Sunday 1 December 2013

स्कूटर चलाते चलाते कारपोरेट बन गए तेजपाल


पुण्य प्रसून वाजपेयी

तो सिस्टम और सत्ता पर नजर रखने के लिये ही तो तहलका के जरीये तरुण तेजपाल ने शुरुआत की थी। याद कीजिये एनडीए की सत्ता के दौर में पेशेवर पत्रकार भी स्वयंसेवक लगने लगे थे। कांग्रेस के वजूद पर बीजेपी नेता अंगुली उठाने लगे थे। आडवाणी तब यह कहने से नहीं चूक रहे थे कि अब तो राष्ट्रपति प्रणाली आ जानी चाहिये। उसी दौर में तेजपाल के स्टिग आपरेशन ने एनडीए सत्ता की चूलें हिलायी थीं। और तब पत्रकारों ने पहली बार महसूस किया था कि कोई मीडिया संस्थान सत्ता से टकराने के लिये खड़ा हो सकता है। और तब तहलका पत्रिका निकालने की योजना बनी । तहलका को ना सत्ता की मदद चाहिये थी और ना ही कारपोरेट की। चंदा लेकर तहलका शुरु हुई। उस वक्त जिन लोगों ने चंदे दिये उसमें कई लोगो ने तो रिटायरमेंट के पैसे भी चंदे के तौर पर तहलका को दे दिये। 13 बरस पहले के उस दौर में तहलका की नींव रखी गयी, जब मीडिया धीरे धीरे कारपोरेट के लिये आकर्षण का केन्द्र बनने लगे थे। और तहलका प्रतीक बनता चला गया ऐसी पत्रकारिता का जो सत्ता से सीधे टकराने से हिचकती नहीं और आम जनता की पूंजी पर आम पाठकों के लिये आक्सीजन का काम करने लगी। लेकिन तेरह बरस के सफर में कैसे तरुण तेजपाल स्कूटर चलाते चलाते खुद में कारपोरेट बन गये और कई शहरो में की संपत्तियों के मालिक हो गये, इसे कभी किसी ने टोटलने की हिम्मत नहीं की। और अब सोचें तो, की भी होती तो कोई भी ऐसी रिपोर्ट को पत्रकारीय मूल्यों पर हमला करार देता। लेकिन जैसे ही बलात्कार के आरोप में तेजपाल फंसे और जैसे ही तेजपाल ने खुद को देश की कानून व्यवस्था से उपर मान कर आरोप को स्वीकारते हुये छह महीने के लिये तहलका के पद को छोड़ने का ऐलान किया, वैसे ही पत्रकारीय जगत अफीम की उस खुमारी से जागा जो तरुण तेजपाल ने तहलका की रिपोर्टों के जरीये पिलायी थी। और झटके में यह सवाल बड़ा हो गया कि क्या अपराध करने वालो के बीच आम और खास की कोई लकीर होती है। और क्या वाकई कोई यौन शोषण कर आत्म ग्लानी करें तो कानून को अपना काम नहीं करना चाहिये। ध्यान दें तो तरुण तेजपाल ऐसा सोच सकते है, यह अपने आप में किसी के लिये भी झटका है। क्योंकि तहलका की पत्रिका ने ही जब अपनी रिपोर्ट से सत्ता पर हमला बोलना शुरु किया तो हर आम पाठक और हर सामान्य पत्रकार को पहली बार महसूस हुआ कि विशेषाधिकार किसी का होता नहीं और अपराधी तो अपराधी ही होता है। चाहे ताबूत घोटाले में कभी जार्ज फर्नाडिस फंसे या फिर सत्ता के मद में चूर मोदी । लेकिन खुद को सजा देने का जो तरीका तरुण तेजपाल ने अपनाया और उसके बाद तेजपाल की निजी संपत्ति से लेकर तहलका के कारोबार का पूरा लेखा-जोखा जब सामने आने लगा तो कई सवाल हर जहन में उठे और बलात्कार के आरोप लगने के बाद भी पीड़ित लड़की को ही कठघरे में खड़ा करने के तेजपाल के अलग अलग तर्कों ने एक बार पिर पत्रकारिय जगत को उसी निराशा में ढकेल दिया जहा साख बनाकर उसे बेचने या खुद को भी उसी सत्ता का हिस्सेदार बनाने की कवायद तरुण तेजपाल ने भी की। शायद वजह भी यही रही कि तहलका पत्रिका के तेवर मौजूदा दौर में चाहे धीरे -धीरे  कमजोर होते जा रहे थे लेकिन कोई दूसरा मीडिया संस्थान भी इस दौर में खड़ा हुआ नहीं जो सत्ता से टकराये या बिना कारपोरेट चले तो तहलका की मान्यता बनी रही। और तरुण तेजपाल के निजी सरोकार भी आम लोगों से कट कर उस खास कटघरे में पहुंच गये, जहां तरुण तेजपाल को यह लगने लगा कि उसका कद इतना बड़ा हो चुका है कि कहा हुआ हर शब्द कानून पर भी भारी पड़ेगा। यानी देश के उस मिजाज को ही तरुण तेजपाल बलात्कार के आरोपी बनने के बाद समझ नहीं पाये कि जमीन की पत्रकारिता शिखर पर तो पहुंचा सकती है लेकिन शिखर पर होने का दंभ कभी आत्मग्लानी की जमीन पर टिकता नहीं है। और हो यही रहा है। लेकिन यह उस तहलका की मौत है जिसने पत्रकारों को लड़ना और विकल्प खड़ा करना सिखाया था। (पुण्य प्रसून वाजपेयी के ब्लॉग से साभार )

भाषा हमारे अस्तित्व का मूल

नोम चोम्‍स्‍की

वि‍श्‍व वि‍ख्‍यात भाषावैज्ञानि‍क, दार्शनि‍क, वामपंथी लेखक नोम चोम्‍स्‍की ने भाषाविज्ञान संबंधी कई क्रान्‍ति‍कारी सिद्धांतों का सूत्रपात किया। भाषा और भाषा के वि‍कास को लेकर उनका यह साक्षात्‍कार वि‍ज्ञान पत्रि‍का ‘डि‍स्‍कवर’ में 29 नवम्‍बर, 2011 को प्रकाशि‍त हुआ था। उनसे यह बातचीत ‘डिस्कवर’ के संवाददाता वेलरी रॉस ने की थी। इसका अनुवाद वरि‍ष्‍ठ लेखक-पत्रकार आशुतोष उपाध्‍याय ने कि‍या है-

सदियों से विशेषज्ञ यह मानते रहे कि हर भाषा अनूठी होती है। फिर एक दिन 1956 में भाषाविज्ञान के एक युवा प्रोफेसर ने शीर्ष अमेरिकी शिक्षा संस्थान एमआईटी में सूचना सिद्धांत पर आयोजित एक गोष्ठी में अपना ऐतिहासिक भाषण दिया। उन्होंने तर्क दिया कि प्रत्येक अर्थपूर्ण वाक्य न सिर्फ अपनी भाषा के नियमों का, बल्कि सभी भाषाओं पर लागू होने वाले वैश्‍वि‍क व्याकरण का भी पालन करता है। यही नहीं, बच्चे बड़ों की बातचीत की नकलकर या अपने बाहरी परिवेश से भाषा सीखने के बजाय भाषा में महारत प्राप्त करने की अंदरूनी क्षमता से परिपूर्ण होते हैं। यह एक ऐसी शक्ति है जो जैविक विकास ने सिर्फ हम मनुष्यों को सौंपी है। युवा प्रोफेसर के इस क्रान्‍ति‍कारी विचार ने रातोंरात भाषाविदों की सोच को बदलने की शुरुआत कर दी।

एवराम नोम चोम्स्की का जन्म 7 दिसंबर, 1928 को अमेरिकी नगर फिलाडेल्फिया में हुआ था। उनके पिता विलियम चोम्स्की हिब्रू भाषा के विद्वान थे और माँ एल्सी सिमोनोफ्स्की भी विदुषी व बाल पुस्तकों की लेखिका थीं। नोम ने बचपन में ही मध्यकालीन हिब्रू व्याकरण पर अपने पिता द्वारा लिखी पांडुलिपि पढ़ डाली, जिसने उनके भविष्य के काम की जमीन तैयार की। सन् 1955 तक वह एमआईटी में भाषाविज्ञान पढ़ाने लगे। यहाँ रहकर उन्होंने अपने भाषाविज्ञान संबंधी क्रान्‍ति‍कारी सिद्धांतों का सूत्रपात किया। चोम्स्की उस नजरिए को चुनौती देते हैं, जिससे हम आज भी खुद को देखते हैं। वह कहते हैं, ‘भाषा हमारे अस्तित्व का मूल है। हम हर वक्त भाषा में लीन रहते हैं। जब हम सड़क पर चल रहे होते हैं तो खुद से अपनी बातचीत को रोकने के लिए जबर्दस्त इच्छाशक्ति की जरूरत पड़ती है। क्योंकि खुद के साथ हमारी बातचीत निरंतर चलती रहती है।’

चोम्स्की ने राजनीति से दूरी बनाए रखने की वैज्ञानिकों की परम्‍परा के विपरीत सक्रिय राजनीति में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। वह वियतनाम में अमेरिकी आक्रमण के मुखर विरोधी थे और उन्होंने 1967 के प्रसिद्ध पेंटागन विरोधी मार्च के आयोजन में भी मदद दी। जब इस आंदोलन के नेता गिरफ्तार कर लिये गये तो उन्हें जेल में नॉर्मन मेलर के साथ रखा गया। मेलर ने अपनी पुस्तक ‘आर्मीज ऑफ द नाइट’ में चोम्स्की को, ‘दुबला-पतला, तीखे नाक-नक्श और खास लहजे वाला ऐसा शख्स बताया, जिसकी सोहबत में भलमनसाहत व दृढ़ नैतिक बल की महक आती है।’

चोम्स्की के साथ यहाँ पेश की जा रही बातचीत कनेक्टीकट की पत्रकार मैरिऑन लांग के साथ कई तयशुदा बैठकों के निरस्त होने के बाद की गई। लॉग बताती हैं, ‘वह चोम्स्की के लिये बहुत मुश्किल समय था। पत्नी गम्‍भीर रूप से बीमार थीं और वह उनकी सेवा में जुटे थे। इस बातचीत के महज 10 दिन पहले वह गुजर गईं। इस हादसे के बाद चोम्स्की का यह पहला साक्षात्कार होना था लेकिन वह इसके लिये राजी हो गए।’ बाद में उन्होंने ‘डिस्कवर’ संवाददाता वेलरी रॉस को कई सवालों के जवाब दिये।

आप इंसानी भाषा को अनोखा गुण बताते हैं। कौन सी बात इसे खास बनाती है?

मनुष्य दूसरे प्राणियों से फर्क हैं और इस लिहाज से हर मनुष्य मूलत: एक जैसे होते हैं। अगर अमेजन के शिकार-संग्राहक आदिवासी समुदाय के किसी बच्चे को बोस्टन में पाला-पोसा जाये तो वह भाषाई क्षमता के मामले में यहाँ पल-बढ़ रहे मेरे बच्चों से जरा भी फर्क नहीं होगा। इससे उलटी परिस्थिति में भी यही होगा। यानी बोस्टन का कोई बच्चा अमेजन आदिवासियों के बीच पले-बढ़े तो उनकी भाषा-बोली सजह ढंग से बोलने लगेगा। यह अनोखा इंसानी खजाना, जो हम सब के पास है, हमारी संस्कृति व हमारे कल्पनाशील बौद्धिक जीवन के बड़े हिस्से का बुनियादी तत्व है। इसी वजह से हम योजनाएँ बना पाते हैं, सृजनात्मक कलाकर्म करते हैं और जटिल समाजों का निर्माण कर लेते हैं।

भाषा की इस ताकत का जन्म कब और कैसे हुआ?

अगर आप पुरातात्विक अभिलेखों को देखें तो करीब डेढ़ लाख से 75 हजार वर्ष पूर्व समय की एक छोटी सी खिड़की में रचनात्मक विस्फोट होता दिखाई पड़ता है। इस काल में अचानक जटिल हस्तशिल्प, प्रतीकात्मक निरूपण, आकाशीय घटनाओं का मापन तथा जटिल सामाजिक संरचनाओं जैसी सृजनात्मक गतिविधियों का विस्फोट देखने को मिलता है। प्रागैतिहासिक काल का लगभग हर विशेषज्ञ इस घटना को भाषा से औचक उद्भव के साथ जोड़ता है। ऐसा नहीं लगता कि इस घटना का मानव के शारीरिक बदलावों से कोई संबंध है; आज के इंसान के बोलने व सुनने के तंत्र बिल्कुल वैसे ही हैं जैसे छह लाख साल पहले के मनुष्य के थे। मगर मनुष्य में अभूतपूर्व संज्ञानात्मक बदलाव आया है। कोई नहीं जानता क्यों?

इंसानी भाषा में आपकी दिलचस्पी कब शुरू हुई?

बहुत छोटी उम्र में मुझे अपने पिता से आधुनिक हिब्रू साहित्य व दूसरी पाठ्य सामग्री पढ़ने को मिली। 1940 के आसपास उन्हें फिलाडेल्फिया की एक हिब्रू संस्था ड्रॉप्सी कॉलेज से पीएच.डी. की डिग्री मिली। वह सीमेटिक थे और मध्यकालीन हिब्रू व्याकरण पर काम करते थे। मुझे याद नहीं कि मैंने अपने पिता की किताब के आधिकारिक तौर पर प्रूफ पढ़े थे या नहीं, लेकिन मैंने उसे पढ़ा जरूर था। कुछ हद तक व्याकरण संबंधी आम समझ मुझे इसी किताब से मिली। लेकिन इससे पीछे जाएँ तो व्याकरण के अध्ययन का मतलब था, ध्वनियों को व्यवस्थित करना, कालों को देखना,  इन चीजों को सूचीबद्ध करना और यह देखना कि ये एक-दूसरे के साथ कैसे जुड़ती हैं।

भाषाविद् ऐतिहासिक व्याकरण और विवरणात्मक व्याकरण में फर्क करते हैं। इन दोनों में क्या अंतर है?

ऐतिहासिक व्याकरण कुछ इस तरह का अध्ययन है- जैसे, किस तरह आधुनिक अंग्रेजी का मध्यकालीन अंग्रेजी से विकास हुआ। किस तरह मध्यकालीन, प्रारम्‍भि‍क व पुरानी अंग्रेजी से निकली और किस तरह वह जर्मेनिक से और जर्मेनिक उस भाषा स्रोत से विकसित हुई जिसे हम प्रोटो-इंडो-यूरोपियन कहते हैं और जिसे कोई नहीं बोलता इसलिए इसे फिर से गढ़ना पड़ता है। भाषाएं समय के साथ कैसे विकसित होती हैं, यह इस बात को पुनर्निर्मित करने का एक प्रयास है। आप इसे जैविक उद्वि‍कास (बायोलॉजिकल इवोल्यूशन) के अध्ययन के समकक्ष मान सकते हैं। विवरणात्मक व्यापकरण किसी समाज या व्यक्ति विशेष के लिये मौजूदा भाषाई व्यवस्था को जानने का प्रयास है। आप इस अंतर को जैविक विकास और मनोविज्ञान के बीच फर्क की तरह देख सकते हैं।

और आपके पिता के जमाने के भाषाविद्, वे क्या करते थे?

वे वास्तविक धरातल पर इस्तेमाल की जा रही भाषाई विधियों पर काम करते थे। उदाहरण के लिये अगर आप चेरोकी के व्याकरण पर काम करना चाहते हैं तो आप उस समुदाय के बीच जायेंगे। और स्थानीय बोलने वालों से सूचनाएं इकट्ठा करेंगे।

ये भाषाविद् किस तरह के सवाल पूछते थे?

मान लीजिये आप चीन से आये मानवशास्त्रीय भाषाविद् हैं और मेरी भाषा का अध्ययन करना चाहते हैं। पहली बात आप यह जानना चाहेंगे कि मैं किस तरह की ध्वनियों का इस्तेमाल करता हूँ। और फिर आप पूछेंगे कि ये ध्वनियाँ एक साथ कैसे जुड़ती हैं। उदाहरण के लिये मैं ‘ब्निक’ न बोल कर ‘ब्लिक’ क्यों बोलता हूँ और इन ध्वनियों को कैसे व्यवस्थित किया जाता है? उन्हें किस तरह जोड़ा जाता है? अगर आप उस ढंग को देखें, जिसके मुताबिक शब्द के ढाँचे को व्यवस्थित किया जाता है,  तो क्या किसी क्रिया में भूतकाल भी होता है? अगर होता है तो क्या यह क्रिया के बाद होता है या इसके पहले? या यह किसी और तरह की चीज है? और आप इसी तरह के कई और सवाल पूछते चले जाते हैं?

लेकिन आप तो इस नजरिए से सहमत नहीं थे. क्यों?

मैं उस वक्‍त पेन यूनिवर्सिटी में था और मेरी ग्रेजुएट थीसिस का शीर्षक था- बोलचाल की हिब्रू का आधुनिक व्याकरण। इस भाषा की मेरी समझ खासी अच्छी थी। मैंने भी इस पर ठीक उसी तरह काम करना शुरू किया, जैसा हमें उस वक्‍त पढ़ाया जाता था। मुझे एक हिब्रूभाषी सूचनादाता मिला,  जिससे मैंने सवाल पूछने शुरू किए और मुझे

आँकड़े मिलने लगे। एक मौका ऐसा आया कि अचानक मुझे लगा: क्या बेहूदगी है! मैं ऐसे सवाल पूछ रहा हूँ, जिनके जवाब मैं पहले से ही जानता हूँ।

जल्द ही आपने भाषाविज्ञान में अपने शोध की निहायत नई विधि विकसित कर ली। ये विचार कैसे जन्मे?

इससे पहले 1950 में, जब मैं हारवर्ड में स्नातक छात्र था, यह आम धारणा थी कि अन्य मानवीय गतिविधियों की तरह भाषा भी सीखी जाने वाली आदतों का एक संग्रह है। यह उसी तरह सीखी जाती है जैसे पालतू जानवर प्रशिक्षित किये जाते हैं। यानी प्रबलीकरण के जरिये। उन दिनों यह धारणा एक तरह से अंधविश्‍वास की तरह व्याप्त थी। लेकिन हम दो या तीन लोग ऐसे थे, जो इस बात से सहमत नहीं थे और हमने चीजों को बिल्कुल अलग तरह से देखना शुरू किया।

खासतौर पर, हमने कुछ बुनियादी तथ्यों पर गौर किया: प्रत्येक भाषा अनगिनत सुव्यवस्थित अभिव्यक्तियों को गढ़ने और प्रकट करने का एक माध्यम है, जिसमें हर अभिव्यक्ति की एक अर्थगत व्याख्या और ध्वन्यात्मक रूप है। इसलिए यहाँ ऐसी चीज है जिसे हम जेनरेटिव प्रोसीजर कहते हैं, अनगिनत वाक्यों या अभिव्यक्तियों को पैदा करने और उन्हें अपने विचार व स्नायुतंत्र से जोड़ने की क्षमता। हमें हर बार इस केन्‍द्रीय गुण को ध्यान में रखकर शुरुआत करनी होती है। व्यवस्थित अभिव्यक्तियों और उनके अर्थ के बेरोकटोक उत्पादन का गुण। हमारे ये विचार बाद में उस सिद्धांत के रूप में घनीभूत हुये जिसे आज हम बायोलिंग्विस्टिक फ्रेमवर्क कहते हैं। यह सिद्धांत भाषा को मानव जीवविज्ञान के एक तत्व के रूप में देखता है, ठीक वैसे ही जैसे हमारा दृष्टि तंत्र है।

आपका सिद्धांत है कि सभी मनुष्यों का एक ‘वैश्‍वि‍क व्याकरण’ होता है। इस बात का क्या अर्थ है?

इसका मतलब इंसानी भाषा संकाय की आनुवांशिक जड़ों से है। उदाहरण के लिये आप अपने अंतिम वाक्य पर गौर करें। यह ध्वनियों का बेतरतीब क्रम नहीं है। आपने शब्दों का अत्यंत सुनिश्‍चि‍त ढाँचा खड़ा किया है और इसका अत्यंत विशिष्ट भाषाई अर्थ है। इसका एक खास मतलब है,  कोई दूसरा मतलब नहीं और इसकी एक खास ध्वनि है, दूसरी नहीं। बताइए, आपने यह किया कैसे? यहाँ दो संभावनाएँ हो सकती हैं। एक,  इसे एक चमत्कार मान लिया जाय। या दूसरी,  आपके पास नियमों की एक आंतरिक व्यवस्था है जो शब्दों के ढाँचे और उसके अर्थ को निर्धारित करती है। मैं नहीं समझता यह एक चमत्कार की देन है।

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आपके भाषावैज्ञानिक विचारों पर शुरुआत में कैसी प्रतिक्रियाएं हुईं?

शुरू-शुरू में ज्यादातर लोगों ने हमारे विचारों को खारिज किया या इनकी उपेक्षा की। यह बिहेवियरल साइंस का दौर था, मानव क्रियाओं और व्यवहार का अध्ययन,  जिसमें व्यवहार का नियंत्रण तथा रूपांतरण भी शामिल किया जाता है। बिहेवियरिज्म कहता है कि आप किसी व्यक्ति को मनचाहे रूप में बदल सकते हैं,  बशर्ते आप उसके परिवेश व प्रशिक्षण पद्धति को ठीक से व्यवस्थित कर सकें। मनुष्य के रूपांतरण में आनुवांशिक घटक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, इस विचार को अजनबी बताकर हल्के में लिया गया।

बाद में मेरे इस विधर्मी विचार को ‘इन्नेटनेस हाइपोथीसिस’ का नाम दे दिया गया और इसकी भर्त्‍सना में रचे गये साहित्य का ढेर लग गया। आज भी आप प्रमुख शोध पत्रिकाओं में ऐसे सूत्रवाक्य पढ़ सकते हैं कि भाषा सिर्फ संस्कृति, परिवेश तथा प्रशिक्षण का परिणाम है। एक तरह से यह धारण हमारे सहजबोध का हिस्सा बना दी गई है। हम सब भाषा सीखते हैं, चाहे वह कितनी भी मुश्किल क्यों न हो। हम पाते हैं कि परिवेश भी अपना असर छोड़ता है।

इंग्लैंड में पलने-बढ़ने वाले लोग अंग्रेजी बोलते हैं, स्वाहिली नहीं। और वास्तविक सिद्धांत- वे हमारी चेतना तक नहीं पहुँच पाते। हम अपने भीतर झाँककर उन छुपे हुए सिद्धांतों को नहीं देख सकते जो हमारे भाषाई व्यवहार को निर्धारित करते हैं। और हम उन सिद्धांतों को भी नहीं देख सकते जो हमें अपने शरीर को हिलाने की इजाजत देते हैं। यह भीतर ही भीतर होता रहता है।

भाषा वैज्ञानिक इन छुपे हुए सिद्धांतों की खोज कैसे कर लेते हैं?

आप आँकड़ों को संग्रहकर किसी भाषा के बारे में जानकारी हासिल कर सकते हैं। मसलन- मेरी भाषा का अध्ययन कर रहा चीनी भाषाविद् इस बारे में मुझे से सवाल पूछकर जवाब इकट्ठा कर सकता है। यह एक तरह का संग्रह होगा। दूसरे तरह का संग्रह यह हो सकता है कि लगातार तीन दिन तक जो कुछ मैं बोलूँ उसे वह टेप करता रहे। और किसी भाषा को सीखते और इस्तेमाल करते वक्‍त लोगों के दिमाग में जो कुछ चल रहा है, उसका अध्ययन कर आप भाषा के बारे में जाँच-पड़ताल कर सकते हैं। आज के भाषाविदों को चाहिए कि वे उन नियमों व सिद्धांतों पर ध्यान देने का प्रयास करें जिन्हें,  उदाहरण के लिए, आप ठीक इस वक्त मेरे द्वारा गढ़े जा रहे वाक्यों का अर्थ निकालने और उन्हें समझने या फिर अपने वाक्यों को बनाने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।

क्या यह व्याकरण की उस पुरानी व्यवस्था जैसा नहीं, जिसे आप पहले ही खारिज कर चुके हैं?

नहीं। व्याकरण के परम्‍परागत अध्ययन में आप ध्वनियों व शब्द रचना पर ध्यान देते हैं और शायद थोड़ा बहुत वाक्य विन्यास पर। पिछले 50 वर्षों के उत्पादक भाषाविज्ञान (जेनरेटिव लिंग्विस्टिक्स) में आप, मसलन, यह पूछ रहे हैं कि प्रत्येक भाषा के लिए नियमों व सिद्धांतों का वह कौन सा तंत्र है जो व्यवस्थित अभिव्यक्तियों की अनगिनत शृंखलाओं को तय करता है?  इसके बाद आप उन्हें एक निश्‍चि‍त व्याख्या से जोड़ते हैं।

हमारी भाषाई समझ के साथ क्या मस्तिष्क छवियाँ जुड़ी हुई हैं?

मिलान के एक ग्रुप ने हाल ही में भाषा के साथ होने वाली मस्तिष्क की क्रियाशीलता संबंधी एक दिलचस्प अध्ययन किया है। उन्होंने अपने शोधपात्रों को निरर्थक भाषाओं वाली दो तरह की लिखित सामग्री दी। इनमें एक प्रतीकात्मक भाषा थी, जिसे इतावली भाषा के नियमों के आधार पर गढ़ा गया था, हालाँकि शोधपात्र इसे नहीं जानते थे। दूसरी को वैश्‍वि‍क व्याकरण के नियमों का उल्लंघन कर तैयार किया गया था। एक खास मामले में, माना आप किसी वाक्य का निषेध करना चाहते हैं, ‘जॉन यहाँ था, जॉन वहाँ नहीं था।’ कुछ निश्‍चि‍त चीजें हैं जिन्हें करने की इजाजत भाषाओं में आपको दी जाती है। आप ‘नहीं’ शब्द को कुछ स्थानों में रख सकते हैं लेकिन कुछ अन्य स्थानों में नहीं रख सकते। इसलिए पहली मनगढ़ंत भाषा में आप निषेधकारी तत्व को किसी स्वीकार्य जगह पर रखते हैं, जबकि दूसरे में आप इसे अस्वीकार्य जगह पर रख देते हैं। मिलान ग्रुप ने पाया कि स्वीकार्य निरर्थक वाक्य के साथ मस्तिष्क के भाषाई क्षेत्र में सक्रियता दिखाई देती है लेकिन अस्वीकार्य वाक्य- वे जो वैश्‍वि‍क व्याकरण के नियमों का उल्लंघन करते हैं- मस्तिष्क में कोई सक्रियता पैदा नहीं करते। इसका मतलब यह हुआ कि लोग अस्वीकार्य वाक्यों के साथ भाषा की तरह नहीं बल्कि पहेली की तरह खेल रहे थे। यह एक शुरुआती परिणाम है, लेकिन यह स्पष्ट रूप से संकेत देता है कि भाषाओं की पड़ताल से निकलने वाले भाषाई सिद्धांतों का दिमागी क्रियाशीलता के साथ गहरा रिश्ता है, जैसी कि किसी को उम्मीद और अपेक्षा हो सकती है।

हाल के आनुवांशिक अध्ययन भी भाषा के बारे में कुछ इसी तरह के संकेत देते हैं. क्या यह सही है?

हाल के वर्षों में एक जीन की खोज हुई है, जिसका नाम है- फॉक्सपी2। यह जीन खासतौर पर दिलचस्प है, क्योंकि इसमें किसी किस्म का उलटफेर (म्युटेशन) होने पर भाषाई इस्तेमाल संबंधी कमजोरियाँ सामने आने लगती हैं। इस जीन को उस क्रिया से जोड़ा जाता है जिसे हम ऑरोफेशियल एक्टीवेशन कहते हैं,  यानी बोलते वक्त हम अपने मुँह, अपने चेहरे और जीभ को किस प्रकार नियंत्रित करते हैं। इसलिये फॉक्सपी2 का संभवत: भाषा के इस्तेमाल के साथ कोई रिश्ता है। यह जीन सिर्फ मनुष्यों में ही नहीं, बल्कि कई अन्य प्राणियों में भी पाई जाती है और अलग-अलग प्रजातियों में अलग-अलग ढंग से काम करती है। ये जीन कोई एक काम नहीं करतीं। लेकिन इस खोज को भाषा के कुछ पहलुओं के आनुवांशिक आधार की मौजूदगी की पुष्टि की दिशा में एक दिलचस्प शुरुआती कदम माना जा सकता है।

आप कहते हैं कि जन्मजात भाषाई क्षमता मनुष्यों की विशिष्टता है, मगर फॉक्सपी2 की सततता कई प्रजातियों में देखी गई है। क्या ये दोनों बातें परस्पर विरोधाभासी नहीं हैं?

यह बात लगभग अर्थहीन है कि इसमें प्रजातिगत सततता है। इसमें किसी को संदेह नहीं कि मनुष्य का भाषाई तंत्र जीन, तंत्रिका तंत्र आदि पर आधारित है। भाषा के प्रयोग, समझ, अधिग्रहण और निर्माण में शामिल पद्धतियाँ एक स्तर तक सम्‍पूर्ण जंतु जगत में दिखाई देती हैं। और सच कहें तो सम्पूर्ण जीव जगत में दिखाई देती हैं। कुछेक को तो आप जीवाणुओं में भी देख सकते हैं। लेकिन यह बात इसके उद्विकास या समान मूल से पैदा होने का शायद ही कोई संकेत देती हैं। भाषा उत्पन्न करने जैसे विशिष्ट मामले में कोई प्रजाति अगर मनुष्य के सबसे ज्यादा नजदीक कही जा सकती है, तो वह हैं पक्षी। लेकिन इसकी वजह समान उद्गम नहीं है। यह एक अलग परिघटना है, जिसे हम कनवर्जेंस कहते हैं- लगभग एक जैसी व्यवस्थाओं का अलग-अलग स्वतंत्र रूप से विकास। फॉक्सपी2 खासी दिलचस्प है मगर यह ज्यादातर भाषा के हाशिए पर रहने वाले हिस्सों का निर्धारण करती है, जैसे भाषा का (भौतिक) उत्पादन। इसके बारे में जो कुछ भी खोजा जा रहा है, उसका भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों पर प्रभाव पड़ने की सम्‍भावना बहुत कम है। पिछले 20 वर्षों से आप भाषा की ‘सरलतम’ (मिनिमलिस्ट) समझ पर काम कर रहे हैं। इसकी क्या जरूरतें हैं?

मान लीजिए भाषा बर्फ के एक फाहे की तरह है। यह प्रकृति के नियम के मुताबिक आकार ग्रहण करती,  इस शर्त के साथ कि यह बाहरी निर्धारकों को संतुष्ट करती है। भाषा की खोज के बारे में इस नजरिए को मिनिमलिस्ट प्रोग्राम कहा जाता है। मैं समझता हूँ,  इसने कुछ महत्वपूर्ण परिणाम दिये हैं। इसने दिखाया है कि भाषा यकीनन कुछ शब्दार्थ संबंधी अभिव्यक्तियों का आदर्श हल है लेकिन स्पष्ट अभिव्यक्त के लिहाज से बहुत खराब तरीके से डिजाइन है। एक विशिष्ट आवाज निकाल कर आप ‘बेसबॉल’ कहते हैं, इसके लिये ‘पेड़’ नहीं कहते।

भाषाविज्ञान में सामने बड़े सवाल कौन से हैं?

अब भी कई अनुत्तरित रिक्त स्थान हैं। कुछ सवाल ‘क्या’ से शुरू होने वाले हैं। जैसे- भाषा क्या है? इस वक्त आप और मैं जो कुछ कर रहे हैं, उसके नियम और सिद्धांत क्या हैं? कुछ और सवाल ‘कैसे’ से शुरू होते हैं: आपने और मैंने इस क्षमता को कैसे हासिल किया। हमारे आनुवांशिक भंडार व अनुभवों में और प्रकृति के नियमों में आखिर क्या छुपा हुआ है? और इसके बाद ‘क्यों’ से शुरू होने वाले सवाल हैं, जो सबसे कठिन हैं: भाषा के नियम ऐसे ही क्यों है, कुछ और तरह के क्यों नहीं? किस हद तक यह सही है कि भाषा का बुनियादी डिजाइन उन बाहरी शर्तों के अनुकूल हल पेश करता है, जिन्हें भाषा अपरिहार्य रूप से पूरा करती है? यह एक बड़ी समस्या है। भाषा की प्रकृति के बार में जो कुछ हम जानते हैं उसे हम किस हद तक मस्तिष्क में होने वाली क्रियाओं से जोड़कर देख सकते हैं? और अंतत: क्या भाषा के आनुवांशिक आधार के बारे में कोई गम्‍भीर पड़ताल हुई है? इस सभी बिंदुओं पर बेशक प्रगति दिखाई देती है लेकिन बड़े रिक्त स्थान अब भी बने हुए हैं।

हर माता-पिता इस बात पर हैरान होते हैं कि किस तरह बच्चे भाषा सीखते हैं। यह बात सहसा अविश्वसनीय लगती है कि इस प्रक्रिया के बारे में हम अब भी बहुत कम जानते हैं।

आज हम जानते हैं कि जन्म के समय एक शिशु को अपनी माँ की भाषा के बारे में बहुत थोड़ी जानकारी होती है। अगर कोई दो भाषाएँ जानने वाली कोई महिला उसके सामने बोले तो वह अपनी मातृभाषा और दूसरी भाषा के बीच फर्क समझ सकता है। उसके परिवेश में तमाम तरह की चीजें घट रही होती हैं, जिसे विलियम जेम्स ‘बढ़ता, उभरता विभ्रम’ कहते हैं। मगर शिशु किसी तरह इस जटिल परिवेश से खुद ब खुद उन आँकड़ों को छाँट लेता है, जो भाषा से संबंध रखते हैं। कोई भी दूसरा प्राणी ऐसा नहीं कर पाता। एक चिम्पांजी ऐसा नहीं कर पाता। और बहुत जल्दी व स्वत: ढंग से शिशु एक आंतरिक तंत्र हासिल करने की दिशा में बढ़ जाता है। यह तंत्र अंतत: उस क्षमता के रूप में प्रकट होता है, जिसका इस्तेमाल हम इस वक्त कर रहे हैं। शिशु के दिमाग में क्या चल रहा है? मानव जीनोम के कौन से तत्व इस प्रक्रिया में योगदान कर रहे हैं? ये चीजें कैसे विकसित होती हैं? इन बातों को ठीक से समझना अभी बाकी है।

उच्चतर स्तर पर अर्थ के बारे में क्या कहेंगे? जो महान गाथाएँ लोग पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाते आए हैं, उनके विषय बार-बार दोहराए जाते हैं। क्या यह दोहराव मनुष्य की जन्मजात भाषा के बारे में कुछ संकेत देता है?

जानी-पहचानी परीकथाओं में से एक कहानी एक खूबसूरत राजकुमार की है, जिसे कोई दुष्ट जादूगरनी मेढक में बदल देती है। कहानी के अंत में एक सुन्‍दर राजकुमारी आकर मेढक को चूमती है और वह फिर से राजकुमार में बदल जाता है। हर बच्चा इस बात को जानता है कि वह मेढक दरअसल राजकुमार है, लेकिन उन्हें यह कैसे पता चलता है? वह अपने प्रत्येक शारीरिक गुण के हिसाब से मेढक है। कौन सी बात उसे राजकुमार बनाती है? यह पता चलता है कि यहाँ एक नियम काम करता है: लोगों व जन्तुओं तथा अन्य जीवित प्राणियों को हम उनके एक गुण से पहचानते हैं, जिसे मनोवैज्ञानिक सततता (साइकिक कंटीन्युइटी) कहा जाता है। बच्चे उसकी पहचान एक तरह के दिमाग या आत्मा या एक ऐसे अंदरूनी तत्व के रूप में करते हैं जो उनके भौतिक गुणों से स्वतंत्र है। वैज्ञानिक इस बात पर विश्‍वास नहीं करते लेकिन हर बच्चा करता है और हर मनुष्य जानता है कि इस तरह दुनिया की व्याख्या कैसे की जाती है।

आपकी बातों से ऐसा लगता है जैसे भाषाविज्ञान का विज्ञान बस शुरू ही हुआ है।

भाषा के बारे में कई ऐसे सरल विवरणात्मक तथ्य हैं, जिन्हें समझा नहीं गया है: वाक्य किस तरह अपना अर्थ हासिल करते हैं? उनकी आवाज कैसे बनती है? किस प्रकार दूसरे लोग उन्हें समझ लेते हैं? भाषा संगणना (कंप्यूटेशन) में एक-रेखीयता (लीनियर ऑडर) का पालन क्यों नहीं करती? उदाहरण के लिए एक सरल वाक्य लीजिए, जैसे ‘क्या उड़ रहे गिद्ध तैरते हैं?’ आप इसे समझते हैं, हर कोई इसे समझता है। एक बच्चा इसे इस प्रश्‍न के रूप में लेता है कि क्या गिद्ध तैर सकते हैं। सवाल में यह नहीं पूछा जा रहा है कि क्या वे उड़ सकते हैं। आप कह सकते हैं, ‘क्या जो गिद्ध उड़ रहे हैं तैरते हैं?’ मतलब क्या इसे यह माना जाए कि गिद्ध जो उड़ रहे हैं तैरते हैं? ये वे नियम हैं, जिन्हें हर कोई जानता है, बिना सोचे-समझे जान लेता है। लेकिन क्यों? यह अब भी एक रहस्य है। और इन नियमों के स्रोत मूतल: अनजान हैं।

हिंदी साहित्य को 'पिद्दी फाइटरों' का भरोसा नहीं

आलोक धन्वा
किताबों के मेले में बढ़ती युवाओं की भीड़ देखकर अच्छा लगता है. छोटे-बड़े शहरों में जैसे-जैसे किताबों से मोहब्बत की कहानी कम सुनाई देती है, मेले में लोगों और खासकर नौजवानों के उबलते झुंड को देखकर भरोसा होता है कि हिंदी साहित्य ज़िंदा रहेगा. इसे लिखने और पढ़ने वाले कम नहीं बल्कि बढ़ते जाएंगे. मैं ये मानता हूं कि आज का भारत, नए युवाओं का भारत है. ऐसा भारत जिसमें 65 फीसदी संख्या युवाओं की है. इस भारत को बहुत सकारात्मक तरीके से देखे जाने की कोशिश की जानी चाहिए.
कई लोग ये समझते हैं कि ये किताबें नहीं पढ़ते. कुछ समझते हैं कि ये दिनभर कम्प्यूटर के पास रहते हैं. कुछ ये भी समझते हैं कि इंटरनेट ही इनका घर है. इंटरनेट में ही बस गए हैं ये लोग. मैं इनको इस तरह नहीं देखता. मैं काले और सफेद में इनको नहीं देखता. मैं मानता हूं कि हमारा जो युवा वर्ग है और उनमें जो शिक्षित वर्ग है उसकी रुचि किताबों को पढ़ने की है. और तमाम पुस्तक मेलों की एक दिलचस्प बात ये है कि ये अलग-अलग तरह के विमर्श का मंच तैयार करते हैं. यहां लगातार बहसें होती हैं. ख़ास बात ये है कि आज की समस्याओं पर बहसें हो रही हैं.
बहसों के स्तर को लेकर विभेद हो सकता है. जो स्तर है वो हर जमाने में थोड़ा बढ़ता-घटता है. और स्तर केवल साहित्य और उससी जुड़ी बहसों का ही नहीं है. घटते-बढते स्तर की समस्या हर पहलु की है. चाहे वो साहित्य हो या राजनीति. स्तर के साथ-साथ मौलिकता का भी सवाल है. क्या हिंदी में मौलिक काम हो रहा है. सवाल जायज़ है. ये बात 20वीं सदी में भी उठी थी. क्या चीज है मौलिकता? आधुनिकता से उसका कितना संबंध है? जिसको बिल्कुल ही मौलिक कहा जाता है, उस तरह का तत्व नहीं है अब. पर क्या पाठक वर्ग छोटा होता जा रहा है...ये सवाल हिंदी के संदर्भ में जायज़ है. एक बड़ा महान कवि अपनी कविताओं के ज़रिए एक नया पाठक वर्ग तैयार करता है जैसे निराला ने तैयार किया, जो नागार्जुन ने तैयार किया. यशपाल ने किया, अमृल लाल नागर ने किया, फणीश्वरनाथ रेणू ने किया. लेकिन आज जो नए कवि हैं, आज के जो बड़े लेखक हैं, वे उनकी तरह बड़े लेखक नहीं हैं, वे उतने प्रतिभाशाली नहीं है.
ऐसे में पाठकों का जो स्तर है वो भी अलग तरह का हो गया है. जो नए लेखक आ रहे हैं वे ज्यादा नहीं पढ़ना चाहते. उनके अंदर बौद्धिक गहराई कम है, लेकिन बौद्धिक गहराई उतनी चिंता की बात नहीं है. वो तो उनकी जीवन यात्रा से बढ़ती जाएगी. सबसे बड़ी चिंता की बात है कि उनकी जिज्ञासा कम हो गई. उनमें और ज्यादा जानने की, समस्या के तह तक जाने की बेचैनी घट गई है.
बेचैनी का कम होना भूमंडलीय स्तर पर हुआ है. इसमें कोई शक नहीं कि अभी का जो युवा है उसमें एक तरह का उपभोक्तावाद आया है. जो बिल्कुल नए लेखक हैं, जो नए कवि हैं, उसमें सिर्फ कवियों की बात नहीं, जो नया वर्ग आया है, कहीं न कहीं उसमें एक उपभोक्तावाद की संस्कृति आई हैं. बाजारवाद हावी हुआ है. पर इन सब के बीच क्या हिंदी के लेखन में क्रांतिकारी और परिवर्तनकारी लेखनी हो रही है. मुझे लगता है हो रही है. जब हमारे यहां अज्ञेय लिख रहे थे या जब हमारे यहां निराला लिख रहे थे. हजारी प्रसाद द्विवेदी लिख रहे थे, हजारी प्रसाद जब कबीर को लेकर आए तो उन्होंने एक तरह की क्रांति लाई. कबीर के माध्यम से लोगों को एक नए चिंतन का परिचय मिला, लोगों को एक नई भूमि मिली.
मेरी चिंता और मेरी पीड़ा का विषय है कि आज विर्मश, साहित्य और दुनिया के सरोकार से हटकर निजी हो गया है. मेरी उम्र बढ़ रही है. मैं 60 पार कर गया हूं, जब मैं अपने से बहुत छोटी उम्र के लेखकों को देख रहा हूं तो देखता हूं वे आपाधापी कर रहे हैं, तो मुझे पीड़ा पहुंचती है. एक उथलापन आया है. कहना चाहिए कि एक पिद्दी फ़ाइट है, उसमें कुछ रखा नहीं है, वो कहीं न कहीं व्यक्तिवाद की लड़ाई है या कम जानने की लड़ाई है. अज्ञान की भी लड़ाई है वो. दो ज्ञानी जिस तरह से लड़ते हैं उसमें सीखने का मौका मिलता है, जब अज्ञेय और नामवर सिंह एक-दूसरे से असहमत होते थे तो उस असहमति से भी हम शिक्षित होते थे. राम विलास शर्मा और अज्ञेय या फिर राम विलास शर्मा और नामवर सिंह असहमत होते थे तो हमको सीखने का मौका मिलता था. आज के जो नए कवि असहमत होते हैं तो बहुत ही सतही कारणों से, किसका क्या छप गया. किसकी किताब कितनी ज्यादा बिक सकती है, कौन विदेश जाएगा, किसको कौन सा पुरस्कार मिलेगा, इसका मतलब यह है कि आज के जो नए कवि हैं उनमें सामाजिक सरोकारों की, सामाजिक प्रतिबद्धता की बेहद कमी आई है. मैं उनपर ये आरोप नहीं लगा रहा हूं, मैं ये मानता हूं कि सामाजिक सरोकार की समझ कम होती जा रही है. फिर भी मुझे लगता है कि मुझे भरोसा है. उम्मीद है, भारत के युवा लेखकों से, यहां पनप रहे बाज़ारवाद से भी और किताबों के बढ़े मेले से भी. मैं भारत और इसकी संस्कृति को जानता हूं इसीलिए निराश नहीं हूं. (बीबीसी हिन्दी से साभार रूपा झा से बातचीत)

'हैरी पॉटर एंड द फ़िलासफ़र्स स्टोन सबसे लोकप्रिय'

लेखिका जे के रोलिंग की हैरी पॉटर सीरीज की पहली क़िताब 'हैरी पॉटर एंड दी फ़िलासफ़र्स स्टोन' को बच्चों की पसंदीदा क़िताब चुना गया है. हैरी पॉटर सीरीज की जे के रोलिंग की इस पहली क़िताब ने सुजान कोलिंस की 'दी हंगर गेम्स' और रोल्ड ढाल की दी बीएफ़जी को पछाड़ कर यह खिताब हासिल किया. चौदह साल की आयु से पहले पढ़ने वाली सर्वश्रेष्ठ क़िताबों के चयन के लिए हर आयु वर्ग के क़रीब 24 हज़ार लोगों ने मतदान किया. इसका आयोजन किया था ब्रितानी संस्था बुकट्रस्ट ने. इस सूची में 'द वेरी हंग्री कैटरपिलर' और 'विनी द पू' शीर्ष पाँच क़िताबों की सूची में शामिल रहीं. वहीं जे आर आर टोलकिन की 'द फेलोशिप ऑफ़ द रिंग' सातवें नंबर पर रही.
इसके अलावा डॉक्टर ज़्यूस की 'द कैट इन द हैट', अमरीकी लेखक ई बी ह्वाइट की शारले वेब और सी एस लेविस की नार्निया काल्पनिक क्लासिक 'द लायन', ' द बिच' और 'द वार्डरोब' को शीर्ष 10 क़िताबों में जगह मिली. लोकप्रिय क़िताबों पर बनी फ़िल्मों का भी लोगों के मतदान पर असर पड़ा. शीर्ष दस क़िताबों में से नौ पर बहुत अधिक कामयाब फ़िल्में बनी हैं. इनमें हैरी पॉटर श्रृंखला की फ़िल्में भी शामिल हैं. बुकट्रस्ट के कला विभाग के प्रमुख क्लेयर शहाना ने कहा, ''अब तक के सबसे बड़े साहित्यिक मतदान में बच्चों और वयस्कों ने हैरी पॉटर के लिए उतना मतदान नहीं किया जितना कि होना चाहिए. यह एक वैश्विक परिघटना थी, जिसने पाठकों की पीढ़ियों को प्रभावित किया, जो कि हैरी या हरमायनी को प्यार करते हुए बड़े हुए.''
उन्होंने कहा, ''यहाँ तक की ढाल और टोलकिन जैसे बड़े लेखकों के सामने भी रोलिंग की यह क़िताब कई देशों में पसंदीदा बनी हुई है.'' चिल्ड्रन बुक सप्ताह मनाने के लिए पाठकों को अपने पसंदीदा कहानी की क़िताब के बारे में मतदान करने के लिए कहा गया था. बुकट्रस्ट के विशेषज्ञों ने पांच सौ क़िताबों के नाम के साथ शुरुआत की. लेकिन मतदान शुरू होने से पहले इसे काट-छांटकर सौ कर दिया गया.
इन क़िताबों को आयु के हिसाब से वर्गीकृत किया गया था. 'हैरी पॉटर एंड द फ़िलासफ़र्स स्टोन' को नौ से 12 साल आयु वर्ग का पुरस्कार मिला. जबकि 'द वेरी हंग्री कैटरपिलर' पाँच साल तक के बच्चों के लिए सर्वश्रेष्ठ क़िताब चुनी गई. (बीबीसी से साभार)