Saturday 15 February 2014

बहुत बोलता हूँ मैं / महमूद दरवेश



बहुत बोलता हूँ मैं
स्त्रियों और वृक्षों के बीच के सूक्ष्म भेदों के बारे में
धरती के सम्मोहन के बारे में
और ऐसे देश के बारे में
नहीं है जिसकी अपनी मोहर पासपोर्ट पर लगने को।
पूछता हूँ : भद्र जनों और देवियों!
क्या यह सच है- जैसाकि आप कह रहे है-
कि यह धरती है सम्पूर्ण मानव-जाति के लिए ?
यदि सचमुच ऐसा है
तो कहाँ है मेरा घर-
मेहरबानी कर मुझे मेरा ठिकाना तो बता दें आप !
सम्मेलन में शामिल सब लोग
अनवरत करतल-ध्वनि करते रहे अगले तीन मिनट तक-
आज़ादी और पहचान के बहुमूल्य तीन मिनट!
फिर सम्मेलन मुहर लगाता है लौट कर अपने घर जाने के हमारे अधिकार पर
जैसे चूजों और घोड़ों का अधिकार है
शिला से निर्मित स्वप्न में लौट जाने का।
मैं वहाँ उपस्थित सभी लोगों से मिलाते हुए हाथ
एक-एक करके
झुक कर सलाम करते हुए सबको-
फिर शुरु कर देता हूँ अपनी यात्रा
जहाँ देना है नया व्याख्यान
कि क्या होता है अंतर बरसात और मृग-मरीचिका के बीच
वहाँ भी पूछता हूं : भद्र जनों और देवियों!
क्या यह सच है- जैसा आप कह रहे हैं-
कि यह धरती है सम्पूर्ण मानव-जाति के लिए?


जुलूस में घायलों की कविता / हीरेन भट्टाचार्य

मैंने ही जलाई है यह आग
जानता हूँ माँ, इस आग की लपट में
तुम्हारे रुग्ण चेहरे पर उद्भासित
हो उठेगा पृथ्वी का अद्वितीय रूप
इसीलिए, मैंने ही जलाई है यह आग।
दिन और दिन लगातार, रात की समाप्ति पर
भोर की शीतल हवा से
कितनी आनन्दित होती है मुझे प्यार कर
माँ, मैं नहीं जानता! निष्ठुर, क्षमा कर
मुझे मत छेड़ो! तुम्हारे लिए ही माँ
बहुत अर्पित किया है प्रियजनों के हृदय का रक्त
इस बार है मेरा मन्त्रपूत शरीर!
जन्म का ऋण चुकाने को, आनन्द में
मैं हू आज अधीर।
इसीलिए, मैंने ही जलाई है आग।

वंशी का स्वर / हीरेन भट्टाचार्य

अन्धेरे में चलते-चलते
सहसा सुनाई पड़ा
उजाले का शंख-निनाद।
वज्र के लिए सहेजी हुई मेरी हड्डियों में
बज उठी वंशी की तान
मेरे रक्त, मेरी हड्डियों के बीच
इतने दिन वंशी छिपी हुई थी
उस पर छितरा रखा था
समय के शुष्क पत्तों को।
कितने हटाया उन पत्तों को?
किसका है वह कोमल हाथ!


नींद में भी / सनन्त तांती

नींद में भी कभी बारिश होती है।
भिगो देती है मेरी हृदय की माटी कभी उर्वर सीने में
उगते हैं सपनों के उद्भिद।
बारिश उनके लिए यत्न करती है
लहू से भर देती रक्त कर्णिका की नदियों को।
नींद में भी कभी गुलाब खिलते हैं आँखों में।
प्रेम रहता है मेरे जागरण तक।


दुख / निर्मल प्रभा बोरदोलोई

शरद ऋतु में
खेतों से उठने वाली गंध
जैसे तैसे चलकर
जब पहुँचती है नथुनों तक
तो पा लेती हूँ मैं अपने पिता को।
जब भी अनुभव करती हूँ
किसी दुकान से लाए गए
टटके तह खुले 'गामोशा' की गमक
तो जैसे वापस मिल जाती है माँ।
कहाँ रख जाऊँगी मैं
स्वयं को
ओह कहाँ?
अपने बच्चों के लिए?

इच्छा / निर्मल प्रभा बोरदोलोई

अपने अंतस में बचाए रक्खो
जंगल का एक अंश
ताकि मिल सके
जुड़ाने भर को तुम्हें थोड़ी-सी छाँह।
अपने अंतस में बचाए रक्खो
मुट्ठी भर आकाश
ताकि पाखियों के एक जोड़े को
मिल सके उड़ान भरने के लिए एकांत।

माँ / गुरप्रीत

मैं माँ को प्यार करता हूँ
इसलिए नहीं
कि जन्म दिया है
उसने मुझे।
मैं माँ को प्यार करता हूँ
इसलिए नहीं
कि पाला-पोसा है
उसने मुझे।
मैं माँ को प्यार करता हूँ
इसलिए
कि उससे
अपने दिल की बात कहने के लिए
मुझे शब्दों की ज़रूरत नहीं पड़ती।

चिट्ठियों से भरा झोला / गुरप्रीत

कविता आई सुबह-सुबह
जागा नहीं था मैं अभी
सिरहाने रख गई- ‘उत्साह’।
उठा जब
दौड़कर मिला मुझे ‘उत्साह’
कविता की चिट्ठियों से भरा झोला थमाने।
एक चिट्ठी
मैंने अपनी बच्ची को दी
‘पढ़ती जाना स्कूल तक
मन लगा रहेगा…’
एक चिट्ठी बेटे को दी
कि दे देना अपने अध्यापक को
वे तुझसे बच्चा बन कर मिलेंगे...
चिट्ठी एक कविता की
मैंने पकड़ाई पत्नी को
गूंध दी उसने आटे में।
पिता इसी चिट्ठी से
आज किसी घर की
छत डाल कर आए हैं!
नहीं दी चिट्ठी मैंने माँ को
वह तो खुद एक चिट्ठी है!

नदी की हवा / नवनीता देवसेन

अंधेरे में हो रही थी बारिश
परछाई नाच रही थी गाड़ी के काँच पर
अचानक नदी की हवा ने छू लिया था
अजानी बिजली काँप उठी थी मन में
बहुत-बहुत दूर था घर
डामर की सड़क बारिश में भीगी नदी थी
अनुत्तरित अन्तहीन थे कगार
निरवधि झरता रहा था अंधेरा
बार-बार बातों की तलाश में भटक कर
थके अंग, आग, सफ़ेद धुआँ
मिट्टी कीचड़ और घास के गीलेपन को छूती
खिड़की से उड़कर आई थी गंध
असफल समारोह में नाच रही है बारिश
संसार को चीर देते हैं बिजली के फलक
घंटा बज उठता है वाक्यहीन देह में
और अंधेरे की यह अंतहीन यात्रा...
और उस यात्रा के रुकते ही
पंख पसार कर उड़ चला है अंधेरा
सूर्य-बिंधे धू-धू करते रेतीले तटों पर
नदी की हवा सूखी पीली घास पर
रोती रहती है।

लड़की / नवनीता देवसेन

लड़की,
दुःख ने उस पर धावा बोला था
भागती-भागती लड़की और क्या करती?
उसने हाथ की कंघी ही
दुःख को फेंक कर दे मारी -
और तुरंत ही
कंघी के सैकड़ों दाँतों से
उग आए हज़ार-हज़ार पेड़
हिंसक पशुओं से भरा जंगल
शेर की दहाड़ और डरावने अंधेरे में
कहीं खो गया।
दुःख,
डर ने उस पर धावा बोला था
भागती-भागती लड़की और क्या करती?
उसने हाथ की छोटी-सी इत्र की शीशी ही
डर को फेंक कर दे मारी -
और तुरंत ही वह इत्र
बदल गया फेनिल चक्रवात में
तेज़ गर्जन में
कई योजन तक व्याप्त
हिंसक गेरुई धारा में
कहीं बहा ले गया।
डर,
प्रेम ने जिस दिन उस पर धावा बोला
लड़की के हाथों में कुछ भी नहीं था
भागती-भागती क्या करती वह?
आखि़र में सीने में से हृदय को ही उखाड़ कर
उसने प्रेम की ओर उछाल दिया,
और तुरंत ही
वही एक मुट्ठी हृदय।
काले पर्वत की श्रेणियाँ बन कर
सिर उठाने लगे,
झरनों, गुफाओं, चढ़ाई, उतराई में
रहस्यमय
उसकी खाइयों उपत्यकाओं में
प्रतिध्वनि काँप रही है।
तूफ़ानी हवाओं की, झरनों की,
उसकी ढलान पर छाया,
और शिखर पर झिलमिला रहे हैं
चंद्र सूर्य,
उसी झलमल भारी हृदय ने ही शायद
उसकी प्रेमिका के भयभीत प्रेम को
बढ़ने नहीं दिया था,
ओह!
इस बार थकन ने उस पर धावा बोला है
ख़ाली है उसके हाथ, ख़ाली है सीना
भागती-भागती क्या करती वह?
इस बार लड़की ने पीछे की ओर
फेंक कर मारी सिर्फ़ गहरी सांसें -
और तुरंत ही
उन साँसों के गर्म प्रवाह से
जल उठा उसका समूचा अतीत
दशों दिशाओं में बिखर गए
उड़ते जलते रेगिस्तान
अब वह लड़की निश्चिंत होकर भाग रही है
सिर के ऊपर उठा रखे हैं दोनों हाथ,
ख़ैर,
इस बार उसकी मंज़िल ने ही
उस पर धावा बोला है।



मेरे शब्द / महमूद दरवेश

जब मिट्टी थे मेरे शब्द
मेरी दोस्ती थी गेहूँ की बालियों से
जब क्रोध थे मेरे शब्द
ज़ंजीरों से दोस्ती थी मेरी
जब पत्थर थे मेरे शब्द
मैं लहरों का दोस्त हुआ
जब विद्रोही हुए मेरे शब्द
भूचालों से दोस्ती हुई मेरी
जब कड़वे सेब बने मेरे शब्द
मैं आशावादियों का दोस्त हुआ
पर जब शहद बन गए मेरे शब्द
मक्खियों ने मेरे होंठ घेर लिए।


No comments:

Post a Comment