Sunday 19 January 2014

उन्होंने कहा था

'मुनि लोग तो स्वामी बन के अपनी ही मुक्‍ति के लिए एकांतवास करते हैं। लेकिन, मैं ऐसा हर्गिज नहीं कर सकता। सभी दु:खियों को छोड़ मुझे सिर्फ अपनी मुक्‍ति नहीं चाहिए। मैं तो इन्हीं के साथ रहूँगा और मरूँगा-जीऊँगा।'
- स्वामी सहजानंद

'आप संन्यासी हैं। दयालु हैं। सब कुछ कीजिए पर पेट पर लात न मारें।'
- स्वामी सहजानंद


'जिसका हक छीना जावे या छिन गया हो उसे तैयार कर के उसका हक उसे वापस दिलाना, यही तो मेरे विचार से आजादी की लड़ाई तथा असली समाज सेवा का रहस्य है।'
- स्वामी सहजानंद


 15 अगस्त 1947 को स्थापित राजसत्ता के चरित्र का चित्रण स्वामी जी ने यों किया है - 'यह सरकार मालदारों की है, जमींदारों की है... जहाँ ऐसी एसेंबली है वहाँ किसानों का खुदा हाफिज।'

'मैं किताबी ज्ञान नहीं चाहता। केवल किताबी ज्ञान से धोखा होता है। मैं लड़ाई और लड़नेवाला चाहता हूँ। जो किसानों, मजदूरों आदि को आर्थिक प्रोग्राम के आधार पर कहीं न कहीं उनका संगठन कर के उनकी लड़ाई में सीधे शामिल न हों, वे लोग उनके और हमारे नेता या कार्यकर्ता नहीं हो सकते।'
- स्वामी सहजानंद


किसी भी आपदा में सबसे पहले
और सबसे ज्यादा मारे जाते हैं चुप्पे लोग!
- मदन कश्यप

दस बुलबुलाते विचार
मार्क ग्रेनिअर
1. वे दो संवेदनाएँ जो मेरे मुँह में हमेशा रहती हैं, वे हैं - पहले चुंबन की खूबसूरत झनझनाहट और पहले घोंघे का स्वाद
2. नींद का मटमैला रंग, और इन्हें रंगतश्तरी में मिलाता मन
3. हर कोई रूपकालंकार की तारीफ करता है, तभी तो हम समंदर से मोहित हो जाते हैं
4. सबसे उम्दा प्रेम (काम) हास्य के करीब होता है, कुछ मिनिटों में, क्षणों में, एक बदनुमा हिमशिला छोटे छोटे गड्ढों में बदल जाती है, एक कलदार पुल सीधे नीचे एक किले पर उतरता है, जो कि उछाह से भरा गढ़ में बदल जाता है... महान सात्विक जमीन के लिए कोई आशा नहीं
5. हर पेड़ बरसात की कामना रखता है
6. छोटी पत्रिकाएँ घृणास्पद चिल्लाती हैं - जानवर - व्हेल... लटौरा और लकड़बग्घे के लिए न भूले जाने वाली तौहीन है
7. जातिवाद पागल भेड़ का सहारा है, जो बदले के लिए अपनी ही ऊन उधेड़ लेती हैं, आँखों में बदले की भावना लिए
8. किसी मृत व्यक्ति की बुराई करना उसे जीवित रखने का बढ़िया तरीका है
9. मित्रों! कोई ना कोई रहस्य हर कोई पालता है
10. आला जिंदगी, और कोई तरीका है ?

अगर तुम अतीत पर पिस्‍तौल से गोली चलाओगे, तो भविष्‍य तुम पर तोप से गोले बरसाएगा।
- रसूल हमजातोव

हर अच्‍छी किताब का ऐसा ही आरंभ होना चाहिए, लंबी-लंबी और ऊबभरी भूमिका के बिना। जाहिर है कि पास से भागे जाते साँड़ को अगर सींगों से पकड़कर हम काबू नहीं कर पाते, तो पूँछ से तो वह काबू में आने से रहा।
- रसूल हमजातोव

एक बार मुरीद अपनी-अपनी तलवारों की डींग हाँकने लगे। उन्‍होंने यह कहा कि कैसे बढ़िया इस्‍पात की की बनी हुई हैं उनकी तलवारें और कुरान की कैसी बढ़िया-बढ़िया कविताएँ उन पर खुदी हुई हैं। महान शामिल का नायब हाजी-मुराद भी मुरीदों के बीच उपस्थित था। वह बोला- 'चिनारों की ठंडी छाया में तुम किसलिए यह बहस कर रहे हो? कल पौ फटते ही लड़ाई होगी और तब तुम्‍हारी तलवारें खुद ही यह फैसला कर देंगी कि उनमें से कौन-सी बेहतर है।'
- रसूल हमजातोव

अपनी किताब के जीन पर सवार होने के पहले मैं सोचता हुआ धीरे-धीरे चल रहा हूँ। मैं घोड़े की लगाम थामे हुए उसके साथ-साथ जा रहा हूँ। मैं सोच रहा हूँ, मुँह से शब्‍द निकालने में देर कर रहा हूँ। हकलानेवाले की जबान से ही नहीं, बल्कि ऐसे व्‍यक्ति की जबान से भी शब्‍द रुक-रुककर निकल सकते हैं, जो अधिक उचित, अधिक आवश्‍यक और बुद्धिमत्‍तापूर्ण शब्‍दों की खोज करता है। अपनी बुद्धिमत्‍ता से आश्‍चर्यचकित करने की तो मैं आशा नहीं करता, मगर हकला भी नहीं हूँ। मैं शब्‍द खोज रहा हूँ।
- रसूल हमजातोव


वह पुस्‍तक जो मैंने अभी तक नहीं लिखी, लिखी जा जुकी सभी पुस्‍तकों से अधिक प्रिय है। वह सबसे ज्‍यादा प्‍यारी, वांछित और कठिन है। नई किताब वह दर्रा है, जिसमें मैं कभी नहीं गया, मगर जो मेरे सामने खुल चुका है, मुझे अपनी धुँधली दूरी की तरफ खींचता है। नई पुस्‍तक वह घोड़ा है, जिस पर मैंने अब तक कभी सवारी नहीं की, वह खंजर है, जिसे मैंने मन से नहीं निकाला।
- रसूल हमजातोव

मेरी पुस्‍तक, बहुत सालों तक तुम मेरी आत्‍मा में जीती रही हो! तुम उस औरत, दिल की उस रानी के समान हो, जिसे उसका प्रेमी दूर से देखा करता है, जिसके सपने देखता है, मगर जिसे छूने का उसे सौभाग्‍य नहीं प्राप्‍त हुआ। कभी-कभी ऐसा भी हुआ है कि वह बिल्‍कुल नजदीक ही खड़ी रही है। बस, हाथ बढ़ाने की ही जरूरत थी, मगर मेरी हिम्‍मत न हुई, मैं झेंप गया, मेरे मुँह पर लाली दौड़ गई और मैं दूर हट गया।
- रसूल हमजातोव

मेरी पुस्‍तक, तुम्‍हें शुरू करने से पहले मैं यह बताना चाहता हूँ कि कैसे तुमने मेरी आत्‍मा में रूप धारण किया। कैसे मैंने तुम्‍हारा नाम चुना। किसलिए मैं तुम्‍हें लिखना चाहता हूँ। जीवन में मेरे क्‍या उद्देश्‍य-लक्ष्‍य हैं।
- रसूल हमजातोव

मेरे पिता जी चाहे यह कहा करते थे कि जो पराई पांडुलिपियाँ पढ़ता है, दूसरों की जेब में हाथ डालनेवाले के समान है।
- रसूल हमजातोव

बच्‍चा पैदा होते ही नहीं बोलने लगता। शब्‍द कहने से पहले वह अपनी तुतली भाषा में कुछ ऐसा बोलता है, जो किसी के पल्‍ले नहीं पड़ता। ऐसा भी होता है कि जब वह दर्द से रोता-चिल्‍लाता है, तो माँ के लिए भी यह जानना मुश्किल हो जाता है कि उसे किस जगह पर दर्द हो रहा है। क्या कवि की आत्‍मा बच्‍चे की आत्‍मा जैसी नहीं होती?
- रसूल हमजातोव

मेरी सभी किताबें मेरी राहें हैं
जिन पर कभी बढ़ा सहमा-सा, कभी निडर,
कभी गिरा जाकर खड्डों में, गड्ढों में
कभी चढ़ा ऊँचे-ऊँचे, छू लिया शिखर।
- रसूल हमजातोव

तेज आँधी वृक्ष की टहनी या उसका तना भी तोड़ सकती है। मगर वसंत में जड़ों से पुनः नई शाखाएँ निकल आएँगी और नया वृक्ष बढ़ने लगेगा। पर यदि वृक्ष को फफूँद लग जाए, वह उसे भीतर से खा जाए, अगर वह वृक्ष की जड़ों को ही खोखला कर डाले, तब कुछ भी नहीं हो सकेगा। इनसान के बारे में भी ऐसी ही बात है।
- रसूल हमजातोव

मेरी किताब तो समाप्‍त हो चुके ऐसे कालीन के समान है, जिसे बिछा दिया गया है ताकि पहली बार उसे पूरी तरह एकबारगी देखा जा सके। मुझे उसमें अनेक गलत रेखाएँ, दोषपूर्ण नमूने और अस्‍पष्‍ट बेल-बूटे दिखाई दे रहे हैं, सजावट कहीं-कहीं कच्‍ची और टेढ़ी-मेढ़ी है। मगर इन गलतियों को अब ठीक करना मुमकिन नहीं, क्‍योंकि कालीन बुना जा चुका है। उसका छोटे से छोटा दोष दूर करने के लिए भी सारे कालीन को उधेड़ना होगा।
- रसूल हमजातोव

किसी विचार को इसलिए गलत नहीं कहना, कि वह तुम्‍हारे विचार जैसा नहीं है!
- रसूल हमजातोव

रोटी, चीनी, मक्खन और कीलों को तुला पर तोला जाता है, मगर प्‍यार को नहीं!
- रसूल हमजातोव

छींट, कमरे की ऊँचाई, कब की बाड़ को मीटरों में मापा जाता है, मगर सौंदर्य को नहीं!
- रसूल हमजातोव

जो सबसे ज्‍यादा समझदार बनने की कोशिश करता है, वह वास्‍तव में जितना मूर्ख होता है, उससे भी ज्‍यादा मूर्ख सिद्ध होता है!
- रसूल हमजातोव

एक आदमी के पास अधिक और दूसरे के पास कम रहस्‍य होते हैं, क्‍योंकि पानी सड़ जाए, तो चाहे वह घुटनों तक ही ऊँचा हो, तल दिखाई नहीं देगा।
- रसूल हमजातोव

अनुवादकों ने ही मेरी कविताओं के लिए मार्ग प्रशस्‍त किए। वे उन्‍हें तूफानी नदियों, ऊँचे पर्वतों, मोटी दीवारों, सीमा-चौकियों और सबसे मजबूत हदों - दूसरी भाषा की हदों, बहरेपन, अंधेपन और गूँगेपन की हदों के पार ले गए।
- रसूल हमजातोव

मेरी उम्र चवालीस साल है। इस उम्र में आदमी को हर तरह की जिम्‍मेदारी के काम सौंपे जा सकते हैं। इस उम्र में लेखक को अपने हर शब्‍द के लिए जवाबदेह होना चाहिए।
- रसूल हमजातोव

अनुवादक अक्‍सर कविताओं के सारे दाँत निकाल डालते हैं और उन्‍हें सिसकारते-फुसकारते हुए पोपले मुँह के साथ दुनिया में घूमने के लिए भेज देते हैं।
- रसूल हमजातोव

प्रतिभा बड़ी दुर्लभ होती है, अप्रत्‍याशित ही आती है और इसीलिए वह बिजली की कौंध, इंद्रधनुष अथवा गर्मी से बुरी तरह झुलसे और उम्‍मीद छोड़ चुके रेगिस्‍तान में अचानक आनेवाली बारिश की तरह आश्‍चर्यचकित कर देती है।
- रसूल हमजातोव

प्रतिभा तो इतनी रहस्‍यमयी है कि जब पृथ्‍वी, उसके अतीत और भविष्‍य, सूर्य और सितारों, आग और फूलों, यहाँ तक कि इनसान के बारे में भी सब कुछ मालूम कर लिया जाएगा, तभी, सबसे बाद में ही यह पता चल सकेगा कि प्रतिभा क्‍या चीज है, वह कहाँ से आती है, कहाँ उसका वास होता है और क्‍यों वह एक आदमी को मिलती है और दूसरे को नहीं मिलती।
- रसूल हमजातोव

किसी व्‍यक्ति में अपना स्‍थान बनाते समय प्रतिभा कभी इस बात की परवाह नहीं करती कि जिस राज्‍य में वह रहता है, वह कितना बड़ा है, उसकी जाति के लोगों की संख्‍या कितनी है। प्रतिभा बड़ी दुर्लभ होती है, अप्रत्‍याशित ही आती है और इसीलिए वह बिजली की कौंध, इंद्रधनुष अथवा गर्मी से बुरी तरह झुलसे और उम्‍मीद छोड़ चुके रेगिस्‍तान में अचानक आनेवाली बारिश की तरह आश्‍चर्यचकित कर देती है।
- रसूल हमजातोव

प्रतिभा को पीछे से धकेलने की जरूरत नहीं होती और हाथ पकड़कर उसे आगे बढ़ाने की भी आवश्‍यकता नहीं पड़ती। वह खुद अपना रास्‍ता बना लेती है और खुद ही सबसे आगे पहुँच जाती है।
- रसूल हमजातोव


बसंत त्रिपाठी

ईश्वर है तो देर सबेर
कर्मकांड भी है
कर्मकांड है तो
फिर उसे पूरा कराने वाले
परजीवी भी
अब परजीवी तो
मेहनत करने से रहे
वे तो किसी का
खून चूस कर ही पलेंगे
परजीवी फिर शासन को
नए ढंग से परिभाषित करेंगे
प्रियवर, अब ठीक से सोचो और कहो
ईश्वर के बारे में
तुम्हारा क्या विचार है?


अरुण कमल
'बिलकुल निहत्था, पर हाथ बिना ऊपर उठाए
मैं हत्यारों से मिलने जाना चाहता हूँ
जाना चाहता हूँ उसकी तरफ से
जो सबसे कमजोर है।'
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'कल्याणकारी राज्य में अपने हकों से वंचित नागरिक
गटर में ढूँढ़ रहे थे ठिकाना
कैसा समाज बना रही थी राजनीति कि
परिवार में रिश्तों का नाम लेन-देन था
शराब की दुकानों पर भी नहीं थी बराबरी।'
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'एक-एक करके सारे सूर्य सागर में दफन हो जाते हैं
यह पहला सोमवार है या साल का आखिरी दिन
समय को याद रखना कष्ट में होना है
उससे छिपकर मैं रोज आता हूँ वह रोज बीत जाता है
फिर भी मैं बचा हूँ
तो बचा है मनुष्य'
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आज
इस आधुनिक युग में
गर्भ में ही कन्यावध होता है
वहाँ से बच गए तो
ससुराल में होता है उसका होम
दहेज की आग में
नारी इस युग की त्रासदी
पतित संस्कृति की
सुस्मिता सेन और ऐश्वर्य राय
पूँजीवादी मकड़जाल का खिलौना।
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'और जब मुझसे पूछा गया तुम कौन हो
क्या छिपाए हुए हो अपने भीतर एक दुश्मन का नाम
कोई मजहब कोई ताबीज
मैं कुछ कह नहीं पाया मेरे भीतर कुछ नहीं था
सिर्फ एक रंगरेज एक मिस्त्री एक कारीगर एक कलाकार
एक मजदूर था।'
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नहीं इश्‍क़ में इसका तो रंज हमें, किशिकेब-ओ-क़रार ज़रा न रहा
ग़मे-इश्‍क़ तो अपना रफ़ीक़ रहा, कोई और बला से रहा-न-रहा

दिया अपनी ख़ुदी को जो हमने मिटा, वह जो परदा-सा बीच में था न रहा
रहे परदे में अब न वो परदानशीं, कोई दूसरा उसके सिवा न रहा

न थी हाल की जब हमें अपने ख़बर, रहे देखते औरों के ऐबो-हुनर
पड़ी अपनी बुराइयों पर जो नज़र, तो निगाह में कोई बुरा न रहा

हमें साग़रे-बादा के देने में अब, करे देर जो साक़ी तो हाय ग़ज़ब
कि यह अहदे-निशात ये दौरे-तरब, न रहेगा जहाँ में सदा न रहा

उसे चाहा था मैंने कि रोक रखूँ, मेरी जान भी जाये तो जाने न दूँ
किए लाख फ़रेब करोड़ फ़सूँ, न रहा, न रहा, न रहा, न रहा

'ज़फ़र' आदमी उसको न जानियेगा, हो वह कैसा ही साहबे, फ़हमो-ज़का
जिसे ऐश में यादे-ख़ुदा न रही, जिसे तैश में ख़ौफ़े खुदा न रहा




 मैं कविता को एक आध्यात्मिक औषधि की तरह देखता हूं. मैं शब्दों से वह रच सकता हूं जो मुझे वास्तविकता में नज़र नहीं आता. यह एक विराट भ्रम होती है लेकिन एक पॉज़िटिव भ्रम. मेरे पास अपनी या अपने मुल्क की ज़िन्दगी के अर्थ खोजने के लिए और कोई उपकरण नहीं. यह मेरी क्षमता के भीतर होता है कि मैं शब्दों के माध्यम से उन्हें सुन्दरता प्रदान कर सकूं और एक सुन्दर संसार का चित्र खींचूं और उनकी परिस्थिति को भी अभिव्यक्त कर सकूं. मैंने एक बार कहा था कि मैंने शब्दों की मदद से अपने देश और अपने लिए एक मातृभूमि का निर्माण किया था.
 - महमूद दरवेश




मुझको मिल जाय चहकने के लिए शाख़ मेरी,
कौन कहता है कि गुलशन में न सय्याद रहे।
बाग़ में लेके जनम हमने असीरी झेली,
हमसे अच्छे रहे जंगल में जो आज़ाद रहे।
बृज नारायण चकबस्त


माँ मेरी लोरी की पोटली,
गुड़ जैसी!!
मिट्टी पे दूब-सी,
कुहे में धूप-सी,
माँ की जाँ है,
रातों में रोशनी,
ख्वाबों में चाशनी,
माँ तो माँ है,
ममता माँ की, नैया की नोंक-सी,
छलके दिल से, पत्तों में झोंक-सी।
माँ मेरी पूजा की आरती,
घी तुलसी!!
आँखों की नींद-सी,
हिंदी-सी , हिंद-सी,
माँ की जाँ है,
चक्की की कील है,
मांझा है, ढील है,
माँ तो माँ है।
चढती संझा, चुल्हे की धाह है,
उठती सुबह,फूर्त्ति की थाह है।
माँ मेरी भादो की दुपहरी,
सौंधी-सी!
चाँदी के चाँद-सी,
माथे पे माँग-सी,
माँ की जाँ है,
बेटों की जिद्द है,
बेटी की रीढ है,
माँ तो माँ है।
भटका दर-दर, शहरों मे जब कभी,
छत से तकती, माँ की दुआ दिखी।
माँ मेरी भोली सी मालिनी
आँगन की!
अपनों की जीत में,
बरसों की रीत में,
माँ की जाँ है,
प्यारी-सी ओट दे,
थामे है चोट से,
माँ तो माँ है,
चंपई दिन में,छाया-सी साथ है,
मन की मटकी, मैया के हाथ है।
माँ मेरी थोड़ी-सी बावली,
रूत जैसी!
मेरी हीं साँस में,
सुरमई फाँस में,
माँ की जाँ है,
रिश्तों की डोर है,
हल्की-सी भोर है,
माँ तो माँ है,
रब की रब है, काबा है,धाम है,
झुकता रब भी, माँ ऎसा नाम है।
-विश्व दीपक ’तन्हा’


नहीं, हम व्यर्थ ही नहीं जिये। ऊँची-ऊँची इमारतें हमारी हड्डियों से ही बनी हैं।
-खलील जिब्रान

हे देव! मैं स्वतंत्र रहूँ, भले ही गली का कुत्ता बनकर रहूँ। पराधीन होकर मैं तीनों लोकों का राजा भी नहीं बनना चाहता हूँ।
जैन महाकवि रामचन्द्र-गुणचन्द्र

‘आदमी का आकलन उसके जन्मने या मरने से नहीं होता; न ही इससे कि अमुक स्थान पर वह लम्बे समय तक रहा है। आदमी अपने आने को जन्म के समय रोने और जाने को मृत्यु से घबराने के द्वारा दर्ज करता है।’
-खलील जिब्रान

इस जीवन में माँ सब-कुछ है। दु:ख के दिनों में वह सांत्वना का बोल है, शोक के समय में आशा है और कमजोर पलों में ताकत।
-खलील जिब्रान

आग धीमी हो तो हवा का हल्का-सा झोंका भी उसे बुझा देता है; लेकिन वह अगर तेज हो तो हवा पाकर और तेज़ भड़कती है।
- फ्रांसीसी दार्शनिक ला रोश्फूकौड


मैं एक ऐसी बात आपको बताऊँगा जिसे आप नहीं जानतीं। धरती पर सबसे अधिक कामुक सर्जक, कवि, शिल्पकार, चित्रकार, संगीतकार… आदि-आदि ही हैं और सृष्टि के आरम्भ से यह क्रम चल रहा है। काम उनमें एक सुन्दर और अनुपम उपहार है। काम सदैव सुन्दर और लज्जाशील है।
-खलील जिब्रान


हजारी प्रसाद द्व‌िवेदी
हमारे साहित्यिकों की भारी विशेषता यह है कि जिसे देखो वहीं गम्भीर बना है, गम्भीर तत्ववाद पर बहस कर रहा है और जो कुछ भी वह लिखता है, उसके विषय में निश्चित धारणा बनाये बैठा है कि वह एक क्रान्तिकारी लेख है। जब आये दिन ऐसे ख्यात-अख्यात साहित्यिक मिल जाते हैं, जो छूटते ही पूछ बैठते हैं, 'आपने मेरी अमुक रचना तो पढ़ी होगी?'


दिविक रमेश


चिड़िया की बारात नहीं आती
चिड़िया पराई नहीं हो जाती
चिड़िया का दहेज नहीं सजता
चिड़िया को शर्म नहीं आती
तो भी चिड़िया का ब्याह हो जाता है
चिड़िया के ब्याह में पानी बरसता है
पानी बरसता है पर चिड़िया कपड़े नहीं पहनती
चिड़िया नंगी ही उड़ान भरती है
नंगी ही भरती है उड़ान चिड़िया
चिड़िया आत्महत्या नहीं करती।

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