Friday 28 February 2014

श्रीकृष्ण तिवारी


जबतक यह शीशे का घर है , तबतक ही पत्थर का डर है ।
हर आंगन का जलना जंगल है; दरवाजे सापों का पहरा,
झरती रौशनीओ में अभी लगता कहीं अँधेरा ठहरा।
जबतक यह बालू का घर है, तबतक ही लहरो का डर है ।
हर खूंटी पर टंगा हुआ है; जख़्म भरे मौसम का चेहरा,
शोर सड़क पर थमा हुआ है; गलियों में सन्नाटा गहरा ।
जबतक यह काजल का घर है, तबतक ही दर्पण का डर है ।
 हर क्षण धरती टूट रही है जर्रा जर्रा पिघल रहा है,
चाँद सूरज को कोई अजगर धीरे धीरे निगल रहा है ।
जबतक यह बारूदी घर है, तबतक चिंगारी का डर है ।

No comments:

Post a Comment