Tuesday 25 November 2014

क्यों और किसके लिए है मीडिया / डा. संध्या गर्ग

कुछ समय पहले आई एक फिल्म में ‘नासा’ का एक इंजीनियर अपने गांव लौटता है। वह गांव की स्थितियों से रूबरू होता है। वह अपने ज्ञान को गांव की प्रगति के लिए प्रयोग करता है। वहां बिजली ले आता है। अंत में वह नासा नहीं लौटता बल्कि गांव में ही रह जाता है। यह एक आदर्शवादी फिल्म  के रूप में प्रदर्शित की गई जिसमें यह दिखाने का प्रयास किया गया कि आधुनिक तकनीकों का प्रयोग अब किस प्रकार गांव के उद्धार के लिए करना संभव हो गया है। खैर! यह फिल्म बदलते माहौल में, भारतीय गांव को अमेरिका से जोड़ने का प्रयास है। यह उस अमेरिका को नमन करने का एक तरीका है जो आज के भूमंडलीकरण, वैश्वीकरण का जन्मदाता है। भूमंडलीकरण की अवधारणा एक ऐसी सभ्यता को जन्म देने के लिए प्रयासरत है जिसके मूल में पश्चिम से उपजे प्रतिमान हैं। इस सभ्यता के विस्तार में सांस्कृतिक कारणों से अधिक भूमंडलीय बाजार का महत्व है। और इस बाजार को बढ़ाने की मुख्य भूमिका का निर्वाह करने की जिम्मेदारी मीडिया के कंधों पर डाली गई है।
आज की दुनिया में संचार माध्यमों या मीडिया की भूमिका एक व्यापक बहस का मुद्दा बन चुकी है। विभिन्न शोधों से यह बात साबित हो गई है कि सामाजिक विकास में जनसंचार एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। यहां प्रश्न उठता है कि सामाजिक विकास कैसे संभव होगा यदि 75 प्रतिशत जनता के प्रति मीडिया सचेत व जागरूक ही नहीं है। वैसे तो इलेक्ट्रानिक मीडिया ने गांवों की कठपुतली, लोकगीत, नौटंकी और अन्य कई पारंपरिक विधाओं का स्थान लेने की होड़ मचा दी है। पर, इन माध्यमों से जुड़ा गांववासी ठीक वैसा ही अनुभव करता है जैसे मोगली को शहर में ला कर खड़ा कर दिया गया हो। इलेक्ट्रानिक मीडिया से प्रसारित कार्यक्रम गांव वालों की दुनिया से भिन्न हैं। उन्हें लगता है कि यह सब एक तिलस्म से अधिक कुछ नहीं।
शिक्षा व विकास का औजार बन कर उभरा टेलीविजन आज विश्व में बाजार का औजार बन चुका है। इस टेलीविजन ने गांव को भी उस बाजार से जोड़ने की कोशिश की है और उसकी मूलभूत आवश्यकताओं में परिवर्तन किया है। आज विज्ञापनों में गांव के चित्रण का नया जलवा है। भाई को शुभकामना देने के लिए बच्ची पंछी उड़ाना चाहती है लेकिन पैसे नहीं, तो एक खास कंपनी का क्रेडिट कार्ड उसके लिए हाजिर है। गांव में लौटे युवक ने एक खास ब्रांड की सूटिंग्स पहनी है। क्रिकेट का प्रसिद्ध खिलाड़ी अपने गांव लौटा है तो एक खास घड़ी को विज्ञापित करने के लिए। इन सभी विज्ञापनों में गांव एक स्टेज मात्र है। मुख्य मकसद है गांव की मूलभूत जरूरतों में परिवर्तन करना।
इन विज्ञापनों के माध्यम से गांव को उपभोक्ताओं की एक नई दुनिया में प्रवेश कराया जाता है, एक ऐसी दुनिया जहां सब जगह बाजार है। इन माध्यमों में दिखने वाले गांवों की मौलिक समस्याएं कहीं दिखाई नहीं देती हैं। यहां ‘लव हुआ’ जैसे सीरियल पहुंच चुके हैं। शहर की लड़कियां अपने छोटे-छोटे कपड़ों में गांव को एक नई दृश्यता देने आ चुकी हैं। किसी को यह सोचने की फुर्सत नहीं कि गांव वालों को क्या चाहिए। गांव वालों की कोई सुने तो वे बताएंगे कि उन्हें अधिक आवश्यकता है भूमि सुधार की, पशुपालन के नए तौर-तरीकों की, कृषि उत्पादन के विपणन की, अतिवृष्टि और अनावृष्टि तथा विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं से बचने की और इससे जुड़ी जानकारियों की। पर, आज मीडिया कितने ऐसे कार्यक्रम प्रसारित करता है। पहले तो कृषि दर्शन जैसे कार्यक्रम टी.वी. के प्रमुख कार्यक्रमों में शामिल थे। सरकारी चैनलों पर गांव सुधार के कार्यक्रम अब भी सुनाई देते हैं। पर विदेशी उपग्रहों से प्रसारित कार्यक्रमों ने एक नया ही संसार रच दिया है। इनके पास गांव के मतलब की बात करने का वक्त नहीं है। हालांकि रेडियो के कुछ कार्यक्रम आज भी गांववसियों के लिए हैं। रेडियो से आज भी ग्रामीण महिलाओं और किसान भाईयों के लिए कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं। लेकिन यह भी ‘आकाशवाणी’ तक ही सीमित है। कम्युनिटी रेडियो से भी सार्थक उम्मीद की जा सकती है। किंतु निजी एफ.एम. चैनलों से कोई अपेक्षा नहीं की जा सकती।
चौबीस घंटे प्रसारित होने वाले न्यूज चैनलों में यदि देखें तो कितना प्रतिशत हिस्सा गांव की खबरों या वहां होने वाले विकास कार्यक्रमों को मिलता है। इन चैनलों के सुविधाभोगी किसी गांव की यात्रा करने की जहमत तब उठाते हैं जब वहां कोई सेलिब्रिटी पहुंचती है या कोई बड़ा हादसा होता है। छोटे गांव की तो बात ही रहने दें, हमारे सामने हरसूद का उदाहरण है। अरुंधति राय वहां पहुंची तो मीडिया के लोग भी उनके पीछे-पीछे हो लिए।
आज हकीकत यह है कि इन चैनलों पर गांव दिखते हैं ‘मानो या न मानो’ जैसे कार्यक्रमों में। ऐसे कार्यक्रम के गांव किसी अंधविश्वास से घिरे दिखाई देते हैं। और शहरी दर्शकों के लिए यह एक मनोरंजक कार्यक्रम से अधिक नहीं होते। ये दर्शक अपनी दैनिक समस्याओं और भागदौड़ के जीवन से थक चुके होते हैं। और उन्हें ऐसे कार्यक्रम मानसिक थकान से राहत देते हैं। एक समय था जब जल-जमीन का स्वामित्व और संबंधों की प्रगाढ़ता गांव में शक्ति का आधार मानी जाती थी। पर आज स्थितियां बदल गई हैं। गांव का समाज पूर्णतया भिन्न समाज हो गया है। न केवल संसाधनों के स्वामित्व की दृष्टि से बल्कि, जाति, वर्ग और अन्य कई भेदों से भी। अब उस समाज की दुनिया इस टी.वी के माध्यम से बदल चुकी है। गांव वालों का मन अब गांव में नहीं शहर में लगता है। गांव के लोग शहर जाने के लिए लालायित हैं। जो शहर नहीं जा सकते वे गांव को ही शहर बनाने में लगे हैं। इस सारे बदलाव में टी.वी. की महत्वपूर्ण भूमिका है।
गांवो में भ्रूणहत्या, नारी उत्पीड़न, अशिक्षा और अधिकारों के प्रति उनकी अज्ञानता आदि बहुत से मुद्दे हैं जिन्हें लेकर इलेक्ट्रानिक मीडिया बड़ी प्रभावी भूमिका निभा सकता है। लेकिन, टी.आर.पी. के लोभ में सभी चैनल वही कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं जिनके चलते खुद को नंबर एक चैनल सिद्ध किया जा सके। वस्तुत: सभी सरोकारों पर बाजार हावी हो चला है। ‘मेरे देश में पवन चले पुरवाई’ और ‘बलमा बैरी हो गये हमार’ जैसे गीत कहीं खो गये हैं। ‘बीड़ी जलाई ले’ और ‘दिल्ली-बिहार लूटने’ वाली नौटंकी गांव का भौंडा चित्र प्रस्तुत करने में लगी है।
पिछले दिनों किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या की खबर को भी चैनलों ने जिस तरह प्रस्तुत किया वह उन के जीवन को बचाने की चिंता और मुद्दे की संवेदनशीलता से अधिक ‘कापी कैट फिनोमिना’ ही अधिक था। ‘सेन्टर फार मीडिया स्टडीज’ की रिपोर्ट के अनुसार सभी मुख्य समाचार पत्रों और टी.वी. चैनलों का सर्वे किया गया और पाया गया कि किसानों और कृषि से संबंधित समाचार राष्ट्रीय समाचारों का एक प्रतिशत भी नहीं होते। न्यूज चैनल ने उन दिनों भी किसानों की आत्म हत्या की कोई खबर नहीं दी जब  ‘हिन्दु’ और ‘इंडियन एक्सप्रेस’ पांच से अधिक आत्महत्याओं की खबर प्रकाशित कर चुके थे।
ऐसा नहीं है कि टेलीविजन और अन्य माध्यमों ने केवल नकारात्मक भूमिका ही निभाई है। कहीं न कहीं इन माध्यमों ने गांव के लोगों को उनके अधिकारों और सरकारी योजनाओं के प्रति सचेत किया है। विज्ञापन और वृत्तचित्रें द्वारा कई नई तकनीकी जानकारी लोगों को मिली है। लेकिन, यह सब पर्याप्त नहीं है। अभी बहुत कुछ और करने की जरूरत है। यह तय है कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में मीडिया तब तक अपनी भूमिका प्रभावकारी ढंग से नहीं निभा सकता जब तक वह इस लोकतंत्र के 70 प्रतिशत लोगों की समस्याओं को अभिव्यक्ति नहीं देगा। प्रश्न यह है कि मीडिया ग्लोब से गायब हो रहे गांव को क्या ग्लोब्लाइजेशन के इस दौर में बचा पाएगा?

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