Saturday 15 February 2014

जय प्रकाश त्रिपाठी

ठसाठस,
इतनी भीड़भाड़,
बाहर मेला लगा था,
लुटता रहा मैं
और कितना अजनबी हो गया
मेरे अंदर का चेहरा।
तेजाब-सी लबालब दर्द की शीशी
जैसे न कभी रही हो
इससे मेरी कभी कोई
जान-पहचान,
बोल-चाल, भेट-मुलाकात।

नोम चॉम्स्की

जहाँ तक मानव स्वतन्त्रता का प्रश्न है, यदि आप यह कल्पना कर बैठते हैं कि इसकी कोई आशा नही है तो इसका अर्थ हुआ कि आप यह आशवासन दे रहे हैं कि भविष्य में भी इसकी कोई उम्मीद नही है। किन्तु यदि आप यह मानते हैं कि स्वतन्त्रता हमारी मूल प्रवृति है, कि चीज़ों को बदलने की सम्भावना है, कि आशा करना सम्भव है... तो हो सकता है कि आपकी आशा सही निकले, तथा हो सकता है कि एक बेहतर संसार की रचना की जा सके! फैसला आपका है!         

असहमति और प्रतिरोध

केवल सरकार के समर्थकों के लिए आज़ादी, केवल एक पार्टी के सदस्यों के लिए आज़ादी - चाहे वो संख्या में कितने ही क्यों न हों - आज़ादी कतई नहीं है। आज़ादी हमेशा असहमत व्यक्ति की आज़ादी है। 'न्याय' की कट्टरता के कारण नहीं, बल्कि इसलिए कि वो सब कुछ जो राजनैतिक आज़ादी में हमें कुछ सिखाने वाला है, हितकारी है, और निर्मलता लाने वाला है, इसी सारतत्व पर निर्भर करता है, और इसका सारा असर खत्म हो जाता है जैसे ही आज़ादी एक विशेषाधिकार बन जाती है।
रोज़ा लक्सेम्बर्ग

गुरूद्वारे की बेटी ..... / इमरोज़

मेरे बापू गुरूद्वारे के पाठी हैं
जब मैं पूछने योग्य हुई
बापू से पूछा , बापू लोग मुझे
गुरूद्वारे की बेटी क्यों कहते हैं ....?
पुत्तर मैंने तुझे पाला है
तुझे जन्म देने वाली माँ
तुझे कपड़े में लपेट कर मुँह -अँधेरे
गुरूद्वारे के हवाले कर
खुद पता नहीं कहाँ चली गई है
तेरे रोने की आवाज़ ने मुझे जगा दिया, बुला लिया
गुरूद्वारे में माथा टेक कर मैं
तुझे गले से लगाकर अपने कमरे में ले आया
मैंने जब भी पाठ किया कभी तुझे पास लिटाकर
कभी पास बिठाकर , कभी सुलाकर तो कभी जगाकर
पाठ करता आया हूँ ....

तुम बकरी के दूध से तो कभी गाँव की रोटियों से
तो कभी गुरूद्वारे का पाठ सुन-सुन बड़ी हुई हो ....
पर पता नहीं तुझे पाठ सुनकर कभी याद क्यों नहीं होता
हाँ ; बापू मुझे पता है पर समझ नहीं आता क्यों ...?
एक लड़का है जो दसवीं में पढता है
गुरूद्वारे में माथा टेक सिर्फ मुझे देख चला जाता है
कभी दो घड़ी बैठ जाता है तो कभी मुझे
एक फूल दे चुपचाप चला जाता है ....
अब मैं भी जवान हो गई हूँ और समझ भी जवान हो गई है
जब भी मैं पाठ सुनती हूँ जो कभी नहीं हुआ
वह होने लगता है ...
पाठ के शब्द नहीं सुनते सिर्फ अर्थ ही सुनाई देते हैं
कल से सोच रही हूँ
मुझे अर्थ सुनाई देते हैं ये कोई हैरानी वाली बात नहीं
मुझे शब्द नहीं सुनाई देते यह भी कोई हैरानी वाली बात नहीं
शब्दों ने अर्थ पहुंचा दिए बात पूरी हो गई
पहुँचने वाले के पास अर्थ पहुँच गए बात पूरी हो गई ...

आज गाँव की रोटी खा रही थी कि
वह लड़का दसवीं में पढता स्कूल जाता याद आ गया
अपने परांठे में से आधा परांठा रुमाल में लपेट कर
जाते-जाते रोज़ दे जाता ...
कोई है जिसके लिए मैं गुरूद्वारे की बेटी से ज्यादा
कुछ और भी थी ...

इक दिन गुरूद्वारे में माथा टेक वह मेरे पास आ बैठा
यह बताने के लिए कि उसने दसवीं पास कर ली है
बातें करते वक़्त उसने किसी बात में गाली दे दी
मैंने कहा , यह क्या बोले तुम ...?
वह समझ गया ...
मेरे इस 'क्या बोले' ने उसकी जुबान साफ-सुथरी कर दी
कालेज जाने से पहले मुझे खास तौर पर मिलने आया -
'तुम्हारे जैसा कोई टीचर नहीं देखा ..'
स्कूलों में थप्पड़ों से , धमकियों से , बुरी नियत .से पढाई हो रही है
निरादर से आदर नहीं पढ़ाया जा सकता
तुम जैसे टीचरों का युग कब आएगा
तुम उस युग की पहली टीचर बन जाना
युग हमेशा अकेले ही कोई बदलता है ....

वह कालेज से पढ़कर भी आ गया
सयाना भी हो गया और सुंदर भी
इक दिन मुझे मिलने आया
कुछ कहना चाहता था
मैं समझ गई वह क्या चाहता है ...

देखो मैं गुरूद्वारे में जन्मी -पली हूँ
अन्दर-बाहर से गुरुग्वारे की बेटी हूँ
और गुरूद्वारे की हूँ भी
यह तुम समझ सकते हो
मुझे अच्छा लगता है
 बड़ा अच्छा लगता है ...

किसी अच्छे घर की
खुबसूरत लड़की से विवाह कर लो
आजकल जो मुझे आता है
मैं गाँव कि औरतों को गुरूद्वारे में बुलाकर
पाठ में से सिर्फ अर्थ सुनने सीखा रही हूँ
तुम भी अपनी बीवी को गुरूद्वारे
मेरे पास भेज दिया करना
मैं उसे भी पाठ में से
सिर्फ अर्थ सुनना सीखा दूंगी ......
हाँ सिर्फ अर्थ ......!!


पेंटिंग के बीच की लड़की / इमरोज़ / हरकीरत हकीर

इक दिन
पेंटिंग के बीच की लड़की
रंगों से बाहर आकर
एक नज़्म के ख्यालों को
देखने लगी
देख देख उसे
अच्छा लगा ख्यालों को रंग देना भी
और ख्यालों से रंग लेना भी
ख्यालों ने देखती हुई लड़की से पूछा
तू बता पेंटिंग के रंगों में
क्या - क्या बनकर देखा
मैंने मुस्कराहट बनकर देखा
पर हँस कर नहीं
मैंने खड़े होकर देखा है रंगों में
पर चलकर नहीं...

जो दिल करे / इमरोज़ / हरकीरत हकीर

कोई भी मजहब
जो भी दिल करे करने की छूट नहीं देता
पर लोग जो भी दिल करे
करना चाहते हैं कर रहे हैं
और मजहब जो भी करे करने वालों को
रोक नहीं पा रहे रोक भी नहीं रहे
लोग जब भी दिल करता है
झूठ बोल लेते हैं
किसी को लूटने का दिल करे
लूट लेते हैं
किसी को रेप करने का दिल करे
गैंग रेप कर लेते हैं
और मिलकर क़त्ल भी कर लेते हैं
आसमान से रब्ब क्या देख सकता है
मजहब तो जमीन से भी न देख रहा है
न रोक रहा है
अपने लोगों को अपना निरादर
कर रहे लोगों को
कुछ समझ नहीं आ रहा किसी को
क्या लोग अभी मजहब
के काबिल नहीं या मजहब अभी लोगों के
काबिल नहीं...

ख़ाली जगह / अमृता प्रीतम

सिर्फ़ दो रजवाड़े थे –
एक ने मुझे और उसे
बेदखल किया था
और दूसरे को
हम दोनों ने त्याग दिया था।

नग्न आकाश के नीचे –
मैं कितनी ही देर –
तन के मेंह में भीगती रही,
वह कितनी ही देर
तन के मेंह में गलता रहा।

फिर बरसों के मोह को
एक ज़हर की तरह पीकर
उसने काँपते हाथों से
मेरा हाथ पकड़ा!
चल! क्षणों के सिर पर
एक छत डालें
वह देख! परे – सामने उधर
सच और झूठ के बीच –
कुछ ख़ाली जगह है...



जब मैं तेरा गीत लिखने लगी /अमृता प्रीतम

मेरे शहर ने जब तेरे कदम छुए
सितारों की मुठियाँ भरकर
आसमान ने निछावर कर दीं

दिल के घाट पर मेला जुड़ा,
ज्यूँ रातें रेशम की परियां
पाँत बाँध कर आई......

जब मैं तेरा गीत लिखने लगी
काग़ज़ के ऊपर उभर आईं
केसर की लकीरें

सूरज ने आज मेहंदी घोली
हथेलियों पर रंग गई,
हमारी दोनों की तकदीरें।



मेरा पता / अमृता प्रीतम

आज मैंने
अपने घर का नम्बर मिटाया है
और गली के माथे पर लगा
गली का नाम हटाया है
और हर सड़क की
दिशा का नाम पोंछ दिया है
पर अगर आपको मुझे ज़रूर पाना है
तो हर देश के, हर शहर की,
हर गली का द्वार खटखटाओ
यह एक शाप है, यह एक वर है
और जहाँ भी
आज़ाद रूह की झलक पड़े
— समझना वह मेरा घर है।




ऐ मेरे दोस्त! मेरे अजनबी! / अमृता प्रीतम

ऐ मेरे दोस्त! मेरे अजनबी!
एक बार अचानक – तू आया
वक़्त बिल्कुल हैरान
मेरे कमरे में खड़ा रह गया।
साँझ का सूरज अस्त होने को था,
पर न हो सका
और डूबने की क़िस्मत वो भूल-सा गया...

फिर आदि के नियम ने एक दुहाई दी,
और वक़्त ने उन खड़े क्षणों को देखा
और खिड़की के रास्ते बाहर को भागा...

वह बीते और ठहरे क्षणों की घटना –
अब तुझे भी बड़ा आश्चर्य होता है
और मुझे भी बड़ा आश्चर्य होता है
और शायद वक़्त को भी
फिर वह ग़लती गवारा नहीं

अब सूरज रोज वक़्त पर डूब जाता है
और अँधेरा रोज़ मेरी छाती में उतर आता है...

पर बीते और ठहरे क्षणों का एक सच है –
अब तू और मैं मानना चाहें या नहीं
यह और बात है।
पर उस दिन वक़्त
जब खिड़की के रास्ते बाहर को भागा
और उस दिन जो खून
उसके घुटनों से रिसा
वह खून मेरी खिड़की के नीचे
अभी तक जमा हुआ है...









लड़ने के लिए

मैं सिर्फ पढ़ने के लिए नहीं,
हूं-
लड़ने के लिए भी।

बिकते हुए
अपनो के हाथोहाथ
अपने अस्तित्व की आंखों में
आंखें डाल कर।

लड़ना है मुझे उनके लिए
जिनको बिना लड़े
न हुआ है
कभी कुछ भी हासिल।

उजले दांत की हंसी नहीं,
शब्दों का लहू हूं मैं
शब्दों का लहू
खौलता हुआ अपने समय के आरपार।

लड़ना मुझे उनके खिलाफ
जो बड़े आराम से
भगोस रहे हैं बाकी सबके
हिस्से का,
सपनो के लुटेरे,
सूचनाओं के तिजारती,
जंगल के बादशाह,
मनुष्यता के बहेलिये....

समय लड़ता आ रहा है
उनके खिलाफ,
मैं भी हो ली उनके साथ

मुर्दा नहीं हूं मैं
जिंदा होने के लिए
पढ़ना होगा मुझे बार-बार
उन्हें, आदमखोरों ने
मार कर फेक दिया जिन्हें
शब्दों के हाशिये पर,

आओ, मेरे कारवां के लोगों,
आओ, मेरे साथ,
आओ, अपने समय के सिपाहियों
अपनी कलम, अपने सपनों के साथ
मेरे साथ।

डरो नहीं, जागो, उठो
और आ जाओ मेरे साथ
चल पड़ने के लिए
लड़ने के लिए।

पीछे छोड़ आया हूं मैं भी
अपने सपने,
अपने लोग,
अपनी यादें,
अपना सुख,
आप के सपने / आपके सुख के लिए




सपने / पाश



हर किसी को नहीं आते
बेजान बारूद के कणों में
सोई आग के सपने नहीं आते
बदी के लिए उठी हुई
हथेली को पसीने नहीं आते
शेल्फ़ों में पड़े
इतिहास के ग्रंथो को सपने नहीं आते
सपनों के लिए लाज़मी है
झेलनेवाले दिलों का होना
नींद की नज़र होनी लाज़मी है
सपने इसलिए हर किसी को नहीं आते


23 मार्च / पाश

उसकी शहादत के बाद बाक़ी लोग
किसी दृश्य की तरह बचे
ताज़ा मुंदी पलकें देश में सिमटती जा रही झाँकी की
देश सारा बच रहा बाक़ी
उसके चले जाने के बाद
उसकी शहादत के बाद
अपने भीतर खुलती खिडकी में
लोगों की आवाज़ें जम गयीं
उसकी शहादत के बाद
देश की सबसे बड़ी पार्टी के लोगों ने
अपने चेहरे से आँसू नहीं, नाक पोंछी
गला साफ़ कर बोलने की
बोलते ही जाने की मशक की
उससे सम्बन्धित अपनी उस शहादत के बाद
लोगों के घरों में, उनके तकियों में छिपे हुए
कपड़े की महक की तरह बिखर गया
शहीद होने की घड़ी में वह अकेला था ईश्वर की तरह
लेकिन ईश्वर की तरह वह निस्तेज न था
---------
भगत सिंह ने पहली बार पंजाब को
जंगलीपन, पहलवानी व जहालत से
बुद्धिवाद की ओर मोड़ा था
जिस दिन फाँसी दी गई
उनकी कोठरी में लेनिन की किताब मिली
जिसका एक पन्ना मुड़ा हुआ था
पंजाब की जवानी को
उसके आख़िरी दिन से
इस मुड़े पन्ने से बढ़ना है आगे,
चलना है आगे।


उनके शब्द लहू के होते हैं / पाश

जिन्होंने उम्र भर तलवार का गीत गाया है
उनके शब्द लहू के होते हैं
लहू लोहे का होता है
जो मौत के किनारे जीते हैं
उनकी मौत से ज़िन्दगी का सफ़र शुरू होता है
जिनका लहू और पसीना मिटटी में गिर जाता है
वे मिट्टी में दब कर उग आते हैं


मेहनत की लूट / पाश

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
गद्दारी, लोभ की मुट्ठी
सबसे ख़तरनाक नहीं होती

बैठे बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी सी चुप्पी में जकड़े जाना बुरा तो है
पर सबसे ख़तरनाक नहीं होती

सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
ना होना तड़प का
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौट कर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना

सबसे खतरनाक वो आँखें होती है
जो सब कुछ देखती हुई भी जमी बर्फ होती है..
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्बत से चूमना भूल जाती है
जो चीज़ों से उठती अन्धेपन कि भाप पर ढुलक जाती है
जो रोज़मर्रा के क्रम को पीती हुई
एक लक्ष्यहीन दुहराव के उलटफेर में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमे आत्मा का सूरज डूब जाए
और उसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके ज़िस्म के पूरब में चुभ जाए



संविधान / पाश

संविधान
यह पुस्‍तक मर चुकी है
इसे मत पढ़ो
इसके लफ़्ज़ों में मौत की ठण्‍डक है
और एक-एक पन्‍ना
ज़िन्दगी के अन्तिम पल जैसा भयानक
यह पुस्‍तक जब बनी थी
तो मैं एक पशु था
सोया हुआ पशु
और जब मैं जागा
तो मेरे इन्सान बनने तक
ये पुस्‍तक मर चुकी थी
अब अगर इस पुस्‍तक को पढ़ोगे
तो पशु बन जाओगे
सोए हुए पशु।

तुम्हारी बातों से / बर्णाली भराली


तुम्हारी बातों की सीढी चढ़ते
हमको मिला शब्दों का इक गाँव
आसमान की चिड़िया
खेत की गाय-बकरी
तलब के कछुए और मछली और
हमारे घर के पिछवाड़े में लगे पेड़
सबने मानने से इंकार किया था
ऋतुओं का शासन
तुम्हारी बातों के नशे में
उसको मिला ओस भरा एक चौराहा
वीणा के तार की तरह झंकृत हो चुकी थी
ग्रीष्म में भी चाँदनी सी शीतल उसकी देह
सूखे पेड़ पर लटक रहा था रसदार फल
शायद वही है पेड़ ले कोटर की आत्मा
जिसकी खुशबू में टूट गयी थी शीत की नींद
तुम्हारी बातों के विराम चिह्न में आया था हेमंत
वह भूल गयी थी संकरे रास्ते का अंधकार
और दुःख भरी शाम की बातें
एक पुराणी ख़ुशबू धोने
उस दिन बारिश भी चली आई थी
बदल को छोड़ कर
देखो, तुम्हारी बातों की सीढी चढ़ते-चढ़ते
किस तरह बन गया शब्दों का एक गाँव।

एक शाम / बर्णाली भराली

उस दिन एक शाम
नाम ने पुकारा हमें

न हीं हरी है न हीं पीली
उस बीच में से एक रंग होकर
लटक रही थी, दिघली तालाब के
काई भरे पेड़ में

तन्हाई के घेरे में डूबी शाम को
पहचानने के लिए, मेरे पास नहीं थी
अलग एक शाम
जो पाप के आँसुओं में
गुंजन से भीगी है, रात की एक लम्बी सीटी

याद है न तुम्हें
शाम, तुम्हारे साथ आना नहीं चाहती थी
जब तुम ह्रदय को साथ लेकर
शहर की गली-गली घूम रहे थे
तब शाम को छोड़कर
नहीं आया था क्या
होटल की जूठी प्लेट और नैपकिन के साथ
एक जली हुई सिगरेट की तरह
क्यों छोड़ दिया था उसे
बेनाम यातना के बीच

सिर्फ़ एक बेआवाज शाम
आएगी लौट कर हमारे पीछे-पीछे
और हम विश्राम लेंगे उसकी छाँव तले...

रीढ़ / कुसुमाग्रज

"सर, मुझे पहचाना क्या?"
बारिश में कोई आ गया
कपड़े थे मुचड़े हुए और बाल सब भीगे हुए
पल को बैठा, फिर हँसा, और बोला ऊपर देखकर
"गंगा मैया आई थीं, मेहमान होकर
कुटिया में रह कर गईं!
माइके आई हुई लड़की की मानिन्द
चारों दीवारों पर नाची
खाली हाथ अब जाती कैसे?
खैर से, पत्नी बची है
दीवार चूरा हो गई, चूल्हा बुझा,
जो था, नहीं था, सब गया!
"’प्रसाद में पलकों के नीचे चार क़तरे रख गई है पानी के!
मेरी औरत और मैं, सर, लड़ रहे हैं
मिट्टी कीचड़ फेंक कर,
दीवार उठा कर आ रहा हूं!"
जेब की जानिब गया था हाथ, कि हँस कर उठा वो...
’न न’, न पैसे नहीं सर,
यूँ ही अकेला लग रहा था
घर तो टूटा, रीढ़ की हड्डी नहीं टूटी मेरी...
हाथ रखिए पीठ पर और इतना कहिए कि लड़ो... बस!"

नदी में ज्वार / काजी नज़रुल इस्लाम

नदी में ज्वार आया
पर तुम आए कहाँ
खिड़की दरवाज़ा खुला है
पर तुम दिखे कहाँ
पेड़ों की डालियों पर
मुझे देख कोयल कूके
पर आज भी तुम दिखे नही
आख़िर तुम हो कहाँ

सजी-धजी मंदिर जाऊँ
पूजा करूँ सजदा करूँ
कभी तो पसीजोगे तुम
गर दिख जाओ मुझे यहाँ
लोग मुझे देख हँसे
दीवानी लोग मुझे कहे
अश्रु के सैलाब से
भर गया ये जहाँ





 बिरोधी / काज़ी नज़रुल इस्लाम की कविता

बोलो,वीर !
बोलो, चिर उन्नत मम शीश !

मेरा शीश निहार देखो
झुका पड़ा है
शिखर हिमाद्री ।

बोलो, वीर
बोलो, महा विश्व
महा आकाश चीर
चंद्र-सूर्य-ग्रहों से आगे
धरती-पाताल-स्वर्ग भेद
ईश्वर का सिंहासन छेद
उठा हूँ मैं
मैं-धरती का एकमात्र
शाश्वत विस्मय ।
देखो मेरे नेत्रों में
रूद्र भगवान जले
जय का दिव्य टीका
ललाट पर चिर: स्थिर !

बोलो, वीर !
बोलो, चिर उन्नत मम शीश !

मैं दायित्वहीन, क्रूर, नृशंस
महाप्रलय का नटराज
मैं साईक्लोन, विध्वंस
मैं महाभय
मैं पृथ्वी का अभिशाप
मैं निर्दयी
सब कुछ तोड़ फोड़
मैं नहीं करता विलाप
मैं अनियम
उच्छ्रुन्खल
मैं कुचल चलता
नियम-क़ानून-श्रंखल
मैं नहीं मानता कोई प्रभुता
मैं टार्पेडो
मैं बारूदी विस्फोट
शीश बनकर उठा
मैं धूरजती
मैं अकाल वैशाख का
परम अंधड़
विद्रोही -
मैं विश्व विधात्री का विद्रोही पुत्र
नंग धड़ंग लम्भड़ !

बोलो, वीर !
बोलो, चिर उन्नत मम शीश !

मैं बवंडर, मैं तूफ़ान
मैं उजाड़ चलता
पथ के विषय तमाम
मैं नृत्य-पागल-छंद
अपने ताल पर नाचता
मैं मुक़्त जीवन-आनंद !
मैं हमीर, मैं छायानट, हिन्डोल
मैं चिर चंचल
उछल कूद
मैं नृत्योन्माद, हिलकोल !
मैं अपने मन की करता
नहीं मुझे कोई लज्जा
मैं शत्रु से करूँ आलिंगन
चाहे मृत्यु से लड़ूं पंजा !
मैं उन्मात मैं झंझा
मैं महामारी
धरित्री की बेचैनी
शासन का खौफ़,संहार
मैंप्रचंड
चिर अधीर !

बोलो, वीर !
बोलो, चिर उन्नत मम शीश !

मैं चिर दुरंत, दुर्मति
मैं दुर्गम
भर प्राणों का प्याला
पीता भरपूर
मद हरदम
मैं होमशिखा
मैं जमदग्नि
मैं यक्ष
पुरोहित
अग्नि
मैं लोकालय, मैं शमशान
मैं अवसान निशावसान
मैं इद्राणी पुत्र
हाथ में चाँद
ललाट पर सूर्य युगल
एक हाथ में स्नेह बंशी
दूजे में रण बिगुल
मैं कृष्ण कंठ
मंथन विष पीकर
मैं व्योमकेश
गंगोत्री का पागल पीर !

बोलो, वीर !
बोलो, चिर उन्नत मम शीश !

मैं सन्यासी, मैं सैनिक
मैं युवराज, वैरागी
मैं बेदविन, मैं चंगेज़
मैं बाग़ी
सलाम ठोकता केवल ख़ुदको
मैं वज्र
मैं ब्रह्मा का हुँकार
मैं इस्राफिल की तुरही
मैं पिनकपाणी का
डमरू त्रिशूल ओमकार
मैं धर्मराज का दंड
मैं चक्र, महाशंख
प्रणव नाद प्रचंड ।
मैं आगबबूले दुर्वासा का शिष्य
जलाकर रख दूँगा विश्व
मैं प्राण भरा उल्लास
मैं सृष्टि का शत्रु
मैं महा त्रास
मैं महाप्रलय का अग्रदूत
राहू का ग्रास
मैं कभी प्रशांत कभी अशांत
बावला स्वेच्छाचारी
मैं सूर्य के रक़्त में सिंची
एक नई चिंगारी !

मैं महासागर का गरज
मैं अपगामी, मैं अचरज
मैं बंधन मुक़्त कन्या-कुमारी
नयनों की चिंगारी
मैं सोलह वर्ष का युवक
प्रेमी, अविचारी
मैं ह्रदय में अटका हुआ
प्रेम रोग का हूक
मैं हर्ष असीम अनंत
विधवा
मैं वंध्या का दुःख
मैं विधि का ग्रास
मैं अभागे का
दीर्घश्वास
मैं वंचित, व्यथित, पथवासी
मैं निराश्रय पथिकों का सन्ताप
अपमानितों का परिताप
अस्वीकृत प्रेमी की उत्तेजना
मैं विधवा की जटिल वेदना ।
मैं अभिमानी
मैं चित् चुम्बन
मैं चिर-कुमारी कन्या के
थर-थर हाथों का
प्रथम स्पर्श
मैं झुके नयनों का खेल
कसे आलिंगन का हर्ष
मैं यौवन
चंचल नारी का प्रेम
चूड़ियों की खन-खन
मैं सनातन शिशु
नित्य किशोर
मैं तनाव
मैं यौवन से सहमी बाला
के आँचल का खींचाव ।
मैं उत्तर वायू-अनिल-शमक
उदास पूर्वी हवा
मैं पथिक कवि की गभीर रागिनी
मैं गीत, मैं दवा
मैं आग में जलता निरंतर अमित प्यास
मैं रूद्र रौद्र रवी
मैं घृणा, अविश्वास
मैं रेगिस्तान में झर-झर
झरता एक झरना
मैं श्यामल शांत धुंधला
एक सपना, मैं सपना !

मैं तीव्र आनंद में दौड़ रहा
ये क्या उन्माद !
मैं उन्माद !
मैंने जान लिया है ख़ुदको
आज खुल गए है सब बाँध !
मैं उत्थान, मैं पतन
मैं अचेतन में भी चेतन
मैं विश्व द्वार पर वैजयंती
मानव विजय केतन !
विजयोल्लास में ताली पीट
मेरा अश्व बुर्राक़
स्वर्ग मर्त रौंधता
नशे में धुत्त
मैं उसे हाँक
मैं वसुधा पर
उभरा आग्नेयगिरि
जंगल में फैलता दावानल
मैं पाताल-पतित पागल
अग्नि का दूत
मैं करलव, मैं कोलाहल
मैं दामिनी के पंख पर चढ़ उड़ता
प्रकृति का दंभ
मैं धसकती धरती के ह्रदय में
सहसा भूमिकम्प
मैं वासुकी का फण
मैं दूत ज़िब्राइल का
जलता अंजन
मैं विष
मैं अमृत
मैं समुद्र मंथन ।
मैं देव शिशु
मैं चंचल
मैं दांत से नोच डालता
विश्व माँ का अंचल
ऑर्फियस की बाँसुरी बजाता
ज्वर ग्रस्त संसार को मैं
बड़ी ममता से सुलाता
मैं श्याम की बंशी
नदी से उछल
छू लेता महाकाश
मेरे भय से धुमिल
स्वर्ग का निखिल प्रकाश
मैं बग़ावत का अखिल दूत
मैं उबकाई नरक का
प्राचीन भूत !

मैं प्रबल जलप्रलय
वन्या
कभी धरती को सींच
कभी उजाड़
मैं छीन लूँगा विष्णु के
वक्ष से
युगल कन्या !
मैं अन्याय
मैं उल्का
मैं शनि
मैं धूमकेतू में जलता
विषधर कालफणी ।
मैं छिन्नमस्ता चंडी
मैं सर्वनाश का दस्ता
मैं जहन्नुम की आग मैं बैठ
बच्चे सा हँसता ।
मैं विन्मय
मैं चिन्मय
मैं अजर-अमर-अक्षय
मैं अव्यय
मैं मानव-दानव-देवताओं का भय
में विश्व का चिर दुर्जय
जगदीश्वर ईश्वर
मैं पुरुषोत्तम सत्य
मैं रौंधता फिरता
स्वर्ग पाताल मर्त्य
अश्वत्थामा कृत्य
मैं नटराज का नृत्य
मैं उन्माद !
मैं उन्माद !
मैंने जान लिया है ख़ुदको
आज खुल गए है सब बाँध !

मैं परशुराम की कठोर कुठार
निःक्षत्रिय करूँगा विश्व
लाऊँगा शांति शांत उदार
मैं बलराम का हल
यज्ञकुंड में
होगा दाहक दृश्य !
मैं महा विद्रोही ! अक्लांत !
उस दिन होऊँगा शांत -
जब उत्पीड़ितों का क्रंदन शोक
आकाश वायू में नहीं गूँजेगा ।
जब अत्याचारी का खड्ग तुणीर
निरीह के रक़्त से नहीं रंजेगा ।
मैं विद्रोही-रण-क्लांत
मैं उस दिन होऊँगा शांत !

पर तबतक -
मैं विद्रोही भृगु बन
भगवान के वक्ष को भी
लातों से
देता रहूँगा दस्तक ।

तबतक -
मैं विद्रोही, वीर
पीकर जगत् का विष
बन विजय ध्वजा अभीक
विश्व रणभूमी के बीचोंबीच
खड़ा रहूँगा अकेला
चिर उन्नत शीश !!


रूपसिंह चंदेल का ब्लॉग    http://wwwrachanasamay.blogspot.in रचना समय

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सौरभ राय का जन्म झारखंड राज्य में 1989 को एक बंगाली परिवार में हुआ। बंगलौर से अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद सौरभ आजकल आजीविका के लिए 'ब्रोकेड' नामक कंपनी में कार्यरत हैं. अब तक इनके तीन कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं- 'अनभ्र रात्रि की अनुपमा', 'उत्तिष्ठ भारत' और 'यायावर'। सौरभ की कवितायेँ हिंदी की कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं - जिनमें हंस, वागर्थ, कृति ऒर, सृजन गाथा, पहली बार इत्यादि प्रमुख हैं। इसके अलावा हिन्दू, डीएनए सहित कई अंग्रेजी के पत्र पत्रिकाओं में इनके लेखन के बारे में छप चुका है।

 सौरभ राय की पांच कविताएं
भौतिकी
याद हैं वो दिन संदीपन
जब हम
रात भर जाग कर
हल करते थे
रेसनिक हेलिडे
एच सी वर्मा
इरोडोव ?

हम ढूंढते थे वो एक सूत्र
जिसमे उपलब्ध जानकारी डाल
हम सुलझा देना चाहते थे
अपनी भूख
पिता का पसीना
माँ की मेहनत
रोटी का संघर्ष
देश की गरीबी !

हम कभी
घर्षणहीन फर्श पर फिसलते
दो न्यूटन का बल आगे से लगता
कभी स्प्रिंग डाल कर
घंटों ऑक्सिलेट करते रहते
और पुली में लिपट कर
उछाल दिए जाते
प्रोजेक्टाइल बनाकर !

श्रोडिंगर के समीकरण
और हेसेनबर्ग की अनिश्चित्ता का
सही अर्थ
समझा था हमने |
सारे कणों को जोड़ने के बाद
अहसास हुआ था -
“अरे ! एक रोशनी तो छूट गयी !”
हमें ज्ञात हुआ था
इतना संघर्ष
हो सकता है बेकार
हमारे मेहनत का फल फूटेगा
महज़ तीन घंटे की
एक परीक्षा में |

पर हम योगी थे
हमने फिज़िक्स में मिलाया था
रियलपॉलिटिक !
हमने टकराते देखा था
पृथ्वी से बृहस्पति को |
हमने सिद्ध किया था
कि सूरज को फ़र्क नहीं पड़ता
चाँद रहे न रहे |

राह चलती गाड़ी को देख
उसकी सुडोलता से अधिक
हम चर्चा करते
रोलिंग फ़्रीक्शन की |
eiπ को हमने देखा था
उसके श्रृंगार के परे
हमने बहती नदी में
बर्नोली का सिद्धांत मिलाया था
हमने किसानों के हल में
टॉर्क लगाकर जोते थे खेत |

हम दो समय यात्री थे
बिना काँटों वाली घड़ी पहन
प्रकाश वर्षों की यात्रा
तय की थी हमने
‘उत्तर = तीन सेकंड’
लिखते हुए |

आज
वर्षों बाद
मेरी घड़ी में कांटें हैं
जो बहुत तेज़ दौड़ते हैं
जेब में फ़ोन
फ़ोन में पैसा
तुम्हारा नंबर है
पर तुमसे संपर्क नहीं है |
पेट में भूख नहीं
बदहज़मी है |
देश में गरीबी है |

सच कहूँ संदीपन
सूत्र तो मिला
समाधान नहीं ||


सिनेमा
सूरज की आँखें
टकराती हैं
कुरोसावा की आँखों से
सिगार के धुंए से
धीरे धीरे
भर जाते हैं
गोडार्ड के
चौबीस फ्रेम ।

हड्डी से स्पेसशिप में
बदल जाती है
क्यूब्रिक की दुनिया
बस एक जम्प कट की बदौलत
और चाँद की आँखों में
धंसी मलती है
मेलिएस की रॉकेट ।

इटली के ऑरचिर्ड में
कॉपोला के पिस्टल से
चलती है गोली
वाइल्ड वेस्ट के काउबॉय
लियॉन का घोड़ा
फांद जाता है
चलती हुई ट्रेन ।

बनारस की गलियों में
दौड़ता हुआ
नन्हा सत्यजीत राय
पहुँचता है
गंगा तट तक
माँ बुलाती है
चेहरा धोता हुआ
पाता है
चेहरा खाली
चेहरा जुड़ा हुआ
इन्ग्मार बर्गमन के
कटे फ्रेम से ।

फेलीनी उड़ता हुआ
अचानक
बंधा पता है
आसमान से
गिरता है जूता
चुपचाप हँसता है
चैपलिन
फीते निकाल
नूडल्स बनता
जूते संग खाता है ।

बूढ़ा वेलेस
तलाशता है
स्कॉर्सीज़ की टैक्सी में
रोज़बड का रहस्य ।

आइनस्टाइन का बच्चा
तेज़ी से
सीढ़ियों पर
लुढ़कता है ।
सीढ़ियाँ अचानक
घूमने लगती हैं
अपनी धुरी पर
नीचे मिलती है
हिचकॉक की
लाश !

एक समुराई
धुंधले से सूरज की तरफ
चलता जाता है ।
हलकी सी धूल उड़ती है ।
स्क्रीन पर
लिखा हुआ सा
उभरने लगता है -
‘ला फ़िन’
‘दास इंड’
‘दी एन्ड’

रील
घूमती रहती है ।


संतुलन
मेरे नगर में
मर रहे हैं पूर्वज
ख़त्म हो रही हैं स्मृतियाँ
अदृश्य सम्वाद !
किसी की नहीं याद -
हम ग़ुलाम अच्छे थे
या आज़ाद ?

बहुत ऊँचाई से गिरो
और लगातार गिरते रहो
तो उड़ने जैसा लगता है
एक अजीब सा
समन्वय है
डायनमिक इक्वीलिब्रियम !

अपने उत्त्थान की चमक में
ऊब रहे
या अपने अपने अंधकार को
इकट्ठी रोशनी बतलाकर
डूब रहे हैं हम ?

हमने खो दिये
वो शब्द
जिनमें अर्थ थे
ध्वनि, रस, गंध, रूप थे
शायद व्यर्थ थे ।
शब्द जिन्हें
कलम लिख न पाए
शब्द जो
सपने बुनते थे
हमने खोए चंद शब्द
और भरे अगिनत ग्रंथ
वो ग्रंथ
शायद सपनों से
डरते थे ।

थोड़े हम ऊंचे हुए
थोड़े पहाड़ उतर आए
पर पता नहीं
इस आरोहण में
हम चल रहे
या फिसल ?
हम दौड़ते रहे
और कहीं नहीं गए
बाँध टूटने
और घर डूबने के बीच
जैसे रुक सा गया हो
जीवन ।

यहाँ इस क्षण
न चीख़
न शांति
जैसे ठोकर के बाद का
संतुलन ।


भारतवर्ष
वो किस राह का भटका पथिक है ?
मेगस्थिनिस बन बैठा है
चन्द्रगुप्त के दरबार में
लिखता चुटकुले
दैनिक अखबार में |
सिन्कदर नहीं रहा
नहीं रहा विश्वविजयी बनने का ख़्वाब
चाणक्य का पैर
घांस में फंसता है
हंसता है महमूद गज़नी
घांस उखाड़कर घर उजाड़कर
घोड़ों को पछाड़कर
समुद्रगुप्त अश्वमेध में हिनहिनाता है
विक्रमादित्य फ़ा हाइन संग
बेताल पकड़ने जाता है |
वैदिक मंत्रो से गूँज उठा है आकाश
नींद नहीं आती है शूद्र को
नहीं जानता वो अग्नि को इंद्र को
उसे बारिश चाहिए
पेट की आग बुझाने को |
सच है-
कुछ भी तो नहीं बदला
पांच हज़ार वर्षों में !
वर्षा नहीं हुई इस साल
बिम्बिसार अस्सी हज़ार ग्रामिकों संग
सभा में बैठा है
पास बैठा है अजातशत्रु
पटना के गोलघर पर
कोसल की ओर नज़र गड़ाए |
कासी में मारे गए
कलिंग में मारे गए
एक लाख लोग
उतने ही तक्षशिला में
केवल अशोक लौटा है युद्ध से
केवल अशोक लड़ रहा था
सौ चूहे मार कर
बिल्ली लौटी है हज से
मेरा कुसूर क्या है ?-
चोर पूछता है जज से |
नालंदा में रोशनी है
ग़ौरी देख रहा है
मुह्हमद बिन बख्तियार खिलजी को
लूटते हुए नालंदा
क्लास बंक करके
ह्वेन सांग रो रहा है
सो रहा है महायान
जाग रहा है कुबलाई ख़ान |
पल्लव और चालुक्य लड़ रहें हैं
जीत रहा है चोल
मदुरै की संगम सभा में कवि
आंसू बहाता है
राजराज चोल लंका तट पर
वानर सेना संग नहाता है |
इब्न बतूता दौड़ा चला आ रहा है
पश्चिम से
मार्को पोलो दक्षिण से
उत्तर से नहीं आता कोई उत्तर
आता है जहाँगीर कश्मीर से
गुरु अर्जुन देव को
मौत के घात उतारकर |
नहीं रही
नहीं रही सभ्यता
सिन्धु – सताद्रू घाटी में
अमृतसर के स्वर्ण मंदिर से
चीखता है भिंडरावाले
गूँज रहा है इन्द्रप्रस्थ
सौराष्ट्र
इल्तुतमिश भाला लेकर आता है
मल्ल देश के आखिरी पड़ाव तक
चंगेज़ ख़ान की प्रतीक्षा में |
कोई नहीं रोकने आता
तैमूर लंग को |
बहुत लम्बी रात है
सोमनाथ के बरामदे में
कटा हुआ हाथ है |
लड़ रहें हैं राजपूत वीर
आपस में
रानियाँ सती होने को
चूल्हा जलाती हैं |
चमक रहा है ताजमहल
धुल रहा है मजदूरों का ख़ून
धुल रहा है
कन्नौज
मथुरा
कांगरा |
कृषि कर हटाकर
तुगलक रोता है-
“पानी की किल्लत है
झूठ है
झूठ है सब
केवल राम नाम सत् है”
वास्को डि गामा ढूंढ रहा है
कहाँ है ?
कहाँ है भारतवर्ष ?
इंजीनियर्स मैनिफेस्टो
हमने तो
खड़े किये हैं
लाखों मीनार,
बनाए हैं महल
शीशों के,
रोका है
नदियों का
विराट प्रवाह !
क्या नहीं रोक सकते
छोटुआ के छत का टपकना ?
ताकि वो
अपने घर के अँधेरे में।

- लीना टिब्बी

काश ऐसा होता कि ईश्वर मेरे बिस्तर के पास रखे पानी भरे गिलास के अन्दर से बैंगनी प्रकाश पुंज-सा अचानक प्रकट हो जाता।
काश ऐसा होता कि ईश्वर शाम की अजान बन कर हमारे ललाट से दिन भर की थकान पोंछ देता।
काश ऐसा होता कि ईश्वर आसूँ की एक बूंद बन जाता जिसके लुढ़कने का अफ़सोस हम मनाते रहते पूरे-पूरे दिन।
काश ऐसा होता कि ईश्वर रूप धर लेता एक ऐसे पाप का हम कभी न थकते जिसकी भूरी-भूरी प्रशंसा करते।
काश ऐसा होता कि ईश्वर शाम तक मुरझा जाने वाला गुलाब होता तो हर नई सुबह हम नया फूल ढूंढ कर ले आया करते।



'ज़फर' आदमी उसको ना जानिये,
हो वो कैसा भी साहिबे-फहमो-ज़का
जिसे ऐश में यादे-खुदा ना रही
जिसे तैश में खौफे-खुदा ना रहा
- बहादुर शाह ज़फर

'बुद्धिमान व्यक्ति बोलते हैं क्योंकि उनके पास बोलने के लिए कुछ होता है। मूर्ख व्यक्ति बोलते हैं क्योंकि उन्हें कुछ न कुछ बोलना होता है।' (यदि कहने के लिए कुछ अच्छा नहीं हो तो चुप रहना एक बेहतर विकल्प है।)
-प्लैटो

आ कर पत्थर तो मेरे सहन में दो चार गिरे
जितने उस पेड़ पे फल थे, पसे-दीवार गिरे।
-शाकिब जलाली

अब जिसके जी में आये, वो ही पाए रोशनी
हमने तो दिल जला के सरे-आम रख दिया
क्या मसलहत-शनास था वो आदमी 'कतील'
मजबूरियों का जिसने वफ़ा नाम रख दिया
-कतील शिफाई

मैं अपनी तलाश में हूँ,
मेरा कोई रहनुमा नहीं है।
वो क्या दिखाएंगे राह मुझे
जिन्हें खुद अपना पता नहीं है।
अगर कभी मिल गए इत्तिफाक से
तो 'राज' उनसे मैं ये ही कहूँगा
तेरे सितम तो भुला चुका हूँ
तेरा करम भूलता नहीं है।
- राज इलाहाबादी

आज गुलाम रब्बानी तांबा की सौंवीं जयंती है.......
राहों के पेंचों-ख़म में, गुम हो गयी हैं सिम्तें
ये मरहला है नाज़ुक, 'तांबा' संभल संभल के
-गुलाम रब्बानी 'तांबा'

रिन्दाने बला-नोशों में गिनती है हमारी
हम खुम भी चढ़ा जाएँ तो नशा नहीं होता
आजारे-मुहब्बत नहीं जाता, नहीं जाता
बीमारे-मुहब्बत कभी अच्छा नहीं होता
-रियाज़ खैराबादी

उदास आँखों में आँसू नहीं निकलते हैं
ये मोतियों की तरह सीपियों में पलते हैं
ये एक पेड़ है, आ इसके नीचे रो लें हम
यहाँ से तेरे मेरे रास्ते बदलते हैं
-बशीर बद्र

ओ बेरहम मुसाफिर, हँस कर साहिल की तौहीन न कर
हमने अपनी नाव डुबो कर, अभी तुझको पार उतारा है।
-कतील शिफाई

जब ज़िन्दा था, प्यार किया था
मर कर लेटा आज यहाँ।
कौन बगल में मेरी लेटी
मुझको कुछ भी नहीं पता।
-रसूल हमजातोव


हर गीत चुप्पी है प्रेम की, हर तारा चुप्पी है समय की,
समय की एक गठान, हर आह चुप्पी है चीख़ की!
-फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का

जब चांद उगता है घंटियाँ मंद पड़कर ग़ायब हो जाती हैं
और दुर्गम रास्ते नज़र आते हैं।
जब चांद उगता है समन्दर पृथ्वी को ढक लेता है
और हृदय अनन्त में एक टापू की तरह लगता है।
पूरे चांद के नीचे कोई नारंगी नहीं खाता
वह वक़्त हरे और बर्फ़ीले फल खाने का होता है।
जब एक ही जैसे सौ चेहरों वाला चांद उगता है
तो जेब में पड़े चांदी के सिक्के सिसकते हैं!
-फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का

गुलाब ने सुबह नहीं चाही
अपनी डाली पर चिरन्तन
उसने दूसरी चीज़ चाही,
गुलाब ने ज्ञान या छाया नहीं चाहे
साँप और स्वप्न की उस सीमा से
दूसरी चीज़ चाही।
गुलाब ने गुलाब नहीं चाहा
आकाश में अचल
उसने दूसरी चीज़ चाही !
-फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का

लकड़हारे मेरी छाया काट
मुझे ख़ुद को फलहीन देखने की यंत्रणा से
मुक्त कर!
मैं दर्पणों से घिरा हुआ क्यों पैदा हुआ?
दिन मेरी परिक्रमा करता है
और रात अपने हर सितारे में
मेरा अक्स फिर बनाती है।
मैं ख़ुद को देखे बग़ैर ज़िन्दा रहना चाहता हूँ।
और सपना देखूंगा
कि चींटियाँ और गिद्ध
मेरी पत्तियाँ और चिड़ियाँ हैं।
लकड़हारे मेरी छाया काट
मुझे ख़ुद को फलहीन देखने की यंत्रणा से
मुक्त कर!
-फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का

तालाब में नहा रही थी
सुनहरी लड़की
और तालान सोना हो गया,
कँपकँपी भर गए उसमें
छायादार शाख और शैवाल
और गाती थी कोयल
सफ़ेद पड़ गई लड़की के वास्ते।
आई उजली रात
बदलियाँ चांदी के गोटों वाली
खल्वाट पहाड़ियों और बदरंग हवा के बीच
लड़की थी भीगी हुई जल में सफ़ेद
और पानी था दहकता हुआ बेपनाह।
फिर आई ऊषा हज़ारों चेहरों में
सख़्त और लुके-छिपे
मुंजमिद गजरों के साथ
लड़की आँसू ही आँसू शोलों में नहाई
जबकि स्याह पंखों में रोती थी कोयल
सुनहरी लड़की थी सफ़ेद बगुली
और तालाब हो गया था सोना !
-फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का

माँ, चांदी कर दो मुझे!
बेटे, बहुत सर्द हो जाओगे तुम!
माँ, पानी कर दो मुझे!
बेटे, जम जाओगे तुम बहुत!
माँ, काढ़ लो न मुझे तकिए पर
कशीदे की तरह! कशीदा?
हाँ, आओ!
-फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का

जो दुनिया तुमने देखी रूमी,
वो असल थी, न कोई छाया वगैरह,
यह सीमाहीन है और अनंत,
इसका चितेरा नहीं है कोई अल्लाह वगैरह,
और सबसे अच्छी रूबाई जो
तुम्हारी धधकती देह ने हमारे लिए छोड़ी
वो तो हरगिज़ नहीं जो कहती है-
'सारी आकृतियाँ परछाई हैं' वगैरह..।
-नाज़िम हिक़मत

'मुझे महसूस हुआ
मैं मार डाला गया हूँ।
उन्होंने चायघरों, क़ब्रों और गिरजाघरों की
तलाशी ली,
उन्होंने पीपों और आलमारियों को
खोल डाला।
सोने के दाँत निकालने के लिए
उन्होंने तीनों कंकालों को
खसोट डाला।
वे मुझे नहीं पा सके।
क्या वे मुझे कभी नहीं पा सके?
नहीं।
वे मुझे कभी नहीं पा सके ।
-नाज़िम हिक़मत

'मैं सोना चाहता हूँ।
मैं सो जाना चाहता हूँ ज़रा देर के लिए,
पल भर, एक मिनट, शायद
एक पूरी शताब्दी... लेकिन
लोग यह जान लें
कि मैं मरा नहीं हूँ...
कि मेरे होठों पर चाँद की अमरता है,
कि मैं पछुआ हवाओं का अजीज दोस्त हूँ...
...कि,
कि... मैं अपने ही आँसुओं की
घनी छाँह हूँ...।'
-नाज़िम हिक़मत

न चूम सकूँ, न प्यार कर सकूँ,
तुम्हारी तस्वीर को
पर मेरे उस शहर में तुम रहती हो
रक्त-माँस समेत
और तुम्हारा सुर्ख़ मूँ,
वो जो मुझे निषिद्ध शहद,
तुम्हारी वो बड़ी बड़ी आँखें सचमुच हैं
और बेताब भँवर जैसा तुम्हारा समर्पण,
तुम्हारा गोरापन मैं छू तक नहीं सकता!
-नाज़िम हिक़मत

एक दिन माँ कुदरत कहेगी,
"अब चलो ...
अब और न हँसी, न आँसू,
मेरे बच्चे ..."
और अन्तहीन एक बार
और ये शुरू होगी
ज़िन्दगी जो न देखे, न बोले,
और न सोचा करे।
-नाज़िम हिक़मत

मुझे बीते दिनों की याद नहीं आती
-सिवा गर्मी की वो रात.
और आख़िरी कौंध भी मेरी आंखों की
तुम को बतलाएगी
आने वाले दिनों की बात।
-नाज़िम हिक़मत

हल्‍की हरी हैं मेरी महबूबा की आँखें
हरी, जैसे अभी-अभी सींचा हुआ
तारपीन का रेश्‍मी दरख़्त
हरी, जैसे सोने के पत्‍तर पर
हरी मीनाकारी।
ये कैसा माजरा, बिरादरान,
कि नौ सालों के दौरान
एक बार भी उसके हाथ
मेरे हाथों से नहीं छुए।
मैं यहाँ बूढ़ा हुआ, वह वहाँ।
मेरी दुख़्तार-बीवी
तुम्‍हारी गर्दन पर अब सलवटें उभर रहीं हैं।
सलवटों का उभरना
इस तरह नामुमकिन है हमारे लिए
बूढ़ा होना।
जिस्‍म की बोटियों के ढीले पड़ने को
कोई और नाम दिया जाना चाहिए,
उम्र का बढ़ना बूढ़ा होना
उन लोगों का मर्ज़ है
जो इश्‍क नहीं कर सकते।
-नाज़िम हिक़मत

तुम्‍हारे हाथ
पत्‍थरों जैसे मज़बूत
जेलख़ाने की धुनों जैसे उदास
बोझा खींचने वाले जानवरों जैसे भारी-भरकम
तुम्‍हारे हाथ जैसे भूखे बच्‍चों के तमतमाए चेहरे
तुम्‍हारे हाथ
शहद की मक्खियों जैसे मेहनती और निपुण
दूध भरी छातियों जैसे भारी
कुदरत जैसे दिलेर तुम्‍हारे हाथ,
तुम्‍हारे हाथ खुरदरी चमड़ी के नीचे छिपाए अपनी
दोस्‍ताना कोमलता।
दुनिया गाय-बैलों के सींगों पर नहीं टिकी है
दुनिया को ढोते हैं तुम्‍हारे हाथ।
-नाज़िम हिक़मत

अगर मेरे दिल का आधा हिस्सा यहाँ है डाक्टर,
तो चीन में है बाक़ी का आधा
उस फौज के साथ
जो पीली नदी की तरफ बढ़ रही है..
और हर सुबह, डाक्टर
जब उगता है सूरज
यूनान में गोली मार दी जाती है मेरे दिल पर .
और हर रात को डाक्टर
जब नींद में होते हैं कैदी और सुनसान होता है अस्पताल,
रुक जाती है मेरे दिल की धड़कन
इस्ताम्बुल के एक उजड़े पुराने मकान में.
और फिर दस सालों के बाद
अपनी मुफलिस कौम को देने की खातिर
सिर्फ ये सेब बचा है मेरे हाथों में डाक्टर
एक सुर्ख़ सेब :
मेरा दिल.
और यही है वजह डाक्टर
दिल के इस नाकाबिलेबर्दाश्त दर्द की --
न तो निकोटीन, न तो कैद
और न ही नसों में कोई जमाव.
कैदखाने के सींखचों से देखता हूँ मैं रात को,
और छाती पर लदे इस बोझ के बावजूद
धड़कता है मेरा दिल सबसे दूर के सितारों के साथ.
-नाज़िम हिक़मत

चेरी की एक टहनी
एक ही तूफ़ान में दो बार नहीं हिलती
वृक्षों पर पक्षियों का मधुर कलरव है
टहनियाँ उड़ना चाहती हैं।
यह खिड़की बन्द है:
एक झटके में खोलनी होगी।
मैं बहुत चाहता हूँ तुम्हें
तुम्हारी तरह रमणीय हो यह जीवन
मेरे साथी, ठीक मेरी प्रियतमा की तरह ...
मैं जानता हूँ
दुःख की टहनी उजड़ी नहीं है आज भी --
एक दिन उजड़ेगी।
-नाज़िम हिक़मत

कल रात मैंने सपने में तुम्हें देखा
सिर ऊँचा किए
धूसर आँखों से तुम देख रही हो मुझे
तुम्हारे गीले होंठ काँप रहे हैं
लेकिन कहाँ! तुम्हारी आवाज़
तो मुझे सुनाई नहीं दी!
काली अँधेरी रात में
कहीं ख़ुशी की ख़बर-जैसी
घड़ी की टिकटिक आवाज़...
हवा में फुसफुसा रहा है महाकाल
मेरे कैनरी के लाल पिंजरे में
गीत की एक कली,
हल से जोती गई ज़मीन पर
मिट्टी का सीना फोड़कर निकलते अंकुर की
दूर से आती आवाज़,
और एक महिमान्वित जनता के
वज्रकंठ से उच्चरित
न्याय अधिकार।
तुम्हारी गीले होंठ काँप रहे हैं
लेकिन कहाँ! तुम्हारी आवाज़
तो मुझे सुनाई नहीं दी!
उम्मीदों के टूटने का अभिशाप लिए
मैं जाग उठा हूँ, सो गया था
किताब पर चेहरा रखकर।
इतनी सारी आवाज़ों के बीच
तुम्हारी आवाज़ भी क्या मुझे सुनाई नहीं दी?
-नाज़िम हिक़मत

दरवाज़े पर मैं आपके
दस्तक दे रही हूँ।
कितने ही द्वार खटखटाए हैं मैंने
किन्तु देख सकता है कौन मुझे
मरे हुओं को कोई कैसे देख सकता है।
मैं मरी हिरोशिमा में
दस वर्ष पहले
मैं थी सात बरस की
आज भी हूँ सात बरस की
मरे हुए बच्चों की आयु नहीं बढ़ती।
पहले मेरे बाल झुलसे
फिर मेरी आँखे भस्मीभूत हुईं
राख की ढेरी बन गई मैं
हवा जिसे फूँक मार उड़ा देती है।
अपने लिए मेरी कोई कामना नहीं
मैं जो राख हो चुकी हूँ
जो मीठा तक नहीं खा सकती।
मैं आपके दरवाज़ों पर
दस्तक दे रही हूँ
मुझे आपके हस्ताक्षर लेने हैं
ओ मेरे चाचा ! ताऊ!
ओ मेरी चाची ! ताई!
ताकि फिर बच्चे इस तरह न जलें
ताकि फिर वे कुछ मीठा खा सकें।
-नाज़िम हिक़मत

सबसे सुन्दर है जो समुद्र
हमने आज तक उसे नहीं देखा,
सबसे सुन्दर है जो शिशु
वह आज तक बड़ा नहीं हो सका है,
हमें आज तक नहीं मिल सके हैं
हमारे सबसे सुन्दर दिन,
मधुरतम जो बातें मैं कहना चाहता हूँ
आज तक नहीं कह सका हूँ।
-नाज़िम हिक़मत

मैं आसमान की तस्वीर बनाना चाहता हूँ। बनाओ, मेरे बच्चे।
मैनें बना लिया। और तुमने इस तरह रंगों को फैला क्यूं दिया?
क्यूंकि आसमान का कोई छोर ही नहीं है।
मैं पृथ्वी की तस्वीर बनाना चाहता हूँ। बनाओ, मेरे बच्चे।
मैनें बना लिया। -और यह कौन है? वह मेरी दोस्त है।
-और पृथ्वी कहाँ है? उसके हैण्डबैग में।
मैं चंद्रमा की तस्वीर बनाना चाहता हूँ। बनाओ, मेरे बच्चे।
नहीं बना पा रहा हूँ मैं। क्यों? लहरें चूर-चूर कर दे रही हैं इसे बार-बार।
मैं स्वर्ग की तस्वीर बनाना चाहता हूँ। बनाओ, मेरे बच्चे। मैनें बना लिया।
लेकिन इसमें तो कोई रंग ही नहीं दिख रहा मुझे। रंगहीन है यह।
मैं युद्ध की तस्वीर बनाना चाहता हूँ। बनाओ, मेरे बच्चे। मैनें बना लिया।
और यह गोल-गोल क्या है? अंदाजा लगाओ। खून की बूँद? नहीं। कोई गोली? नहीं।
फिर क्या? बटन, जिससे बत्ती बुझाई जाती है।
-दुन्या मिखाईल

फेदेरिको गार्सिया लोर्का की रक्तगाथा : उदय प्रकाश



जब भी रचना और कर्म के बीच की खाई को पाटने का सवाल उठाया जाएगा, फेदेरिको गार्सिया लोर्का का नाम ख़ुद-ब-ख़ुद सामने आएगा । बतलाना नहीं होगा कि रचना और कर्म की खाई को नष्ट करते हुए लोर्का ने समूचे अर्थों में अपनी कविता को जिया । यह आकस्मिक नहीं है कि पाब्लो नेरूदा और लोर्का की रचनाशक्ति फ़ासिस्ट शक्तियों के लिए इतना बड़़ा ख़तरा बन गईं कि दोनों को अपनी अपनी नियति में हत्याएँ झेलनी पड़ीं । फ़ासिज़्म ने मानवता का जो विनाश किया है, उसी बर्बरता की कड़ी में उसका यह कुकर्म और अपराध भी आता है जिसके तहत उसने इन दोनों कवियों की हत्या की । लोर्का को गोली मार दी गई और नेरूदा को... नेरूदा और लोर्का गहरे मित्र थे।
चिंतकों और साहित्यकारों का एक तबका है, जो मामूली जीवन अनुभवों से साहित्य को परहेज की सलाह देता है । एक और समूह है जो जीवन अनुभव, समाज और राजनीति को साहित्य से जोड़ता तो है, लेकिन महज बौद्धिकता के धरातल पर... भाषा के माध्यम से... लफ़्फ़ाजी के ज़रिए। ज़ाहिर है, वास्तविक अनुभव की दरिद्रता में, सिद्धांततः युग और समाज का साहित्य के साथ ज़रूरी संबंध मानते हुए भी इन रचनाओं के संप्रेषण के लिए जो कुछ होगा, उसमें ‘रेटरिक’ अधिक होगा । एक तथ्य और है : अपने परिवेश के व्यापक जीवन को सीधे-सीधे आत्मसात न कर पाने वाला रचनाकार द्रष्टा रचनाकार होता है; कमेंट्रेटर होता है। ऐसे कमेंट्रेटर की रचना में अगर फतवों, सपाटबयानी, सरलीकरणों, और ग़ैर ज़िम्मेदार वक्तव्यों की भरमार हो, तो यह बहुत आश्चर्यजनक नहीं है; ग़ैरज़रूरी हिंदी कविता में जिस तरह के फ़तवों और सरलीकृत मुहावरों का उपयोग होता रहा है, उसका मूल कारण यही है । वास्तविक अनुभवों की दरिद्रता में ऐसा रचनाकार जिस संकट के सामने ख़ुद को रू-ब-रू पाता है, उस संकट को वह अभिव्यक्ति का संकट कहता है । और उससे बचने के लिए भाषा का अतिरिक्त आश्रय लेता है । नतीजतन वास्तविकता का अति वास्तविकीकरण होता है । और ‘रिटरिक’ की भरमार होती है । दरअसल यह संकट अभिव्यक्ति का संकट नहीं सार्थक अनुभव की हीनता का संकट है । नेरूदा और लोर्का जैसे रचनाकारों के सामने अनुभव का ऐसा संकट कभी नहीं रहा । इसीलिए उन्होंने अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाए । नेरूदा जीवन के सबसे अधिक सक्रिय काल में चिले से निर्वासित रहे । और बाद में फ़ासिस्ट जुंता के शिकार हुए । लोर्का को फ्रांको समर्थक विस्टापो के फ़ासिस्ट गुर्गों ने गोली से उड़ा दिया । अपने युग जीवन और परिवेश में होने वाले तेज़ रद्दोबदल के साथ उनकी संपूर्ण संबद्धता ने उनके लिए स्वयं ही अनुभवों का इतना विशाल भंडार इकट्ठा किया कि अपनी
रचनाओं में कहीं भी उनके ग़ैर ईमानदार होने का प्रश्न न रहा। शायद यहाँ यह कह देना वाज़िब ही होगा कि कोई भी कवि अपनी रचनाओं में तभी ईमानदार रह सकता है, जब वह अपने जीवन में भी ईमानदार हो । लोर्का और नेरूदा की रचनाओं में इसीलिए समाज के बड़े से बड़े संकटों, दुर्घटनाओं, षड़यंत्रों, परिवर्तनों और फ़सादों की ऐसी ख़ामोश हलचलकारी पक्षधरता अभिव्यक्त मिलती है कि अतिवास्तविकीकरण के ख़तरे से उनकी रचनाएँ अपने आप बच जाती हैं ।
लोर्का की पूरी ज़िंदगी और उसका समग्र रचना-संसार निरंतर संघर्ष, जय-पराजय, उत्साह और हताशा, संकल्प और संदेह, ज़िंदगी और मौत के पड़ावों से भरी हुई एक यात्रा है । इतने वर्षों बाद जबकि लोर्का को गोली मार दिए जाने के बाद भी परिस्थितियाँ अभी बहुत बदली नहीं हैं, चिले में अब भी हत्यारी फासिस्ट जुंता सत्ता में है । स्पेन में अब भी फ्रांको के वंशधर अपने नाज़ी मंसूबों को अमल में लाने की साज़िश में व्यस्त हैं । भारतीय शासन व्यवस्था अपनी हिलती हुई चूलों को संभालकर हिरावल क्रांतिकारियों को भारी तादाद में जेलों में भरे हुए है । ऐसे में लोर्का को याद करना बहुत प्रासंगिक हो जाता है । शायद लोर्का को याद करना अपने भीतर छिपे हुए किसी ईमानदार आदमी को चीख़ के पुकारने जैसा है ! आज भी अपनी रचना और अपने कर्म, दोनो मे एक साथ ईमानदार हो जाने वाले व्यक्ति के सामने लोर्का की नियति शेष बचती है ।
क्या फेदेरीको गार्सिआ लोर्का का नाम एक प्रासंगिक और ख़ामोश, समकालीन चीख़ की तरह नहीं लगता?
लोर्का की एक कविता है :
“मुझे महसूस हुआ
मैं मार डाला गया हूँ ।
उन्होंने चायघरों, क़ब्रों और गिरजाघरों की
तलाशी ली,
उन्होंने पीपों और आलमारियों को
खोल डाला ।
सोने के दाँत निकालने के लिए
उन्होंने तीनों कंकालों को
खसोट डाला ।
वे मुझे नहीं पा सके ।
क्या वे मुझे कभी नहीं पा सके ?
नहीं ।
वे मुझे कभी नहीं पा सके ।
लेकिन वे शिकारी कुत्तों की तरह अपने फ़ासिस्ट आका के इशारों पर लोर्का की जान लेने के लिए लगातार उसके पीछे लगे रहे । लोर्का कभी उनसे लड़ता हुआ, कभी घायल होता हुआ, कभी उन्हें मारता हुआ, कभी छुपता हुआ, भागता हुआ, कभी उनका मज़ाक उड़ाता हुआ... लगातार लिखता रहा । लेकिन जान जोख़िम खेल का अंत तो कभी न कभी होना ही था । जुलाई 1936 में, ‘उन्हें’ एक मौक़ा मिला, और ‘उन्होंने’ लोर्का को दबोच लिया । नेरूदा ने अपने संस्मरण में लिखा है: “फेदेरिको (लोर्का) को अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था । एक बार नाटक के सिलसिले में किसी यात्रा से लौटने के बाद उसने मुझे एक विचित्र घटना के बारे में बतलाने के लिए बुलाया । किसी गाँव में, जो रास्ते से अलग हटकर था । ‘कास्तिले’ के इलाके में अपने ग्रुप ‘ला बार्राका’ के साथ वह अपना कैम्प लगाकर उस गाँव के बाहरी छोर पर पड़ा हुआ था । यात्रा की थकान के कारण लोर्का रात में सो नहीं सका । वह बिलकुल तड़के ही उठ गया और अकेले ही बाहर घूमने के लिए निकल गया । यह ऐसा ही इलाका था जो किसी भी परदेशी या यायावर के लिए अपने पास, भयानक... चाकू की धार जैसी ठंड रखता है, कुहरा सफ़ेद थक्कों के रूप् में बिखरा हुआ था जिसमें सारी चीज़ें मुर्दा, प्रेतों जैसी दिखलाई पड़ती थीं” ।
“एक बहुत बड़ी जंग खाई लोहे की जाली, टूटी हुई मूर्तियाँ और खंभे सड़ती-गलती पत्तियों पर पड़े हुए थे । लोर्का किसी पुरानी जागीर के टूटे हुए फाटक के पास खड़ा था, जिसके सामने सामंती ज़मींदारी का एक खूब घना बग़ीचा था । वक़्त, एकाकीपन का बोध और इस पर इस भयानक सर्दी ने इस सन्नाटे को और भी तीख़ा कर दिया था। अचानक फ़ेदेरिको ने खुद को कुछ बेचैन सा महसूस किया, जैसे इस भिनसार में से कोई वस्तु निकल आने वाली हो, जैसे अभी कुछ घटने वाला हो । वहाँ एक गिरे हुए टूटे-फूटे खंभे के मुहाने पर वह बैठ गया”।
“तभी इस भग्नावशेष के बीच में से घास की पत्तियों को चरने के लिए एक नन्हा-सा मेमना बाहर निकल निकल आया जैसे कोहरे का देवदूत हो । इस सुनसान निर्जनता को मानवीय-सा बना देने के लिए वह कहीं से भी बाहर आ गया था, जैसे कोई नर्म मुलायम सी पंखुड़ी उस जगह के सन्नाटे पर अचानक गिर पड़ी हो । लोर्का अब अधिक देर तक ख़ुद को अकेला नहीं मान सका ।
तभी सूअरों का एक झुंड भी उस जगह आ पहुँचा । चार या पाँच जानवर थे, अध बनैले सूअर, अपनी आदिम बर्बर भूख और चट्टानों जैसे खुरों के साथ । ...और तभी फ़ेदेरीको ने एक ख़ून जमा देने वाले दृश्य को देखा, सूअर उस मेमने पर टूट पड़े और फ़ेदेरीको के भयावह डर को और भी भयंकर बनाने के लिए उस मेमने को टुकड़ों-टुकड़ों में चींथ डाला और उसे लील गए”।
उस निर्जन स्थान पर घटने वाले इस ख़ूनी दृश्य ने फेदेरिको को विवश कर दिया कि वह तत्काल अपनी घुमक्कड़ नाटक मंडली को वापस सड़क पर लौटा ले जाए । गृह-युद्ध के तीन महीने पहले, जब उसने मुझे यह रोमांचक कहानी सुनाई, वह तब भी इस घटना के डर और भयावहता से मुक्त नहीं हुआ था । बाद में मैंने देखा स्पष्टतः.... साफ-साफ, कि वह घटना उसकी अपनी मौत का ही एक परिदृश्य थी, उसकी अपनी अविश्वसनीय ट्रैजिडी का पूर्वाभास।”
(पाब्लो नेरूदा, मेमॅयर्स, पृ. 123-124)
लोर्का की कुछ कविताओं को पढ़ते हुए उनमें किसी बर्फ़ जैसी उदासी और अवसाद का अहसास होता है । मृत्यु के साथ लोर्का का परिचय बचपन में ही हो गया था जब कि वह फालिज में मरता-मरता बचा था । इसीलिए उसकी स्मृति में मृत्यु की कोई घनी छाया किन्हीं अंधेरे कोनों में छुपकर खड़ी रहती थी । जब वह लिखता था तो उस छाँह और अँधेरे के रंग-अक्षरों के साथ घुल-मिल जाते थे। लोर्का की सर्वोत्तम कविताओं में से एक “पाँच बजे दोपहर” उसके दोस्त ‘इग्नासियों सांचेस मेखियास’ की मृत्यु पर ही लिखी गई थी, जो सांड के साथ युद्ध में मारा गया था । इग्नासियो ‘बुल फाइटर’ था । संभव है लोर्का ने इग्नासियो की मृत्यु पर अपनी ही नियति का पूर्वाभास और स्वयं अपनी ही स्मृति की उस छाँह और अँधेरे के रंगों और महक को कविता लिखते समय महसूस किया हो । लोर्का कहता था- स्पेन मृत्यु का देश है, मौत के लिए खुला हुआ मुल्क.... एक मरा हुआ आदमी, किसी दूसरी जगह की तुलना में स्पेन में ही अधिक ज़िंदा होता है। स्पेन, एक ऐसा देश, जहाँ वही महत्वपूर्ण होता है जिसका अंतिम गुण मृत्यु हो ।
(हबाना और ब्यूनस आयर्स में दिए गए भाषण का एक अंश)
स्पेन की दमनकारी, बर्बर फ़ासिस्ट शक्तियों ने उसे चैन नहीं लेने दिया। वह अपने युग के इस दर्दनाक दौर में लगातार जागता रहा और लिखता रहा । वह बुरी तरह थक चुका था । उसकी एक कविता है :
“मैं सोना चाहता हूँ ।
मैं सो जाना चाहता हूँ ज़रा देर के लिए,
पल भर, एक मिनट, शायद
एक पूरी शताब्दी... लेकिन
लोग यह जान लें
कि मैं मरा नहीं हूँ...
कि मेरे होठों पर चाँद की अमरता है,
कि मैं पछुआ हवाओं का अजीज दोस्त हूँ...
...कि,
कि... मैं अपने ही आँसुओं की
घनी छाँह हूँ...”
अपने नाटकों और कविताओं में लोर्का ने जितने भी पात्रों को निर्मित किया उनमें से अधिसंख्य की नियति थी - मौत। लोर्का उन पात्रों को एक सड़क पर लाकर खड़ा देता था जिसकी मंजिल मौत ही होती थी। अपनी एक बहुत प्रारंभिक कविता, जिसे उसने अपनी युवावस्था में लिखी थी, “एक और स्वप्न” है। उसमें लिखा है, जितने भी बच्चों की नियति में लिखी है मृत्यु, वे सब मेरे सीने में हैं। सचमुच वे सारे बच्चे, एक न दिन मर जाने वाले बच्चे, उसके ही सीने में थे। धीरे धीरे, पूरी निकटता के साथ मोम की तरह पिघलते हुए उनके अस्तित्व को महसूस करते हुए वह लिखा करता था। अपनी एक अद्भुद कविता “बैलेड आफ सिविल गार्ड” में लोर्का ने एक भयावह दुःस्वप्न की रचना की है। इस दुःस्वप्न के केंद्र में भी है - मौत। इस कविता में जिप्सियों का एक नगर है। कंगूरों, मेहराबों, फानूशों, बिजलियों और ध्वजाओं से सजा-धजा उत्सवधर्मी नगर। लेकिन मुस्कानों, संगीत और नृत्य के इस उल्लासपूर्ण नगर के भाग्य में वही है, यानी - मौत। रात में सिविल गार्ड उस नगर में प्रवेश करते हैं। वे बच्चों और स्त्रियों को संगीनों और बरछों से छेद डालते हैं। सिविल गार्ड सारी रात अंधेरे में सांपों की तरह रेंगते हुए विनाश करते रहते हैं। वे कंगूरों को ढहा देते हैं, ध्वजाएं फाड़ डालते हैं, फानूशों और रोशनियों को तहश नहश कर डालते हैं। जब सुबह का धुंधलका शुरू होता है, तब तक यह सजा धजा नगर धूल में मिल जाता है। इस शहर के हर दरवाजे और गली के हर मोड़ पर मासूम बत्तखों के खून गिरे होते हैं। लोर्का उसे देखता है। वह कविता के प्ररंभ से ही जानता है कि सीमेंट और इस्पात का यह ठोस नगर एक दिन मर जाएगा।
लोर्का का यह डरावना दुःस्वप्न भी, दुर्भाग्य से झूठ नहीं हुआ। स्पेन में सारी रात इसी तरह सिविल गार्ड सांप की तरह रेंगते रहे और जब सवेरा हुआ तो सड़कों पर, घरों में, पार्कों में, हर जगह बच्चों और स्त्रियों की लाशें बिखरी पड़ी थीं। चिले में भी ठीक ऐसा ही हुआ। ‘हेवलाक एलिस’ और ‘रिल्के’ की रचनाओं के केंद्र में भी मृत्यु है। रिल्के ने एक लड़की, जो मर जाने वाली थी, उस पर कविता लिखी ‘जब तुमसे शरू की अपनी जिंदगी तब तक तुम्हारी मृत्यु बड़ी हो चुकी थी’। बाद में अस्तित्ववादियों ने, अल्बेयर कामू ने, अपनी रचनाओं में मृत्यु को चित्रित किया। अस्तित्ववादी दार्शनिक हेडेगर ने भी मृत्यु को मनुष्य के अस्तित्व का अनिवार्य लक्षण माना था। लेकिन लोर्का के पास मृत्यु की अनिभूति का मतलब जीवन से विरक्त उदासीनता नहीं, जीवन का नकार नहीं, बल्कि ठीक इसे विपरीत है। यहां मृत्यु के प्रति जागरूकता जीवन और कर्म के प्रति जगरूकता को और पैना बनाती है। लोर्का पर लिखते हुए उसके समकालीन, प्रसिद्ध स्पेनिश कवि ‘सालिनास’ ने भी माना है कि अगर जीवन की घटनाओं से मृत्यु की उपस्थिति के अहसास को घटा दिया जाए तो जीवन एक सपाट फिल्म की तरह हो जाएगा। ऐसी फिल्मों की घटनाएं मुर्दा होती हैं क्योंकि वहां पर मौत की उपस्थिति और डर को हम महसूस नहीं करते। मृत्यु के साथ अपनी जिंदगी के अनिवार्य अंतर्सम्बंधों को समझ कर ही व्यक्ति अपनी जिंदगी को पहचान सका है। लोग सामान्यतया जीवन चुनते हैं... बिना अपनी मृत्यु के बारे में जागरूक हुए। लोर्का ने अपनी मौत को चुना : ठीक उसी तरह जिस तरह उसने एक खास तरह की जिंदगी को चुना था। लोर्का कभी मौत को भूलता नहीं था। उसकी कविताएं भी इसीलिए इतनी जीवंत और सप्राण हैं कि वे भी मृत्यु को भूलती नहीं। एक कहावत है कि मुर्दा नहीं मरता। जो मरा हुआ है उसकी मृत्यु क्या होगी। लेकिन लोर्का के पात्र बार बार मरते हैं क्योंकि वे जिंदा हैं। लोर्का की कविताएं जिंदा कविताएं हैं। यह एक विचित्र बात है कि मृत्यु पर लिखी जाने के बावजूद उसकी रचनाएं जिंदगी के प्रति आस्था पैदा करती हैं।
लोर्का का जन्म 1918 में ग्रानादा के पश्चिम के एक छोटे से गांव ‘फुएंते बकेरोस’ में हुआ। उसकी मां स्कूल टीचर थी और पिता मध्यम किसान। लोर्का सबसे पहले संगीत की ओर आकर्षित हुआ। बचपन में ही एक बीमारी ने उसके चलने फिरने और बोलने पर असर डाल दिया। हकलाहट भरी आवाज के बावजूद संगीत के प्रति उसका लगाव उसकी अदम्य जिजीविषा और आस्था की ओर संकेत करता है। बहरहाल, अपनी शारीरिक खामियों के बावजूद लोर्का एक अच्छा पियानोवादक बना। प्रसिद्ध संगीतकार ‘दे फाला’ उसका मित्र था और आदर्श भी। इतना ही नहीं, लोर्का की हकलाहट ने उसके कविता पाठ पर भी अपना असर डाला था। कोई दूसरा कवि होता तो हीनता बोध के मारे अपनी कविताओं का पाठ छोड़ देता। लेकिन लोर्का ने इसी हकलाहट में से अपनी एक आकर्षक ‘स्टाइल’ का आविष्कार कर लिया। यह ‘स्टाइल’ इतनी लोकप्रिय हुई कि उस दौर के युवा कवियों में इसका क्रेज हो गया था। दोष मुक्त कंठ कवि भी लोर्का स्टाइल में अपनी कविताएं पढ़ा करते थे। 1919 में वह मैड्रिड चला गया और बहुत थोडे़ समय में ही कवि के रूप में, वक्ता के रूप में, प्रतिभाशाली संगीतज्ञ के रूप में और चित्रकार के रूप् में प्रसिद्ध हो गया। उसने अपने इर्द गिर्द दोस्तों का एक जत्था तैयार कर लिया था जिनके साथ वह कैफे, नाइट क्लबों, खुली जगहों में बहसें और झगड़े किया करता था। 1919 में उसने ‘लिब्रो दे पोएमास’ प्रकाशित किया। 1927 में उसके द्वारा लिखे गए नाटकों के मंचन में भरपूर सफलता मिली। 1927 में ही उसके चित्रों की प्रदर्शनी हुई। 1928 में ‘जिप्सी बैलेड्स’ का पहला संस्करण प्रकाशित हुआ। ये ‘बैलेड्स’ स्पेनी भाषा के लोगों में दूर दूर तक लोकप्रिय हुए। उसे हर बार हर क्षेत्र में सफलता मिली। 1929 - 30 में उसने क्यूबा और अमरीका की यात्रा की। 1931 में जब वह लौटा तब तक स्पेन में व्यापक राजनीतिक परिवर्तन हो चुका था। राज्यतंत्र का पतन हो गया था, राजा भाग निकला था और गणतंत्र की स्थापना हो चुकी थी। उसने अपने अपको फिर से काम में डुबो दिया। इस बीच उसने कई नाटक लिखे। 1933 - 34 में वह फिर यात्रा पर निकला। ब्यूनस आयर्स तथा अनेक अन्य जगहों पर उसने क्लासिकल स्पेनिश नाटकों का प्रदर्शन किया।
लोर्का और नेरूदा दोनों ही स्वतंत्र, और स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत मानव समुदाय के कवि हैं। उनकी कविताएं मनुष्य को स्वतंत्र करने की बेचैनी के तनाव में कसी हुई कविताएं हैं। वे सच्चे अर्थों में, मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो ‘विश्व चेतस्’ कवि हैं।
लोर्का मूलतः कवि था लेकिन बाद में वह नाटककार के रूप में भी उतना ही प्रसिद्ध हुआ। वह एक्शन पर विश्वास करता था। उसने कोई व्यवस्थित विश्वविद्यालयीय शिक्षा नहीं प्राप्त की थी। ग्रानदा विश्वविद्यालय में उसने दाखिला जरूर ले लिया था लेकिन वह पूरी शिक्षा पद्धति के लिए ‘मिस फिट’ था। गप्पें मारना और आस पास के गांवों में घुमक्कड़ी करना, गांवों के सांस्कृतिक रूपों की छानबीन करना, लोकगीतों की धुनों में रम जाना उसकी आदतें थीं। लोर्का के भीतर ‘आंदालूसिया’ अपनी संपूर्ण परंपरा, लोक संस्कृति, संगीत और संकटों के साथ उपस्थित था। उसने व्यावहारिक स्तर पर निरंतर श्रम और संघर्षों के माध्यम से ही अपने कलात्मक अनुभव और शिल्प अर्जित किए थे। प्रारंभिक दिनों में उसे एक नाटक ‘बटरफ्लाईज स्पेल’ में खेदजनक असफलता का मुंह देखना पड़ा था। यह असफलता उसे सारी जिंदगी याद रही और उसे लगातार खरोंचती रही। इसके बाद लोर्का कभी असफल नहीं हुआ। अपनी मौत को चुनते हुए भी। 1936 में जब लोर्का को गिरफ्तार करके ग्रानादा की सड़कों पर बाहर निकाला गया और उस ओर ले जाया गया जहां फासिस्ट स्क्वैड उसका इंतजार कर रही थी तब भी वह असफल नहीं हुआ था। असफलता उसके लिए थी ही नहीं। वह जनता का कवि था। जन कवि। जब जब जनता पर जुल्म ढाए गए लोर्का जख्मी हुआ। जब जब जनता पर गोलियां चलीं लोर्का घायल हुआ। लोर्का जनता को बहुत प्यार करता था। जनता भी उसे अपने दिल में रखती थी। इसीलिए पाब्लो नेरूदा ने लिखा था, वे लोग जो लोर्का की जनता के सीने गोली दागना चाहते थे, उन्होंने लोर्का को मारते हुए बहुत सही चुनाव किया था।
लोर्का की रचनाओं में स्पेन अपने विशिष्ट, उत्पीड़ित, और शोकाकुल रूप में माजूद है। स्पेन की जातीय सांस्किृतिक परंपराएं लोर्का के लहू में थीं। शायद लोर्का से ज्यादा स्पेन और लैटिन अमरीका की पहचान किसी और रचनाकार को नहीं हो पाई। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि लैटिन अमरीकी देशों की बदली हुई आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थतियों का सामाजिक यथार्थ परंपरिक काव्य रूपों में व्यक्त हो ही नहीं सकता था। उसके लिए एक सक्षम, प्रासंगिक राष्ट्रीय फार्म की जरूरत थी जिसमें तत्कालीन जीवन समूची जीवंतता के साथ व्यक्त हो सके। लोर्का ने परंपरिक काव्य रूढ़ियों को तोड़ा। नए सत्य को कहने का तरीका ढूंढा। यही वजह है कि स्पेनी साहित्य के इतिहास से गुजरते हुए लोर्का की रचनाओं पर आकर दृष्टि गड़ जाती है। लोर्का स्पेनी इतिहास की एक विभाजन रेखा है। वह एक युगांत और युगारंभ है।
लेकिन दिलचस्प बात यह है कि लोर्का ने जो नया फार्म ढूंढ़ा वह वस्तुतः बहुत पुराना था। बारहवीं शताब्दी के ‘एपिक फार्म’ को उसने फिर से अपनाया और इसी रूप में अपनी कविताएं लिखीं। लगभग हजार वर्ष पुराने काव्य रूप को अपनाते हुए प्ररंभ में लोर्का आश्वस्थ नहीं था। लेकिन एक रात वह एक शराब घर के बाहर खड़ा था तब उसे वही पुरानी, हजारों वर्ष पुरानी धुन सुनाई पड़ी। कोई अनपढ़ देहाती गिटार बजाकर, सम्मोहक रूप से गा रहा था। लोर्का ने ध्यान से सुना तो वह आश्च्र्यचकित रह गया। एक एक शब्द उसी का था - लोर्का का। लेर्का पर नशा चढ़ गया। वह खुद गा उठा। उसी हजारों साल की भूली बिसरी धुन में उसकी कविताओं को जनता ने अपना लिया था। किसी भी कवि के लिए इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है?
लोर्का के पहले बहुत से स्पेनी कवियों ने प्राचीन काव्य रूपों की उपेक्षा की थी और आधुनिकता की तलाश में वे योरप और अमरीका की नकल में लगे हुए थे। लोर्का ने आधुनिकता की तलाश दूसरे तरीके से की। वह अतीत की ओर लौटा और प्राचीन काव्य रूपों को परिश्रम और मनोयोग के साथ इस तरह संशोधित किया कि वे समकालीन यथार्थ को वहन कर सकें। उसकी कविताओं में इसीलिए अपेक्षकृत पुराने, आदिम संगीत की लय है। वे गाए जा सकते हैं। अन्दालूसिया के ग्रामीण अंचलों गाए जाने वाले लोक गीतों की लय, उनके बिम्बों और मुहावरों से लोर्का ने बहुत कुछ ग्रहण किया था। वह उन गीतों को अपना बना लेता था, इतना, कि वे उसके निजी हो जाते थे। एक घटना का जिक्र उसके भाई ने किया है। एक बार वह लोर्का के साथ किसी ट्रक में सफर कर रहा था। ट्रक का ड्राइवर मस्ती में कोई लोक धुन गुनगुनाता जा रहा था। लोर्का ट्रक ड्राइवर के गीत में पूरी तरह डूब चुका था। इस घटना के बहुत दिनों बाद जब लोर्का की कविता ‘फेथलेस वाइफ’ प्रकाशित हुई तो उसके भाई ने उसमें उसी ट्रक डाइवर के गीत की एक पंक्ति देखी। संयोग से वह पंक्ति उसे अच्छी तरह से याद थी। बाद में वह उसे दुहराता रह गया। लोर्का ने कहा, यह असंभव है। यह पंक्ति बिलकुल मेरी है। इसे मैने लिखा है। लोर्का झूठ नहीं बोल रहा था। वह पंक्ति उसी की थी। उसने ट्रक ड्राइवर के उस लोकगीत को इतनी गहराई और संवेदनशील आत्मीयता के साथ अपना बना लिया था कि उस गीत की पंक्ति पर अब लोर्का के अतिरिक्त किसी और का अधिकार हो नहीं सकता था।
स्पेन में गणतंत्र की स्थापना के बाद लोर्का ने ग्रानादा विश्वविद्यालय के कुछ विद्यार्थियों के साथ अपनी एक नाटक कंपनी भी बनाई। इस नाटक कंपनी का नाम “ला बार्राक” था। अपनी इस नाटक कंपनी के साथ वह ग्रामीण क्षेत्रों में गया और गांवों में अपने नाटकों का प्रदर्शन किया। वह नाटक को जनता के बीच ले जाना चाहता था। लोर्का की नाट्य रचनाओं को उसकी काव्य रचनाओं से अलग करके नहीं देखना चाहिए। वह एक ही समय में एक ओर लंबे प्रगीत लिखता था, दूसरी तरफ लंबे नाटक भी लिख डालता था। उसके कई नाटक ऐसे हैं जिन्हें ट्रेजिक कविता या प्रगीत कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त उसके कुछ प्रगीत ऐसे हैं जिनमें इतने नाटकीय तत्व हैं कि आसानी से उनका नाट्य रूपांतरण किया जा सकता है। लोर्का कोई पेशेवर रंगकर्मी नहीं था। कविताओं में जो कुछ अनकहा रह जाता था उसे अभिव्यक्त करने के लिए वह दूसरे कला माध्यमों का सहारा लेता था। रंगमंच और संगीत और कविता उसकी एक ही रचना प्रक्रिया के अवयव थे। कभी कभी तो कविता का कोई एक बिंब उसे इतना पसंद आ जाता था कि केवल उसी एक बिंब को साक्षात करने, उसे देख सकने की फिक्र में वह नाटक की रचना कर डालता था।
लोर्का के नाटकों में एक राजनीतिक संदेश निहित होता था जिसे मनोरंजक ढंग से वह दर्शकों के मस्तिष्क में डाल देता था। उसने अपने एक प्रारंभिक नाटक ‘मारियाना पिनेदा’ के माध्यम से क्रांतिकारी संदेश को जनता तक पहुंचाने का कार्य शुरू कर दिया था। ‘आह! ग्रानादा का कितना उदास दिन!’ पंक्ति से प्रारंभ होना वाला यह पूरा “बैलेड” इस नाटक में खप गया था। यह नाटक उन दिनों प्रदर्शित किया गया था जब स्पेन में गणतंत्र की स्थापना नहीं हुई थी और वहां तानाशाही का राज्य था। इस नाटक में प्रेमिका जिस व्यक्ति से प्यार करती है वह व्यक्ति स्वतंत्रतता को संसार में सबसे ज्यादा प्यार करता है। अंत में स्वयं प्रेमिका स्वतंत्रता की आकांक्षा में स्वतंत्रता की प्रतिमूर्ति बन जाती है। तत्कालीन नाट्य-समीक्षकों ने इसे क्रांतिकारी संदेश के खतरों को महसूस किया था और उन्होंने लोर्का के खिलाफ तानाशाही की तरफ से खुफियागीरी की थी। लोर्का फिर भी लिखता रहा और अपना संदेश चालाकी के साथ जनता तक पहुंचाने में लगा रहा। इसी बीच अखबारों में छपी खबरों के आधार पर, सच्ची घटनाओं को अपने नाटकों में उसने प्रस्तुत करना प्रारंभ कर दिया। उसके प्रसिद्ध नाटक ‘ब्लड वेडिंग’ तथा ‘हाउस आफ बेर्नाल्दा अल्बा’ सच्ची घटनाओं पर आधरित थे। उसकी कविताएं भी जिप्सियों की वास्तविक जिंदगी पर आधारित थीं। ‘आन्दालूसिया’ के किसान परिवारों, उनके शोषण और उत्पीड़न को उसने अपनी रचनाओं का प्रस्थान बिंदु बनाया था। इन रचनाओं ने जनता पर इतना प्रभाव डाला था कि लोर्का शासनतंत्र के लिए खतरा बन गया था। उसकी हत्या हो ही जाती लेकिन बीच के अंतराल में गणतंत्र की स्थापना के कारण वह बच गया।
लोर्का कहता था कि नाटक के दर्शक जब नाटक की किसी घटना को दखकर यह न सोच पाएं कि उन्हें हंसना चाहिए या रोना तब समझना चाहिए कि नाटक अपने मकसद में सफल रहा है। वह अपने नाटकों में एक प्रकार के त्रासद व्यंग्य की स्थिति तैयार करता था। “येरमा” नामक उसका नाटक आज भी स्पेनी भाषाई देशों में लोकप्रिय है।
लोर्का की हत्या फासिज्म के अपराधों के इतिहास का एक सबसे दर्दनाक, खौफनाक, अमानुषिक और जघन्य कुकर्म का पन्ना है। लोर्का से स्पेन की जनता इतना प्यार करती थी कि कोई सोच भी नहीं सकता था कि उसकी हत्या भी की जा सकती है। नेरूदा ने लिखा है, “कौन विश्वास कर सकता था कि इस धरती में भी शैतान हैं, लोर्का के अपने शहर ग्रानादा में ही ऐसे शैतान थे जिन्होंने यह जघन्यतम अपराध किया।... मैंने इतनी प्रतिभा, स्वाभिमान, कोमल हृदय और पानी की बूंद की तरह पारदर्शिता, एक ही व्यक्ति में एक साथ कभी नहीं देखा। लोर्का की रचनाशीलता और रूपकों पर उसके समर्थ अधिकार ने मुझे हमेशा हीन बनाया। उसने जो भी कुछ लिखा। उस सबसे मैं प्रभावित हुआ। स्टेज में और खामोशी में, भीड़ में या दोस्तों के बीच उसने हमेशा सौंदर्य की श्रृष्टि की। मैंने उसके अतिरिक्त और किसी भी व्यक्ति के हाथों में ऐसी ऐंद्रजालिक क्षमता नहीं देखी। लोर्का के अतिरिक्त मेरा और कोई ऐसा भाई नहीं था जिसे मुस्कानों से इतना ज्यादा प्यार हो। वह हंसता था, गाता था, पियानो बजाने लगता था, नाचने लगता था।”
उसके एक समकालिक कवि ने उसके बारे में टिप्पणी करते हुए लिखा था। “दूसरे कवि पढ़े जाने के लिए हैं, लोर्का प्यार किए जाने के लिए है।” लोर्का के मन में अपनी उत्पीड़ित, दुखी, संघर्षशील जनता से अथाह प्यार था। और जनता के प्यार का अथाह समुद्र भी उसे मिला था। उसने कहा था, “मैं कविता इसलिए लिखता हूं कि लोग मुझसे प्यार करें।” लोगों ने उससे बेइंतहा प्यार किया। लेकिन फासिस्ट फ्रैंकों के गुर्गों की पाशविक नफरत उसे मिलनी ही थी।


मदन कश्यप



बड़ी हो रही है बेटी
बड़ा हो रहा है उसका एकांत

वह चाहती है अब भी
चिड़ियों से बतियाना
फूलों से उलझना
पेड़ों से पीठ टिका कर सुस्ताना
पर सब कुछ बदल चुका है मानो।

कम होने लगी है
चिड़ियों के कलरव की मिठास
चुभने लगे हैं
फूलों के तेज़ रंग
डराने लगी हैं
दरख़्तों की काली छायाएँ।

बड़ी हो रही है बेटी
बड़े हो रहे हैं भेड़िए
बड़े हो रहे है सियार।

माँ की करुणा के भीतर
फूट रही है बेचैनी
पिता की चट्टानी छाती में
दिखने लगे हैं दरकने के निशान
बड़ी हो रही है बेटी!

बाबा बाबा
मुझे मकई के झौंरे की तरह
मरुए में लटका दो।
बाबा बाबा
मुझे लाल चावल की तरह
कोठी में लुका दो।
बाबा बाबा
मुझे माई के ढोलने की तरह
कठही संदूक में छुपा दो।
मकई के दानों को बचाता है छिलकोइया
चावल को कन और भूसी
ढोलने को बचाता है रेशम का तागा
तुझे कौन बचाएगा मेरी बेटी!




बेटियाँ रोकती होंगी पिता को

बहुत जरूरी है पहुँचना
सामान बाँधते बमुश्किल कहते पिता
बेटी जिद करती
एक दिन और रुक जाओ न पापा
एक दिन।

पिता के वजूद को
जैसे आसमान में चाटती
कोई सूखी खुरदुरी जुबान
बाहर हँसते हुए कहता - कितने दिन तो हुए
सोचता - कब तक चलेगा यह सब कुछ
सदियों से बेटियाँ रोकती होंगी पिता को एक दिन और
और एक दिन
डूब जाता होगा पिता का जहाज।

वापस लौटते में
बादल बेटी के कहे घुमड़ते
होती बारिश आँखों से टकराती नमी
भीतर कंठ रुँध जाता थके कबूतर-सा
सोचता पिता सर्दी और नम हवा से बचते
दुनिया में सबसे कठिन है शायद
बेटी के घर से लौटना।
- चंद्रकांत देवताले

हम तो बाबुल तोरे पिंजड़े की चिड़ियाँ (अमीर ख़ुसरो की वह अमर रचना)

काहे को ब्याही बिदेस
अरे लखिया बाबुल मोरे।
भइया को दीनो बाबुल
महला दुमहला
हमको दियो परदेस।
हम तो बाबुल तोरे बेले की कलियाँ
घर-घर माँगी में जाएँ।
हम तो बाबुल तोरे खूँटे की गइयाँ
जित बाँधो तित जाएँ।
हम तो बाबुल तोरे पिंजड़े की चिड़ियाँ
कुहुक-कुहुक रट जाएँ।
ताँतों भरी मैंने गुड़िया जो छोड़ी
छूटा सहेलन का साथ
निमिया तले मोरा डोला जो उतरा
आया बलम जी का गाँव।






ये कविता सुरत की युवा कवियत्री एषा दादा वाला ने लिखी है। इतनी कम उम्र में ऐषा ने कई गंभीर कविताएं लिखी है।

किसी प्रादेशिक भाषा से हिन्दी में अनुवाद इतना आसान नहीं होता। कई शब्द ऐसे होते हैं जिनको हम  समझ सकते हैं लेकिन उनका दूसरी भाषा उनके उचित शब्द खोजना मुश्किल होता है। मसलन गुजराती में एक शब्द  है “निसासो” यानि  एक हद तक हिन्दी में हम कह सकते हैं कि “ठंडी सी दु:खभरी साँस छोड़ना! लेकिन गुजराती में निसासो शब्द एक अलग भाव प्रस्तुत करता है।  जब कविता को अनुवाद करने की कोशिश की तो इस तरह के कई शब्दों पर आकर  अटका।

खैर मैने बहुत कोशिश की कि कविता का मूल भाव या अर्थ खोए बिना उसका सही अनुवाद कर सकूँ, अब कितना सफल हुआ यह आप पाठकों पर…

डेथ सर्टिफिकेट :
प्रिय बिटिया
तुम्हें याद होगा
जब तुम छोटी थी,
ताश खेलते समय
तुम  जीतती और मैं हमेशा हार जाता

कई बार जानबूझ कर भी!
जब तुम किसी प्रतियोगिता में जाती
अपने तमाम शील्ड्स और सर्टिफिकेट
मेरे हाथों में रख देती
तब मुझे तुम्हारे पिता होने का गर्व होता
मुझे लगता मानों मैं
दुनिया का सबसे सुखी पिता हूँ

तुम्हें अगर कोई दु:ख या तकलीफ थी
एक पिता होने के नाते ही सही,
मुझे कहना तो था
यों अचानक
अपने पिता को इतनी बुरी तरह से
हरा कर भी कोई खेल जीता जाता है कहीं?

तुम्हारे शील्ड्स और सर्टिफिकेट्स
मैने अब तक संभाल कर रखे हैं
अब क्या तुम्हारा “डेथ सर्टिफिकेट” भी
मुझे ही संभाल कर रखना होगा?

*****************

पगफेरा
बिटिया को अग्‍निदाह दिया,
और उससे पहले ईश्‍वर को,
दो हाथ जोड़ कर कहा,
सुसराल भेज रहा हौऊं,
इस तरह  बिटिया को,
विदा कर रहा हूँ,
ध्यान तो रखोगे  ना उसका?
और उसके बाद ही मुझमें,
अग्निदाह देने की  ताकत जन्मी
लगा कि ईश्‍वर ने भी मुझे अपना
समधी बनाना मंजूर कर लिया

और जब अग्निदाह देकर वापस घर आया
पत्‍नी ने आंगन में ही पानी रखा था
वहीं नहा कर भूल जाना होगा
बिटिया के नाम को

बिना बेटी के घर को दस दिन हुए
पत्नी की बार-बार छलकती  आँखें
बेटी के व्यवस्थित पड़े
ड्रेसिंग टेबल और वार्डरोब
पर घूमती है
मैं भी उन्हें देखता हूँ और
एक आह निकल जाती है

ईश्‍वर ! बेटी सौंपने से पहले
मुझे आपसे रिवाजों के बारे में
बात कर लेनी चाहिए थी
कन्या पक्ष के रिवाजों का
मान तो रखना चाहिए आपको
दस दिन हो गए
और हमारे यहाँ पगफेरे का  रिवाज है।

दोनों कविताएं *एषा दादावाला*
अनुवाद: सागर चन्द नाहर

जयप्रकाश त्रिपाठी


आग बटोरे चांदनी, नदी बटोरे धूप।
हवा फागुनी बांध कर रात बटोरे रूप।

पुड़िया बंधी अबीर की मौसम गया टटोल।
पोर-पोर पढ़ने लगे मन की पाती खोल।

नख-शिख उमर गुलाल की देख न थके अनंग
पीतपत्र रच-बस लिये चहुंदिश रंग-विरंग।

फागुन चढ़ा मुंडेर पर, प्राण चढ़े आकाश,
रितुरानी के चित चढ़ा रितु राजा मधुमास।

नागर मन गागर लिये, बैठा अपने घाट,
पछुवाही के वेग में जोहे सबकी बाट।

मंत्रमुग्ध अमराइयां, चहक-महक से गांव,
मंथर-मंथर फिर रहा मौसम ठांव-कुठांव।

खोज खबरिया लेत रहीं भोजपुरिया धुन में


एही कहल जाला आंख एक्को ना, कजरौटा बारह ठो। आ तनी आउर मुंहफटई से कहीं त झोरी में बाल नहीं (बाल ऊ वाला), औ चले जगन्नाथ जी। सरमायेदारन की सेवकाई में कटोरा लेइके दर-दर डोलत ई मुड़कटवन के का कहलि जाइ कि फुहरी गइल दाना भुजावै, फूटि गइल खपड़ी त लगलि गावै। त भइया चरनबंदन चहुंओंरी....एही चारन गान पर नीचे कुछ लाइना इहां सुनावति बानी रउवा सबन के..... समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी समाजवाद उनके धीरे-धीरे आयी। हाथी से आयी घोड़ा से आयी अंगरेजी बाजा बजाई...समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी। नोटवा से आयी वोटवा से आयी बिड़ला के घर में समायी...समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी। गांधी से आयी आंधी से आयी टुटही मड़इया उड़ायी,...समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी। कांगरेस से आयी जनता से आयी झंडा के बदली हो जायी...समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी। डालर से आयी रूबल से आयी देसवा के बान्हे धरायी...समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी। वादा से आयी लबादा से आयी जनता के कुरसी बनायी...समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी। लाठी से आयी गोली से आयी लेकिन अहिंसा कहायी...समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी। महंगी ले आयी गरीबी ले आयी केतनो मजूरा कमायी...समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी। छोटका के छोटहन बड़का के बड़हन बखरा बराबर लगायी....समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी। परसों ले आयी बरसों ले आयी हरदम अकासे तकायी....समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी। धीरे-धीरे आयी चुपे-चुपे आयी अंखियन पर परदा लगायी....समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी।
त भइया, गोरख पांड़े त ई कुल गावत-गावत मरि गइलैं। उनहूं के भला का मालूम रहल कि समजावाद का कमाई-धमाई खाए-खसौटे वाले दलाल टाटा की थैली में मुंह मारि-मारि के सिंदूरग्राम अउर नांदीग्राम में अपने मुंहे करिखा लगाइके थेथर की तरह घूमत बानै आजकल। आ ऊ जमाने के, पांड़े जी के जमाने के बड़े-बड़े करांतिकारी लोग दिल्ली में सहाराश्री-सहाराश्री जपत हउवैं। केहू पतरकार बनत डोलत बा, जोतीबसू का जीवनी लिखत बा त केहू एहर-ओहर पूंजी के दलालन के नाबदान में थूथुन चभोरत बा। आ जे लोग नक्सलबाड़ी में बान-धनुख तनले रहे, उनहू लोगन में केहू मीरघाट-केहू तीरघाट पर आपनि-आपनि मंडली लेके बड़ा जोरदार बहस में जुटल बा साठ साल से कि हमार असली दुसमन के हउवै। एतना साल में त आदमी चाहै त पताल खोदि नावै। धिक्कार बा उनहू लोगन के अइसन जनखा गोलइती प। सुनै में आवत ह कि ऊहो लोगन में केहू क सरदार लेबी के पइसा से अमरीकी शर्ट-बुश्शर्ट पहिनी के अरिमल-परिमल परकासन चलावत बा अपने मेहरी-लइका, साढ़ू-सढ़ुआइन के साथ त केहू तराई में टांगि भचकावत रागमल्हार में डूबलि बा। आज ले केहू से एक तिनको भर नाही उखरल। उनही लोगन में केहू अमेरिका से लौटि के बीबी के पल्लू में एनजीओगीरी करत बा त केहू बिहार अउर आन्हर परदेस के जंगलन में फालूत के धांय-धांय में आपनि ताकत झोंकले बा। अरे बेसरम, तू लोगन के चिल्लू भर पानी में डूबि मरै के चाही कि देखा नैपाल में बिना कौनो डरामा-नौटंकी कैसे बहादुरन की जमाति ने ऊ रजवा के खदेड़ि देहलस...आ तू लोगन अजादी क मशालै पढ़ावति रहि गइला। कहां गइल तोहार आइसा-फाइसा. आइपीएफ-साइपीएफ.... आखिर कब ले तोहन लोगन ढुकारि मारि के दिल्ली के कोने अतरे में फोकट का बुद्धी बघारत रहबा। तोहन लोगन त आपसै में कटि मरबा, जनता के खातिर का कइबा कट्टू? देखा कठपुतली नीयर मनमोहना कैसे चीन अमरीका धांगत हउवै, मर्द त ऊ हउवै, तोहन लोग सारी पहिनि के घूमा ससुरो। किसान मजूर क कलेजा जरी त ओकरे मुंह से ईहै कुल गारी-गुपुत निकली। मरला की हद कइ नउला तोहन लोग। खैर कौनो बात नइखैं। हमरे बस में आजि एतने हउवै कि एही तरहि से तोहन लोगन क खोज खबरिया लेत रहीं भोजपुरिया धुन में। तू लोग नगरी-नगरी द्वारे वैन प लादि के किताब कापी बेचा, क्रांति-स्रांती का नाटक-नौटकी करा, गीत-गाना का सीडी-वोडी बेचा-बिकना, आपन रोजी-रोटी चलावा, बस तोहरे लोगन से आउर कुछ उखरै-परिआए क भरोसै बेकार बा। अकारथ गइलि कुल कुरबानी। जाने केतनी सहीद लोग अपने-अपने कबर में से तोहन लोगन क ई रामलीला देखति होइहैं, जनता त देखती बाय। ई बाति तोहनो लोगन पर लागू हउवै कि... फुहरी गईल दाना भुजावै, फूटि गइल खपड़ी लगल गावै।

रउरे बुढि़या के गलवा में क्रीम लागेला, हमरी नइकी के जरि गइलें भाग भाई जी
आज महिला दिवस ह। ईहो एकठो चोचलेबाजी बा। कौनो मुंह बनउले क जरूरत नइखैं। दुनिया भर में दुनिया भर क दिवस मनावै क फैशन स चल गइलि बा। ओही में एक फैशन ईहो हउवै। सरऊ लोग तरह-तरह क तमाशा करत हउवैं। चिढ़ावै के खातिन। कबौं लइकन के चिढ़इहैं, त कबौं बुढ़वन के, कबौं मजदूरन के चिढ़इहैं त कबौं किसानन के... भोजपुरी में एकगो कहावत ह कि ओढ़ौ के दुका नहीं, दरी बिछनौना। दुनिया भर क के गिनावै. अपने आसैपास देखिला, आसैपास का- तनी अपने घरहि में देखिला कि कइसन हाल बा महिला लोगन का। केहू जनमते बेंचि देत ह, केहू गरभ में ही मरवाइ देत ह, त केहू जिनगी भर मारि-मारि के कचूमर निकालि लेत ह।
त भइया ई कुल झांसा-पट्टी क खेल ह। जौन करै के चाही, तौन त केहू कुछ करत-धरत ना ह, महिला दिवस जरूर मनइहैं। अमीरी-गरीबी का खोदि-खोदि के समुंदर बनावत जात हउवैं, पइसा वालन के मेम इसनो-पाउडर चेंपि के रोज-रोज हाट-बाट, माल, मारकेट क धौरहरि मचउले हईं, गरीबन क बिटिया-मेहरारू गिट्टी तोड़त हईं, घास करति हईं, हर जोतत हईं, पत्ता-पन्नी बीनति हईं, त पेट-परदा चलत ह।
केतना महिला संगठन हउवैं, हर पार्टी में महिला विंग अलग से, केतना पंच-परधान मेहरारू हईं, अउर-त-अउर सोनिया गान्ही, मायावती बहिन जइसन दुनिया भर क चौधरानी अपने देश-मुलुक में गद्दी पर बइठि के खूब मजा काटति बानी, आ औरतन क हाल जस क तस बा। वोट लेवै के बेला में ई कुल औरति बनि जालीं, एकरे बाद पांच साल तक के पूछत बा, केहू नइखैं। अब त भइया ई कुल चिरकुटाई सुनत-सुनत जी पकि गइल बा। ई कुल महोखाबाजी अब तनिको बरदास्त ना होत बा। ऊ कुल आपन-आपन चमकीला खतोना बनाइ-बनाइ के हम लोगन के खूब भरमावत हउवैं। छोड़ा जाएदा उनहन क महिला-सहिला दिवस का बात-कुबात...... आवा तनी एही बहाने गीत-गवनई होइ जाय गोरख पांड़े के मुंह-राग से, उनहीं के सबदन में.....

पहिले-पहिल जब वोट मांगे अइलें त बोले लगलें ना
तोहके खेतवा दिअइबों
तोहके फसलि उगइबो
दूसरे चुनउवा में जब उपरइलें त बोलें लगलें ना
तोहके कुइयां खनइबो
सब पियसिया मिटइबौ
तीसरे चुनउवा में चेहरा दिखइलें त बोले लगलें ना
तोहके महल उठइबों
ओमे बिजुरी लगइबों
अबकी टपकिहें त कहबों कि देख तू बहुत कइला ना
तोहके अब न थकइबो
आपन हथवा उठइबो
जब हम ईहवों के किलवा ढहइबो त एही हाथे ना
तोहरो मटिया मिलइबो
आपन रजवा बनइबों
......त एही हाथे ना।

ऐ कुतिया

तेरी पूंछ इत्ती-सी,
तेरी टांगें इतनी छपक-छरहरी,
तेरी भूंक मीठी-मीठी,
तेरी आंखें गुस्साई हिरनी जैसी
ऐ कुतिया!

तेरी चाल कैट वॉक की,
तेरी मस्तियां पूंजी से पुरजोर,
तेरी चौकदारी अमेरिका-जापान तक,
तेरे कान कितने चौकन्ने,
और तेरी खाल इतनी मोटी क्यों है
ऐ कुतिया!

तेरे आजू-बाजू इतनी धन-दौलत,
तेरे इतने घर-मकान,
तेरे इतने नौकर-चाकर, नाती-पनाती,
बारहो मास कोई राजधानी, कोई पहाड़ों की सैर पर,
तू शेयरों की रानी,
दलालों की दलाल और कुत्तों की कहारन
ऐ कुतिया!

तेरे नाम पर गालियों के मुहावरे हजार,
तेरे गुस्से में बर्बादियों के सात समंदरों की दहाड़,
तेरी नीद में तरह-तरह के किन्नर नरेश,
तेरी सुबहें लहलहाती हुईं,
तेरी रातें कहकहों और ठहाकों से सराबोर,
तेरी चमड़ी इत्ती सुघर-सलोनी
लेकिन तेरा मन
ऐ कुतिया!

कुतिया कहने पर गुस्सा क्यों आता है तुझे,
कुतिया का मतलब गाली क्यों होता है,
कुतिया का दूध पीने वाली औलादें
इतनी खूंख्वार क्यों होती हैं,
अब तुझसे क्या पूछें
और भी क्या-क्या कहें....
ऐ कुतिया!

(तू खुद में एक सवाल है)
(तू खुद में एक जाति है)
(तेरी जाति की हजारों-लाखों दुनिया भर में)
(ऐ कुतिया!)

(भौंकती रह, भौंकती रह)
(भौंकना ही तेरा सौंदर्यशास्त्र है)
(भौंकना तेरा पेशा है)
(भौंकने से परहेज करते ही तू मर जाएगी)
(ऐ कुतिया!)

कबीर सारा-रा-रा-रारा-रारा-रा-रारा....
डाल के ऊपर कउवा हौ, कउवा ऊपर कनकउवा
ओकरे उप्पर छउवा ठाकुर बइठल खायं ठोकउवा
कबीर सारा-रा-रा-रारा-रारा-रा-रारा....
दानापुर दरियाव किनारा, गोलघर निशानी
लाट साहेब ने किला बनाया, क्या गंगा जल पानी
जोगी जी सार रा रा.........
दिल्ली देखो ढाका देखो, शहर देखो कलकत्ता।
एक पेड़ तो ऐसा देखो, फर के ऊपर पत्ता,
जोगी जी सार रा रा............
कौन काठ के बनी खड़ौआ, कौन यार बनाया है,
कौन गुरु की सेवा कीन्हो, कौन खड़ौआ पाया,
चनन काठ के बनी खड़ौआ, बढ़यी यार बनाया हो,
हम गुरु की सेवा कीन्हा, हम खड़ौआ पाया है,
जोगी जी सारा रा रा............

सोमवार, 25 फ़रवरी 2008
फागुन में बाबा देवर लागै
आइ गइलि, आइ गइलि, लउकति ना हउवै त का होइ गइलि, मनवा में त रसमसाती हउवै......भीनति हउवै, गुनगुनाति हउवै...हंसति हउवै, मुसुकाति हउवै, थिरकति हउवै, लहालौट होति हउवै....रंगियाति हउवै, अंगियाति हउवै, अगियाति हउवै अब्बै से होरी .....हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा......
मौसमो मुरुकै लगलि बा, कुहुकै लगलि बा, हुहुकै लगलि बा, लुहुकै लगलि बा, महकै लगलि बा, सहकै लगलि बा, बहकै लगलि बा, रहि-रहि के चहकै लगलि बा, रहि-रहि के दहकै लगलि बा, टहकै लगलि बा, रसे-रसे डहकै लगलि बा, मन भितरें-भितर सहकै लगलि बा...हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा....
अब्बै से रंग चढ़ै लगलि बा, ढंग पढ़ै लगलि बा, पोर-पोर में बसंती कोपल कढ़ै लगलि बा, चिक्कन-चिक्कन रुप-रंग गढ़ै लगलि बा, फगुनौटी का हीरा-मोती जड़ै लगलि बा, चारों ओर फूल-पत्ती झरै लगलि बा, बुढ़उवो से नीक-नइकी डरै लगलि बा, मुनक्का नाईं मनहि-मन ढरै लगलि बा, का जानैं लोग एहि वैलेंटाइन का मरम....तनी-तनी तर-ऊपरि रोम-रोम बरै लगलि बा, नशाइ के आंखि कतहूं..पैर कतहूं परै लगलि बा, अंगूर अइसनि अंग-अंग फरै लगलि बा, जइसे हीया में अमरित भरै लगलि बा..हा-हा-हा-हा-हा-हा.....
पेड़-पौधा सुघराए लगल, हवा-पानी लहराए लगलि, सुरुज क रंग गहराए लगल, चनरमा अंग फहराए लगल, दिन क चलन अहराए लगल, रात चुप्पे-चुप्पे होरिहराए लगल, केहू उझकति बा, केहू चिहुंकत बा, केहू निहुकति बा, केहू टिहुकति बा, केहू अगवारे-पिछवारे रोज पिहुकति बा...हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा........
फागुन मा बाबा देवर लागै।
कबौं एहर, त कब्बौं ओहर लागै।
फागुन मा बुढ़िया जवान लागै।
कबौ बच्ची, त कब्बौ सयान लागै।
फागुन मा रार बेकार लागै।
सब दउरि-दउरि अंकवार लागै।
हा-हा-हा-हा-हा-हा...............

शनिवार, 23 फ़रवरी 2008
फागुन उड़त गुलाब
झूमर चौतार झमारी, तजो बनवारी
फागुन उड़त गुलाब अर्गला कुमकुम जारी


धनि-धनि ए सिया रउरी भाग, राम वर पायो।
लिखि लिखि चिठिया नारद मुनि भेजे, विश्वामित्र पिठायो।
साजि बरात चले राजा दशरथ,
जनकपुरी चलि आयो, राम वर पायो।
वनविरदा से बांस मंगायो, आनन माड़ो छवायो।
कंचन कलस धरतऽ बेदिअन परऽ,
जहाँ मानिक दीप जराए, राम वर पाए।
भए व्याह देव सब हरषत, सखि सब मंगल गाए,
राजा दशरथ द्रव्य लुटाए, राम वर पाए।
धनि -धनि ए सिया रउरी भाग, राम वर पायो।



शुभ कातिक सिर विचारी, तजो वनवारी।
जेठ मास तन तप्त अंग भावे नहीं सारी, तजो वनवारी।
बाढ़े विरह अषाढ़ देत अद्रा झंकारी, तजो वनवारी।
सावन सेज भयावन लागतऽ,
पिरतम बिनु बुन्द कटारी, तजो वनवारी।
भादो गगन गंभीर पीर अति हृदय मंझारी,
करि के क्वार करार सौत संग फंसे मुरारी, तजो वनवारी।
कातिव रास रचे मनमोहन,
द्विज पाव में पायल भारी, तजो वनवारी।
अगहन अपित अनेक विकल वृषभानु दुलारी,
पूस लगे तन जाड़ देत कुबजा को गारी।
आवत माघ बसंत जनावत, झूमर चौतार झमारी, तजो वनवारी।
फागुन उड़त गुलाब अर्गला कुमकुम जारी,
नहिं भावत बिनु कंत चैत विरहा जल जारी,
दिन छुटकन वैसाख जनावत, ऐसे काम न करहु विहारी, तजो वनवारी।

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2008
अंखिया क पुतरी

अंखिया क पुतरी
करेजवा में उतरी
विदेशिया क सुघरी
सगरवा में उतरी
उतरी हो रामा
पुतरी हो रामा
रामा हो रामा....

सूने-सूने डिहवा
मड़ैया सूनी-सूनी
कबौ देहरादूनी
त कबौ टेलीफूनी
मन भइलें खूनी-खूनी
याद आवै दूनादूनी
...अंखिया क पुतरी हो रामा

छुटि गइलैं गउवां
बिलाइ गइलैं नउवां
बालेपन क दिनवा
हो गइलैं महीनवां
नाही केहू आवै ला
ना जालै केहू उहवां
...अंखिया क पुतरी हो रामा


अरे...हाऊ देखा, का होत हउवै
देखबा...देखबा...तनी देखबा-देखबा, हाऊ का होत ह, अरे एतना लोग एक साथ काहें दौड़त हउवै....ऊ कइसन कइसन लोग हउवैं....ओनके का हो गइल ह....एक दमै सनक गयल हउवैं का....कुल क कुल एकै तरह क लउकत हउवैं.....नाही-नाही....ओहमै दू तरह क लोग लउकत हउवैं....आज हमहूं देखि लेहलीं ओनके....जब पढ़ली बेहया का चिट्ठा....आवा तनी मोका निकाल के दू घड़ी तुहूं पढ़ ले जा, त जानि जइबा कि असली बात का ह...ऊ लोग कउन लोग हउवैं....ओनकर कहानी भैया चिट्ठा से उधार लेइके हम इहां आप सबन के पढ़वावत हईं...जस क तस-


(यह ताजा वाकया अमीर घराने का है) सुबह-सुबह पहले तो कुछ-एक लोगों की निगाह उस पर पड़ी, फिर चारों तरफ शोर मच गया। जिसने भी उसे देखा, आंखें फटी-की-फटी रह गईं। सबकी आंखों में एक ही सवाल कि इतना सभ्य और सुदर्शऩ होते हुए भी उसने ऐसा क्यों किया? वह खुद नंगा हुआ या किन्ही बदमाशों ने उसके साथ ये हरकत की? ...और अपनी इस करतूत से अचानक वह अनगिनत महिलाओं-पुरुषों की भीड़ की आंखों में इस तरह धंस गया कि सब-के-सब बुड़बुड़ाने लगे....................यह वाकया है नये साल के दूसरे महीने की पहली तारीख यानी 1 फरवरी की सुबह का। उसे नंगा किया अमीरों की चटोरी करने वाले बुर्जुआ मीडिया ने। उसी मीडिया ने, जो कहता है देश बहुत तेजी से विकास कर रहा है। आए दिन जो देश के अमीरों की नंबरिंग की फेहरिस्त पढ़वाता रहता है। मुद्दत बाद उसने राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) की एक ताजा रिपोर्ट को पहले-दसरे पन्ने पर प्रमुख स्थान दिया। इस रिपोर्ट ने भारतीय लोकतंत्र को नंगा कर दिया। उन अमीर घरानों और उनके पालतू राजनेताओं के चेहरे से एक झटके में नकाब खींच थी। रिपोर्ट के आईने में सबके सब एक साथ नंगे दौड़ते दिखे। क्या है रिपोर्ट में, एक नजर आप भी जान लें-
-भारत में 17 करोड़ लोग सिर्फ 19 रुपये में रोजाना गुजारा करते हैं। उत्तर प्रदेश का पूरा ग्रामीण इलाका इसी तरह जी रहा है, जबकि बिहार में ग्रामीण सिर्फ 15रुपये में रोजाना गुजारा कर रहे हैं।
- भारत में लगभग 14करोड़ लोग सिर्फ 12रुपये या इससे भी कम रुपये से रोजाना गुजारा कर रहे हैं।
-पंजाब और हरियाणा सबसे खुशहाल माने जाते हैं, मीडिया भी इनकी खूब दुंदभी बजाता रहता है, लेकिन नंगी हकीकत ये है कि पंजाब में प्रति व्यक्ति आय सिर्फ 33रुपये और हरियाणा में 25रुपये है।
-रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय ग्रामीण एक महीने में 251रुपये से अपने को जिंदा रखता है।
-ग्रामीणों की आधी आबादी कच्चे या अधपक्के घरों में जीवन बिता रही है। इनमें कच्चे घर वाले 19फीसदी हैं।
-विकास का इतना ढिंढोरा पीटा जा रहा है लेकिन आज भी शहरी आबादी के 45फीसदी लोग ही रसोई गैस पर भोजन पका रहे हैं, जबकि गांवों में 75फीसदी लोग लकड़ी के चूल्हे से काम चला रहे हैं।........इस नंगे लोकतंत्र को देखते हुए ऐसे में कुछ सवाल--कौन जिम्मेदार है इसके लिए?
-आए दिन देश के अमीरों की फेहरिस्त पढ़वा कर मीडिया आखिर क्या साबित करना चाहता है?
-एक भारतीय ढाई सौ रुपये में महीना काटता है और दूसरे (अंबानी) का व्यक्तिगत मासिक खर्च सवा दो करोड़ क्यों?
-नेता और अफसर तो हैं ही, क्या वे साहित्यकार, पत्रकार, चिंतक, वक्ता, खिलाड़ी, अभिनेता, रंगकर्मी गूंगे-बहरे या दिमागी अपाहिज नहीं हैं, जो ऐसी सच्चाइयां बयान होते ही चुप्पी साध जाते हैं?

....तो भैया
आओ भारतीय लोकतंत्र की हाट सजी है
यहां हर अंग बिकाऊ है
किडनी क्या, जो चाहो खरीद लो जाओ
पहले इनकी चुप्पियां खरीदो
फिर इनकी अक्ल खरीदो
फिर जो चाहो, सब कुछ
लोकतंत्र तो कब का नीलाम हो चुका है
तन-बदन तक नीलाम हो रहा है
अब कब जागोगे
कब तक एक दूसरे से भारतीय संस्कृति और सभ्यता का
सफेद झूठ बोलते रहोगे
यदि तुम ऐसा कर रहे हो
तो इसके सिवाय तुम्हारे पास
और चारा ही क्या है?
और चारा ही क्या है?
और चारा ही क्या है?
...क्योंकि तुम मर चुके हो
तुम्हारी आत्मा सड़ चुकी है!
शामिल हो जाओ नंगी दौड़ में,
शामिल तो हो ही,
फास्ट फूड खाओ
दारू पीयो, सिगरेट फूंककर काफी हाउसों में गप्प हांको,
दुनिया भर की बातें करो
और देखो कि तुम कितने नंगे हो चुके हो
....उफ्! अमीरों की खुरचन ने
तुम्हे कितना नंगा कर दिया है?
सुविधाओं ने तुम्हे कितना परजीवी बना दिया है
तो खोखले जी
तुम सिर्फ नंगे ही नहीं
इतने नकली हो गए हो तुम
कि तुम्हारी ही आंखें तुम्हे देखने से मना कर देती हैं
सोचो कि एक दिन में
कितनी बार ऐसा होता है तुम्हारे साथ,
सोचो कि तुम सब कौन हो?
आखिर क्या चाहते हो?
तुम्हे यह सब क्यों नहीं दिखाई देता?
तुम्हे यह सब क्यों नहीं सुनाई देता?
यदि तुम सब कुछ देख-सुन कर भी
अनजाने बने हुए हो
.....तो वाकई
तुम कितने नीच हो!!


बुधवार, 30 जनवरी 2008
आज गांन्हीबाबा का पुन्नतीथी न हउवै, त तनी ईहो सुनले जा
बड़ी-बड़ी कोठिया सजाए पूंजीपतिया
कि दुखिया के रोटिया चोराए-चोराए
अपने महलिया में करे उजियरवा
कि बिजरी के रडवा जराए-जराए

कत्तो बने भिटवा कतहूं बने गढ़ई
कत्तो बने महल कतहुं बने मड़ई
मटिया के दियना तूहीं त बुझवाया
कि सोनवा के बेनवा डोलाए-डोलाए

मिलया में खून जरे खेत में पसीनवा
तबहुं न मिलिहैं पेट भर दनवा
अपनी गोदमिया तूहीं त भरवाया
कि बड़े-बड़े बोरवा सियाए-सिआए

राम अउर रहीम के ताके पे धइके लाला
खोई के ईमनवा बटोरे धन काला
देसवा के हमरे तू लूट के खाया
कई गुना दमवा बढ़ाए-बढ़ाए

जे त करे काम, छोट कहलावे
ऊ बा बड़ मन जे जतन बतावे
दस के सासनवा नब्बे पे करवावे
इहे परिपाटी चलाए-चलाए

जुड़ होई छतिया तनिक दऊ बरसा
अब त महलिया में खुलिहैं मदरसा
दुखिया के लरिका पढ़े बदे जइहैं
छोट-बड़ टोलिया बनाए-बनाए

बिनु काटे भिंटवा, गड़हिया न पटिहैं
अपने खुसी से धन-धरती न बटिहैं
जनता केतलवा तिजोरिया पे लगिहैं
कि महल में बजना बजाए-बजाए

.....गांन्ही जी के चेलवा लूटत बांटैं सबके
चोरवन से हथवा मिलाए-मिलाए
देसवा अमेरिका के हथवा में बन्हक
रखि देहलें नेतवा ढुकाए-ढुकाए
अब रजघटवा पै गावै लैं भजनिया
गांन्ही नाई चेहरा झुकाए-झुकाए
...रघुपति राघव राजाराम
पतना न पावैं सीताराम..सित्ताराम...सित्ताराम


शुक्रवार, 25 जनवरी 2008
ए हमार छब्बीस जनवरी
आइ गइलू न, फिर अटकत-मटकत...

ए हमार छब्बीस जनवरी
अबहिन बाकी बा कुछ अउरी?

त आवा तनी गोरख बाबू के सुर में इहो कुल सुनले जा कि तोहके चूमे-चाटे वाले, सलूट मारै वाले का-का करत हउवैं....

रउरा सासना के बाटे ना जवाब भाई जी
रउरा कुरसी से झरेला गुलाब भाई जी

रउरा भोंभा लेके सगरो आवाज करीला
हमरा मुंहवा में लागल बाटे जाब भाई जी

रउरे बुढिया के गलवा में क्रीम लागेला
हमरी नइकी के जरि गइलें भाग भाई जी

रउरे लरिका त पढ़ेला बिलाइत जाइ के
हमरे लरिका के जुरे ना किताब भाई जी

हमरे लरिका के रोटिया पर नून नइखें
रउरा चापीं रोज मुरगा-कबाब भाई जी

रउरे अंगुरी पर पुलिस आउर थाना नाचे ला
हमरे मुअले के होखे न हिसाब भाई जी।



खोज खबरिया लेत रहीं भोजपुरिया धुन में
त ई हाल बा आजकल अपने मनमोहन का

दे दनादन दौरा। दे दनादन। अमरिकवा के चरनबंदना से पेट नइखे भरत हौ त कबौं अफरीका क दौरा, कबौं जापान का, कबौं बंगलादेस त कबौं चीन क। एह कुल दौरन क मतलब रउवा सबै जानत बानी की ना। एही कहल जाला आंख एक्को ना, कजरौटा बारह ठो। आ तनी आउर मुंहफटई से कहीं त झोरी में बाल नहीं (बाल ऊ वाला), औ चले जगन्नाथ जी। जहां जहां जात हउवैं, संग-साथ में भड़ैती की खातिर पतरकारन का झुंड पूंछ में लपेटे हुए.... कि आह मनमोहन, वाह मनमोहन......चक दे इंडिया, पक दे इंडिया, फक्क दे इंडिया। सरमायेदारन की सेवकाई में कटोरा लेइके दर-दर डोलत ई मुड़कटवन के का कहलि जाइ कि फुहरी गइल दाना भुजावै, फूटि गइल खपड़ी त लगलि गावै। त भइया चरनबंदन चहुंओंरी....एही चारन गान पर नीचे कुछ लाइना इहां सुनावति बानी रउवा सबन के.....

समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आयी।
हाथी से आयी
घोड़ा से आयी
अंगरेजी बाजा बजाई...समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी।

नोटवा से आयी
वोटवा से आयी
बिड़ला के घर में समायी...समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी।

गांधी से आयी
आंधी से आयी
टुटही मड़इया उड़ायी,...समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी।

कांगरेस से आयी
जनता से आयी
झंडा के बदली हो जायी...समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी।

डालर से आयी
रूबल से आयी
देसवा के बान्हे धरायी...समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी।

वादा से आयी
लबादा से आयी
जनता के कुरसी बनायी...समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी।

लाठी से आयी
गोली से आयी
लेकिन अहिंसा कहायी...समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी।

महंगी ले आयी
गरीबी ले आयी
केतनो मजूरा कमायी...समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी।

छोटका के छोटहन
बड़का के बड़हन
बखरा बराबर लगायी....समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी।

परसों ले आयी
बरसों ले आयी
हरदम अकासे तकायी....समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी।

धीरे-धीरे आयी
चुपे-चुपे आयी
अंखियन पर परदा लगायी....समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आयी।



त भइया, गोरख पांड़े त ई कुल गावत-गावत मरि गइलैं। उनहूं के भला का मालूम रहल कि समजावाद का कमाई-धमाई खाए-खसौटे वाले दलाल टाटा की थैली में मुंह मारि-मारि के सिंदूरग्राम अउर नांदीग्राम में अपने मुंहे करिखा लगाइके थेथर की तरह घूमत बानै आजकल। आ ऊ जमाने के, पांड़े जी के जमाने के बड़े-बड़े करांतिकारी लोग दिल्ली में सहाराश्री-सहाराश्री जपत हउवैं। केहू पतरकार बनत डोलत बा, जोतीबसू का जीवनी लिखत बा त केहू एहर-ओहर पूंजी के दलालन के नाबदान में थूथुन चभोरत बा। आ जे लोग नक्सलबाड़ी में बान-धनुख तनले रहे, उनहू लोगन में केहू मीरघाट-केहू तीरघाट पर आपनि-आपनि मंडली लेके बड़ा जोरदार बहस में जुटल बा साठ साल से कि हमार असली दुसमन के हउवै। एतना साल में त आदमी चाहै त पताल खोदि नावै। धिक्कार बा उनहू लोगन के अइसन जनखा गोलइती प। सुनै में आवत ह कि ऊहो लोगन में केहू क सरदार लेबी के पइसा से अमरीकी शर्ट-बुश्शर्ट पहिनी के अरिमल-परिमल परकासन चलावत बा अपने मेहरी-लइका, साढ़ू-सढ़ुआइन के साथ त केहू तराई में टांगि भचकावत रागमल्हार में डूबलि बा। आज ले केहू से एक तिनको भर नाही उखरल। उनही लोगन में केहू अमेरिका से लौटि के बीबी के पल्लू में एनजीओगीरी करत बा त केहू बिहार अउर आन्हर परदेस के जंगलन में फालूत के धांय-धांय में आपनि ताकत झोंकले बा। अरे बेसरम, तू लोगन के चिल्लू भर पानी में डूबि मरै के चाही कि देखा नैपाल में बिना कौनो डरामा-नौटंकी कैसे बहादुरन की जमाति ने ऊ रजवा के खदेड़ि देहलस...आ तू लोगन अजादी क मशालै पढ़ावति रहि गइला। कहां गइल तोहार आइसा-फाइसा. आइपीएफ-साइपीएफ.... आखिर कब ले तोहन लोगन ढुकारि मारि के दिल्ली के कोने अतरे में फोकट का बुद्धी बघारत रहबा। तोहन लोगन त आपसै में कटि मरबा, जनता के खातिर का कइबा कट्टू?

देखा कठपुतली नीयर मनमोहना कैसे चीन अमरीका धांगत हउवै, मर्द त ऊ हउवै, तोहन लोग सारी पहिनि के घूमा ससुरो। किसान मजूर क कलेजा जरी त ओकरे मुंह से ईहै कुल गारी-गुपुत निकली। मरला की हद कइ नउला तोहन लोग। खैर कौनो बात नइखैं। हमरे बस में आजि एतने हउवै कि एही तरहि से तोहन लोगन क खोज खबरिया लेत रहीं भोजपुरिया धुन में। तू लोग नगरी-नगरी द्वारे वैन प लादि के किताब कापी बेचा, क्रांति-स्रांती का नाटक-नौटकी करा, गीत-गाना का सीडी-वोडी बेचा-बिकना, आपन रोजी-रोटी चलावा, बस तोहरे लोगन से आउर कुछ उखरै-परिआए क भरोसै बेकार बा। अकारथ गइलि कुल कुरबानी। जाने केतनी सहीद लोग अपने-अपने कबर में से तोहन लोगन क ई रामलीला देखति होइहैं, जनता त देखती बाय।
ई बाति तोहनो लोगन पर लागू हउवै कि...
फुहरी गईल दाना भुजावै,
फूटि गइल खपड़ी लगल गावै।
प्रस्तुतकर्ता भोजवानी पर 1:22 am 2 टिप्‍पणियां:
लेबल: क्रांति-सांति, गोरख पांडे, भोजपुर, भोजपुरिया, मनमोहन
शुक्रवार, 18 जनवरी 2008
अ़ँडु़आ बैल बंहेड़ु़आ...तान भोजपुरिया
अ़ँडु़आ बैल बंहेड़ु़आ पूत, खा ले बेटा कहीं सुत।
अइली ना गइली फलांने बो कहइलीं।
- अन्हरा सियार के पीपरै मेवा
अपना बिनु सपना, गोतिया के धन कलपना।
-अपना मने सजनी, के गाँव के लोग कहैं पदनी
-अपना हारल मेहरी के मारल।
- अब्बर क मेहरारू गाँव भर के भउजी
-अहीर बहीर बन बइर के लासा, अहीर पदलेस भइल तमासा।
-आँख के आन्हर गांठ के पुरा।
- आँख एक्को ना, कजरौटा बारह गो
-आँख ना दीदा मांगे मलीदा।
- आइल थोर दिन गइल ढेर दिन।
-आगे नाथ ना पा पगहा।
-आन्हर कुकुर बतासे भोंके ।
- आन्ही के आगे बेना के बतास! (बेनाउपंखा, बतासउहवा)
-आपन निकाल मोर नावे दे।
-आपन आंखि न देखै, दूसरे क ढेंढ़रा निहारै।
-बाबू गुड़ खाई, आपन कान छेदाई।
- इसर निकलस दरिदर पइसस।
-उखड़े बाल नहीं, नाम बरिआर सिंह।
-उपास भला कि मेहरी के जूठ भला !
-एक आन्हर एक कोढ़ी, भले राम मिलवले जोड़ी।
-एक ट्का के मुर्गी नव ट्का के मसाला।
- एक त गउरा अपने गोर, दूसर लहली कमरी ओढ़।
-एक त छ्उँड़ी नचनी, गोड़ में परल बजनी, अउरी हो गइल नचनी।
- एक क लकड़ी, नब्बे खर्च।
-एक हाथ के ककरी, नौ हाथ के बिआ।
-कमाय धोती वाला खाय टोपी वाला।
-कहले से धोबी गदहवा पर ना चढ़े।
- कहाँ राजा भोज कहाँ भोजवा तेली!
- काठ के हँडिया एके बेर चढ़ै ले।
-काम के ना काज के नौ सेर अनाज के।
-बकरा जान संग जाए खवइया के सवादै ना।
-खेत च गदहा मार खाए धोबी।
-गइल भइंस पानी में।
-गया मरद जो खाय खटाई, गई नारि जो खाय मिठाई।
-घर-घर देखा एके लेखा।
-घीव देत घोर नरिया।
-पर लैं राम कुकर के पालै ठेलठाल के कइलैं खाले।



गुरुवार, 17 जनवरी 2008
जय बाबा कैलाश
उर्फ कवि कैलाश गौतम क गीत-गौनई खरी-खरी
इधर भागती,उधर भागती, नाचा करती हैं,
बड़की भौजी, सबका चेहरा बांचा करती हैं।

बुधवार, 16 जनवरी 2008
ई बात चंडूखाने क हउवै का?
तीन-चार साल से भोजपुरी का नांव खूब उजियार होत ह। अइसर उजियार कि अन्हारो क सिर सरम से गड़ि जाय। त आपो सबन जानल चाहब कि ऊ कवन लोग हउवैं, जे भोजपुरी क नांव उजियार करै में जुटल हउवैं? त एही बात पर पहिले एक लाइन सुनि ला, फेर बताइब कि जोति जगावै वाले ऊ उजियारघाट वाले लोग कवन-कवन हउवैं?
ऊ लाइन ह....
नान्हे क उढ़री, जब्बै से सुढ़री, तब्बै से सुढ़री,
नइहरे का नांव उजियार कइलै उढ़री।

भोजपुरिया लोग त सगरे देश-दुनिया में छिंटाइल बाड़ैं। आपन घर-दुआर, देस-जवार, आपनि माटी छोड़ि के उनमें से तमाम लोग जहां तहां बसि-बसाइ भी गयल हउवैं, लेकिन उनही लोगन के बीच कुछ नामी-गिरामी नुमा भाई लोग आ कहीं कि दुबई के भाई जइसन भाई लोग ढुकारी मारि के भोजपुरी क मुफ्त में कमाई खात-अघात हउवैं और रहल-सहल डुबावत हउवैं।
अपराधिन की दुनिया में आजमगढ़, गोरखपुर का नांव त दुबई तक गूंजतै बा, झाल-ताशा लेइके कुछ लोग फिल्मी परदवा पर भी खूब इज्जत बोरत हउवैं। कौनो सीडी की दुकान पर जा अउर भोजपुरी के नाम पर कुछ मांगा तो देखावै में दुकानदार त शरम से गड़ी जाला, आसपास खड़ा गराहक भी ऐसे घूरै लगै लैं, जैसे कौनों आदमी के कोठा पर रंगे हाथ पकड़ि लेहले हों। तुलसी बाबा का कहावत बा कि कारन कवन नाथ मोहिं मारा। बात बालि-सुग्रीव की लड़ाई पर कहलि गइलि ह, लेकिन हमरे कलेजे में ई मुहावरा भोजपुरी की खातिर धंसि जाला कि भइया दुनिया भर में काहे के भोजपुरी का नांव बोरत हउवा। ई-टीवी पर भी एक परोगराम में भोजपुरी क खूब काली पताका फहरति रहलि ह। ऊंहा भी ऊहै कुल गाली-जोगिरा वालन क जमावड़ा।
त भइया
सब लाजि-सरम घोरि के पी गयल लोगन से हमार एक नान्ह-एकन मिनती ह कि अपने साहित्य अउर संसकिरिति से एतना अघाइल बोलबानी, इज्जतपानी वाली एहि भोजपुरी क अब अउर दुर्गती मत करा। इहां त एतना अथाह भंडार ह कि जहैं उड़ेला, उहैं जमाना हक्का-बक्का होइ जाई। फिर भोजपुरी के गटर साबित करै पर काहैं उतारू हउवा। वइसे भइया, ऊ लोग मनिहैं ना, काहें से कि ओही गटरबाजी से उनहन क धंधा-पानी चलत ह। उनहन के एतनो लाज-सरम ना ह कि उनहन क करनी उनहन का माई-बहिन भी त देखति होइहैं...ऐं... त भला बतावा कि उन माई-बहिनन के दिल पर का बीतति होई?
जेतनी फूहर-पातर गाना, सब भोजपुरी में।
जेतनी नंगा नाच, सब भोजपुरी में।
धत ससुरे, तोहन क त सकल न देखै लाकि हउवै।
तोहन के चिल्लू भर पानी में डूब मरै के चाही।


त अब आवा मन तनी हलुक करै के खातिन दुइ लाइन होइ जाय, एही बात पर....
जेकरे अंगुरिया पर दुनिया टिकलि बा।
बखरा में ओकरे नरक परलि बा।
जेकरे पसीनवा से अनधन सोनवा,
ओही के चूसि-चूसि बढ़ति बाय तोनवा।
जल्द से जल्द एहि बलाग पर आप लोगन के बढ़िया-बढ़िया भोजपुरी गानो सुनै के मिली खाटी भोजपुरिया में। तनी स अउर धीरज धरा। एहि बलाग के अपने त पढ़ा ही, आउर भाइन के भी पढ़ावा-सुनावा त के जानै भोजपुरी एही मदद से देर-सबेर उज्जर होइ जाय।
...त भइया राम-राम।


सरकसई का आलम आया
मरकट्ठों के ठम्म,
तइअक तासा
देख तमासा
झंइक-झंइक झम्म।

सोमवार, 14 जनवरी 2008
छछनी छछन्न करै, टाटी-बेड़ा बन्न करै
वैसे त हर लोकभाषा में, बोलचाल में मुहावरन क, कहावतन क भरमार होले लेकिन भोजपुरी क खजाना एहि माने सबसे ढेर धनी-मानी मानन जाला। आज आप लोगन के सामने हम कुछ एही तरह का बोली-बानी क खजाना परोसे जाति हईं........

छछनी छछन्न करै, टाटी-बेड़ा बन्न करै
एकर मतलब होला तिरिया चरित्तर

आंखि एक्को ना, कजरौटा बारह ठो
एहि के दूसरे तरह से भी समझल जा सकै ला.... आंख क आन्हर, नाम बा नयनसुख

ई-बात, ऊ-बात, पड़ाइन तनी सुर्ती दा
माने एहर-ओहर क आलतू फालतू बतकही कइले के बाद मतलब क बात
घर में भूंजल भांग नाही, चलैं जगन्नाथ जी
एहि के दूसरी तरह से भी समझल जा सकै ला........पैसा न कौड़ी, बीच बजार बीच दौड़ा-दौड़ी
मेहरी न लइका, चलैं दुअरिका
माने एकर कुछ-कुछ अइसे भी समझैं कि घर-परिवार का कौनों जर-जिम्मेदारी त हवै ना, कान्ही प गमछा डालि कै चल देहलैं सन्यासी हौवै।
मांस-मछली लइका खांय, हत्या लेहले पाहुन जायं
दूसरे का करनी दूसरे के मत्थे
....त अबहीं त आज ऐतनै....

रविवार, 13 जनवरी 2008
भैया ई नया ब्लॉग ह भोजपुरी क
सच-सच कहीं त हिंदुस्तान का मातृभाषा हिंदी ह अउर हिंदी का मातृभाषा भोजपुरी। उत्तर प्रदेश अउर बिहार के हिंदी पट्टी में भोजपुरी क साहित्यिक खजाना देश के कौनो भी क्षेत्रीय भाषा कोष से बहुत ही अधिक भरल-पुरल हउवै। एकरे इलाका से अइसन-अइसन लिक्खाड़ लोग हिंदी जगत के मिललैं, जिनकर नांव आजौ देश-दुनिया में बड़े आदर से लेहल जाला। भिखारी ठाकुर त फिल्मी पताका फहरौलही रहलैं आ आज तक ओनकर नाम लेत ही मन में माटी की धुन बजै लगैले, हिंदी साहित्य क अकाश आज भी जिनके नाम से जगमगात हउवै, उनही लोगन में हउवैं पंडित रामचंदर शुकुल, सूरजकांत त्रिपाठी निराला, महादेवी वरमा, जयशंकर प्रसाद, हजारी प्रसाद द्रिवेदी, पं.श्याम नरायन पांडे हल्दी घाटी वाले, रामधारी सिंह दिनकर, सुदामा तिवारी धूमिल, हरवंश राय बच्चन, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, अउर आज कल डा.नामवर सिंह, डा.काशीनाथ सिंह,........केतना गिनाईं। फिल्मी दुनिया में त मनोज तिवारी धूम मचउलही हउवैं। एक जमाने में रमई काका, कैलाश गौतम, हरीभैया यानी हरेराम द्विववेदी, चंद्रशेखर मिसिर, डा.श्याम तिवारी, चकाचक बनारसी, भैया जी बनारसी, श्रीकृष्ण तिवारी, भोलानाथ गहमरी, रूपनारायण तिवारी, क्षेम जी, तिरलोकी, और दूर-दूर तक गूंजै वाला नाम मोती बीए। अउर केतना-केतना गिनाईं। इहां नांव गिनावे का मकसद ना हउवै। बस एतना बताइ देईं कि भोजपुरी क खजाना केतना भरल-पूरल हउवै। भोजपुरी का झंडा आज भी हिंदुस्तान के हरकोने में ही नहीं , दुनिया भर में मारिशस से अमेरिका-ब्रिटेन तक लहरात हउवै। हजारों भाई बहन एही इलाके से निकलि के जाने कहां-कहां तक बिराजि गइलें। अपने देश में त बड़े-बड़े नेता-परेता एहि इलाके से भइलैं ही, भारत के बाहर भी राष्ट्रपति, परधानमंत्री इहा के लोग होइ चुकल बाटैं। मारिशस त भोजरी का भंडार ही कहल जाला।
त अबहिन बस ऐतने जान-पहचानि के लिए।
आगे एहि ब्लॉग पर आप लोगन क कृपा बनल रहलि त बहुत कुछ पढ़ै-सुनै के मिली। अपने सभी भोजपुरी भाइन से गुहार ह कि अगर ऊ कुछ लिखे-पढ़ै के लिए गावै-सुनावै के लिए एहि ब्लाग का जरूरत महसूस करिहैं त हम सीना खोलि के उनके सामने हाजिर मिलब। आखिर में आप सब ई जानि लेईं कि जहां तक भोज में पूरी चलैले, उहां तक भोजपुरी का राजपाट हउवै। शायद एही से एकर नाम भोजपुरी परल।
सिर झुकाइ कै सब भोजपुरी भाई-बहिन लोगन के राम-राम।

सपन एक देखलीं
सूतल रहलीं
सपन एक देखलीं
सपन मनभावन हो सखिया।
फूटलि किरनिया
पुरुब असमनवा
उजर घर-आंगन हो सखिया।
अखिया के नीरवा
भइल खेत सोनवा
त खेत भइलें आपन हो सखिया।
गोसयां के लठिया
मुरइया अस तोरलीं
भगवलीं महाजन हो सखिया।
केहू नाहीं ऊंच-नीच
केहू का ना भय
नाहीं केहू बा भयावन हो सखिया।
बइरी पइसवा के
रजवा मेटवलीं
मिलल मोर साजन हो सखिया।
(इ गोरख पांड़े क गीत हउवै)

शनिवार, 12 जनवरी 2008
रउआ सबके राम-राम
भोजपुरी की दुनिया अब बड़ी भारी होइ गइल बा। इहां से उहां तक। सगरे जगत में आज एकर तूती बोलति हउवै। का किताब, का फिलिम, चारों ओर भोजपुरिया का बहार आइल बा। हमरे भोजपुरी भाई-बहन सगरी दुनिया में बिछल हउवैं. त ओही लोगन की खातिर ई ब्लाग से हम रास रचाइ लेहलीं। अब ई ब्लॉग पर आप सबन के भोजपुरी के गीत-गाना खूब सुने के मिली। अब ही त बस एतनी। आप सबके राम-राम।


रउरे बुढि़या के गलवा में क्रीम लागेला, हमरी नइकी के जरि गइलें भाग भाई जी
आज महिला दिवस ह। ईहो एकठो चोचलेबाजी बा। कौनो मुंह बनउले क जरूरत नइखैं। दुनिया भर में दुनिया भर क दिवस मनावै क फैशन स चल गइलि बा। ओही में एक फैशन ईहो हउवै। सरऊ लोग तरह-तरह क तमाशा करत हउवैं। चिढ़ावै के खातिन। कबौं लइकन के चिढ़इहैं, त कबौं बुढ़वन के, कबौं मजदूरन के चिढ़इहैं त कबौं किसानन के... भोजपुरी में एकगो कहावत ह कि ओढ़ौ के दुका नहीं, दरी बिछनौना। दुनिया भर क के गिनावै. अपने आसैपास देखिला, आसैपास का- तनी अपने घरहि में देखिला कि कइसन हाल बा महिला लोगन का। केहू जनमते बेंचि देत ह, केहू गरभ में ही मरवाइ देत ह, त केहू जिनगी भर मारि-मारि के कचूमर निकालि लेत ह।
त भइया ई कुल झांसा-पट्टी क खेल ह। जौन करै के चाही, तौन त केहू कुछ करत-धरत ना ह, महिला दिवस जरूर मनइहैं। अमीरी-गरीबी का खोदि-खोदि के समुंदर बनावत जात हउवैं, पइसा वालन के मेम इसनो-पाउडर चेंपि के रोज-रोज हाट-बाट, माल, मारकेट क धौरहरि मचउले हईं, गरीबन क बिटिया-मेहरारू गिट्टी तोड़त हईं, घास करति हईं, हर जोतत हईं, पत्ता-पन्नी बीनति हईं, त पेट-परदा चलत ह।
केतना महिला संगठन हउवैं, हर पार्टी में महिला विंग अलग से, केतना पंच-परधान मेहरारू हईं, अउर-त-अउर सोनिया गान्ही, मायावती बहिन जइसन दुनिया भर क चौधरानी अपने देश-मुलुक में गद्दी पर बइठि के खूब मजा काटति बानी, आ औरतन क हाल जस क तस बा। वोट लेवै के बेला में ई कुल औरति बनि जालीं, एकरे बाद पांच साल तक के पूछत बा, केहू नइखैं। अब त भइया ई कुल चिरकुटाई सुनत-सुनत जी पकि गइल बा। ई कुल महोखाबाजी अब तनिको बरदास्त ना होत बा। ऊ कुल आपन-आपन चमकीला खतोना बनाइ-बनाइ के हम लोगन के खूब भरमावत हउवैं। छोड़ा जाएदा उनहन क महिला-सहिला दिवस का बात-कुबात...... आवा तनी एही बहाने गीत-गवनई होइ जाय गोरख पांड़े के मुंह-राग से, उनहीं के सबदन में.....

पहिले-पहिल जब वोट मांगे अइलें त बोले लगलें ना
तोहके खेतवा दिअइबों
तोहके फसलि उगइबो
दूसरे चुनउवा में जब उपरइलें त बोलें लगलें ना
तोहके कुइयां खनइबो
सब पियसिया मिटइबौ
तीसरे चुनउवा में चेहरा दिखइलें त बोले लगलें ना
तोहके महल उठइबों
ओमे बिजुरी लगइबों
अबकी टपकिहें त कहबों कि देख तू बहुत कइला ना
तोहके अब न थकइबो
आपन हथवा उठइबो
जब हम ईहवों के किलवा ढहइबो त एही हाथे ना
तोहरो मटिया मिलइबो
आपन रजवा बनइबों
......त एही हाथे ना।


सोमवार, 25 फ़रवरी 2008
फागुन में बाबा देवर लागै
आइ गइलि, आइ गइलि, लउकति ना हउवै त का होइ गइलि, मनवा में त रसमसाती हउवै......भीनति हउवै, गुनगुनाति हउवै...हंसति हउवै, मुसुकाति हउवै, थिरकति हउवै, लहालौट होति हउवै....रंगियाति हउवै, अंगियाति हउवै, अगियाति हउवै अब्बै से होरी .....हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा......
मौसमो मुरुकै लगलि बा, कुहुकै लगलि बा, हुहुकै लगलि बा, लुहुकै लगलि बा, महकै लगलि बा, सहकै लगलि बा, बहकै लगलि बा, रहि-रहि के चहकै लगलि बा, रहि-रहि के दहकै लगलि बा, टहकै लगलि बा, रसे-रसे डहकै लगलि बा, मन भितरें-भितर सहकै लगलि बा...हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा....
अब्बै से रंग चढ़ै लगलि बा, ढंग पढ़ै लगलि बा, पोर-पोर में बसंती कोपल कढ़ै लगलि बा, चिक्कन-चिक्कन रुप-रंग गढ़ै लगलि बा, फगुनौटी का हीरा-मोती जड़ै लगलि बा, चारों ओर फूल-पत्ती झरै लगलि बा, बुढ़उवो से नीक-नइकी डरै लगलि बा, मुनक्का नाईं मनहि-मन ढरै लगलि बा, का जानैं लोग एहि वैलेंटाइन का मरम....तनी-तनी तर-ऊपरि रोम-रोम बरै लगलि बा, नशाइ के आंखि कतहूं..पैर कतहूं परै लगलि बा, अंगूर अइसनि अंग-अंग फरै लगलि बा, जइसे हीया में अमरित भरै लगलि बा..हा-हा-हा-हा-हा-हा.....
पेड़-पौधा सुघराए लगल, हवा-पानी लहराए लगलि, सुरुज क रंग गहराए लगल, चनरमा अंग फहराए लगल, दिन क चलन अहराए लगल, रात चुप्पे-चुप्पे होरिहराए लगल, केहू उझकति बा, केहू चिहुंकत बा, केहू निहुकति बा, केहू टिहुकति बा, केहू अगवारे-पिछवारे रोज पिहुकति बा...हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा........
फागुन मा बाबा देवर लागै।
कबौं एहर, त कब्बौं ओहर लागै।
फागुन मा बुढ़िया जवान लागै।
कबौ बच्ची, त कब्बौ सयान लागै।
फागुन मा रार बेकार लागै।
सब दउरि-दउरि अंकवार लागै।
हा-हा-हा-हा-हा-हा...............


शनिवार, 23 फ़रवरी 2008
फागुन उड़त गुलाब
झूमर चौतार झमारी, तजो बनवारी
फागुन उड़त गुलाब अर्गला कुमकुम जारी


धनि-धनि ए सिया रउरी भाग, राम वर पायो।
लिखि लिखि चिठिया नारद मुनि भेजे, विश्वामित्र पिठायो।
साजि बरात चले राजा दशरथ,
जनकपुरी चलि आयो, राम वर पायो।
वनविरदा से बांस मंगायो, आनन माड़ो छवायो।
कंचन कलस धरतऽ बेदिअन परऽ,
जहाँ मानिक दीप जराए, राम वर पाए।
भए व्याह देव सब हरषत, सखि सब मंगल गाए,
राजा दशरथ द्रव्य लुटाए, राम वर पाए।
धनि -धनि ए सिया रउरी भाग, राम वर पायो।



शुभ कातिक सिर विचारी, तजो वनवारी।
जेठ मास तन तप्त अंग भावे नहीं सारी, तजो वनवारी।
बाढ़े विरह अषाढ़ देत अद्रा झंकारी, तजो वनवारी।
सावन सेज भयावन लागतऽ,
पिरतम बिनु बुन्द कटारी, तजो वनवारी।
भादो गगन गंभीर पीर अति हृदय मंझारी,
करि के क्वार करार सौत संग फंसे मुरारी, तजो वनवारी।
कातिव रास रचे मनमोहन,
द्विज पाव में पायल भारी, तजो वनवारी।
अगहन अपित अनेक विकल वृषभानु दुलारी,
पूस लगे तन जाड़ देत कुबजा को गारी।
आवत माघ बसंत जनावत, झूमर चौतार झमारी, तजो वनवारी।
फागुन उड़त गुलाब अर्गला कुमकुम जारी,
नहिं भावत बिनु कंत चैत विरहा जल जारी,
दिन छुटकन वैसाख जनावत, ऐसे काम न करहु विहारी, तजो वनवारी।


गुरुवार, 21 फ़रवरी 2008
अंखिया क पुतरी

अंखिया क पुतरी
करेजवा में उतरी
विदेशिया क सुघरी
सगरवा में उतरी
उतरी हो रामा
पुतरी हो रामा
रामा हो रामा....

सूने-सूने डिहवा
मड़ैया सूनी-सूनी
कबौ देहरादूनी
त कबौ टेलीफूनी
मन भइलें खूनी-खूनी
याद आवै दूनादूनी
...अंखिया क पुतरी हो रामा

छुटि गइलैं गउवां
बिलाइ गइलैं नउवां
बालेपन क दिनवा
हो गइलैं महीनवां
नाही केहू आवै ला
ना जालै केहू उहवां
...अंखिया क पुतरी हो रामा