Friday 10 October 2014

कानपुर के अस्पताल ने आरोपी को बचाने के लिए एक्सरे और सीटी स्कैन से पांच फ्रैक्चर गायब करा दिए


जय प्रकाश त्रिपाठी : आज इतना बड़ा छल हुआ। हैरत और तनाव से रात भर नींद नहीं आई। क्या चिकित्सा जगत में अब ऐसा भी होने लगा! घटना के दिन तीस सितंबर को जिस अस्पताल (गुरु तेगबहादुर अस्पताल) में पत्नी को भरती कराया था, उसने सुनियोजित तरीके से एक्सरे और सीटी स्कैन में पांच फ्रैक्चर इसलिए गायब करा दिये कि आरोपी उसके समुदाय का है। उसके अस्पताल में भर्ती के समय सिर्फ तीन फ्रैक्चर बताये गये थे। आज अन्यत्र दोबारा एक्सरे कराने पर पांच अन्य फ्रैक्चर का पता चला। घुटना भी टूट चुका है। आरोपी एक समुदाय विशेष के संपन्न परिवार का है। उसके समर्थक पुलिस, प्रशासन, मीडिया पर दबाव बना रहे हैं कि कार्रवाई न हो, न कम्पंसेशन देना पड़े। ऐसे में मुझे क्या करना चाहिए? एक तो आठ फ्रैक्चर हो जाने से पत्नी की दुर्दशा, दूसरे आरोपियों की ऐसी घिनौनी हरकतें...
हादसा और प्यार : अपनी मुश्किल घड़ी में मित्र परिवार के शब्दों से अपेक्षाधिक संबल मिला, जिनसे इस मंच पर आज तक कभी संवाद न हो सका था, उनसे भी आश्वास्त हो लेने का इस घटना के कारण ही सही, सुअवसर मिला, पूरे मित्र परिवार के लिए एक बार पुनः हार्दिक कृतज्ञता... पहले दिन घटना की सूचना देने के बाद मुझे लगा था कि पत्नी पूर्ण स्वस्थ हो जाने पर ही पुनः यहां उपस्थित हो सकूंगा लेकिन आप मित्रों, शुभचिंतकों की सहानुभूति, यहां बार बार खींच ले आ रही है। पत्नी की सेवा-सुश्रुषा, देखभाल से कुछ पल का समय चुराकर मित्रों के संग-साथ हो ले रहा हूं। यह सोचते हुए कि दुनिया में कितना गम (दुख) है, अपना तो कितना कम है..... मेरे घर आते-जाते रहे मित्रगण मेरी पत्नी के स्वभाव से पूर्ण परिचित हैं। वह सब काम छोड़ कर उनके उपस्थित हो जाते ही उनकी अगवानी, आवभगत में डूब जाती रही हैं। दुर्घटना से सबसे ज्यादा कष्ट उन्हें हुआ है। वे घटना के बाद से लगातार फोन संपर्क में है। प्रतिदिन कुशलता की कामना के साथ मेरा संबल संभाले हुए है।
इस मंच पर आत्मीय हुए कई-एक वरिष्ठ शुभचिंतक एवं मित्र भी मेरी स्थितियों से अत्यंत दुखी-द्रवित हुए, मेरा असमय यथासंभव साझा किया, उनका पुनः-पुनः आभार..... उम्मीद है, इस दुखद समय से उबरने में कम से कम डेढ़-दो माह लग जाने हैं, अभी कच्चा प्लास्टर चढ़ा है दोनो पैरों और दायें हाथ में, एक्सरे-सिटी स्कैन में एक पैर के निचले हिस्से की हड्डियां चूर-चूर हो जाने से नौ अक्तूबर को ऑपरेशन, फिर एक पैर और हाथ पर पक्का प्लास्टर होना है, उसके बाद 45 दिन और... इस हादसे से जो एक सबसे महत्वपूर्ण संदेश मुझे मिला कि फेसबुक का मित्र परिवार सुख में संबल बने-न-बने, दुख में ऐसा कोई नहीं, कहीं नहीं मेरा....आभार
अमर उजाला, कानपुर में सेवारत रहे वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार जय प्रकाश त्रिपाठी के फेसबुक वॉल से.
Ranjana Tripathi : 56 साल की एक औरत हर शाम घर से बाहर निकलती है 1.5 लीटर दूध लेने के लिए. 20 मिनट के भीतर उसका आना-जाना दोनों हो जाता. इतनी ही देर में कुछ लापरवाह मां-बाप की 10-12 साल की औलादें स्कूटर लेकर चलती सड़क पर दौड़ाते हैं और एक बेकसूर औरत के दोनों पैर और एक हाथ तोड़ देते हैं. घसीटते हुए उस औरत को बहुत दूर तक ले जाते हैं. वो औरत जान भी नहीं पाती कि उसके साथ यह सब क्या हो रहा है. उसकी आंखों का चश्मा कहीं गिरता, बालों का क्लिप कहीं... दूध का डिब्बा कहीं... यह औरत कोई और नहीं मेरी मां है. दो दिन पहले हुए इस सड़क दुर्घटना में मेरी मां अस्पताल के बिस्तर पर पड़ी कुछ करने लायक नहीं बची हैं. ना तो हिल पा रही हैं और न ही करवट ले पा रही हैं. मेरी मां को इतना दर्द हो रहा है कि वह जब मुझसे बात कर रही हैं रोने लग रही हैं. उनकी रोती हुई आवाज़ मुझमें बेचैनी पैदा कर रही है. मैं उनके आंसू बरदाश्त नहीं कर पा रही हूं. मेरा हर पल कैसे बीत रहा है यह मैं ही जानती हूं. दो रातों से मुझे नींद नहीं आयी है... क्या खाया- क्या पीया कुछ याद नहीं... नहाना-कपड़े बदलना-बाल बनाना सब भूल गयी हूं...मेरी मां बहुत ही अच्छी और सच्ची महिला हैं. मैंने उनकी ज़बान से कभी किसी के लिए अपशब्द नहीं सुने. वो किसी को गाली नहीं देतीं, किसी का बुरा नहीं सोचतीं. उन्होंने अपनी सारी उम्र कमरे की दिवारों के भीतर अपने चार बच्चों और पति के लिए गुज़ार दी. उनकी कोई नींद नहीं और न ही कोई भूख न कोई हंसी और न ही कोई दुख... उनका सुख-दुख हंसना रोना भोजन-उपवास सब उनके बच्चे और पति हैं. घर में चाहे कितने भी लोग आ जायें, मां सबका पेट भरकर भेजती हैं. नजाने कितने लोगों ने उनके हाथों से बने खाने का स्वाद चखा है. कहने का मतलब की एक ऐसी मां जैसा कि मां को होना चाहिए. किताबों वाली मां... कहानियों वाली मां... ऊपर से नीचे तक प्रेम छलकाती मां और बच्चों के दुखों में पल्लू भीगाती मां... उनकी सुबह दोपहर शाम रात सब रसोईं में चूल्हे के सामने ही होते है. समुंदर, पहाड़, जंगल, जगमगाती रोशनी के शहर देखना तो अब तक उनके लिए किसी स्वप्न जैसा है. इस महीने की चौदह तारीख को मेरे पास आनेवाली थीं. पहली बार हवाई यात्रा करने जा रही थीं, मन में बहुत उत्साह था बैंग्लोर आने का. लेकिन क्या पता था कि इस तरह कोई बदहवाश 12 साल का बच्चा मेरी मां से मेरे मिलन को दुख-दर्द-तकलीफ में बदल देगा.अपनी मां से बहुत दूर रहती हूं, लेकिन हर पल मेरा मन उनके पास रहता है. हर पल उन्हें सोचती हूं... जब उन्हें सोचती हूं, तब वो मुझे एक ही रूप में नज़र आती हैं- ऊपर से नीचे तक पसीने से भीगी अपने भारी शरीर के साथ रसोईं में कुछ पकाती या फिर पिताजी के लिए हाथ में चाय का कप लिए खड़ी मेरी मां. लेकिन दो दिनों से उन्हें इस तरह नहीं सोच पा रही हूं. दो दिनों से गल्ती से अगर नींद आ जा रही है, तो जागते ही मां का खयाल कौंध जा रहा है. मां दर्द में है यह सोच कर मेरा रोम-रोम दुख जा रहा. मां के शरीर के साथ मानों उन बच्चों ने मेरे बदन को भी सड़क पर रौंद दिया है. इस देश में बच्चा पैदा होते ही हवाई जहाज चलाने लग जाता है. यहां किसी काम के लिए कोई उम्र तय नहीं है. ऐसे मां-बाप अपने बच्चों के स्कूटर उड़ाने पर गर्व महसूस करते हैं. कानपुर-लखनऊ-आगरा-मेरठ जैसे शहरों में तो बच्चे कार तक दौड़ाते हैं. सिग्नल तोड़कर निकल भी जाते हैं... बगल में खड़े पुलिस वाले भईया सुरती पीटते रहते हैं. एक समझदार बालिग लड़का रोड पर फिर भी सहूलियत से स्कूटर-गाड़ी चलाता है, लेकिन कम उम्र के बच्चे चलाते नहीं उड़ाते हैं... हाथ में मानों अल्लादीन का चिराग आ गया हो... जितना घिसना है एक ही बार में घिस लो... फिर घिसने को नहीं मिलेगा. बद्ददिमाग बच्चों और अशिक्षित-गैरज़िदम्मेदार अभिभावकों की वजह से ही सड़क पर दुर्घटनाएं होती हैं और इन्हें ही ध्यान में रखकर सड़क का सही तरह से इस्तेमाल होने के कुछ नियम- कायदे- कानून बनाये गये हैं. लेकिन, इसका पालन बहुत ही कम लोग करते हैं. छोटे शहरों में तो अराजकता छायी हुई है.उन 10-12 साल के बच्चों और उनके मां-बाप के लिए मेरे मन में बहुत गुस्सा है... मैं रो रही हूं. मन अंदर से बहुत बहुत बहुत गुस्से में है. किसी का कुछ नहीं जाता. मेरी मां तो महीनों के लिए बिस्तर पर चली गयी. मां को दु:ख है इस बात का कि वो पिताजी के लिए हर घंटे चाय नहीं बना पायेंगी.. उनकी दवाईयां सही समय पर नहीं दे पायेंगी... उनके खाने-पीने का ध्यान नहीं रख पायें और मुझे दु:ख है कि मैं अब लंबे समय तक उनके पायल छनकते पैरों की आवाज़ नहीं सुन पाऊंगी, जो कानपुर में बजते थे और मुझे बैंगलोर में सुनाई पड़ते थे.लोगों को बच्चे पालने नहीं आते. कैसे बच्चे कंट्रोल से बाहर हो जाते हैं कि चाभी उठाते हैं और स्कूटर सड़क पर दौड़ाने लगते हैं. मेरा भाई 21 साल का हो गया है आज तक उसने बाईक नहीं चलाई. उसे बाईक-कार दोनों चलाने आते हैं, लेकिन मेरे पिताजी उसे अभी कुछ चलाने नहीं देते. आजकल के लड़के बाईक चलाते नहीं अंधों की तरह उड़ाते हैं. मैं महान नहीं हूं और न ही बनना चाहती हूं. गलत काम का फल भी तुरंत मिलना चाहिए. ऐसे बच्चों या अभिभावकों को सजा कैसे मिले? इनका क्या किया जाना चाहिए? कृपया आप सब मार्गदर्शन करें और पोस्ट को लाईक न करें.
वरिष्ठ पत्रकार जय प्रकाश त्रिपाठी की पुत्री और लेखिका रंजना त्रिपाठी के फेसबुक वॉल से
(http://www.bhadas4media.com से साभार)

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