Thursday 6 March 2014

मेरा पता / पूर्णिमा वर्मन

सुबह से शाम से पूछो
नगर से गाम से पूछो
तुम्हें मेरा पता देंगे

कि इतना भी कहीं बेनाम
अपना नाम तो नहीं
अगर कोई ढूंढना चाहे तो
मुश्किल काम भी नहीं

कि अब तो बादलों को भी पता है
नाम हर घर का
सफ़ों पर हर जगह टंकित हुआ है
हर गली हल्का

कि अब दुनिया सिमट कर
खिड़कियों में बंद साँकल-सी
ज़रा पर्दा हिला और खुल गई
एक मंद आहट-सी

सुगढ़ दीवार से पूछो
खिड़कियों द्वार से पूछो
तुम्हें मेरा पता देंगे

ये माना लोग आपस में
ज़रा अब बोलते कम हैं
दिलों के राज़ भी आँखों में भर कर
खोलते कम हैं

ज़िंदगी भीड़ है हर ओर
आती और जाती-सी
खुदाया भीड़ में हर ओर
छाई है उदासी-सी
मगर तुम बात कर पाओ
तो कोई तो रुकेगा ही
पकड़ कर हाथ बैठा लो
तो घुटनों से झुकेगा ही

हाथ में हाथ ले पूछो
मोड़ के गाछ से पूछो
तुम्हें मेरा पता देंगे

फिज़ाँ में अब तलक अपनों की
हल्की-सी हवा तो है
नहीं मंज़िल पता पर साथ
अपने कारवाँ तो है

वनस्पति में हरापन आज भी
मन को हरा करता
कि नभ भी लाल पीला रूप
दोनों वक्त है धरता

कि मौसम वक्त आने पर
बदलते हैं समय से ही
ज़रा-सा धैर्य हो मन में
तो बनते हैं बिगड़ते भी

धैर्य धर आस से पूछो
मधुर बातास से पूछो
तुम्हें मेरा पता देंगे

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