Sunday 19 January 2014

जयप्रकाश त्रिपाठी

जय हो फेसबुक महराज की!

जब अपनी व्यस्त दिनचर्या से समय चुराकर फेसबुक की दुनिया में, अपने जीवंत-जागरूक दोस्तों की इस दुनिया में दाखिल होता हूं, हर दिन कमोबेश एक ही तरह के दृश्य मन पर घूम गए होते हैं-
- जैसे मकरंद के अंधड़ में शामिल होने के लिए फुलवारी की कोई चोर खिड़की खोल कर अंदर दाखिल हो रहा होऊं....
- जैसे अपने गांव के मेले में घूम आने के लिए मां के बटुए से पैसे चुराकर दबे पांव घर-झंझटों को पीछे छोड़ आऊं......
- जैसे रचनाओं के समुंदर में गोते लगाते विश्व पुस्तक मेले में जेब खाली हो जाने के बावजूद एक-एक स्टाल पर बावरे अहेरी, किताबों के पागल-दीवाने की तरह खामख्वाह चक्कर काटने से खुद को हठात् न रोक पाऊं......
- इतनी कविताएं, इतनी सूचनाएं, इतने तरह के चित्र-चेहरे, अथाह शब्द-संपदा वाले, सुख-दुख के हाल-चाल वाले पल बिताने के लिए। कोई ऐसा विश्व सम्मेलन न हुआ था, न शायद हो कभी, जो होते हुए हो हमारे साथ.....
फेसबुक बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई, कैसी ये दुनिया बनाई....
जय हो फेसबुक महराज की!

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