Monday 29 September 2014

सौ चूहे खा के बिल्ली चली हज को/यशवंत सिंह

जी न्यूज पर पत्रकारिता की रक्षा के बहाने हाथापाई प्रकरण को मुद्दा बनाकर राजदीप सरदेसाई को घंटे भर तक पाठ पढ़ाते सुधीर चौधरी को देख यही मुंह से निकल गया.. सोचा, फेसबुक पर लिखूंगा. लेकिन जब फेसबुक पर आया तो देखा धरती वीरों से खाली नहीं है. Vineet Kumar ने सुधीर चौधरी की असलियत बताते हुए दे दनादन पोस्टें लिख मारी थीं. विनीत की सारी पोस्ट्स इकट्ठी कर भड़ास पर प्रकाशित कर दिया. ये लिंक http://goo.gl/7i2JRy देखें. ट्विटर पर पहुंचा तो देखा राजदीप ने सुधीर चौधरी पर दो लाइनें लिख मारी हैं. रिश्वत मांगने पर जेल की हवा खाने वाला संपादक और सुपारी पत्रकार जैसे तमगों से सुधीर चौधरी को नवाजा था.. जी न्यूज के सुधीर चौधरी और जी बिजनेस के समीर अहलूवालिया द्वारा जिंदल समूह के नवीन जिंदल से कोल ब्लाक धांधली प्रकरण की खबर रोकने के एवज में करोड़ों रुपये मांगने से संबंंधित स्टिंग की खबर को सबसे पहले भड़ास ने पब्लिश किया था (देखें http://goo.gl/x5y9Bz ) . उसके बाद इंडियन एक्सप्रेस समेत दूसरे मीडिया हाउसेज ने खबर को तब उठाया जब दिल्ली पुलिस ने नवीन जिंदल की लिखित शिकायत और प्रमाण के रूप में सौंपी गई स्टिंग की सीडी को देखकर एफआईआर दर्ज कर ली. फिर तो ये प्रकरण बड़ा मुद्दा बन गया और चारों तरफ पत्रकारिता के पतन की कहानी पर चर्चा होने लगी. सुधीर और समीर तिहाड़ जेल भेजे गए. इनके आका सुभाष चंद्रा पर गिरफ्तारी की तलवार लटकने लगी, लेकिन वो जेल जाने से बच पाने की एलीट तिकड़म भिड़ाने में कामयाब हो गए. उन दिनों राजदीप सरदेसाई ने भी सीएनएन-आईबीएन और आईबीएन7 पर सुधीर चौधरी के ब्लैकमेलिंग में जेल जाने के बहाने पत्रकारिता के पतन पर गहरा आंसू बहाया था. अब समय का पहिया जब काफी चल चुका है तब राजदीप सरदेसाई अपनी गालीगलौज व हाथापाई वाली हरकत के कारण सबके निशाने पर हैं और इनकी करतूत के चलते पत्रकारिता की हालत पर दुखी होकर टपाटप आंसू बहा रहे हैं सुधीर चौधरी. सोचिए जरा. इस देश के आम आदमी को मीडिया का संपूर्ण सच भला कैसे समझ में आएगा क्योंकि उसे कभी राजदीप सरदेसाई में सच्चा पत्रकार दिखता होगा तो कभी सुधीर चौधरी पत्रकारिता के हनुमान जी लगते होंगे. इस विचित्र और घनघोर बाजारू दुनिया में दरअसल जनता के लिए सच जैसी पक्षधरता / चीज पर कोई मीडिया वीडिया काम नहीं कर रहा. सब अपने अपने एजेंडे, अपने अपने राग द्वेष, अपने अपने मतलब पर काम कर रहे हैं और इसे जन पत्रकारिता का नाम दे रहे हैं. ब्लैकमेलिंग में फंसे सुधीर चौधरी हों या हाथापाई-गालीगलौज करने वाले राजदीप सरदेसाई. इन जैसों ने असल में केवल खुद की ब्रांडिंग की है और अपनी ब्रांडिंग के जरिेए अपने लालाओं और अपनी तिजोरियां भरी हैं. क्या गलत है, क्या सही है, इस पर हम लोग भले तात्कालिकता / भावुकता के शिकार होकर फेसबुक-ट्विटर पर एक दूसरे का सिर फोड़ रहे हों, एक दूसरे को समझा ले जाने या निपटा देने में जुटे हुए हों लेकिन सच्चाई यही है कि अंततः राजदीप, सुधीर, हम, आप... हर कोई अपनी सुरक्षा, अपने हित, अपने दांव, अपने करियर, अपनी जय-जय में जुटा हुआ है और जो फिसल जा रहा है वह हर हर गंगे कहते हुए खड़ा होने की कोशिश मेें जुट जा रहा है. देखिए इन्हीं मोदी महोदय को. गुजरात के दंगों के दाग से 'मुक्त' होकर विश्व नायक बनने की ओर चल पड़े हैं. इनकी बातें सुन सुन कर अब तो मुझको भी लगने लगा है कि सच में भारत को बहुत दिनों बाद कोई कायदे का नेता मिला है जो देश को एकजुट कर, एक सूत्र में पिरोकर बहुत आगे ले जाएगा... लेकिन जब मोदी की विचारधारा, मोदी के भक्तों, मोदी के अतीत को देखता हूं तो सारा उत्साह ठंढा पड़ जाता है क्योंकि ये लोग अपने हित के लिए कुछ भी, जी हां, कुछ भी, बुरा से बुरा तक कर डालते हैं. पर, समय और हालात, दो ऐसी चीज हैं भाइयों कि इनके कारण बुरे से बुरे को अच्छे से अच्छा में तब्दील होते देखा जा सकता है और अच्छे से अच्छा को बुरे से बुरा बताया जा सकता है. ऐसे ही हालात में मिर्जा ग़ालिब साहब ने कहा होगा...
रहिए अब ऐसी जगह चलकर, जहाँ कोई न हो
हमसुख़न कोई न हो और हमज़बाँ कोई न हो
और अंत में... जाते-जाते...
जी न्यूज के सुधीर चौधरी और जी बिजनेस के समीर अहलूवालिया के स्टिंग की वो सीडी जरूर देखिए जिसकी खबर भड़ास पर आने के बाद तहलका मचा और बाद में इन दोनों संपादकों को ब्लैकमेलिंग के आरोप में जेल जाना पड़ा... आज यही सुधीर साहब देश को जी न्यूज पर राजदीप सरदेसाई के धतकरम के बहाने सच्ची-अच्छी पत्रकारिता सिखा रहे थे... इस लिंक पर क्लिक करें... http://goo.gl/N96BR8
--
बाकी, सुधीर चौधरी और जी न्यूज की संपूर्ण कथा इस लिंक में है... http://goo.gl/6k7p41

सीवर का मोक्षद्वार

बाहर अच्छी-अच्छी बातें बड़ी अच्छी लगती हैं। अंदर बड़ा दुख देती हैं। भाषण सुनकर मन खुश हो जाता है कि सफाई कार्य बड़ा पावन है, मोक्ष का द्वार है। जिसको-जिसको मोक्ष चाहिए, पहले खुद सीवर में उतर कर दिखाये तो सही। गांधी की हरिजन-वचनावली बांच कर जाने कितने तर गये, आज तक तो किसी नेता को सीवर में उतरते नहीं देखा। देखते हैं, दो अक्तूबर को मोक्ष के आकांक्षी कौन-कौन से महापुरुष सीवर में उतर कर देश की जनता के सामने आदर्श प्रस्तुत करते हैं। फोटो खिंचाने के लिए तो कैमरे के सामने चाहे जो पलभर 'झाड़ू पकड़ नौटंकी' दिखा  ले। किसे पता कि बेचारे झाड़ू चुनाव चिह्न वालो के दिल पर क्या बीत रही होगी......

ये है प्रकाश कौर। शहीद ए आजम भगत सिंह की छोटी बहन। जिनका 27-अक्तूबर की रात टोरंटो में अपने भाई का जन्म दिन मनाने के बाद देहांत हो गया। महान वीरांगना को कोटि कोटि नमन।.....

(सुधीर गुप्ता के फेसबुक वॉल से साभार)

Saturday 27 September 2014

विमल राय की बेटी होने पर गर्व

रिंकी कहती हैं, 'मेरे लिए उनकी बेटी होना बहुत गर्व की बात है. ये ज़रूर है कि लोग मुझे बिमल रॉय की बेटी के तौर पर ही पहचानते हैं जबकि मैं ख़ुद पत्रकार हूं. किताबें संपादित करती रही हूं.'

भारतीय सिनेमा को 'दो बीघा ज़मीन', 'सुजाता', 'मधुमति' और 'बंदिनी' जैसी फ़िल्में देने वाले फ़िल्म निर्देशक बिमल रॉय का करियर छोटा लेकिन बेहतरीन रहा. हालांकि उनकी बेटी रिंकी भट्टाचार्य को इस बात पर अफ़सोस है कि उनके पिता की फ़िल्मों को समझने-पढ़ने की ज़रूरत महसूस नहीं की गई. इसलिए उन्होने ख़ुद ही एक किताब लिख दी अपने पिता की बनाई क्लासिक फ़िल्म मधुमति पर.रिंकी भट्टाचार्य कहती हैं, ''मुझे बहुत ग़ुस्सा आता है ये सोच कर बिमल रॉय जैसे इतने सम्मानित व्यक्ति को कभी समझने और लिखने लायक नहीं समझा गया. फिर मैंने सोचा कि यह मुझे ख़ुद ही करना होगा.''
बिमल रॉय को भारतीय सिनेमा में उनके यथार्थवादी चित्रण के लिए ख़ास माना जाता है. किताब लिखने की प्रक्रिया में रिंकी उन जगहों पर गईं जहां बिमल रॉय ने इसकी शूटिंग की थी. हैरत की बात ये थी कि उनकी मुलाक़ात ऐसे लोगों से भी हुई जिन्होंने बिमल रॉय को मधुमति की शूटिंग करते हुए देखा था. 1958 में प्रदर्शित मधुमति में वैजयंतीमाला और दिलीप कुमार ने मुख्य भूमिका निभाई थी.
मधुमति ही क्यों, मधुमति 1958 में रिलीज़ हुई थी. ये सवाल पूछने पर रिंकी कहती है कि मुझसे बहुत लोग ये पूछ चुके हैं कि आख़िर बिमल रॉय जैसे फ़िल्मकार ने, जो सामाजिक मुद्दों पर फ़िल्में बनाते रहे, मधुमती जैसी फ़िल्म क्यों बनाई. रिंकी कहती हैं कि उनकी नज़र में वो फ़िल्म और ख़ासकर उसमें फ़िल्माए गए दृश्य भारतीय सिनेमा के चंद सबसे बेहतरीन दृश्यों में से एक हैं. अपने पिता के साये से न निकल पाने का मलाल भी उन्हें बिल्कुल नहीं है. रिंकी कहती हैं, ''मेरे लिए उनकी बेटी होना बहुत गर्व की बात है. ये ज़रूर है कि लोग मुझे बिमल रॉय की बेटी के तौर पर ही पहचानते हैं जबकि मैं ख़ुद पत्रकार हूं. किताबें संपादित करती रही हूं. लेकिन इस बात का कोई अफ़सोस नहीं कि मैं सिर्फ़ बिमल रॉय की बेटी के तौर पर ही जानी जाती हूं.''
(बीबीसी हिंदी से साभार)


Friday 26 September 2014

आज की रात पैदा हुए थे शहीदेआजम

धिक्कार है ऐसी सरकार को, जो भगत सिंह को शहीद नहीं मानती है। फिर भी गोरी हुकूमत को खौफ से धर्रा देने वाले भगत सिंह हमेशा-हमेशा भारत के हर दिल अजीज थे, हैं और रहेंगे, कोई कृतघ्न भी उनकी कुर्बानियों को विस्मृत नहीं कर सकता। इंकलाब जिंदाबाद .....भगत सिंह प्रायः ये शेर गुनगुनाया करते थे- 'जबसे सुना है मरने का नाम जिन्दगी है, सर से कफन लपेटे कातिल को ढूँढ़ते हैं।' वर्ष 1907 में आज ही के दिन (27-28 सितंबर की रात)  लायलपुर (अब पाकिस्तान में फैसलाबाद) जिले के बांगा गांव में पैदा हुए थे शहीद-ए-आजम भगत सिंह। 

होनहार बिरवान के
होत चीकने पात, बचपन से ही उनके हाव-भाव, तौर-तरीके देखकर लोग कहने लगे थे कि बड़ा होकर ये लड़का जरूर कुछ न कुछ कर दिखायेगा। भगत सिंह के पौत्र यादविंदर सिंह संधु बताते हैं कि पांच साल की उम्र में एक बार भगत सिंह अपनी मां विद्यावती के साथ खेतों पर पहुंच गए। मां ने उन्हें बताया कि किस तरह गन्ने का एक टुकड़ा खेत में रोपने से कई गन्ने पैदा हो जाते हैं। भगत पर इस बात का इतना प्रभाव हुआ कि दूसरे ही दिन वह यह सोचकर खिलौना बंदूक लेकर खेत पर पहुंच गए कि इसे रोपने से कई बंदूकें पैदा हो जाएंगी। जो भगत सिंह देश की आजादी के लिए हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गये, आज तक वह भारत सरकार की नजर में 'शहीद' नहीं हैं। शहीद-ए-आजम भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को सरकारी दस्तावेजों में शहीद घोषित करने के मुद्दे पर भारत सरकार अभी तक सिर्फ बयानबाजियां करती आ रही है। इस मसले पर नरेंद्र मोदी से भी मुलाकात कर चुके हैं। गांधीनगर (गुजरात) में इस मुद्दे पर मोदी से उनकी लगभग 40 मिनट तक बातचीत हुई थी। इस रवैये से क्षुब्ध यादवेंद्र सिंह संधू कहते हैं कि अब इसके लिए सरकार से कत्तई किसी तरह की याचना नहीं की जाएगी। अब संधू उन सभी क्रांतिकारियों को दस्तावेजों में शहीद घोषित करने की मांग कर रहे हैं, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था।
हिन्दी के प्रखर चिन्तक रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक स्वाधीनता संग्राम: बदलते परिप्रेक्ष्य में भगत सिंह के बारे में टिप्पणी की है - 'ऐसा कम होता है कि एक क्रान्तिकारी दूसरे क्रान्तिकारी की छवि का वर्णन करे और दोनों ही शहीद हो जायें। रामप्रसाद बिस्मिल 18 दिसम्बर 1927 को शहीद हुए, उससे पहले मई 1827 में भगतसिंह ने किरती में 'काकोरी के वीरों से परिचय' लेख लिखा। उन्होंने बिस्मिल के बारे में लिखा - 'ऐसे नौजवान कहाँ से मिल सकते हैं? आप युद्ध विद्या में बड़े कुशल हैं और आज उन्हें फाँसी का दण्ड मिलने का कारण भी बहुत हद तक यही है। इस वीर को फाँसी का दण्ड मिला और आप हँस दिये। ऐसा निर्भीक वीर, ऐसा सुन्दर जवान, ऐसा योग्य व उच्चकोटि का लेखक और निर्भय योद्धा मिलना कठिन है।' सन् 1822 से 1827 तक रामप्रसाद बिस्मिल ने एक लम्बी वैचारिक यात्रा पूरी की। उनके आगे की कड़ी थे भगतसिंह।'

संतोष सिंह के साथ अपने कानपुर आवास में

जय प्रकाश त्रिपाठी जी से हमारी मुलाकात यशवंत भाई के जरिए हुई.... प्रगतिशील सोच के साथ मीडिया के क्षेत्र में उन्होंने एक पूरा करियर अपने मूल्यों पर अडिग रहते हुए जिया है. जितने अच्छा ये लिखते है, पहली मुलाकात में ही मुझे उससे अधिक एक अच्छे इन्सान लगे...जयप्रकाश जी ने पूरी भारतीय मीडिया का इतिहास, उसका उतार-चढ़ाव और विकास, मूल-तत्व और सिद्धांत, और इस क्षेत्र के अपने संस्मरण/रिपोर्ताज को बड़े ही रोचक और सरल तरीके से अपनी किताब "मीडिया हूँ मैं" में उतारा है. पत्रकारों के लिए जरुरी इस किताब को मेरे जैसे अ-पत्रकार के पास होना तो बनता था....चित्र में मूल लेखक से उसकी किताब "मीडिया हूँ मैं" को प्राप्त करता हुआ.


मोदी और मीडिया में अनबन के मायने

भारतीय मीडिया इस बात को लेकर परेशान है कि प्रधानमंत्री बहुत बातें करते हैं और अच्छी बातें करते हैं लेकिन वे मीडिया से बात नहीं करते हैं. लोकसभा चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी ने अपने आप को पत्रकारों के लिए सहज सुलभ बनाया हुआ था, ख़ासकर टीवी इंटरव्यू के लिए. लेकिन अब वे अपने पुराने तरीक़े पर लौट चुके हैं जिसके तहत वे सोशल मीडिया और भाषणों के माध्यम से ही मीडिया से रूबरू हो रहे हैं बजाए कि इंटरव्यू और प्रेस कांफ्रेंस के ज़रिए.
प्रधानमंत्री बनने के बाद फ़रीद ज़कारिया इकलौते ऐसे पत्रकार हैं जिनको मोदी ने इंटरव्यू दिया है. यह इंटरव्यू एक नरम रूख़ वाला और भारतीय नेता का दुनिया के सामने परिचय कराने वाला था. अब एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया जो कि आम तौर पर एक निष्क्रिय संगठन है और जिसपर पेशेवर संपादकों के बजाए मालिकों का नियंत्रण रहता है, ने मोदी के इस रवैए पर शिकायत दर्ज की है. इस हफ़्ते जारी एक बयान में संगठन ने कहा, "सरकार के संचालन में एक हद तक पारदर्शिता की कमी है."
संगठन ने कहा, "प्रधानमंत्री दफ़्तर में मीडिया इंटरफ़ेस की स्थापना में देरी, मंत्रियों और नौकरशाहों तक आसानी से पहुंच नहीं होना और सूचनाओं के प्रसार में कमी से यह लगता है कि सरकार अपने शुरुआती दौर में लोकतांत्रिक तरीक़े और जवाबदेही के क़ायदे के अनुरूप नहीं है."
जून में वेबसाइट scroll.in की एक रिपोर्ट ने कहा गया, "मोदी के साथ वरिष्ठ अधिकारियों की बैठक जिसमें उन्होंने अधिकारियों को मीडिया से दूर रहने का निर्देश दिया था, एक ऐसा तथ्य है जिसपर लोगों ने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया." प्रधानमंत्री ने अपने कैबिनेट के सहयोगियों को भी पत्रकारों से दूर रहने को कहा था और इसके बदले सरकार के आधिकारिक प्रवक्ताओं को उनके बदले बात करने को कहा था. "यह नई दिल्ली को गांधीनगर में तब्दील करने का पहला गंभीर प्रयास था. गांधीनगर में मोदी के तीन बार मुख्यमंत्री रहते हुए उनके मंत्रिमंडल के लोग बिना उनकी इजाज़त के मीडिया से बात नहीं करते थे. यहां तक कि गुजरात में मंत्रिमंडल की बैठक के बाद भी मंत्री मीडिया से बात नहीं करते थे जबकि दूसरे राज्यों में परंपरागत रूप से मंत्री इस बैठक के बाद मीडिया से बात करते है."
जब कभी भी मोदी ने महसूस किया कि उन्हें कुछ कहना है तब उन्होंने ट्वीट और अपने भाषणों का सहारा लिया. गिल्ड का कहना है कि यह पर्याप्त नहीं है.
संगठन का कहना है, "एक ऐसे देश में जहां इंटरनेट की पहुंच सीमित है और तकनीकी जागरूकता भी कम वहां इस तरह का एकतरफ़ा संवाद इतनी बड़ी पाठक, दर्शक और श्रोताओं की आबादी के लिए पर्याप्त नहीं है. बहस, संवाद और वाद-विवाद लोकतांत्रिक प्रक्रिया के आवश्यक तत्व हैं."
2002 दंगों के बाद मोदी का रिश्ता मीडिया के साथ बहुत हद तक विरोधात्मक हो गया था.
गुजरात में सबसे अधिक प्रसारित होने वाले अख़बार गुजरात समाचार को वे लंबे अर्से से पसंद नहीं करते आ रहे हैं. राज्य सरकार ने इस अख़बार के जवाब में गुजरात सत्य समाचार नाम का अख़बार निकाला जो सभी घरों में मुफ़्त में पहुंचाया जाता था. यह मोदी की उन उपलब्धियों का बखान करने वाला एक पैम्फ़लेट था जिन उपलब्धियों के ऊपर मोदी का मानना था कि अन्य अख़बार ध्यान नहीं देते हैं.
मोदी ने मुख्यधारा के मीडिया को इंटरनेट का सहारा लेकर दरकिनार कर दिया है. मोदी की सोशल मीडिया टीम में 2000 लोग हैं और इसका नेतृत्व हीरेन जोशी करते हैं. मोदी सोशल मीडिया प्रौपेगेंडा के मामले में चीनी सरकार के बाद शायद सबसे अधिक प्रभावशाली व्यक्ति हैं. वे मध्यमवर्गीय युवा पीढ़ी के चहेते हैं और मोदी भी उनसे अच्छे से जुड़ पाते हैं. उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान सभी तरह के तंत्रों का इस्तेमाल किया क्योंकि उस वक़्त उन्हें इसकी ज़रूरत थी लेकिन अब वे इस पर सोच रहे हैं. वे एक कुशल वक्ता हैं और अपने श्रोताओं तक मीडिया के बग़ैर सीधे पहुंच सकते हैं. यह उनको उन दूसरे नेताओं से अलग करता है जिन्हें मीडिया की ख़ास ज़रूरत पड़ती है. सरकार के अंदरख़ाने में क्या चल रहा है यह जानने के लिए पत्रकारों को उनके इर्द-गिर्द रहने वाले लोगों से बात करने की ज़रूरत पड़ेगी. यह आसान नहीं होगा.
(बीबीसी हिंदी से आकार पटेल का विश्लेषण साभार)

Thursday 25 September 2014

लो जी मुंह मीठा करो


NEW MISSION MODI (...& AAP)


FDI


CORRUPTION & POLITICS IN INDIA


धूमिल रिटर्न महाभूत चंदन राय

साहित्य, शोषित-वंचित मनुष्यता का स्वर होता है, भजनानंदी भकोसलेबाजों का मिथ्या आलाप नहीं, इसीलिए हम निराला, मुक्तिबोध, धूमिल, दुष्यंत, प्रेमचंद, नागार्जुन आदि को याद करते हैं और पंत-प्रसाद-महादेवी उत्सवी संस्थाओं, गपोड़ी आख्यानों में गूंजते हैं....सुदामा पांडेय 'धूमिल' को आज भी खूब पढ़ा जाता है, क्षुब्ध जन-मन के कहीं बहुत गहरे गोते लगाती हैं उनकी पंक्तियां, लेकिन क्या आपने 'धूमिल रिटर्न' महाभूत चंदन राय को पढ़ा है, कहां से आता है उनकी ओर ऐसा शब्द-प्रवाह, हमारे समय के अप्रिय यथार्थ से लड़ते हुए, इतना बेबाक, इतना खाटी......'इन दिनों मरा करता हूँ' शीर्षक कविता में वह लिखते हैं -
जी मुझे मरने का शौक़ है, हाँ जी ! मरने का ’हाजी’ हूँ, साली मौत चीज़ ही ऐसी है, तबीयत ठीक करता हूँ लिखने से, राख होने का मज़ा मैंने सीखा है मरघट में मुस्कराती चिताओं से, पंचर वाले की जेब से मैने एक लावा लिया, पी लिया, उसका सजदा किया आँख में बची आख़िरी दो बूँदों से, आमीन, ज़ख़्मों के पंचर वाले! हमारे घावों का पंचर निरस्त्रीकरण है, वफ़ादार होना आख़िरकार कुत्ता होना ही तो है, क़लम उठाई, अपना चेहरा फिर से काला किया, मै एक धोखेबाज़ था आईने में भी....मै रिक्शेवालों से दुनिया में सबसे ज़्यादा डरता हूँ, उनके पैरों में घूमती पृथ्वी, वो शैलेन्द्र के गीतों पर भूख को थपकियों से सुला सकता है, इन दिनों माँ चाय बनाती है चौराहे पर, मेरा बाप पनवाड़ी है, मुसलसल भूख से रोज़ मुलाकात होती है, मैं रोज तारे गिनकर ही सो जाता हूँ.....
उन्होंने 'मानचित्र' शीर्षक से लिखा - हमने ही बांटी यह गोल दुनिया सरहदों के चौखटे में, हमने ही अपने बच्चों के अक्षरों में घोला साम्राज्यवाद का ज़हर, हमने ही मजबूत की विभाजन की लूटखोर भाषा, हमने ही बाँटा महानता की परिभाषा का ये गिद्ध-ज्ञान कि सरहदें हमारी महानता के विस्तार का क्षेत्रफल हैं, भारत-पाकिस्तान बनने में महज शब्द खर्च नहीं हुए थे, इतिहास का हृदय काटा गया था आधा-आधा, सरहदों पर दिन-रात घूमता है एक आदमखोर प्रेत, और उसी आदमखोर भूख का नाम है मानचित्र, ये प्रेत पीता है दुनिया की शान्ति का लहू.......
'असुविधाएं' रचना की कुछ पंक्तियां - हमारे हिस्से आयी कितनी ही अनाम असुविधाएँ हैं खतरनाक, घुन की तरह धीरे-धीरे खोखला कर रही हैं जो हमें, हमारी संवेदनशीलता ने निष्ठुरताओं की आत्म-मृत्यु को अंगीकार कर लिया है, कमजर्फियां हमारी अभिशप्त पाकीजगी का भूषाचार हो चुकी हैं, हम अपनी मुर्दा पक्षधरता के साथ पक्षहीन जिन्दा है, अपने गूंगा होने का अभिनय, हमारे सामने हाशिये पर मानुस-खोर चुनौतियां थीं, खुलेआम दिन दहाड़े शहर के बीचो बीच कर रही थीं नरसंहार, हम हर हत्याकांड पर शांति के बहरूपिये शहंशाह, अपनी कृत्रिम सहानभूतियों के गुलाब चढ़ा कर खुश, इस जंगल होते शहर के जंगली, हम कायरों की तरह साफ़ करते हत्यारों की जूतियाँ, अपने तेवरों को खुद ही बधिया कर लिया, यार ! असुविधा के लिए अ-खेद है, हम अपने भीतर छिपे 'मांस के व्यापारी' पर चढ़ा लेते समाज-सेवक होने का मुलम्मा, कोर्ट के बटन में ख़रीदा गुलाब लगाकर हम खुद को सिद्ध  कर लेते एक अघोषित लोकनायक, इतना मीठा बोलने लगते कि मीठे को आने लगती शर्म, जबकि शहर इतना जल चुका, हमारी ट्रेडमार्क बुतपरस्ती, चंद हस्ताक्षर अभियान, मोमबत्तियां मार्च करते हुए, हम मनुष्यता के खून की बनी नदियों में अवसरवादी डुबकियाँ लगाते, हमारे खून सने हाथ धोते रहे हर जिम्मेदारी, हम पिछलग्गुओं की तरह दुबक जाते हैं हर गीदड़ चाल में, जबकि जरूरत पुरजोर चीख की, हमारा आदमी होना देश की पहली जरूरतों  में था, हम व्यक्तिपूजक चिमटा सारंगी लिए निकल पड़ते रैलियों, जुलूसों, रंगशालाओं में, हममें शेष नहीं हमारा अपना कुछ भी, न विचारधारा, न प्रतिरोध, हमने तोतों की तरह उनके पास गिरवी रख दी अपनी जबान भी, दांत चियार देना हर सवाल पर निकम्मे नेवलों की तरह, गोया बेशर्मी नहीं हुई हमारे होंठों की लाली हो गयी, हमारी अंधी आस्थाओं ने ही चोर-उचक्कों की जमात को अवसर दिया किया कि वे हमारे माथे पर मूतें अपने मुनाफे की नीतियां, हमारे कन्धों पर बैठकर हमे ह गुलामों की तरह हांकें, असुविधाएं मक्कारियों का हाट बाजार हो सकती है, चाट बाजार भी, आप प्रदर्शनियों से कुछ मुर्गे-चुर्गे-गुर्गे फांस कर पुरस्कार दिला सकते हैं, दंगे की अधजली निर्वस्त्र लाशें आपके लिए औपन्यासिक प्रेरणास्रोत हो सकती हैं, अर्थात आप तीसरे दर्जे  के कहानीकार से सीधे प्रथम पंगत में बैठ सकने वाले उत्तराधिकारी  हो सकते  हैं, असुविधाएं इतनी ही हानिकारक और लाभप्रद हैं कि शोक नहीं शौक हैं, हमारी चित्त वृतियों में इतनी ही प्रतिक्रियाशील, क्या मैं आपसे पूछ सकता हूँ कि इंग्लिश का सबसे सस्ता पव्वा कितने का है, असुविधा के लिए अ-खेद है !
और अंत में 'अपाहिज लोकतन्त्र' शीर्षक लंबी कविता की कुछ पंक्तियां -
एक भयानक किलसता हुआ मातम, आत्मा को कलपाता-काटता-छीलता रुदन, मरसियों का मुर्दहिया आर्तनाद, जला कर राख कर दे आपकी आँखों में बसी बेहयाई की अफ़ीम, एक सार्वजानिक सूचना जनहित में जारी, राजनीति के कसाईख़ाने में अब रोज़ काटे जाएँगे आज़ादी के अंग, रोज़ आठ दस या इससे ज्यादा करेंगे उसका गैंगरेप, संविधान जिसे पहले ही कर दिया गया अपंग, काश उसे छोड़ दिया जाता, यह एक कटी जीभ वाले देश की आत्मा के स्वर का छोर, अचानक कोई खा गया हमारी परछाइयां, अचानक एक अघोरी बदबूदार हवा की सुण्डी, जैसे पाँच महीने पुराने मांस का भभूका रख दिया हो किसी ने नाक के भीतर, राम नाम असत्य, जा रहे लोग जाने किस मरघट की ओर, ब्रह्मराक्षस लील रहे मूर्छित चेतनाएं, अपना भी है कोई बीमार, हम क्यों पचड़े में पड़ें, आख़िर ये हमारा कौन है, पर फूट-फूट इतना रोए, इतना रोए कि ...चलिए छोड़िए, हाहा... हाहा..हाहा....हाहा, लोकतंत्र इज राइजिंग, लोकतंत्र ! माई फुट, मुझे शर्म आती है, मैं भी एक गरीब हूं और आप? लोकतंत्र में बैठे हुए नरभेडि़ए जो करते है आचमन भी आम आदमी के खून से, हम जो शौक से गिनते हैं अपने मौत की उलटी गिनतियां और जिन्दगी का हिसाब नहीं रखते, जानते हैं मौत कुछ आसान, एक अदब तहजीब सी होगी, आपकी तरह निक्कमी नहीं, जा तुझे माफ़ किया लोकतंत्र, मेरा गुनाहगार खुदा है, अपनी मौत से पहले मैं आम आदमी मांगता हूँ अपनी आखिरी ख्वाहिश, ओ मेरे जान से प्यारे लोकतंत्र, गैट वैल सून, पर जानता हूं, कोई उम्मीद नहीं....

हमारे समय के लंपट / जयप्रकाश त्रिपाठी

चारो तरफ विक्षिप्तता का माहौल, लंपट युवा नवरात्र पूजा में व्यस्त, लंपट-धनधान्य संपन्न साहित्यकार आपसी चापलूसियों में, लंपट पत्रकार धन-मीडिया की जयजयकार में, बुजुर्ग लंपट हर जगह स्त्री-रचनाकारों की गोलबंदी में, लंपट छात्र मोदी के जयकारों में, धनी किसान जात-पांत की खेती-बाड़ी में, लंपट दलित मायावती की मोह-माया में, कम्युनिस्टनुमा फिकरेबाज-धोखेबाज पूंजी की दलाली में आकंठ डूबे हुए....अंधे समय की अंधी दौड़, फिर भी उम्मीद रखनी चाहिए कि हरतरह की खराबियों का हमेशा अंतिम अध्याय भी लिखा जाता रहा है, इस गंदे जयकारों का अंत भी वे युवा जरूर करेंगे, जो भगत सिंह जैसे शहीदों की कुर्बानियों को अपना जीवन-दर्शन मानते हैं, जो आम आदमी के लिए बेहतर दुनिया के सपने देखते हैं, जिन्हें मनुष्यता से अथाह प्यार है, वही कालजयी होंगे, वे ही हमारे अपने हैं.. (27-28 सिंतंबर की रात पैदा हुए थे शहीद भगत सिंह, जिन्हें अंग्रेजों ने हुसैनीवाला में टुकड़े-टुकड़े कर फेक दिया..)

नाटक 'बुर्क़ ऑफ़' : तुम हवा में उड़ती फिरोगी तो पति के लिए खाना कौन बनाएगा

"तुम एस्ट्रोनॉट बनकर क्या करोगी. औरतें एस्ट्रोनॉट नहीं बनतीं. तुम हवा में उड़ती फिरोगी तो पति के लिए खाना कौन बनाएगा" कहने को तो ये लंदन में हुए नाटक 'बुर्क़ ऑफ़' की शुरुआती लाइनें हैं लेकिन बहुत से परिवारों की शायद यही हक़ीक़त है. कम से कम नादिया मंज़ूर की ज़िंदगी की असलियत तो यही है..असल ज़िंदगी पर आधारित इस नाटक में नादिया ने अपनी ज़िंदगी से जुड़े 21 किरदार ख़ुद निभाएँ हैं. नादिया का जन्म ब्रिटेन में पाकिस्तानी मूल के परिवार में हुआ जहाँ उन्हें लड़कों से बात करने, मनपसंद कपड़े पहनने, अपने फ़ैसले ख़ुद लेने की आज़ादी नहीं थी. ब्रिटेन में पली बढ़ी नादिया की सोच पश्चिमी शैली में ढली थी जबकि पाकिस्तान से आया परिवार पारंपरिक सोच वाला था जहाँ हर फ़ैसला पुरुष लेता है. ज़िंदगी की इसी जद्दोजहद को नादिया ने कॉमेडी के ज़रिए नाटक में उतारा है.
नाटक के बारे में नादिया कहती हैं, "मैं बचपन में समझ नहीं पाती थी कि मैं कौन हूँ. मेरी इंग्लिश सहेलियाँ जब मुझसे बताती थीं कि वो अपनी अम्मी से हर तरह की बातें करती हैं तो मुझे लगता था कि मैं क्यों नहीं कर सकती." नादिया का कहना है, "मुझे जो ज़िंदगी चाहिए थी वो मैं झूठ बोल कर परिवार के बाहर जी रही थी क्योंकि मैं अपने फ़ैसले ख़ुद नहीं ले सकती थी. जब पिता को पता चला कि मैं अंग्रेज़ लड़के से शादी करना चाहती हूँ तो उन्होंने कहा कि ऐसे में परिवार से मेरा कोई रिश्ता नहीं बचेगा. मैं ख़ुद से झूठ बोल कर थक गई थी और एक दिन घर से भागकर न्यूयॉर्क चली गई. ज़िंदगी के बारे में लिखना शुरु किया और ये नाटक बन गया." डेढ़ घंटे के प्ले में नादिया पाकिस्तानी समाज के साथ-साथ अपने परिवार को कटघरे में खड़ा करने से नहीं चूकती, फिर वो उनके पिता और भाई ही क्यों न हो- पिता जो बेटी के खाने तक पर टोकता है कि मोटी हो गई तो शादी कौन करेगा और भाई कट्टरपंथी विचारधारा की ओर जा चुका है.
नाटक में सेक्स जैसे विषयों पर पाकिस्तानी समाज के रवैये पर भी नादिया ने सवाल उठाए--जहाँ वे चुटकी लेते हुए कहती हैं, "पाकिस्तानी समाज में सेक्स की कोई जगह नहीं है. दरअसल पाकिस्तानी समाज में तो सेक्स होता ही नहीं". पूरे नाटक में नादिया के निशाने पर सबसे ज़्यादा रहते हैं उनके अब्बू जिनकी बेहद निगेटिव, रूढ़ीवादी छवि पेश की गई है. नाटक की ख़ासियत है कि आख़िर में नादिया ने स्टेज पर अपने पिता को बुलाया जो दर्शक दीर्घा में बैठकर नाटक देख रहे थे. नादिया कहती हैं कि जब न्यूयॉर्क में उन्होंने नाटक किया था तो उनके पिता नाटक देखने आए और पिता का नज़रिया पूरी तरह बदल गया. नादिया के पिता ने बताया कि आज वे अपनी बेटी के सबसे बड़े समर्थक हैं. नादिया की मंशा नाटक को भारत और पाकिस्तान ले जाने की है और नाटक से आगे बढ़कर औरतों के हक़ को बड़ा मुद्दा बनाने की भी. (बीबीसी हिंदी से साभार)

Wednesday 24 September 2014

तुम स्वतंत्र हो / नाजिम हिकमत

तुम प्यार करते हो देश को, सबसे करीबी, सबसे क़ीमती चीज़ के समान लेकिन एक दिन, वे उसे बेच देंगे, उदाहरण के लिए अमेरिका को, साथ में तुम्हें भी, तुम्हारी महान आज़ादी समेत सैनिक अड्डा बन जाने के लिए तुम स्वतंत्र हो... 

तुम खर्च करते हो अपनी आंखों का शऊर, अपने हाथों की जगमगाती मेहनत,
और गूँधते हो आटा दर्जनों रोटियों के लिए काफी
मगर ख़ुद एक भी कौर नहीं चख पाते;
तुम स्वतंत्र हो दूसरों के वास्ते खटने के लिए
अमीरों को और अमीर बनाने के लिए तुम स्वतंत्र हो......
जन्म लेते ही तुम्हारे चारों ओर वे गाड़ देते हैं झूठ कातने वाली तकलियाँ
जो जीवनभर के लिए लपेट देती हैं तुम्हें झूठों के जाल में
अपनी महान स्वतंत्रता के साथ सिर पर हाथ धरे
सोचते हो तुम ज़मीर की आज़ादी के लिए तुम स्वतंत्र हो......
तुम्हारा सिर झुका हुआ मानो आधा कटा हो गर्दन से,
लुंज-पुंज लटकती हैं बाँहें, यहाँ-वहाँ भटकते हो तुम
बेरोज़गार रहने की आज़ादी के साथ तुम स्वतंत्र हो......
तुम दावा कर सकते हो कि तुम नहीं हो
महज़ एक औज़ार, एक संख्या या एक कड़ी
बल्कि एक जीता-जागता इंसान, वे फौरन हथकड़ियाँ जड़ देंगे
तुम्हारी कलाइयों पर, गिरफ्तार होने, जेल जाने
या फिर फाँसी चढ़ जाने के लिए तुम स्वतंत्र हो......
नहीं है तुम्हारे जीवन में लोहे, काठ या टाट का भी परदा;
स्वतंत्रता का वरण करने की कोई ज़रूरत नहीं,
तुम तो हो ही स्वतंत्र, मगर तारों की छाँह के नीचे
इस किस्‍म की स्वतंत्रता कचोटती है....

खड़हर खड़ा अकेला / जयप्रकाश त्रिपाठी

 तरह-तरह की सार्थक-निरर्थकताएं. कुछ लोग यूं ही जिए जा रहे हैं. कुछ लोग यूं लिखे जा रहे हैं. कुछ लोग बस यूं कुछ-न-कुछ पढ़ते रहते हैं. कुछ लोग यूं ही विश्व पुस्तक मेले तक में पहुंच जाएंगे और जो किताब दिख जाए, खरीद लेंगे. इन निरर्थकताओं में तो भी कुछ-न-कुछ सार्थकता झलकती है. होती भी है.
कुछ लोग ऐसे मिले, जिन्हें कोई रोग-व्याधि नहीं, बस यूं बाबा रामदेव को सराहने में जुटे हुए हैं रात दिन. जैसे चाटुकार और चापलूस अपनी पार्टियों के नेताओं को अनायास सराहते रहते हैं. कुछ लोगों को बेवजह ठिस्स-ठिस्स हंसने की आदत होती है और कइयों को इसी तरह मुस्कुराने की. जैसे कालेज के बड़े बाबू प्रिंसिपल साहब को देखकर दबे होंठ चपरासियों को हंसने के लिए प्रेरित करते रहते हैं.
एक पत्रकार हैं. उन्हें ट्रैफिक पुलिस वालों के साथ चौराहे पर खड़े होकर वहां से गुजरने वालों की आंखों में आंखों घुसेड़ने की लत है. अपने शहर में एक दरोगा जी हैं. हफ्ते में एक बार जरूर मौका निकालकर कप्तान साहब के मझले बेटे को (जो एसपी का सबसे मुंहलगा है) टॉफी-समोसा खिला आते हैं. अब वह बर्गर-पिज्जा की डिमांड करने लगा है. तब से दरोगा जी भी मोटी मछलियां नाधने लगे हैं.
एक कविजी हैं. पोखर के किनारे उनकी जर्जर कोठी है. उसमें एक खिड़की है. बगल में तख्त डालकर पोखर की तरफ मुंह किए जनाब वहीं दिनरात कवियाते रहते हैं. माथे से टकलू हैं. खिड़की की जाली से ही पता चल जाता है कि कोई महाकाव्य मकान के उस सिरे पर दमक रहा है. जब चिंतन-मनन करते-करते थक जाते हैं, सामने मोहल्ले की सड़क पर निकल आते हैं. आने-जाने वालों को व्यंग्यभरे काव्यात्मक अंदाज में निहारते रहते हैं. नमस्कार करते-कराते रहते हैं. जब वहां से भी थक जाते हैं, आगे नुक्कड़ पर पहुंच जाते हैं. देखते ही जूठन चाय वाला समझ जाता है कि विषखोपड़ा ग्राहकों का भेजा फ्राइ करने आ रही है.
वाकया ही कुछ ऐसा है. चाय की यह दुकान किसी जमाने में पूरे शहर में मशहूर थी. कवि जी ने एक दिन अपने पिछलग्गू नवोदित कवि से कहा कि इस चाय वाले रुपई को कविता करना सिखाओ. लिखने लगा तो फिर यहां मुफ्त की चाय की जुगाड़ बन जाएगी. सो, मिशन सफल रहा. वाकई चाय वाला कवि हो गया. दुकान पर ग्राहक झख मार रहे होते और वह हिसाब-किताब वाली कापी में कविताएं लिखता रहता. वहां दिन रात कविगोष्ठियां होती रहतीं. एक दिन ऐसी नौबत आई कि उसे दुकान बेंच कर भाग खड़ा होना पड़ा था. तब से यह नया चायवाला दुकान थामे हुए है. कवि जी को देखते ही उसे पुराने दुकानदार रुपई के दुर्दिन याद आ जाते हैं.
आखिरकार दुकान बेंचकर भाग खड़ा हुआ बेचारा, अब खड़हर खड़ा अकेला ।
जमाने के सताए हुए कुछ ऐसे लोग भी मिलते रहते हैं, जो आजकल सोशल मीडिया में हींक-छींक रहे हैं. जब देखा कि गुरू यहां तो मामला जोरदार चल निकला है, कलम-डायरी छोड़कर किसी के भी खेत में चरस-गांजा बो दे रहे हैं. जय हो..!

जनवाणी में प्रकाशित


मीडिया संस्थानों को प्रियंका गांधी का कानूनी नोटिस

प्रियंका गांधी वाड्रा ने एक साप्ताहिक अखबार और कुछ अन्य मीडिया संस्थानों को उनके द्वारा प्रकाशित उस खबर के लिए कानूनी नोटिस भेजे हैं जिसमें कहा गया है कि वह और उनके पति अपने बेटे को राहुल गांधी को गोद दे रहे हैं। सूत्रों ने बताया कि प्रियंका ने अपने बेटे की 'मानहानि' के लिए आपराधिक और दिवानी कार्रवाई की चेतावनी दी और कहा है कि वह अपने परिवार के बारे में झूठे आरोपों के खिलाफ कानूनी कदम उठाने को प्रतिबद्ध हैं। अखबार की खबर में कांग्रेस के शीर्ष स्तर पर व्याप्त अटकल के बारे में बताया गया है कि राहुल गांधी अपनी बहन प्रियंका के बेटे रेहान को गोद ले रहे हैं ताकि उसका उपनाम गांधी हो सके।
प्रियंका ने इसे मनगढ़ंत दुर्भावनापूर्ण सोच बताकर खारिज करते हुए नोटिस में कहा है, 'यह कहना कि कोई अभिभावक अपने बच्चे को स्वेच्छा से किसी और को दे देगा मानो कि वह भावहीन वस्तु है, यह अपने आप में बहुत खराब बात है। इसे किसी तरह की वंशवाद की राजनीतिक आकांक्षा के इरादे से जोड़ना तो और भी ज्यादा दुखद है।' प्रियंका ने इस खबर पर भी कड़ी आपत्ति जताई है कि उनके बेटे के स्कूल प्रवेश फॉर्म में उसके अभिभावक का नाम राहुल गांधी है। प्रियंका ने पिछले दिनों कांग्रेस में अपनी बड़ी भूमिका को लेकर चल रही अटकलों को भी पुरजोर तरीके से खारिज किया था। उन्होंने इस तरह की खबरों को निराधार अफवाह बताकर खारिज कर दिया था।

अस्सी देशों ने सुना मीनाक्षी का ‘साउंड ऑफ इंडिया शो’

देश की नंवर-1 आरजे मीनाक्षी के साउंड ऑफ इंडिया शो को ब्रिटेन और अमेरिका समेत 80 देशों के स्रोताओं ने सुना। ज्यूरिख में 5 सितंबर को मीनाक्षी ने अपने इस शो को प्रस्तुत किया। इस शो को रूस, लंदन अमेरिका, यूएई और सिंगापुर समेत 80 देशों में प्रसारित किया गया। इस शो में भारत के सभी राज्यों के फोक सांग्स और कल्चर के बारे में बताया गया। इसके साथ ही बॉलीवुड के गाने भी शो के दौरान सुनवाए गए। ये सारी जानकारी खुद मीनाक्षी ने ज्यूरीख से लौटने के बाद दी। स्विटजरलैंड के ज्यूरीख में आयोजित इंटरनेशनल रेडियो फेस्टिवल में हिस्सा लेकर देश की नंबर-1 आरजे मीनाक्षी स्वदेश लौट आई हैं। इंटरनेशनल रेडियो फेस्टिवल (आईआरफ) ने 94.3 माय एफएम की चंडीगढ़ की आरजे मीनाक्षी को देश का नंबर-1 आरजे चुना है। वे 3 सितंबर को ही इस फेस्टिवल में हिस्सा लेने के लिए ज्यूरिख गई थीं। अगले ही दिन वहां वे दुनिया के 70 देशों से आए कई आरजे से मिली। मीनाक्षी 70 देशों से आए आरजे से मिलकर उनके रेडियो के बारे जानकारी हांसिल की और उन्हें भी माय एफएम के बारे में बताया। उन्होंने बताया कि किस प्रकार माय एफएम मनोरंजन के साथ ही देश-दुनिया के बारे में लोगों को अपडेट रखता है। इस दौरान जाने माने आरजे टोनी प्रिंस ने अपनी टीवी डॉक्यूमेंट्री के लिए मीनाक्षी का इंटरव्यू भी लिया। वहीं 6 सितंबर को मीनाक्षी ने ‘चेंजेस फेस ऑफ रेडियो’ विषय पर आयोजित ग्रुप डिस्कशन में भाग लिया। इस डिस्कशन में यही निष्कर्ष निकला कि लोगों को जोड़ने या उनका मनोरंजन करने की जो ताकत रेडियो में है वो किसी और मीडिया में नहीं है। (समाचार4मीडिया से साभार) 

विज्ञापनों का इमोशनल अत्याचार

भारतीय टीवी चैनलों पर इमोशन से भरपूर विज्ञापनों का चलन देख कर ऐसा लग रहा है कि दुनिया में इमोशनल ऐड का दौरफिर से शुरू हो गया है, और यह विज्ञापन जगत का मूलमंत्र बन गया है। जहां विज्ञापन में ग्राहकों को उत्पाद के लाभकारी या बेहतर होने के बारे में जानकारी देने की जगह, इमोशन (भावना) से ब्रैंड को जोड़ने की कोशिश हो रही है। सभीब्रैंड उपभोक्ताओं को अपने उत्पाद के साथ विशेष भावनात्मक लगाव महसूस कराने के तहत अपना एक अलग भावनात्मक क्षेत्र तैयार करने में जुटे हैं। कई अन्य उत्पादों के अलावा बैंक खाता खोलने से लेकर ज्वेलरी, सर्च इंजनऔर यहां तक की खाद्य तेल के विज्ञापन में भी यही थ्योरी अपनाई गई है। लेकिन सवाल उठता है कि इसकी सीमा क्या है?
कुछ ब्रैंड विज्ञापनदाताओं का ये मानना है कि विज्ञापन के माध्यम से ग्राहकों के स्वभाव को प्रभावित किया जा सकता है और अपने ब्रैंड के प्रति उनके खरीदने के व्यवहार को भी बदला जा सकता  है। लेकिन लोग कैसे समझ पाएंगे कि भावनात्मक विज्ञापन हमेशा बदलेगा और उपयुक्त भावनात्मक विज्ञापन हमेशा काम करेगा।
रेडीफ्यूजन वाई ऐड आर के नेशनल क्रिएटिव डाइरेक्टर, च्रनीता मान का कहना है कि कुछ भी हो जो दिल की बात करेगा वह हमेशा कायम रहेगा। साथ ही उनका ये भी कहना है किसी आइडिया को किस प्रकार लागू किया जाता है इस पर ध्यान देना भी जरूरी है। उनका कहना है कि हम लोग भारतीय हैं और भावना में जल्दी बह जाते हैं। जो भी चींजे हमारे दिल को छू जाती हैं, बहुत ज्यादा चांस होता है कि उसका तार हमारे बटुए से भी जुड़ जाए। वे कहती हैं कि आज के समय में खरीदार काफी जागरूक हो चुके हैं, लेकिन कम्युनिकेशन का काम ही है कि वह खरीदारों को अपनी भावना से उत्पाद की ओर खींचे, और उत्पाद को भी अंत में ग्राहक के रूप में बदलना होता है। उन्होंने आगे कहा कि भावनाओं को भी अपने वास्तविक काम के प्रति प्रासंगिक होना पड़ता है। ऐसे में नींबू फ्रेश काविज्ञापन हो, जो दर्शकों को अपने होमटाउन के उन पुराने दिनों में ले जाता है जहां बचपन गुजरा है, या फिर फार्चून तेल केलिए ‘घर का खाना’ विज्ञापन हो,  जिसमे कहा जाता है कि ‘मां के हाथ की बनी दाल मेरे लिए हमेशा विशेष होती है’। इनसारी भावनाओं के साथ ग्राहक खुद को जुड़ा महसूस कर सकते हैं क्योंकि उन्हें इसका अनुभव है। मेरे हिसाब से जो भावना दर्शकों को यह महसूस कराती है कि यह विज्ञापन उन्हीं के लिए है, दिखाने के लिए वही सबसे मजबूत भावना है।
जेनो समूह, भारत के प्रबंध निदेशक पैपरी देव के अनुसार जो ब्रैंड सही अर्थों में लंबे समय तक चला है, जो भावनाओं के साथ उनके मूल्यों पर फिट रहा है, उसी को सबसे ज्यादा लाभ हुआ है। उदाहरण के लिए Nike को ही लेते हैं, जो लोगइस ब्रैंड के प्रति आकर्षित हुए हैं वे सालों से इसके बारे में कही जा रही कहानी के साथ खुद को जोड़ सकते हैं।किसी भी ब्रैंड की पहचान उनके ग्राहकों से जुड़ी होती है। विक्रेता सोचते हैं कि ब्रैंड की पहचान उनसे है, लेकिन ये सच नहीं है।
अब कोक का उदाहरण लीजिए, इस ब्रैंड के विज्ञापन में जो एक ही भावना दिखती है वह है खुशी। लेकिन इस ब्रैंड में जो सबसे महत्वपूर्ण बात रही है वह है भावनाओं के साथ लंबे समय तक का जुड़ाव।
एक सामान्य दर्शक से अलग अब भारतीय उपभोक्ताओं का दिमाग खरीदारी को लेकर बदला है। ऐसे में प्रतिस्पर्द्धा से भरे बाजारमें विज्ञापनदाताओं को भी पुराने तरीको से अलग अपने संचार तरीकों में बदलाव करने की जरूरत है। भारतीय ग्राहकों का अगला जेनरेशन काफी जागरूक, पढ़ा लिखा, स्मार्ट  और तकनीकी तथा उपलब्ध मीडिया चैनलों के माध्यम से अन्य जानकारियों से लैस है।
भावनात्मक हेरफेर के कारण फेसबुक के खिलाफ उठे विवाद के अध्ययन ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भावनाएं बिल्कुल निजी हैं जिन्हे लोग खुद ही संभालकर रखते हैं, लेकिन यह विज्ञापन के लिए भी काफी महत्वपूर्ण है कि वह किस प्रकार लोगों के दिमाग के साथ दिल को भी छू सके।
च्रनीता मान का कहना है कि बिना किसी भावनात्मक लाग लपेट के तथ्य के बारे में कहने का तरीका ही हार्ड सेल है। अब अगर कपड़े धोने का पाउडर के गुण बताने की बजाए अगर कंपनी ये कहे कि दाग अच्छे हैं तो वह यहां सीधे- सीधेभावना को जोड़ रही है। यह कहने के बाद अगर ब्रैंड तुरंत उपभोक्ता के दिमाग में चल रहे विचार के बीच उत्पाद के फायदे बता देतो इससे ज्यादा जुड़ाव होता है। ऐसा करते ही अचानक वह उत्पाद आपके जीवन में स्थान पाने लगता है, आप उससे जुड़ावमहसूस करने लगते हैं, आप उस मां को पसंद करने लगते हैं जो कुछ अच्छा करने के लिए अपने बच्चों को कीचड़ में खेलने देतीहै। उन्होंने कहा कि मैं मानती हूं कि हार्ड-सेल एक अल्प अवधि की प्रक्रिया है, आपको परिणाम तब दिखता है जब कोईप्रतियोगी आता है और हार्ड-सेल तरीके से अपना उत्पाद और भी बेहतर तरीके से बेच देता है। लेकिन एक भावनात्मक जुड़ावबिना किसी विशेष प्रयास से ही लोगों के दिमाग में बैठ जाता है। हालांकि कई बार संचार और खासर ई-कॉमर्स के शुरुआती स्टेज में हार्ड-सेल की जरूरत होती है। वहां उपभोक्ता को यह समझाना जरूरी होता है कि आखिर ई-कॉमर्सकाम कैसे करता है, उनकी समस्या को सुलझाना होता है क्योंकि वह नए तरीके के खुदरा बाजार से वाकिफ हो रहे होते हैं।
भावनात्मक बिक्री और हार्ड सेल के बीच की फाइन लाइन के बारे में पूछे जाने पर इंटेक्स टेक्नोलॉजी के मार्केटिंग डाइरेक्टर केशव बंसल कहते हैं कि विज्ञापन में मौजूद भावना का स्तर पता करने का कोई पैमाना नहीं है। फिर भी एक ब्रैंड को अपनेवादे के मुताबिक उत्पाद के साथ न्याय करना ही होता है। लंबे समय तक एक ग्राहक तभी आपके साथ जुड़ा रह सकता हैजब आप अपने वादे को निभाएंगे।
मेरे विचार से यदि ब्रैंड अपने वादे के मुताबिक परिणाम दे सके तो वहां हार्ड- सेल की जरूरत नहीं पड़ेगी। आकर्षक अभियानचला कर कभी भी उपभोक्ताओं को जोड़ा जा सकता है लेकिन अपने ग्राहकों को बनाए रखने के लिए ब्रैंड को भावना के मुताबिकअपने वादों को भी निभाना होता है। उनका कहना है कि किसी भी चीज की अति अच्छी नहीं होती है और विज्ञापन के मामलेमें व्यर्थ नाटक कोई बाध्यता नहीं है।
लगातार किसी भावना पर हो रहा हमला मूल्य खत्म होने की वजह बन सकता है। यह कहना है एकसाउरस केसंस्थापक और क्रिएटिव डाइरेक्टर सुरेश एरियात का।उनका कहना है कि यदि कहीं भावनात्मक लगाव है तो वहां हार्ड सेलनहीं होगा। दिखावटी नाटक से लोगों का मन नहीं बदला जा सकता है क्योंकि लोग काफी सतर्क हैं।
जेनो की पैपरी देव का भी यही मत है। जब किसी ब्रैंड में इमोशन फिट नहीं बैठता है तो उस वक्त हार्ड सेल काफीनुकसानदेह होता है।भावनात्मक कहानियों और कार्यक्रमों को एक बड़े दिल के साथ चलाने की आवश्यकता होती है, कभीकभी लगता है कि यदि ब्रैंड ने एक अच्छी छवि बनाई है तो वह उपभोक्ताओं के दिमाग में हमेशा रहती है और खुद उसकेप्रशंसक विज्ञापन करते हैं।
ऐसा अक्सर होता है कि जब उपभोक्ता एक विज्ञापन से बोर हो जाते हैं तो विज्ञापनदाता उसे बदलकर दूसरा विज्ञापन चलाने लगते हैं।
सुरेश एरियात का कहना है कि कई ऐसे सर्किल होते हैं जिनकी चिंता करनी होती है, लेकिन यह खेल एक पूरे सर्किल का होता हैजहां आपको वास्तविक भावना दिखाना होता है जो कि हमेशा एक जैसी ही होती है।
अधिकांश इमोशन वाले विज्ञापन से उपभोक्ताओं से ज्यादा विज्ञापनदाता खुद बोर हो जाते हैं। यदि शोध साबित करता है किउपभोक्ता बोर हो रहे हैं तो यह एक संकेत है कि समस्या को जानने के लिए गहराई में जाने की जरूरत है। ब्रैंड लाइफसाइकिल में ब्रैंड की अवस्था को खोजते रहते की जरूरत होती है।वातावरण में होने वाले बाहरी बदलाव के कारण बाजार केलोगों को भी बदलाव के लिए मजबूर होना पड़ता है।
वहीं मान का विचार इससे भिन्न है वह कहती हैं कि मैं ऐसा नहीं कहूंगी कि हार्ड सेल विज्ञापन या फिर भावनात्मक विज्ञापनएक रुझान है जहां कुछ समय के लिए कोई आता है और फिर अगला उसे वहां से हटा देता है। मेरा मानना है कि दोनों एक साथबने रहते हैं। दोनों संचार की विभिन्न जरूरतों को पूरा करते हैं और यह निर्भर करता है कि आपका ब्रैंड किस अवस्था में है।यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि आखिर विज्ञापनदाता कितनी भावनाएं इस्तेमाल कर सकता है और कितनी ब्रैंड के साथ बनी रह सकती है।
फॉक्सीमोरन के सह संस्थापक प्रतीक गुप्ता का कहना है कि विज्ञापनदाताओं को यह समझने की जरूरत है कि अगर कोई ब्रांड वीडियो से बाहर आता है तो विज्ञापन किस तरह उपभोक्ताओं पर प्रभाव छोड़ेगा। क्या कोई भी ग्राहक उससे जुडा है? अगर है तो फिर सामग्री को इसका साथ देना होगा। ज्यादातर विज्ञापनदाता अधिकाधिक मानव स्वभाव कोसमझने की कोशिश करते हैं। इमोशनल मॉडल साधारण होता है इसलिए उपभोक्ता की बात करता है और उपभोक्ताओं के अनुभवों को जानना विज्ञापन जगत का मुख्य काम सा बन गया है। (समाचार4मीडिया से साभार)

Tuesday 23 September 2014

मंगल की कक्षा में बैठा मंगलयान

ऐतिहासिक सफलता.. भारत ने रचा इतिहास..इंसान की जय, विज्ञान की जय, मंगल यान की जय...पूरे विश्व में सनसनी.. इसरो ने आज सुबह 7 बजकर 17 मिनट पर भारत के मंगलयान का तरल इंजन शुरू कर दिया था...यान के इंजन का स्टार्ट सफल ..लिक्विड इंजन बंद, पहला सिग्नल मिला,,,पीएम नरेंद्र मोदी भी वैज्ञानिकों के बीच...समूचा राष्ट्र गैरवान्वित....इंजन चौबीस मिनट तक ठीक से चला, एक मिनट का सिग्नल मिला...

अपसंस्कृति फैला रहीं नंग-धड़ंग नायिकाएं / निर्मलेंदु

बॉलिवुड ऐक्ट्रेस दीपिका पादुकोण और टाइम्स ऑफ इंडिया वेबसाइट के ‘क्लीवेज शो’मामले में अखबार ने जिस तरह दीपिका का पाखंड को उजागर किया, उसमें गलत क्या है?  भारत जैसे संस्कृति प्रधान देश में बॉलिवुड ऐक्ट्रेसेज जिस तरह अपसंस्कृति फैला रही हैं, क्या वह जायज है? वह महिलाओं के सम्मान की बात करती हैं! महिलाओं पर जुर्म होता है, तो क्या आप विरोध करती हैं? पहले आपको खुद उन भूमिकाओं से बचना चाहिए, जिनमें देह प्रदर्शन होता है। अगर आप खुद अपने शरीर का प्रदर्शन करेंगी, तो लोग तो ऊंगली उठाएंगे ही। बचपन से ही भारतीय परिवारों की लड़कियों को यह हिदायत दी जाती है कि वे कोई ऐसा गलत काम न करें, जिससे कोई ऊंगली उठाए। सच तो यह है कि फिल्म इंडस्ट्री में ग्लैमर के नाम पर और ग्लैमर की दुहाई देकर, जिस तरह से देह प्रदर्शन किया जाता है, क्या दीपिका जी, वह सब जायज है?
इन सभी बातों को गहराई से समझने के लिए पूर्व में दीपिका की ही ओर से फेसबुक पर लिखे उनके एक संदेश पर गौर करें, जिसमें खुद उन्होंने कहा था, ‘मुझे अच्छी तरह से अपने काम के बारे में पता है। मेरा काम बहुत डिमांडिंग है, जो मुझसे बहुत कुछ करवाना चाहता है। किसी रोल की मांग हो सकती है कि मैं सिर से पैर तक ढकी रहूं या पूरी तरह नग्न हो जाऊं। तब एक ऐक्टर के तौर पर यह मेरा निर्णय होगा कि मैं यह करना चाहती हूं या नहीं। यह फर्क समझना होगा कि रोल और रियल में अंतर होता है और मेरा काम मुझे दिए गए रोल को जोरदार तरीके से निभाना है।’
दीपिका जी, अगर आपकी बात को सही मान भी लिया जाए, तो जब आप इसे बेबाकी से स्वीकार करती हैं कि फिल्म के डिमांड पर आप ऐसा कोई भी उल-जुलूल निर्णय ले सकती हैं, तो फिर टाइम्स ऑफ इंडिया वेबसाइट की इस मामूली से वीडियो पर आप आखिर इतना बतंगड़ क्यों बना रही हैं? वैसे, देखा जाए, तो वेबसाइट का तर्क भी काफी हद तक जायज है कि तमाम मैग्जीन और अन्य मौके पर जब दीपिका अपने शरीर का प्रदर्शन करते नहीं हिचकतीं, स्टेज पर डांस करते हुए, किसी मैगजीन के लिए पोज देते वक्त और फिल्मों के प्रोमोशनल फंक्शन में ग्लैमर के नाम पर तस्वीर खिंचवाते वक्त जब‘क्लीवेज शो’ होता है, तो फिर उन्हें गुस्सा क्यों नहीं आता? मैं पूछना चाहता हूं दीपिका जी से, तब आप कौन सा रोल प्ले कर रही होती हैं?
हालांकि दीपिका और वेबसाइट के इस घमासान के बीच हकीकत को सोनम कपूर ने काफी बारीकी से समझा। तभी तो उन्होंने लगे हाथ दीपिका को नसीहत देते हुए कहा कि ‘जिस दिन महिलाएं खुद को एक कमोडिटी (वस्तु) की तरह पेश करना बंद कर देंगी, उसी दिन से लोग भी महिलाओं के प्रति अपना नजरिया बदल लेंगे।’सोनम कपूर की यह बात कहीं न कहीं, भारतीय संस्कृति, भारतीय सभ्यता और यहां के रहन-सहन को इंगित करती है, जिसे दीपिका को समझना होगा।
दरअसल, जब संस्कार की बात आती है, तो हमें खुद अपने आप पर नियंत्रण रखना पड़ेगा। हम जब खुद सही रास्ते पर चलेंगे, तो हम दूसरों की कमियों पर प्रहार कर पाएंगे। लेकिन यदि हम खुद गलत होंगे, तो फिर हमें दूसरों पर उंगली उठाने का कोई अधिकार ही नहीं है। हमें याद रखना होगा कि ईमानदारी से किया गया कार्य, हमें प्रगति की ओर ले जाता है। एक बात हमें याद रखनी होगी कि यदि दुनिया में ईमानदारी छा जाए, तो अनेकों अनेक समस्याओं को जन्मने का मौका ही नहीं मिलेगा। याद रहे कि अर्थ का अर्जन शुद्ध साधन से किया जाय व उसका सदुपयोग किया जाए, तो वह अर्थ सार्थक है, वरना वह अनर्थ है। अंत में मैं यही कहना चाहूंगा कि आप दूसरों की बुराइयों को देखते हो, जरा आंख मूंद यह भी खोजो आपमें कितनी बुराइयां हैं?

अंग्रेजी के पत्रकारों को भरपूर सहुलियतों के साथ काम करने की आदत

‘साहित्य के साथ-साथ पत्रकारिता के माध्यम से भी हिंदी का प्रचार प्रसार हुआ है। हिंदी साहित्य हिंदी भाषा के विकास की जड़ है। भूमंडलीकरण का जितना लाभ हिंदी को हुआ है, उतना शायद भारतीय उपमहाद्वीप की किसी अन्य भाषा को नहीं हुआ है। हिंदी के अखबार, हिंदी फिल्मों की सफलता और हिंदी के टीवी सीरियल की लोकप्रियता इसके उदाहरण हैं।’ ये बात वरिष्ठ पत्रकार अभय कुमार दुबे ने 'हिंदी का प्राइम टाइम' विषय नामक एक परिचर्चा में कही।
'हिंदी का प्राइम टाइम' नाम की इस परिचर्चा का आयोजन वाणी प्रकाशन, ऑक्सफोर्ड बुक स्टोर और इंडिया टुडे ग्रुप डिजिटल ने साथ मिलकर 19 सितंबर को किया था। कार्यक्रम में मुख्य वक्ता के रूप में पत्रकारिता के महारथी प्रो. सुधीश पचौरी, अभय कुमार दुबे और प्रियंका दुबे शामिल हुईं।
कार्यक्रम के दौरान रामनाथ गोयनका सम्मान से सम्मानित युवा पत्रकार प्रियंका दुबे ने कहा कि हिंदी का पत्रकार हर परिस्थिति में कार्य करने की क्षमता रखता है, लेकिन
अंग्रेजी के पत्रकार को भरपूर सहुलियतों के साथ काम करने की आदत होती है। हिंदी का पत्रकार मल्टी टास्किंग कर सकता है। अंग्रेजी के पत्रकार के लिए अ्पने कार्य को ही पूरा करना बड़ी बात होती है। उन्होंने आगे कहा कि हिंदी के संपादक जल्दी ही वरिष्ठ हो जाते हैं, जबकि अंग्रेजी के संपादक लंबे समय तक कार्य करते हैं और टीम को प्रोत्साहित करते हैं। उन्होंने कहा कि हिंदी पत्रकारिता से ज्यादा अंग्रेजी पत्रकारिता में आमदनी है।
कार्यक्रम के दौरान प्रियंका दुबे की इस बात पर प्रो. सुधीर पचौरी व अभय कुमार दुबे ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि हम से कई लोग अंग्रेजी के क्षेत्र में अपना करियर आसानी से बना लेते हैं, लेकिन जिस तेज गति से हिंदी भाषा का विस्तार हो रहा है उसे देखकर यही लगता है आने वाले वर्षों में हिंदी अपने चरम पर होगी।
कार्यक्रम का संचालन युवा लेखक प्रभात रंजन ने किया। कार्यक्रम में हिंदी साहित्य, पत्रकारिता के पहलुओं और इनके माध्यम से विश्व को जोड़ने की कोशिश पर बातचीत हुई। कार्यक्रम के दौरान वाणी प्रकाशन की निदेशक (कॉपीराइट एवं अनुवाद विभाग) अदिति माहेश्वरी भी मौजूद थी।
यह कार्यक्रम वाणी प्रकाशन और ऑक्सफोर्ड बुकस्टोर के नए गठबंधन के तहत हुआ। इसके तहत ऑक्सफोर्ड बुकस्टोर ने पहली बार हिंदी पुस्तकों को पूरे देश में अपने बुक स्टोर में स्थान देने का निर्णय लिया है।

कवि ही नहीं, पत्रकार भी थे रामधारी सिंह दिनकर

बिहार के मुंगेर जिले के सिमरिया गांव में 23 सितंबर 1908 को जनमे राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की वीर रस की कविता, कहानी और उपन्यास से तो सभी लोग वाकिफ हैं लेकिन बहुत कम ही लोग जानते हैं कि दिनकर जी अपनी लेखनी से एक पत्रकार का भी धर्म निभाया है। अपनी कविता और लेखनी से दूसरों में साहस जगाने वाले दिनकर जी खुद भी साहसी पत्रकार रहे हैं। वे खुद इतने साहसी थे कि पत्रकारिता धर्म निभाने के लिए अपनी नौकरी को भी दांव पर लगाने से नहीं हिचकते थे। आज उनकी 106वीं जयंती है, इस मौके पर हम सब उनको नमन करते हैं।
दिनकर जी के बारे में एक और बात कम लोग जानते हैं वह ये कि शुरू में रामधारी सिंह दिनकर अमिताभ के नाम से लिखना शुरू किया था, लेकिन बाद में उन्होंने अपने मूल नाम रामधारी सिंह ‘दिनकर’ को ही अपना लिया। पत्रकारिता से लगाव और लगातार कई पत्र-पत्रकाओं में लिखने के कारण ही स्वतंत्रता मिलने के बाद रामधारी सिंह ‘दिनकर’ को प्रचार विभाग का डिप्टी डायरेक्टर बनाया गया। निर्भीक पत्रकारिता धर्म को नहीं छोड़ने की वजह से ही एक बार उनकी नौकरी पर बन आई थी। देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के इंटरव्यू लेने से कुछ विवाद हो जाने के कारण उनकी नौकरी पर बन आई थी, लेकिन उन्होंने उसकी भी कोई परवाह नहीं की।    
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ उस दौर के कवि हैं जब कविता की दुनिया से छायावाद का दौर खत्म हो रहा था। पटना विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद दिनकर जी जिविकोपार्जन के लिए एक हाईस्कूल में अध्यापन कार्य किया। उसके बाद अनेक महत्वपूर्ण प्राशासनिक पदों पर भी रहे। मुज़फ्फ़रपुर कॉलेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष बने और बाद में भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति भी बने। कई सम्मानों और अलंकरण से सम्मानित होने के साथ ही दिनकर जी को भारत सरकार के पद्म विभूषण अलंकरण से भी सम्मानित किया गया। और अंत में 24 अप्रैल सन 1974 को राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का देहावसान हो गया।
अपने जीवनकाल में दिनकर जी ने कई कालजयी रचना की हैं जिनमें ‘मिट्टी की ओर’,  ‘अर्ध्दनारीश्वर’, ‘रेती के फूल’, ‘वेणुवन’ के अलावा ‘संस्कृति के चार अध्याय’ जैसे ग्रंथ शामिल हैं। उनके नाम ‘रेणुका’, ‘हुंकार’, ‘रसवंती’, ‘कुरुक्षेत्र’, ‘रश्मिरथी’, ‘परशुराम की प्रतिज्ञा’, ‘हारे को हरिनाम’ और ‘उर्वशी’ जैसे काव्य संकलन हैं। उनके लेखन में विविधता के साथ विधा के भी कई रूप समाहित हैं।
वैसे तो उन्होंने कई कालजयी कृति की रचना की लेकिन रश्मिरथी हर दृष्टि से अद्वितीय है। वैसे तो उनकी रचना रश्मिरथी काव्यखंड है लेकिन वह सामाजिक न्याय और वर्ण विभेद पर जिस प्रकार करारा प्रहार किया गया है उस दृष्टि से आधुनिक गीता है।
रामधारी सिंह को दैहिक संसार छोड़े हुए 40 साल गुजर चुके हैं लेकिन आज भी उनकी रचनाएं देश की जनता के जुबां पर बनी हुई है। उन्होंने जिस प्रकार की देशभक्ति और वीर रस की कविता लिखी है उनके छंदों को कौन भूल सकता है।
‘रोको युद्धिष्ठिर को न यहां, जाने दो उनको स्वर्ग धीर
पर फिरा हमें गांडिव गदा, लौटा दे अर्जुन भीम वीर’
उनकी कविता की ये लाइन जब भी सुनाई पड़ेगी क्यों नहीं सबके जुबां पर एक साथ निकलकर हमेशा के लिए गूंजती रहेंगी। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की जयंती पर उन्हे हार्दिक नमन।  

विरोध प्रदर्शनों के बीच जलवायु परिवर्तन सम्मेलन

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन से पहले बड़ी संख्या में लोगों ने संयुक्त राष्ट्र के दफ्तर के सामने विरोध प्रदर्शन किए हैं. लोगों की मांग है कि जलवायु परिवर्तन के लिए राजनीतिक कार्रवाई की जाए जो नहीं हो रही है.संयुक्त राष्ट्र महा सचिव बान की मून भी इस मुद्दे पर विशेष दिलचस्पी दिखा रहे हैं.

मर्लिन मुनरो का दुर्लभ निगेटिव नीलाम

अपनी खूबसूरती के लिए मशहूर रही हॉलीवुड अदाकारा मर्लिन मुनरो के पहले फोटो शूट के एक दुर्लभ निगेटिव की नीलामी हुई है. मुनरो की यह तस्वीर उस वक़्त की है जब वह महज 20 साल की थीं.तब उनका नाम नॉर्मा जीन बेकर हुआ करता था, वह एक फ़ैक्ट्री में काम करती थीं और मॉडल बनने का सपना देख रहीं थी. निगेटिव के साथ तस्वीर और इसके कॉपीराइट 4,250 पाउंड में नीलाम हुए हैं. 

Sunday 21 September 2014

साहिर लुधियानवी

ये ऊँचे ऊँचे मकानों की ड्योढियों के तले
हर एक गाम पे भूखे भिकारियों की सदा
हर एक घर में ये इफ़्लास और भूख का शोर
हर एक सिम्त ये इन्सानियत की आह-ओ-बुका
ये कारख़ानों में लोहे का शोर-ओ-गुल जिसमें
है दफ़्न लाखों ग़रीबों की रूह का नग़्मा
ये शाहराहों पे रंगीन साडि़यों की झलक
ये झोंपड़ियों में ग़रीबों की बेकफ़न लाशें
ये माल रोड पे कारों की रेल पेल का शोर
ये पटरियों पे ग़रीबों के ज़र्दरू बच्चे
गली गली में ये बिकते हुए जवाँ चेहरे
हसीन आँखों में अफ़्सुर्दगी सी छाई हुई
ये जंग और ये मेरे वतन के शोख़ जवाँ
खरीदी जाती हैं उठती जवानियाँ जिनकी
ये बात बात पे कानूनो जाब्ते की गिरफ़्त
ये जिल्‍लतें ये ग़ुलामी ये दौर-ए-मजबूरी
ये ग़म बहुत हैं मेरी ज़िंदगी मिटाने को
उदास रह के मेरे दिल को और रंज न दो


Saturday 20 September 2014

राजस्थान पत्रिका 21 सितंबर 2014 : मीडिया हूं मैं

बेर्टोल्‍ट ब्रेष्‍ट

सभी देशों की मेहनतकश जनता के हित में, लेखकों को एक लड़ाकू यथार्थवाद को अपनाने के लिए ललकारा जाना चाहिए। केवल एक समझौताविहीन यथार्थवाद, जो सच्‍चाई पर, यानी शोषण-उत्‍पीड़न पर पर्दा डालने के सभी प्रयासों से जूझेगा, केवल वही शोषण और उत्‍पीड़न की कड़ी निन्‍दा कर उनकी कलई खोल सकता है। (लखनऊ के राष्ट्रीय पुस्तक मेले में 'मीडिया हूं मैं' भी उपलब्ध)


पाब्‍लो नेरूदा

जो किताबें आपको सोचने के लिए जितना ही ज़्यादा मजबूर करती हैं, वे आपके लिए उतनी ही ज़्यादा मददगार साबित होती हैं । सीखने का सबसे मुश्किल तरीका होता है, आरामतलबी से पढ़ना; परन्तु किसी महान चिन्तक की एक महान किताब विचारों के एक ऐसे जहाज की तरह होती है, जो सच्चाई और ख़ूबसूरती से ठसाठस लदा होता है। (लखनऊ के राष्ट्रीय पुस्तक मेले में 'मीडिया हूं मैं' भी उपलब्ध)


कार्ल सैगन

किताब कितनी अनोखी चीज़ है। यह पेड़ से बनी और लचीले हिस्‍सों वाली एक सपाट सी वस्‍तु है जिस पर रेंगने से बनी गहरी रेखाओं की तरह कुछ अजीबोगरीब छपा होता है। परन्‍तु बस एक नज़र डालने की देर है और आप एक दूसरे व्‍यक्ति के दिमाग में चले जाते हैं, भले ही वह व्‍यक्ति हज़ारों साल पहले ही चल बसा हो। सहस्‍त्राब्दियों के फासले के बावजूद, लेखक आपके मस्तिष्‍क से स्‍पष्‍ट और गुपचुप तरीके से बाते कर रहा होता है, वह सीधे आप से बातें कर रहा होता है। लेखन शायद मनुष्‍य का महानतम आविष्‍कार है जो ऐसे एक दूसरे से अनजान दो भिन्‍न युगों में रहने वाले नागरिकों को एक डोर से बांध देता है। किताबें समय की बेड़ि‍यों को तोड़ देती हैं। किताब एक ज़िन्‍दा सबूत है कि मनुष्‍य जादू करने में सक्षम है। (लखनऊ के राष्ट्रीय पुस्तक मेले में 'मीडिया हूं मैं' भी उपलब्ध)


कवि बेलिंस्‍की

हमारे युग की कला क्‍या है? न्‍याय की घोषणा, समाज का विश्‍लेषण, परिमाणत: आलोचना। विचारतत्‍व अब कलातत्‍व तक में समा गया है। यदि कोई कलाकृति केवल चित्रण के लिए ही जीवन का चित्रण करती है, यदि उसमें वह आत्‍मगत शक्तिशाली प्रेरणा नहीं है जो युग में व्‍याप्‍त भावना से नि:सृत होती है, यदि वह पीड़ि‍त ह्रदय से निकली कराह या चरम उल्‍लसित ह्रदय से फूटा गीत नहीं, यदि वह कोई सवाल नहीं या किसी सवाल का जवाब नहीं तो वह निर्जीव है। (लखनऊ के राष्ट्रीय पुस्तक मेले में 'मीडिया हूं मैं' भी उपलब्ध)



मुक्तिबोध

तो फिर जनता का साहित्‍य क्‍या है? जनता के साहित्‍य से अर्थ है ऐसा साहित्‍य जो जनता के जीवनादर्शों को, प्रतिष्‍ठापित करता हो, उसे अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर करता हो। इस मुक्तिपथ का अर्थ राजनैतिक मुक्ति से लगाकर अज्ञान से मुक्ति तक है। अत: इसमें प्रत्‍येक प्रकार का साहित्‍य सम्मिलित है, बशर्तें कि वह सचमुच उसे मुक्तिपथ पर अग्रसर करे। (लखनऊ के राष्ट्रीय पुस्तक मेले में 'मीडिया हूं मैं' भी उपलब्ध)


पॉल रोबसन

प्रत्‍येक कलाकार, प्रत्‍येक वैज्ञानिक, प्रत्‍येक लेखक को अब यह तय करना होगा कि वह कहां खड़ा है। संघर्ष से ऊपर, ओलम्पियन ऊंचाइयों पर खड़ा होने की कोई जगह नहीं होती। कोई तटस्‍थ प्रेक्षक नहीं होता, युद्ध का मोर्चा हर जगह है। सुरक्षित आश्रय के रूप में कोई पृष्‍ठ भाग नहीं है। कलाकार को पक्ष चुनना ही होगा। स्‍वतन्‍त्रता के लिए संघर्ष, या फिर गुलामी—उसे किसी एक को चुनना ही होगा। मैंने अपना चुनाव कर लिया है। मेरे पास और कोई विकल्‍प नहीं है। (लखनऊ के राष्ट्रीय पुस्तक मेले में 'मीडिया हूं मैं' भी उपलब्ध)

प्रेमचन्‍द

जब तक साहित्‍य का काम केवल म‍नबहलाव का सामान जुटाना, केवल लोरियां गाकर सुलाना, केवल आंसू बहाकर जी हल्‍का करना था, तब तक इसके लिए कर्म की आवश्‍यकता न थी। वह एक दीवाना था, जिसका ग़म दूसरे खाते थे। मगर हम साहित्‍य को केवल मनबहलाव की वस्‍तु नहीं समझते, हमारी कसौटी पर वही साहित्‍य खरा उतरेगा, जिसमें उच्‍च चिन्‍तन हो, स्‍वाधीनता का भाव हो, सौन्‍दर्य का सार हो, सृजन की आत्‍मा हो, जीवन की सच्‍चाइयों का प्रकाश हो– जो हममें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नहीं, क्‍योंकि अब और ज्‍यादा सोना मृत्‍यु का लक्षण है :
(लखनऊ के राष्ट्रीय पुस्तक मेले में 'मीडिया हूं मैं' भी उपलब्ध)

सफदर हाशमी

किताबें करती हैं बातें बीते ज़माने की, दुनिया की,इंसानों की! आज की, कल की, एक-एक पल की, खुशियों की, ग़मों की,फूलों की, बमों की, जीत की, हार की, प्यार की, मार की! क्या तुम नहीं सुनोगे इन किताबों की बातें? किताबें कुछ कहना चाहती हैं, तुम्हारे पास रहना चाहती हैं! किताबों में चिडियाँ चहचहाती हैं, किताबों में खेतियाँ लहलहाती हैं! किताबों में झरने गुनगुनाते हैं, परियों के किस्से सुनाते हैं! किताबों में रॉकेट का राज है, किताबों में साइंस की आवाज़ है! किताबों का कितना बड़ा संसार है, किताबों में ज्ञान का भंडार है! क्या तुम इस संसार में नहीं जाना चाहोगे? किताबें कुछ कहना चाहती हैं, तुम्हारे पास रहना चाहती हैं! (लखनऊ के राष्ट्रीय पुस्तक मेले में 'मीडिया हूं मैं' भी उपलब्ध)

मीडिया हूं मैं / दिनेशराय द्विवेदी

जब मीडिया ने इतनी ताकत हासिल कर ली है कि वह कारपोरेट्स के हाथों खेल कर जनता को भ्रमित कर जनतंत्र को मखौल बना दे, तब मीडिया पर विमर्श जरूरी हो गया है। निश्चित रूप से यह विमर्श उस जनघातक मीडिया में तो मुख्य स्थान नहीं ले सकता। वैसी स्थिति में विमर्श के अन्य साधन पैदा होंगे ही। मीडिया पर विमर्श आरंभ हो गया है। पिछले दिनों जयप्रकाश त्रिपाठी की पुस्तक 'मीडिया हूँ मैं' मिल गयी थी. लेकिन उसे पूरी पढ़े बिना उस पर लिखना मुझे ठीक न लगा। मैं पारिवारिक जिम्मेदारी में व्यस्त हुआ कि उसे अभी तक पूरी नहीं पढ़ सका। पर जितना उसे पढ़ा है लगता है वह भारतीय मीडिया विशेष रूप से हिन्दी मीडिया के बारे में इतना वृहत्कार्य है कि उस में क्या छूटा है यह कह पाना मुश्किल है। इस पुस्तक को प्रत्येक मीडियाकर्मी के पास और पुस्तकालय में होना चाहिए। कल अख्तर खान 'अकेला' ने फोन किया और मेरे पास आए। कोटा के मीडिया आई.ई.सी. फोरम ने स्मारिका प्रकाशित की है। इस स्मारिका में मीडिया विमर्श पर अच्छे आलेख हैं। बाकी तो दोनों को पूरा पढ़ने के बाद ही कहूंगा।

कविता पाठ / चन्दन राय

कभी कभी शब्द ही नहीं, उनमे निहित गहरे अर्थों को भी पढ़ो
ठहरों अमुक्त आह / वाह भर हलन्तों और विसर्गों पर भी
सुनो कवि ने जीवन रचा है अपने शब्दों में जियो एक-एक शब्द कविता
कविता अन्तत: उदारता की प्रतिमूर्ति है परोपकार का प्रतिरूप है
कविता वह अशेष नैतिकता है जिसने बचाए रखी है जड़वत हृदयों में मनुष्यता !
कविता को पढ़ने के लिए चाहिए एक आन्तरिक विनम्रता
वह चाहती है एक प्रेमजनित अनुनय-बोध, और यही एकाग्रता देगी
कविता के आकण्ठ प्रतिपाद्य का पूर्ण आन्तरिक उत्कर्ष !
क्योंकि कविता अहंकार भरी छातियों से स्वतः हाथ खींच लेती है !
कविता पूर्वाग्रह भरे विवेकशून्य मस्तिष्कों की दासी नहीं है
वह चाहती है एक कलाशिष्ट-आलिंगन, एक चिन्तनशील प्रेमपूर्ण प्रज्ञा सामीप्य
कविता हमारे हिये पर माँ के दुलार का नरम हाथ हो सकती है
बशर्ते कविता बहती हो आप में जीवन की अनिवार्यता की तरह !

Friday 19 September 2014

कुछ जली-कटी-सी / जयप्रकाश त्रिपाठी

बस यूं ही, एक ओर विचारधारा की बातें, दूसरी ओर बिकवाली का गुणा-भाग, 'हंसब ठठाइ फुलाइब गालू' या सात चूहे खाकर बिल्ली वृंदावन चली...

साहित्यकार हो, पत्रकार या टिप्पणीकार, शब्दजाल ओढ़कर वह सबसे पहले खुद को धोखा देता है, सच्चे लोग वो छुरियां नहीं चलाते, जो आदमी की पीठ में घोंपी जाती हैं, वे ठगी के व्यापारी नहीं, न ही बेचते हैं धोखे बिना दाम के, वे लोगों के आशियाने नहीं फूंकते, शब्दों को आदमी की हिफाजत के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं, यह मानते हुए कि 'सच को हथियार की तरह इस्तेमाल करना अपराध है तो हां हम अपराधी हैं, मृत्यु का भय किसी और को दिखाना, हम अपनी मौत से नहीं डरते क्योंकि भाषण, वोटों की डकैती, वतन को विदेशी हाथों में बंधक रखते हुए सबसे खूबसूरत देशभक्ति का प्रदर्शन और दान-पेटियां हमारा पेशा नहीं है।
हम उन जाहिलों की जमात से नहीं आते, जो मुर्दों के झांसें में बेशर्मी से चादर तान कर सो जाएं ये जानते हुए कि चुल्लू भर पानी में डूब मरने वाले किसी और नस्ल के होते हैं, मृगछौने की खाल पर पालथी मारकर जो मानुसखोर-अहिंसा का पाठ पढ़ाते हैं, ईमानदारी कोई फ़िल्मी चीज़ नहीं कि गांधी के नारे लगाते हुए भगत सिंह को बेच खायें और दस करोड़ मासूमो के भविष्य से सौदा करते हुए कैमरों के सामने देश के विकास के निर्लज्ज दावे करें।
सिरहाने तकिया के नीचे छुरा-गड़ासा रखकर लोकतंत्र के गलीचे पर खर्राटे भरें, प्रतिदिन सुबह से ही स्क्रिन या पन्नों पर झूठ की उल्टियां करते डोलें, खसोटे हुए कफन ओढ़ कर महामृत्युंजय का अभिनय करें, टीवी वाले विचार-विमर्शों के कारोबारी नहीं, जो सोने के हनुमान और चांदी की तांत्रिक अंगूठियां बिक जाने के बाद खलनायकों के लिए शब्दवेधी मुखौटे सिलें, रावणों के लिए राष्ट्रभक्त ब्यूटी पॉर्लर चलायें, पैसे के लिए इतना मीठा बोलें कि वारांगनाएं भी शर्म से गड़ जायें।
गीदड़ों के पिछलग्गू चीखना क्या जानें, हमे ट्रेडमार्क विलाप करना नहीं आता, न तहखानों में चोरबत्तियां जलाकर प्रतिघाती हस्ताक्षर करते हैं, एकेडमिक बैठकों से विश्वपुस्तक मेलों तक हमे कभी किसी ने अवसरवादी डुबकियां लगाते नहीं देखा होगा, इसीलिए हमारे हाथ कभी आदमी के खून से नहीं सने, एक तरफ विचारधारा की बातें, दूसरी ओर बिकवाली का गुणा-भाग, 'हंसब ठठाइ फुलाइब गालू' या सात चूहे खाकर बिल्ली वृंदावन चली...

.....तो चल गुरू, आज से होज्जा शुरू, पांच साल की रोजी-रोटी जुटाने का समय आ गया, वोट्टर-वोट्टर खेलते हैं


विधानसभा चुनावों के लिए अधिसूचना आज

Thursday 18 September 2014

वृन्दावन की विधवाएं, आराधना के महाप्रयाण पर सूखे कंकालों-सी निष्प्राण, ख़ानाबदोश-सी, कुकुरमुत्तों से उगते भजनाश्रमों के बीच, स्वर्णिम चौखटों पर मुक्ति की प्यास लिए भूखी-प्यासी पीड़ा से बदहवास, ढाई सेर चावल की भूखलीला, आठों पहर मंजीरे पीटते हाथ, हाल ही में उन्होंने सात रेसकोर्स स्थित प्रधानमंत्री आवास पर नरेन्द्र मोदी को बांधी थी राखी । और उस नेत्री-अभिनेत्री ने कहा - 'बंगाल-बिहार की विधवाओं को वृंदावन आकर भीड़ नहीं बढ़ानी चाहिए, बैंक बैलेंस के बावजूद वे भीख मांगती हैं ।' और कहती हैं मोहिनी गिरी - 'हजारों विधवाओं की उम्मीदें तोड़ दीं हेमा ने, बेहद असंवेदनशील बयान, क्या विधवाओं की गरिमा नहीं होती, महिला होकर भी विधवाओं का दर्द नहीं जाना, मैंने उन्हें तीन पत्र लिखे, टका-सा जवाब
दिया, मेरे पीए से बात करो....'

अरबपति-करोड़पति पत्रकारों पर लाखों का बकाया

अनूप गुप्ता की रिपोर्ट में लखनऊ के उन पत्रकारों का नाम है, जो सरकारी मकानों पर कब्जा जमाये हुए लाखों रुपये के बकायेदार हैं। सूची में सुधा साक्षी का नाम सबसे ऊपर है, जिन पर 2 लाख 78 हजार रूपए से ज्यादा का बकाया है। रिपोर्ट में जिन बकायेदार पत्रकारों का उल्लेख है, उनमें हैं - दैनिक जागरण के मालिक संजय गुप्ता, नामचीन पत्रकार अशोक पाण्डेय, दिनेश पाठक, हेमन्त तिवारी आदि के अलावा मनमोहन, अनिरूद्ध सिंह, राजीव त्रिपाठी, अवनीश विद्यार्थी, दयानन्द सिंह, कुलसुम तलहा, एस.एम. पारी, बसंत श्रीवास्तव, ताविसी श्रीवास्तव, अशोक मिश्रा, अशोक राजपूत, आलोक अवस्थी, विपिन कुमार चौबे, अखिलेश सिंह, प्रीतम श्रीवास्तव, पंकज ओहरी, संजय श्रीवास्तव, मोहसिन हैदर रिजवी, अभिषेक बाजपेयी, एरिक सिरिल थामसन, राजबहादुर सिंह, दीपचन्द्र सर्वश्रेष्ठ, रामकल्प उपाध्याय, ज्ञानेन्द्र शुक्ला, के.के. श्रीवास्तव, अनिल त्रिपाठी, अहमद आजमी, राजेन्द्र प्रताप सिंह, दिनेश शर्मा, रतनमणि लाल, राजीव श्रीवास्तव, मनीष चन्द्र पाण्डेय, के.सी. बिश्नोई, अनिल यादव, रीता प्रभु, चन्द्र किशोर शर्मा, अब्बास हैदर, जयप्रकाश त्यागी, उमाशंकर त्रिपाठी, कुमुदेश चन्द्र, अविनाश चन्द्र मिश्रा, मनोज कुमार श्रीवास्तव, नागेन्द्र प्रताप, वीरेन्द्र प्रताप सिंह, संगीता, सुरेश कृष्ण यादव, श्रीमती प्रतिभा सिंह, अंशुमान शुक्ला, एन. यादव, शोभित मिश्रा, शिवशरण सिंह, अतुल कुमार, राजीव बाजपेयी, राम सागर, पवन मिश्रा, अशोक कुमार, अमान अब्बास आदि।



पत्रकार अनूप गुप्ता की रिपोर्ट अविकल रूप से इस प्रकार है -

' जिन्हें‘सिंगल कॉलम’ खबर नहीं लिखने आता है, वह उत्तर प्रदेश सरकार के अधीन सूचना विभाग की सूची में श्रेष्ठ पत्रकारों की श्रेणी में आते हैं। वे सरकारी विज्ञप्तियां छाप-छापकर अखबार की दुकान चलाने वाले राज्य सम्पत्ति विभाग की देखरेख वाली सरकारी कॉलोनियों में कुण्डली जमाकर बैठे हैं। इनमें से अधिकतर पत्रकार ऐसे हैं जिन्होंने वर्षों से सरकारी भवनों का किराया जमा नहीं किया है। हालांकि पत्रकारों के हितार्थ 21 मई 1985 को जारी अधिसूचना के पृष्ठ संख्या 3 के 9 नम्बर कॉलम में स्पष्ट अंकित है कि आवंटन की शर्तों एवं प्रतिबंधों के भंग होने पर राज्य सम्पत्ति विभाग के सम्बन्धित अधिकारी द्वारा बिना कोई कारण बताए आवास का आवंटन निरस्त कर दिया जायेगा। 10 नम्बर कॉलम में समस्त शर्तों व प्रतिबंधों का जिक्र करते हुए प्राविधानों को आवंटन की शर्तों एवं प्रतिबंधों को समाविष्ट करते हुए लागू करने की बात कही गयी है।
' प्रतिबंधों एवं शर्तों में इस बात का खास उल्लेख किया गया है कि जो आवंटी समय से किराए का भुबतान नहीं करेगा उसका आवंटन बिना पूर्व सूचना के निरस्त कर दिया जायेगा। चौंकाने वाला पहलू यह है कि शासनादेश में सख्त निर्देशों के बावजूद राज्य सम्पत्ति विभाग लाखों रूपये बकायदार पत्रकारों के खिलाफ सख्त कदम नहीं उठा पा रहा है। सरकारी दायित्वों की पूर्ति दिखाने के नाम पर नोटिस तो भेजी जाती है, लेकिन दबाव बनाकर वसूली के नाम पर अधिकारी अपने हाथ पीछे खींच लेते हैं। इन्हीं में से एक तथाकथित पत्रकार ऐसे भी हैं जिन्होंने शासन-प्रशासन में गहरी पैठ का भरपूर फायदा उठाते हुए लगभग पांच लाख रूपए का चूना सरकारी खजाने को लगा दिया।
' इन पर आरोप है कि इन्होंने अधिकारियों संग अपने सम्बन्धों के प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए किराए के रूप में लगभग पांच लाख का किराया माफ करवा लिया जबकि नियमानुसार सरकारी धनराशि वसूली में छूट देने का अधिकार न तो किसी मंत्री को है और न ही किसी नौकरशाह को। इतना ही नहीं जब उक्त मकान के किराए को लेकर विवाद उत्पन्न हुआ तो उन्होंने अपने प्रभुत्व का इस्तेमाल करते हुए किराया अदा किए बगैर दूसरा अपग्रेडेड सरकारी आवास आवंटित करवा लिया।
'सरकारी मकानों में अध्यासित बकायेदारों की सूची में फाईल कॉपी छापकर अपना धंधा चमकाने वालों से लेकर वे पत्रकार भी शामिल हैं जो लखनऊ के मीडिया ग्रुप में बडे़ पत्रकारों के रूप में पहचाने जाते हैं। इनमें से कुछ पत्रकारों ने संगठन बनाकर सरकार पर दबाव बना रखा है ताकि बकायेदारी मामले को लेकर दबाव से बचा जा सके। इन्हीं संगठनों से जुडे़ पत्रकारों का खबरों से सरोकार भले ही न हो अपितु सत्ता के गलियारों में मंत्री-मुख्यमंत्री सहित राज्यपाल से हाथ मिलाते जरूर दिख जाते हैं। इन संगठनों से जुडे़ तथाकथित पत्रकार किसी न किसी कार्यक्रम के बहाने नौकरशाहों और मंत्रिमण्डल के सदस्यों को अपने कार्यक्रमों में बुलाकर अक्सर अपने सम्बन्धों को उजागर करने की कोशिशों में लगे रहते हैं। सरकारी मकानों में बकायेदारों की सूची में इन संगठनों से जुडे़ पत्रकार भी शामिल हैं।
'राजधानी लखनऊ से प्रकाशित एक दैनिक अखबार के संवाददाता मनमोहन को जून 2011 में गुलिस्तां कॉलोनी में सरकारी आवास संख्या 25 आवंटित किया गया था। राज्य सम्पत्ति निदेशालय, लखनऊ के रजिस्टर में बकायेदारों की सूची में इनका नाम भी शामिल है। इन पर छह हजार से अधिक किराया बकाया है जबकि इन्हें वेतन के रूप में अच्छी खासी धनराशि प्राप्त होती है। जब सम्बन्धित विभाग इनसे किराए की मांग करता है तो दूसरी ओर से किसी न किसी उच्चाधिकारी का फोन आ जाता है। इसी तरह से अनिरूद्ध सिंह भी बकायेदारों की सूची में शामिल हैं। अनिरूद्ध सिंह को जुलाई 2012 में गुलिस्तां कॉलोनी में मकान संख्या 64 आवंटित किया गया था। इन पर लगभग 18 हजार रूपया किराए के रूप में बकाया है।
'राज्य सम्पत्ति निदेशालय की देख-रेख वाले मकान संख्या 71, गुलिस्तां कॉलोनी में राजीव त्रिपाठी रहते हैं। यह मकान उन्हें अक्टूबर 2005 में एक निर्धारित समय के लिए आवंटित किया गया था। इन पर 60 हजार से भी ज्यादा का किराया बकाया है। निर्धारित समय के लिए आवंटित मकान की समयावधि निकल जाने के कारण राज्य सम्पत्ति निदेशालय इनका निवास दिसम्बर 2012 से अनाधिकृत घोषित कर चुका है। निदेशालय की ओर से इन्हें कई नोटिसें भी पूर्व में जारी हो चुकी हैं लेकिन नौकरशाहों के बीच मधुर संबन्धों का लाभ इन्हें पिछले दो वर्षों से लगातार मिलता चला आ रहा है। यह दीगर बात है कि इससे सम्बन्धित विभाग को न सिर्फ आर्थिक नुकसान उठाना पड़ रहा है बल्कि जरूरतमंद लोगों का हक भी मारा जा रहा है।
'विभाग के एक कर्मचारी की मानें तो एक उच्च पदस्थ अधिकारी के हस्तक्षेप के बाद विभाग चुप्पी साध कर बैठ गया है। पत्रकार अवनीश विद्यार्थी का मामला भी कुछ ऐसा ही है। प्राप्त जानकारी के मुताबिक श्री अवनीश को सरकारी आवास संख्या 78, गुलिस्तां कॉलोनी एक वर्ष के लिए अगस्त 2012 में आवंटित किया गया था। समयावधि बीत जाने के बाद विभाग ने इन्हें भी अधिकृत घोषित कर रखा है। इतना ही नहीं इन पर लगभग 27 हजार रूपया किराए के रूप में भी बकाया है। इन दबंग पत्रकार के खिलाफ विभाग कई नोटिसें जारी कर चुका है। इसके बावजूद न तो सरकारी आवास पर से इन्होंने कब्जा छोड़ा है और न ही बकाया किराया ही चुकाया है।
'राजधानी लखनऊ ही नहीं बल्कि कई अन्य प्रदेशों और जनपदों से प्रकाशित एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र के मालिक व कथित पत्रकार संजय गुप्ता भी राज्य सम्पत्ति निदेशालय के बकायेदारों की सूची शामिल हैं। अरबों की सम्पत्ति के मालिक श्री गुप्ता की नीयत भी मामूली सरकारी रकम को डकार जाने की है। इन्हें नवम्बर 2002 में बी-2, दिलकुशा की सरकारी कॉलोनी में एक पत्रकार की हैसियत से भवन आवंटित किया गया था। ये अखबार के लिए अपनी कलम से भले ही कोई खबर न लिखते हों लेकिन वरिष्ठ पत्रकारों की सूची में इनका नाम भी दर्ज है। उक्त मकान श्री गुप्ता को आवास के तौर पर एक निर्धारित समय के आवंटित किया गया था। राज्य सम्पत्ति विभाग ने इनका अध्यासन वर्ष 2013 से अनाधिकृत घोषित कर रखा है।
'कई बार इन्हें मकान खाली करने की नोटिसें जारी की जा चुकी हैं लेकिन अपने प्रभाव के बलबूते वे सरकारी भवन खाली करने को तैयार नहीं। चूंकि इनके अखबार के स्टाफ में वरिष्ठ पत्रकारों की लम्बी-चौड़ी फौज है, लिहाजा विभाग पर दबाव बनाने के लिए वे अक्सर इन्हीं पत्रकारों का सहारा लिया करते हैं। प्राप्त दस्तावेजों के आधार पर इन पर किराए के रूप में 77 हजार रूपए से भी ज्यादा बकाया है। अरबों के मालिक संजय गुप्ता के लखनऊ सहित कई अन्य शहरों में भी विशालकाय कोठियां हैं, इसके बावजूद संजय गुप्ता का कब्जा दिलकुशा के सरकारी आवास संख्या बी-2 पर बना हुआ है। जानकार सूत्रों की मानें तो श्री गुप्ता ने इस सरकारी आवास को गेस्ट हाउस बना रखा है। बाहर से आने वाले मेहमानों को इसी सरकारी आवास पर ठहराया जाता है।
'जहां तक श्री गुप्ता के निवास की बात है तो वे इस आवास में कभी-कभार ही देखे जाते हैं। आस-पास के मकानों में रहने वाले लोगों का भी यही कहना है कि श्री गुप्ता कभी-कभार ही यहां पर नजर आते हैं आमतौर पर इस आवास में उनके मेहमानों को ही आता-जाता देखा गया है। इसी लाईन में लगभग दस मकान छोड़कर सी-13 तथाकथित पत्रकार दयानन्द सिंह का सरकारी आवास है। इन्हें यह मकान लगभग एक दशक पूर्व मार्च 2004 में आवंटित किया गया था। इन पर लगभग पचास हजार रूपया किराए के रूप में बकाया है। दिलकुशा कॉलोनी के सी-23 नम्बर बंगले में कुलसुम तलहा का सरकारी आवास है। कुलसुम तलहा को वरिष्ठ पत्रकारों की सूची में गिना जाता है। लखनऊ प्रेस क्लब के मठाधीश पत्रकारों से लेकर दैनिक, साप्ताहिक समाचार पत्रों के संवाददाता कुलसुम तलहा से भली-भांति वाकिफ हैं लेकिन सरकारी आवास पर कुण्डली मारकर बैठने के साथ ही किराए के रूप में पन्द्रह हजार से भी ज्यादा का बकाया उनकी प्रतिष्ठा को चोट पहुंचा रहा है।
'लखनऊ मीडिया फोटोग्राफर क्लब के स्वयंभू अध्यक्ष एस.एम. पारी राजनैतिक दल से जुडे़ एक नेता के हिन्दी दैनिक समाचार पत्र में प्रमुख छायाकार के रूप में कार्यरत हैं। श्री पारी को हुसैनगंज चौराहे के निकट सरकारी कॉलोनी ओसीआर में ए-404 नम्बर का आवास पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के कार्यकाल में निर्धारित समय के लिए नवम्बर 2011 में आवंटित किया गया था। समयावधि बीत जाने के बाद इनका आवंटन रद कर दिया गया था। साथ ही अतिशीघ्र आवास खाली करने का नोटिस भी विभाग की ओर से जारी किया जा चुका है। राज्य सम्पत्ति निदेशालय के अनुसार श्री पारी वर्तमान में अनाधिकृत रूप से सरकारी आवास में डटे हुए हैं। इतना ही नहीं इन्होंने पिछले एक वर्ष से भी ज्यादा समय से सरकारी आवास का मामूली किराया तक जमा नहीं किया है। राज्य सम्पत्ति विभाग अपने लगभग 22 हजार रूपए किराए की वसूली के लिए कई बार नोटिस भेज चुका है लेकिन न तो किराया ही जमा किया गया और न ही सरकारी आवास से कब्जा ही छोड़ा गया।
'राज्य सम्पत्ति निदेशालय की देख-रेख वाले ओसीआर कॉलोनी के मकान संख्या ए-905 पर बसंत श्रीवास्तव नाम के एक पत्रकार का वर्षों से कब्जा बना हुआ है। यह मकान उन्हें सितम्बर 1996 में आवंटित किया गया था। विभागीय सूत्रों के मुताबिक कुछ समय तो इन्होंने नियमित तौर पर किराया जमा किया लेकिन पिछले कई वर्षों से इन्होंने किराया जमा करना बन्द कर दिया। इन पर एक लाख, बीस हजार, आठ सौ छांछठ रूपया किराए के रूप में बकाया है। विभाग इन्हे कई बार नोटिस जारी कर चुका है लेकिन न तो किराया आया और न ही मकान से कब्जा ही छोड़ा गया। इसी कॉलोनी में बी-207 में वरिष्ठ पत्रकार ताविसी श्रीवास्तव का सरकारी आवास है। इन्होंने भी वर्षों से किराया जमा नहीं किया है। इन पर लगभग 12 हजार रूपया किराए के रूप में बकाया है।
'बी-505,ओ.सी.आर. कॉलोनी में अशोक मिश्रा का निवास है। यह मकान इन्हें जनवरी 2006 में आवंटित किया गया था। इन पर सर्वाधिक लगभग एक लाख इकहत्तर हजार रूपया बकाया है। बताया जाता है कि इस सम्बन्ध में अशोक मिश्रा ने एक पत्र विभाग को लिखा है। उसमे कहा गया है कि जो किराया उन पर दर्शाया जा रहा है वह उससे पहले रहने वाले किसी व्यक्ति का है। जानकार सूत्रों के मुताबिक लिहाजा पिछला किराया काटकर उनकी समयावधि का बकाया किराया वसूली का पत्र भी उन्हें भेजा गया, लेकिन श्री मिश्र ने वह किराया भी जमा नहीं किया। इसी बिल्डिंग के बी-804 में कैसर जहां को मकान आवंटित किया गया है। सुश्री कैसर पर भी लगभग 14 हजार रूपया किराए के रूप में बकाया है। यह मकान उन्हें पिछले मुलायम सरकार के कार्यकाल में कद्दावर मंत्री आजम खां की कृपा दृष्टि से प्राप्त हुआ था। आजम खां कई-एक अवसरों पर इनके घर भी जा चुके हैं। विभाग किराया जमा करवाने के लिए कई नोटिसें भेज चुका है लेकिन कैसर ने न तो किराया जमा किया और न ही सरकारी आवास से अपना मोह त्यागा।
'डायमंड डेरी कॉलोनी, लखनऊ के सरकारी आवास संख्या ई.डी.-31 में तथाकथित पत्रकार अशोक राजपूत का निवास है। यह मकान इन्हें दिसम्बर 2004 में आवंटित किया गया था। तब से लेकर अब तक इन पर लगभग 35 हजार रूपया किराए के रूप में बकाया है। लॉप्लास की सरकारी कॉलोनी के आवास संख्या 105 में पत्रकार आलोक अवस्थी का अनाधिकृत कब्जा बना हुआ है। विभाग इन्हें दिसम्बर 2012 से अनाधिकृत रूप से कब्जेदार मान चुका है। यह मकान उन्हें दिसम्बर 1994 में आवंटित किया गया था। तब से लेकर अब तक इनके ऊपर 1 लाख 40 हजार रूपया किराए के रूप में बकाया है। किराया वसूली के लिए विभाग इन्हें कई नोटिसें भेज चुका है लेकिन श्री अवस्थी ने अभी तक किराया जमा नहीं किया है।
'आवास संख्या 404 के निवासी विपिन कुमार चौबे अगस्त 2012 से इस मकान में रह रहे हैं। इन पर किराए के रूप में 66 हजार से भी ज्यादा का बकाया दर्शाया गया है। 405 में अखिलेश सिंह का निवास है। इन पर लगभग 23 हजार रूपया किराए के रूप में बकाया है। यह मकान इन्हें अप्रैल 2004 में आवंटित किया गया था। मकान संख्या 504 किशोर निगम को सितम्बर 1992 में आवंटित किया गया था। इन पर लगभग साढे़ चार हजार रूपया किराए के रूप में बकाया है। 506 में प्रीतम श्रीवास्तव को सरकारी आवास मुहैया कराया गया है। यह मकान उन्हें अप्रैल 2013 में आवंटित किया गया था। तब से लेकर अब उन्होंने किराया ही जमा नहीं किया। इन पर लगभग पांच हजार रूपया किराए के रूप में बकाया है।
'कई अखबारों में संपादन कार्य कर चुके पंकज ओहरी ने मकान संख्या 702 आवंटित करवा रखा है। यह मकान उन्हें मई 2005 में आवंटित किया गया था। श्री ओहरी फिलवक्त किसी अखबार में हैं ? क्या कर रहे हैं ? कोई नहीं जानता। इसके बावजूद मकान पर उनका कब्जा बना हुआ है। श्री ओहरी पर किराए के रूप में लगभग छह हजार रूपया बकाया है। मकान संख्या 704 संजय श्रीवास्तव को अक्टूबर 2005 में आवंटित किया गया था। इन पर लगभग छह हजार रूपया किराए के रूप में बकाया है। विभाग इन्हें भी कई नोटिसें भेज चुका है लेकिन समाचार लिखे जाने तक इन्होंने किराया जमा नहीं किया था। मकान संख्या 803 में कथित पत्रकार अशोक पाण्डेय रहते हैं। यह मकान इन्हें जनवरी 2005 में बतौर मान्यता प्राप्त पत्रकार के रूप में आवंटित किया गया था। वर्तमान में अशोक पाण्डेय किस समाचार-पत्र अथवा चैनल से जुडे़ हैं? विभाग के पास जानकारी नहीं है इसके बावजूद सरकारी आवास पर इनका कब्जा बना हुआ है। इन पर भी किराए के रूप में 20 हजार से भी ज्यादा का बकाया है। विभागीय अधिकारियों और कर्मचारियों व्यक्तिगत तौर पर सम्पर्क कर इन्हें नोटिस जारी कर रखा है। इसके बावजूद श्री पाण्डेय ने न तो किराया जमा किया है और न ही सरकारी आवास से कब्जा ही छोड़ा है।
'मकान संख्या 901 लॉप्लास कॉलोनी में निवास दर्शाने वाले मोहसिन हैदर रिजवी को यह मकान लगभग दो वर्ष पूर्व जुलाई 2012 में आवंटित किया गया था। इन पर 15 हजार से भी ज्यादा का किराया बकाया है। मकान संख्या 1004 में निवास दर्शाने वाले अभिषेक बाजपेयी को दिसम्बर 2012 में लॉप्लास का सरकारी आवास आवंटित किया गया था। समाचार लिखे जाने के समय तक अभिषेक पर 68 हजार 333 रूपया किराए के रूप में बकाया था। बडे़ बकायेदारों के रूप में चिन्हित श्री बाजपेयी को विभाग कई बार नोटिस भेज चुका है। मकान संख्या 1106 लॉप्लास कॉलोनी में विजय सिंह रहते हैं। यह मकान उन्हें 9 वर्ष पूर्व दिसम्बर 2005 में आवंटित किया गया था। इन पर भी किराए के रूप में दस हजार से भी ज्यादा का बकाया है। इसी कॉलोनी में 1201 नम्बर का मकान कथित पत्रकार एरिक सिरिल थामसन के नाम से जून 2006 में आवंटित किया गया था। इन पर किराए के रूप में लगभग छह हजार रूपया बकाया है।
'वरिष्ठ पत्रकारों की श्रेणी में गिने जाने वाले राजबहादुर सिंह भी इसी सरकारी कॉलोनी के मकान संख्या 1202 में रहते हैं। मीडिया घराने से वेतन के रूप में मोटी रकम हासिल करने के बावजूद राज्य सम्पत्ति विभाग की देख-रेख वाले सरकारी मकान का मामूली किराया चुकाने में आनाकानी करते हैं। प्राप्त दस्तावेज के आधार पर इन पर लगभग सात हजार रूपया किराए के रूप में बकाया है। 1203 निवासी दीपचन्द्र सर्वश्रेष्ठ बकायेदारों की सूची में शामिल हैं। इन पर 1 लाख 12 हजार से भी ज्यादा का बकाया है। दीप चन्द्र को लॉप्लास कॉलोनी का मकान जनवरी 2006 में आवंटित किया गया था। बडे़ बकायेदारों की सूची में शामिल दीप चन्द्र को विभाग की ओर से कई बार नोटिस जारी की जा चुकी है। राज्य सम्पत्ति विभाग के एक अधिकारी का कहना है कि दीप चन्द्र पर बकाया धनराशि उनके निवासकाल से पहले का भी है। विशेष यह है कि पुराना बकाया क्लियर न होने के कारण दीप चन्द्र अपने निवासकाल का किराया भी नहीं चुका रहे हैं।
'डायमण्ड डेरी कॉलोनी के मकान संख्या ई.डी.-33 का सरकारी मकान कथित पत्रकार रामकल्प उपाध्याय को जून 1987 में एक निर्धारित समय के लिए आवंटित किया गया था। रामकल्प उपाध्याय किसी अखबार अथवा समाचार चैनल से सम्बन्ध रखते हैं ? इस बात की जानकारी न तो मकान का आवंटन करने वाले राज्य सम्पत्ति निदेशालय को है और न ही यूपी के पत्रकारों का लेखा-जोखा रखने वाले सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग को। इसके बावजूद इनके नाम पर मकान पर कब्जा बना हुआ है। सम्बन्धित विभाग इन्हें अनाधिकृत रूप से कब्जेदार भी घोषित कर चुका है। इतना ही नहीं इन पर लगभग डेढ़ लाख रूपया किराये के रूप मे बकाया है। विभागीय नोटिसें इनके लिए कोई मायने नहीं रखतीं।
'डालीबाग कॉलोनी के मकान संख्या 1/5 में वरिष्ठ ज्ञानेन्द्र शुक्ला का निवास है। ये अपने जूनियर पत्रकारों को नैतिकता का पाठ तो पढ़ाते हैं लेकिन खुद राज्य सम्पत्ति विभाग की काली सूची में दर्ज हैं। राज्य सम्पत्ति निदेशालय के अनुसार ये उक्त मकान में अनाधिकृत रूप से कब्जा जमाए हुए हैं। यह मकान उन्हें पिछले वर्ष अगस्त में आवंटित किया गया था। इन पर किराए के रूप में 14 हजार से भी ज्यादा का बकाया है। इसी कॉलोनी के 1/7 में एक हिन्दी दैनिक समाचार पत्र के करोड़पति कथित पत्रकार के.के. श्रीवास्तव रहते हैं। यह मकान उन्हें राज्य सम्पत्ति विभाग ने मार्च 2006 में आवंटित किया था। विभाग इन्हें भी अपनी सूची में अनाधिकृत निवास घोषित कर चुका है इसके बावजूद ये अपनी मान-मर्यादा को ताक पर रखकर सरकारी आवास पर कब्जा जमाए हुए हैं। इन पर भी किराए के रूप में 13 हजार से भी ज्यादा का बकाया है।
'गौरतलब है कि नियमानुसार निर्धारित वेतन से उपर वेतन पाने वालों को विभाग सरकारी आवास आवंटन नहीं करता है। के.के. श्रीवास्तव स्वयं अपने स्टॉफ को लाखों रूपया वेतन के रूप में प्रतिमाह वितरित करते हैं। इसके बावजूद विभाग ने इन्हें पहले तो सरकारी आवास आवंटन कर दिया, उसके बाद इन्हें अपनी सूची में अनाधिकृत रूप से कब्जेदार भी घोषित कर रखा है। विभागीय अधिकारियों की मानें तो इन्हें कई बार विभाग की ओर से नोटिस जारी की जा चुकी है इसके बावजूद वे सरकारी आवास से कब्जा छोड़ने को तैयार नहीं। एनेक्सी मीडिया सेन्टर मे हरफनमौला पत्रकार के रूप मे पहचान रखने वाले अनिल त्रिपाठी को भी इसी कॉलोनी में मकान संख्या 2/7 आवंटित किया गया है। यह मकान उन्हें वर्तमान अखिलेश सरकार के कार्यकाल दिसम्बर 2012 में आवंटित किया गया था। विभागीय कर्मचारियों का कहना है कि एक-दो महीने तो उन्होंने समय पर किराया जमा किया लेकिन बाद में किराया जमा करना बंद कर दिया। लगभग 11 हजार रूपया किराए के रूप मे इन पर बकाया है। इन्हें भी विभाग नोटिस जारी कर चुका है लेकिन इन्होंने सरकारी आवास का मामूली किराया जमा करने की कोशिश नहीं की।
'4/14 निवासी जोरैर अहमद आजमी को यह सरकारी आवास दिसम्बर 2006 में मुलायम सरकार के कार्यकाल में मोहम्मद आजम खां की कृपा दृष्टि से आवंटित किया गया था। इन पर किराए के रूप 41 हजार से भी ज्यादा का बकाया है। विभाग बार-बार नोटिस भेजता है तो ये आजम खां के स्टॉफ से सिफारिश करवा देते हैं। परिणामस्वरूप न तो मकान खाली हो रहा है और न ही विभाग इनसे किराया ही वसूल कर पा रहा है। 5/2 निवासी राजेन्द्र प्रताप सिंह अनाधिकृत रूप से सरकारी आवास पर कब्जा जमाए हुए हैं। यह मकान उन्हें मार्च 2002 में आवंटित किया गया था। इन पर किराए के रूप लगभग 50 हजार रूपया बकाया है। श्री सिंह फिलवक्त किसी मीडिया घराने के साथ जुडे़ हुए हैं? यह जानकारी भी सम्बन्धित विभाग के पास नहीं है।
'6/8, डालीबाग कॉलोनी निवासी दिनेश शर्मा पर किराए के रूप 19 हजार से भी ज्यादा का बकाया है। ये मकान उन्हें नवम्बर 1989 मे राज्य सम्पत्ति विभाग की ओर आवंटित किया गया था। वरिष्ठ पत्रकारों की श्रेणी में गिने जाने वाले रतनमणि लाल को मार्च 1999 में 7/3, डालीबाग कॉलोनी में सरकारी आवास आवंटित किया गया था। इनका पत्रकारिता के क्षेत्र से कोई जुड़ाव नहीं रह गया है। ये एनजीओ संचालित करते हैं। चूंकि इन्हें न्यूनतम दर और समस्त सुख-सुविधाओं वाला सरकारी आवास अपने पास बनाए रखना है लिहाजा ये कभी-कभार किसी अखबार अथवा पत्रिका में लेख लिखकर अपना हित साधते आ रहे हैं। राज्य सम्पत्ति निदेशालय को भी इस बात की जानकारी है। इसी वजह से विभाग ने इन्हें अनाधिकृत रूप से निवासित घोषित कर इन्हे नोटिस जारी कर रखा है। इन पर 3 हजार से ज्यादा का किराया भी बकाया है। नियमानुसार समयावधि समाप्त हो जाने अथवा अनाधिकृत रूप से निवास के दौरान इनसे डीएम सर्किल रेट पर किराया वसूल किया जाना चाहिए लेकिन विभाग इनसे नियमित वास्तविक किराया तक वसूल नहीं कर पा रहा है।
'15 हजार से भी ज्यादा किराए के बकाएदार राजीव श्रीवास्तव भी इसी कॉलोनी के मकान संख्या 7/13 में निवास दर्शाते हैं। यह मकान उन्हें मई 2013 में आवंटित किया गया था। विभाग ने किराए की वसूली के लिए इन्हें नोटिस भी जारी कर रखा है इसके बावजूद इन्होंने किराया जमा नहीं किया। विभागीय अधिकारियों की मानें तो इनका सम्बन्ध अब पत्रकारिता क्षेत्र से नहीं रह गया है। इसी वजह से विभाग ने इन्हें अनाधिकृत घोषित कर रखा है। 8/15 के सरकारी आवास में मनीष चन्द्र पाण्डेय का कब्जा है। यह मकान उन्हें जुलाई 2006 में आवंटित किया गया था। वर्तमान में इन पर किराए के रूप में 10 हजार से भी ज्यादा का बकाया है। 9/5 निवासी के.सी. बिश्नोई के उपर लगभग 8 हजार रूपया किराए के रूप में बकाया है। यह मकान उन्हें अप्रैल 1999 में आवंटित किया गया था। फिलवक्त श्री बिश्नोई किस मीडिया संस्था से जुडे़ हैं ? इसकी जानकारी विभाग को नहीं है।
'सर्वाधिक बकाएदारों की सूची में सुधा साक्षी का नाम सबसे उपर है। इन पर 2 लाख 78 हजार रूपए से भी ज्यादा का बकाया है। विभाग इन्हें अनाधिकृत निवासी भी मान चुका है इसके बावजूद सरकारी आवास पर इनका कब्जा बना हुआ है। सुधा साक्षी के नाम से यह मकान जुलाई 2006 में आवंटित किया गया था। सम्बन्धित विभाग की काली सूची में ये टॉप पर जरूर हैं लेकिन विभाग इनसे न तो मकान खाली करवा पा रहा है और न ही किराए की भारी-भरकम रकम ही वसूल कर पा रहा है। बताया जाता है कि सुधा साक्षी भारत छोड़कर भी जा चुकी हैं इसके बावजूद विभाग कब्जा वापस लेने की कार्रवाई संचालित नहीं कर पा रहा है। 10/7 निवासी अनिल यादव को भी विभाग ने अनाधिकृत घोषित कर रखा है। इसके बावजूद विभाग इनसे सरकारी आवास खाली नहीं करवा पा रहा है। इन पर किराए के रूप में 22 हजार से भी ज्यादा का बकाया है। यह मकान उन्हें जुलाई 2006 में आवंटित किया गया था।
'11/6 का सरकारी आवास रीता प्रभु के नाम से आवंटित है। यह मकान उन्हें मार्च 1989 में आवंटित किया गया था। बताया जाता है कि श्री प्रभु यहां रहते ही नहीं है इसके बावजूद सरकारी आवास पर इनका कब्जा बना हुआ है। हालांकि विभाग इन्हें अनाधिकृत घोषित कर चुका है इसके बावजूद मकान खाली करवाने की कानूनी प्रक्रिया नहीं अपनायी जा रही है। इन पर किराए के रूप  में 20 हजार से भी ज्यादा का बकाया है। 12/2 निवासी चन्द्र किशोर शर्मा भी अनाधिकृत रूप कब्जा जमाए हुए हैं। बताया जाता है कि श्री शर्मा भी लखनऊ से बाहर रहते हैं। यह मकान उन्हें अक्टूबर 2011 में आवंटित किया गया था। इन पर भी किराए के रूप में 20 हजार से भी ज्यादा का बकाया है।
'जे-1/4 का सरकारी आवास कथित पत्रकार अब्बास हैदर के नाम से आवंटित है। यह मकान पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के कार्यकाल में आजम खां की कृपा से अक्टूबर 2006 में आवंटित हुआ था। इन पर 1 लाख 53 हजार से भी ज्यादा का बकाया है लेकिन सत्ताधारियों से सम्बन्धों के चलते विभाग इनसे किराए की रकम वसूल नहीं कर पा रहा है। यह दीगर बात है कि विभाग ने इन्हें अनाधिकृत रूप से निवासित घोषित कर रखा है लेकिन सरकारी मकान खाली नहीं करवा पा रहा है। पार्क रोड की सरकारी कॉलोनी का मकान संख्या ए-3 सुश्री नागला किदवई को सितम्बर 2008 में आवंटित किया गया था। बताया जाता है कि सुश्री किदवई अब इस मकान में रहती भी नहीं हैं इसके बावजूद मकान पर उनका कब्जा बना हुआ है। हालांकि विभाग ने इन्हें भी अनाधिकृत घोषित कर अपना पल्ला झाड़ लिया है लेकिन सरकारी आवास खाली करवाने में वह कोई रूचि नहीं दिखा रहा। इन पर भी किराए के तौर पर 31 हजार से भी ज्यादा का बकाया है।
'पार्क रोड कॉलोनी के ए-12 जय प्रकाश त्यागी के कब्जे में है। यह सरकारी आवास उन्हें सितम्बर 2008 में आवंटित किया गया था। राज्य सम्पत्ति निदेशालय ने इन्हें अब अनाधिकृत रूप से निवासित करार दे रखा है, लेकिन मकान खाली करवाने की हिम्मत वह नहीं जुटा पा रहा। इन पर किराए के रूप में 19 हजार से भी ज्यादा बकाया है। एक हिन्दी दैनिक समाचार पत्र के वरिष्ठ पत्रकार उमाशंकर त्रिपाठी को मार्च 2005 में पार्क रोड कॉलोनी का आवास संख्या बी-4 आवंटित किया गया था। इन पर 8 हजार से ज्यादा का किराया बकाया है। वरिष्ठ पत्रकारों की श्रेणी में गिने जाने वाले श्री त्रिपाठी को उनके संस्थान से वेतन के रूप में मोटी रकम मिलती है, इसके बावजूद वे सरकारी आवास का मामूली किराया चुकाने में ईमानदारी नहीं बरत रहे।
'श्री त्रिपाठी को वरिष्ठ होने के नाते पत्रकारिता से जुडे़ लोग ‘दद्दू’ नाम से भी जानते हैं। दद्दू को अपने जूनियर पत्रकारों को नैतिकता का पाठ पढ़ाते हुए अक्सर देखा जाता है लेकिन स्वयं नैतिकता से इनका दूर-दूर का रिश्ता नहीं। बताया जाता है कि किराया वसूली के लिए विभाग ने इन्हें नोटिस भेजा है लेकिन पत्रकारों को नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाने वाले श्री त्रिपाठी ने समस्त नियमों को धता बताते हुए समाचार लिखे जाने तक उपरोक्त किराया जमा नहीं किया था।
'पार्क रोड स्थित सरकारी आवास संख्या सी-3 में कुमुदेश चन्द्र का कब्जा है। कुमुदेश को यह मकान मई 2007 में आवंटित किया गया था। इन पर किराए के रूप में 32 हजार से भी ज्यादा का बकाया है। इतना ही नहीं सम्बन्धित विभाग ने इन्हें अनाधिकृत तौर पर निवासित भी घोषित कर रखा है। इसके बावजूद विभाग न तो इनसे किराया वसूल कर पा रहा है और न ही सरकारी आवास ही खाली करवा पा रहा है। फिलवक्त कुमुदेश कहां काम करते हैं ? इसकी जानकारी भी विभाग के पास नहीं है। सी-6 पार्क रोड कॉलोनी के सरकारी आवास में कथित पत्रकार अविनाश चन्द्र मिश्रा का अनाधिकृत कब्जा बना हुआ है। राज्य सम्पत्ति निदेशालय ने इन्हें आवास खाली करने का नोटिस भी भेज रखा है, इसके बावजूद श्री मिश्रा ने सरकारी आवास से मोह नहीं त्यागा है। श्री मिश्रा पर किराए के रूप में 27 हजार से भी ज्यादा का बकाया है।
'मई 1999 में कथित पत्रकार मनोज कुमार श्रीवास्तव को इन्दिरा नगर स्थित सरकारी कॉलोनी का मकान संख्या बी-62 आवंटित किया गया था। मनोज कुमार श्रीवास्तव फिलवक्त किस मीडिया के साथ जुडे़ हुए हैं? इसकी जानकारी राज्य सम्पत्ति विभाग को भी नहीं है। बताया जाता है कि श्री मनोज का तबादला हो चुका है इसके बावजूद लखनऊ स्थित सरकारी आवास उन्होंने नहीं छोड़ा है। इन पर 8 हजार से भी ज्यादा का किराया बकाया है। बी-123 इन्दिरा नगर का सरकारी आवास नागेन्द्र प्रताप को सितम्बर 2002 में आवंटित किया गया था। राज्य सम्पत्ति विभाग ने इनका अध्यासन अनाधिकृत घोषित कर रखा है, इसके बावजूद इन्होंने न तो सरकारी आवास का मोह त्यागा है और न ही बकाये किराए की रकम लगभग 37 हजार जमा की है। विभाग कई नोटिसें भेजने का दावा कर रहा है जबकि सूत्रों का कहना है कि विभागीय अधिकारियों पर उच्चाधिकारियों के दबाव के चलते अनाधिकृत होने के बावजूद इनसे सरकारी आवास खाली नहीं कराया जा रहा है।
'इन्दिरा नगर की सरकारी कॉलोनी का आवास संख्या बी-141 एक हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र के वरिष्ठ पत्रकार दिनेश पाठक को दिसम्बर 2000 में आवंटित किया गया था। श्री पाठक का तबादला काफी पहले हो चुका था। विभाग ने इसी आधार पर इनके कब्जे को अनाधिकृत घोषित कर रखा है, इसके बावजूद श्री पाठक ने कब्जा नहीं छोड़ा है। बताया जाता है कि श्री पाठक के भाई आईपीएस अधिकारी हैं। इन्हीं सम्बन्धों के चलते इन्होंने उच्च स्तर तक दबाव बना रखा है। विभागीय अधिकारी भी मानते हैं कि उच्च स्तरीय दबाव के चलते इनसे मकान खाली नहीं कराया जा सका है। हालांकि अनाधिकृत कब्जा घोषित किए जाने के बाद भी ये प्रत्येक माह नियमित रूप से सरकारी आवास का मामूली किराया जमा करते आ रहे हैं, जबकि नियमानुसार समयावधि समाप्त होने अथवा अनाधिकृत रूप से निवास करने के दौरान डीएम सर्किल रेट से सरकारी आवास का किराया वसूले जाने का प्राविधान है। बताया जाता है कि ये कभी-कभार ही लखनऊ आते हैं। बी-173 में रहने वाले वीरेन्द्र प्रताप सिंह को मार्च 1999 में सरकारी आवास आवंटित किया गया था। इन पर किराए के रूप में 6 हजार से भी ज्यादा का बकाया है। न तो ये किराया जमा कर रहे हैं और न ही सरकारी आवास से मोह त्याग कर पा रहे हैं। सम्बन्धित विभाग भी मूक दर्शक बना हुआ है।
'सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के तहत मिली सूचना के आधार पर बटलर पैलेस के भवन संख्या बी-7 में कथित पत्रकार हेमन्त तिवारी रहते हैं। इनका लेखन से भले ही ज्यादा लगाव न हो लेकिन पत्रकारों के बीच श्रेष्ठ बनने की चाहत इनमें बनी रहती है। ये राज्य मुख्यालय से मान्यता प्राप्त संवाददाता समिति के अध्यक्ष भी हैं। बताया जाता है कि प्रदेश के कई नौकरशाहों से इनके मधुर सम्बन्ध हैं। उसी का फायदा इन्हें यदा-कदा मिला करता है। अधिकारियों से सम्बन्धों के कारण ही लखनऊ के ज्यादातर पत्रकार इन्हें वरिष्ठ पत्रकार की श्रेणी में रखते हैं। यह दीगर बात है कि समाचार लेखन में इनकी कोई खास रूचि नहीं है। इसके बावजूद ये राज्य मुख्यालय से स्वतंत्र पत्रकार के रूप में मान्यता प्राप्त पत्रकार हैं। इन्हें राज्य सूचना विभाग ने किस आधार पर मुख्यालय की मान्यता दे रखी है ? यह जांच का विषय हो सकता है।
'श्री तिवारी के विरोधी पत्रकारों का कहना है कि यदि नौकरशाहों का वरदहस्त इन पर से हट जाए और निष्पक्ष जांच करायी जाए तो इनकी मान्यता संकट में आ सकती है। श्री तिवारी को बटलर पैलेस का सरकारी भवन अगस्त 2008 में आवंटित किया गया था। श्री तिवारी पर किराए के रूप में 23 हजार से भी ज्यादा का बकाया है। उच्चाधिकारियों से मधुर सम्बन्धों के चलते विभागीय अधिकारी इन्हें नोटिस भेजने तक से कतराते हैं। बताया जाता है कि श्री तिवारी एनेक्सी मीडिया सेंटर में अक्सर पत्रकारों के बीच शान से कहते हैं, ‘‘किसी.....की हिम्मत नहीं है जो हमें नोटिस भेजे’’।
'बटलर पैलेस के सी-16 में अध्यासित संगीता बकाया पर 14 हजार से भी ज्यादा का किराया बकाया है। विभाग इन्हें नोटिस भेजे जाने की बात करता है। जानकारी के मुताबिक सुश्री संगीता बकाया ने न तो किराया जमा किया है और न ही मकान से कब्जा छोड़ा है। सुश्री बकाया को यह सरकारी आवास मार्च 2000 में आवंटित किया गया था। इसी कॉलोनी के सी-22 में सुरेश कृष्ण यादव को अध्यासित दिखाया गया है। श्री यादव को उक्त सरकारी आवास मई 2004 में आवंटित किया गया था। इन पर 37 हजार से ज्यादा किराया बकाया है। विभाग इन्हें भी नोटिस जारी करने की बात कर रहा है लेकिन आवास खाली करवाए जाने के बाबत वह चुप्पी साधने में ही भलाई समझता है। जाहिर है विभाग के उच्चाधिकारियों का दबाव जो कर्मचारियों पर बना हुआ है।
'वीआईपी कॉलोनी समझी जाने वाली बटलर पैलेस का आवास संख्या सी-30 श्रीमती प्रतिभा सिंह को सितम्बर 2006 में दो वर्षों के लिए आवंटित किया गया था। सितम्बर 2008 में इन्हें अनाधिकृत भी घोषित किया जा चुका है, इसके बावजूद विभाग इनसे सरकारी आवास खाली नहीं करवा पा रहा है। संयुक्त निदेशक और जनसूचनाधिकारी सुधा वर्मा की ओर से जो सूचना उपलब्ध करायी गयी है उसके अनुसान इन पर 3 लाख 55 हजार से भी ज्यादा का बकाया किराया दर्शाया गया है। जानकार सूत्रों की मानें तो विभाग इन्हें भी किराया वसूली के साथ ही आवास खाली करने की नोटिसें कई बार भेज चुका है, लेकिन श्रीमती सिंह ने न तो सरकारी आवास से मोह त्यागा है और न ही लाखों का किराया ही जमा किया है।
'बटलर पैलेसे कॉलोनी आवास संख्या 3/7, अंशुमान शुक्ला के नाम से आवंटित है। श्री शुक्ला को यह मकान अक्टूबर 2004 में मान्यता प्राप्त पत्रकार की हैसियत से आवंटित किया गया था। इन पर 18 हजार से भी ज्यादा का किराया बकाया है। विभाग नोटिस भेजने का दावा जरूर करता है लेकिन वसूली के नाम पर चुप्पी साध जाता है। अति विशिष्ट कालोनी में गिनी जाने वाली राजभवन कॉलोनी में शशांक शेखर त्रिपाठी जनवरी 2012 से अनाधिकृत तौर पर कब्जा जमाए हुए हैं। 12 ए-टाईप-4 संख्या का यह मकान उन्हें अक्टूबर 2007 में निर्धारित अवधि तीन वर्षों के लिए आवंटित किया गया था। प्राप्त जानकारी के मुताबिक इन पर 1 लाख 18 हजार से भी ज्यादा का किराया बकाया है।
'इसी तरह से अलीगंज के सरकारी आवास (एम.जी. एम.आई.जी.) में दर्जनों की संख्या में अध्यासित कथित पत्रकारों के ऊपर किराए के रूप में लाखों रूपया बकाया है। इन्हें विभाग की ओर से कई बार नोटिसें भेजी जा चुकी हैं लेकिन न तो किराया वसूला जा सका और न ही अनाधिकृत रूप से अध्यासित पत्रकारों से आवास ही खाली करवाया जा सका। अलीगंज की सरकारी कालोनी के आवास संख्या एमजी-97 में राजधानी से प्रकाशित एक दैनिक समाचार-पत्र के पत्रकार एन. यादव का निवास है। यह मकान उन्हें जून 1989 में आवंटित किया गया था। हालांकि यह मकान उन्हें एक निर्धारित समय के लिए आवंटित किया गया था लेकिन पिछले ढाई दशक से अधिकारियों पर दबाव बनाकर ये अपना कब्जा नियमित करवाते चले आ रहे हैं। इन पर किराए के रूप में 7 हजार से भी ज्यादा का बकाया है।
'एमआईजी-3 निवासी कुमार सौवीर पर किराए के रूप में 35 हजार से भी ज्यादा का बकाया है। उक्त मकान उन्हें पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के कार्यकाल जनवरी 1985 में आवंटित किया गया था। गौरतलब है कि इसी वर्ष पत्रकारों के हितार्थ सरकारी आवास आवंटन नियमावली बनायी गयी थी। कुमार सौवीर का लेखन से अब कोई खास रिश्ता नहीं रहा है इसके बावजूद वे सरकारी आवास का सुख भोग रहे हैं। दैनिक समाचार-पत्र से सम्बन्ध रखने वाले शोभित मिश्रा को राज्य सम्पत्ति विभाग ने अनाधिकृत घोषित कर रखा है, इसके बावजूद इनका कब्जा सरकारी आवास संख्या एम.आई.जी.-23, अलीगंज में बना हुआ है। शोभित मिश्रा फिलवक्त लखनऊ से बाहर कार्यरत हैं। इसी आधार पर विभाग ने अपने दस्तावेजों में इनका आध्यासन अवैध दिखा रखा है। यह मकान उन्हें मार्च 2009 में आवंटित किया गया था। इन पर किराए के रूप में 22 हजार से भी ज्यादा बकाया है।
'इसी कॉलोनी के एमआईजी-27 में शिवशरण का अध्यासन है। ये मकान उन्हें नवम्बर 2006 में आवंटित किया गया था। इन पर 7 हजार से ज्यादा का किराया बकाया है। विभाग ने इनका अध्यासन भी अवैध घोषित कर रखा है। विभागीय अधिकारियों की मानें तो शिवशरण सिंह अब पत्रकारिता के क्षेत्र से सम्बन्ध नहीं रखते है इसी वजह से इनका आवास अनाधिकृत किया गया था। विभाग पिछले कई वर्षों से सरकारी आवास खाली करने का दबाव बना रहा है लेकिन उसे कामयाबी नहीं मिल पा रही है। वरिष्ठ पत्रकार देवकी नन्दन मिश्रा को अलीगंज की सरकारी कालोनी में एमआईजी-49 अक्टूबर 2007 में निर्धारित समय के लिए आवंटित किया गया था। समयावधि पूर्ण हो जाने के बाद इनके अध्यासन को विभाग ने अनाधिकृत घोषित कर रखा है। इन पर किराए के रूप में 7 हजार से भी ज्यादा का बकाया है।
'भवन संख्या एमआईजी-59 अतुल कुमार के नाम से फरवरी 1998 मे आवंटित किया गया था। समयावधि पूर्ण हो जाने के पश्चात विभाग ने इनका अध्यासन अनाधिकृत घोषित कर रखा है लेकिन सरकारी आवास खाली करवाने के लिए कोई दबाव नहीं बनाया जा रहा है। खानापूर्ति के नाम पर विभाग की ओर से कई नोटिसें जरूर भेजी जा चुकी हैं। इन पर भी 7 हजार से ज्यादा का बकाया है। भवन संख्या एमआईजी-96 फरवरी 1991 में राजीव बाजपेयी को आवंटित किया गया था। श्री बाजपेयी अब अपना ज्यादा समय अपने निजी व्यवसाय को देते हैं। राज्य सम्पत्ति विभाग भी यह बात अच्छी तरह से जानता है कि श्री बाजपेयी का पत्रकारिता के क्षेत्र से कोई खास जुड़ाव नहीं रह गया है, फिर भी विभाग इनसे सरकारी आवास खाली करवाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। श्री बाजपेयी ने किराए के रूप में लगभग 24 हजार रूपया विभाग के खाते में जमा नहीं किया है। विभाग की ओर से इन्हें नोटिस भी जारी की जा चुकी है।
'एक मकान छोड़कर 98 में राम सागर रहते हैं। यह मकान उन्हें बतौर मान्यता प्राप्त पत्रकार दिसम्बर 1988 को आवंटित किया गया था। इन पर 11 हजार से भी ज्यादा का किराया बकाया है। डीएम कम्पाउण्ड कालोनी में भवन संख्या 7 देवराज को अक्टूबर 1991 में आवंटित किया गया था। इन्होंने भी लगभग 7 हजार रूपए किराए के रूप में अभी तक जमा नहीं किया है जबकि विभाग की ओर से इन्हें भी नोटिस सर्व करायी जा चुकी है। कैसरबाग स्थित सरकारी कालोनी निवासी पवन मिश्रा पर किराए के रूप में 23 हजार से भी ज्यादा बकाया है। भवन संख्या 1/1 का आवंटन इन्हें जुलाई 1990 में किया गया था। इसी तरह से इसी कालोनी में अध्यासित अशोक कुमार पर 1 लाख 55 हजार से भी ज्यादा किराया बकाया है। अशोक कुमार को यह मकान (1/16) अप्रैल 1998 में आवंटित किया गया था।
'इसी कालोनी में भवन संख्या 2/7 अमान अब्बास के नाम से आवंटित है। यह मकान उन्हें अगस्त 2006 में आवंटित किया गया था। इन पर भी किराए के रूप में 1 लाख 52 हजार से ज्यादा का बकाया राज्य सम्पत्ति निदेशालय के रिकार्ड में दर्शाया गया है। उपरोक्त नाम तो उन बडे़ बकायेदारों के हैं जिन्हें विभाग ने अनेकों बार किराया वसूली और अनाधिकृत रूप से अध्यासित भवनों को खाली करने की नोटिस जारी कर रखी है, जबकि इससे कहीं ज्यादा संख्या में ऐसे पत्रकारों की लम्बी फेहरिस्त है जो नियमानुसार मकान का किराया जमा नहीं कर रहे हैं। इसके बावजूद राज्य सम्पत्ति विभाग की चुप्पी रहस्यमयी बनी हुई है। विभाग के ही एक अधिकारी ने नाम प्रकाशित न करने की शर्त पर बताया कि ज्यादातर कथित दागी पत्रकार या तो पत्रकारिता का पेशा छोड़कर दूसरे व्यवसायों में लग गए हैं या फिर उनका लखनऊ से तबादला हो चुका है। इसके बावजूद वे सरकारी मकानों से कब्जा नहीं छोड़ रहे हैं।
'इन अधिकारी का कहना है कि ऐसे पत्रकारों को बकायदा विभाग की ओर से दर्जनों बार नोटिसें भी भेजी जा चुकी हैं लेकिन किसी के खिलाफ सख्त कदम नहीं उठाया जा सका है। इन अधिकारी की मानें तो राज्य सरकारें भी पत्रकारों से बैर लेने को इच्छुक नहीं हैं। यही वजह है कि जब कभी विभाग दबाव बनाता है तो उच्च स्तर से फोन घनघनाने लगते हैं। विभाग के ही एक कर्मचारी का तो यहां तक कहना है कि कुछ पत्रकार सरकारी आवासों को गेस्ट हाउस के तौर पर इस्तेमाल करते आ रहे हैं, जबकि उनका निजी आवास राजधानी लखनऊ में पहले से ही बना हुआ है। कुछ आवासों में तो गैरकानूनी कार्यों की सूचना भी मिला करती है, लेकिन अधिकारियों से नजदीकी का सम्बन्ध रखने वाले पत्रकारों के खिलाफ विभाग कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता।
'इस कर्मचारी का दावा है कि यदि औचक छापेमारी की जाए तो निश्चित तौर पर ऐसे मामले सामने आयेंगे जो सरकार ही नहीं बल्कि प्रदेश की खुफिया एजेंसियों के लिए भी चौंकाने वाले होंगे। कर्मचारी के मुताबिक पत्रकारों को आवंटित सरकारी आवासों में अपराधी से लेकर दलालों तक ने अपना ठिकाना बना रखा है। यदि यह कहा जाए कि पत्रकारिता की आड़ में कुछ पत्रकार सरकारी आवासों का नाजायज इस्तेमाल कर रहे हैं तो कुछ गलत नहीं होगा। हालांकि इस सम्बन्ध में राज्य सम्पत्ति विभाग ने एक जांच रिपोर्ट उच्चाधिकारियों के पास पहले से भेज रखी है लेकिन दूर-दरू तक किसी के खिलाफ सख्त कार्रवाई के आसार नजर नहीं आते। न तो लाखों के बकायेदरों पर शिकंजा कसा जा रहा है और न ही अनाधिकृत रूप से कब्जेदारों के खिलाफ ही कार्रवाई की जा रही है। अधिकारियों का तो यहां तक कहना है कि यदि ऐसा ही चलता रहा तो एक समय ऐसा आयेगा कि फर्जी पत्रकारों का सरकारी आवासों पर पूरी तरह से कब्जा हो जायेगा और वास्तविक हकदारों को सुविधा नहीं मिल पायेगी।
'राज्य सम्पत्ति निदेशालय की देख-रेख वाली सरकारी कॉलोनियों में तथाकथित पत्रकारों का मकड़जाल इतना सशक्त है कि सम्बन्धित विभाग चाहते हुए भी ऐसे पत्रकारों के खिलाफ कार्रवाई नहीं कर पा रहा है। ऐसे पत्रकारों की संख्या अनगिनत है जिन्होंने न तो वर्षों से किराया जमा किया है और न ही वे मकान खाली करने को तैयार है। सरकारी मकान आवंटन के समय जिस ‘पत्रकार आवास आवंटन नियमावली-1985’ के तहत पत्रकारों से हस्ताक्षर करवा कर सरकारी मकानों की चाबी उन्हें सौंपी जाती है उस नियमावली का पालन कुछ अपवाद स्वरूप पत्रकारों को छोड़कर कोई नहीं करता। शासनादेश में राज्य सम्पत्ति अधिकारी को ऐसे पत्रकारों से मकान खाली करवाने के लिए अधिकार दिए गए हैं, लेकिन अधिकारी पत्रकारों से बैर नहीं लेना चाहते। अधिकारी ऐसे पत्रकारों को बेईमान बताकर अपनी भड़ास निकाल लेते हैं तो दूसरी ओर बकाएदार पत्रकार ‘चोरी और ऊपर से सीनाजोरी’ की तर्ज पर पूरे राज्य सम्पत्ति विभाग को ही भ्रष्ट बताकर पल्ला झाड़ रहे हैं।
'जनवरी माह में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने पत्रकारों को सरकारी आवास उपलब्ध कराए जाने के मामले में राज्य सरकार से जवाब-तलब किया था। अधिवक्ता हरिशंकर जैन की ओर से दायर जनहित याचिका पर न्यायमूर्ति इम्तियाज मुर्तजा और न्यायमूर्ति देवेन्द्र कुमार उपाध्याय की खण्डपीठ ने राज्य सरकार से पूछा था, ‘बताएं किस नियम के तहत पत्रकारों को सरकारी भवन अथवा आवास आवंटित किए जाते हैं’। पीठ ने राज्य सम्पत्ति विभाग सहित अन्य पक्षकारों से भी जवाब-तलब किया था। उत्तर-प्रदेश सरकारी कर्मचारी नियमावली 1980 में कहीं भी पत्रकारों को सरकारी आवास मुहैया कराए जाने का प्राविधान अंकित नहीं है। इस याचिका के खिलाफ सरकार की ओर से पक्ष रखते हुए कहा गया था कि पत्रकारों के हितार्थ पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के कार्यकाल में 1985 में पत्रकार आवास आवंटन नियमावली बनायी गयी थी। उसी के आधार पर पत्रकारों को सरकारी आवासों की सुविधा प्रदान की जाती है। राज्य सरकार ने याचिका के खिलाफ राहत तो पा ली लेकिन नियमावली का उल्लंघन करने वाले पत्रकारों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की।'
('दृष्टांत' पत्रिका से साभार)