Wednesday 5 November 2014

जो धर्मों के अखाड़े हैं, उन्हे लड़वा दिया जाए / शमशेर बहादुर सिंह


जो धर्मों के अखाड़े हैं, उन्हे लड़वा दिया जाए !
ज़रूरत क्या कि हिन्दुस्तान पर हमला किया जाए !
मुझे मालूम था पहले ही ये दिन गुल खिलाएँगे
ये दंगे और धर्मों तक भी आख़िर फैल जाएँगे
तबीयत को रँगो जिस रंग में रँगती ही जाती है
बढ़ो जिस सिम्त में, उसकी ही सीमा बढ़ती जाती है
जो हिन्दू-मुस्लिम था वो सिक्ख-हिन्दू हो गया देखो
ये नफ़रत का तक़ाज़ा और कितना बढ़ गया देखो !
हम इसके पहले भी मिल-जुल के आख़िर रहते आए थे
जो अपने भी नहीं थे, वो भी कब इतने पराए थे !
हम अपनी सभ्यता के मानी-औ-मतलब ही खो बैठे
जो थीं अच्छाइयाँ इतिहास की उन सबको धो बैठे
तबीयत जैसी बन जाती है,फिर बनती ही जाती है;
जो तन जाती है आपस में तो फिर तनती ही जाती है
हमारे बच्चे वो ही सीखते हैं, हम जो करते हैं;
हमें ही देखकर, वह तो बिगड़ते या, सँवरते हैं
जो हश्र होता है फ़र्दों का, वही क़ौमों का होता है
वही फल मुल्क को मिलता है, जिसका बीज बोता है
ये हालत देखकर अपने जो दुश्मन मुल्क होते हैं
हमारी राह में वो चुपके-चुपके काँटे बोते हैं
हमारे धर्मों की क्या-क्या न वो तारीफ़ करते हैं
वो कहते हैं कि-हम तो आपके धर्मों पे मरते हैं
ये हैं कितने महान इनकी तो बुनियादें बचाना है।
[दरअसल, हमको लड़ाकर उनकी बुनियादें हिलाना है!]
ये मुल्क इतना बड़ा है यह कभी बाहर के हमले से न सर होगा
जो सर होगा तो बस अन्दर के फ़ितने से ये मनसूबा है-
दक्षिण एशिया में धर्म के चक्कर... चले
और बौद्ध, हिन्दू, सिक्ख, मुस्लिम में रहे टक्कर
वो टक्कर हो कि सब कुछ युद्ध का मैदान बन जाए
कभी जैसा नहीं था, वैसा हिन्दुस्तान बन जाए !

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