Monday 3 February 2014

श्रीकृष्ण तिवारी


मीठी लगने लगी नीम की पत्ती -पत्ती
लगता है यह दौर सांप का डसा हुआ है

मुर्दा टीलों से लेकर जिन्दा बस्ती तक
ज़ख्मी अहसासों की एक नदी बहती है
हारे और थके पांवों ,टूटे चेहरों की
ख़ामोशी से अनजानी पीड़ा झरती है
एक कमल का जाने कैसा आकर्षण है
हर सूरज कीचड़ में सिर तक धंसा हुआ है।

अंधियारे में पिछले दरवाजे से घुसकर
कोई हवा घरों के दर्पण तोड़ रही है
कमरे -कमरे बाहर का नंगापन बोकर
आंगन -आंगन को जंगल से जोड़ रही है
ठण्डी आग हरे पेड़ों में सुलग रही है
पंजों में आकाश धुंए के कसा हुआ है।

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