Friday 28 February 2014

नाज़िम हिक़मत



जो दुनिया तुमने देखी रूमी,
वो असल थी, न कोई छाया वगैरह,
यह सीमाहीन है और अनंत,
इसका चितेरा नहीं है कोई अल्लाह वगैरह,
और सबसे अच्छी रूबाई जो
तुम्हारी धधकती देह ने हमारे लिए छोड़ी
वो तो हरगिज़ नहीं जो कहती है-
'सारी आकृतियाँ परछाई हैं' वगैरह..।

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'मुझे महसूस हुआ
मैं मार डाला गया हूँ।
उन्होंने चायघरों, क़ब्रों और गिरजाघरों की
तलाशी ली,
उन्होंने पीपों और आलमारियों को
खोल डाला।
सोने के दाँत निकालने के लिए
उन्होंने तीनों कंकालों को
खसोट डाला।
वे मुझे नहीं पा सके।
क्या वे मुझे कभी नहीं पा सके?
नहीं।
वे मुझे कभी नहीं पा सके ।

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'मैं सोना चाहता हूँ।
मैं सो जाना चाहता हूँ ज़रा देर के लिए,
पल भर, एक मिनट, शायद
एक पूरी शताब्दी... लेकिन
लोग यह जान लें
कि मैं मरा नहीं हूँ...
कि मेरे होठों पर चाँद की अमरता है,
कि मैं पछुआ हवाओं का अजीज दोस्त हूँ...
...कि,
कि... मैं अपने ही आँसुओं की
घनी छाँह हूँ...।'

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न चूम सकूँ, न प्यार कर सकूँ,
तुम्हारी तस्वीर को
पर मेरे उस शहर में तुम रहती हो
रक्त-माँस समेत
और तुम्हारा सुर्ख़ मूँ,
वो जो मुझे निषिद्ध शहद,
तुम्हारी वो बड़ी बड़ी आँखें सचमुच हैं
और बेताब भँवर जैसा तुम्हारा समर्पण,
तुम्हारा गोरापन मैं छू तक नहीं सकता!

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एक दिन माँ कुदरत कहेगी,
"अब चलो ...
अब और न हँसी, न आँसू,
मेरे बच्चे ..."
और अन्तहीन एक बार
और ये शुरू होगी
ज़िन्दगी जो न देखे, न बोले,
और न सोचा करे।

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मुझे बीते दिनों की याद नहीं आती
-सिवा गर्मी की वो रात.
और आख़िरी कौंध भी मेरी आंखों की
तुम को बतलाएगी
आने वाले दिनों की बात।

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हल्‍की हरी हैं मेरी महबूबा की आँखें
हरी, जैसे अभी-अभी सींचा हुआ
तारपीन का रेश्‍मी दरख़्त
हरी, जैसे सोने के पत्‍तर पर
हरी मीनाकारी।
ये कैसा माजरा, बिरादरान,
कि नौ सालों के दौरान
एक बार भी उसके हाथ
मेरे हाथों से नहीं छुए।
मैं यहाँ बूढ़ा हुआ, वह वहाँ।
मेरी दुख़्तार-बीवी
तुम्‍हारी गर्दन पर अब सलवटें उभर रहीं हैं।
सलवटों का उभरना
इस तरह नामुमकिन है हमारे लिए
बूढ़ा होना।
जिस्‍म की बोटियों के ढीले पड़ने को
कोई और नाम दिया जाना चाहिए,
उम्र का बढ़ना बूढ़ा होना
उन लोगों का मर्ज़ है
जो इश्‍क नहीं कर सकते।

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तुम्‍हारे हाथ
पत्‍थरों जैसे मज़बूत
जेलख़ाने की धुनों जैसे उदास
बोझा खींचने वाले जानवरों जैसे भारी-भरकम
तुम्‍हारे हाथ जैसे भूखे बच्‍चों के तमतमाए चेहरे
तुम्‍हारे हाथ
शहद की मक्खियों जैसे मेहनती और निपुण
दूध भरी छातियों जैसे भारी
कुदरत जैसे दिलेर तुम्‍हारे हाथ,
तुम्‍हारे हाथ खुरदरी चमड़ी के नीचे छिपाए अपनी
दोस्‍ताना कोमलता।
दुनिया गाय-बैलों के सींगों पर नहीं टिकी है
दुनिया को ढोते हैं तुम्‍हारे हाथ।

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अगर मेरे दिल का आधा हिस्सा यहाँ है डाक्टर,
तो चीन में है बाक़ी का आधा
उस फौज के साथ
जो पीली नदी की तरफ बढ़ रही है..
और हर सुबह, डाक्टर
जब उगता है सूरज
यूनान में गोली मार दी जाती है मेरे दिल पर .
और हर रात को डाक्टर
जब नींद में होते हैं कैदी और सुनसान होता है अस्पताल,
रुक जाती है मेरे दिल की धड़कन
इस्ताम्बुल के एक उजड़े पुराने मकान में.
और फिर दस सालों के बाद
अपनी मुफलिस कौम को देने की खातिर
सिर्फ ये सेब बचा है मेरे हाथों में डाक्टर
एक सुर्ख़ सेब :
मेरा दिल.
और यही है वजह डाक्टर
दिल के इस नाकाबिलेबर्दाश्त दर्द की --
न तो निकोटीन, न तो कैद
और न ही नसों में कोई जमाव.
कैदखाने के सींखचों से देखता हूँ मैं रात को,
और छाती पर लदे इस बोझ के बावजूद
धड़कता है मेरा दिल सबसे दूर के सितारों के साथ.

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चेरी की एक टहनी
एक ही तूफ़ान में दो बार नहीं हिलती
वृक्षों पर पक्षियों का मधुर कलरव है
टहनियाँ उड़ना चाहती हैं।
यह खिड़की बन्द है:
एक झटके में खोलनी होगी।
मैं बहुत चाहता हूँ तुम्हें
तुम्हारी तरह रमणीय हो यह जीवन
मेरे साथी, ठीक मेरी प्रियतमा की तरह ...
मैं जानता हूँ
दुःख की टहनी उजड़ी नहीं है आज भी --
एक दिन उजड़ेगी।

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कल रात मैंने सपने में तुम्हें देखा
सिर ऊँचा किए
धूसर आँखों से तुम देख रही हो मुझे
तुम्हारे गीले होंठ काँप रहे हैं
लेकिन कहाँ! तुम्हारी आवाज़
तो मुझे सुनाई नहीं दी!
काली अँधेरी रात में
कहीं ख़ुशी की ख़बर-जैसी
घड़ी की टिकटिक आवाज़...
हवा में फुसफुसा रहा है महाकाल
मेरे कैनरी के लाल पिंजरे में
गीत की एक कली,
हल से जोती गई ज़मीन पर
मिट्टी का सीना फोड़कर निकलते अंकुर की
दूर से आती आवाज़,
और एक महिमान्वित जनता के
वज्रकंठ से उच्चरित
न्याय अधिकार।
तुम्हारी गीले होंठ काँप रहे हैं
लेकिन कहाँ! तुम्हारी आवाज़
तो मुझे सुनाई नहीं दी!
उम्मीदों के टूटने का अभिशाप लिए
मैं जाग उठा हूँ, सो गया था
किताब पर चेहरा रखकर।
इतनी सारी आवाज़ों के बीच
तुम्हारी आवाज़ भी क्या मुझे सुनाई नहीं दी?

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दरवाज़े पर मैं आपके
दस्तक दे रही हूँ।
कितने ही द्वार खटखटाए हैं मैंने
किन्तु देख सकता है कौन मुझे
मरे हुओं को कोई कैसे देख सकता है।
मैं मरी हिरोशिमा में
दस वर्ष पहले
मैं थी सात बरस की
आज भी हूँ सात बरस की
मरे हुए बच्चों की आयु नहीं बढ़ती।
पहले मेरे बाल झुलसे
फिर मेरी आँखे भस्मीभूत हुईं
राख की ढेरी बन गई मैं
हवा जिसे फूँक मार उड़ा देती है।
अपने लिए मेरी कोई कामना नहीं
मैं जो राख हो चुकी हूँ
जो मीठा तक नहीं खा सकती।
मैं आपके दरवाज़ों पर
दस्तक दे रही हूँ
मुझे आपके हस्ताक्षर लेने हैं
ओ मेरे चाचा ! ताऊ!
ओ मेरी चाची ! ताई!
ताकि फिर बच्चे इस तरह न जलें
ताकि फिर वे कुछ मीठा खा सकें।

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सबसे सुन्दर है जो समुद्र
हमने आज तक उसे नहीं देखा,
सबसे सुन्दर है जो शिशु
वह आज तक बड़ा नहीं हो सका है,
हमें आज तक नहीं मिल सके हैं
हमारे सबसे सुन्दर दिन,
मधुरतम जो बातें मैं कहना चाहता हूँ
आज तक नहीं कह सका हूँ।

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