में आरंभ हुई थी। केवल उन्ही स्थानों पर जहां पशुपालन ही प्रमुख व्यवसाय था, जैसे कृषि प्रधान बस्तियों के आस-पास के क्षेत्र में पितृ सत्तात्मक समाज व्यवस्था पूर्ण रूप में स्थापित हुई, जैसा कि हम बाइबल में देखते है।(६०.६०-१)`` यदि हम इतिहास में परिवार की आर्थिक व्यवस्था पर गौर करें तो पाते है कि जब-जब आर्थिक व्यवस्था पूरूष के हाथों गई तब-तब पूरूष की सहचरी स्त्री हुई (आशय पितृसत्ता से है)। मातृ सत्ता के मामले में ठीक उल्टा हुआ। यह व्यवस्था भी अर्थशास्त्र के मांग और पूर्ति के नियम का उल्लंघन नहीं करती है। लेकिन इस सत्ता परिवर्तन में कुछ ऐसे भी कारक होते हैं जिन्हें हम अक्सर नजर-अंदाज कर देते है। वह है पहला- राजनैतिक अस्थिरता दूसरा- सामाजिक बंधन, तीसरा- धार्मिक कट्टरता तथा चौथा है- परिवार का स्तर। लगभग प्रत्येक धर्म / समाज ने स्त्री की लज्जा को समाज की लज्जा से जोड़ा है। इसके परिणाम-स्वरूप स्त्री की लज्जा व्यक्तिगत लज्जा न होकर सार्वजनिक लज्जा हो गई । संकुचित अर्थ में कहें तो उसकी लज्जा का तालीबानी-करण हो गया । ज्यादातर सक्रिय महिलाओं का भी ऐसा ही मानना है । बस यही से शुरू होता है स्त्री की स्वतंत्रता का हनन । यानि स्त्री का प्रत्येक कदम सार्वजनिक लज्जा को ठेस पहुचाता है। परोक्ष या अपरोक्ष रूप से इसके परिणाम भी स्त्री को ही भुगतने पड़े । हमारे शास्त्रों-पुराणों में ऐसे हजारों संदर्भ भरे पडे है जिनमें स्त्री को एक वस्तु या सम्पत्ति की तरह पुकारा गया है। धर्म के ठेकेदारों ने भी ईश्वर के पश्चात पूरा ध्यान स्त्री पर ही केन्द्रित किया तथा सारे नियम कायदों से स्त्रियों को लाद दिया गया । मेरा मानना है कि असंयमित वासना प्राप्ति संघर्ष से बचने के लिए पूरूष प्रधान समाज ने ही विवाह जैसी संस्था का निर्माण किया और उसके यौन मामलों को लज्जा की संज्ञा देकर एक बेहद कीमती और नाजुक कांच की दीवार बना दिया। इससे स्त्री जाति को एक बड़ी हानि हुई, वह है- विवाह पश्चात ही स्त्री का सामाजिक मूल्य खत्म हो गया । वह सिर्फ भोग्या बन गई । विवाह संबंध विच्छेद या विधवापन की सूरत में तो वह और भी कष्टप्रद था, क्योंकि टूटी कांच की दीवार को कोई घर में नही सजाता था । हांलाकि वैवाहिक संबंध प्राकृतिक नियमों के अनुरूप है लेकिन उसके पीछे की रूढ़ियॉ एवं कायदे इस नियम को अप्राकृतिक बनाते है । जो स्त्री की स्वतंत्रता का हनन करते है- स्वयंवर विवाह, विधवा विवाह, पुर्नविवाह एवं प्रेम विवाह जैसे कोई अपराध हो । इस पर समाज में पाबंदी जेैसी स्थिति है । हम स्वयं अपनी संस्कृति पर गर्व करते हुए फूले नही समाते है किन्तु हमारी पाणिग्रहण की सारी पद्धतियां स्त्री को स्त्री नही बल्कि किसी समान का दर्जा देती है। जो किसी दान की वस्तु से कम नही है। हिन्दू धर्म में सर्व प्रचलित ब्राम्ह विवाह है जो इस प्रकार है:- ब्राम्ह विवाह- विद्या और आचारऱ्युक्त वर को बुला कर और उत्तम वस्त्रो और अलंकारों से कन्या तथा वर को भूषित कर वर को जो कन्यादान दिया जाता है उसे ब्रम्ह विवाह कहते है। इसी प्रकार इस्लाम में प्रचलित विवाह हिन्दुओं के धर्म ग्रथों में वर्णित असुर विवाह जैसा है:- असुर विवाह- कन्या के पिता आदि को अथवा कन्या को यथा-शक्ति धन देकर जो अपनी इच्छा से कन्या को लेता है, उसको असुर विवाह कहते है। दोनों प्रकार के प्रचलित विवाह में कन्या एक वस्तु के रूप में स्थित है । एक में वह दान की वस्तु है तो दूसरे में विक्रय की । हमारी संस्कृति ने एैसी ही रीतियों को अपना आदर्श बना डाला और हम इसे ही गर्व की अवस्था मान बैठे । यह तथ्य है कि दोनों ही स्थितियों में माता पिता कन्या का विवाह करके अपने बोझ की इतिश्री कर लेते है। हम अपनी संस्कृति पर गर्व करते है तथा विश्व की महान सभ्यता हाने का दावा करते है। ऐसा कहते समय हम भूल जाते है कि कन्या हत्या, सती प्रथा, भू्रण हत्या जैसी घीनौनी प्रथायों भी हमारी संस्कृति की देन है। जो पूरे मानव समाज को कलंकित करती है। ब्रिटीश शासन को इसका श्रेय जाता है कि पहले-पहल उन्होने इन कुप्रथाओं को कानून बन्द करने का आदेश दिया। लेकिन दुखदाई पहलू यह है कि आज भी ऐसी घटनाओ की कमी नही है। कन्या भ्रुण हत्या जैसे एक आम बात हो। उसी प्रकार दहेज समस्या भी अपने पैर पसारा हुआ। जिनके विरूध कडे कानून कनाये गये है तथा महिलाओं को कई कानूनी भरण-पोषण की सुविधाए उपलब्ध कराई गई है। कई बार इन सुविधाओ के लालच में भी परिवार टूटते बिखरते देखे जाते है। स्त्री लेखन ने समाज की आधी आबादी को सच से अवगत कराया। थेरीगाथा की स्त्रियों से लेकर अब तक की स्त्रियो का लेखन समाज को स्त्री चिंतन से सहज ही अवगत कराता है । अब पुरूषों को समाज में स्त्रियों के संग ताल से ताल मिलाते हुए चलने के लिए स्त्री चिंतन को समझना होगा। ज्यादातर लोग यह मानते है कि स्त्री विमर्श वास्तव में पुरूष विरोधी विमर्श है यह उनका पूर्वाग्रह है । इससे भी निजात मिलना जरूरी है वास्तव में स्त्री लेखन में निम्न पॉच बाते प्रमुखता से आती हैं:- १- स्त्रियों की पिड़ायें -२- स्त्रियों की महत्वकांक्षाएंें ३- परिवार तथा समाज का संघर्ष ४- भक्ति रचनायें ५- स्त्रीवादी रचनायें । दलित लेखन की आवश्यकता इसलिए महसूस हुई, क्योंकि सामान्य लेखन ने दलित लेखन की पूरी उपेक्षा की । उसी प्रकार दलित स्त्री लेखन की भी उत्पत्ति होनी आवश्यक थी क्योंकि सामान्य स्त्री लेखन में दलित स्त्री का हित विलोपित था । सामान्य तौर पर ऐसा माना जाता है कि दलित स्त्री लेखन (विमर्श भी) चौतरफा संघर्ष करता है - सवर्ण समाज, परिवार , दलित पुरूष एवं सामान्य स्त्री विमर्श आदि । लेकिन सामान्य स्त्री विमर्श इस विमर्श को लेकर या तो चुप्पी साध ली या विमर्श मानने से ही इंकार कर दिया। इस कारण यह विमर्श और उग्र होता गया । हिन्दी भाषा में कई लेखिकाएं इस विमर्श हेतु अपनी लेखनी से समाज को अवगत करा रही हैं । लेखनी की उग्रता ने प्राकृतिक नियमों तक को चुनौती दे डाली , इसे कुठांये भी कहा जा सकता है । जहॉ एक ओर सामान्य स्त्री विमर्श में तस्लीमा नसरीन जैसी महिलाएं अपने समाज की कुरीति पाखंड से लोगो को अवगत करा रही हैं, वहीं दूसरी ओर दलित स्त्री लेखन भी अपना वजूद बनाने हेतुू प्रयासरत हैं । इस मामले में मैं दलित लेखिकाओं का जिक्र करना आवश्यक समझता हूॅ कि किस प्रकार उन्होनें सामान्य स्त्री विमर्श से अलग दलित स्त्री विमर्श की आवश्यकता के पक्ष में अकाट्य तर्क दिये । वे लिखती हैं कि ''ऊॅची जाति के लोगों द्वारा दलित महिलाओं पर अत्याचार, उनको नंगा घुमाना आदि नारी आदोंलन के व्यापक हिस्से कभी नही बने ।`` वे आगे यह भी लिखती हैं कि '' आज भी नारीवादी विचारको एवं कार्यकर्ताओं को लगता है कि जाति का सवाल उनके आदोंलन को तोड़ देगा जबकि दलित महिलाओं को मानना है कि दलित महिलाओं को जोड़ने से ही नारीवादी आदोंलन और सशक्त बनेगा। आज ३३ प्रतिशत महिला आरक्षण के सवाल पर दलित स्त्रियों को चिंता हैं कि अगर उनको उनका हिस्सा नही मिला तो वे मुख्य धारा से पिछड जायेेगीं। इसलिए उनका उंची जाति की नेता और समूहों के तर्क पर उनका विश्वास नही है । महिला आदोंलनकारियों का कहना है कि पहले विधेयक तो पास होने दो फिर बटवारा बाद में हो जायेगा । पर हमारा क्या ऐसा होना संभव है ।`` यहॉ पर सामान्य स्त्री विमर्श के भीतर बहुत ही सफाई से दलित लेखिकाऐं अपने दलित स्त्री विमर्श के अस्तित्व को रेखांकित करती है । उनकी चिंता लाजमी है क्यों कि सदीयों से ऐसा ही होता आया है । एक सवर्ण स्त्री दलित स्त्री को वैसे ही प्रताडित करती है जैसे एक सवर्ण पूरूष दलित पूरूष को प्रताड़ित करता है । दलित साहित्य में आत्मकथा लेखन के साथ-साथ एक ऐसी कुरीति का जन्म हुआ, जिसमें साहित्यकार का मूल्याकंन उसकी कृति ना होकर उसकी निजी जिन्दगी हो गई इसके साथ- साथ अन्य साहित्यकारों के भी नीजि जिन्दगी की तांक-झाक खुसर-फुसर का सिलसिला चालू हो गया जो वाकयुद्ध के बाद लेखन पत्रिका तथा किताबों की शक्ल में सामने आने लगा । इस प्रक्रिया में ज्यादातर ऐसे लेखक एवं लेखिकायें शामिल थी जिन्होनें लेखन शीर्ष में पहुचने के लिए शार्टकट रास्ता चुना। इस मामले में सवर्ण मीडिया या साहित्यकारों पर सारा दोष मढ़कर दलित साहित्यकारों को निर्दोष कहना गैर वाजिब होगा। दुर्भाग्यवश दलित स्त्री विमर्श का लेखन भी इन्ही पचड़ों में फसता गया। जहॉ निष्पक्ष एवं तटस्थ लेखन की आवश्यकता थी वहीं पर इस लेखन का उपयोग एक दूसरे पर कीचड़ उछालने के तौर पर किया गया । तमाशा देखकर मजा लेने वालों ने बकायदा इसे छापा भी। निश्चित तौर पर एसे लेखन को मौका मिलने पर दलित स्त्री विमर्श की जड़े कमजोर हुई है, जिसकी भरपाई आसान नही है।