Monday 3 March 2014

जयप्रकाश त्रिपाठी

कैसे-कैसे मंजर देखा, बहुमंजिले खंडहर देखा,
सूखा हुआ समंदर मैंने बच्चों की कश्ती पर देखा,
कभी निवाले, कभी खिलौने लुटते हुए दर-ब-दर देखा,
मुद्दत से खामोश रसोई, खाली पड़े कनश्तर देखा,
अपनी तहकीकात के लिए जब भी उलट-पुलट कर देखा,
दौलत के पिछवाड़े खुद को खून-पसीने से तर देखा,
आजिज आये नौनिहाल के भी हाथों में पत्थर देखा...
सूखा हुआ समंदर मैंने बच्चों की कश्ती पर देखा,

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