Saturday 15 February 2014

जयप्रकाश त्रिपाठी


आग बटोरे चांदनी, नदी बटोरे धूप।
हवा फागुनी बांध कर रात बटोरे रूप।

पुड़िया बंधी अबीर की मौसम गया टटोल।
पोर-पोर पढ़ने लगे मन की पाती खोल।

नख-शिख उमर गुलाल की देख न थके अनंग
पीतपत्र रच-बस लिये चहुंदिश रंग-विरंग।

फागुन चढ़ा मुंडेर पर, प्राण चढ़े आकाश,
रितुरानी के चित चढ़ा रितु राजा मधुमास।

नागर मन गागर लिये, बैठा अपने घाट,
पछुवाही के वेग में जोहे सबकी बाट।

मंत्रमुग्ध अमराइयां, चहक-महक से गांव,
मंथर-मंथर फिर रहा मौसम ठांव-कुठांव।

No comments:

Post a Comment