Sunday 19 January 2014

कोई हाथ भी न मिलायेगा जो गले मिलोगे तपाक से....

'जो हवा में है, लहर में है, क्यों नहीं वह बात मुझमें है'... इस दर्द को कैसे बांटूं। उन पर यहां लिख भी नहीं सकता और उनको आज शाम जान कर अंदर ही अंदर टुकड़े टुकड़े हो लिया। तीस वर्ष पहले कभी इलाहाबाद विश्वविद्यालय परिसर में उनकी एक रचना पर रिपोर्टिंग कर मीडिया की नौकरी में आने का पुरस्कार पाया था। आज शाम उनसे वह तीन दशक लंबा अतीत एक-दो मिनट साझा कर लेने के लिए उनके घर फोन किया और जो सुना, स्तब्ध रह गया।.... कि वह अब सुन नहीं पाते हैं, बोल नहीं पाते हैं। क्या बताऊं कि कभी वो देश के हर दिल अजीज थे और उनके शब्द आज भी जहां गूंजते हैं, मौसम उनके-सा हो जाता है। सुन कर सदमा-सा लगा। उनकी एक रचना आज भी मेरे मन पर ऐसी छाप छोड़े हुए है कि सुनते ही एक और नया गीत फूट पड़ता है अपने अंदर से। जैसे उनकी उन पंक्तियों गीतों की करेंसी छपती हो। मेरे अत्यंत सम्माननीय बशीर बद्र अब शारीरिक रूप से पहले जैसे नहीं रहे। शायद आज उनकी ही पंक्तियां उनके साथ से पुकारती हैं कि कोई हाथ भी न मिलायेगा जो गले मिलोगे तपाक से....

No comments:

Post a Comment