Monday 24 November 2014

मीडिया में 'संस्कृत' का सांस्कृतिक कर्मकांड

मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने कहा है कि संस्कृत को अनिवार्य भाषा नहीं बनाया जाएगा। त्रिभाषा फार्मूला स्पष्ट है, जिसमें कहा गया कि आठवीं अनुसूची की 23 में से किसी भाषा को छात्र चुन सकते हैं, ऐसे में संस्कृत को अनिवार्य भाषा नहीं बनाया जा सकता। कुछ दिन पहले स्मृति ईरानी के नेतृत्व में केंद्रीय विद्यालय बोर्ड की बैठक में निर्णय लिया गया था कि देश के 500 से अधिक केंद्रीय विद्यालयों में त्रिभाषा फॉर्मूला के तहत जर्मन की जगह संस्कृत तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाई जाएगी। जिस तरह एक सहमति पत्र के ज़रिए संस्कृत की जगह जर्मन भाषा को केंद्रीय विद्यालय में लाया गया था वह संविधान के प्रतिकूल था और उस सहमति पत्र पर किस तरह हस्ताक्षर हुए इसकी जाँच चल रही है। इससे पहले उन्होंने तीसरी भाषा के रूप में जर्मन की जगह संस्कृत को लाए जाने के फैसले को सही ठहराते हुए कहा था कि मौजूदा व्यवस्था संविधान का उल्लंघन करती है।
त्रिभाषा फार्मूले के तहत स्कूलों में छात्रों को तीन भाषाओं की शिक्षा दी जानी थी। हिंदी भाषी राज्यों में छात्रों को जो तीन भाषाएं पढ़ाई जानी थीं वो थीं - हिंदी, अंग्रेज़ी और एक आधुनिक भारतीय भाषा। आधुनिक भारतीय भाषाओं में बांगला, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, असमिय़ा, मराठी और पंजाबी और कुछ अन्य ज़बानों को शामिल किया गया। ग़ैर हिंदी भाषी राज्यों में मातृभाषा के अलावा, हिंदी और अंग्रेज़ी पढ़ाई जानी थी। शिक्षाविद अनिल सदगोपाल का कहना है कि तीन भाषा वाले फार्मूले को तमिलनाडु छोड़कर दूसरे सूबों में तो बेहतर तरीक़े से लागू किया गया लेकिन हिंदी भाषी क्षेत्रों में इसे लागू करने में बेईमानी हुई। छात्रों को आधुनिक भारतीय भाषा की जगह संस्कृत पढ़ाई गई। संस्कृत किसी भी तरह आधुनिक भारतीय भाषा नहीं है। विरोध संस्कृत का नहीं है लेकिन नीति ये नहीं है। नीति थी आधुनिक भाषा पढ़ाने की। सबसे पहले इस सरकार को हिंदी भाषी क्षेत्रों में तीन भाषा फार्मूले के तहत आधुनिक भारतीय भाषा की पढ़ाई लागू करनी चाहिए।
पत्रकार नवीन कुमार का कहना है कि 'संस्कृत एक मर चुकी भाषा है। ब्राह्मणों ने सैकड़ों बरसों में बड़े जतन से इसकी हत्या की है। अब इसे ज़िंदा नहीं किया जा सकता। सिर्फ संस्कृत के दम पर मूर्ख ब्राह्मण सदियों बाकी दुनिया से अपनी चरण वंदना करवाते रहे हैं। जब बाकियों ने इसे खारिज कर दिया तो दर्द से बिलबिला उठे हैं, क्योंकि अब वो अपनी मक्कारियों को सिर्फ एक भाषा के दम पर ढक नहीं पा रहे हैं। अब गया वो जमाना जब वेद सुन लेने पर बिरहमन दलितों के कान में शीशा पिघलाकर डाल देते थे। टीक और टीकाधारी पूजापाठियों का ज़माना लद चुका है। अपनी जाहिली पर रोना-धोना बंद कीजिए। इसे बच्चों पर जबरन थोपना एक ऐसा अपराध है जिसे वो बड़े होने के बाद हरगिज माफ नहीं करेंगे। स्मृति ईरानी जनता की गाढ़ी कमाई पंडितों को खुश करने में लुटा रही हैं।
'उमा भारती से लेकर स्मृति ईरानी तक को संस्कृत पर विलाप करते देखकर दया आती है। इन्हें पहले भाषा विज्ञान के बारे में कुछ जानना समझना पढ़ना चाहिए। एक जातिमात्र की भाषा का जो हाल होना था वो हुआ। इसपर रोना-चिल्लाना पीटना कैसा? अगर संस्कृत इतनी ही महान, उदार और वैज्ञानिक भाषा है तो उसे समाज ने संवाद की भाषा के तौर पर क्यों स्वीकार नहीं किया? यहां तक कि पूजापाठी ब्राह्मणों को भी आपस में संस्कृत में बातचीत करते नहीं देखा। संस्कृत विश्वविद्यालयों तक में बोलचाल की भाषा हिंदी अंग्रेजी तमिल मलयालम कुछ भी है लेकिन संस्कृत नहीं है।
'संस्कृत के विश्वविद्यालय ब्राह्मणों के विशाल गिरोह हैं जहां दलितों-शूद्रों-पिछड़ों का प्रवेश बिना कानून बनाए वर्जित है। अगर आप टीका नहीं लगाते, टीक नहीं रखते, जनेऊ नहीं चढ़ाते तो यह गिरोह आपपर टूट पड़ता है। जनता की गाढ़ी कमाई का रुपया झोंक-झोंककर आजतक संस्कृत को जिंदा रखा गया है वर्ना वो तो कब की मर चुकी है। सच ये है कि संस्कृत गैर ब्राह्मण भारत के लिए किसी भी विदेशी भाषा से ज्यादा विदेशी रही है। दूसरी विदेशी भाषाओं की कक्षाओँ में घुसते हुए कम से कम जातीय हीनता का बोध तो नहीं होता। ब्राह्मण जानते हैं कि संस्कृत को जबरन न पढ़ाया गया तो कोई इसकी तरफ देखेगा भी नहीं। वेद पुराण के नाम पर जातिवादी अभिजातपन को संस्कृत के लिफाफे में छिपाया जाता रहा है। क्योंकि लंबे समय तक भारत का शासक वर्ग द्विजों के कुल-गोत्र से चुना जाता रहा। अब राजनीति बदल गई है। इसे समझिए। यह अब नहीं चलने वाला है।
'अंग्रेजी या दूसरी भाषाओं से से नफरत के पाखंडियों को अपने बच्चों के लिए अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में लाइन लगाए किसने नहीं देखा? क्या कोई बताएगा कि अभिज्ञान शाकुंतलम के बाद का संस्कृत साहित्य क्या है और पुरस्कारों के लिए जो भी सड़ा-गला गंधाता हुआ लिखा गया है उसकी आधुनिक साहित्य में जगह क्या है? मेरे बिरहमन दोस्त माफ करें लेकिन सच ये है कि संस्कृत को सत्यनारायण की कथा तक समेट देने के कसूरवार आप हैं। यही सच है।
'मैंने संस्कृत के खत्म हो जाने के कारणों को बहुत सीधे और सपाट लहजे में रेखांकित किया है। मैंने कुछ बुनियादी सवाल उठाए हैं। वो चुभते जरूर हैं लेकिन अपनी जगह कायम हैं। आप उनमें से किसी भी सवाल का जवाब देते तो अच्छा लगता। एक तो संस्कृत हिंदी की तरह चिरायु नहीं है। क्योंकि वो बोलचाल की भाषा कभी नहीं रही। न कभी रोजगार की भाषा रही। उसका आधुनिक साहित्य में कोई योगदान नहीं है। मुझे नहीं पता पिछले दस-बीस साल में संस्कृत के कितने मौलिक उपन्यास, कितनी कविताएं या कितनी कहानियां लिखी गई हैं। संस्कृते के वो कवि, कहानीकार आलोचक कौन हैं, कहां लिखते हैं, कहां रहते हैं?
'संस्कृत अभी तक भक्ति काल की विवेचना में ही लगी हुई है। क्या आपने कभी सोचा है संस्कृत के अखबार क्यों नहीं निकले? गैर धार्मिक समाचारों या विचारों पर संस्कृत की पत्रिकाएं क्यों नहीं निकलतीं? क्या आपने कभी सोचा है कि संस्कृत के शब्दकोष बहुत रूढ़ किस्म के हैं। इतने रूढ़ की उनका कोई विस्तार ही नहीं हुआ। फिर किस बूते संस्कृत के बचे होने या उसे बचाने की जिद पाले हुए हैं। संस्कृत जब थी भी तो सिर्फ कर्मकांड की भाषा थी। बिरहमनों ने उसे अपने जिद्दी एकाधिकार से बाहर निकलने ही नहीं दिया। उन्हें ये डर सताता रहा कि इससे उनकी एक्सक्लूसिविटी खत्म हो जाएगी। लोग उनके पैर छूना बंद कर देंगे। संस्कृत ने इसका खामियाजा भुगता है।
'कभी पाली के बारे में भी यही बात करते थे लोग कि वो कभी खत्म नहीं हो सकती। बहुत श्रेष्ठ है बहुत उदार है। जबकि पाली की जड़ें समाज में संस्कृत से कहीं ज्यादा गहरी थीं। लेकिन वो मर गई। बिहार के विश्वविद्यालयों में अब भी पाली के विभाग हैं। लेकिन वहां अब इक्के-दुक्के बच्चे दाखिला लेते हैं। वो भी बहुत खुशामद करके करवाते हैं प्रोफेसर।
'दूसरे, योगदानों को याद कराने के लिए बार-बार इतिहास की दुहाई देनी पड़े तो मुझे यह एक जबरदस्ती लगती है। कि आप मान क्यों नहीं लेते संस्कृत महान भाषा है। अगर मेेरी तरह के करोड़ों लोगों में संस्कृत को सीखने की कोई इच्छा नहीं जगती तो इसके पैरोकारों को हमें कोसने की बजाय अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। आप बताइए संस्कृत पढ़ने वाले भी संस्कृत में बातचीत क्यों नहीं करते?
'संस्कृत और हिंदी का फर्क बाल्मीकि रामायण और राम चरित मानस का फर्क है। कोई भी अंतिम समय तक बहस को स्वतंत्र है लेकिन सच ये है कि पूजा करने के अलावा संस्कृत की कोई उपयोगिता अब बची नहीं है। यह भी बहुत जल्द खत्म हो जाएगी। जब भी कोई भाषा अपने शुद्धतावाद के जाल में उलझती है वो खत्म हो जाती है। इसे किसी भाषा से रिप्लेस करने की कट्टरपंथी, अराजक और फासीवादी जिद इसके खत्म हो जाने की घोषणा है। पाली के बाद हम अपने समय में संस्कृत की मौत देख रहे हैं।'

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