Friday 29 August 2014

बाबा नागार्जुन की कनपकड़ी


अछूत की शिकायत / हीरा डोम

यह कविता महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित ‘सरस्वती’ (सितंबर 1914, भाग 15, खंड 2, पृष्ठ संख्या 512-513) में प्रकाशित हुई थी......
हमनी के राति दिन दुखवा भोगत बानी
हमनी के सहेब से मिनती सुनाइबि।
हमनी के दुख भगवानओं न देखता ते,
हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि।
पदरी सहेब के कचहरी में जाइबिजां,
बेधरम होके रंगरेज बानि जाइबिजां,
हाय राम! धरम न छोड़त बनत बा जे,
बे-धरम होके कैसे मुँहवा दिखइबि ।।१।।

खंभवा के फारी पहलाद के बंचवले।
ग्राह के मुँह से गजराज के बचवले।
धोतीं जुरजोधना कै भइया छोरत रहै,
परगट होके तहाँ कपड़ा बढ़वले।
मरले रवनवाँ कै पलले भभिखना के,
कानी उँगुरी पै धैके पथरा उठले।
कहवाँ सुतल बाटे सुनत न बाटे अब।
डोम तानि हमनी क छुए से डेराले ।।२।।

हमनी के राति दिन मेहत करीजां,
दुइगो रूपयावा दरमहा में पाइबि।
ठाकुरे के सुखसेत घर में सुलत बानीं,
हमनी के जोति-जोति खेतिया कमाइबि।
हकिमे के लसकरि उतरल बानीं।
जेत उहओं बेगारीया में पकरल जाइबि।
मुँह बान्हि ऐसन नौकरिया करत बानीं,
ई कुल खबरी सरकार के सुनाइबि ।।३।।

बभने के लेखे हम भिखिया न माँगबजां,
ठकुर क लेखे नहिं लउरि चलाइबि।
सहुआ के लेखे नहि डांड़ी हम जोरबजां,
अहिरा के लेखे न कबित्त हम जोरजां,
पबड़ी न बनि के कचहरी में जाइबि ।।४।।

अपने पहसनवा कै पइसा कमादबजां,
घर भर मिलि जुलि बाँटि-चोंटि खाइबि।
हड़वा मसुदया कै देहियाँ बभनओं कै बानीं,
ओकरा कै घरे पुजवा होखत बाजे,
ओकरै इलकवा भदलैं जिजमानी।
सगरै इलकवा भइलैं जिजमानी।
हमनी क इनरा के निगिचे न जाइलेजां,
पांके से पिटि-पिटि हाथ गोड़ तुरि दैलैं,
हमने के एतनी काही के हलकानी ।।५।।
(हिंदी समय से साभार)

हम ठहरे गाँव के / देवेंद्र कुमार बंगाली

हम ठहरे गाँव के
बोझ हुए रिश्‍ते सब
कंधों के, पाँव के।

भेद-भाव सन्‍नाटा
ये साही का काँटा
सीने के घाव हुए
सिलसिले अभाव के!

सुनती हो तुम रूबी
एक नाव फिर डूबी
ढूँढ़ लिए नदियों ने
रास्‍ते बचाव के।

सीना, गोड़ी, टाँगें
माँगें तो क्‍या माँगें
बकरी के मोल बिके
बच्‍चे उमराव के।

एक पेड़ चाँदनी / देवेंद्र कुमार बंगाली

एक पेड़ चाँदनी
लगाया है
      आँगने,
फूले तो
आ जाना एक फूल
माँगने।

ढिबरी की लौ
जैसे लीक चली आ रही
बादल रोता है
बिजली शरमा रही
      मेरा घर
छाया है
तेरे सुहाग ने।

तन कातिक, मन अगहन
बार-बार हो रहा
मुझमें तेरा कुआर
जैसे कुछ बो रहा
रहने दो,
यह हिसाब
कर लेना बाद में।

नदी, झील, सागर के
रिश्‍ते मत जोड़ना
लहरों को आता है
यहाँ-वहाँ छोड़ना
      मुझको
पहुँचाया है
तुम तक अनुराग ने।

एक पेड़ चाँदनी
लगाया है
      आँगने।
फूले तो
आ जाना एक फूल
माँगने।

NDA सरकार के साथ डिफेंस डील कराने के लिए कौन सा पत्रकार कर रहा है कंपनियों से वादा...

http://www.samachar4media.com/which-journalist-is-making-promises-to-eurofighter-to-make-deal.html
अब केंद्र की बीजेपी सरकार पर भी पत्रकारों के सहारे विदेशी कंपनियों से डील करने के आरोप लगने लगे हैं। अभी तो इसका संकेत भर किया गया है। देखते हैं आगे होता है क्या। दिल्ली में कांग्रेस की सरकार के दौरान पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का राजनीतिक सचिव रहे पवन खेड़ा ने कुछ ट्वीट कर बताया है कि एक अंग्रेजी दैनिक के पत्रकार ने एक विदेशी कंपनी यूरोफाइटर से वादा किया है कि वे कई मिलियन के एमएमआरसीए(Medium Multi-Role Combat Aircraft ) सौदा उसके पक्ष में करवा देगा। खेड़ा ने अपने अगले ट्वीट में बताया है कि यह कथित पत्रकार बीजेपी के एक नेता के काफी करीबी है और वह उनके साथ कई बार यात्राएं भी कर चुका है। पवन खेड़ा ने संदेह जताते हुए कहा है कि हो सकता है कि इस कथित पत्रकार की हैसियत केंद्र सरकार के फैसले को प्रभावित करने वाली नहीं हो लेकिन हां बीजेपी में वह अपनी पहुंच के चलते तमाम सूचनाएं पाने की हैसियत जरूर रखता है। खेड़ा ने अपने ट्वीट में कहा है कि यह पत्रकार कई दूसरी कंपनियों के संपर्क में है और सबसे उसके पक्ष में सौदा कराने का वादा कर रहा है। उन्होंने ट्वीट कर बीजेपी पर एक और वार किया है।उन्होंने सवाल पूछते कहा है कि अगर पवन बंसल के भतीजे पर भ्रष्टाचार का आरोप लगता है तो पवन बंसल को इस्तीफा देना पड़ जाता है। लेकिन अगर रेलमंत्री सदानंद गौड़ा के बेटे पर रेप जैसा आरोप लगता है तो फिर वह व्यक्तिगत मामला कैसे हो सकता है? खेड़ा का कहना है कि बीजेपी सरकार में इस प्रकार की घटना होने पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंक जिस पार्टी का अध्यक्ष अमित शाह जैसे व्यक्ति हों उस पार्टी के लिए तो इस प्रकार की हरकत एक अनिवार्य योग्यता के रूप में आंकी जाएगी।

पत्रकारिता के शून्य से शिखर तक का सफर बताती है 'मीडिया हूं मैं'

http://www.haribhoomi.com/news/12874-book-review-of-jai-prakash-tripathi-media-hoon-main.html#ad-image-0
वरिष्ठ पत्रकार-कवि जयप्रकाश त्रिपाठी की पुस्तक ‘मीडिया हूं मैं’ पत्रकारिता के शून्य से शुरु होकर उसके शिखर तक का सफर तय करती है। इसमें पत्रकारिता के हर पहलू को बड़ी ही बेबाकी से परखा गया है। करीब साढ़े पांच सौ पन्नों की किताब आप एक बार शुरू करते हैं तो जानकारियों को समेटे, और दिलचस्प लेखन शैली की वजह से यह आपको आखिर तक बांधे रखती है। किताब की शुरुआत भारतीय पत्रकारिता को मिथकीय घटनाओं से जोड़ने की कोशिश से होती है जैसे- नारद पहले पत्रकार थे या महाभारत की घटनाओं में पत्रकारिता तलाशना आदि। यह कहावतें भारतीय पत्रकारिता में लंबे समय से प्रचलित हैं लेकिन इनसे बचा भी जा सकता था।
लेखक दर्ज करते हैं, महाभारत को हिंदू धर्म का बड़ा ग्रंथ माना जाता है। किसी विद्वान ने सुभाष चन्द्र बोस को कर्ण, महात्मा गांधी को कृष्ण, जवाहर लाल नेहरु को अर्जुन और भगत सिंह को एकलव्य का दर्जा दिया था। जयप्रकाश नारायण ने महाभारत पढ़कर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार, स्वदेशी के स्वीकार का आह्वान किया था। पत्रकारिता के लिए भी विद्वानों ने कहा कि काश पत्रकारिता भी ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ से प्रेरणा लेकर पूंजी के साम्राज्य की कामना न कर रही होती तो आज इसे कोई कॉरपोरेट मीडिया नहीं बल्कि इम्पोर्टेंट मीडिया के रुप में जानती।
यह पुस्तक यही बतलाती है कि मीडिया ने जिस संघर्ष से खुद को स्थापित किया था वह खुद को बरकरार नहीं रख सका और धन और सत्तालोलुपता के चंगुल में फंसकर एक अलग ही रास्ता अख्तियार कर लिया जो इसका कभी था ही नहीं। ‘मीडिया हूं मैं’ पुस्तक में कुल 13 अध्याय है। सभी अध्याय मीडिया को गंभीरता से परिभाषित करते हैं। पहला अध्याय पत्रकारिता के श्वेतपत्र से शुरु होता है। आज के संदर्भ में मीडिया की वास्तविकता क्या है, इसको लेखक ने उधेड़ कर रख दिया है। इस श्वेतपत्र में स्त्रियों का चीरहरण करनेवाले मीडिया के खलनायकों की घिनौनी करतूतें दर्ज हैं। इसमें अस्सी प्रतिशत देशवासियों की दुर्दशा पर चुप चौथे स्तंभ दुश्मनों का ब्यौरा है। यह अध्याय पूरे मीडिया की सच्चाई और अच्छाई का काला चिट्ठा खोलने का काम करती है।
'मीडिया और इतिहास' अध्याय में पत्रकारिता के इतिहास को बारीकियों से बतलाया गया है। किस प्रकार से मिशन पत्रकारिता के रुप में शुरु हुआ यह आंदोलन आज पतन के कगार पर खड़ा है। कितने स्वतंत्रता सेनानियों ने इसको देश और समाज के उत्थान और भलाई के लिए इस्तेमाल किया लेकिन आज यह निजी और स्वंयभू हो चुका है। समाज और लोक से रिश्ता तोड़ चुका है, पथभ्रष्ट हो चुका है। मीडिया की इस यात्रा को बड़ी ही खूबसूरती से इस पुस्तक में पिरोया गया है।
'मीडिया और अर्थशास्त्र' अध्याय में लेखक बताते हैं कि आज भारत में मनोरंजन चैनल कलर्स अपने प्रमुख रियलिटी शो 'बिग बॉस' की मार्केटिंग पर 10 करोड़ रुपए से अधिक खर्च करता है। तो सोनी इंटरटेनमेंट टेलीविजन 'इंडियन आयडल' की मार्केटिंग पर 8 करोड़ रुपए। पूरी दुनिया में सूचना संसाधनों पर एकाधिकार जमाए एक वर्ग अमीरी-गरीबी की खाई बढ़ाता जा रहा है जबकि इसका इस्तेमाल वर्गीय संस्कृतियों की भिन्नता मिटाने में होना चाहिए था। किस प्रकार से पूंजीपतियों ने मीडिया पर अपना वर्चस्व स्थापित किया है। इसमें यह जानने और समझने को मिलता है। मीडिया समाज के प्रति भी दायित्व खोता जा रहा है। खासकर दलितों के प्रति मीडिया पूर्वाग्रह का शिकार है।
राष्ट्रीय कहे जानेवाले मीडिया को दूर-दराज और दलित-आदिवासियों के दुख-दर्द की चिंता ही नहीं है। दलितों के प्रति जो व्यवहार हो रहे हैं, उसके खिलाफ स्वर उठने चाहिए। मुसलमानों के प्रति, अल्पसंख्यकों के प्रति, जो भी कुछ हो रहा है, इसके खिलाफ लामबंद होना चाहिए था। कहने को तो मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ, प्रहरी और न जाने क्या-क्या उपमाएं दी गई है लेकिन इसकी बनावट जातिवादी तथा दलितविरोधी है। किस प्रकार से उदारीकरण के दौर में सबसे ज्यादा हमला गांवों की अर्थव्यवस्था पर हुआ है, किसान पर हुआ है। किसान आंदोलन भी किसी हिंसक घटना हो जाने के बाद ही खबर बनते हैं। कर्ज से आजिज लाखों किसान आत्महत्याएं कर लेते हैं। कुछ दिन खबरें छापने के बाद मीडिया चुप हो जाता है। किसान अपने हाल पर छोड़ दिये जाते हैं। किसानों के संकट को राष्ट्रीय संकट की तरह लेने के बजाय मीडिया उसे कानून व्यवस्था के अंदाज में रेखांकित करता है। इसके साथ ही गांवों में मीडिया का प्रसार किस रुप में हुआ है। इस पर भी विस्तार से प्रकाश डाला गया है। बिहार का ‘अप्पन समाचार’, मध्यप्रदेश का ‘डापना गांव’ और झारखंड ‘बाल पत्रकार’ जैसे प्रयास काबिलेतारीफ हैं। इस तरह से मीडिया का समाज और गांव के प्रति दोहरा चरित्र सामने लाने का प्रयास लेखक ने किया है।
वहीं ‘मीडिया और स्त्री’ में भी उन्होंने बताया है कि मीडिया आज भी स्त्री को लेकर वही सोच रखता है जो सौ साल पहले थी। हर संस्थानों से महिलाओं के प्रति यौन उत्पीड़न की खबरें आती हैं। कई तो दबा दी जाती हैं। इन सब के बावजूद महिलाओं की स्थिति में सुधार आया है। निर्भया कांड में इसकी बानगी देखने को मिलती है। साथ ही कई संस्थानों में स्त्री को काफी तरजीह दी जाती है। इन सब के बावजूद स्त्री की स्थिति आज भी दयनीय बनी हुई है। यह सब मीडिया के दोहरे चरित्र के फलस्वरुप ही है। इस पुस्तक से गुजरने के दौरान के दौरान आपको मीडिया के रुप और चरित्र से दो-चार होने का मौका मिलेगा।
लेखक के मुताबिक, इस पुस्तक में तीन अहम् बिंदुओं पर विशेष फोकस किया गया है। पहला यह कि पत्रकारिता का इतिहास कैसा था और उसे किस प्रकार समृद्ध किया गया। वहीं दूसरा यह है कि वर्तमान में मीडिया का क्या स्वरुप है? इसे दो भागों में विभक्त किया गया है। पहला इसके नकारात्मक पहलू किस रुप में समाज और व्यक्ति के लिए घातक है तो इसके सकारात्मक पहलू बताते हैं कि ये किस तरह रुढ़ि और परंपरा को तोड़ने में सहायक साबित हुए है। वहीं इस पुस्तक का तीसरा बिंदु यह है कि मीडिया का विस्तार और प्रासंगिकता किस रुप में बरकरार रहे। इस ओर लेखक ने ध्यान दिलाने की कोशिश की है कि न्यू मीडिया पर अधिक जोर दिया जा रहा है। क्योंकि समय बदलने के साथ-साथ मीडिया के प्रारुप में भी बदलाव आना संभव है। इसके अलावा लेखक ने उन सभी मीडिया महारथियों के बारे में विस्तार से बताने का प्रयास किया है जिन्होंने इस क्षेत्र में अपना अतुलनीय योगदान दिया था और जो अभी भी इसमें प्रयत्नरत हैं।
इस प्रकार से जयप्रकाश त्रिपाठी की यह पुस्तक हरेक दृष्टिकोण से खरी उतरती है। यह पुस्तक न सिर्फ मीडिया के छात्रों, शोधार्थियो, मीडियाकर्मी या प्राध्यापकों के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि मीडिया के बाहर की दुनिया के लोगों के लिए भी इसे समझने में सहायक साबित होगी । इससे मीडिया के हर चरित्र और उसके स्वरुप के बारे में जाना जा सकता है। जयप्रकाश त्रिपाठी लंबे समय से इस क्षेत्र में कार्यरत हैं तभी मीडिया के हरेक पहलुओं से वाकिफ हैं। यह पुस्तक उनके पूर्ण कार्य जीवन का निचोड़ है जिससे सुधी पाठक न सिर्फ ज्ञान हासिल कर पाएंगे बल्कि उन्हें मीडिया के तहखानों के राजों की भी जानकारी मिलेगी।
पुस्तक के आखिरी अध्यायों में लेखक ने पत्रकारों के महत्वपूर्ण लेखों को दिया है जो पाठकों के साथ ही नए पत्रकारों की विषयों पर समझ बनाने में मदद करते हैं। उन्होंने मीडिया के क्षेत्र में सक्रिय पत्रकारों, लेखकों, समीक्षकों के संपर्क सूत्र दिए हैं जो इस क्षेत्र में आने वाले नए लोगों के लिए मददगार साबित हो सकते हैं। यही नहीं, इन पत्रकारों की वेबसाइट्स और ब्लॉग्स का पता भी दिया गया है, जिसमें इस क्षेत्र की हर अपडेट्स आती रहती हैं। इसके अलावा लेखक के पत्रकारीय सफर की जानकारी, 'मेरे होने का हलफनामा' के नाम से दिया गया है जो थोड़ा सा अखरता है। भारतीय पत्रकारिता ने इतिहास और वर्तमान को समेटते हुए किताब काफी भारी बन पड़ी है और इसकी कीमत भी काफी ज्यादा (पेपरबैक संस्करण- करीब- साढ़े पांच सौ रुपए) है। हालांकि लेखक का कहना है कि वह पत्रकारिता के छात्रों को इसे आधे दाम में मुहैया कराएंगे, और यही इस किताब की सार्थकता भी है। इस किताब के विस्तृत फलक को देखते हुए मीडिया संस्थानों और लाइब्रेरियों में इसे जगह मिलनी चाहिए।

Monday 25 August 2014

टीवी मीडिया पर ट्राई का पैमाना / वनिता कोहली-खांडेकर

पिछले सप्ताह भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने 'समाचार माध्यमों या मीडिया के मालिकाना हक से जुड़े मसलों' पर कुछ सिफारिशें कीं। उसने जिन मुद्दों पर चर्चा की, उनमें निजी समझौते (प्राइवेट ट्रीटी), पेड न्यूज, निजता, मीडिया संगठनों पर निगमित और राजनीतिक इकाइयों का मालिकाना हक आदि शामिल हैं। नियामक ने इन बातों को बहुलवादी, विविधतापूर्ण, तथ्यात्मक और स्वतंत्र समाचार माध्यम की राह में रोड़ा बताया है। अब ट्राई की सिफारिशों और उन्हें जारी करने के उसके अधिकार पर बहस छिड़ गई है। ट्राई के पास प्रसारण नियमन का अधिकार है और इसने भी स्वीकार किया है कि कई सिफारिशें इसके अधिकार क्षेत्र से बाहर हो सकती हैं।
मुझे लगता है कि न तो ट्राई महत्वपूर्ण है और न ही उसकी सिफारिशों का महत्व है। महत्वपूर्ण बात यह है कि एक स्वतंत्र निकाय ने कुछ मुद्दे पहचाने हैं और उन्हें सबके सामने रखा है। जिस निकाय ने ऐसा किया है, उसने भारत में केबल के नियमन का काम काफी अच्छी तरह से किया है। हालांकि भारत में समाचार माध्यम उद्योग की दुखद स्थिति देखते हुए ट्राई के सुझावों पर विचार किया जाना चाहिए। जब तक मीडिया की स्व-नियामक इकाइयां अनैतिक और खराब गतिविधियों में लिप्त समाचार पत्रों और टीवी चैनलों पर सख्ती नहीं करती हैं, तब तक सरकार के पास पहल करने और उनकी मुश्कें कसने का मौका है। सरकार को इसके लिए केवल लोगों के समर्थन की जरूरत है। किसी नरम गठबंधन सरकार के राज में स्व-नियमन की जबानी खानापूरी करना आसान है। लेकिन मीडिया पर नजर रखने वाली, बहुमत की सरकार के राज में इस रिपोर्ट को नजरअंदाज करना खुदकुशी से कम नहीं होगा।
चर्चा का विषय ऐसा ताकतवर उत्पाद है, जिसका कारोबार गैर मुनाफे वाला और दुखदायी होता है। यह मुक्त बाजार में बिना किसी संस्थागत समर्थन और वित्तीय ढांचे के चलता है। परिणामस्वरूप इसमें गलत लोग निवेश करते हैं और कारोबार को भ्रष्टाचार का हिस्सा बना देते हैं। 2003 में पहली बार टीवी मीडिया की बाढ़ आने तक भारत में समाचार माध्यम का बाजार ठहरा हुआ था। 2005 में प्रिंट मीडिया में निवेश नियमों में ढील दी गई। उसके साथ ही निजी निवेशकों की फौज इस पर टूट पड़ी, जो तेजी से विकास कर रही अर्थव्यवस्था में खबरों की भूख और उसके साथ आने वाले विज्ञापनों को लेकर पूरे जोश में थी। हालांकि 2012 तक स्पष्टï हो गया कि कुछ न कुछ गलत हो रहा है।
135 न्यूज चैनलों में एक तिहाई की कमान राजनेताओं और रियल्टी कंपनियों के हाथ में है और खबरिया चैनलों का बाजार दु:स्वप्न से कम नहीं है। देश में 60 प्रतिशत से अधिक स्थानीय केबल तंत्र पर भी राजनेताओं का कब्जा है, जो मनमाने ढंग से किसी भी चैनल का प्रसारण बंद कर देते हैं। 2009 के आम चुनावों के बाद पता लगा कि कुछ बड़े अखबारों ने किसी उम्मीदवार के बारे में खबर छापने या नहीं छापने के एवज में मोटी रकम ली। प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने इसमें लिप्त लोगों की सूची भी बना ली थी। चुनाव आयोग के मुताबिक 2014 के आम चुनावों के दौरान पेड न्यूज में खासा इजाफा दिखा।
2012 में मीडिया में कंपनियों ने बड़े निवेश किए। ए वी बिड़ला ने अरुण पुरी के इंडिया टुडे ग्रुप में 27.5 प्रतिशत हिस्सेदारी खरीद ली। मुकेश अंबानी के नियंत्रण वाले ट्रस्ट ने नेटवर्क 18 के साथ इनाडु टीवी के विलय के लिए रकम मुहैया कराई। इस साल के आरंभ में अंबानी ने नेटवर्क 18 का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया। मई 2012 में सरकार ने ट्राई को मीडिया में नियंत्रण पर नजर रखने को कहा। 2013 में जो पत्र सामने आया उनमें संबंधित पक्षों के विचार शामिल थे।
इस दो साल की प्रक्रिया से कई प्रमुख सिफरिशें सामने आई हैं। पहला है मालिकाना हक और नियंत्रण में स्पष्टï अंतर। ट्राई मानता है कि बिना बहुलांश हिस्सेदारी के भी मीडिया इकाइयों पर नियंत्रण हो सकता है। यह नियंत्रण को विस्तार से परिभाषित करता है और मीडिया की सघनता और सभी प्रकार के मीडिया पर बंदिशें लगाने के लिए वैश्विक स्तर पर मान्य हरफिंडाल हर्शमैन इंडेक्स के इस्तेमाल की सिफारिश करता है। हालांकि इनका क्रियान्वयन आसान नहीं होगा लेकिन तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे बाजार में ऐसा जरूरी है। दूसरी बात किसी न्यूज ब्रांड में शेयरधारिता के ढांचे और प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष हितों के खुलासे की अनिवार्यता।  तीसरी बात आंतरिक बहुलता से निपटने के लिए पत्र में 2008 का एक सुझाव दोहराया गया है कि राजनीतिक, सरकारी या धार्मिक इकाइयों या इनसे जुड़े लोगों को बाहर करना चाहिए।
चौथी बात यह कि पीसीआई संपादकीय मंडल में निजी समझौते या पेड न्यूज या विज्ञापन से जुड़े किसी हस्तक्षेप की मजम्मत की गई है। पांचवीं सिफारिश मीडिया को कंपनियों के नियंत्रण से मुक्त रखने की है। छठी बात, दूरदर्शन को स्वायत्त बनाया जाए ताकि यह मजबूत, स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से प्रसारण कर सके। सातवीं बात प्रिंट और टीवी के लिए मीडिया नियामक की स्थापना है। हालांकि इसमें कई खामियां हैं। इंडियन रीडरशिप सर्वे के आंकड़ों के आधार पर यह इंटरनेट को खारिज करता है। लेकिन ट्राई की वेबसाइट पर मार्च 2014 के आंकड़ों के अनुसार लगभग 32.5 करोड़ भारतीय ऑनलाइन थे, जो प्रिंट की पाठक संख्या के लगभग बराबर है। इंटरनेट को इस रिपोर्ट के बाहर नहीं रखा जा सकता है।
एक दूसरी खामी यह है कि पेपर में किसी तरह की आर्थिक समझ नहीं दशाई गई है क्योंकि एक अच्छी गुणवत्ता वाला समाचार लाने लाने में काफी रकम लगती है। विज्ञापनदाता पूरी रकम मुहैया नहीं कर सकते और लोग भी अपनी जेब से भुगतान करने की स्थिति में नहीं होते। इस स्थिति में वैश्विक समाचार कंपनियां भी फंस जाती हैं और इनमें से कई ने भरपाई के लिए पेड न्यूज या निजी समझौते  का सहारा नहीं लिया है। नैतिक स्तर पर यह हमारे उद्योग के लिए हार की स्थिति है। पेपर मीडिया मालिकों, संपादकों और हर संबंधित व्यक्ति को सरकार या ट्राई से उलझने के बजाय समाधान खोजने के लिए कहता है। ऐसा न करना देश के लोगों के साथ छलावा और पेे्रस की स्वतंत्रता पर कुठाराघात होगा।
(साभार : बिजनेस स्टैंडर्ड)

Sunday 24 August 2014

ये खून बेकार नहीं जायेगा/अन्तरा घोष

जुलाई से इज़रायल ने गाज़ा पट्टी के निहत्थे नागरिकों, बच्चों, औरतों पर फिर से हमला बोल दिया है। यह पिछले छह वर्षों में गाज़ा पर इज़रायल का तीसरा बड़ा हमला है। यह टिप्पणी लिखे जाने तक गाज़ा में लगभग साढ़े पाँच सौ लोग मारे जा चुके हैं। इनमें से अधिकांश महिलाएँ, बच्चे और बूढ़े हैं। इज़रायल ने अपने तीन किशोरों के अपहरण और हत्या को गाज़ा पर हमले का कारण बताया था, जो कि ट्रेकिंग पर गये थे और लापता हो गये थे। बाद में उनकी लाशें बरामद हुई थीं। लेकिन गाज़ा पट्टी पर शासन कर रहे फिलिस्तीनी संगठन हमास ने इसकी ज़िम्मेदारी नहीं ली और अभी तक इसका कोई स्पष्ट प्रमाण भी नहीं है कि ये हत्याएँ हमास द्वारा की गयी हैं। लेकिन इसके बावजूद प्रमाणों की अवहेलना करते हुए इज़रायल ने 8 जुलाई को गाज़ा पट्टी पर भयंकर गोलाबारी और हवाई बमवर्षा शुरू कर दी। इस हमले में इज़रायल सफेद फास्फोरस का और साथ ही Shrinking-Palestineतमाम नये प्रयोगात्मक हथियारों का इस्तेमाल कर रहा है। ग़ौरतलब है कि 2004 में इज़रायल ने गाज़ा पट्टी से अपनी सेना और नागरिकों को हटा लिया था। बाद में, गाज़ा में फतह और हमास के बीच नियन्त्रण को लेकर संघर्ष हुआ जिसमें अन्ततः हमास ने विजय हासिल की। गाज़ा पट्टी के चुनावों में भी हमास को भारी समर्थन मिला और हमास ने जनवादी तरीके से चुनी हुई सरकार का गठन किया। इसके बाद से ही इज़रायल गाज़ा पट्टी पर हमले करता रहा है। 2006, 2008-09, 2012 और अब 2014। इज़रायल यह दलील देता रहा है कि गाज़ा पट्टी पर उसके हमलों का कारण हमास की आतंकवादी गतिविधियाँ हैं, जिसका निशाना इज़रायल है; इज़रायल के हुक्मरान गाज़ा पट्टी से किये जाने वाले रॉकेट हमलों और टनलों द्वारा की जाने वाली घुसपैठों को अपने बर्बर हमलों का कारण बताया है। लेकिन अगर यही कारण है तो फिलिस्तीनियों के दूसरे इलाके वेस्ट बैंक में इज़रायल के अत्याचारों का क्या कारण है? वहाँ से तो कोई रॉकेट नहीं दागे जाते? न ही वहाँ से कोई अन्य आक्रामक इज़रायल-विरोधी गतिविधियाँ चलती हैं? फिर वेस्ट बैंक के फिलिस्तीनी नागरिकों का अपहरण, हत्याएँ, उनका उत्पीड़न क्यों किया जाता है? उनकी ज़मीनें इज़रायल क्यों छीन रहा है? उन्हें विस्थापित करके इज़रायल अपनी यहूदी बस्तियाँ वहाँ क्यों बसा रहा है? वहाँ तो फिलिस्तीनी प्राधिकार और फतह का बोलबाला है? वहाँ तो हमास का शासन नहीं है?
वास्तव में, इज़रायल का असली मक़सद हमास का सफ़ाया करना नहीं है। इज़रायल भी जानता है कि ऐसे हमलों से न तो वह हमास को ख़त्म कर पाया है और न ही ख़त्म कर पायेगा। सच्चाई तो यह है कि 2004 से ऐसे हरेक हमले ने हमास को और अधिक ताक़तवर और लोकप्रिय बनाया है। इस हमले में भी इज़रायली हमास को कोई विशेष नुकसान नहीं पहुँचा पाये हैं और उनकी अन्धाधुन्ध गोलाबारी का निशाना गाज़ा के निर्दोष बच्चे, औरतें और अन्य नागरिक बने हैं। 18 जुलाई को इज़रायल ने जब ज़मीनी हमला शुरू किया तो उसके एक दिन बाद ही हमास ने इज़रायल के 13 सैनिकों को मार गिराया और एक को गिरफ्तार कर लिया। अब तक 19 इज़रायली भी मारे जा चुके हैं। इज़रायल की उस टुकड़ी के सैनिक ने बताया, “हमारे सामने कोई आदिम सेना नहीं थी। वे लोग बेहद उन्नत हथियारों से लैस थे, बहुत अच्छी तरह से प्रशिक्षित थे; वे भाग नहीं रहे थे। वे तो बस हमारा इन्तज़ार कर रहे थे।” इज़रायल और अमेरिका जैसे साम्राज्यवादी कभी इतिहास से सबक नहीं लेते हैं। वे लेबनॉन द्वारा मारकर भगाया जाना भूल चुके हैं और उसके पहले 2004 और 2006 में फिलिस्तीनी प्रतिरोध द्वारा नाकों चने चबवाया जाना भी भूल चुके हैं। यह सच है कि हर ऐसे हमले फिलिस्तीनी जनता का भारी कत्लेआम होता है। लेकिन फिलिस्तीनी जनता का इज़रायली कब्ज़े के विरुद्ध प्रतिरोध युद्ध इससे ख़त्म नहीं हो रहा बल्कि और मज़बूत हो रहा है और बढ़ रहा है। इज़रायली हमले के बाद से ही गाज़ा की मस्जिदें रोज़ घोषणा कर रही थीं, “हिम्मत मत हारो! धैर्य रखो! विजय आयेगी!” 18 जुलाई को इज़रायली सेना के 13 सैनिकों को मारकर और 1 सैनिक को गिरफ्तार करके हमास ने बता दिया कि वह किस ओर इशारा कर रहा था।
इज़रायल बार-बार कहता है कि वह आत्मरक्षा में यह हमले कर रहा है और उसे अस्तित्वमान रहने का हक़ है। वास्तव में, 1947 से ही जिस कौम के अस्तित्वमान रहने के हक़ पर लगातार हमला किया गया है, वे फिलिस्तीनी हैं। संयुक्त राष्ट्र ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यहूदियों को “राज्य से वंचित राष्ट्र” बताते हुए उनकी प्राचीन ज़मीन पर उनके लिए एक राज्य निर्माण की योजना बनायी। इस योजना पर अमल करते हुए 1947-48 में यूरोप व दुनिया के अन्य हिस्सों में यहूदी-विरोध से प्रताड़ित भारी यहूदी आबादी को तत्कालीन फिलिस्तीन की ज़मीन पर बसाया गया। इज़रायल की जो योजना बनायी गयी थी, धीरे-धीरे उस योजना से परे ज़ि‍यनवादियों ने फिलिस्तीनी अरब नागरिकों से ज़मीनें छीननी शुरू कीं, ब्रिटिश और अमेरिकी साम्राज्यवाद की मदद से लगातार फिलिस्तीनियों को विस्थापित किया और धीरे-धीरे फिलिस्तीनियों को गाज़ा पट्टी और वेस्ट बैंक के इलाके में सीमित करते गये। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक पश्चिमी एशिया के अधिकांश तेल क्षेत्र और प्राकृतिक गैस क्षेत्र मिल चुके थे। पश्चिमी साम्राज्यवादियों को पश्चिमी एशिया में अपनी एक चेक पोस्ट और अपना एक लठैत चाहिए था। इस मंसूबे के साथ पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने फिलिस्तीनी ज़मीन पर बसाये गये यहूदियों के बीच पनप रहे धुर दक्षिणपंथी ज़ि‍यनवादी गुटों को हथियार, पैसे और प्रशिक्षण देना शुरू किया। इन ज़ि‍यनवादियों ने 1950-60 के दशकों से ही तमाम जगहों पर फिलिस्तीनी अरब लोगों के गाँवों के गाँवों का नरसंहार, उन्हें उजाड़ना और उनके साथ भेदभाव की नीति पर अमल करना शुरू कर दिया। इसके साथ ही फिलिस्तीनी जनता का भी अपने राज्य के अधिकार के लिए संघर्ष भी शुरू हुआ। इस संघर्ष में पूरे अरब की जनता की भावना उजाड़े जा रहे फिलिस्तीनियों के साथ थी। दो बड़े और कुछ छोटे इज़रायल-अरब युद्ध भी हुए, जिसमें कि अमेरिकी और अन्य साम्राज्यवादी सहायता के बूते और अरब देशों के आपसी अन्तरविरोधों और कमज़ोर सैन्य तैयारी के कारण इज़रायल को ही विजय मिली। लेकिन इस बीच फिलिस्तीनियों के प्रतिरोध युद्ध की वजह से इज़रायलियों को भी कई बार अच्छा-ख़ासा नुकसान उठाना पड़ा। लेकिन 1947 से लेकर 2014 के पूरे इतिहास पर निगाह दौड़ाएँ तो यह इज़रायली ज़ि‍यनवादियों द्वारा फिलिस्तीन देश को ख़त्म करने की प्रक्रिया को दिखलाता है। इसी प्रक्रिया के ख़िलाफ़ फिलिस्तीनी लगातार लड़ रहे हैं और इसे कामयाब नहीं होने दे रहे हैं।
इज़रायल आज फिलिस्तीनी जनता के साथ वही सुलूक कर रहा है जो एक समय में नात्सियों ने यहूदियों के ख़िलाफ़ किया था। वास्तव में, एक प्रसिद्ध ज़ि‍यनवादी सैन्य कमाण्डर ने एक बार कहा भी था, “हिटलर चाहे हमारे साथ कितना भी बुरा क्यों न रहा हो, उसने दिखलाया है कि नरसंहार, नस्ली सफ़ाये और विस्थापन के ज़रिये क्या-कुछ हासिल किया जा सकता है।” आज के दौर में इज़रायली संसद नेसेट की एक महिला सांसद कहती है कि सारी फिलिस्तीनी माँओं की हत्या कर दी जानी चाहिए जो कि सपोलों को जन्म देती हैं। एक दूसरा सैन्य अधिकारी कहता है कि गाज़ा और वेस्ट बैंक से सारे अरब लोगों को खदेड़ दिया जाना चाहिए या उनकी हत्या कर दी जानी चाहिए और वहाँ यहूदियेां को बसा दिया जाना चाहिए। आज गाज़ा पट्टी के पास न तो कोई रक्षा तन्त्र है, न हवाई सेना है, न नौसेना है और न ही कोई स्थायी सेना है। उसे चारों ओर से घेरा हुआ है, मिस्र ने राफा क्रासिंग को सील कर रखा है, इज़रायल ने उसके हवाई क्षेत्र और समुद्री तट को बन्द कर रखा है और उस पर अपना कब्ज़ा जमाये हुए है। गाज़ा पट्टी को तमाम प्रेक्षकों ने दुनिया की सबसे बड़ी ‘ओपेन एयर’ जेल करार दिया है, जो कि बिल्कुल सही है। चारों तरफ़ से घिरे हुए गाज़ा पट्टी के नागरिकों, बच्चों और औरतों पर इज़रायल लगातार बम बरसाता है, उनका अपहरण करता है, उन्हें यातना देता है। हज़ारों निर्दोष फिलिस्तीनी इज़रायल की जेलों में बन्द हैं, बिना किसी मुकदमे या सुनवाई के। कुछ वर्ष पहले अपने एक गिरफ्तार सैनिक को छुड़ाने के लिए इज़रायल ने हज़ार फिलिस्तीनी कैदियों को रिहा किया था। लेकिन उस समझौते का कुछ समय पहले उल्लंघन करते हुए तमाम फिलिस्तीनियों को फिर से गिरफ्तार कर लिया। साथ ही, गाज़ा पट्टी का ब्लॉकेड कर इज़रायल योजनाबद्ध तरीके से गाज़ा के नागरिकों को उनकी बुनियादी ज़रूरत से महरूम कर रहा है। गाज़ा पट्टी की बिजली और पानी तक इज़रायल बन्द या बाधित करता रहा है, बाहर से कोई मानवीय सहायता नहीं आने देता और बार-बार गाज़ा पट्टी में घुसकर अपहरण और कत्ल करता है। इसके बाद, जब गाज़ा पट्टी के फिलिस्तीनी अपने इंसानी जीवन के हक़ के लिए प्रतिरोध करते हैं और इज़रायल के अमेरिका और यूरोपीय देशों द्वारा दिये गये अत्याधुनिक हथियारों के जवाब में रॉकेट हमले करते हैं, तो इज़रायल उसे अपने वजूद पर हमला करार देकर गाज़ा पट्टी में नरसंहार को अंजाम देता है। इज़रायल के पास जो तकनोलॉजी है उससे वह नागरिकों की मृत्यु को रोक सकता है। लेकिन इसके बावजूद वह ऐसा नहीं करता और निर्दोषों का कत्ले-आम करता है, क्योंकि उसका असली मक़सद है, गाज़ा पट्टी पर भी यहूदी बस्तियाँ बसाना, वहाँ के फिलिस्तीनियों को मार देना, विस्थापित कर देना या फिर उन्हें उसी तरह से दोयम दर्जे का नागरिक बनाकर, गुलाम बनाकर रखना जैसे कि हिटलर ने यहूदियों को बना कर रखा था। वास्तव में, इज़रायल दो देशों वाले समाधान को अपनाना ही नहीं चाहता है। वह फिलिस्तीनी अरब लोगों को वहाँ से पूरी तरह विस्थापित करके प्राचीन दैवीय यहूदी राज्य इज़रायल के अपने कट्टरपंथी ज़ि‍यनवादी सपने को साकार करना चाहता है। ये फिलिस्तीनी लोग हैं जो कि आत्मरक्षा के लिए लड़ रहे हैं, इज़रायल नहीं! ये फिलिस्तीनी लोग हैं जिनसे उनकी ज़िन्दगियाँ, ज़मीनें और देश छीना जा रहा है, इज़रायल नहीं!
इज़रायल बार-बार होलोकॉस्ट का हवाला देता है और अपने पीड़ित होने की बात करता है। इज़रायल बार-बार अपनी आत्मरक्षा और अस्तित्वमान रहने के हक़ की बात करता है। लेकिन जैसा कि नोम चॉम्स्की ने कहा है, इज़रायल वही आत्मरक्षा कर रहा है जो किसी भी औपनिवेशिक कब्ज़ा करने वाली ताक़त को प्रतिरोध कर रही जनता के सामने करनी पड़ती है। फिलिस्तीनी जनता को अपने देश, अपनी ज़मीन, अपनी ज़िन्दगी का हक़ है और अगर यह हक़ उससे छीना जाता है, तो उसे प्रतिरोध करने और संघर्ष करने का पूरा हक़ है। इस पूरी लड़ाई में तमाम अरब देशों के शासक चुप हैं, या दोनों पक्षों से शान्ति की मानवतावादी अपीलें कर रहे हैं। मिस्र के शासकों ने स्पष्टतः इज़रायल का पक्ष लिया है और गाज़ा पट्टी की सीमा को खोलने से यह कहकर इंकार कर दिया है कि यह “आतंकवादी” हमास के लिए प्रोत्साहन होगा! सऊदी अरब, कतर से लेकर इराक़ के आईएसआईएस के विद्रोही तक फिलिस्तीन के मसले पर चुप हैं, इज़रायल के हमले पर चुप हैं या फिर रस्म-अदायगी के लिए कोई बयान दे रहे हैं। लेकिन इन देशों की जनता के भीतर अपने शासक वर्ग की नपुंसकता को लेकर ज़बर्दस्त विद्रोह की भावना है। पूरी अरब जनता फिलिस्तीनियों के साथ खड़ी और उनकी हमदर्द है। कुछ वर्ष पहले जब अरब जनउभार ने कई अरब देशों में सत्ता परिवर्तन किया था, तो उन देशों में बढ़ती बेरोज़गारी, ग़रीबी और महँगाई के अतिरिक्त एक बहुत बड़ा मसला इन देशों के शासकों द्वारा इज़रायली ज़ि‍यनवादियों और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के सामने घुटना टेकना और फिलिस्तीनी जनता को अकेला छोड़ देना व उनका साथ न देना भी था। इस हमले में इज़रायल गाज़ा पट्टी पर कब्जे़ के अपने मंसूबे में कामयाब नहीं होने वाला है, यह सभी जानते हैं। हम यह भी जानते हैं कि इज़रायल अपने तमाम हरबे-हथियारों के बावजूद हमास के हाथों पिटने वाला है और उसी तरीके से गाज़ा से भागने वाला है, जिस तरह से वह लेबनॉन में हिज़बुल्ला के हाथों पिटकर भागा था। लेकिन इज़रायल को अपने इस कायराना और बर्बर हमले और मानवता के विरुद्ध किये जा रहे अपराधों के लिए यह तात्कालिक कीमत ही नहीं चुकानी होगी। हर ऐसा इज़रायली हमला फिलिस्तीनियों को कई अन्य अरब देशों में विस्थापित कर देता है, जो कि इन सभी अरब देशों में बारूद की तरह इकट्ठा हो रहे हैं। इस विस्थापन के कारण तमाम अरब देशों की आम जनता और भी मज़बूती के साथ फिलिस्तीनी जनता के साथ जुड़ रही है और अपने शासक वर्ग के ख़िलाफ़ खड़ी हो रही है। समूचे अरब में अमेरिका और इज़रायल के ख़िलाफ़ जो नफ़रत भरी है, वह आने वाले समय में फूटेगी और इन देशों में सत्ता परिवर्तन की ओर ले जायेगी। लेकिन यह भी सच है कि जब तक सच्ची जनवादी और प्रगतिशील क्रान्तिकारी ताक़तें एक नये अरब जनउभार के नेतृत्व में नहीं होंगी, तब तक इस बात कोई गारण्टी नहीं होगी कि नयी अरब सत्ताएँ अमेरिकी साम्राज्यवाद और इज़रायली ज़ि‍यनवाद के विरुद्ध खड़ी होंगी। फिर भी, दो बातें स्पष्ट हैं। एक यह कि ऐसी क्रान्तिकारी ताक़तों के खड़े होने की प्रक्रिया साम्राज्यवाद और ज़ि‍यनवाद के हर आक्रमण के साथ बढ़ेंगी, क्योंकि अरब जनता भी देख रही है कि इस्लामिक कट्टरपंथी ताक़तें palestineनिरन्तरतापूर्ण तरीके से अमेरिकी साम्राज्यवाद और इज़रायली ज़ि‍यनवाद का विरोध नहीं कर रही हैं। तमाम वर्तमान उदाहरण मौजूद हैं जिसमें कि धार्मिक कट्टरपंथी ताक़तें साम्राज्यवादियों और ज़ि‍यनवादियों के साथ समझौते और सौदे कर रही हैं। ऐसे में, जनता के बीच नये क्रान्तिकारी विकल्पों के खड़े होने की सम्भावनाएँ पैदा हो सकती हैं, क्योंकि अरब जनता ने साम्राज्यवाद और ज़ि‍यनवाद के धार्मिक कट्टरपंथी विरोध की सीमा और असलियत देख ली है। दूसरी बात यह है कि पश्चिमी साम्राज्यवाद कोई नया अरब जनउभार नहीं चाहती हैं क्योंकि इससे अमेरिका और इज़रायल के सारे समीकरण पश्चिमी एशिया में गड़बड़ा सकते हैं। इसलिए मौजूदा हमले में भी अमेरिका की साँस हलक में अटकी हुई है और जिस दिन 13 इज़रायली सैनिक मारे गये उसी दिन अमेरिकी उपराष्ट्रपति जॉन केरी एक टीवी साक्षात्कार में ब्रेक के वक़्त ग़लती से माइक्रोफोन पर इज़रायली हमले के प्रति असन्तोष दिखाते हुए पाये गये। अमेरिकी साम्राज्यवादी समझ रहे हैं कि इज़रायल ने किस बारूद की ढेरी पर पाँव रख दिया है। पूरी दुनिया में इज़रायल के विरुद्ध हिंस्र प्रदर्शन हो रहे हैं। टर्की में इज़रायली दूतावास और कांसुलेट पर हमले किये गये और दूतावास पर कब्ज़ा करके फिलिस्तीनी झण्डा लहराया गया। टर्की के शासक एर्दोगान के लिए भी ऐसी मुश्किल खड़ी हो गयी कि उसने इज़रायल के विरुद्ध बयान दिया। विश्व भर में इज़रायली राजनयिक घबराये हुए हैं कि कब उन पर हमला होता है।
जो भी हो यह स्पष्ट है कि फिलिस्तीन का प्रश्न अरब विश्व के दिल के केन्द्र में है। फिलिस्तीनी जनता के विरुद्ध आज कायर इज़रायल जो अपराध कर रहा है, वह पूरे अरब विश्व में साम्राज्यवाद और ज़ि‍यनवाद के लिए आत्मघाती साबित होगा। इज़रायल के कायराना हमलों से गाज़ा के फिलिस्तीनी पहले भी डटकर लड़े हैं और अभी भी डटकर लड़ रहे हैं। मौत और दुख उनके जीवन का हिस्सा बन चुका है और वे डरते नहीं हैं। जैसा कि एक फिलिस्तीनी कवि ने कहा है, “फिलिस्तीनी होने का मतलब है, एक कभी न ठीक हो सकने वाली बीमारी का मरीज़ होना और उस बीमारी का नाम है उम्मीद!” फिलिस्तीनी जनता के प्रतिरोध संघर्ष ने 18 जुलाई से इज़रायलियों को अपनी भयंकर भूल का अहसास कराना शुरू कर दिया है। 20 जुलाई को 13 इज़रायली सैनिकों को मारे जाने और एक के कैद किये जाने के साथ यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। हवा से बम बरसाकर और मिसाइलें दागकर इज़रायल जो कर सकता था, उसने किया। लेकिन ज़मीन पर फिलिस्तीनियों का मुकाबला करना कायर ज़ि‍यनवादियों के बूते के बाहर है और आने वाले कुछ दिनों में यह साबित भी हो जायेगा। और कुछ दूर भविष्य में समूची इज़रायली जनता को अपने योजनाबद्ध फासीवादीकरण की ज़ि‍यनवादियों को इजाज़त देने की भी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। साथ ही, अरब शासकों को अपनी नपुंसकता और साम्राज्यवाद के समक्ष घुटने टेकने के लिए भी निकट भविष्य में ही भारी कीमत चुकानी होगी। फिलिस्तीन मरेगा नहीं! फिलिस्तीनी जनता मरेगी नहीं! अन्त होगा इज़रायली ज़ि‍यनवाद का और अमेरिकी साम्राज्यवाद का! अरब की धरती पर उनकी कब्र खुदने की तैयारी चल रही है।
('आह्वान' से साभार)

जागो मृतात्माओ! / कात्यायनी

जागो मृतात्माओ! बर्बर कभी भी तुम्हारे दरवाज़े पर दस्तक दे सकते हैं।
कायरो! सावधान!! भागकर अपने घर पहुँचो और देखो
तुम्हारी बेटी कॉलेज से लौट तो आयी है सलामत, बीवी घर में महफूज़ तो है।
बहन के घर फ़ोन लगाकर उसकी भी खोज-ख़बर ले लो!
कहीं कोई औरत कम तो नहीं हो गयी है तुम्हारे घर और कुनबे की?
मोहनलालगंज, लखनऊ के निर्जन स्कूल में जिस युवती को
शिकारियों ने निर्वस्त्र दौड़ा-दौड़ाकर मारा 17 जुलाई को,
उसके जिस्म को तार-तार किया और वह जूझती रही, जूझती रही, जूझती रही—
—अकेले, अन्तिम साँस तक और मदद को आवाज़ भी देती रही
पर कोई नहीं आया मुर्दों की उस बस्ती से जो दो सौ मीटर की दूरी पर थी।
उस स्त्री के क्षत-विक्षत निर्वस्त्र शव की शिनाख़्त नहीं हो सकी है।
पर कायरो! निश्चिन्त होकर बैठो और पालथी मारकर चाय-पकौड़ी खाओ
क्योंकि तुम्हारे घरों की स्त्रियाँ सलामत हैं, कुछ किस्से गढ़ो, कुछ कल्पना करो, बेशर्मो !
कल दफ्तर में इस घटना को एकदम नये ढंग से पेश करने के लिए।
बर्बर हमेशा कायरों के बीच रहते हैं, हर कायर के भीतर अक्सर एक बर्बर छिपा बैठा होता है।
चुप्पी भी उतनी ही बेरहम होती है
जितनी गोद-गोदकर, जिस्म में तलवार या रॉड भोंककर की जाने वाली हत्या।
हत्या और बलात्कार के दर्शक, स्त्री आखेट के तमाशाई
दुनिया के सबसे रुग्ण मानस लोगों में से एक होते हैं।
16 दिसम्बर 2012 को चुप रहे
उन्हें 17 जुलाई 2014 का इन्तज़ार था और इसके बीच के काले अँधेरे दिनों में भी
ऐसा ही बहुत कुछ घटता रहा।
कह दो मुलायम सिंह कि ‘लड़कों से तो ग़लती हो ही जाती है, इस बार कुछ बड़ी ग़लती हो गयी।’
धर्मध्वजाधारी कूपमण्डूको, भाजपाई फासिस्टो, विहिप, श्रीराम सेने के गुण्डो, नागपुर के हाफ़पैण्टियो,
डाँटो-फटकारो औरतों को दौड़ाओ डण्डे लेकर कि क्यों वे इतनी आज़ादी दिखलाती हैं सड़कों पर
कि मर्द जात को मजबूर हो जाना पड़ता है जंगली कुत्ता और भेड़िया बन जाने के लिए।
मुल्लाओ! कुछ और फ़तवे जारी करो औरतों को बाड़े में बन्द करने के लिए,
शरिया क़ानून लागू कर दो, “नये ख़लीफ़ा” अल बगदादी का फ़रमान भी ले आओ,
जल्दी करो, नहीं तो हर औरत लल द्यद बन जायेगी या तस्लीमा नसरीन की मुरीद हो जायेगी।
बहुत सारी औरतें बिगड़ चुकी हैं इन्हें संगसार करना है, चमड़ी उधेड़ देनी है इनकी,
ज़िन्दा दफ़न कर देना है त्रिशूल, तलवार, नैजे, खंजर तेज़ कर लो,
कोड़े उठा लो, बागों में पेड़ों की डालियों से फाँसी के फँदे लटका दो,
तुम्हारी कामाग्नि और प्रतिशोध को एक साथ भड़काती
कितनी सारी, कितनी सारी, मगरूर, बेशर्म औरतें
सड़कों पर निकल आयी हैं बेपर्दा, बदनदिखाऊ कपड़े पहने,
हँसती-खिलखिलाती, नज़रें मिलाकर बात करती,
अपनी ख़्वाहिशें बयान करती!
तुम्हें इस सभ्यता को बचाना है
तमाम बेशर्म-बेग़ैरत-आज़ादख़्याल औरतों को सबक़ सिखाना है।
हर 16 दिसम्बर, हर 17 जुलाई
देवताओं का कोप है
ख़ुदा का कहर है
बर्बर बलात्कारी हत्यारे हैं देवदूत
जो आज़ाद होने का पाप कर रही औरतों को
सज़ाएँ दे रहे हैं इसी धरती पर
और नर्क से भी भयंकर यन्त्रणा के नये-नये तरीके आज़माकर
देवताओं को ख़ुश कर रहे हैं।

बहनो! साथियो!!
डरना और दुबकना नहीं है किसी भी बर्बरता के आगे।
बकने दो मुलायम सिंह, बाबूलाल गौर और तमाम ऐसे
मानवद्रोहियों को, जो उसी पूँजी की सत्ता के
राजनीतिक चाकर हैं, जिसकी रुग्ण-बीमार संस्कृति
के बजबजाते गटर में बसते हैं वे सूअर
जो स्त्री को मात्र एक शरीर के रूप में देखते हैं।
इसी पूँजी के सामाजिक भीटों बाँबियों-झाड़ियों में
वे भेड़िये और लकड़बग्घे पलते हैं
जो पहले रात को, लेकिन अब दिन-दहाड़े
हमें अपना शिकार बनाते हैं।
क़ानून-व्यवस्था को चाक-चौबन्द करने से भला क्या होगा
जब खाकी वर्दी में भी भेड़िये घूमते हों
और लकड़बग्घे तरह-तरह की टोपियाँ पहनकर
संसद में बैठे हों?
मोमबत्तियाँ जलाने और सोग मनाने से भी कुछ नहीं होगा।
अपने हृदय की गहराइयों में धधकती आग को
ज्वालामुखी के लावे की तरह सड़कों पर बहने देना होगा।
निर्बन्ध कर देना होगा विद्रोह के प्रबल वेगवाही ज्वार को।
मुट्ठियाँ ताने एक साथ, हथौड़े और मूसल लिए हाथों में निकलना होगा
16 दिसम्बर और 17 जुलाई के ख़ून जिन जबड़ों पर दीखें,
उन पर सड़क पर ही फैसला सुनाकर
सड़क पर ही उसे तामील कर देना होगा।

बहनो! साथियो!!
मुट्ठियाँ तानकर अपनी आज़ादी और अधिकारों का
घोषणापत्र एक बार फिर जारी करो,
धर्मध्वजाधारी प्रेतों और पूँजी के पाण्डुर पिशाचों के खि़लाफ़।
मृत परम्पराओं की सड़ी-गली बास मारती लाशों के
अन्तिम संस्कार की घोषणा कर दो।
चुनौती दो ताकि बौखलाये बर्बर बाहर आयें खुले में।
जो शिकार करते थे, उनका शिकार करना होगा।

बहनो! साथियो!!
बस्तियों-मोहल्लों में चौकसी दस्ते बनाओ!
धावा मारो नशे और अपराध के अड्डों पर!
घेर लो स्त्री-विरोधी बकवास करने वाले नेताओं-धर्मगुरुओं को सड़कों पर
अपराधियों को लोक पंचायत बुलाकर दण्डित करो!
अगर तुम्हे बर्बर मर्दवाद का शिकार होने से बचना है
और बचाना है अपनी बच्चियों को
तो यही एक राह है, और कुछ नहीं, कोई भी नहीं।

बहनो! साथियो!!
सभी मर्द नहीं हैं मर्दवादी।
जिनके पास वास्तव में सपना है समतामूलक समाज का
वे स्त्रियों को मानते हैं बराबर का साथी,
जीवन और युद्ध में।
वे हमारे साथ होंगे हमारी बग़ावत में, यकीन करो!
श्रम-आखेटक समाज ही स्त्री आखेट का खेल रचता है।
हमारी मुक्ति की लड़ाई है उस पूँजीवादी बर्बरता से
मुक्ति की लड़ाई की ही कड़ी,
जो निचुड़ी हुई हड्डियों की बुनियाद पर खड़ा है।
इसलिए बहनो! साथियो!!
कड़ी से कड़ी जोड़ो! मुट्ठियों से मुट्ठियाँ!
सपनों से सपने! संकल्पों से संकल्प!
दस्तों से दस्ते!
और आगे बढ़ो बर्बरों के अड्डों की ओर!

'बेरोजगार की आखिरी रात'

'बेरोजगार की आखिरी रात' पुस्तक का जुलाई माह में अमेरिका के प्रतिष्ठित आथर हाउस में प्रकाशन हुआ है। यह किताब ई-बुक के रूप में अमेजॉन.इन पर उपलब्ध है। इसके लेखक दविंद्र सिंह गुलेरिया लगभग आठ साल तक अमर उजाला में रहे हैं। उन्होंने दिसंबर 2013 में चंडीगढ़ से अमर उजाला से इस्तीफा दिया था। उस समय वह पंजाब संस्करण के प्रभारी थे। कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश के रहने वाले गुलेरिया सात साल से अधिक समय तक अमर उजाला हिमाचल डेस्क के प्रभारी रहे। करीब दो माह तक वह हिमाचल अमर उजाला के संपादकीय विभाग के प्रभारी भी रहे। चूंकि वह ईमानदार आदमी हैं, चापलूसी न तो करते हैं और न ही करवाते हैं, बस काम से मतलब रखते हैं। उदय कुमार ने उनको अमर उजाला में बहुत परेशान किया।
उदय कुमार द्वारा गलत तबादले करने के कारण शिमला डेस्क पर चार पद एक साल से अधिक समय तक खाली रहे थे। गुलेरिया शिमला में अमर उजाला हिमाचल डेस्क के प्रभारी थे तो उन्होंने कई बार खाली पदों को लेकर अवगत करवाया, पर पद नहीं भरे गए। हर दिन तीन या चार एडिशन बिना सब एडिटर के होते थे। गुलेरिया ने जैसे-तैसे एक साल से अधिक समय तक काम चलाया। उन्होंने साल में लगभग 25 साप्ताहिक अवकाश लगाए, जिसका उन्हें कुछ नहीं मिला। इसका इनाम उन्हें
अप्रैल 2013 में चंडीगढ़ ट्रांसफर के रूप में मिला था। गुलेरिया की जगह उदय कुमार ने शिमला में अपना आदमी बैठाया था। साथ में डेस्क पर खाली पड़े सारे पद एकदम से भर दिए थे ताकि उनका आदमी डेस्क पर फेल न हो जाए।
जो काम गुलेरिया अकेले देखते थे, उसको देखने के लिए दो आदमी लगा दिए थे। पर फिर भी वे काम ढंग से नहीं कर पाते थे। यहां तक कि डेस्क के लोग भी इससे बहुत दुखी थे। उदय कुमार की इस टुच्ची राजनीति के कारण गुलेरिया ने अमर उजाला छोड़कर हमीरपुर से प्रकाशित हो रहे डीएनएस ज्वाइन कर लिया था। दविंद्र सिंह गुलेरिया छात्र समय से ही लिखते रहे हैं। उन्होंने पहली किताब 17 साल की आयु में लिखी थी। इसे प्रकाशित करने के लिए हिमाचल भाषा, कला एवं संस्कृति अकादमी शिमला ने अप्रैल, 1995 में दो हजार रुपए स्वीकृत किए थे। गुलेरिया को आज भी इस बात की टीस है कि उनके साथ इस तरह से अन्याय किया गया। पर उन्हें खुशी है कि अमेरिका के प्रकाशन हाउस ने उनकी किताब छापकर विरोधियों को इसका करारा जवाब दिया है। (भड़ास4मीडिया से साभार)

Saturday 23 August 2014

लूट इंडिया लूट / शशिकांत सिंह शशि

दोस्तों! 'लूट इंडिया लूट', रियलिटी शो के इतिहास में मील का पत्थर साबित होने जा रहा है। आज तक हम टीवी पर केवल मनोरंजन प्रधान कार्यक्रम ही देखते थे। ज्ञान प्रधान प्रोग्राम नहीं। प्रश्नोत्तरी पर आधारित एक दो टुच्चे प्रोग्रामों को ज्ञान प्रधान नहीं कहा जा सकता। ज्ञान वह जो व्यावहारिक जीवन में हमारी सहायता करे। 'लूट इंडिया लूट' में आपको जानकारी मिलेगी कि देश को कितने सुंदर तरीकों से लूटा जा सकता है? कितने प्रकार से लूटा जा सकता है? कौन-कौन मिलकर लूट सकते हैं? जनता को मूर्ख बनाने विभिन्न तरीकों पर भी हम प्रकाश डालेंगे। तो आइए शुरू करते है... लूट इंडिया लूट।
सबसे पहले हम स्वागत करते है, अपने जजों का। अपने दर्शकों को बता दें कि हमारे इस प्रोग्राम के तीन जज हैं। हमारे पहले जज हैं, श्रीमान घपलानंद गोस्वामी। आप बुद्धिजीवी वर्ग के प्रतिनिधि हैं। उनके पास देश को लूटने के इतने तरीके हैं कि श्रोता दंग रह जाएँगे। घपला-कला पर आपकी किताबें पूरी दुनिया में इज्जत प्राप्त कर चुकी हैं। बेस्ट सेलर रह चुके हैं। आजकल इन्होंने अपना विद्यालय खोल रखा है जिसमें घपले के विभिन्न तरीकों से अपने विद्यार्थियों को अवगत कराते हैं। दूसरे जज हैं श्रीमान घपलेश्वर 'नौनिहाल'। घपले के क्षेत्र में आपका नाम बड़ी इज्जत से लिया जाता है। 'घपलेश्वर' की उपाधि मिलने के बाद भी आप इस क्षेत्र में अपने आपको नौनिहाल ही मानते हैं। राजनीति की बड़ी-बड़ी हस्तियाँ भी, किसी घोटाले के पहले इनका नाम लेना नहीं भूलतीं। जुए के क्षेत्र में जो प्रतिष्ठा युद्धिष्ठिर को हासिल है वही इज्जत नौनिहाल जी को घपले के क्षेत्र में है। तीसरे जज हैं श्रीमान घपलेंदु भूषण। इन्होंने प्रशासन के बड़े-बड़े पदों पर रहते हुए इतने घपले किए कि इनका नाम गिनिज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में आना चाहिए था। मगर बुक वालों के आलस्य के कारण देश इससे वंचित रह रहा है। बुद्धिजीवी, राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी तीन अलग-अलग क्षेत्रों के कोहेनूर हमारे पास हैं।
आइए, आपको 'लूट इंडिया लूट' के नियमों से परिचित करा दें। हमारे पास अलग-अलग क्षेत्रों के प्रतिभागी हैं। सब अपने-अपने अनुभव बताएँगे और हमारे जज इस बात का निर्णय लेंगे कि सबसे सुंदर तरीके से देश को कौन लूट रहा है। एक प्रतिभागी के लिए एक जज की टिप्पणी ली जाएगी। बाकी दो केवल अंक देंगे। अंतिम तीन प्रतिभागियों का निर्णय जनता के वोटों से होगा। तो आइए शुरू करते हैं। आज तक का सबसे बड़ा शो - 'लूट इंडिया लूट'। हम सबसे पहले मंच पर आमंत्रित करते हैं शिक्षा से जुड़े एक ऐसे व्यक्ति को जो पेशे से शिक्षक हैं। हम देखते हैं कि उनके पास इंडिया को लूटने के कौन-कौन से तरीके हैं। आप अपना अनुभव बताएँ।
- 'मैं सबसे पहले इस बात का खंडन करना चाहता हूँ कि मैं शिक्षा से जुड़ा हुआ हूँ। नौकरी मिलने के बाद से आज तक मैने कोई किताब नहीं खोली और न ही किसी प्रकार से अपने मस्तिष्क को नई सोच से जोड़ने का प्रयत्न किया। हाँ, मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मैं शिक्षक हूँ। यह नौकरी मैने अपनी मर्जी से नहीं की। बेरोजगारी में यही मिली तो मैं क्या कर सकता हूँ? मैं हर संभव कोशिश करता हूँ कि इंडिया की लूट में मेरा भी एक छोटा सा हिस्सा हो जिस प्रकार सागर सेतु बनाने में गिलहरी का था। मैं कभी समय पर कक्षा में नहीं जाता। चालीस मिनट की कक्षा में, मैं पाँच मिनट विलंब से जाता हूँ और पाँच मिनट पहले निकल आता हूँ। इस प्रकार प्रतिदिन दस मिनट का समय लूट कर मैं अपने मन को संतुष्ट करता हूँ। बालक मेरी कक्षा में ऐसे बैठता हैं मानो वह सोया हुआ हो। चाहे तो सो भी सकता है। हाँ मेरी अपनी संस्था है जो संकटापन्न बालकों की हर संभव सहायता करती है। नोट्स से लेकर गाइड तक हमारी संस्था मुहैया कराती है। इससे भी आगे बढ़कर हम बालकों को परीक्षा में चिट तक मुहैया कराते हैं ताकि उनकी नाव न डूबे। इसके बाद भी यदि कोई कुलनाशक बच्चा नौका डुबोने पर आतुर हो ही जाता है तो हम उसकी सिफारिश परीक्षक तक भी पहुँचाते हैं। सार संक्षेप यह कि हमारी संस्था में आया हुआ बालक किसी भी 'कीमत' पर सफल हो ही जाता है। कीमत तो ऊँची होती है मगर बालक देश की सेवा के लिए तैयार हो जाता है। बस एक मास्टर इससे ज्यादा क्या कर सकता है। हमारे पास कौन-सा देश का खजाना है कि हम लूटेंगे। एक टुच्ची सी कोशिश है।'
एक जोरदार तालियाँ हो जाए हमारे गुरु जी के लिए। सचमुच, आपकी कोशिश लाजवाब है। मानना पड़ेगा कि आप अपने अत्यल्प संसाधनों से ही देश को लूटने का हर संभव प्रयत्न करते हैं। कहते हैं 'कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती' देखते हैं आप की हार होती है या जीत। हमारे जज क्या कहते हैं? मैं पूछना चाहता हूँ श्रीमान घपलानंद गोस्वामी जी से -
- 'माट साब की कोशिश को हम सलाम करते हैं। हम वाकिफ हैं इन तरीकों से आखिर हम पढ़-लिखकर ही यहाँ तक पहुँचे हैं। हम आज जो भी हैं अपने गुरुजनों के कारण ही हैं। हमारा उन सबको प्रणाम जो इन सभी तरीकों को आजमाते रहे हैं। विद्यालयों में आज भी ऐसे बोरिंग शिक्षक मौजूद हैं जो बालकों पर अनावश्यक रूप से पढ़ने-लिखने के लिए दबाव डालते हैं। शिक्षण को एक आंदोलन के रूप में लेते हैं। उनसे देश का नुकसान हो रहा है। बालक यदि सारी ऊर्जा महज दो चार क्लास पास करने में ही लगा देगा तो आगे चलकर देश के लिए क्या करेगा? उन्हें तो केवल परीक्षा में एपीयर होने के आधार पर ही पासिंग सर्टीफिकेट दे देना चाहिए। इस पर बुद्धिजीवियों का एक सम्मेलन हम बुलाने वाले हैं। मास्टरों की नाक में और नकेल लगनी चाहिए ताकि वे बच्चों को परेशान करना छोड़ें। इस मास्टर साहब के लिए मैं स्टैंड हो जाता हूँ। मेरी ओर से दस में दस।'
हमारे अगले प्रतिभागी हैं व्यापार जगत से जुड़े बड़े भाई बकरीवाला। आप हर चीज बेचते हैं। आटा-दाल से लेकर नकली ड्राइविंग लाइसेंस तक। हमारा मंच आपका जोरदार स्वागत करता है। आप अपने अनुभव बताएँ।
- 'मैं क्या बताऊँ। मेरी दुकान का नाम है 'सुविधा'। हर प्रकार की सुविधा हम अपने ग्राहकों को देते हैं और जीवन को असान बनाते हैं। हम 'जीओ और जीने दो' के सिद्धांत पर चलते हैं। चावल में कंकड़ और दाल में भूसी मिलाकर हम देख चुके हैं। इसमें अब पहले की तरह कमाई नहीं रही। रिटेलर के पास आढ़तिए ही मिलाकर भेजते हैं। मिलावट भी एक सीमा से आगे नहीं बढ़ सकती। हमने दामों के ऊपर नकली दाम की पर्ची चिपका कर भी देखा है। ग्राहक इतने जाग गए हैं कि परेशानी होने लगी है। हमने कम तौलने के कई तरीके अपनाए। तराजू में ही इतनी वैज्ञानिक विधियाँ हम फिट कर देते हैं कि सामने वाला देख नहीं पाता। हम इनाम और लॉटरी का तरीका भी अपनाते हैं। भाँति-भाँति के ऑफर देते हैं। फटी और पुरानी साड़ियों को इन्हीं ऑफर में निकाल देते हैं। नाना प्रकार के विज्ञापनों के माध्यम से हम ग्राहकों के दिमाग का दरवाजा बंद करते हैं। यदि एक विज्ञापन में हमने एक लाख खर्च भी कर दिए तो क्या? उससे पाँच लाख लोग बेवकूफ बन जाते हैं। चार लाख का फायदा, यदि एक रुपये का ही लाभ लें। मेरा दावा है कि कोई बेवकूफ होता नहीं बनाया जाता है, यदि संचार माध्यमों का उचित उपयोग किया जाए तो। एक ही ब्रांड हम छह महीने बाद आउट डेटेड घोषित कर देते हैं। ताकि फिर से एक बार उसी आदमी को मूर्ख बनाया जा सके जिसे पिछली बार बनाया गया था। हम मूली से लेकर मोबाइल तक बेचते हैं। चाहें तो ताड़ी से लेकर ताजमहल तक बेच दें। इन सब बातों का यह अर्थ यह नहीं कि हमारी देश भक्ति किसी से कमजोर है। हम स्थानीय थाने से लेकर केंद्र के नेताओं तक को उचित लाभ देते हैं। पार्टियों को चंदा देते हैं। नेता से लेकर अभिनेता तक की सेवा करते हैं। बस इतना ही और क्या कर सकते हैं? हम गरीब आदमी हैं। सौ दो सौ करोड़ का घोटाला करने की हमारी हैसियत नहीं है। धन्यवाद।'
एक जोरदार तालियाँ हो जाएँ हमारे महान बड़े भाई बकरीवाला के लिए। अब हम मंच पर आमंत्रित करते हैं मीडिया से जुड़े प्रतिभागी को जो सदैव जनता के लिए लड़ते हैं लेकिन 'लूट इंडिया लूट' में उनका भी एक मजबूत हिस्सा है। आइए, सुनते हैं उनकी कहानी उन्हीं की जुबानी। स्वागत है आइए। हमारे अगले प्रतिभागी मंच पर आएँ इसके पूर्व नियमों के मुताबिक हम अपने जज श्री घपलेंदु जी से कॉमेंट चाहेंगे।
- 'पूँजीपति वर्ग के तो हम सदा से ही कायल हैं। हम उनके हैं और वे हमारे हैं। हम चंदन हैं, वे पानी हैं। उनके द्वारा प्रदत्त राशि ही रिटायरमेंट के बाद हमारे काम आती है नहीं तो सरकार हमारे पास छोड़ती ही क्या है। आयकर के नाम पर जो आए रहते हैं उसे ले जाती है। उन्होंने अपने ज्ञान का जो एक छोटा सा हिस्सा जनहित में जारी किया है। वह सराहनीय है। अब हम अगले प्रतिभागी को सुनें।'
- 'मैं 'सनसनी' चैनल का संवाददाता हूँ। हमारा काम है जनता को सदैव सनसनाए रखना और खुद को टीआरपी की खजूर पर चढ़ाना। जनता को सनसनाने के लिए कई बार तो हमें घटनाओं को जन्म तक देना पड़ता है। एक बार एक आदमी ने आत्मदाह की घोशणा की हम समय से पहले जाकर कैमरा वगैरह लगाकर लैस हो गए। सही समय पर वह आदमी आया। उसने हमारी आँखों के सामने अपने बदन पर घासलेट डाली। हाथ में माचिस ली और जलाई। हम एक-एक घटना को कैमरे में कैद कर रहे थे। उसने आग लगा ली और चिल्लाने लगा। हम लाइव टेलिकास्ट करने लगे। हम चाहते तो उसे आत्मदाह करने से रोक सकते थे। उसके हाथ से घासलेट लेकर उसे पुलिस के हवाले कर सकते थे लेकिन उससे न्यूज तो नहीं बनता न। हमारा भुगतान तो टीआरपी के आधार पर ही होता है। उस संवाददाता की बड़ी इज्जत होती है जो सबसे ज्यादा उत्तेजना पैदा करता है। यह तो परदे की बात हो गई। कई बार तो लक्ष्मी पर्दे के पीछे भी खूब मिलती है। कभी-कभी, किसी-किसी, भाग्यशाली संवाददाता को किसी नेता या उद्योगपति या दूसरे किसी बड़े आदमी का कोई राज मालूम हो जाता है। सबूत भी हाथ लग जाते हैं। हम आसानी से ब्लैकमेल करके माल बनाते हैं। ऐसा अक्सर नहीं होता। अक्सर हमें भूतनी, साँपनी, सूअरी, से लेकर बाबा भूतनाथ तक के समाचार प्रस्तुत करने होते हैं। जनता जब तक मुँह बाए हमारे समाचार को नहीं देखती तब तक हमें मजा ही नहीं आता। आपने सुना ही होगा कि सरेआम एक औरत के कपड़े उतारने का समाचार दिया गया था। बाद में पता नहीं कैसे यह बात सामने आ गई कि वह औरत और कपड़े उतारने वाले दोनों ही हमारे ही लोग थे। क्या करें करना पड़ता है। इतनी कड़ी प्रतियोगिता है कि आदमी को टीआरपी बढ़ाने के लिए सारे हथकंडे अपनाने पड़ते हैं। चैनल को उसी के मुताबिक विज्ञापन मिलते हैं। अब इससे ज्यादा हम क्या योगदान दे सकते हैं? हम राष्ट्रीय स्तर का घोटाला तो कर नहीं सकते। आशा है जजेज हमारी मजबूरी समझेंगे। धन्यवाद, जयहिंद।'
दर्शकों, जोरदार तालियाँ हो जाएँ हमारे संवाददाता प्रतिभागी के लिए। आखिर जनता के लिए ही इतनी जोखिम उठाते हैं। अब एक कमेंट हो जाए श्री घपलेश्वर जी का आखिर मीडिया और राजनीति का चोली दामन का साथ है।
- 'हाँ चोली दामन वाली बात आपने ठीक कही। मीडिया हमारी ताकत है। जनता की आँख है। इनकी एक खासियत और है जो शायद संकोचवश इन्होंने नहीं कहा। ये लोग सरकार सापेक्ष होते हैं। जिस दल की सरकार होती है उसी के अनुरूप ढल जाते हैं। नहीं तो केवल सनसनी पैदा करने के लिए तिल को खींच कर ताड़ बना देंगे। रस्सी को साँप सिद्ध करने में जितनी महारत इन्हें हासिल है उतनी किसी भी वर्ग को नहीं। सोने में सुगंध यह कि इनकी दुनिया में सभी पढ़े-लिखे ही होते है मगर लूटने का कोई भी मौका नहीं छोड़ते। हम इन्हें सलाम करते हैं।'
आइए, हम जोरदार तालियों से स्वागत करें अपने अगले प्रतिभागी का जो एक 'बाबा' हैं। प्रवचन वगैरह करके समाज को उत्थान के मार्ग पर लिए जा रहे हैं। मैं तो समझता हूँ कि आजतक यदि प्रलय नहीं हुआ तो इन बाबाओं के कारण ही। कौन भगवान चाहेगा कि इतनी संपत्ति एक बार में बरबाद हो जाए। आइए, बाबा आपका स्वागत हैं। 'लूट इंडिया लूट' में अपने योगदान का बखान करें।
- 'बच्चो!'
बाबा, यहाँ बच्चा कोई नहीं है।
- 'हमारे लिए तो सभी बच्चे हैं। केवल हमीं सयाने हैं। तो बच्चो! यह संसार पाप का घर है। इसे स्वच्छ करने में हमारी भूमिका तो ईश्वर ने उसी दिन तय कर दी जिस दिन हमने संन्यास ग्रहण किया। क्यों किया? यह कहने का यह मंच नहीं है। नाना प्रकार के पापों और पपियों से समाज को बचाने के लिए हम प्रवचन करते हैं। उसे सुनकर लोग खूब लाभ उठाते हैं। थोड़ा सा लाभ हम भी उठा लेते हैं। आप देख ही रहे हैं, हमारे बदन पर यह रेशमी कुर्ता और हजार रुपये की धोती। यह अंगरखा हमने खास तौर पर दुबई से मंगाया है। मनुष्य के शरीर में आत्मा रूपी भगवान रहते हैं इसलिए इसे सजाना पड़ता है। हम छप्पन भोग जरूर खाते हैं लेकिन अपने लिए नहीं, उसी भगवान के लिए जो शरीर में निवास कर रहे हैं। हम मखमली गद्दे पर जरूर सोते हैं लेकिन उसी गॉड के लिए। आदरणीय न्यायधीश मंडली से आग्रह है कि हमारी तकनीक पर ध्यान दें। हम ऐश करते हैं तो सिर्फ इसलिए कि आत्मा रूपी परमात्मा खुश रहें। हमारे दर्शनों के लिए पाँच हजार रुपये दानपेटी में डालने पड़ते हैं। मंदिर जो हमेशा निर्माणाधीन ही रहते हैं, के लिए दान स्वरूप एक दो हजार रुपये डालना तो आम बात है। हमारे प्रभु सोने के सिंहासन पर विराजते हैं। सोने के मुकुट पहनते हैं। चाँदी का चँवर डोलाना पड़ता है। यही कारण है कि हमारे भक्त हमें सोने, चाँदी की भेंट दिया करते हैं। हम अपने भक्तों को निराश नहीं करते। उन्हें हर वह खुशी देते हैं जो इस भौतिक शरीर को चाहिए। हम उन्हें परमशांति और आनंद देते हैं। हम दो भक्तों का संगम भी करा देते हैं ताकि वे परम आनंद को प्राप्त कर सकें। हमारा तो एक ही उद्येश्य है - सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया। हरिओम तत्सत् हरिओम तत्सत्। जय हो समाज और संसार की।'
जय हो बाबा जय हो। आप महान ही नहीं अद्भुत भी हैं। मैं प्रार्थना करता हूँ, अपने जज श्री घपलेश्वर नौनिहाल से कि बाबा के परफार्मेंस पर दो शब्द कहें -
- 'हम तो बाबा के चेले हैं। इसी बाबा के नहीं जितने भी बाबा और बापू हो रहे हैं, हम सबके चेले हैं। ज्ञान की जो गंगा इन लोगों ने बहाई है। उसमें पता नहीं कितने गाँव और शहर बह गए। इनकी तकनीक अनोखी है। एक हजार लोगों को एक ही टोटका बताते हैं। उसमें से दस पर भी यदि लग गया तो अगली बार उसे मीडिया के सामने कर देंगे। कभी-कभी तो इनके भक्त प्रायोजित भी होते हैं। वे मीडिया के सामने कहते हैं कि कैंसर ठीक हो गया। डायबिटिज ठीक हो गया। सुनने वाले अगली बार मिलने आ जाएँगे। यह जो मैनेजमेंट का कमाल है वह अनुकरणीय है। इनको आयकर नहीं देना पड़ता। जितने प्रकार के सुख भगवान ने बनाए हैं सब इन लोगों के लिए ही हैं। जनता भी जान देती है। मजे तो हम भी करते हैं लेकिन हमारी छवि खराब हो जाती है। इनकी सदा जय हो। अब तो बाबा लोग राजनीति में भी आ रहे हैं। खुद के पास करोड़ों की संपत्ति है लेकिन कालाधन के खिलाफ मुहिम चला रहे हैं। जय हो प्रभु। जय हो।'
हमारे आखिरी प्रतिभागी हैं एक एनजीओ के डायरेक्टर जो आज लाखों से खेल रहे हैं जबकि कल तक उनके पास मात्र एक साइकिल थी और वह भी पुरानी। आखिर उन्होंने समाज की सेवा करके कैसे इतना माल बना लिया। उन्हीं से सुनते हैं। 'लूट इंडिया लूट' के इस आखिरी प्रतिभागी के लिए जोरदार तालियाँ।
- 'मैं एनजीओ चलाता हूँ। दस साल पहले हमने एक एनजीओ बनाई - 'सेवक'। समाज सेवा के लिए नहीं दरअसल मेरा नाम ही सेवक है। सेवक राम। तो साहब, सेवा का भी एक भी मौका हम छोड़ते नहीं है। चाहे वह बाढ़ के समय हो या सूखे के समय। आग लगे या भूकंप आए। हम तत्पर रहते हैं सेवा के लिए। हमारे साँठ-गाँठ काफी ऊपर तक हैं। राहत बाँटने का ठेका हमें ही मिलता है। राहत हम बाँटते भी हैं। नीचे से लेकर ऊपर तक सभी को राहत पहुँचाते हैं। लगे हाथ आम आदमी को भी राहत मिल जाती है। फटे-पुराने कंबल और रजाइयाँ हम नियमित रूप से राहत शिविरों में देते है। यह बात अलग है कि जितनी एंपोर्टेड सामग्री है वह बड़े लोगों की सेवा में जाती है। आखिर उन्हीं की कृपा से हमें चेक मिलते हैं। यह एक सिस्टम हैं, सबको सबका ख्याल रखना पड़ता है। तो जनाब भारत में न तो बाढ़ की कमी है न सूखे की। सरकार तो जनहित के लिए सदैव तत्पर रहती ही है। हमने इन हालातों में यदि दो पैसे जोड़ लिए तो कौन सी बड़ी कला हो गई? हम जितना दस साल में जोड़ पाए उतना तो जज साहब एक साल में जोड़ लेते हैं। उन्हें मौका अधिक मिलता है। वरना, कला और कौशल में हम उनसे कम नहीं है।'
खैर, आप जजों पर कॉमेंट नहीं कर सकते। यह नियमों के विपरीत है। हम जानते है कि हमारे माननीय जज आपके बारे में क्या राय रखते हैं। हम टिप्पणी लेते हैं श्रीमान घपलेश्वर जी से। आप राजनीति से जुड़े हैं। नाना प्रकार के घोटालों के जनक भी हैं और निर्णायक भी। तो घपलेश्वर जी...।
- 'यह गर्व की बात है कि आपके इस कार्यक्रम में समाज के सभी क्षेत्रों से जुड़े लोग आए सबने अपनी कला और कौशल का बखान किया। जहाँ तक बात है डायरेक्टर साहब का तो हम इनकी कला और समर्पण के कायल हैं। एनजीओ खोलते ही घपलों के चांस नहीं मिलने लगते। उसके लिए निरंतर प्रयास करना पड़ता है। अर्जुन की तरह केवल जो अपने लक्ष्य अर्थात धन पर ही निगाह लगाकर रखेगा उसे ही कालांतर में इस प्रकार के चांस मिलते हैं। हो सकता है कि एकलव्य की तरह कोई आपको गुरु न मिले और यदि मिले भी तो आपका ही अँगूठा काटने के लिए तैयार मिले। आपको अपने प्रयासों से ही घोटालों के स्वर्ग तक सदेह पहुँचना पड़ता है। हम डायरेक्टर साहब की इज्जत करते हैं और आग्रह करते हैं कि हमसे एकांत में मिलें।'
दर्शकों, शो का समय समाप्त हो रहा है। आपको हम अगले सप्ताह के एपीसोड में बताएँगे कि कौन है 'लूट इंडिया लूट' का विजेता। आखिर हमें भी तो ये रियल्टिी शो चलानी है जिनमें रियल्टिी नाम की चीज कुछ होती नहीं है। लिखे हुए स्क्रीप्ट पर सारे नाटक होते है। चाहे वह दो जजों के बीच की लड़ाई हो या अचानक किसी हस्ती का पहुँचना। किसी प्रतिभागी के माँ-बाप को लाना या उनके पसंदीदा कलाकार को सेट तक लाना। यह पहले से ही तय होता है ताकि अधिक से अधिक विज्ञापन मिल सकें। सारा खेल विज्ञापनों का ही है। सारा देश विज्ञापनों पर ही चल रहा है। सरकार अपने पक्ष में विज्ञापन दे रही है। विपक्ष उसके खिलाफ विज्ञापन दे रहा है। समाज सेवा का डंका पीटने वाले अपने पक्ष में विज्ञापन दे रहे हैं। जो जितना बड़ा प्रबंधक होगा, वह उतना अधिक चमकेगा। आप चाहें तो हमारे इस प्रोग्राम में हिस्सा ले सकते है। ले सकते क्या हैं? लेते ही हैं। हर आदमी इस प्रोग्राम का प्रतिभागी है। चाहे वह थोड़ा लूटता हो या ज्यादा। बेशक आपकी प्रसिद्धि नहीं हुई। खैर, आप चाहें तो हमारे प्रतिभागियों के लिए मैसेज कर सकते हैं। हमारी लाइन हमेशा खुली ही रहती है।

Friday 22 August 2014

किसे लिखूं मैं; जो जीवन को टूट-टूटकर जीते हैंया उनको, जो जीवन को भांति-भांति से भोग रहे हैं ?किसे पढ़ूं मैं; जो जीवन भर टूट-टूटकर लिखते हैंया उनको, जो जीवन भर झूठ-मूठ का लिखते हैं ?



धारा के विरुद्ध तैरो : अनंतमूर्ति

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित प्रख्यात कन्नड़ लेखक डॉ. उडुपी राजगोपालाचार्य
अनंतमूर्ति ने कहा था कि यदि गुजरात के मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री बने तो लोगों में भय का संचार होगा। भारत में अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरा बढ़ जाएगा । देश में असहिष्णुता बढ़ेगी। भारत को एक मजबूत और शक्तिशाली राष्ट्र बनाने का ईमानदार प्रयास भी खतरे से भरा है। शक्तिशाली को सैन्य शक्ति, तकनीकी शक्ति, आर्थिक शक्ति आदि के रूप में ही परिभाषित किया जाता है लेकिन भारत को शक्तिशाली नहीं, लचीला राष्ट्र बनने की जरूरत है। भारत एक अलग किस्म की सभ्यता है। इसी तरह जब विकास की बात की जाती है तो उसका मतलब होता है कि बाघों के लिए कोई जगह नहीं होगी, अनगिनत भाषाओं के लिए कोई जगह नहीं होगी, अलग-अलग तरह के खान-पान के लिए कोई जगह नहीं होगी क्योंकि विभिन्न तरह के भोजन को मार्केट नहीं किया जा सकेगा। भारत विविधता वाला देश है। नरेंद्र मोदी के साथ समस्या यह है कि उनके पास आंतरिक जीवन नहीं है। यह भी एक तरह का खतरा है। मैं ऐसे देश में नहीं रहना चाहता, जहां मोदी प्रधानमंत्री हों।
उन्होंने कहा था कि हमारी क्षेत्रीय भाषाओं में रचा जाने वाला साहित्य अंग्रेजी में रचे जाने वाले साहित्य से बहुत भिन्न है। हम लोग लगातार समाज और संस्कृति के सवालों से जुड़े रहते हैं और जूझते रहते हैं। सिर्फ भारतीय भाषाओं में ही दलित साहित्य का या महिला लेखन का आंदोलन है। मेरा मानना है कि प्रत्येक संस्कृति का एक फ्रंटयार्ड और एक बैकयार्ड होता है। क्षेत्रीय भाषाएं हमारा बैकयार्ड हैं और वह बहुत समृद्ध है। जवाहरलाल नेहरू ने साहित्य अकादमी की स्थापना इसीलिए की थी ताकि सभी भारतीय भाषाओं को राष्ट्रीय भाषाओं का दर्जा प्राप्त हो। जब मैं अकादमी का अध्यक्ष था, तो कई आदिवासी भाषाएं भी साहित्य अकादमी की सूची में शामिल की गई थीं। हमारे देश में अंग्रेजी में कुछ बहुत अच्छी चीजें लिखी गई हैं लेकिन हमारी अपनी भारतीय भाषाओं में भी बहुत ही अच्छा साहित्य रचा जा रहा है। इसलिए अंग्रेजी का ऐसा कोई खास असर नहीं है। इतना जरूर है कि अब हर लेखक चाहता है कि उसका अंग्रेजी में अनुवाद हो।
उन्होंने कहा था कि धारा के विरुद्ध तैरो। सभी महान लेखकों ने यह किया है। काफ्का, कामू....किसी को भी ले लीजिये। वे सभी धारा के विरुद्ध तैरे. अंग्रेजी के रोमांटिक कवियों को देखिये। ब्लैक औद्योगिक क्रांति के बहुत बड़े आलोचक थे हालांकि यह क्रांति पश्चिमी सभ्यता के लिए सभी कुछ ला रही थी लेकिन ब्लैक इसके खिलाफ थे। वह इसके साथ जुड़ी क्रूरता और हिंसा के साक्षी थे और उन्होंने अपने विरोध को अभिव्यक्ति दी वर्ना औद्योगिक क्रांति तो बहुत बड़ी चीज थी।

अंधियारे बिल से झाँक रहे सर्पों की आँखें तेज़ हुईं : गजानन माधव मुक्तिबोध

अंधियारे मैदान के इन सुनसानों में
बिल्ली की, बाघों की आँखों-सी चमक रहीं
ये राग-द्वेष, ईर्ष्या, भय, मत्सर की आँखें,
हरियातूता की ज़हरीली-नीली-नीली
ज्वाला, कुत्सा की आँखों में ।
ईर्ष्या-रूपी औरत की मूँछ निकल आयी ।
इस द्वेष-पुरुष के दो हाथों के
चार और पंजे निकले ।
मत्सर को ठस्सेदार तेज़ दो बौद्धिक सींग निकल आये ।
स्वार्थी भावों की लाल
विक्षुब्ध चींटियों को सहसा
अब उजले पर कितने निकले ।
अंधियारे बिल से झाँक रहे
सर्पों की आँखें तेज़ हुईं ।
अब अहंकार उद्विग्न हुआ,
मानव के सब कपड़े उतार
वह रीछ एकदम नग्न हुआ ।
ठूँठों पर बैठे घुग्घू-दल
के नेत्र-चक्र घूमने लगे
इस बियाबान के नभ में सब
नक्षत्र वक्र घूमने लगे ।
कुछ ऐसी चलने लगी हवा,
अपनी अपराधी कन्या की चिन्ता में माता-सी बेकल
उद्विग्न रात
के हाथों से
अंधियारे नभ की राहों पर
है गिरी छूटकर
गर्भपात की तेज़ दवा
बीमार समाजों की जो थी ।
दुर्घटना से ज्वाला काँपी कन्दीलों में
अंधियारे कमरों की मद्धिम पीली लौ में,
जब नाच रही भीतों पर भुतही छायाएँ
आशंका की--
गहरे कराहते गर्भों से
मृत बालक ये कितने जन्मे,
बीमार समाजों के घर में !
बीमार समाजों के घर में
जितने भी हल है प्रश्नों के
वे हल, जीने के पूर्व मरे । उनके प्रेतों के आस-पास
दार्शनिक दुखों की गिद्ध-सभा
आँखों में काले प्रश्न-भरे बैठी गुम-सुम ।
शोषण के वीर्य-बीज से अब जनमे दुर्दम
दो सिर के, चार पैर वाले राक्षस-बालक ।
विद्रूप सभ्यताओं के लोभी संचालक ।
मानव की आत्मा से सहसा कुछ दानव और निकल आये !

मानव मस्तक में से निकले
कुछ ब्रह्म-राक्षसों ने पहनी
गान्धीजी की टूटी चप्पल
हरहरा उठा यह पीपल तब
हँस पड़ा ठठाकर, गर्जन कर, गाँव का कुआँ ।
तब दूर, सुनाई दिया शब्द, 'हुआँ' 'हुआँ' !
त्यागे मन्दिर के अध-टूटे गुम्बद पर स्थित
वीरान प्रदेशों का घुग्घू
चुपचाप, तेज़, देखता रहा--
झरने के पथरीले तट पर
रात के अंधेरे में धीरे
चुपचाप, कौन वह आता है, या आती है,
उसके पीछे--
पीला-पीला मद्धिम कोई कन्दील
छिपाये धोती में (डर किरणों से)
चुपचाप कौन वह आता है या आती है--
मानो सपने के भीतर सपना आता हो,
सपने में कोई जैसे पीछे से टोंके,
फिर, कहे कि ऐसा कर डालो !
फिर, स्वयं देखता खड़ा रहे
औ' सुना करे वीराने की आहटें, स्वयं ही सन्नाकर
रह जाये अपने को खो के !

त्यागे मन्दिर के अध-टूटे गुम्बद पर स्थित
घुग्घू को आँखों को अब तक
कोई भी धोखा नहीं हुआ,
उसने देखा--
झरने के तट पर रोता है कोई बालक,
अंधियारे में काले सियार-से घूम रहे
मैदान सूँघते हुए हवाओं के झोंके ।
झरने के पथरीले तट पर
सो चुका, अरे, किन-किन करके, कुछ रो-रो के
चिथड़ों में सद्योजात एक बालक सुन्दर ।
आत्मा-रूपी माता ने जाने कब त्यागा
जीवन का आत्मज सत्य न जाने किसके डर ?
माँ की आँखों में भय का कितना बीहड़पन
जब वन्य तेंदुओं की आँखों से दमक उठे
गुरु शुक्र और तारे नभ में
जब लाल बबर फ़ौजी-जैसा
जो ख़ूनी चेहरा चमक उठा
वह चांद कि जिसकी नज़रों से
यों बचा-बचा,
यदि आत्मज सत्य यहाँ रक्खे झरने के तट,
अनुभव शिशु की रक्षा होगी ।
ले इसी तरह के भाव अनगिनत लोगों ने
अपने ज़िन्दा सत्यों का गला बचाने को
अपना सब अनुभव छिपा लिया,
हाँ में हाँ, नहीं नहीं में भर
अपने को जग में खपा लिया !

चुपचाप सो रहा था मैं अपने घर में जब,
सहसा जगकर, चट क़दम बढ़ा,
अंधियारे के सुनसान पथों पर निकल पड़ा,
बहते झरने के तट आया
देखा--बालक ! अनुभव-बालक !!
चट, उठा लिया अपनी गोदी में,
वापस ख़ुश-ख़ुश घर आया !
अपने अंधियारे कमरे में
आँखें फाड़े मैने देखा मन के मन में
जाने कितने कारावासी वसुदेव
स्वयं अपने कर में, शिशु-आत्मज ले,
बरसाती रातों में निकले,
धँस रहे अंधेरे जंगल में
विक्षुब्ध पूर में यमुना के
अति-दूर, अरे, उस नन्द-ग्राम की ओर चले ।
जाने किसके डर स्थानान्तरित कर रहे वे
जीवन के आत्मज सत्यों को,
किस महाकस से भय खाकर गहरा-गहरा :
भय से अभ्यस्त कि वे उतनी
लेकिन परवाह नहीं करते !!
इसलिए, कंस के घण्टाघर
में ठीक रात के बारह पर
बन्दूक़ थमा दानव-हाथों,
अब दुर्जन ने बदला पहरा !
पर इस नगरी के मरे हुए
जीवन के काले जल की तह
के नीचे सतहों में चुप
जो दबे पाँव चलती रहतीं
जल-धाराएँ ताज़ी-ताज़ी निर्भय, उद्धत
तल में झींरे वे अप्रतिहत !

कानाफूसी से व्याप्त बहुत हो जाती है,
इन धाराओं में बात बहुत हो जाती है ।
आते-जाते, पथ में, दो शब्द फुसफुसाते
इनको, घर आते, रात बहुत हो जाती है ।
एक ने कहा--
अम्बर के पलने से उतार रवि--राजपुत्र
ढाँककर साँवले कपड़ों में
रख दिशा-टोकरी में उसको
रजनी-रूपी पन्ना दाई
अपने से जन्मा पुत्र-चन्द्र फिर सुला गगन के पलने में
चुपचाप टोकरी सिर पर रख
रवि-राजपुत्र ले खिसक गयी
पुर के बाहर पन्ना दाई ।
यह रात-मात्र उसकी छाया ।
घबराहट जो कि हवा में है
इसलिए कि अब
शशि की हत्या का क्षण आया ।

अन्य ने कहा--
घन तम में लाल अलावों की
नाचती हुई ज्वालाओं में
मृद चमक रहे जन-जन मुख पर
आलोकित ये विचार है अब,
ऐसे कुछ समाचार है अब
यह घटना बार-बार होगी,
शोषण के बन्दी-गृह-जन में
जीवन की तीव्र धार होगी !
और ने कहा--
कारा के चौकीदार कुशल
चुपचाप फलों के बक्से में
युगवीर शिवाजी को भरते
जो वेश बदल, जाता दक्षिण को ओर निकल !
एक ने कहा--
बन्दूक़ों के कुन्दों पर स्याह अंगूठों ने
लोहे के घोड़े खड़े किये,
पिस्तौलों ने अपने-अपने मुँह बड़े किये,
अस्त्रों को पकड़े कलाइयों
की मोटी नस हाँफने लगी
एकाग्र निशाना बने ध्यान के माथे पर
फिर मोटी नसें कसी, उभरीं
पर पैरों में काँपने लगी ।
लोहे की नालों की टापें गूँजने लगी ।
अम्बर के हाथ-पैर फूले,
काल की जड़ें सूजने लगीं ।
झाड़ों की दाढ़ी में फन्दे झूलने लगे,
डालों से मानव-देह बंधे झूलने लगे ।
गलियों-गलियों हो गयी मौत की गस्त शुरु,
पागल-आँखों, सपने सियाह बदमस्त शुरु !
अपने ही कृत्यों-डरी
रीढ़ हड्डी
पिचपिची हुई,
वह मरे साँप के तन-सी ही लुचलुची हुई ।
अन्य ने कहा--
दुर्दान्त ऐतिहासिक स्पन्दन
के लाल रक्त से लिखते तुलसीदास आज
अपनी पीड़ा की रामायण,
उस रामायण की पीड़ा के आलोक-वलय
में मुख-मण्डल माँ का झुर्रियों-भरा
उभरा-निखरा,
उर-कष्ट-भरी स्मित-हँसी
कि ज्यों आहत पक्षी
रक्तांकित पंख फड़फड़ाती
मेरे उर की शाखाओं पर आ बैठी है
कराह दाबे गहरी
(जिससे कि न मैं जाऊँ घबरा)
माँ की जीवन-भर की ठिठुरन,
मेरे भीतर
गहरी आँखोंवाला सचेत
बन गयी दर्द ।
उसकी जर्जर बदरंग साड़ी का रंग
मेरे जीवन में पूरा फैल गया ।
मुझको, तुमको
उसकी आस्था का विक्षोभी
गहरी धक्का
विक्षुब्ध ज़िन्दगी की सड़कों पर ठेल गया ।
भोली पुकारती आँखें वे
मुझको निहारती बैठी हैं ।

और ने कहा--
वह चादर ओढ़, दबा ठिठुरन, मेरे साथी !
वह दूर-दूर बीहड़ में भी,
बीहड़ के अन्धकार में भी,
जब नहीं सूझ कुछ पड़ता है,
जब अंधियारा समेट बरगद
तम की पहाड़ियों-से दिखते,
जब भाव-विचार स्वयं के भी
तम-भरी झाड़ियों-से दिखते ।
जब तारे सिर्फ़ साथ देते
पर नहीं हाथ देते पल-भर
तब, कण्ठ मुक्त कर, मित्र-स्वजन
नित नभ-चुम्बी गीतों द्वारा
अपना सक्रिय अस्तित्व जताते एक-दूसरे को
वे भूल और फिर से सुधार के रास्ते से
अपना व्यक्तित्व बनाते हैं।
तब हम भी अपने अनुभव के सारांशों को
उन तक पहुँचाते हैं, जिसमें
जिस पहुँचाने के द्वारा, हम सब साथी मिल
दण्डक वन में से लंका का
पथ खोज निकाल सकें प्रतिपल
धीरे-धीरे ही सही, बढ़ उत्थानों में अभियानों में

अंधियारे मैदानों के इन सुनसानों में
रात की शून्यताओं का गहरापन ओढ़े
ज़्यादा मोटे, ज़्यादा ऊँचे, ज़्यादा ऐंठे
भारी-भरकम लगने वाले
इन क़िले-कंगूरों-छज्जों-गुम्बद-मीनारों
पर, क्षितिज-गुहा-मांद में से निकल
तिरछा झपटा,
जो गंजी साफ़-सफ़ेद खोपड़ीवाला चांद
कुतर्की वह
सिर-फिरे किसी ज्यामिति-शाली-सा है।
नीले-पीले में घुले सफ़ेद उजाले की
आड़ी-तिरछी लम्बी-चौड़ी
रेखाओं से
इन अन्धकार-नगरी की बढ़ी हुई
आकृति के खींच खड़े नक्षे
वह नये नमूने बना रहा
उस वक़्त हवाओं में अजीब थर्राहट-सी
मैं उसको सुनता हुआ,
बढ़ रहा हूँ आगे
चौराहे पर
प्राचीन किसी योद्धा की ऊँची स्फटिक मूर्ति,
जिस पर असंग चमचमा रही है
राख चांदनी की अजीब
उस हिमीभूत सौन्दर्य-दीप्ती
में पुण्य कीर्ति
की वह पाषाणी अभिव्यक्ति
कुछ हिली।
उस स्फटिक मूर्ति के पास
देखता हूँ कि चल रही साँस
मेरी उसकी।
वे होंठ हिले
वे होंठ हँसे
फिर देखा बहुत ध्यान से तब
भभके अक्षर!!
वे लाल-लाल नीले-से स्वर
बाँके टेढ़े जो लटक रहे
उसके चबूतरे पर, धधके!!

मेरी आँखों में धूमकेतु नाचे,
उल्काओं की पंक्तियाँ काव्य बन गयीं
घोषणा बनी!!
चांदनी निखर हो उठी
उस स्फटिक मूर्ति पर, उल्काओं पर
मेरे चेहरे पर!!
पाषाण मूर्ति के स्फटिक अधर
पर वक्र-स्मित
कि रेखाएँ उसकी निहारती हैं
उन रेखाओं में सहसा मैं बंध जाता हूँ
मेरे चेहरे पर नभोगन्धमय एक भव्यता-सी।
धीरे-धीरे मैं क़दम बढ़ा
गलियों की ओर मुड़ा
जाता हूँ ज्वलत् शब्द-रेखा
दीवारों पर, चांदनी-धुंधलके में भभकी
वह कल होनेवाली घटनाओं की कविता
जी में उमगी!!
तब अन्धकार-गलियों की
गहरी मुस्कराहट
के लम्बे-लम्बे गर्त-टीले
मेरे पीले चेहरे पर सहसा उभर उठे!!
यों हर्षोत्फुल्ल ताज़गी ले
मैं घर में घुसता हूँ कि तभी
सामने खड़ी स्त्री कहती है--
"अपनी छायाएँ सभी तरफ़
हिल-डोल-रहीं,
ममता मायाएँ सभी तरफ़
मिल बोल रहीं,
हम कहाँ नहीं, हम जगह-जगह
हम यहाँ-वहाँ,
माना कि हवा में थर्राता गाना भुतहा,
हम सक्रिय हैं।"

मेरे मुख पर
मुसकानों के आन्दोलन में
बोलती नहीं, पर डोल रही
शब्दों की तीखी तड़ित्
नाच उठती, केवल प्रकाश-रेखा बनकर!
अपनी खिड़की से देख रहे हैं हम दोनों
डूबता चांद, कब डूबेगा!!

Thursday 21 August 2014


हम गोरी बुराई की जगह काली बुराई को लाकर कष्‍ट नहीं उठाना चाहते। बुराइयां, एक स्‍वार्थी समूह की तरह, एक-दूसरे का स्‍थान लेने के लिए तैयार हैं।
प्यासे-प्यासे ओस चाटते रहे फलाने,
बिना सजा के जेल काटते रहे फलाने,
समय कटे कैसे अब एक-एक दिन भारी,
जीवन भर आदर्श बांटते रहे फलाने ।

Wednesday 20 August 2014

मीडिया हूं मैं / जयप्रकाश त्रिपाठी

मीडिया में अपना भविष्य देख रहे जर्नलिज्म के छात्रों के लिए अपरिहार्य-सी मेरी सद्यःप्रकाशित पुस्तक 'मीडिया हूं मैं' 'पत्रकारिता का श्वेतपत्र' शीर्षक से इस आत्मकथ्य के साथ प्रारंभ होती है -  मुझे पत्रकारिता, प्रोपेगंडा, चुप्पी और उस चुप्पी को तोड़ने के बारे में बात करनी चाहिए : जॉन पिल्जर
'' चौथा स्तंभ । मीडिया हूं मैं । सदियों के आर-पार । संजय ने देखी थी महाभारत । सुना था धृतराष्ट्र ने । सुनना होगा उन्हें भी, जो कौरव हैं मेरे समय के । पांडु मेरा पक्ष है । प्रत्यक्षदर्शी हूं मैं सूचना-समग्र का, ... 'चौथा खंभा' कहा जाता है मुझे आज । आखेटक हांफ रहे हैं, हंस रहे हैं मुझ पर, 'चौथा धंधा' हो गया हूं मैं।' उजले दांत की हंसी नहीं हूं मैं अपने समय के आरपार । पढ़ना होगा मुझे बार-बार , अपनी कलम, अपने सपनों के साथ, मेरे साथ । श्रमजीवी पत्रकार हैं, सोशल मीडिया, जन-मीडिया, ग्रामीण पत्रकारिता आप का पक्ष है, गांव, खेत-खलिहान के हैं, अभिव्यक्ति की आजादी के पक्षधर साहित्यकार हैं अथवा महिला पत्रकार; तो पढ़ लीजिए, पहचान लीजिए, ...मुझ में गूंज रहे हैं शहीद भगत सिंह, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, बाबूराव विष्णु पराड़कर, डॉ. भीमराव अंबेडकर, मौलाना अबुल कलाम आजाद के स्वर ।''
विश्व-मीडिया की दुर्लभ सूचनाओं एवं आद्योपांत सुपठनीयता से परिपूर्ण अपने कुल 608 पृष्ठों, तेरह अध्यायों में विभाजित इस पुस्तक का मुखपृष्ठ रघुवीर सहाय की इन पंक्तियों से उद्धृत होता है- 'कुछ तो होगा, कुछ तो होगा, अगर मैं बोलूंगा, न टूटे, न टूटे तिलिस्म सत्ता का,  मेरे अंदर का एक कायर टूटेगा ।' मीडिया का इतिहास, न्यू मीडिया, मीडिया का अर्थशास्त्र, मीडिया-राज्य-कानून और समाज, मीडिया में गांव और स्री, मीडिया में भाषा-साहित्य और मनोरंजन आदि विषय-केंद्रित विविध पक्षों को सविस्तार रेखांकित करने के साथ ही, पुस्तक में सुपरिचित पत्रकार ओम थानवी, साहित्यकार अशोक वाजपेयी, प्रसिद्ध टिप्पणीकार आनंदस्वरूप वर्मा आदि बारह मीडिया चिंतकों के बहुचर्चित लेख और एक महिला पत्रकार का त्रासद सफरनामा संकलनीय है । पुस्तक के ऐतिहासिक प्रेरणास्रोत हैं - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महात्मा गांधी, माधवराव सप्रे, रामकृष्ण रघुनाथ खाडिलकर, इंद्रविद्या वाचस्पति, बनारसी दास चतुर्वेदी, बारींद्रनाथ घोष, लोकमान्य तिलक, सखाराम गणेश देउस्कर, मदनमोहन मालवीय, रामरख सिंह सहगल, दुलारे लाल भार्गव, पं.लक्ष्मण नारायण गर्दे आदि। मीडिया और स्त्री समस्या पर सीमोन द बोउवार, हेमंतकुमारी चौधरी, रामेश्वरी नेहरू, हुम्मा देवी, गुलाब देवी चतुर्वेदी, उषा प्रियंवदा आदि, मीडिया और मुसलमान विषय पर एडवर्ड सईद,  इकबाल अहमद, मौलाना मोहम्मद अली जौहर, अबुल कलाम आज़ाद, डॉ.असगर अली इंजीनियर, डॉ. खुर्शीद अनवर, अख्तर हुसैन आदि पलाश विश्वास आदि के विचार रेखांकित हैं। पश्चिमी विचारकों, मीडिया चिंतकों और उद्यमियों में मुख्यतः जोजेफ पुलित्ज़र, नोम चोमस्की, सार्त्र, एडवर्ड हरमन, बौद्रिलार्द, हर्बर्ट शिलर, लिओ बोगर्ट, जान बर्ट, सीजी मूलर, विखेम स्टीड, जेम्स मैकडोनल्ड, लिप मैन, जॉन पिल्जर, मैकलुहान, चीफ जुलियन असान्जे आदि को उद्धृत किया गया हैं। (अमेजॉन, ई-बे, ऑलक्स आदि पर पुस्तक ऑनलाइन भी उपलब्ध है।)

जयप्रकाश त्रिपाठी

'मीडिया हूं मैं' : पृष्ठ- 612, मूल्य- 550 रुपये / संपर्क:120/41,LajpatNagar, Kanpur (UP)-208005/E-mail : jan.media.manch@gmail.com, Phone : 08009831375


Saturday 16 August 2014

लेखकों और कवियों के काम की एक अदभुत बहस / सच और झूठ एक-दूसरे के साथ-साथ / साहस यह नहीं पूछता कि चट्टान कितनी ऊँची है...



( मेरा दागिस्तान / रसूल हमजातोव)

युग-युगों से सच और झूठ एक-दूसरे के साथ-साथ चल रहे हैं। युग-युगों से उनके बीच यह बहस चल रही है कि उनमें से किसकी अधिक जरूरत है, कौन अधिक उपयोगी और शक्तिशाली है। झूठ कहता है कि मैं और सच कहता है कि मैं। इस बहस का कभी अंत नहीं होता।
एक दिन उन्‍होंने दुनिया में जाकर लोगों से पूछने का फैसला किया। झूठ तंग और टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर आगे-आगे भाग चला, वह हर सेंध में झाँकता, हर सूराख में सूँघा-साँघी करता और हर गली में मुड़ता। मगर सच गर्व से गर्दन ऊँची उठाए सिर्फ सीधे, चौड़े रास्‍तों पर ही जाता। झूठ लगातार हँसता था, पर सच सोच में डूबा हुआ और उदास-उदास था।
उन दोनों ने बहुत-से रास्‍ते, नगर और गाँव तय किए, वे बादशाहों, कवियों, खानों, न्‍यायाधीशों, व्‍यापारियों, ज्‍योतिषियों और साधारण लोगों के पास भी गए। जहाँ झूठ पहुँचता, वहाँ लोग इतमीनान और आजादी महसूस करते। वे हँसते हुए एक-दूसरे की आँखों में देखते, यद्यपि इसी वक्‍त एक-दूसरे को धोखा देते होते और उन्‍हें यह भी मालूम होता कि वे ऐसा कर रहे हैं। मगर फिर भी वे बेफिक्र और मस्‍त थे तथा उन्‍हें एक-दूसरे को धोखा देते और झूठ बोलते हुए जरा भी शर्म नहीं आती थी।
जब सच सामने आया, तो लोग उदास हो गए, उन्‍हें एक-दूसरे से नजरें मिलाते हुए झेंप होने लगी, उनकी नजरें झुक गईं। लोगों ने (सच के नाम पर) खंजर निकाल लिए, पीड़ित पीड़कों के विरुद्ध उठ खड़े हुए, गाहक व्‍यापारियों पर, साधारण लोग खानों पर और शाहों पर झपटे, पति ने पत्‍नी और उसके प्रेमी की हत्‍या कर डाली। खून बहने लगा। इसलिए अधिकतर लोगों ने झूठ से कहा -
'तुम हमें छोड़कर न जाओ। तुम हमारे सबसे अच्‍छे दोस्‍त हो। तुम्‍हारे साथ जीना बड़ा सीधा-सादा और आसान मामला है। और सच, तुम तो हमारे लिए सिर्फ परेशानी ही लाते हो। तुम्‍हारे आने पर हमें सोचना पड़ता है, हर चीज को दिल से महसूस करना, घुलना और संघर्ष करना होता है। तुम्‍हारी वजह से क्‍या कम जवान योद्धा, कवि और सूरमा मर चुके हैं?'
'अब बोलो,' झूठ ने सच से कहा, 'देख लिया न कि मेरी अधिक आवश्‍यकता है और मैं ही अधिक उपयोगी हूँ। कितने घरों का हमने चक्‍कर लगाया है और सभी जगह तुम्‍हारा नहीं, मेरा स्‍वागत हुआ है।'
'हाँ, हम बहुत-सी आबाद जगहों पर तो हो आए। आओ, अब चोटियों पर चलें। चलकर निर्मल जल के ठंडे चश्‍मों, ऊँची चरागाहों में खिलनेवाले फूलों, सदा चमकनेवाली बेदाग सफेद बर्फों से पूछें।
'शिखरों पर हजारों बरसों का जीवन है। वहाँ नायकों, वीरों, कवियों, बुद्धिमानों और संत-साधुओं के अमर और न्‍यायपूर्ण कृत्‍य, उनके विचार, गीत और अनुदेश जीवित रहते हैं। चोटियों पर वह रहता है, जो अमर है और पृथ्‍वी की तुच्‍छ चिंताओं से मुक्‍त है।'
'नहीं, मैं वहाँ नहीं जाऊँगा,' झूठ ने जवाब दिया।
'तो तुम क्‍या ऊँचाई से डरते हो। सिर्फ कौवे ही निचाई पर घोंसले बनाते हैं और उकाब तो सबसे ऊँचे पहाड़ों के ऊपर उड़ान भरते हैं। क्‍या तुम उकाब के बजाय कौवा होना ज्‍यादा बेहतर समझते हो? हाँ, मुझे मालूम है कि तुम डरते हो। तुम तो हो ही बुजदिल। तुम तो शादी की मेज पर, जहाँ शराब की नदी बहती होती है, बहसना पसंद करते हो, मगर बाहर अहाते में जाते हुए डरते हो, जहाँ जामों की नहीं, खंजरों की खनक होती है।'
'नहीं, मैं तुम्‍हारी ऊँचाइयों से नहीं डरता। मगर मैं वहाँ करूँगा ही क्‍या, क्‍योंकि वहाँ लोग नहीं हैं। मेरा तो वहीं बोल-बाला है, जहाँ लोग रहते हैं। मैं तो उन्‍हीं पर राज करता हूँ। वे सब मेरी प्रजा हैं। केवल कुछ साहसी ही मेरा विरोध करने की हिम्‍मत करते हैं और तुम्‍हारे पथ पर, सचाई के पथ पर चलते हैं, मगर ऐसे लोग तो इने-गिने हैं।'
'हाँ, इने-गिने हैं। मगर इसीलिए इन लोगों को युग-नायक माना जाता है और कवि अपने सर्वश्रेष्‍ठ गीतों में उनका स्‍तुति-गान करते हैं।'
अकेले कवि का किस्‍सा। यह किस्‍सा मुझे अबूतालिब ने सुनाया। किसी खान की रियासत में बहुत-से कवि रहते थे। वे गाँव घूमते और अपने गीत गाते। उनमें से कोई वायलिन बजाता, कोई खंजड़ी, कोई चोंगूर और कोई जुरना। खान को जब अपने काम-काजों और बीवियों से फुरसत मिलती, तो वह शौक से उनके गीत सुनता।
एक दिन उसने एक ऐसा गीत सुना, जिसमें खान की क्रूरता, अन्‍याय और लालच का बखान किया गया था। खान आग-बबूला हो उठा। उसने हुक्‍म दिया कि ऐसा विद्रोह भरा गीत रचनेवाले कवि को पकड़कर उसके महल में लाया जाए।
गीतकार का पता नहीं लग सका। तब वजीरों और नौकरों-चाकरों को सभी कवि पकड़ लाने का आदेश दिया गया। खान के टुकड़खोर शिकारी कुत्‍तों की तरह सभी गाँवों, रास्‍तों, पहाड़ी, पगडंडियों और सुनसान दर्रों में जा पहुँचे। उन्‍होंने सभी गीत रचने और गानेवालों को पकड़ लिया और महल की काल-कोठरियों में लाकर बंद कर दिया। सुबह को खान सभी बंदी कवियों के पास जाकर बोला -
'अब तुममें से हरेक मुझे एक गीत गाकर सुनाए।'
सभी कवि बारी-बारी से खान की समझदारी, उसके उदार दिल, उसकी सुंदर बीवियों, उसकी ताकत, उसकी बड़ाई और ख्‍याति के गीत गाने लगे। उन्‍होंने यह गाया कि पृथ्‍वी पर ऐसा महान और न्‍यायपूर्ण खान कभी पैदा ही नहीं हुआ था।
खान एक के बाद एक कवि को छोड़ने का आदेश देता गया। आखिर तीन कवि रह गए, जिन्‍होंने कुछ भी नहीं गाया। उन तीनों को फिर से कोठरियों में बंद कर दिया गया और सभी ने यह सोचा कि खान उनके बारे में भूल गया है।
मगर तीन महीने बाद खान फिर से इन बंदी कवियों के पास आया।
'तो अब तुममें से हरेक मुझे कोई गीत सुनाए।'
उन तीनों कवियों में से एक फौरन खान, उसकी समझदारी, उदार दिल, सुंदर बीवियों, उसकी बड़ाई और ख्‍याति के बारे में गाने लगा। उसने यह भी गाया कि पृथ्‍वी पर कभी कोई ऐसा महान खान नहीं हुआ।
इस कवि को भी छोड़ दिया गया। उन दो को जो कुछ भी गाने को तैयार नहीं हुए, मैदान में पहले से तैयार किए गए अलाव के पास ले जाया गया।
'अभी तुम्‍हें आग की नजर कर दिया जाएगा,' खान ने कहा। 'आखिरी बार तुमसे यह कहता हूँ कि अपना कोई गीत सुनाओ।'
उन दो में से एक की हिम्‍मत टूट गई और उसने खान, उसकी अक्‍लमंदी, उदार दिल, सुंदर बीवियों, उसकी ताकत, बड़ाई और ख्‍याति के बारे में गीत गाना शुरू कर दिया। उसने गाया कि दुनिया में ऐसा महान और न्‍यायपूर्ण खान कभी नहीं हुआ।
इस कवि को भी छोड़ दिया गया। बस, एक वही जिद्दी बाकी रह गया, जो कुछ भी गाना नहीं चाहता था।
'उसे खंभे के साथ बाँधकर आग जला दो।' खान ने हुक्‍म दिया।
खंभे के साथ बँधा हुआ कवि अचानक खान की क्रूरता, अन्‍याय और लालच के बारे में वही गीत गाने लगा, जिससे यह सारा मामला शुरू हुआ था।
'जल्‍दी से इसे खोलकर आग से नीचे उतारो।' खान चिल्‍ला उठा। 'मैं अपने मुल्‍क के अकेले असली शायर से हाथ नहीं धोना चाहता।'
'ऐसे समझदार और नेकदिल खान तो शायद ही कहीं होंगे,' अबूतालिब ने यह किस्‍सा खत्‍म करते हुए कहा, 'मगर ऐसे कवि भी बहुत नहीं होंगे।'
पिता जी ने यह बात सुनाई। एक बार महान शामिल से घनिष्‍ठता रखनेवालों ने पूछा -
'इमाम, यह बताइए कि आपने कविताएँ रचने और उन्‍हें गाने की क्‍यों मनाही कर दी?'
इमाम ने जवाब दिया -
'मैं चाहता हूँ कि केवल असली कवि ही कवि रह जाएँ। असली शायर तो फिर भी शायरी करेंगे ही। मगर ढोंगी, पाखंडी, तुकबंद और झूठमूठ अपने को कवि कहनेवाले मेरे हुक्‍म से डर जाएँगे, उनकी हिम्‍मत टूट जाएगी और वे खामोश हो जाएँगे। इस तरह वे लोगों को और खुद अपने को धोखा नहीं दे सकेंगे।'
कहते हैं कि जब महान कवि महमूद की मृत्‍यु हो गई, तो दुख-सागर में बुरी तरह डूबे हुए उनके पिता ने महमूद की पांडुलिपियों से भरा सूटकेस उठाकर आग में डाल दिया।
'लानत के मारे कागजो, जल जाओ। तुम्‍हारे कारण ही मेरे बेटे की वक्‍त से पहले मौत हो गई।'
सभी कागज जल गए, मगर महमूद की कविताएँ फिर भी जिंदा रह गईं। उनके रचे हुए गीतों की एक भी पंक्ति नहीं भुलाई गई। वे गीत लोगों के दिलों में जी रहे हैं। उन्‍हें न तो आग जला सकती है, न पानी गला सकता है, क्‍योंकि उनमें कवि की आत्‍मा की आवाज है।
मेरे पिता जी उन लोगों पर हँसा करते थे, जो इस डर से कि उन्‍हें किसी की बुरी नजर न लग जाए, रात को चोरी-छिपे सफर पर निकलते थे;
उन पर भी, जो खुरजी में इसलिए पत्‍थर भर लिया करते थे कि दूसरे यह समझें कि उसमें रोटी भरी है;
उन शिकारियों पर भी, जो तीतर की जगह कौवा लेकर घर लौटते थे।
अबूतालिब ने यह बात सुनाई। कहीं कोई गरीब आदमी रहता था, जिसे अपने को अमीर दिखाने का चाव चढ़ा। हर दिन वह बहुत खुश-खुश और मुस्‍कराता हुआ चौपाल में आता और उसकी मूँछें चिकनाई से चमकती होतीं मानो वह अभी-अभी जवान और बढ़िया भेंड़ खाकर आया हो। गरीब आदमी सबको सुनाकर डींग मारता -
'अहा, कैसा मोटा मेमना मैंने आज खाने के लिए काटा। कितना नर्म और मजेदार था उसका मांस।'
'हर दिन उसके पास मेमना कहाँ से आ जाता है?' गाँव के लोग हैरान होते। 'मामले की जाँच करनी चाहिए।'
'हर दिन उसके पास मेमना कहाँ से आ जाता है?' गाँव के लोग हैरान होते। 'मामले की जाँच करनी चाहिए।'
चुस्‍त नौजवान उसके घर की छत पर चढ़ गए और चौड़े धुआँदान में से उन्‍होंने नीचे नजर दौड़ाई। उन्‍होंने गरीब आदमी को पुरानी, फेंकी हुई हड्डी उबालते देखा। उसने ऊपर आ जानेवाली थोड़ी-सी चर्बी इकट्ठी की और उससे मूँछें चिकनी कर लीं। इसके बाद उसने थोड़ा-सा सफेद जीरा खा लिया। उसके घर में खाने के लिए बस यही था।
नौजवान झटपट छत पर से नीचे उतरे और गरीब आदमी के घर में गए।
'सलाम अलैकुम। हम लोग इधर से गुजर रहे थे। सोचा कि अमीर आदमी के यहाँ चलें।'
'जरा देर से आए, मैंने अभी-अभी मोटी भेंड़ खत्‍म की है। अब घर से बाहर जाने ही वाला था।'
'तो तुम यही बताओ कि ऐसा खुशबूदार और मजेदार जीरा कहाँ से लाते हो?'
गरीब समझ गया कि नौजवानों को सब कुछ मालूम है और उसका सिर झुक गया। इसके बाद उसकी मूँछों पर कभी चिकनाई नजर नहीं आई।
संस्‍मरण। बचपन में पिता जी ने एक बार मुझे बहुत ही कड़ी सजा दी थी। पिटाई तो मैं भूल गया, मगर पिटाई का कारण मुझे अभी तक बहुत अच्‍छी तरह याद है।
एक दिन सुबह को मैं स्‍कूल जाने के लिए घर से निकला, मगर स्‍कूल गया नहीं। एक गली से दूसरी गली में मुड़ गया और शाम तक आवारा लड़कों के साथ जुआ खेलता रहा। पिता जी ने किताबें खरीदने के लिए मुझे कुछ पैसे दिए थे और उन्‍हीं के साथ मैं दुनिया की सुध-बुध भूलकर दाँव लगाता रहा। पैसे जल्‍द ही खत्‍म हो गए। अब मुझे यह फिक्र हुई कि और पैसे कहाँ से हासिल किए जाएँ। हम जब जुआ खेलते हैं और आखिरी कौड़ी तक हार जाते हैं, तो हमें ऐसा लगता है कि अगर कहीं से पाँच कोपेक का एक सिक्‍का और हाथ लग जाए, तो न सिर्फ हारे हुए पैसे ही वापस आ जाएँगे, बल्कि कुछ और भी जीत लेंगे। मुझे भी ऐसा ही लगा कि अगर कहीं से कुछ पैसे और मिल जाएँ, तो हारे हुए पैसे वापस आ जाएँगे।
मैं जिन लड़कों के साथ खेल रहा था, उनसे उधार माँगने लगा। मगर कोई भी ऐसा करने को राजी नहीं हुआ। बात यह है कि जुआरियों में ऐसा माना जाता है कि जो कोई हारनेवाले को उधार देता है, वह खुद हार जाता है।
तब मैंने एक तरकीब निकाली। मैं गाँव में घर-घर जाने और यह कहने लगा कि कल यहाँ पहलवान आएँगे और मुझे उनके लिए पैसे जमा करने का काम सौंपा गया है।
दर-दर जानेवाले भूखे कुत्‍ते को क्‍या मिलता है? या तो हड्डी या डंडे की मार। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ - कुछ ने इनकार कर दिया, कुछ ने कुछ दे दिया। हाँ, जिन्‍होंने कुछ दिया, वह भी शायद मेरे पिता के नाम की इज्‍जत करते हुए।
गाँव का चक्‍कर लगाने के बाद मैंने पैसे गिने, तो इस नतीजे पर पहुँचा कि जुआ जारी रखा जा सकता है। मगर किस्‍मत के मारे ये पैसे भी जल्‍दी ही खत्‍म हो गए। यह खेल जमीन पर घुटनों के बल रेंगकर खेला जाता था। दिन भर में मेरा पतलून बिल्‍कुल फट गया और घुटनों पर खरोंचें आ गईं।
इसी बीच घर पर मेरी फिक्र हुई। बड़े भाई मुझे सारे गाँव में ढूँढ़ने लगे।
गाँववाले, जिन्‍हें मैंने पहलवानों के आने की मनगढ़ंत बात कही थी, उनके आगमन के बारे में विस्‍तारपूर्वक जानने के लिए हमारे घर पहुँचने लगे। मतलब यह कि जब कान से पकड़कर मुझे घर लाया गया, तो मेरी करतूतों का पूरा पता चल चुका था।
तो मैं पिता जी की अदालत में खड़ा था। उनकी इस अदालत से ही मैं दुनिया में सबसे ज्‍यादा डरता था। पिता जी ने सिर से पाँव तक मुझे बहुत गौर से देखा। मेरे नंगे, सूजे हुए लाल घुटने सूराखों में से ऐसे झाँक रहे थे जैसे पंखों से भरे हुए तकिए, जिन्‍हें पहाड़ी घरों की खिड़कियों में खोंस दिया जाता है, झाँकते दिखाई देते हैं।
'यह क्‍या है?' पिता जी ने मानो शांति से पूछा।
'घुटने हैं,' फटे पतलून के सूराखों को हाथों से छिपाने की कोशिश करते हुए मैंने जवाब दिया।
'घुटने हैं, यह मैं भी जानता हूँ, मगर वे उघाड़े क्‍यों हैं? यह बताओ कि पतलून कहाँ फाड़ा?'
मैं अपने पतलून को ऐसे देखने लगा मानो अभी मैंने उनमें सूराख देखे हों। अजीब मनोदशा होती है झूठे और कायर की। वह समझता है कि बड़ों को सब कुछ मालूम है और हकीकत से इनकार करना महज अपना मजाक उड़वाना है और इससे कोई फायदा नहीं होगा, मगर फिर भी वह साफ-साफ और सच्‍चे जवाब देने से कतराता है और अपने मन से तरह-तरह की बातें बनाता है।
पिता जी की आवाज में गुस्‍सा झलकने लगा। परिवार के लोग घर के मुखिया का मिजाज समझते थे और इसलिए मेरी रक्षा को मेरे आस-पास आ गए। मगर पिता जी ने उन सब को दूर हटने के लिए हाथ का इशारा किया और फिर मुझसे पूछा -
'तो तुमने पतलून कैसे फाड़ा?'
'स्‍कूल में फट गया... कील में उलझकर...'
'कैसे, कैसे, जरा दोहराओ तो...'
'कील में उलझकर।'
'किस जगह?'
'स्‍कूल में।'
'कब?'
'आज।'
पिताजी का तमाचा जोर से मेरे गाल पर पड़ा।
'अब बताओ कि पतलून कैसे फटा?'
मैं चुप रहा। पिता जी ने दूसरे गाल पर एक और तमाचा मारा।
'अब बताओ।'
मैं रो पड़ा।
'रोना बंद करो।' पिता जी ने आदेश दिया और कोड़ा उठा लिया।
मैंने रोना बंद कर दिया। पिता जी ने कोड़ा सटकारा।
'अगर अभी सब कुछ सच-सच नहीं बता दोगे, तो कोड़े से पिटाई करूँगा।'
मैं जाता था कि सिरे पर सख्‍त गाँठवाला यह कोड़ा क्‍या मुसीबत है। कोड़े के डर ने सच के डर पर बाजी मार ली और मैंने अपनी दिन भर की सारी हरकतें सिलसिलेवार कह सुनाईं।
मुकदमे की कार्रवाई खत्‍म हो गई। तीन दिन तक मैं बहुत परेशान रहा। घर और स्‍कूल का जीवन तो जैसे अपने आम ढंग से ही चलता रहा, मगर मेरे मन को चैन नहीं था। मैं जानता था कि अभी पिता जी से एक बार फिर बातचीत होगी। इतना ही नहीं, अब मैं खुद इस बातचीत के लिए बड़ा उत्‍सुक था, इसकी प्रतीक्षा में था। इन दिनों में मेरे लिए सबसे अधिक यातना की बात तो यह थी कि पिता जी मेरे साथ बातचीत नहीं करना चाहते।
तीसरे दिन मुझसे कहा गया कि पिता जी ने बुलाया है। उन्‍होंने मुझे अपने पास बैठाया, सिर पर हाथ फेरा, यह पूछा कि स्‍कूल में हम आजकल क्‍या पढ़ रहे हैं, मुझे कैसे अंक मिल रहे हैं। इसके बाद अचानक यह सवाल किया -
'जानते हो कि मैंने किसलिए तुम्‍हारी पिटाई की थी?'
'हाँ, जानता हूँ।'
'जरा सुनूँ तो कि तुम क्‍या समझते हो?'
'इसलिए कि मैंने जुआ खेला था।'
'नहीं, इसके लिए नहीं। बचपन में कौन जुआ नहीं खेलता? मैंने भी खेला और तुम्‍हारे बड़े भाइयों ने भी।'
इसलिए कि पतलून फाड़ डाला।'
'नहीं, इसके लिए भी नहीं, बचपन में हममें से किसने पतलून या कमीजें नहीं फाड़ी? इतनी ही गनीमत है कि सिर सलामत हैं। तुम कोई लड़की तो हो नहीं कि नाक की सीध में आओ-जाओ।'
'इसलिए कि स्‍कूल नहीं गया।'
'हाँ, यह तुम्‍हारी बहुत बड़ी गलती थी। इसी से उस दिन तुम्‍हारी सारी मुसीबतें शुरू हुईं। इसके लिए और इसी तरह पतलून फाड़ने तथा जुआ खेलने के लिए तुम्‍हारी डाँट-डपट होनी चाहिए थी। ज्‍यादा से ज्‍यादा मैंने तुम्‍हारे कान ऐंठे होते। मेरे बेटे, मैंने तुम्‍हारे झूठ के लिए ही तुम्‍हारी पिटाई की। झूठ - यह भूल नहीं, संयोग से होनेवाली बात नहीं, यह हमारे चरित्र का एक लक्षण है, जो जड़ जमा सकता है। यह तुम्‍हारी आत्‍मा के खेत में भयानक जंगली घास है। अगर उसे वक्‍त पर न उखाड़ फेंका जाए, तो वह सारे खेत में फैल जाएगी और अच्‍छे बीज के फूट निकलने की कहीं भी जगह नहीं बचेगी। झूठ से ज्‍यादा खतरनाक और कोई चीज इस दुनिया में नहीं है। इससे पिंड छुड़ाना मुमकिन नहीं होता। अगर तुम एक बार फिर मुझसे झूठ बोलोगे, तो मैं तुम्‍हें मार डालूँगा। इस घड़ी से तुम हमेशा सिर्फ सच ही बोलोगे। टेढ़े नाल को तुम टेढ़ा नाल, घड़े के टेढ़े हत्‍थे को टेढ़ा हत्‍था और टेढ़े वृक्ष को टेढ़ा वृक्ष ही कहोगे। समझ गए?'
'समझ गया।'
'तो जाओ।'
मैं वहाँ से चल दिया और मैंने मन ही मन कभी भी झूठ न बोलने की कसम खाई। इसके अलावा मैं यह भी तो जानता था कि अगर मैंने फिर से झूठ बोला, तो पिता जी अपने कहे हुए शब्‍दों को सच कर दिखाएँगे और चाहे मुझे कितना ही अधिक प्‍यार क्‍यों न करते हों, वे मुझे मार डालेंगे।
बहुत सालों बाद मैंने अपने एक दोस्‍त को यह घटना सुनाई।
'अरे?' मेरे दोस्‍त ने हैरान होकर कहा, 'तुम अभी तक अपने उस छोटे-से, उस तुच्‍छ झूठ को नहीं भूले?'
मैंने जवाब दिया -
'झूठ, झूठ है और सच, सच। वे छोटे-बड़े नहीं हो सकते। जीवन, जीवन है, मौत, मौत। जब मौत आती है, तो जिंदगी खत्‍म हो जाती है। इसके उलट, जब तक जिंदगी की गर्मी बनी रहती है, तब तक मौत नहीं आती। वे साथ-साथ नहीं रह सकतीं। एक दूसरी का अंत कर देती है। सच और झूठ के बारे में भी ऐसा ही है।'
झूठ - यह है शर्म की बात, यह है गंदगी और कूड़ा-करकट। सच - यह है सुंदरता, स्‍वच्‍छता और निर्मल आकश। झूठ-कायरता है, सच - साहस है। या तो सच है या झूठ और इन दोनों के बीच की कोई चीज नहीं हो सकती।
अब जिस वक्‍त मुझे झूठे लेखकों की झूठी रचनाएँ पढ़नी पड़ती हैं, तो मुझे पिता जी के कोड़े की बहुत याद आती है। कितनी सख्‍त जरूरत है उसकी। कितनी सख्‍त जरूरत है कठोर और न्‍यायपूर्ण पिता की, जो सही वक्‍त पर यह धमकी दे सके - 'अगर झूठ बोलेागे, तो मार डालूँगा।' मगर हे अल्‍लाह, कितना झूठ बोला जाता है आजकल और उसकी सजा भी कोई नहीं।
काश झूठ ही सजा पाए बिना रहता। क्‍या सच के लिए लोगों को दंड नहीं मिलता? क्‍या इतिहास में ऐसे उदाहरणों की कमी है, जब लोगों को सच के लिए सजा दी गई, जब सच के लिए उन पर कोड़े बरसाए गए?
बचपन में मुझे सच से इनकार करने के लिए बहुत साहस की जरूरत महसूस होती थी। कारण कि उससे इनकार करने पर राहत मिलने के बजाय सबसे भयानक यातना यानी आत्‍मा की भर्त्‍सना का सामना करना पड़ता है।
साहसी लोग अपनी आस्‍थाओं को कभी नहीं बदलते। उन्‍हें मालूम है कि पृथ्‍वी घूमती है। उन्‍हें मालूम है कि सूरज पृथ्‍वी के गिर्द नहीं, बल्कि पृथ्‍वी सूर्य के गिर्द घूमती है। उन्‍हें मालूम है कि रात के बाद जरूर सुबह होती है, फिर दिन निकलता है और दिन के बाद रात आती है... जाड़े के बाद वसंत आता है और वसंत के बाद प्‍यारी गर्मी...
और कुछ ऐसा ही होता है कि आखिर आत्‍मा का कोड़ा, प्रतिष्‍ठा का कोड़ा, सच का कोड़ा झूठों और ढोंगियों को चित कर देता है और झूठ कभी भी सच पर विजयी नहीं हो पाता।
गाँव के चौपाल में हुई बातचीत से।
'सच और झूठ के बीच कितना फासला है?'
'दो इंच का।'
'वह क्‍यों?'
'क्‍योंकि कान से आँख तक भी दो इंच का ही फासला है। जो कुछ अपनी आँखों से देखा गया है, वह सच है, और जो कुछ कानों से सुना गया है, झूठ है।'
खैर, ऐसा ही सही। इसमें कोई संदेह नहीं कि सौ बार सुनने के बजाय एक बार देख लेना ज्‍यादा अच्‍छा होता है। मगर लेखक को तो हर चीज से सचाई ग्रहण करनी चाहिए - उससे भी जो देखे, उससे भी जो सुने, जो पढ़े और जो स्‍वयं जिये।
क्‍या लेखक के लिए सिर्फ आँखों पर भरोसा करना ही काफी होगा? जिंदगी को देखता है वह अपनी आँखों से, मगर संगीत सुनता है कानों से और अपने देश के इतिहास को पढ़ता है। कुछ लेखक तो न आँखों और न कानों को, बल्कि अपनी सूँघने की शक्ति को ही प्रथम स्‍थान प्रदान करते हैं।
लेखक को सभी तरह के काम करने लायक मजबूत हाथों, मजबूत टाँगों और मजबूत दाँतों की जरूरत होती है। इसलिए कि वह जो कुछ देखता है, सुनता और पढ़ता है, उस सब में हमेशा झूठ-सच, सोने और दूसरी चमकीली सस्‍ती धातुओं, अनाज और भूसे का अंतर कर सके, उसे अक्‍ल और ज्ञान की भी जरूरत होती है। अक्‍ल और ज्ञान के बिना आदमी अपनी आँखों पर भी भरोसा नहीं कर सकता।
किसी पहाड़ी गाँव के अबोध लोगों को, जिन्‍होंने सोने को कभी देखा नहीं था, मगर उसके बारे में सुना बहुत था, एक भारी संदूक कहीं पड़ा मिल गया। उन्‍होंने सोचा - 'चूँकि भारी है, इसलिए जरूर सोने का है।' हाथ आये इस माल के लिए वे आपस में भिड़ गए और उन्‍होंने एक-दूसरे की जान ले ली। मगर संदूक तो ताँबे का था।
प्रतिभा - आग है। मगर किसी मूर्ख के हाथ में आग सब कुछ जलाकर राख कर सकती है। अक्‍ल ही उसे रास्‍ता दिखाती है। अक्‍ल तो खूबसूरती को भी उसी तरह काबू में करती है जैसे अनुभवी घुड़सवार तेज घोड़े को।
दो पहाड़ी आदमियों से पूछा गया : तुम क्‍या चाहते हो - जवान आदमी का खूबसूरत चेहरा या बूढ़े की समझदारी?
बुद्धू ने खूबसूरत चेहरा चुना, मगर बेवकूफ ही बना रहा। खूबसूरत बेवकूफ को उसकी बीवी छोड़कर चली गई। अक्‍लमंद ने समझ चुनी और समझदारी की बदौलत उसकी बीवी उसके पास ही बनी रही। एक लोक-कथा में भी यही बताया गया है कि समुद्री घोड़े के जीन पर सुंदरी को वही सवार कर पाया था, जिसने अपने लिए अक्‍ल को चुना था। एक अन्‍य लोक-कथा में तीन भाइयों, तीन राहों और तीन बुद्धिमत्‍तापूर्ण नसीहतों का जिक्र आता है। जिसने इन नसीहतों पर कान दिया, वह तो अपनी घर लौट आया और जिसने इनकी परवाह नहीं की, वह पराई धरती पर ही ढेर होकर रह गया। ओ मेरी वरदायिनी सुनहरी मछली, मुझे प्रतिभा दो, लगन दो, जवान का सच्‍चा और उत्‍साही दिल दो और बुजुर्ग की सुलझी हुई अक्‍ल दो। सही रास्‍ता चुनने में मेरी मदद करो।
यह रास्‍ता बेशक कंकड़ों-पत्‍थरोंवाला हो, मुश्किल और खतरनाक हो। मगर मैं उस पर साँप की भाँति दाएँ-बाएँ बल नहीं खाना चाहता। 'साँप टेढ़े-मेढ़े क्‍यों होते हैं?' पहाड़ी लोग यह सवाल करते हैं और खुद ही जवाब देते हैं - 'क्‍योंकि वे सूराख और खड्ड टेढ़े-मेढ़े होते हैं, जिनमें से उन्‍हें रेंगना पड़ता है।' मगर मैं तो साँप नहीं, आदमी हूँ। मुझे ऊँचाई, स्‍वच्‍छ हवा और सीधे रास्‍ते पसंद हैं।
मुझे बीमारी और भय, बोझिल ख्‍याति और हल्‍के-सतही विचारों से बचाओ।
मुझे नशे से बचाओ, क्‍योंकि नशे में आदमी को हर अच्‍छी चीज सौ गुना बुरी लगती है।
मुझे सूफी होने से भी बचाओ, क्‍योंकि सूफी को हर बुरी चीज सौ गुना ज्‍यादा बुरी लगती है।
सचाई के लिए मुझमें ऐसी भावना पैदा करो कि मैं टेढ़े को टेढ़ा और सीधे को सीधा कह सकूँ।
'बड़ी बुरी है, बड़ी बेतुकी है यह दुनिया,'
इतना कहकर ऊबे कवि ने, छोड़ा जग, संसार,
'बड़ी सुहानी, बेहद सुंदर है यह दुनिया,'
कहा दूसरे कवि ने इतना, जग से गया सिधार।
मगर तीसरे कवि ने दुनिया ऐसे छोड़ी
मौत न जिस पर विजयी होती, समय न करता वार,
बुरा बुरे को, सुंदर को सुंदर कहता था
इसीलिए तो सदा अमर वह, यही अमरता-सार।
किसी पहाड़ी आदमी ने अपनी गाय के कानों में झुमके डाल दिए ताकि पराई गउओं से उसका भेद हो सके। किसी पहाड़ी आदमी ने अपने घोड़े की गर्दन में घंटियाँ डाल दीं ताकि पड़ोसी के घोड़ों के साथ अपने घोड़े को न गड़बड़ाए। मगर वह जीगित तो किसी भी काम का नहीं, जो रात के वक्‍त भी अपने प्‍यारे घोड़े को दूर से ही न पहचान ले।
मेरी किताब आपके सामने है। मैं इसे न तो झुमके पहनाना चाहता हूँ, न घंटियाँ और न कोई दूसरे गहने ही। अपनी या पराई अन्‍य किताबों के साथ मैं इसे नहीं गड़बड़ाऊँगा। ऐसे ही लोग भी न गड़बड़ाएँ। चाहे इस किताब का मुखावरण फटा हुआ हो, फिर भी जो कोई इसे पढ़े, फौरन यह कह दे कि इसे त्‍सादा गाँव के हमजात के बेटे रसूल ने लिखा है।
कहते हैं कि साहस यह नहीं पूछता कि चट्टान कितनी ऊँची है।



Friday 8 August 2014

मैं नास्तिक क्यों हूँ? : भगतसिंह

यह लेख भगत सिंह ने जेल में रहते हुए लिखा था और यह 27 सितम्बर 1931 को लाहौर के अखबार “ द पीपल “ में प्रकाशित हुआ । इस लेख में भगतसिंह ने ईश्वर कि उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किये हैं और इस संसार के निर्माण , मनुष्य के जन्म , मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ साथ संसार में मनुष्य की दीनता , उसके शोषण , दुनिया में व्याप्त अराजकता और और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है । यह भगत सिंह के लेखन के सबसे चर्चित हिस्सों में रहा है।
स्वतन्त्रता सेनानी बाबा रणधीर सिंह 1930-31के बीच लाहौर के सेन्ट्रल जेल में कैद थे। वे एक धार्मिक व्यक्ति थे जिन्हें यह जान कर बहुत कष्ट हुआ कि भगतसिंह का ईश्वर पर विश्वास नहीं है। वे किसी तरह भगत सिंह की कालकोठरी में पहुँचने में सफल हुए और उन्हें ईश्वर के अस्तित्व पर यकीन दिलाने की कोशिश की। असफल होने पर बाबा ने नाराज होकर कहा, “प्रसिद्धि से तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है और तुम अहंकारी बन गए हो जो कि एक काले पर्दे के तरह तुम्हारे और ईश्वर के बीच खड़ी है। इस टिप्पणी के जवाब में ही भगतसिंह ने यह लेख लिखा।
एक नया प्रश्न उठ खड़ा हुआ है। क्या मैं किसी अहंकार के कारण सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी तथा सर्वज्ञानी ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता हूँ? मेरे कुछ दोस्त – शायद ऐसा कहकर मैं उन पर बहुत अधिकार नहीं जमा रहा हूँ – मेरे साथ अपने थोड़े से सम्पर्क में इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये उत्सुक हैं कि मैं ईश्वर के अस्तित्व को नकार कर कुछ ज़रूरत से ज़्यादा आगे जा रहा हूँ और मेरे घमण्ड ने कुछ हद तक मुझे इस अविश्वास के लिये उकसाया है। मैं ऐसी कोई शेखी नहीं बघारता कि मैं मानवीय कमज़ोरियों से बहुत ऊपर हूँ। मैं एक मनुष्य हूँ, और इससे अधिक कुछ नहीं। कोई भी इससे अधिक होने का दावा नहीं कर सकता। यह कमज़ोरी मेरे अन्दर भी है। अहंकार भी मेरे स्वभाव का अंग है। अपने कामरेडो के बीच मुझे निरंकुश कहा जाता था। यहाँ तक कि मेरे दोस्त श्री बटुकेश्वर कुमार दत्त भी मुझे कभी-कभी ऐसा कहते थे। कई मौकों पर स्वेच्छाचारी कह मेरी निन्दा भी की गयी। कुछ दोस्तों को शिकायत है, और गम्भीर रूप से है कि मैं अनचाहे ही अपने विचार, उन पर थोपता हूँ और अपने प्रस्तावों को मनवा लेता हूँ। यह बात कुछ हद तक सही है। इससे मैं इनकार नहीं करता। इसे अहंकार कहा जा सकता है। जहाँ तक अन्य प्रचलित मतों के मुकाबले हमारे अपने मत का सवाल है। मुझे निश्चय ही अपने मत पर गर्व है। लेकिन यह व्यक्तिगत नहीं है। ऐसा हो सकता है कि यह केवल अपने विश्वास के प्रति न्यायोचित गर्व हो और इसको घमण्ड नहीं कहा जा सकता। घमण्ड तो स्वयं के प्रति अनुचित गर्व की अधिकता है। क्या यह अनुचित गर्व है, जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया? अथवा इस विषय का खूब सावधानी से अध्ययन करने और उस पर खूब विचार करने के बाद मैंने ईश्वर पर अविश्वास किया?
मैं यह समझने में पूरी तरह से असफल रहा हूँ कि अनुचित गर्व या वृथाभिमान किस तरह किसी व्यक्ति के ईश्वर में विश्वास करने के रास्ते में रोड़ा बन सकता है? किसी वास्तव में महान व्यक्ति की महानता को मैं मान्यता न दूँ – यह तभी हो सकता है, जब मुझे भी थोड़ा ऐसा यश प्राप्त हो गया हो जिसके या तो मैं योग्य नहीं हूँ या मेरे अन्दर वे गुण नहीं हैं, जो इसके लिये आवश्यक हैं। यहाँ तक तो समझ में आता है। लेकिन यह कैसे हो सकता है कि एक व्यक्ति, जो ईश्वर में विश्वास रखता हो, सहसा अपने व्यक्तिगत अहंकार के कारण उसमें विश्वास करना बन्द कर दे? दो ही रास्ते सम्भव हैं। या तो मनुष्य अपने को ईश्वर का प्रतिद्वन्द्वी समझने लगे या वह स्वयं को ही ईश्वर मानना शुरू कर दे। इन दोनो ही अवस्थाओं में वह सच्चा नास्तिक नहीं बन सकता। पहली अवस्था में तो वह अपने प्रतिद्वन्द्वी के अस्तित्व को नकारता ही नहीं है। दूसरी अवस्था में भी वह एक ऐसी चेतना के अस्तित्व को मानता है, जो पर्दे के पीछे से प्रकृति की सभी गतिविधियों का संचालन करती है। मैं तो उस सर्वशक्तिमान परम आत्मा के अस्तित्व से ही इनकार करता हूँ। यह अहंकार नहीं है, जिसने मुझे नास्तिकता के सिद्धान्त को ग्रहण करने के लिये प्रेरित किया। मैं न तो एक प्रतिद्वन्द्वी हूँ, न ही एक अवतार और न ही स्वयं परमात्मा। इस अभियोग को अस्वीकार करने के लिये आइए तथ्यों पर गौर करें। मेरे इन दोस्तों के अनुसार, दिल्ली बम केस और लाहौर षडयन्त्र केस के दौरान मुझे जो अनावश्यक यश मिला, शायद उस कारण मैं वृथाभिमानी हो गया हूँ।
मेरा नास्तिकतावाद कोई अभी हाल की उत्पत्ति नहीं है। मैंने तो ईश्वर पर विश्वास करना तब छोड़ दिया था, जब मैं एक अप्रसिद्ध नौजवान था। कम से कम एक कालेज का विद्यार्थी तो ऐसे किसी अनुचित अहंकार को नहीं पाल-पोस सकता, जो उसे नास्तिकता की ओर ले जाये। यद्यपि मैं कुछ अध्यापकों का चहेता था तथा कुछ अन्य को मैं अच्छा नहीं लगता था। पर मैं कभी भी बहुत मेहनती अथवा पढ़ाकू विद्यार्थी नहीं रहा। अहंकार जैसी भावना में फँसने का कोई मौका ही न मिल सका। मैं तो एक बहुत लज्जालु स्वभाव का लड़का था, जिसकी भविष्य के बारे में कुछ निराशावादी प्रकृति थी। मेरे बाबा, जिनके प्रभाव में मैं बड़ा हुआ, एक रूढ़िवादी आर्य समाजी हैं। एक आर्य समाजी और कुछ भी हो, नास्तिक नहीं होता। अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद मैंने डी0 ए0 वी0 स्कूल, लाहौर में प्रवेश लिया और पूरे एक साल उसके छात्रावास में रहा। वहाँ सुबह और शाम की प्रार्थना के अतिरिक्त में घण्टों गायत्री मंत्र जपा करता था। उन दिनों मैं पूरा भक्त था। बाद में मैंने अपने पिता के साथ रहना शुरू किया। जहाँ तक धार्मिक रूढ़िवादिता का प्रश्न है, वह एक उदारवादी व्यक्ति हैं। उन्हीं की शिक्षा से मुझे स्वतन्त्रता के ध्येय के लिये अपने जीवन को समर्पित करने की प्रेरणा मिली। किन्तु वे नास्तिक नहीं हैं। उनका ईश्वर में दृढ़ विश्वास है। वे मुझे प्रतिदिन पूजा-प्रार्थना के लिये प्रोत्साहित करते रहते थे। इस प्रकार से मेरा पालन-पोषण हुआ। असहयोग आन्दोलन के दिनों में राष्ट्रीय कालेज में प्रवेश लिया। यहाँ आकर ही मैंने सारी धार्मिक समस्याओं – यहाँ तक कि ईश्वर के अस्तित्व के बारे में उदारतापूर्वक सोचना, विचारना तथा उसकी आलोचना करना शुरू किया। पर अभी भी मैं पक्का आस्तिक था। उस समय तक मैं अपने लम्बे बाल रखता था। यद्यपि मुझे कभी-भी सिक्ख या अन्य धर्मों की पौराणिकता और सिद्धान्तों में विश्वास न हो सका था। किन्तु मेरी ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ निष्ठा थी। बाद में मैं क्रान्तिकारी पार्टी से जुड़ा। वहाँ जिस पहले नेता से मेरा सम्पर्क हुआ वे तो पक्का विश्वास न होते हुए भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस ही नहीं कर सकते थे। ईश्वर के बारे में मेरे हठ पूर्वक पूछते रहने पर वे कहते, ‘'जब इच्छा हो, तब पूजा कर लिया करो।'’ यह नास्तिकता है, जिसमें साहस का अभाव है। दूसरे नेता, जिनके मैं सम्पर्क में आया, पक्के श्रद्धालु आदरणीय कामरेड शचीन्द्र नाथ सान्याल आजकल काकोरी षडयन्त्र केस के सिलसिले में आजीवन कारवास भोग रहे हैं। उनकी पुस्तक ‘बन्दी जीवन’ ईश्वर की महिमा का ज़ोर-शोर से गान है। उन्होंने उसमें ईश्वर के ऊपर प्रशंसा के पुष्प रहस्यात्मक वेदान्त के कारण बरसाये हैं। 28 जनवरी, 1925 को पूरे भारत में जो ‘दि रिवोल्यूशनरी’ (क्रान्तिकारी) पर्चा बाँटा गया था, वह उन्हीं के बौद्धिक श्रम का परिणाम है। उसमें सर्वशक्तिमान और उसकी लीला एवं कार्यों की प्रशंसा की गयी है। मेरा ईश्वर के प्रति अविश्वास का भाव क्रान्तिकारी दल में भी प्रस्फुटित नहीं हुआ था। काकोरी के सभी चार शहीदों ने अपने अन्तिम दिन भजन-प्रार्थना में गुजारे थे। राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ एक रूढ़िवादी आर्य समाजी थे। समाजवाद तथा साम्यवाद में अपने वृहद अध्ययन के बावजूद राजेन लाहड़ी उपनिषद एवं गीता के श्लोकों के उच्चारण की अपनी अभिलाषा को दबा न सके। मैंने उन सब मे सिर्फ एक ही व्यक्ति को देखा, जो कभी प्रार्थना नहीं करता था और कहता था, ‘'दर्शन शास्त्र मनुष्य की दुर्बलता अथवा ज्ञान के सीमित होने के कारण उत्पन्न होता है। वह भी आजीवन निर्वासन की सजा भोग रहा है। परन्तु उसने भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने की कभी हिम्मत नहीं की।
इस समय तक मैं केवल एक रोमान्टिक आदर्शवादी क्रान्तिकारी था। अब तक हम दूसरों का अनुसरण करते थे। अब अपने कन्धों पर ज़िम्मेदारी उठाने का समय आया था। यह मेरे क्रान्तिकारी जीवन का एक निर्णायक बिन्दु था। ‘अध्ययन’ की पुकार मेरे मन के गलियारों में गूँज रही थी – विरोधियों द्वारा रखे गये तर्कों का सामना करने योग्य बनने के लिये अध्ययन करो। अपने मत के पक्ष में तर्क देने के लिये सक्षम होने के वास्ते पढ़ो। मैंने पढ़ना शुरू कर दिया। इससे मेरे पुराने विचार व विश्वास अद्भुत रूप से परिष्कृत हुए। रोमांस की जगह गम्भीर विचारों ने ली ली। न और अधिक रहस्यवाद, न ही अन्धविश्वास। यथार्थवाद हमारा आधार बना। मुझे विश्वक्रान्ति के अनेक आदर्शों के बारे में पढ़ने का खूब मौका मिला। मैंने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, कुछ साम्यवाद के पिता माक्र्स को, किन्तु अधिक लेनिन, त्रात्स्की, व अन्य लोगों को पढ़ा, जो अपने देश में सफलतापूर्वक क्रान्ति लाये थे। ये सभी नास्तिक थे। बाद में मुझे निरलम्ब स्वामी की पुस्तक ‘सहज ज्ञान’ मिली। इसमें रहस्यवादी नास्तिकता थी। 1926 के अन्त तक मुझे इस बात का विश्वास हो गया कि एक सर्वशक्तिमान परम आत्मा की बात, जिसने ब्रह्माण्ड का सृजन, दिग्दर्शन और संचालन किया, एक कोरी बकवास है। मैंने अपने इस अविश्वास को प्रदर्शित किया। मैंने इस विषय पर अपने दोस्तों से बहस की। मैं एक घोषित नास्तिक हो चुका था।
मई 1927 में मैं लाहौर में गिरफ़्तार हुआ। रेलवे पुलिस हवालात में मुझे एक महीना काटना पड़ा। पुलिस अफ़सरों ने मुझे बताया कि मैं लखनऊ में था, जब वहाँ काकोरी दल का मुकदमा चल रहा था, कि मैंने उन्हें छुड़ाने की किसी योजना पर बात की थी, कि उनकी सहमति पाने के बाद हमने कुछ बम प्राप्त किये थे, कि 1927 में दशहरा के अवसर पर उन बमों में से एक परीक्षण के लिये भीड़ पर फेंका गया, कि यदि मैं क्रान्तिकारी दल की गतिविधियों पर प्रकाश डालने वाला एक वक्तव्य दे दूँ, तो मुझे गिरफ़्तार नहीं किया जायेगा और इसके विपरीत मुझे अदालत में मुखबिर की तरह पेश किये बेगैर रिहा कर दिया जायेगा और इनाम दिया जायेगा। मैं इस प्रस्ताव पर हँसा। यह सब बेकार की बात थी। हम लोगों की भाँति विचार रखने वाले अपनी निर्दोष जनता पर बम नहीं फेंका करते। एक दिन सुबह सी0 आई0 डी0 के वरिष्ठ अधीक्षक श्री न्यूमन ने कहा कि यदि मैंने वैसा वक्तव्य नहीं दिया, तो मुझ पर काकोरी केस से सम्बन्धित विद्रोह छेड़ने के षडयन्त्र तथा दशहरा उपद्रव में क्रूर हत्याओं के लिये मुकदमा चलाने पर बाध्य होंगे और कि उनके पास मुझे सजा दिलाने व फाँसी पर लटकवाने के लिये उचित प्रमाण हैं। उसी दिन से कुछ पुलिस अफ़सरों ने मुझे नियम से दोनो समय ईश्वर की स्तुति करने के लिये फुसलाना शुरू किया। पर अब मैं एक नास्तिक था। मैं स्वयं के लिये यह बात तय करना चाहता था कि क्या शान्ति और आनन्द के दिनों में ही मैं नास्तिक होने का दम्भ भरता हूँ या ऐसे कठिन समय में भी मैं उन सिद्धान्तों पर अडिग रह सकता हूँ। बहुत सोचने के बाद मैंने निश्चय किया कि किसी भी तरह ईश्वर पर विश्वास तथा प्रार्थना मैं नहीं कर सकता। नहीं, मैंने एक क्षण के लिये भी नहीं की। यही असली परीक्षण था और मैं सफल रहा। अब मैं एक पक्का अविश्वासी था और तब से लगातार हूँ। इस परीक्षण पर खरा उतरना आसान काम न था। ‘विश्वास’ कष्टों को हलका कर देता है। यहाँ तक कि उन्हें सुखकर बना सकता है। ईश्वर में मनुष्य को अत्यधिक सान्त्वना देने वाला एक आधार मिल सकता है। उसके बिना मनुष्य को अपने ऊपर निर्भर करना पड़ता है। तूफ़ान और झंझावात के बीच अपने पाँवों पर खड़ा रहना कोई बच्चों का खेल नहीं है। परीक्षा की इन घड़ियों में अहंकार यदि है, तो भाप बन कर उड़ जाता है और मनुष्य अपने विश्वास को ठुकराने का साहस नहीं कर पाता। यदि ऐसा करता है, तो इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उसके पास सिर्फ़ अहंकार नहीं वरन् कोई अन्य शक्ति है। आज बिलकुल वैसी ही स्थिति है। निर्णय का पूरा-पूरा पता है। एक सप्ताह के अन्दर ही यह घोषित हो जायेगा कि मैं अपना जीवन एक ध्येय पर न्योछावर करने जा रहा हूँ। इस विचार के अतिरिक्त और क्या सान्त्वना हो सकती है? ईश्वर में विश्वास रखने वाला हिन्दू पुनर्जन्म पर राजा होने की आशा कर सकता है। एक मुसलमान या ईसाई स्वर्ग में व्याप्त समृद्धि के आनन्द की तथा अपने कष्टों और बलिदान के लिये पुरस्कार की कल्पना कर सकता है। किन्तु मैं क्या आशा करूँ? मैं जानता हूँ कि जिस क्षण रस्सी का फ़न्दा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख़्ता हटेगा, वह पूर्ण विराम होगा – वह अन्तिम क्षण होगा। मैं या मेरी आत्मा सब वहीं समाप्त हो जायेगी। आगे कुछ न रहेगा। एक छोटी सी जूझती हुई ज़िन्दगी, जिसकी कोई ऐसी गौरवशाली परिणति नहीं है, अपने में स्वयं एक पुरस्कार होगी – यदि मुझमें इस दृष्टि से देखने का साहस हो। बिना किसी स्वार्थ के यहाँ या यहाँ के बाद पुरस्कार की इच्छा के बिना, मैंने अनासक्त भाव से अपने जीवन को स्वतन्त्रता के ध्येय पर समर्पित कर दिया है, क्योंकि मैं और कुछ कर ही नहीं सकता था। जिस दिन हमें इस मनोवृत्ति के बहुत-से पुरुष और महिलाएँ मिल जायेंगे, जो अपने जीवन को मनुष्य की सेवा और पीड़ित मानवता के उद्धार के अतिरिक्त कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते, उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारम्भ होगा। वे शोषकों, उत्पीड़कों और अत्याचारियों को चुनौती देने के लिये उत्प्रेरित होंगे। इस लिये नहीं कि उन्हें राजा बनना है या कोई अन्य पुरस्कार प्राप्त करना है यहाँ या अगले जन्म में या मृत्योपरान्त स्वर्ग में। उन्हें तो मानवता की गर्दन से दासता का जुआ उतार फेंकने और मुक्ति एवं शान्ति स्थापित करने के लिये इस मार्ग को अपनाना होगा। क्या वे उस रास्ते पर चलेंगे जो उनके अपने लिये ख़तरनाक किन्तु उनकी महान आत्मा के लिये एक मात्र कल्पनीय रास्ता है। क्या इस महान ध्येय के प्रति उनके गर्व को अहंकार कहकर उसका गलत अर्थ लगाया जायेगा? कौन इस प्रकार के घृणित विशेषण बोलने का साहस करेगा? या तो वह मूर्ख है या धूर्त। हमें चाहिए कि उसे क्षमा कर दें, क्योंकि वह उस हृदय में उद्वेलित उच्च विचारों, भावनाओं, आवेगों तथा उनकी गहराई को महसूस नहीं कर सकता। उसका हृदय मांस के एक टुकड़े की तरह मृत है। उसकी आँखों पर अन्य स्वार्थों के प्रेतों की छाया पड़ने से वे कमज़ोर हो गयी हैं। स्वयं पर भरोसा रखने के गुण को सदैव अहंकार की संज्ञा दी जा सकती है। यह दुखपूर्ण और कष्टप्रद है, पर चारा ही क्या है?
आलोचना और स्वतन्त्र विचार एक क्रान्तिकारी के दोनो अनिवार्य गुण हैं। क्योंकि हमारे पूर्वजों ने किसी परम आत्मा के प्रति विश्वास बना लिया था। अतः कोई भी व्यक्ति जो उस विश्वास को सत्यता या उस परम आत्मा के अस्तित्व को ही चुनौती दे, उसको विधर्मी, विश्वासघाती कहा जायेगा। यदि उसके तर्क इतने अकाट्य हैं कि उनका खण्डन वितर्क द्वारा नहीं हो सकता और उसकी आस्था इतनी प्रबल है कि उसे ईश्वर के प्रकोप से होने वाली विपत्तियों का भय दिखा कर दबाया नहीं जा सकता तो उसकी यह कह कर निन्दा की जायेगी कि वह वृथाभिमानी है। यह मेरा अहंकार नहीं था, जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया। मेरे तर्क का तरीका संतोषप्रद सिद्ध होता है या नहीं इसका निर्णय मेरे पाठकों को करना है, मुझे नहीं। मैं जानता हूँ कि ईश्वर पर विश्वास ने आज मेरा जीवन आसान और मेरा बोझ हलका कर दिया होता। उस पर मेरे अविश्वास ने सारे वातावरण को अत्यन्त शुष्क बना दिया है। थोड़ा-सा रहस्यवाद इसे कवित्वमय बना सकता है। किन्तु मेरे भाग्य को किसी उन्माद का सहारा नहीं चाहिए। मैं यथार्थवादी हूँ। मैं अन्तः प्रकृति पर विवेक की सहायता से विजय चाहता हूँ। इस ध्येय में मैं सदैव सफल नहीं हुआ हूँ। प्रयास करना मनुष्य का कर्तव्य है। सफलता तो संयोग तथा वातावरण पर निर्भर है। कोई भी मनुष्य, जिसमें तनिक भी विवेक शक्ति है, वह अपने वातावरण को तार्किक रूप से समझना चाहेगा। जहाँ सीधा प्रमाण नहीं है, वहाँ दर्शन शास्त्र का महत्व है। जब हमारे पूर्वजों ने फुरसत के समय विश्व के रहस्य को, इसके भूत, वर्तमान एवं भविष्य को, इसके क्यों और कहाँ से को समझने का प्रयास किया तो सीधे परिणामों के कठिन अभाव में हर व्यक्ति ने इन प्रश्नों को अपने ढ़ंग से हल किया। यही कारण है कि विभिन्न धार्मिक मतों में हमको इतना अन्तर मिलता है, जो कभी-कभी वैमनस्य तथा झगड़े का रूप ले लेता है। न केवल पूर्व और पश्चिम के दर्शनों में मतभेद है, बल्कि प्रत्येक गोलार्ध के अपने विभिन्न मतों में आपस में अन्तर है। पूर्व के धर्मों में, इस्लाम तथा हिन्दू धर्म में ज़रा भी अनुरूपता नहीं है। भारत में ही बौद्ध तथा जैन धर्म उस ब्राह्मणवाद से बहुत अलग है, जिसमें स्वयं आर्यसमाज व सनातन धर्म जैसे विरोधी मत पाये जाते हैं। पुराने समय का एक स्वतन्त्र विचारक चार्वाक है। उसने ईश्वर को पुराने समय में ही चुनौती दी थी। हर व्यक्ति अपने को सही मानता है। दुर्भाग्य की बात है कि बजाय पुराने विचारकों के अनुभवों तथा विचारों को भविष्य में अज्ञानता के विरुद्ध लड़ाई का आधार बनाने के हम आलसियों की तरह, जो हम सिद्ध हो चुके हैं, उनके कथन में अविचल एवं संशयहीन विश्वास की चीख पुकार करते रहते हैं और इस प्रकार मानवता के विकास को जड़ बनाने के दोषी हैं।
सिर्फ विश्वास और अन्ध विश्वास ख़तरनाक है। यह मस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है। जो मनुष्य अपने को यथार्थवादी होने का दावा करता है, उसे समस्त प्राचीन रूढ़िगत विश्वासों को चुनौती देनी होगी। प्रचलित मतों को तर्क की कसौटी पर कसना होगा। यदि वे तर्क का प्रहार न सह सके, तो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ेगा। तब नये दर्शन की स्थापना के लिये उनको पूरा धराशायी करकेे जगह साफ करना और पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग करके पुनर्निमाण करना। मैं प्राचीन विश्वासांे के ठोसपन पर प्रश्न करने के सम्बन्ध में आश्वस्त हूँ। मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन परम आत्मा का, जो प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करता है, कोई अस्तित्व नहीं है। हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और समस्त प्रगतिशील आन्दोलन का ध्येय मनुष्य द्वारा अपनी सेवा के लिये प्रकृति पर विजय प्राप्त करना मानते हैं। इसको दिशा देने के पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है। यही हमारा दर्शन है। हम आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं।
यदि आपका विश्वास है कि एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और सर्वज्ञानी ईश्वर है, जिसने विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बतायें कि उसने यह रचना क्यों की? कष्टों और संतापों से पूर्ण दुनिया – असंख्य दुखों के शाश्वत अनन्त गठबन्धनों से ग्रसित! एक भी व्यक्ति तो पूरी तरह संतृष्ट नही है। कृपया यह न कहें कि यही उसका नियम है। यदि वह किसी नियम से बँधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं है। वह भी हमारी ही तरह नियमों का दास है। कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका मनोरंजन है। नीरो ने बस एक रोम जलाया था। उसने बहुत थोड़ी संख्या में लोगांें की हत्या की थी। उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने पूर्ण मनोरंजन के लिये। और उसका इतिहास में क्या स्थान है? उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं? सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाये जाते हैं। पन्ने उसकी निन्दा के वाक्यों से काले पुते हैं, भत्र्सना करते हैं – नीरो एक हृदयहीन, निर्दयी, दुष्ट। एक चंगेज खाँ ने अपने आनन्द के लिये कुछ हजार जानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं। तब किस प्रकार तुम अपने ईश्वर को न्यायोचित ठहराते हो? उस शाश्वत नीरो को, जो हर दिन, हर घण्टे ओर हर मिनट असंख्य दुख देता रहा, और अभी भी दे रहा है। फिर तुम कैसे उसके दुष्कर्मों का पक्ष लेने की सोचते हो, जो चंगेज खाँ से प्रत्येक क्षण अधिक है? क्या यह सब बाद में इन निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और गलती करने वालों को दण्ड देने के लिये हो रहा है? ठीक है, ठीक है। तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे, जो हमारे शरीर पर घाव करने का साहस इसलिये करता है कि बाद में मुलायम और आरामदायक मलहम लगायेगा? ग्लैडिएटर संस्था के व्यवस्थापक कहाँ तक उचित करते थे कि एक भूखे ख़ूंख़्वार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो कि, यदि वह उससे जान बचा लेता है, तो उसकी खूब देखभाल की जायेगी? इसलिये मैं पूछता हूँ कि उस चेतन परम आत्मा ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों की रचना क्यों की? आनन्द लूटने के लिये? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?
तुम मुसलमानो और ईसाइयो! तुम तो पूर्वजन्म में विश्वास नहीं करते। तुम तो हिन्दुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्वजन्मों के कर्मों का फल है। मैं तुमसे पूछता हूँ कि उस सर्वशक्तिशाली ने शब्द द्वारा विश्व के उत्पत्ति के लिये छः दिन तक क्यों परिश्रम किया? और प्रत्येक दिन वह क्यों कहता है कि सब ठीक है? बुलाओ उसे आज। उसे पिछला इतिहास दिखाओ। उसे आज की परिस्थितियों का अध्ययन करने दो। हम देखेंगे कि क्या वह कहने का साहस करता है कि सब ठीक है। कारावास की काल-कोठरियों से लेकर झोपड़ियों की बस्तियों तक भूख से तड़पते लाखों इन्सानों से लेकर उन शोषित मज़दूरों से लेकर जो पूँजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को धैर्यपूर्वक निरुत्साह से देख रहे हैं तथा उस मानवशक्ति की बर्बादी देख रहे हैं, जिसे देखकर कोई भी व्यक्ति, जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है, भय से सिहर उठेगा, और अधिक उत्पादन को ज़रूरतमन्द लोगों में बाँटने के बजाय समुद्र में फेंक देना बेहतर समझने से लेकर राजाआंे के उन महलों तक जिनकी नींव मानव की हड्डियों पर पड़ी है- उसको यह सब देखने दो और फिर कहे – सब कुछ ठीक है! क्यों और कहाँ से? यही मेरा प्रश्न है। तुम चुप हो। ठीक है, तो मैं आगे चलता हूँ।
और तुम हिन्दुओ, तुम कहते हो कि आज जो कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं और आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे, अतः वे सत्ता का आनन्द लूट रहे हैं। मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे। उन्होंने ऐसे सिद्धान्त गढ़े, जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफ़ी ताकत है। न्यायशास्त्र के अनुसार दण्ड को अपराधी पर पड़ने वाले असर के आधार पर केवल तीन कारणों से उचित ठहराया जा सकता है। वे हैं – प्रतिकार, भय तथा सुधार। आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धान्त की निन्दा की जाती है। भयभीत करने के सिद्धान्त का भी अन्त वहीं है। सुधार करने का सिद्धान्त ही केवल आवश्यक है और मानवता की प्रगति के लिये अनिवार्य है। इसका ध्येय अपराधी को योग्य और शान्तिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है। किन्तु यदि हम मनुष्यों को अपराधी मान भी लें, तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिये गये दण्ड की क्या प्रकृति है? तुम कहते हो वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है। तुम ऐसे 84 लाख दण्डों को गिनाते हो। मैं पूछता हूँ कि मनुष्य पर इनका सुधारक के रूप में क्या असर है? तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो, जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गधा के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं? अपने पुराणों से उदाहरण न दो। मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। और फिर क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है। गरीबी एक अभिशाप है। यह एक दण्ड है। मैं पूछता हूँ कि दण्ड प्रक्रिया की कहाँ तक प्रशंसा करें, जो अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे? क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था या उसको भी ये सारी बातें मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर अनुभव से सीखनी थीं? तुम क्या सोचते हो, किसी गरीब या अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर के यहाँ पैदा होने पर इन्सान का क्या भाग्य होगा? चूँकि वह गरीब है, इसलिये पढ़ाई नहीं कर सकता। वह अपने साथियों से तिरस्कृत एवं परित्यक्त रहता है, जो ऊँची जाति में पैदा होने के कारण अपने को ऊँचा समझते हैं। उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं। यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोेगेगा? ईष्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी? और उन लोगों के दण्ड के बारे में क्या होगा, जिन्हें दम्भी ब्राह्मणों ने जानबूझ कर अज्ञानी बनाये रखा तथा जिनको तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों – वेदों के कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा सहन करने की सजा भुगतनी पड़ती थी? यदि वे कोई अपराध करते हैं, तो उसके लिये कौन ज़िम्मेदार होगा? और उनका प्रहार कौन सहेगा? मेरे प्रिय दोस्तों! ये सिद्धान्त विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं। ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूँजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं। अपटान सिंक्लेयर ने लिखा था कि मनुष्य को बस अमरत्व में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसकी सारी सम्पत्ति लूट लो। वह बगैर बड़बड़ाये इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा। धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबन्धन से ही जेल, फाँसी, कोड़े और ये सिद्धान्त उपजते हैं।
मैं पूछता हूँ तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को क्यों नहीं उस समय रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है? यह तो वह बहुत आसानी से कर सकता है। उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं की लड़ने की उग्रता को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे बचाया? उसने अंग्रेजों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने की भावना क्यों नहीं पैदा की? वह क्यों नहीं पूँजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर अपना व्यक्तिगत सम्पत्ति का अधिकार त्याग दें और इस प्रकार केवल सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव समाज को पूँजीवादी बेड़ियों से मुक्त करें? आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं। मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूँ कि वह लागू करे। जहाँ तक सामान्य भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं। वे इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं। परमात्मा को आने दो और वह चीज को सही तरीके से कर दे। अंग्रेजों की हुकूमत यहाँ इसलिये नहीं है कि ईश्वर चाहता है बल्कि इसलिये कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं। वे हमको अपने प्रभुत्व में ईश्वर की मदद से नहीं रखे हैं, बल्कि बन्दूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे। यह हमारी उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निन्दनीय अपराध – एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचार पूर्ण शोषण – सफलतापूर्वक कर रहे हैं। कहाँ है ईश्वर? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा है? एक नीरो, एक चंगेज, उसका नाश हो!
क्या तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति तथा मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे करता हूँ? ठीक है, मैं तुम्हें बताता हूँ। चाल्र्स डारविन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है। उसे पढ़ो। यह एक प्रकृति की घटना है। विभिन्न पदार्थों के, नीहारिका के आकार में, आकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी बनी। कब? इतिहास देखो। इसी प्रकार की घटना से जन्तु पैदा हुए और एक लम्बे दौर में मानव। डार्विन की ‘जीव की उत्पत्ति’ पढ़ो। और तदुपरान्त सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति के लगातार विरोध और उस पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा से हुआ। यह इस घटना की सम्भवतः सबसे सूक्ष्म व्याख्या है।
तुम्हारा दूसरा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अन्धा या लंगड़ा पैदा होता है? क्या यह उसके पूर्वजन्म में किये गये कार्यों का फल नहीं है? जीवविज्ञान वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाल लिया है। अवश्य ही तुम एक और बचकाना प्रश्न पूछ सकते हो। यदि ईश्वर नहीं है, तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे? मेरा उत्तर सूक्ष्म तथा स्पष्ट है। जिस प्रकार वे प्रेतों तथा दुष्ट आत्माओं में विश्वास करने लगे। अन्तर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और दर्शन अत्यन्त विकसित। इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की प्रतिभा को है, जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकर लोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे तथा उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे। सभी धर्म, समप्रदाय, पन्थ और ऐसी अन्य संस्थाएँ अन्त में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं। राजा के विरुद्ध हर विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप रहा है।
मनुष्य की सीमाओं को पहचानने पर, उसकी दुर्बलता व दोष को समझने के बाद परीक्षा की घड़ियों में मनुष्य को बहादुरी से सामना करने के लिये उत्साहित करने, सभी ख़तरों को पुरुषत्व के साथ झेलने तथा सम्पन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बाँधने के लिये ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना हुई। अपने व्यक्तिगत नियमों तथा अभिभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा-चढ़ा कर कल्पना एवं चित्रण किया गया। जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है, तो उसका उपयोग एक भय दिखाने वाले के रूप में किया जाता है। ताकि कोई मनुष्य समाज के लिये ख़तरा न बन जाये। जब उसके अभिभावक गुणों की व्याख्या होती ह,ै तो उसका उपयोग एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है। जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों द्वारा विश्वासघात तथा त्याग देने से अत्यन्त क्लेष में हो, तब उसे इस विचार से सान्त्वना मिल सकती हे कि एक सदा सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसको सहारा देगा तथा वह सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है। वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिये उपयोगी था। पीड़ा में पड़े मनुष्य के लिये ईश्वर की कल्पना उपयोगी होती है। समाज को इस विश्वास के विरुद्ध लड़ना होगा। मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करता है तथा यथार्थवादी बन जाता है, तब उसे श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का पुरुषत्व के साथ सामना करना चाहिए, जिनमें परिस्थितियाँ उसे पटक सकती हैं। यही आज मेरी स्थिति है। यह मेरा अहंकार नहीं है, मेरे दोस्त! यह मेरे सोचने का तरीका है, जिसने मुझे नास्तिक बनाया है। ईश्वर में विश्वास और रोज़-ब-रोज़ की प्रार्थना को मैं मनुष्य के लिये सबसे स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ। मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा हे, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया। अतः मैं भी एक पुरुष की भाँति फाँसी के फन्दे की अन्तिम घड़ी तक सिर ऊँचा किये खड़ा रहना चाहता हूँ।
हमें देखना है कि मैं कैसे निभा पाता हूँ। मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा। जब मैंने उसे नास्तिक होने की बात बतायी तो उसने कहा, ‘'अपने अन्तिम दिनों में तुम विश्वास करने लगोगे।'’ मैंने कहा, ‘'नहीं, प्यारे दोस्त, ऐसा नहीं होगा। मैं इसे अपने लिये अपमानजनक तथा भ्रष्ट होने की बात समझाता हूँ। स्वार्थी कारणों से मैं प्रार्थना नहीं करूँगा।'’ पाठकों और दोस्तों, क्या यह अहंकार है? अगर है तो मैं स्वीकार करता हूँ।
[ Date Written: 1931 Author: Bhagat Singh Title: Why I Am An Atheist (Main nastik kyon hoon)   First Published: Baba Randhir Singh, a freedom fighter, was in Lahore Central Jail in 1930-31. He was a God-fearing religious man. It pained him to learn that Bhagat Singh was a non-believer. He somehow managed to see Bhagat Singh in the condemned cell and tried to convince him about the existence of God, but failed. Baba lost his temper and said tauntingly: “You are giddy with fame and have developed and ago which is standing like a black curtain between you and the God.” It was in reply to that remark that Bhagat Singh wrote this article. First appeared in The People, Lahore on September 27, 1931. भगतसिंह ]