Monday 20 October 2014

दीपावली और मेरी 'नानी मां' / जयप्रकाश त्रिपाठी

दिवाली का दिन। जैसे आंखों के दो दीये तेल-घी नहीं, आंसुओं से डबडबाये हुए। हर साल, हर बार। जब भी आता है ये त्योहार। मेरे अभावग्रस्त बचपन के वे दिन कचोटने लगते हैं।
साढ़े चार माह का था, तभी मां ने ननिहाल पठा दिया था। 'नानी मां' की गोद में। नाना के घर प्यार-दुलार इतना मिला कि दुनिया से मां के विदा होने पर उतना नहीं रोया था, जितना कि 'नानी मां' के देहावसान पर। दिवाली के दिनों में आजमगढ़ जिले का गांव टिसौरा, जो आज भी मेरी स्मृतियों में मीठी-नुकीली टीस की तरह अटका हुआ है। कुरेदने पर यादों की बारात सी आ जाती है।
गांव के पश्चिमी किनारे पर चार-पांच कुम्हार परिवार बसते थे। और उधर के ही सीवान में डिह बाबा का थान। गांव के दक्षिणी छोर पर शिवालय, पूरब में काली। घर-घर कुम्हार परिवार महीने भर पहले से जोर-शोर से मिट्टी के नन्हे-नन्हे दीये-हाथी-घोड़े-जांता-घरिया और छोटे-बड़े , बर्तन बनाने में जुट जाते। साल भर में एक बार ये त्योहार उनके लिए घर-गृहस्थी की गाड़ी खींचने के लिए आय के एक बड़े अवसर की तरह आता था।
दिवाली के कई दिन पहले से मिट्टी के पूरे मकान की लिपाई-पुताई। अगवारे-पिछवारे के घास-कूड़े, झाड़-झंखाड़ की कटाई-सफाई। दिवाली से ठीक एक दिन पहले आंगन से दरवाजे के सामने दूर तक गोबर से जमीन की धुलाई। नानी मां का घर दो मोहल्लों के बीच था। घर से पूरब-उत्तर दूर तक पसरे खेत। दिवाली के दिनो में जुताई के बाद हवा के साथ मिट्टी की सोंधी-सोंधी गंध। वातावरण धवल-धवल सा। और बच्चों के लिए त्योहार अपार खुशियों से सराबोर करते हुए।
दिवाली की सुबह नानी मिट्टी के दीये, बर्तन आदि के लिए मुझे बड़ी बहन के साथ भेज देती थी कुम्हार काका संचू-पंचू के घर। संचू-पंचू सगे भाई थे। संचू कलकत्ता में पत्ते वाली तंबाकू बेचते थे। संचू गांव में मिट्टी के बर्तन बेच कर गुजारा करते थे। दोपहर बाद छुटकी काकी (संचू की पत्नी) सिर पर मिट्टी के दीये आदि से भरा टोकरा लेकर जैसे ही दरवाजे पर पहुंचती थीं, खुशियों का पारावार नहीं।
सूर्यास्त होने से पहले नानी आंगन में दीयों की कतार सजाने लगती थीं। साथ में बहन के साथ मैं भी रुई की नन्ही नन्ही बातियां पूरने में जुट जाते। उधर सूरज डूबा, इधर घी-तेल से लबालब दीये जगमगा उठे। दीप पूजन के बाद नानी एक थाली में पांच जलते दीये, अंजुरी भर खील-बताशा, रोली रखकर देवस्थानों के लिए हमे भेज देती थीं। इन सब से बेपरवाह नाना चुपचाप नीम के नीचे चारपाई पर कुछ गाते-गुनगुनाते या तंबाकू रगड़ते हुए मंद मंद मुसकाते याद आते हैं। सस्ते किस्म के नये-नये कपड़ों में हम भाई बहन सबसे पहले डिह के थान जाते, वहां से एक फर्लांग दूर शिवालय में दीप, खील-बताशे रखते और अंत में उतने ही फासले पर गांव के पूरब में काली माई के थान पर। उछल उछल कर तेजी से जाते दौड़ते भी तब तक रात एक पहर पीछे छूट चुकी होती थी।
लेकिन भरपूर उजाले से नहाया हुआ पूरा गांव, चारो ओर हंसी-ठहाके का आलम, घर-घर बच्चों का उल्लास, एक पहर रात गये भी कहीं कोई डर-भय नहीं। घर लौटते ही नानी हमें टीका लगाती, हलवा-पूड़ी का प्रसाद देती। उन दिनो आज की तरह पटाखा-मिठाइयों का जमाना नहीं था। इसके बाद नाना एक पैसा मुझे, एक बहन को देते थे....और रात के कुछ पहर तब तक और खिसक चुके होते। सुबह से थकान, न जाने कब घर सो जाता, पता नहीं चलता था। गांव से संपन्न घरों के दरवाजों पर देर रात तक चहल पहल रहती। सुबह सारे गांव के बच्चे मुंहअंधेरे से ही बुझे दीये बटोरने और उसी दोपहर गांव के मध्य बूढ़े बरगद के नीचे होने वाली 'गोधन बाबा' की पूजा की मस्ती में डूब जाते थे। वह दिन भी शाम तक प्रसाद और चीनी की मिठाई खाने-खेलने में बीत जाता था.....

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