Monday 6 January 2014

रेडियो से फायदा : याग्निक

सलोनी सुरती

आज के दौर में मार्केटर्स को बाजार की जरूरत, किसी खास इलाके में रेडियो की पहुंच, संभावित खरीदारों के बारे में विस्तार से रिसर्च, उनकी यात्रा संबंधी आदतों के साथ-साथ क्षेत्र विशेष में प्राइम टाइम की समझ होनी चाहिए। हम मानते हैं कि एक कैंपेन की रूपरेखा तय करते वक्त इन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए ताकि अधिकतम रिटर्न ऑन इन्वेस्टमेंट (आरओआई) मिल सके।
मंजू याग्निक, नाहर ग्रुप की वाइस चेयरमैन हैं और इस ग्रुप से बीते दो दशकों से जुड़ी हुई हैं। याग्निक ने ग्रुप के ‘अमृत शक्ति’ प्रोजेक्ट का खाका खींचा है। इसका मकसद लोगों को विश्वस्तरीय घर मुहैया कराना है। बरबरी और ब्रायनी जैसे प्रोजेक्ट्स के जरिये भारतीय कंज्यूमर्स की स्पेस, सौंदर्य और दूसरी सुख-सुविधाओं संबंधी अपेक्षाओं पर खरा उतरने की कोशिश की गई है।
सलोनी सुरती के साथ बातचीत के दौरान याग्निक ने बताया कि रियल एस्टेट इंडस्ट्री के लिए एक मार्केटिंग मीडियम के रूप में रेडियो की क्या अहमियत है।
एक मार्केटर के रूप में रेडियो से आपकी क्या अपेक्षाएं हैं ?
आज रेडियो ऐडवरटाइजिंग के सबसे प्रभावी माध्यमों में से एक है। हम हमारे टारगेट ग्रुप्स (संभावित होम बायर्स) के बीच रेडियो की व्यापक पहुंच से फायदे की उम्मीद करते हैं। हम रेडियो के जरिये लोगों को ‘अमृत शक्ति’ जैसे फ्लैगशिप प्रोजेक्ट के बारे में बेहतर तरीके से जानकारी दे सकते हैं। यह प्रीमियम टाउनशिप चांदीवली में 125 एकड़ क्षेत्र में फैली हुई है। इसके अलावा हाल ही में लॉन्च किए गए दूसरे प्रोजेक्ट्स जैसे - रोज़ा एल्बा, बरबरी, ब्रायनी के बारे में रेडियो के माध्यम से जानकारी दी जा सकती है। इसके अतिरिक्त हम रेडियो ऐड्स के जरिये अपने ब्रैंड को और मजबूत बनाने की कोशिश करेंगे।
रेडियो रियल एस्टेट मार्केटर्स की किस तरह मदद करता है ? 
रेडियो ऐडवरटाइजिंग का सबसे बड़ा फायदा इसकी व्यापक पहुंच और इसका आसानी से मिल जाना है। रेडियो के जरिये कम लागत में ज्यादा जानकारी दी जा सकती है। रियल एस्टेट मार्केटर्स किसी जानी-पहचानी आवाज के माध्यम से अपने प्रोजेक्ट्स से जुड़ी जरूरी जानकारियां देकर इसका फायदा उठा सकते हैं।
रेडियो में निवेश करते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए ? 
आज के दौर में मार्केटर्स को बाजार की जरूरत, किसी खास इलाके में रेडियो की पहुंच, संभावित खरीदारों के बारे में विस्तार से रिसर्च, उनकी यात्रा संबंधी आदतों के साथ-साथ क्षेत्र विशेष में प्राइम टाइम की समझ होनी चाहिए। हम मानते हैं कि किसी कैंपेन की रूपरेखा तैयार करते वक्त इन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए ताकि अधिकतम रिटर्न ऑन इन्वेस्टमेंट (आरओआई) मिल सके।
आपका अब तक का सबसे सफल रेडियो कैंपेन कौन-सा रहा है। इसके बारे में विस्तार से बताएं ? 
हाल ही में हमने अपने फ्लैगशिप प्रोजेक्ट ‘नाहर अमृत शक्ति’ के लिए एक रेडियो कैंपेन किया है जो कि ‘रियल लाइफ ब्रैंड एंबैसेडर्स’ के कॉन्सेप्ट पर आधारित है। यह हमारे सबसे कामयाब रेडियो कैंपेंस में से एक रहा है। इस कैंपेन में ‘अमृत शक्ति’ टाउनशिप में रह रहे लोगों की बातों (वास्तविक प्रशंसा) को शामिल किया गया है। इस कॉन्सेप्ट के पीछे विचार यही था कि संभावित होम बायर्स टाउनशिप में रह रहे लोगों के अनुभव को जान सकें। हमने अपने रेडियो ब्रैंड कैंपेन में स्टैंड-अप कॉमेडी को शामिल किया। हमने ऐसा पहली बार किया।
रेडियो ऐड्स ने हमारे संदेश को आम बोलचाल की भाषा और हल्की-फुल्की शैली में लोगों तक पहुंचाया। हमने कैंपेन के लिए रेडियो का चुनाव एकीकरण करने वाले मीडियम के रूप में किया।
मार्केटर्स वनिला रेडियो स्पॉट्स से आगे जाकर श्रोताओं को किस तरह आकर्षित कर सकते हैं ? 
इस कैंपेन के बारे में विचार करते वक्त हम यही कोशिश कर रहे थे। मुझे यह बताते हुए खुशी हो रही है कि हमें इसमें कामयाबी मिली। टाउनशिप में रह रहे लोगों का नजरिया और स्टैंड-अप कॉमेडी जैसी थीम्स रेडियो कैंपेन में शामिल की गईं। हमें लगता है कि वनिला रेडियो स्पॉट्स  से आगे जाने में इन चीजों ने हमें कामयाबी दिलाई।
रेडियो मार्केटिंग ने नाहर समूह को कैसे मदद की है ?
जैसा कि हमने आपको पहले बताया कि हाल के हमारे रेडियो ऐड कैंपेन से होम बायर्स को आकर्षित करने, लोगों में जागरूकता पैदा करने के साथ-साथ हमें बाजार में अपने ब्रैंड की स्थिति को मजबूत करने में काफी मदद मिली है। 
 आप रेडियो को टैक्टिकल अप्रोच के साथ इस्तेमाल करती हैं या फिर जेनरिक अप्रोच ? 
हमारा रेडियो कैंपेन दूसरों से बिल्कुल अलग था। हमें प्रिंट, आउटडोर और रेडियो ऐडवरटाइजिंग में बेहतर तालमेल बैठाना था। ऐसे में हम यह कह सकते हैं कि रेडियो ऐडवरटाइजिंग को लेकर हमारा अप्रोच पूरी तरह से रणनीतिक या टैक्टिकल था। इसका हमें फायदा भी मिला। 
 आपने मार्केटिंग बजट का कितना प्रतिशत रेडियो के लिए आरक्षित रखा है?
हमारे बजट का लगभग 10 फीसदी हिस्सा रेडियो एडवरटाइजमेंट के लिए आरक्षित है।

साल मुबारक

अमृता प्रीतम

जैसे सोच की कंघी में से
एक दंदा टूट गया
जैसे समझ के कुर्ते का
एक चीथड़ा उड़ गया
जैसे आस्था की आँखों में
एक तिनका चुभ गया
नींद ने जैसे अपने हाथों में
सपने का जलता कोयला पकड़ लिया
नया साल कुछ ऐसे आया...

जैसे दिल के फिकरे से
एक अक्षर बुझ गया
जैसे विश्वास के कागज पर
सियाही गिर गयी
जैसे समय के होंठों से
एक गहरी साँस निकल गयी
और आदमजात की आँखों में
जैसे एक आँसू भर आया
नया साल कुछ ऐसे आया...

जैसे इश्क की जबान पर
एक छाला उठ आया
सभ्यता की बाँहों में से
एक चूड़ी टूट गयी
इतिहास की अँगूठी में से
एक नीलम गिर गया
और जैसे धरती ने आसमान का
एक बड़ा उदास-सा खत पढ़ा
नया साल कुछ ऐसे आया...

अरबपतियों ने कमाए 524 अरब डॉलर

पिछले साल दुनिया के सबसे अमीर अरबपतियों की पूँजी में 524 अरब डॉलर का इजाफ़ा हुआ है। ’ब्लूमबर्ग बिल्यानियर्स’ नामक साख-सूची से यह जानकारी मिली है।फ़ोर्ब्स पत्रिका के अनुसार दुनिया के अरबपतियों में पिछले साल 200 नए नाम शामिल हो गए, जिनमें से एक फ़ेसबुक के संस्थापक मार्क सुकेरबर्ग भी हैं। कुल मिलाकर अब दुनिया में 1426 अरबपति हैं, जिनकी कुल पूंजी 54 खरब डॉलर के बराबर है।पिछले साल माइक्रोसॉफ़्ट कम्पनी के मालिक बिल गेट्स की सम्पत्ति में 15.8 अरब डॉलर की वृद्धि हुई। इस तरह उन्होंने सबसे ज़्यादा कमाई की। अब उनकी कुल सम्पत्ति 78.5 अरब डॉलर है।रूसी अरबपति भी उनसे बहुत पीछे नहीं हैं। यू०एस०एम० होल्डिंग नामक एक कम्पनी के मालिक रूसी अरबपति अलीशेर उसमानफ़ की सम्पत्ति बढ़कर 20.2 अरब डॉलर तक पहुँच गई है। पूंजी निवेश की दृष्टि से दुनिया की दस सबसे बड़ी कम्पनियों में 9 कम्पनियाँ अमरीका की हैं। यह सूचना ब्लूमबर्ग एजेन्सी ने दी है। अमरीकी कम्पनियों के अलावा दस सबसे बड़ी कम्पनियों में स्वीट्जरलैण्ड की औषधि निर्माता कम्पनी रोश होल्डिंग ए०जी० भी शामिल है, जिसमें पूंजी निवेश पिछले एक साल में 174 अरब से बढ़कर 241.6 अरब डॉलर हो गया है। इस सूची में सबसे पहले नम्बर पर अमरीकी कम्पनी एपल इनकॉरपोरेशन है। आईफ़ोन और आईपैड बनाने वाली इस कम्पनी की कुल पूंजी 504.8 अरब डॉलर है।

फेसबुक के फर्जी लाइक से करोड़ों की कमाई

http://www.dw.de/ पर प्रकाशित यह खबर फेसबुक पर सक्रिय मित्रों के लिए भी पठनीय है और सूचनामहत्व की भी। '' ....बड़े बड़े सितारे, कारोबारी और यहां तक कि अमेरिका का विदेश मंत्रालय भी पैसे देकर सोशल मीडिया पर अपनी लोकप्रियता बढ़ा रहा है. ये सब फेसबुक और ट्विटर पर फर्जी लाइक और फॉलोअर खरीद रहे हैं.
इनके चक्कर में दुनिया भर में "क्लिक फार्म" बन गए हैं, जो दिन भर बैठ कर माउस क्लिक करते रहते हैं. यूट्यूब के वीडियो के व्यू बढ़ाते हैं और फेसबुक के लाइक बढ़ाते हैं, शेयर करते रहते हैं. 10 साल पहले जब फेसबुक बना, तो लोगों ने अपने वित्तीय फायदों के लिए सोशल नेटवर्किंग का इस्तेमाल शुरू किया. नए दोस्त बनाने शुरू किए और कारोबारी फायदे को देखा. अमेरिकी समाचार एजेंसी एपी को इस विषय पर शोध में पता चला है कि कई कंपनियां फर्जीबाड़े में लगी हैं, वे नकली क्लिक खरीद रही हैं. ऑनलाइन रिकॉर्ड, इंटरव्यू और विश्लेषण से पता चलता है कि सोशल मीडिया पर इस तरह का काम करने से करोड़ों की कमाई भी होती है.
एक क्लिक का आधा सेंट भी कमाई का बड़ा जरिया बन सकता है. इनके तार लिंक्डइन से लेकर दूसरी जगहों तक फैले हैं और इंटरनेट की आभासी दुनिया में ज्यादा क्लिक या बड़े नेटवर्क वाले लोगों को बेहतर मौके मिलने की संभावना रहती है. सियोक्लैरिटी के सीईओ मितुल गांधी कहते हैं, "जब भी कभी क्लिक के साथ पैसे का मामला जुड़ा हो, तो लोग उस तरफ बढ़ जाते हैं." इतालवी सुरक्षा रिसर्चर और ब्लॉगर आंद्रेया स्ट्रोपा और कार्ला डीमिचेली का दावा है कि 2013 में ट्विटर के फर्जी फॉलोअर चार से 36 करोड़ डॉलर का कारोबार प्रभावित कर सकते हैं. इसी तरह फेसबुक की गतिविधियों से 20 करोड़ डॉलर प्रभावित हो सकता है.
यही वजह है कि कई कंपनियां अपनी टीम के साथ फर्जी क्लिक की खरीद बिक्री के धंधे में लगी हैं. इन पर लगाम कसने वाले जब भी एक तरीके को नाकाम करते हैं, कोई दूसरा तरीका उभर जाता है. यूट्यूब ने कई ऐसे वीडियो को हटा दिया है, जिन पर फर्जी तरीके से बहुत ज्यादा व्यू दिखाया गया था. यूट्यूब का मालिक यानी गूगल भी उन लोगों से निपटने की कोशिश कर रहा है, जो फर्जी क्लिक के धंधों में लगे हैं. फेसबुक की ताजा तिमाही रिपोर्ट में कहा गया है कि 1.18 अरब यूजर में से 1.41 करोड़ फर्जी हैं.
ट्विटर के जिम प्रोसर का कहना है, "आखिर में, उनके अकाउंट सस्पेंड कर दिए जाते हैं. और इसकी वजह से लोग फॉलोअर का नुकसान झेलते हैं." लिंक्डइन के प्रवक्ता डो मैडे का कहना है कि कनेक्शन 'खरीदने' से सदस्य के अनुभव वाला खाना कमजोर होता है. इससे समझौते का उल्लंघन भी होता है और खाता बंद किया जा सकता है. गूगल की प्रवक्ता आंद्रेया फाविले कहती हैं कि गूगल और यूट्यूब "उन खराब एक्टरों के खिलाफ कार्रवाई करता है, जो उनके सिस्टम को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं."
ढाका में सोशल मीडिया का प्रमोशन करने वाली कंपनी यूनीक आईटी वर्ल्ड के प्रमुख शैफुल इस्लाम का कहना है कि वह अपने कर्मचारियों को पैसे देते हैं ताकि वे उनके ग्राहकों के सोशल मीडिया पेज पर क्लिक करते रहें. इससे फेसबुक, गूगल और दूसरी कंपनियों को उन्हें पकड़ने में दिक्कत होती है. इस्लाम कहते हैं, "वे अकाउंट फर्जी नहीं हैं, असली हैं." हाल में फेसबुक से जुड़े सर्वे में पता चला कि कई अंतरराष्ट्रीय सितारों के सबसे ज्यादा लाइक ढाका से आते हैं. मिसाल के तौर पर अर्जेंटीना के स्टार फुटबॉलर लियोनेल मेसी. हाल ही में अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने कहा है कि इंस्पेक्टर जनरल की रिपोर्ट के बाद वह लाइक खरीदना बंद कर देगा. चार लाख लाइक वाला विदेश मंत्रालय का पेज सबसे ज्यादा लोकप्रिय मिस्र की राजधानी काहिरा में है और इसके लिए मंत्रालय ने सवा छह लाख डॉलर खर्च किए हैं.
एक मामला तो ऐसा भी है, जब 10,000 लाइक वाला पेज बढ़ कर 25 लाख तक पहुंच गया. मिसाल देखिए, बर्गर किंग सबसे ज्यादा लोकप्रिय पाकिस्तान के शहर कराची में है. दुनिया भर में कई ऐसी कंपनियां बन गई हैं, जो लोगों से पैसे लेकर उनके पेज के क्लिक बढ़ा रही हैं. उनके रेट भी तय हैं. इंस्टाग्राम इंजन 1000 फॉलोअर 12 डॉलर में बेचता है. ऑथेंटिकहिट्स 1000 साउंडक्लाउडप्ले सिर्फ नौ डॉलर में देता है. वीसेललाइक्स डॉट कॉम के प्रमुख का कहना है कि यह अच्छा धंधा है, "कारोबारी फेसबुक लाइक खरीदते हैं क्योंकि उन्हें इस बात का डर है कि अगर लोग उनके फेसबुक पेज पर जाएंगे और वहां सिर्फ 12 या 15 लाइक देखेंगे, तो उनका बिजनेस प्रभावित होगा. उनके ग्राहक हड़क सकते हैं."
इंडोनेशिया में इस तरह का कारोबार खूब फल फूल रहा है, जहां के लोग सोशल मीडिया को लेकर जुनूनी बताए जाते हैं. 40 साल के अली हनाफिया सिर्फ 10 डॉलर लेकर 1000 ट्विटर फॉलोअर मुहैया कराते हैं. और अगर सौदा 10 लाख फॉलोअर का करना है, तो 600 डॉलर लगेंगे. उनके पास अपना सर्वर है और हर इंटरनेट प्रोटोकॉल एड्रेस के लिए हर महीने एक डॉलर देते हैं. इसकी मदद से वह हजारों सोशल मीडिया अकाउंट चलाते हैं. उनका कहना है कि इन अकाउंटों से "हम कई फर्जी फॉलोअर तैयार कर सकते हैं." जकार्ता के एक रेस्त्रां में बैठे हनाफिया कहते हैं, "आज हम बड़े प्रतिद्वंद्वी बाजार में रह रहे हैं और प्रतियोगिता के लिए हमें कुछ खास ट्रिक अपनाने पड़ते हैं."
आभासी दुनिया के इस फर्जी बाजार ने एक और रोजगार को बढ़ावा दिया हैः ऑडिटर. लंदन में स्टेटस पीपल नाम की कंपनी उन लोगों को ब्लॉक करने में मदद करती है, जो फर्जी हैं. संस्थापक रॉबर्ट वॉलर कहते हैं, "हमारे पास बहुत से ऐसे लोग हैं, जिन्होंने फर्जी लाइक खरीदे हैं. बाद में उन्हें लगा कि यह फिजूल आइडिया है और अब वे उनसे निजात पाना चाहते हैं."
अमेरिकी मार्केटिंग में लगे डेविड बुर्श का कहना है कि फर्जीबाड़े से क्लिक खरीदना एक खराब सौदा है और अगर विज्ञापन कंपनियों को इस बात का पता चल जाए, तो वे उनके लिए इश्तिहार नहीं करेंगे.....'' (साभार जर्मन समाचार से)

गूगल से चुनाव आयोग के करार पर भाजपा, कांग्रेस चिंतित

अगले आम चुनावों से पहले मतदाताओं की सुविधा के लिए चुनाव आयोग द्वारा गूगल से करार करने के प्रस्ताव पर चिंता जताते हुए कांग्रेस और भाजपा ने कहा कि इस तरह का फैसला लेने से पहले सभी पक्षों से सलाह मशविरा होना चाहिए।
सूत्रों ने कहा कि कांग्रेस के विधि प्रकोष्ठ ने मुख्य चुनाव आयुक्त को पत्र लिखकर प्रस्तावित करार पर चिंता जतायी और उम्मीद जताई है कि इसका चुनाव की प्रक्रिया और राष्ट्रीय सुरक्षा पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
कांग्रेस के विधि और मानवाधिकार विभाग के प्रभारी एआईसीसी सचिव के सी मित्तल ने मुख्य चुनाव आयुक्त को लिखे पत्र में कहा, ‘यह बहुत संवेदनशील मुद्दा लगता है। ऐसा लगता है कि सभी पक्षों से परामर्श किये बिना यह किया गया है।’ चुनाव आयोग के प्रस्तावित करार के बारे में पूछे जाने पर भाजपा ने भी चिंता जताई और कहा कि चुनाव आयोग द्वारा सर्वदलीय बैठक में इस मुद्दे पर चर्चा हो सकती है।
भाजपा उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा, ‘हमें चुनाव आयोग की मंशा पर कोई संदेह नहीं है लेकिन पहले मामले पर सर्वदलीय बैठक में सभी पक्षों से बात की जानी चाहिए थी जिसके बाद अंतिम निर्णय लेना चाहिए। इसमें कुछ सुरक्षा संबंधी चिंता पैदा होती है।’ कुछ साइबर सुरक्षा विशेषज्ञों ने भी इस करार पर चिंता जताई है। विशेषज्ञों के समूह ने चुनाव आयोग को पत्र लिखा है।
ये चिंताएं ऐसे समय में उठाई गयी हैं जब भारतीयों की अन्य महत्वपूर्ण जानकारियों को अमेरिका के साथ साझा किये जाने की खबरें आयी हैं । खासतौर पर एडवर्ड स्नोडेन द्वारा खुलासा किया गया है कि अमेरिकी एजेन्सियों द्वारा व्यापक स्तर पर खुफिया जानकारी एकत्रित की गयी है । विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि भारत भी सॉफ्टवेयर के मामले में दिग्गज है लेकिन चुनाव आयोग ने भारतीय कंपनियों के बजाय अमेरिकी कंपनी से हाथ मिलाने का फैसला किया।
चुनाव आयोग ने अमेरिकी कंपनी गूगल के अनुरोध पर ऑनलाइन मतदाता पंजीकरण और वोटर कार्ड नंबर तथा मतदान केंद्रों के बारे में अहम जानकारी उपलब्ध कराने के लिए करार करने का प्रस्ताव रखा है।

गूगल की सबसे बड़ी गलती

बरसों तक इंटरनेट की दुनिया पर राज करने वाली गूगल कंपनी ने माना है कि सोशल नेटवर्किंग साइटों को नजरअंदाज करना उसकी सबसे बड़ी गलती रही. ऐसी गलती, जिसकी भरपाई अब नहीं की जा सकती है.
 सर्च इंजन के तौर पर अब भी दुनिया की सबसे बड़ी इंटरनेट कंपनी गूगल के पूर्व सीईओ और संस्थापक एरिक श्मिट ने ब्लूमबर्ग के साथ इंटरव्यू में कहा, "गूगल में, मैंने जो सबसे बड़ी गलती की, वह यह कि सोशल नेटवर्किंग साइटों की उभार और ताकत का सही अंदाजा नहीं लगा पाया." 2001 से 2011 तक कंपनी के सीईओ रहे श्मिट ने कहा कि उनकी कंपनी ऐसी गलती दोबारा नहीं कर सकती है.
गूगल ने सोशल मीडिया के शीर्ष पर पहुंचने के साथ इसमें प्रवेश की बहुत कोशिश की लेकिन फेसबुक और ट्विटर जैसी कंपनियां बहुत आगे निकल चुकी थीं. श्मिट का कहना है, "हमने अपने बचाव में बहुत कुछ करने की कोशिश की लेकिन हम खुद उस इलाके में हो सकते थे." सच्चाई तो यह है कि फेसबुक का जब जन्म भी नहीं हुआ था, तो गूगल ने ऑर्कुट के तौर पर सोशल मीडिया चलाया था, जो भारत और ब्राजील के अलावा कहीं और नहीं चल पाया. इसके बाद गूगल का बज भी फेल हो गया और अब कंपनी ने अपना पूरा ध्यान गूगल+ पर लगाया है लेकिन उसकी कामयाबी भी सीमित है.
 गूगल ने पिछले दशक में इंटरनेट की दुनिया पर राज किया था और उसकी लोकप्रियता का यह आलम था कि गूगल को अंग्रेजी भाषा में क्रिया मान लिया गया और उसे शब्दकोषों में जगह मिल गई. एलेक्सा डॉट कॉम के मुताबिक अब भी वह पहले नंबर की वेबसाइट बनी हुई है, जबकि फेसबुक दूसरे नंबर पर है. लेकिन कभी कभी फेसबुक उससे पहला नंबर छीन लेता है.
भारतीय चुनाव में मदद
इस बीच गूगल ने भारत को आने वाले आम चुनाव में मदद का फैसला किया है. भारतीय अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक भारतीय चुनाव आयोग के साथ उसका समझौता हो गया है, जिसके तहत वह ऑनलाइन वोटरों के रजिस्ट्रेशन में मदद करेगा. अगले छह महीने तक गूगल आयोग को अपने संसाधन मुहैया कराएगा. इससे वोटर इंटरनेट पर ही पता लगा पाएंगे कि उनका नाम किस मतदान केंद्र में शामिल है और वे वहां पहुंचने के लिए गूगल मैप की सहायता भी ले सकेंगे.
रिपोर्ट में कहा गया है कि आखिरी तैयारियां की जा चुकी हैं और जून 2014 तक आयोग को गूगल की मदद मिलती रहेगी. इस काम में करीब 30 लाख रुपये की लागत आएगी, जो गूगल नहीं लेगा. वह इसे अपने कॉरपोरेट सामाजिक दायित्व के बजट से खर्च करेगा. वह इस तरह की सेवा दुनिया भर के 100 से ज्यादा देशों में दे रहा है.

सिगरेट होगी इतनी महंगी कि छूट ही जाए


सिगरेट पीने वाले मानें या न मानें, कम से कम वैज्ञानिक तो यही मानते हैं कि अगर सिगरेट पर खूब टैक्स लगा दें तो लोगों की धूम्रपान की आदत तो छूटेगी ही, करोड़ों जानें भी बचेंगी. अगर तंबाकू पर टैक्स तिगुना कर दिया जाए तो इससे दुनिया भर में सिगरेट की खपत में एक तिहाई की कमी आएगी. शोधकर्ताओं का कहना है कि ऐसा करने से इस सदी में करीब 20 करोड़ लोगों को फेफड़ों के कैंसर, दिल की बीमारी और कई अन्य जानलेवा बीमारियों से होने वाली असमय मृत्यु रोकी जा सकेगी. न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित एक रिव्यू में कैंसर रिसर्च यूके (सीआरयूके) के वैज्ञानिकों ने कहा है कि अगर हर सिगरेट पर टैक्स को बढ़ा कर बहुत महंगा कर दिया जाए तो इससे बहुत सारे लोग सिगरेट पीना ही छोड़ देंगें क्योंकि उनके पास सस्ते सिगरेट का कोई विकल्प ही नहीं होगा. और तो और जिन जवान लोगों ने सिगरेट पीना शुरू नहीं किया है वे धूम्रपान की आदत के शिकार होने से बच जाएंगे.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, हर साल तंबाकू के सेवन से करीब 60 लाख लोग अपनी जान से हाथ धो देते हैं. अगर धूम्रपान को रोकने के लिए कुछ नहीं किया गया तो 2030 तक हर साल मरने वालों की तादात 80 लाख के भी ऊपर चली जाएगी. इस स्टडी का नेतृत्व करने वाले सीआरयूके के महामारी विज्ञानी रिचर्ड पेटो का मानना है कि तंबाकू पर टैक्स बढ़ाना गरीब और मध्यवर्गीय देशों पर खासतौर पर असर डालेगा क्योंकि वहां मिलने वाली सबसे सस्ती सिगरेट हर कोई खरीद सकता है. यह जानकारी इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण है कि धूम्रपान करने वाले दुनिया भर के 130 करोड़ लोगों में से ज्यादातर गरीब देशों में रहते हैं. ऐसे कई देशों में सरकारों ने अभी धुआं मुक्ति के कानून लागू नहीं किए हैं.
तंबाकू को महंगा करने का फायदा अमीर देशों को भी होगा. जैसा कि फ्रांस में देखा गया जहां टैक्स को मुद्रा स्फीति की दर से ऊपर रखने के कारण 1990 से 2005 के बीच सिगरेट की खपत आधी हो गई. पेट्रो कहते हैं कि, "जीवन में सिर्फ दो ही चीजें निश्चित हैं और वो हैं मौत और टैक्स. हम चाहते हैं कि तंबाकू पर टैक्स ज्यादा हो और उससे मौतें कम."
धूम्रपान करने वाले लोगों का जीवन 10 साल तक छोटा हो जाता है. अगर वे 40 साल की उम्र से पहले यह आदत छोड़ दें तो इसे न छोड़ने वालों के मुकाबले 90 फीसदी से भी ज्यादा स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से बच जाएंगे. वहीं अगर वे 30 साल की उम्र से पहले धूम्रपान छोड़ सकें तो तंबाकू की वजह से होने वाली 97 फीसदी दिक्कतें उनके पास नहीं फटकेंगीं. 2013 में संयुक्त राष्ट्र महासभा और डब्ल्यूएचओ की विश्व स्वास्थ्य सभा में दुनिया भर की सरकारों ने कैंसर और अन्य गंभीर बीमारियों से होने वाली असमय मौतों को कम करने के प्रयास करने का निर्णय लिया है. सभी देशों ने धूम्रपान में 2015 तक एक तिहाई कमी लाने का भी निश्चय किया है.
अमीर सरकारें देंगी बेहतर सुविधाएं
सीआरयूके के विश्लेषण में पता चला है कि अगर अगले दशक तक टैक्स बढ़ाकर सिगरेट की कीमत को दोगुना किया जा सका तो दुनियाभर में इसकी खपत को एक तिहाई तक कम किया जा सकता है. साथ ही सरकारों को तंबाकू से आने वाला वार्षिक राजस्व में भी करीब एक तिहाई की बढ़ोत्तरी हो सकती है.
देशों का कुल राजस्व अभी के 300 अरब डॉलर से बढ़ कर 400 अरब डॉलर हो जाएगा जिसका इस्तेमाल सारी आबादी को स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने के लिए किया जा सकता है. इस समय अंतरराष्ट्रीय तंबाकू कारोबारी हर साल करीब 50 अरब डॉलर का मुनाफा कमा रहे हैं. पेट्रो कहते हैं कि तंबाकू की वजह से होने वाली हर मौत से होने वाले कुल नुकसान में से करीब 10,000 डॉलर इन कारोबारियों के मुनाफे का हिस्सा बनता है.
इस स्टडी में तंबाकू के असर के बारे में दुनिया भर में किए गए करीब 63 शोधपत्रों का अध्ययन किया गया जिससे यह बात साफ निकल कर आई कि तंबाकू पर लगा टैक्स "एक बहुत जोरदार दबाव" बना सकता है. सीआरयूके के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हरपाल कुमार कहते हैं, "दुनियाभर में 35 साल से कम उम्र के करीब 50 करोड़ बच्चे और जवान या तो धूम्रपान शुरू कर चुके हैं या जल्दी ही जीवन भर के लिए इसकी चपेट में आ चुके होंगे. इसलिए सरकारों को जल्दी से जल्दी कोई रास्ता निकालना होगा जिससे नए लोगों को सिगरेट शुरू करने से रोका जा सके और जो धूम्रपान करते हैं उनकी यह लत छुड़ाई जा सके."

पत्रकारिता में महिलाओं का भविष्य उज्ज्वल

रवि एम. खन्ना
आप अगर आज भारत में न्यूज चैनलों, अखबारों या मैगजींस को देखें तो आप बहुत सी महिलाओं को एंकर, संपादक और पत्रकार के तौर पर पाएंगे। इसे देखकर आप ऐसी धारणा बना सकते हैं कि भारत में महिलाओं की स्थिति जो भी हो, लेकिन पत्रकारिता में उन्होंने काफी नाम कमाया है। लेकिन सच्चाई ये नहीं है, महिलाएं आज भी बदलाव के एक सिरे पर हैं और उन्हें लंबा सफर तय करना है।
 हाल ही में आई वरिष्ठ पत्रकार आर. अखिलेश्वरी की किताब ‘वुमन जर्नलिस्ट इन इंडिया, स्विमिंग अगेंस्ट द टाइड’ में लेखक ने भारत में महिला पत्रकारों की स्थिति की तुलना दूसरे देशों से की है। वह बताती हैं कि किस तरह उन्होंने एक बेहतर वेतन वाली नौकरी की जगह कम सैलरी वाली अखबार की नौकरी चुनी। तीन साल बाद, जब वह हैदराबाद पहुंचीं और नौकरी तलाशने की कोशिश की तो उन्होंने पाया कि तीन साल का अनुभव और दो अवॉर्ड भी उन्हें नौकरी नहीं दिला पाए, क्योंकि सभी अखबारों और न्यूज एजेंसियों के पास उस वक्त एक महिला रिपोर्टर थी, और दूसरी को बोझ माना जाता था। हालांकि, अपने दृढ़ निश्चय के चलते अखिलेश्वरी को आठ साल बाद नौकरी हासिल हुई। वह आगे चलकर विदेश संवाददाता बनीं और उन्होंने रूस, चीन, दक्षिण अफ्रीका, यूरोप, मिडिल ईस्ट और दक्षिणपूर्व एशिया से रिपोर्टिंग की।
 पत्रकारिता एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें भारतीय महिलाओं ने बीते कुछ दशकों में काफी प्रगति की है। महिला पत्रकारों ने दंगे, युद्ध और प्राकृतिक आपदाओं को कवर किया है। वह कई न्यूज चैनलों का चेहरा बनी हैं और उन्होंने क्रिकेट जैसे खेल की रिपोर्टिंग भी की है जो कि लंबे समय तक पुरुषों के वर्चस्व वाला क्षेत्र रहा है। हालांकि, अखिलेश्वरी कुछ दिलचस्प बिंदुओं पर चर्चा करती हैं, जैसे कि महिला पत्रकारों को दिए जाने वाले हल्के-फुल्के काम और कार्यस्थल पर महिला पत्रकारों के उत्पीड़न का संवेदनशील मसला।
 किताब में इस बात पर भी चर्चा की गई है कि महिलाएं न्यूज कवरेज को नया दृष्टिकोण प्रदान कर सकती हैं ; हो सकता है कि यह बेहतर न हो, लेकिन अलग जरूर होगा। वह किन विषयों को कवर करना चाहती हैं या फिर किस तरह से स्टोरी बताना चाहती हैं, इसे लेकर उनकी अलग राय हो सकती है। कई संस्कृतियों में तो उन्हें पुरुष सहकर्मियों के मुकाबले ज्यादा सहूलियत होती है। मसलन, मुस्लिम देशों में महिला पत्रकार महिलाओं का इंटरव्यू कर सकती हैं, लेकिन पुरुष नहीं।
 अखिलेश्वरी की ये महिला पत्रकारों के अपने पुरुष सहकर्मियों के समकक्ष आने की कहानी मुझे जानी-मानी अमेरिकी पत्रकार हेलेन थॉमस की याद दिलाती है। थॉमस पिछले साल गुजर गईं। उनका शानदार करियर संघर्षों भरा था क्योंकि वह महिला थीं। हेलेन एकमात्र ऐसी पत्रकार थीं जिनकी वाइट हाउस ब्रीफिंग रूम में अपनी फ्रंट सीट थी। उन्हें वाइट हाउस प्रेस की फर्स्ट लेडी के तौर पर जाना जाता था। हेलेन ने 50 साल से ज्यादा के करियर में 10 अमेरिकी राष्ट्रपतियों को कवर किया। उन्होंने करियर की शुरुआत वॉशिंगटन डेली न्यूज से कॉपी गर्ल के रूप में की। जल्द ही वह रिपोर्टर बन गईं। लेकिन उनके करियर की असल शुरुआत 1943 में हुई जब हेलेन ने युनाइटेड प्रेस (यूपी) जॉइन किया और स्थानीय व महिलाओं से जुड़ी खबरें कवर करना शुरू किया।
 हेलेन को पहला बड़ा अवसर 1960 में मिला, जब उन्होंने युनाइटेड प्रेस इंटरनैशनल के लिए राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी और वाइट हाउस की रोजाना होने वाली प्रेस ब्रीफिंग्स को कवर करना शुरू किया। महज दो साल बाद वह केनेडी को इस बात पर राजी कराने में कामयाब हो गईं कि वाइट हाउस संवाददाताओं और फोटोग्राफरों के लिए होने वाले सालाना डिनर में महिलाओं को भी शामिल होने की इजाजत दी जानी चाहिए। थॉमस 1970 में पहली महिला चीफ वाइट हाउस कॉरेस्पॉन्डेंट बनीं। वह प्रिंट मीडिया से एकमात्र ऐसी महिला पत्रकार थीं जो राष्ट्रपति निक्सन के ऐतिहासिक चीन दौरे (1972) पर उनके साथ थीं।
 पिछले साल उनकी मौत पर राष्ट्रपति ओबामा ने कहा, ‘हेलेन सही मायने में नया रास्ता तैयार करने वाली महिला थीं, उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में महिलाओं के लिए दरवाजे खोले और उनकी रहा में आने वाले अवरोधों को हटाया। उन्होंने राष्ट्रपति निक्सन से लेकर हर वाइट हाउस को कवर किया, और इस दौरान वह राष्ट्रपतियों को - जिसमें मैं भी शामिल हूं - सतर्क रखने के मामले में कभी नहीं चूकीं। उन्हें वाइट हाउस प्रेस कॉरेपॉन्डेंट्स का अगुवा बनाने वाली वजह सिर्फ लंबा-चौड़ा करियर नहीं थी, बल्कि यह विश्वास था कि लोकतंत्र तभी बेहतर ढंग से काम करता है जब हम कठिन सवाल पूछते हैं और अपने नेताओं की जवाबदेही तय करते हैं।’
 मैंने थॉमस की कहानी की चर्चा दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र और सबसे बड़े लोकतंत्र, यानी भारत में महिला पत्रकारों की स्थिति की तुलना के लिए की। इस तुलना से मुझे भारत में महिला पत्रकारों को लेकर उम्मीद बंधती है क्योंकि जो हेलेन थॉमस ने हासिल किया वो अमेरिका को अंग्रेजों से आजादी हासिल होने के 200 साल बाद की घटना थी। लेकिन भारत की महिला पत्रकार महज 60 सालों में आधी दूरी तय कर चुकी हैं। आपको यकीन नहीं होगा कि 1959 में जाकर कोई महिला वॉशिंगटन डीसी स्थित नैशनल प्रेस क्लब की मेंबर बन सकी। हां, वह हेलेन थॉमस थीं।
 कहानी का सार ये है कि अगर भारत की महिला पत्रकार अपने पेशे को लेकर ईमानदार और समर्पित रहती हैं, और उनका फोकस लक्ष्य पर रहता है तो ऊंचाइयों पर पहुंचने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा, हो सकता है कि वे अपने पुरुष सहकर्मियों से आगे निकल जाएं। शायद पुरुष पत्रकारों को ऐसा लगता है कि वे पहले ही सबकुछ हासिल कर चुके हैं, उनके लिए पत्रकारिता अब जज्बा नहीं, शायद एक अन्य पेशे की तरह है।

प्रसून की नजर अब कंपनी की ग्रोथ पर

साल 2013 मेकैन वर्ल्डग्रुप इंडिया और उसके एग्जिक्युटिव चेयरमैन व सीईओ प्रसून जोशी के लिए काफी अच्छा रहा। उसके साल की शुरुआत हुई बंगलुरू की मार्केटिंग सर्विसेज़ एजेंसी, एंड टू एंड मार्केटिंग सॉल्यूशंस के अधिग्रहण से।
प्रसून जोशी 2013 में गन (Gunn) रिपोर्ट का संपादन करने वाले पहले भारतीय बने। गन रिपोर्ट ऐडवरटाइजिंग में क्रिएटिव एक्सीलेंस की ग्लोबल इंडेक्स है। इसके अलावा उन्हें‘चटगांव’ फिल्म के लिए नैशनल अवॉर्ड मिला। यह जोशी का दूसरा नैशनल अवॉर्ड है जो कि उन्हें ‘बोलो ना’ गीत के लिरिक्स के लिए दिया गया।
इतना ही नहीं, 2013 मेकैन वर्ल्डग्रुप इंडिया के लिए खेलों के लिहाज से भी अहम रहा। उसने स्टार स्पोर्ट्स, मुंबई इंडियंस, चैंपियंस लीग, इंडियन हॉकी लीग और इंडियन बैडमिंटन लीग के साथ काम किया।
जोशी का मानना है कि 2014 अनिश्चितताओं का साल होगा। इस साल क्लाइंट्स इंतजार करो और देखो की रणनीति अपना सकते हैं। उन्होंने कहा, ‘आधा साल चुनावों में चला जाएगा, लोग आकलन और अनुमान लगाते रहेंगे। जहां तक राजनीति का सवाल है तो ये साल काफी शोरगुल भरा और व्यस्त रहने वाला है। साल के दूसरे हिस्से में कुछ स्थिरता दिखाई देने की उम्मीद है। चुनावी साल आखिरकार चुनावी साल होता है। हमें मजबूत रहना होगा। मेकैन इस स्थिति से निपटने के लिए तैयार है। मुझे उम्मीद है कि साल के दूसरे हिस्से में बेहतर ग्रोथ देखने को मिलेगी।’
2013 में ऐडवरटाइजिंग बिरादरी जिन मुद्दों से जूझी, उनमें से एक था – प्रोएक्टिव वर्क। जोशी का कहना है, ‘सभी एजेंसियां कुछ लोगों का समूह होती हैं। हमें एक-दूसरे से सीखने की जरूरत है। अवॉर्ड्स का मतलब खुद को और बेहतर बनाने से है ताकि आपको क्लाइंट्स मिल सकें। मैं कान को इसी नजरिये से देखता हूं और उसमें हिस्सा लेता हूं। अवॉर्ड्स एक ईको-सिस्टम का हिस्सा हैं, वे अपने आप में कोई छोर नहीं हैं, इस बात को समझने की जरूरत है।’
जोशी का मानना है कि ऐडवरटाइजिंग इंडस्ट्री में सेल्फ-चेक और रेग्यूलेशन का काफी अच्छा सिस्टम है। वह कहते हैं, ‘अगर आप अवॉर्ड्स का इस्तेमाल गलत कारणों के लिए करते हैं तो सिस्टम आपको बाहर कर देगा। अगर कोई चीज इंडस्ट्री के अस्तित्व को नुकसान पहुंचाती है तो वह अपने आप बाहर हो जाएगी।’

हाथ में झाड़ू, सिर पर टोपी

जयप्रकाश त्रिपाठी

आम आदमी इसलिए अरविंद केजरीवाल के पीछे नहीं भागा जा रहा कि उनसे बेहतर और कोई विकल्प नहीं है। इस तीखी प्रतिक्रिया की दो बड़ी वजहें हैं।
पहली : जनता को मौके-दर-मौके जगाने वाले आंदोलनों की पिछले कई दशकों से गुमशुदगी। चारो तरफ सन्नाटा। जो कुछ छिटपुट दिख भी जाता है, फिल्मी पर्दे पर या बौद्धिक जुगालियों में।
दूसरी : नेतानुमा चेहरों में छिपे समाज के अपराधी और माफिया, जो सिर्फ और सिर्फ पैसा जोड़ने के लिए विभिन्न पार्टियों का चोला ओढ़े पूरे मुल्क की आत्मा को मथ रहे हैं। जो कभी फिल्मों में देखे जाते थे, आज हर गली-मोहल्ले तक फैल गए हैं। आतंक इतने गहरे तक है कि 'नेता' शब्द से मन घिना जाता है। अकसर कहते सुना गया है कि 'नेता' है तो जरूर अपराधियों का सरगना होगा। ऐसी अनेक घटनाओं की जानकारियां आए दिन सूचना-माध्यमों तक पहुंचती रहती हैं लेकिन रसूखदारी की नकाब ओढ़े इन समाजविरोधियों के खिलाफ वहां भी कलम ठिठुर जाती है। जरायम दबदबे इस कदर सिर चढ़ कर बोलते हैं कि जांच एजेंसियां भी बच-बचाकर ही हाथ डालती हैं। अधिकारियों का बड़ा वर्ग इन्हें अंदर से पूरी तरह नापसंद करता है। पानी नाक से ऊपर आ गया है। ये काक्रोच सिर्फ सियासत में नहीं, जीवन के हर क्षेत्र पर छा चुके हैं...
महंगाई और भूख भी उतनी डरावनी नहीं, जितने कि इनके चेहरे...
इन्हीं हालात से आजिज आकर आज कोई भी व्यक्ति जब 'आम आदमी पार्टी' पर कोई चुभने वाली टिप्पणी करता है तो उसे लोग संदिग्ध नजरों से देखने लगते हैं। जिस चेहरे को टीवी स्क्रिन पर इंटरव्यू में अच्छी-अच्छी बातें करते दिखाया जाता है, जिन्हें बहसों में उनकी तरफदारी करते सुना जाता है, उनके घरों के आसपास का चक्कर लगा लीज‌िए, हकीकत पता चल जाती है कि सतह पर हालात कितने डरावने और असहनीय हैं। उनके बड़े से बड़े धतकर्म पर भी किसी की जुबान खोलने की हिम्मत नहीं है। पूरे देश का मतदाता इनसे आजिज आ चुका है। उसे राह नहीं सूझ रही है। फिलहाल वह 'आम आदमी पार्टी' को एक बार सियासत का बरगद इसलिए बनाते देखना चाहता है ताकि उसके नीचे सुस्ता कर आगे अपने और देश के भविष्य पर कुछ सोच सके।
ऐसा सोचने वालों में आम आदमी ही नहीं, विभिन्न वर्गों के वे भलेमानुस भी हैं जिन्होंने कभी समाज के लिए जीवन कुर्बान करने का सपना देखा था। उसे धर्म और जाति के नाम पर घृणा की राजनीति, फर्जी समाजवाद के नाम पर गुंडई की सौगात और पुश्तैनी पहचान की आड़ में विश्वशक्तियों की दलाली रत्ती भर हजम नहीं हो पाती है।
हालात कुछ तो बदले, और चाहे जो भी हो, इनके सिवाय.....
फिलहाल तो आम आदमी पार्टी के सिवाय और कोई नहीं, निस्संदेह।

जुगुरी गइल दाना भुजावै, फूट गइल खपड़ी, लगल गावै


काकी की कहावत-3

भाड़ फूट गया, पटाखे की तरह आवाज हुई, जुगुरी जोर-जोर से ताली बजा के टेर लेने लगी। भड़भूज समझ न पाए कि माजरा क्या है। 
आज कल सैफई में खूब कट रही है। रोज प्लेन उतर रही है, साइकिल फर्राटे भर रही है। आठ जनवरी को तो गजब का तापमान होगा, जब अभिषेक बच्चन, माधुरी दीक्षित, रणवीर कपूर, श्वेता तिवारी, सलमान खान समाजवादी रंगशाला को गुलजार करेंगे। 
बुजुर्ग कह गए हैं कि आपन हाथ, जगन्नाथ, खजाना आपुन बा, जहां चाहा लुटावा। माधुरी, सलमान के का मालूम कि पैसा जनता के टैक्स क बा....