Thursday 6 March 2014

चुनाव...एक बार और पंचसाला ऐसीतैसी

चुनाव आ रहा था। कुटुर-कुटुर। पटर-पटर। लो, आ गया। ..और अब होने जा रहा है। यानी हम सब की एक बार और होने जा रही है!..खूब ठीक से ऐसी-तैसी...
उनके लिए, जो आजादी के बाद से लगातार हमे आलू की तरह खोद खोद कर भून-भकोस रहे हैं और हम 'महंगाई माई' की गीत-गवनई टेरने के बाद अचानक दार्शनिक हो ही चुके होंगे...
जैसेकि लोकतंत्र का सारा मर्म, भारतीय राजनीति के सारे चकत्ती-चकत्ते,  सिर्फ हमे ही मालूम हों, हमारे ही विवेक से देश के ज्ञान का अंग-भंग होता आ रहा हो आज तक। हम ही विदुर, हम ही चाणक्य, एकोहम, द्वितीयो नास्ति...
और, जहां भी होंगे, अरस्तू-प्लेटो की मुद्रा में समझाने में जुट जाएंगे कि किसे वोट देना है, किसे नहीं, कौन जीत रहा है, कौन हार रहा है और क्यों...
खास तौर से ऐसे मौकों पर बड़ा मजा आता है न मन के इस तरह बेलगाम हो जाने में...!
चुनाव घोषित हुआ नहीं कि कच्छा-बनियान में ही तीर-धनुष तान कर तुर्रा सिंह हो लिये झट्ट से, पट्ट से...
और ले तेरे की, दे तेरे की शुरू...
मसलन, केजरीवाल तो गये काम से।
क्यों??
अरे ऊ आशुतोष महाराज, जो दिल्ली में भाजपा दफ्तरवा की चारदीवारी फांद रहे थे, इसलिए न...
...ऐं, चारदीवारी फांद रहे थे, क्यों?...
पता नहीं यार, किनारे हटो, कुछ मोदी-राहुल पर भी कलक्टरी झाड़ने दोगे कि नहीं, लगे गोले दागने...क्यूं-क्यों-क्यौं...! हटो उधर...
अरे हाऊ देखो, लाइव आ रहा है एनडीटीवी पर। रवीश भैया कैसे मुसकरा रहे हैं, बड़ा अच्छा बोलते हैं न...
चिंतक के मर्म पर मार पड़ी। हट ही लेते हैं यहां से...
चलते हैं लायब्रेरी वाले शर्मा जी के यहां, ई बकलोल सब का जाने चुनाव-सुनाव का कमीनपन....

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