Friday 28 February 2014

अकबर इलाहाबादी

समझे वही इसको, जो हो दीवाना किसी का, 'अकबर' ये ग़ज़ल मेरी है अफ़साना किसी का।
गर शैख़-ओ-बहरमन सुनें अफ़साना किसी का, माबद न रहे काबा-ओ-बुतख़ाना किसी का।
अल्लाह ने दी है जो तुम्हे चाँद-सी सूरत रौशन भी करो जाके सियहख़ाना किसी का।
अश्क आँखों में आ जाएँ एवज़ नींद के साहब ऐसा भी किसी शब सुनो अफ़साना किसी का।
इशरत जो नहीं आती मेरे दिल में, न आए हसरत ही से आबाद है वीराना किसी का।
करने जो नहीं देते बयां हालत-ए-दिल को सुनिएगा लब-ए-ग़ौर से अफ़साना किसी का।
कोई न हुआ रूह का साथी दम-ए-आख़िर काम आया न इस वक़्त में याराना किसी का।
हम जान से बेज़ार रहा करते हैं 'अकबर' जब से दिल-ए-बेताब है दीवाना किसी का।

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