Friday 24 January 2014

सांप

एक मालदार जाट मर गया तो उसकी घरवाली कई दिन तक रोती रही। जात-बिरादरी वालों ने समझाया तो वह रोते-रोते ही कहने लगी, 'पति के पीछे मरने से तो रही! यह दुःख तो मरूँगी तब तक मिटेगा नहीं। रोना तो इस बात का है कि घर में कोई मरद नहीं। मेरी छः सौ बीघा जमीन कौन जोतेगा, कौन बोएगा?' हाथ में लाठी लिए और कंधे पर खेस रखे एक जाट पास ही खड़ा था वह जोर से बोला, 'मैं री मैं'। जाटनी फिर रोते-रोते बोली, 'मेरी तीन सौ गायों और पाँच सौ भेड़ों की देखभाल कौन करेगा? उसी जाट ने फिर कहा, 'मैं री मैं'। जाटनी फिर रोते रोते बोली, 'मेरे चारे के चार पचावे और तीन ढूँगरियाँ हैं और पाँच बाड़े हैं उसकी देखभाल कौन करेगा?' उस जाट ने किसी दूसरे को बोलने ही नहीं दिया तुरंत बोला, 'मैं री मैं' जाटनी का रोना तब भी बंद नहीं हुआ। सुबकते हुए कहने लगी, 'मेरा पति बीस हजार का कर्जा छोड़ गया है, उसे कौन चुकाएगा?' अबके वह जाट कुछ नहीं बोला पर जब किसी को बोलते नहीं देखा तो जोश से कहने लगा, 'भले आदमियों, इतनी बातों की मैंने अकेले जिम्मेदारी ली, तुम इतने जन खड़े हो, कोई तो इसका जिम्मा लो! यों मुँह क्या चुराते हो!'
- विजयदान देथा


अँधेरी रात में एक अंधा सड़क पर जा रहा था। उसके हाथ में एक लालटेन थी और सिर पर एक मिट्टी का घड़ा। किसी रास्ता चलने वाले ने उससे पूछा, 'अरे मूर्ख, तेरे लिए क्या दिन और क्या रात। दोनों एक से हैं। फिर, यह लालटेन तुझे किसलिए चाहिए?' अंधे ने उसे उत्तर दिया, 'यह लालटेन मेरे लिए नहीं, तेरे लिए जरूरी है कि रात के अँधेरे में मुझसे टकरा कर कहीं तू मेरा मिट्टी का यह घड़ा न गिरा दे।'
- टालस्टॉय


साँप! तुम सभ्य तो हुए नहीं-
नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूँ- (उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डँसना-विष कहाँ पाया।
 अज्ञेय

चोर
सड़के जिन पर मैं चला, चप्पलें जो मैंने पहनीं
रोटियाँ जो मैंने खाईं, सब थीं दूसरों की बनाईं ।
झंडे जो मैंने उठाए, नारे जो मैंने लगाए
गीत जो मैंने गाए, सब थे दूसरों के बनाए।
किताबें जौ मैंने पढ़ीं, थी सब दूसरों की गढ़ी।
मैं तो बस चोर की तरह, चुराता रहा दूसरों का किया
मैंने किया क्या, जीवन जिया क्या ?
- बोधिसत्व

एक चाय की चुस्की, एक कहकहा,
अपना तो इतना सामान ही रहा।
- उमाकांत मालवीय

No comments:

Post a Comment