Thursday 16 October 2014

भूख ने फिर तड़प के एक नथ उतारी है...

जो भी है, बहुत आसान नहीं है, जीवन में, जगत में,
झूठ के दुलराये हुए, भ्रम से बौराये हुए, सिर के फिरे,
पत्तलों के जूठन से पंचतारा पनालों तक......
...और कुछ ऐसा ही सच निहाल सिंह के शब्दों में
'भूख ने फिर तड़प के एक नथ उतारी है...
और वो कह गये, संसद में बहस जारी है...
भूख आँखों से सरक कर पलक पे बैठी है...
सुना रही है माँ चंदा की फिर कहानी है...
भूख चूल्‍हे की सर्दियों में ठिठुरती है मगर
ये बस्तियों के आग सेंकने की बारी है...
भूख से बुझ चुकी आँखों पे रोटियाँ रख दी...
है लग रहा कि फिर चुनाव की तैयारी है...'

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