Friday 29 August 2014

हम ठहरे गाँव के / देवेंद्र कुमार बंगाली

हम ठहरे गाँव के
बोझ हुए रिश्‍ते सब
कंधों के, पाँव के।

भेद-भाव सन्‍नाटा
ये साही का काँटा
सीने के घाव हुए
सिलसिले अभाव के!

सुनती हो तुम रूबी
एक नाव फिर डूबी
ढूँढ़ लिए नदियों ने
रास्‍ते बचाव के।

सीना, गोड़ी, टाँगें
माँगें तो क्‍या माँगें
बकरी के मोल बिके
बच्‍चे उमराव के।

No comments:

Post a Comment