Monday 3 February 2014

नज़ीर अकबराबादी

जब-जब आये वसंत, क्यों न याद आयें
नज़ीर अकबराबादी.....

आलम में जब बहार की आकर लगंत हो,
दिल को नहीं लगन हो मजे की लगंत हो,
महबूब दिलबरों से निगह की लड़ंत हो,
जब देखिए बसंत कि कैसी बसंत हो ॥

        अव्वल तो जाफ़रां से मकां ज़र्द ज़र्द हों।
        सहरा ओ बागो अहले जहां ज़र्द ज़र्द हों।
        जोड़े बसंतियों से निहां ज़र्द ज़र्द हों।
        इकदम तो सब जमीनो जमां ज़र्द ज़र्द हों।
        जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो ॥
     
वह सैर हो कि जावे जिधर की तरफ निगाह
जो बाल भी जर्द चमके हो कज कुलाह
पी-पी शराब मस्त हों हंसते हों वाह-वाह।
इसमें मियां 'नज़ीर' भी पीते हों वाह-वाह
जब देखिए बसंत कि कैसी बसंत हो ॥

फिर आलम में तशरीफ लाई बसंत।
हर एक गुलबदन ने मनाई बसंत॥

जहां में फिर हुई ऐ ! यारो आश्कार बसंत।
हुई बहार के तौसन पै अब सवार बसंत॥
निकाल आयी खिजाओं को चमन से पार बसंत।
मची है ज़ोर हर यक जा वो हर कनार बसंत॥
अजब बहार से आयी है अबकी बार बसंत॥

        जहां में आयी बहार और खिजां के दिन भूले।
        चमन में गुल खिले और वन में राय वन फूले॥
        गुलों ने डालियों के डाले बाग में झूले।
        समाते फूल नहीं पैरहन में अब फूले।
        दिखा रही है अजब तरह की बहार बसंत॥

दरख्त झाड़ हर इक पात झाड़ लहराए।
गुलों के सर पै पर बुलबुलों के मंडराए॥
चमन हरे हुए बागों में आम भी आए।
शगूफे खिल गए भौंरे भी गुंजने आए॥
यह कुछ बहार के लायी है वर्गों बार बसंत॥

        कहीं तो केसर असली में कपड़े रंगते हैं।
        तुन और कुसूम की ज़र्दी में कपड़े रंगते हैं॥
        कहीं सिंगार की डंडी में कपड़े रंगते हैं।
        ग़रीब दमड़ी की हल्दी में कपड़े रंगते हैं॥
        गर्ज हरेक का बनाती है अब सिंगार बसंत॥

कहीं दुकान सुनहरी लगा के बैठे हैं।
बसंती जोड़े पहन और पहना के बैठे हैं॥
ग़रीब खेत में सरसों के जाके बैठे हैं।
चमन में बाग़ में मजलिस बनाके बैठे हैं।
पुकारते हैं अहा! हा! री ज़र निगार बसंत॥

        कहीं बसंत गवा हुरकियों से सुनते हैं।
        मजीरा तबला व सारंगियों से सुनते हैं॥
        कहीं खाबी व मुंहचंगियों से सुनते हैं।
        ग़रीब ठिल्लियों और तालियों से सुनते हैं॥
        बंधा रही है समद का हर एक तार बसंत॥

जो गुलबदन हैं अजब सज के हंसते फिरते हैं।
बसंती जोड़ों में क्या-क्या चहकते फिरते हैं॥
सरों पै तुर्रे सुनहरे झमकते फिरते हैं।
गरीब फूल ही गेंदे के रखते फिरते हैं॥
हुई है सबके गले की गरज कि हार बसंत॥

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