Saturday 8 February 2014

जयप्रकाश त्रिपाठी



उड़ गई तीनो
एक-एक कर
पतंगें चली गई हों जैसे
अपने अपने हिस्से के आकाशों की ओर।
क्षितिज के इस पार
रह गया था मैं,
और कटी डोर जैसी
मां उनकी।

आकाश उतना बड़ा सा,
पतंगें ऊंचे
और ऊंचे उड़ती गई थीं,
उड़ती गईं निःशब्द,
चुपचाप उड़ते जाना था उन्हे।
भावविह्वल, नियतिवत
कहने भर के लिए
ऊंचे, और ऊंचे
किंतु अपने-अपने अतल में
अस्ताचल-सी
आधी-आधी दु‌नियाओं के
पीछे छिप जाते हुए।

छुटकी,
झटपट चढ़ जाती थी पिछवाड़े के
कलमी अमरूद पर,
कच्चे फल-किचोई समेत
नोच लेती थी गांछें।

मझली,
पीटी उषा जैसी
दौड़ती थी तीनो में सबसे तेज
ओझल हो जाती थी
दूर तक फैले खेतों के पार
या पोखर की ओर
कहीं।

बड़की,
न ढीठ थी, न गुमसुम
हवा चलने पर
जैसे हल्के-हल्के हिलती हैं
जामुन की पत्तियां
बस उतनी भर तेज-मद्धिम।

फिर न लौटीं पतंगें
अपनी डोर तक,
ले गये
तीनो को उनके-उनके
हिस्से के आकाश,
रह गया घर
बेघर-सा।

दिविक रमेश

बेटी ब्याही गई है,
गंगा नहा लिए हैं माता-पिता
पिता आश्वस्त हैं स्वर्ग के लिये
कमाया हॆ कन्यादान का पुण्य।
और बेटी?
पिता निहार रहे हैं, ललकते से
निहार रहे हैं वह कमरा जो बेटी का है कि था
निहार रहे हैं वह बिस्तर जो बेटी का है कि था
निहार रहे हैं वह कुर्सी, वह मेज़
वह अलमारी
जो बंद है
पर रखी हैं जिनमें किताबें बेटी की
और वह अलमारी भी
जो बंद है
पर रखे हैं कितने ही पुराने कपड़े बेटी के।
पिता निहार रहे हैं।
ऒर माँ निहार रही है पिता को।
जानती है पर टाल रही है
नहीं चाहती पूछना
कि क्यों निहार रहे हैं पिता।
कड़ा करना ही होगा जी
कहना ही होगा
कि अब धीरे धीरे
ले जानी चाहियें चीज़ें
घर अपने बेटी को
कर देना चाहिए कमरा खाली
कि काम आ सके।
पर जानती है माँ
कि कहना चाहिए उसे भी
धीरे-धीरे पिता को।
टाल रहे हैं पिता भी
जानते हुए भी
कि कमरा तो करना ही होगा खाली
बेटी को
पर टाल रहे हैं
टाल रहे हैं कुछ ऎसे प्रश्न
जो हों भले ही बिन आवाज़
पर उठते होंगे मन में
ब्याही बेटियों के।
सोचते हैं, कितनी भली होती हैं बेटियाँ
कि आँखों तक आए प्रश्नों को
खुद ही धो लेती हैं
ऒर वे भी असल में टाल रही होती हैं।
टाल रही होती हैं
इसलिए तो भली भी होती हैं।
सच में तो
टाल रहा होता है घर भर ही।
कितने डरे होते हैं सब
ऎसे प्रश्नों से भी
जिनके यूँ तय होते हैं उत्तर
जिन पर प्रश्न भी नहीं करता कोई।
माँ जानती है और पिता भी
कि ब्याह के बाद बेटी अब मेहमान होती है
अपने ही उस घर में
जिसमें पिता, माँ और भाई रहते हैं।
माँ जानती है कि उसी की तरह
बेटी भी शुरू-शरू में
पालतू गाय-सी
जाना चाहेगी
अब तक रह चुके अपने कमरे।
जानना चाहेगी
कहाँ गया उसका बिस्तर।
कहाँ गई उसकी जगह।
घर करते हुए हीले-हवाले
समझा देगा धीरे-धीरे
कि अब तुम भी मेहमान हो बेटी
कि बैठो बैठक में और फिर ज़रूरत हो
तो आराम करो किसी के भी कमरे में।
माँ जानती है, जानते पिता भी हैं
कि भली है बेटी, जो नहीं करेगी उजागर
और टाल देगी तमाम प्रश्नों को।
पर क्यों सोचते हैं पिता!
-

जयप्रकाश त्रिपाठी


अर्थ है या शब्द से प्रतिघात है,
भावनाओं पर कुठाराघात है,
क्या पता, किस हाल में जज्बात हैं,
आपके भी मन में कोई बात है।


आपकी हर सांस मैंने पढ़ लिया,
मंत्र-सा विश्वास मैंने पढ़ लिया,
रह गया कोई न मौसम अनपढ़ा
शब्दशः मधुमास मैंने पढ़ लिया।