Wednesday 19 March 2014

समकालीन शब्द-समय के जादूगर रामाज्ञा शशिधर की पंक्तियां...

इस बुरे समय में देर-अबेर आती है नींद
नींद के साथ ही शुरू होता है सपना
सपने में पृथ्वी आती है नाचती नहीं
कोयल आती है कूकती नहीं
गौरैया आती है, चुग्गा नहीं चुगती
बादल आते हैं बरसते नहीं
फूलों से नहीं बतियाती हैं तितलियां
हवा से दूर भागती है गंध।
सपने में गुर्राया है शैतान
जो नग्न मूर्तियों को
अक्षत और ऋचाओं से
जगाने की चेष्टा करता है
मूर्तियां सुगबुगाती हैं
फिर मूच्र्छित हो जाती हैं
सपने में एक सांड आता है
जो मेरी सब्जियों की बाड़ी चर जाता है।

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निकल रही निर्लज्ज वासना फाड़-चीरकर नया लंगोटा
संसद में सबसे ऊपर है किसका मोटा किसका छोटा
काशी के विधवा पल्लू में रामराज्य का चमके गोटा
कब तक पार्वती खाएगी, नोंच-नोंचकर तेलछन झोंटा।
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भूख
मेरे लिए उस प्रेमिका की तरह है
जो बिना मिले
किसी दिन रह नहीं पाती है
इतनी दिलकश है कि हर चौथे घंटे
तन बदन में आग लगा जाती है।
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खेत से आते हैं फांसी के धागे
खेत से आती है सल्फास की टिकिया
खेत से आते हैं श्रद्धांजलि के फूल
खेत से आता है सफेद कफन
खेत से सिर्फ रोटी नहीं आती।
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संसार का सबसे बड़ा श्मशान
धूसर सलेटी काला
संसार का सबसे बड़ा कफन
मुलायम सफेद आरामदेह
मणिकर्णिके
तुमने विदर्भ नहीं देखा है।
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यदि मैं रोटी हूं
किसी सर्वोदय, अंत्योदय लाल कार्ड की मार्फत
कभी नहीं पहुंचूंगी आपकी थाली-छिपली में
मुझे पाना है तो जमीन पर खींचिए
अपनी भूख की माप से विशाल वृत्त
उस पर लिखिए ‘व्यवस्था’
और एक अनंत छोर वाली मजबूत कील
ठोक दीजिए।
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एक बिल्ली आती है
जो मुंडेर पर सहमे
सारे कबूतरों को खा जाती है
एक पिशाच आता है
जो मेरे छप्पर पर
खोपडिय़ा और अस्थियां खाता है
रात चलती है चांद की लाश कंधे पर उठाए।
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हमारा समय नायक विहीन हो गया है
जिसमें कोई यह कहने वाला नहीं
कि जितना बड़ा है
उनके लालच और लालसा का संसार
उससे कहीं बड़ी है/हमारी भूख की दुनिया।
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मैं रेशम का कीड़ा होता
तो
पहले खाता फिर कमाता
आदमी होता
तो
पहले कमाता फिर खाता
आप ही बताइए
मैं कौन सी प्रजाति हूं
पहले और बाद में केवल कमाता हूं
कब्र की मिट्टी के अलावा
कुछ नहीं खाता हूं।
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‘तुम भाषा में
आग इस तरह लाओ
जैसे वे लाते हैं
संधिपत्र’
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वे बुद्धिजीवी हैं
इसलिए अपने परिवेश से नाराज हैं
वे जिस सड़क पर चलते हैं
उसे जी-भर गलियाते हैं।
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हम दिल्ली के सबल सिपाही
गीत गजल पर शासन अपना
आई टी ओं में भाषण अपना
अकादमियों से राशन
रामराज्य तक आवाजाही!
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यह सिद्धों का नहीं
सिद्धहस्तों की कला का समय है।
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घर में जंजीरें जगती थीं
भागे गाँव की ओर
गाँव में कुल्हाड़ियां रहती थीं
भागकर शहर गए
शहर में डंडे थे झंडे थे
शोर था जेल थी
अब हम किधर जाएं
साथी
जाना तो चांद पर चाहते थे
सपनों का चान्द
सपने जैसा चांद
आखिरी वह भी हो गया नीलाम

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सांडो भैंसों नीलगायों से बचते हुए
सियारों, लोमड़ियों, कीड़ों से छुपते हुए
सरपत के टाटों के बीच
रेत पर फैल रही है खरबूजों की लतर
फैलने दो अपना प्यार
जड़ों में नमी भरकर नदी सुख पाती है
फागुन में हम जितना करेंगे प्यार
चैत में उतने ही होंगे खरबूजे बेमिसाल
दुनिया को पता कहाँ
कि खरबूजे हमारे प्यार से रंग पाते हैं
वे हमीं से रंग चुराते हैं।



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