Sunday 7 September 2014

पृथ्वी पर लेटना / आत्मरंजन

पृथ्वी पर लेटना, पृथ्वी को भेंटना भी है
 ठीक वैसे जैसे थकी हुई हो देह पीड़ा से पस्त हो रीढ़ की हड्डी
सुस्ताने की राहत में गैंती-बेलचे के आसपास ही कहीं
उन्हीं की तरह निढाल हो लेट जाना, धरती पर पीठ के बल
 पूरी मौज में डूबना हो तो पृथ्वी का ही कोई हिस्सा
बना लेना तकिया जैसे पत्थर मुंदी आंखों पर और माथे पर
तीखी धूप के खिलाफ़ धर लेना बांहें समेट लेना सारी चेतना
सिकुड़ी टांग के खड़े त्रिभुज पर ठाठ से टिकी दूसरी टांग
आदिम अनाम लय में हिलता धूल धूसरित पैर
नहीं समझ सकता कोई योगाचार्य राहत सुकून के इस आसन को
 मत छेड़ो उसे ऐसे में धरती के लाड़ले बेटे का
मां से सीधा संवाद है यह मां पृथ्वी दुलरा-बतिया रही है
सेंकती सहलाती उसकी पिराती पीठ बिछावन दुभाषिया है यहां
मत बात करो आलीशान गद्दों वाली चारपाई की
देह और धरती के बीच अड़ी रहती है वह दूरियां ताने
वंचित होता/चूक जाता स्नेहिल स्पर्श ख़ालिस दुलार
कि तमाम ख़ालिस चीज़ों के बीच सुविधा एक बाधा है
 पृथ्वी पर लेटना पृथ्वी को भेंटना भी है
खास कर इस तरह ज़िन्दा देह के साथ
ज़िन्दा पृथ्वी पर लेटना ।

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