Friday 28 February 2014

इब्ने इंशा

हम घूम चुके बस्ती-बन में
इक आस का फाँस लिए मन में
कोई साजन हो, कोई प्यारा हो
कोई दीपक हो, कोई तारा हो
जब जीवन-रात अंधेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।

जब सावन-बादल छाए हों
जब फागुन फूल खिलाए हों
जब चंदा रूप लुटाता हो
जब सूरज धूप नहाता हो
या शाम ने बस्ती घेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।

हाँ दिल का दामन फैला है
क्यों गोरी का दिल मैला है
हम कब तक पीत के धोखे में
तुम कब तक दूर झरोखे में
कब दीद से दिल की सेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।

क्या झगड़ा सूद-ख़सारे का
ये काज नहीं बंजारे का
सब सोना रूपा ले जाए
सब दुनिया, दुनिया ले जाए
तुम एक मुझे बहुतेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।

ऐ इन्सानो! / गजानन माधव मुक्तिबोध

आँधी के झूले पर झूलो!
आग बबूला बन कर फूलो!

        कुरबानी करने को झूमो!
        लाल सवेरे का मूँह चूमो!

ऐ इन्सानों! ओस न चाटो!
अपने हाथों पर्वत काटो!

        पथ की नदियाँ खींच निकालो!
        जीवन पीकर प्यास बुझालो!

रोटी तुमको राम न देगा!
वेद तुम्हारा काम न देगा!

        जो रोटी का युद्ध करेगा!
        वह रोटी को आप वरेगा!

केदारनाथ अग्रवाल

वह समाज के त्रस्त क्षेत्र का मस्त महाजन,
गौरव के गोबर -गणेश सा मारे आसन!

नारिकेल-से सिर पर बांधे धर्म -मुरैठा,
ग्राम -बधुटी की गौरी-गोदी पर बैठा!

नागमुखी पैत्रक संपत्ति की थैली खोले,
जीभ निकाले, बात बनाता करूणा घोले!

ब्याज-स्तुति से बांट रहा है रूपया-पैसा,
सदियों पहले से होता आया है ऐसा!

सूड़ लपेटे है कर्जे की ग्रामीणों को,
मुक्ति अभी तक नहीं मिली है इन दीनों को!

इन दीनों के ऋण का रोकड़-कांड बड़ा है,
अब भी किंतु अछूता शोषण-कांड पड़ा है।

नागार्जुन

बापू के भी ताऊ निकले तीनों बन्दर बापू के!
सरल सूत्र उलझाऊ निकले तीनों बन्दर बापू के!
सचमुच जीवनदानी निकले तीनों बन्दर बापू के!
ग्यानी निकले, ध्यानी निकले तीनों बन्दर बापू के!
जल-थल-गगन-बिहारी निकले तीनों बन्दर बापू के!
लीला के गिरधारी निकले तीनों बन्दर बापू के!
        सर्वोदय के नटवरलाल
        फैला दुनिया भर में जाल
        अभी जियेंगे ये सौ साल
        ढाई घर घोड़े की चाल
        मत पूछो तुम इनका हाल
        सर्वोदय के नटवरलाल
लम्बी उमर मिली है, ख़ुश हैं तीनों बन्दर बापू के!
दिल की कली खिली है, ख़ुश हैं तीनों बन्दर बापू के!
बूढ़े हैं फिर भी जवान हैं ख़ुश हैं तीनों बन्दर बापू के!
परम चतुर हैं, अति सुजान हैं ख़ुश हैं तीनों बन्दर बापू के!
सौवीं बरसी मना रहे हैं ख़ुश हैं तीनों बन्दर बापू के!
बापू को हीबना रहे हैं ख़ुश हैं तीनों बन्दर बापू के!
        बच्चे होंगे मालामाल
        ख़ूब गलेगी उनकी दाल
        औरों की टपकेगी राल
        इनकी मगर तनेगी पाल
        मत पूछो तुम इनका हाल
        सर्वोदय के नटवरलाल
सेठों का हित साध रहे हैं तीनों बन्दर बापू के!
युग पर प्रवचन लाद रहे हैं तीनों बन्दर बापू के!
सत्य अहिंसा फाँक रहे हैं तीनों बन्दर बापू के!
पूँछों से छबि आँक रहे हैं तीनों बन्दर बापू के!
दल से ऊपर, दल के नीचे तीनों बन्दर बापू के!
मुस्काते हैं आँखें मीचे तीनों बन्दर बापू के!
        छील रहे गीता की खाल
        उपनिषदें हैं इनकी ढाल
        उधर सजे मोती के थाल
        इधर जमे सतजुगी दलाल
        मत पूछो तुम इनका हाल
        सर्वोदय के नटवरलाल
मूंड रहे दुनिया-जहान को तीनों बन्दर बापू के!
चिढ़ा रहे हैं आसमान को तीनों बन्दर बापू के!
करें रात-दिन टूर हवाई तीनों बन्दर बापू के!
बदल-बदल कर चखें मलाई तीनों बन्दर बापू के!
गाँधी-छाप झूल डाले हैं तीनों बन्दर बापू के!
असली हैं, सर्कस वाले हैं तीनों बन्दर बापू के!
        दिल चटकीला, उजले बाल
        नाप चुके हैं गगन विशाल
        फूल गए हैं कैसे गाल
        मत पूछो तुम इनका हाल
        सर्वोदय के नटवरलाल
हमें अँगूठा दिखा रहे हैं तीनों बन्दर बापू के!
कैसी हिकमत सिखा रहे हैं तीनों बन्दर बापू के!
प्रेम-पगे हैं, शहद-सने हैं तीनों बन्दर बापू के!
गुरुओं के भी गुरु बने हैं तीनों बन्दर बापू के!
सौवीं बरसी मना रहे हैं तीनों बन्दर बापू के!
बापू को ही बना रहे हैं तीनों बन्दर बापू के!

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प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,
सात साल की बच्ची का पिता तो है!
सामने गियर से उपर
हुक से लटका रक्खी हैं
काँच की चार चूड़ियाँ गुलाबी
बस की रफ़्तार के मुताबिक
हिलती रहती हैं…
झुककर मैंने पूछ लिया
खा गया मानो झटका
अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा
आहिस्ते से बोला: हाँ सा’ब
लाख कहता हूँ नहीं मानती मुनिया
टाँगे हुए है कई दिनों से
अपनी अमानत
यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने
मैं भी सोचता हूँ
क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ
किस ज़ुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?
और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा
और मैंने एक नज़र उसे देखा
छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में
तरलता हावी थी सीधे-साधे प्रश्न पर
और अब वे निगाहें फिर से हो गईं सड़क की ओर
और मैंने झुककर कहा -
हाँ भाई, मैं भी पिता हूँ
वो तो बस यूँ ही पूछ लिया आपसे
वरना किसे नहीं भाँएगी?
नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियाँ!

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पाँच पूत भारतमाता के, दुश्मन था खूँखार
गोली खाकर एक मर गया, बाक़ी रह गए चार

चार पूत भारतमाता के, चारों चतुर-प्रवीन
देश-निकाला मिला एक को, बाक़ी रह गए तीन

तीन पूत भारतमाता के, लड़ने लग गए वो
अलग हो गया उधर एक, अब बाक़ी बच गए दो

दो बेटे भारतमाता के, छोड़ पुरानी टेक
चिपक गया है एक गद्दी से, बाक़ी बच गया एक

एक पूत भारतमाता का, कन्धे पर है झण्डा
पुलिस पकड कर जेल ले गई, बाकी बच गया अण्डा

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

जब सब बोलते थे
वह चुप रहता था
जब सब चलते थे
वह पीछे हो जाता था
जब सब खाने पर टूटते थे
वह अलग बैठा टूँगता रहता था
जब सब निढाल हो सो जाते थे
वह शून्य में टकटकी लगाए रहता था
लेकिन जब गोली चली
तब सबसे पहले
वही मारा गया

इब्नबतूता पहन के जूता
निकल पड़े तूफान में
थोड़ी हवा नाक में घुस गई
घुस गई थोड़ी कान में

कभी नाक को, कभी कान को
मलते इब्नबतूता
इसी बीच में निकल पड़ा
उनके पैरों का जूता

उड़ते उड़ते जूता उनका
जा पहुँचा जापान में
इब्नबतूता खड़े रह गये
मोची की दुकान में

इब्ने इंशा

फ़र्ज़ करो हम अहले वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूठी हों अफ़साने हों

फ़र्ज़ करो ये जी की बिपता, जी से जोड़ सुनाई हो
फ़र्ज़ करो अभी और हो इतनी, आधी हमने छुपाई हो

फ़र्ज़ करो तुम्हें ख़ुश करने के ढूंढे हमने बहाने हों
फ़र्ज़ करो ये नैन तुम्हारे सचमुच के मयख़ाने हों

फ़र्ज़ करो ये रोग हो झूठा, झूठी पीत हमारी हो
फ़र्ज़ करो इस पीत के रोग में सांस भी हम पर भारी हो

फ़र्ज़ करो ये जोग बिजोग का हमने ढोंग रचाया हो
फ़र्ज़ करो बस यही हक़ीक़त बाक़ी सब कुछ माया हो

माखनलाल चतुर्वेदी

चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर, हे हरि, डाला जाऊँ
चाह नहीं, देवों के सिर पर,
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ!
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जावें वीर अनेक।

सुभद्राकुमारी चौहान

देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं
सेवा में बहुमूल्य भेंट वे कई रंग की लाते हैं

धूमधाम से साज-बाज से वे मंदिर में आते हैं
मुक्तामणि बहुमुल्य वस्तुऐं लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं

मैं ही हूँ गरीबिनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लायी
फिर भी साहस कर मंदिर में पूजा करने चली आयी

धूप-दीप-नैवेद्य नहीं है झांकी का श्रृंगार नहीं
हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं

कैसे करूँ कीर्तन, मेरे स्वर में है माधुर्य नहीं
मन का भाव प्रकट करने को वाणी में चातुर्य नहीं

नहीं दान है, नहीं दक्षिणा खाली हाथ चली आयी
पूजा की विधि नहीं जानती, फिर भी नाथ चली आयी

पूजा और पुजापा प्रभुवर इसी पुजारिन को समझो
दान-दक्षिणा और निछावर इसी भिखारिन को समझो

मैं उनमत्त प्रेम की प्यासी हृदय दिखाने आयी हूँ
जो कुछ है, वह यही पास है, इसे चढ़ाने आयी हूँ

चरणों पर अर्पित है, इसको चाहो तो स्वीकार करो
यह तो वस्तु तुम्हारी ही है ठुकरा दो या प्यार करो

केदारनाथ अग्रवाल



घन गरजे जन गरजे
बन्दी सागर को लख कातर
एक रोष से
घन गरजे जन गरजे
क्षत-विक्षत लख हिमगिरी अन्तर
एक रोष से
घन गरजे जन गरजे
क्षिति की छाती को लख जर्जर
एक शोध से
घन गरजे जन गरजे
देख नाश का ताण्डव बर्बर
एक बोध से
घन गरजे जन गरजे।

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जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है
तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है
जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है
जो रवि के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा

जो जीवन की आग जला कर आग बना है
फौलादी पंजे फैलाए नाग बना है
जिसने शोषण को तोड़ा शासन मोड़ा है
जो युग के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा

गोपाल सिंह नेपाली

बदनाम रहे बटमार मगर,
घर तो रखवालों ने लूटा
मेरी दुल्‍हन सी रातों को,
नौलाख सितारों ने लूटा
दो दिन के रैन-बसेरे में,
हर चीज़ चुरायी जाती है
दीपक तो जलता रहता है,
पर रात पराई होती है
गलियों से नैन चुरा लाई,
तस्‍वीर किसी के मुखड़े की
रह गये खुले भर रात नयन,
दिल तो दिलदारों ने लूटा

जुगनू से तारे बड़े लगे,
तारों से सुंदर चाँद लगा
धरती पर जो देखा प्‍यारे
चल रहे चाँद हर नज़र बचा
उड़ रही हवा के साथ नज़र,
दर-से-दर, खिड़की से खिड़की
प्‍यारे मन को रंग बदल-बदल,
रंगीन इशारों ने लूटा
हर शाम गगन में चिपका दी,
तारों के अधरों की पाती
किसने लिख दी, किसको लिख दी,
देखी तो, कही नहीं जाती
कहते तो हैं ये किस्‍मत है,
धरती पर रहने वालों की
पर मेरी किस्‍मत को तो
इन ठंडे अंगारों ने लूटा

जग में दो ही जने मिले,
इनमें रूपयों का नाता है
जाती है किस्‍मत बैठ जहाँ
खोटा सिक्‍का चल जाता है
संगीत छिड़ा है सिक्‍कों का,
फिर मीठी नींद नसीब कहाँ
नींदें तो लूटीं रूपयों ने,
सपना झंकारों ने लूटा

वन में रोने वाला पक्षी
घर लौट शाम को आता है
जग से जानेवाला पक्षी
घर लौट नहीं पर पाता है
ससुराल चली जब डोली तो
बारात दुआरे तक आई
नैहर को लौटी डोली तो,
बेदर्द कहारों ने लूटा ।

दुष्यंत कुमार


मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ, वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ
एक जंगल है तेरी आँखों में मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ
तू किसी रेल-सी गुज़रती है मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ
हर तरफ़ ऐतराज़ होता है मैं अगर रौशनी में आता हूँ
एक बाज़ू उखड़ गया जबसे और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ
मैं तुझे भूलने की कोशिश में आज कितने क़रीब पाता हूँ
कौन ये फ़ासला निभाएगा मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ

अदम गोंडवी

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी इक कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूँ सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़ि़या है घात में
होनी से बेख़बर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें ज़ोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएंगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
बोला कृष्ना से- बहन, सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई! क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहां
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहां
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है, मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया
क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"
"कैसी चोरी माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर

ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
"मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे

"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा"
इक सिपाही ने कहा "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"
बोला थानेदार "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उनझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है"

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल"
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !

यह बच्चा किसका बच्चा है / इब्ने इंशा

यह बच्चा कैसा बच्चा है
यह बच्चा काला-काला-सा
यह काला-सा, मटियाला-सा
यह बच्चा भूखा-भूखा-सा
यह बच्चा सूखा-सूखा-सा
यह बच्चा किसका बच्चा है
यह बच्चा कैसा बच्चा है
जो रेत पर तन्हा बैठा है
ना इसके पेट में रोटी है
ना इसके तन पर कपड़ा है
ना इसके सर पर टोपी है
ना इसके पैर में जूता है
ना इसके पास खिलौना है
कोई भालू है कोई घोड़ा है
ना इसका जी बहलाने को
कोई लोरी है कोई झूला है
ना इसकी जेब में धेला है
ना इसके हाथ में पैसा है
ना इसके अम्मी-अब्बू हैं
ना इसकी आपा-खाला है
यह सारे जग में तन्हा है
यह बच्चा कैसा बच्चा है

2.

यह सहरा कैसा सहरा है
ना इस सहरा में बादल है
ना इस सहरा में बरखा है
ना इस सहरा में बाली है
ना इस सहरा में खोशा[1] है
ना इस सहरा में सब्ज़ा है
ना इस सहरा में साया है

यह सहरा भूख का सहरा है
यह सहरा मौत का सहरा है

3.

यह बच्चा कैसे बैठा है
यह बच्चा कब से बैठा है
यह बच्चा क्या कुछ पूछता है
यह बच्चा क्या कुछ कहता है
यह दुनिया कैसी दुनिया है
यह दुनिया किसकी दुनिया है

4.

इस दुनिया के कुछ टुकड़ों में
कहीं फूल खिले कहीं सब्ज़ा है
कहीं बादल घिर-घिर आते हैं
कहीं चश्मा है कहीं दरिया है
कहीं ऊँचे महल अटरिया हैं
कहीं महफ़िल है, कहीं मेला है
कहीं कपड़ों के बाज़ार सजे
यह रेशम है, यह दीबा[2] है
कहीं गल्ले के अम्बार लगे
सब गेहूँ धान मुहय्या है
कहीं दौलत के सन्दूक़ भरे
हाँ ताम्बा, सोना, रूपा है
तुम जो माँगो सो हाज़िर है
तुम जो चाहो सो मिलता है
इस भूख के दुख की दुनिया में
यह कैसा सुख का सपना है ?
वो किस धरती के टुकड़े हैं ?
यह किस दुनिया का हिस्सा है ?

5.

हम जिस आदम के बेटे हैं
यह उस आदम का बेटा है
यह आदम एक ही आदम है
वह गोरा है या काला है
यह धरती एक ही धरती है
यह दुनिया एक ही दुनिया है
सब इक दाता के बन्दे हैं
सब बन्दों का इक दाता है
कुछ पूरब-पच्छिम फ़र्क़ नहीं
इस धरती पर हक़ सबका है

6.

यह तन्हा बच्चा बेचारा
यह बच्चा जो यहाँ बैठा है
इस बच्चे की कहीं भूख मिटे
{क्या मुश्किल है, हो सकता है)
इस बच्चे को कहीं दूध मिले
(हाँ दूध यहाँ बहुतेरा है)
इस बच्चे का कोई तन ढाँके
(क्या कपड़ों का यहाँ तोड़ा[3] है ?)
इस बच्चे को कोई गोद में ले
(इन्सान जो अब तक ज़िन्दा है)
फिर देखिए कैसा बच्चा है
यह कितना प्यारा बच्चा है

7.

इस जग में सब कुछ रब का है
जो रब का है, वह सबका है
सब अपने हैं कोई ग़ैर नहीं
हर चीज़ में सबका साझा है
जो बढ़ता है, जो उगता है
वह दाना है, या मेवा है
जो कपड़ा है, जो कम्बल है
जो चाँदी है, जो सोना है
वह सारा है इस बच्चे का
जो तेरा है, जो मेरा है

यह बच्चा किसका बच्चा है ?
यह बच्चा सबका बच्चा है

मनमोहन

ता थेई, ता था गा, रोटी खाना खाना गा
राजा का बाजा बजा तू राजा का बाजा बजा
आ राजा का बाजा बजा !

सच मत कह, चुप रह स्वामी सच मत कह, चुप रह
चुप रह, सह, सह, सह, सह राजा का बाजा बजा
आ राजा का बाजा बजा !

राशन...न...न...न...न...न ईंधन...न...न...न...न...न
बरतन-ठन-ठन-ठन-ठन-ठन खाली बरतन-ठन-ठन-ठन
जन गन मन अधिनायक उन्नायक पतवार, उन्नायक पतवार
उन्नायक.... तन मन वेतन सब अपने सब अर्पण कर तू
स्वामी सब अर्पण कर तू झट-पट कर श्रम से ना डर
श्रम से ना डर तू आ राजा का बाजा बजा
ता थेई ताथा गा, रोटी खाना खाना गा !
राजा का बाजा बजा तू राजा का बाजा बजा !

रघुवीर सहाय



चौड़ी सड़क गली पतली थी, दिन का समय घनी बदली थी
रामदास उस दिन उदास था, अंत समय आ गया पास था
उसे बता यह दिया गया था उसकी हत्या होगी।

धीरे धीरे चला अकेले सोचा साथ किसी को ले ले
फिर रह गया, सड़क पर सब थे सभी मौन थे सभी निहत्थे
सभी जानते थे यह उस दिन उसकी हत्या होगी,

खड़ा हुआ वह बीच सड़क पर दोनों हाथ पेट पर रख कर
सधे क़दम रख कर के आए लोग सिमट कर आँख गड़ाए
लगे देखने उसको जिसकी तय था हत्या होगी,

निकल गली से तब हत्यारा आया उसने नाम पुकारा
हाथ तौल कर चाकू मारा छूटा लोहू का फव्वारा
कहा नहीं था उसने आख़िर उसकी हत्या होगी

भीड़ ठेल कर लौट गया वह मरा पड़ा है रामदास यह
देखो-देखो बार बार कह लोग निडर उस जगह खड़े रह
लगे बुलाने उन्हें जिन्हें संशय था हत्या होगी

नागार्जुन



खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक

उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक
जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक

बढ़ी बधिरता दस गुनी, बने विनोबा मूक
धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक

सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक
जहाँ-तहाँ दगने लगी शासन की बंदूक

जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक
बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक

अकबर इलाहाबादी

समझे वही इसको, जो हो दीवाना किसी का, 'अकबर' ये ग़ज़ल मेरी है अफ़साना किसी का।
गर शैख़-ओ-बहरमन सुनें अफ़साना किसी का, माबद न रहे काबा-ओ-बुतख़ाना किसी का।
अल्लाह ने दी है जो तुम्हे चाँद-सी सूरत रौशन भी करो जाके सियहख़ाना किसी का।
अश्क आँखों में आ जाएँ एवज़ नींद के साहब ऐसा भी किसी शब सुनो अफ़साना किसी का।
इशरत जो नहीं आती मेरे दिल में, न आए हसरत ही से आबाद है वीराना किसी का।
करने जो नहीं देते बयां हालत-ए-दिल को सुनिएगा लब-ए-ग़ौर से अफ़साना किसी का।
कोई न हुआ रूह का साथी दम-ए-आख़िर काम आया न इस वक़्त में याराना किसी का।
हम जान से बेज़ार रहा करते हैं 'अकबर' जब से दिल-ए-बेताब है दीवाना किसी का।

बिस्मिल अज़ीमाबादी



सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है

करता नहीं क्यूँ दूसरा कुछ बातचीत,
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है

ए शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार,
अब तेरी हिम्मत का चरचा गैर की महफ़िल में है

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमान,

हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है
खैंच कर लायी है सब को कत्ल होने की उम्मीद,

आशिकों का आज जमघट कूच-ए-कातिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

है लिये हथियार दुशमन ताक में बैठा उधर,
और हम तैय्यार हैं सीना लिये अपना इधर

खून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

हाथ जिन में हो जुनूँ कटते नही तलवार से,
सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से

और भड़केगा जो शोला-सा हमारे दिल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

हम तो घर से निकले ही थे बाँधकर सर पे कफ़न,
जान हथेली पर लिये लो बढ चले हैं ये कदम

जिन्दगी तो अपनी मेहमान मौत की महफ़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

यूँ खड़ा मक़तल में क़ातिल कह रहा है बार-बार,
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है

दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्कलाब,
होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको ना आज

दूर रह पाये जो हमसे दम कहाँ मंज़िल में है,
वो जिस्म भी क्या जिस्म है जिसमें ना हो खून-ए-जुनून

तूफ़ानों से क्या लड़े जो कश्ती-ए-साहिल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

केदारनाथ अग्रवाल

मार हथौड़ा, कर-कर चोट! लाल हुए काले लोहे को
जैसा चाहे वैसा मोड़!
मार हथौड़ा,             कर-कर चोट!
            थोड़े नहीं-- अनेकों गढ़ ले
            फ़ौलादी नरसिंह करोड़।
मार हथौड़ा,
कर-कर चोट!
लोहू और पसीने से ही
बंधन की दीवारें तोड़।
            मार हथौड़ा,
            कर-कर चोट!
            दुनिया की जाती ताकत हो,
            जल्दी छवि से नाता जोड़!

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हे मेरी तुम!
आज धूप जैसी हो आई
और दुपट्टा
उसने मेरी छत पर रक्खा
मैंने समझा तुम आई हो
दौड़ा मैं तुमसे मिलने को
लेकिन मैंने तुम्हें न देखा
बार-बार आँखों से खोजा
वही दुपट्टा मैंने देखा
अपनी छत के ऊपर रक्खा।
मैं हताश हूँ
पत्र भेजता हूँ, तुम उत्तर जल्दी देना:
बतलाओ क्यों तुम आई थीं मुझ से मिलने
आज सवेरे,
और दुपट्टा रख कर अपना
चली गई हो बिना मिले ही?
क्यों?
आख़िर इसका क्या कारण?

अकबर इलाहाबादी


हंगामा है क्यूँ बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है

ना-तजुर्बाकारी से, वाइज़[1] की ये बातें हैं
इस रंग को क्या जाने, पूछो तो कभी पी है

उस मय से नहीं मतलब, दिल जिस से है बेगाना
मक़सूद[2] है उस मय से, दिल ही में जो खिंचती है

वां[3] दिल में कि दो सदमे,यां[4] जी में कि सब सह लो
उन का भी अजब दिल है, मेरा भी अजब जी है

हर ज़र्रा चमकता है, अनवर-ए-इलाही[5] से
हर साँस ये कहती है, कि हम हैं तो ख़ुदा भी है

सूरज में लगे धब्बा, फ़ितरत[6] के करिश्मे हैं
बुत हम को कहें काफ़िर, अल्लाह की मर्ज़ी है

इक़बाल



आता है याद मुझको गुज़रा हुआ ज़माना
वो बाग़ की बहारें, वो सब का चह-चहाना।

आज़ादियाँ कहाँ वो, अब अपने घोसले की
अपनी ख़ुशी से आना अपनी ख़ुशी से जाना।

लगती हो चोट दिल पर, आता है याद जिस दम
शबनम के आँसुओं पर कलियों का मुस्कुराना।

वो प्यारी-प्यारी सूरत, वो कामिनी-सी मूरत
आबाद जिस के दम से था मेरा आशियाना।

श्रीकृष्ण तिवारी


जबतक यह शीशे का घर है , तबतक ही पत्थर का डर है ।
हर आंगन का जलना जंगल है; दरवाजे सापों का पहरा,
झरती रौशनीओ में अभी लगता कहीं अँधेरा ठहरा।
जबतक यह बालू का घर है, तबतक ही लहरो का डर है ।
हर खूंटी पर टंगा हुआ है; जख़्म भरे मौसम का चेहरा,
शोर सड़क पर थमा हुआ है; गलियों में सन्नाटा गहरा ।
जबतक यह काजल का घर है, तबतक ही दर्पण का डर है ।
 हर क्षण धरती टूट रही है जर्रा जर्रा पिघल रहा है,
चाँद सूरज को कोई अजगर धीरे धीरे निगल रहा है ।
जबतक यह बारूदी घर है, तबतक चिंगारी का डर है ।

दुन्या मिखाईल


मैं आसमान की तस्वीर बनाना चाहता हूँ। बनाओ, मेरे बच्चे।
मैनें बना लिया। और तुमने इस तरह रंगों को फैला क्यूं दिया?
क्यूंकि आसमान का कोई छोर ही नहीं है।
मैं पृथ्वी की तस्वीर बनाना चाहता हूँ। बनाओ, मेरे बच्चे।
मैनें बना लिया। -और यह कौन है? वह मेरी दोस्त है।
-और पृथ्वी कहाँ है? उसके हैण्डबैग में।
मैं चंद्रमा की तस्वीर बनाना चाहता हूँ। बनाओ, मेरे बच्चे।
नहीं बना पा रहा हूँ मैं। क्यों? लहरें चूर-चूर कर दे रही हैं इसे बार-बार।
मैं स्वर्ग की तस्वीर बनाना चाहता हूँ। बनाओ, मेरे बच्चे। मैनें बना लिया।
लेकिन इसमें तो कोई रंग ही नहीं दिख रहा मुझे। रंगहीन है यह।
मैं युद्ध की तस्वीर बनाना चाहता हूँ। बनाओ, मेरे बच्चे। मैनें बना लिया।
और यह गोल-गोल क्या है? अंदाजा लगाओ। खून की बूँद? नहीं। कोई गोली? नहीं।
फिर क्या? बटन, जिससे बत्ती बुझाई जाती है।
-

नाज़िम हिक़मत



जो दुनिया तुमने देखी रूमी,
वो असल थी, न कोई छाया वगैरह,
यह सीमाहीन है और अनंत,
इसका चितेरा नहीं है कोई अल्लाह वगैरह,
और सबसे अच्छी रूबाई जो
तुम्हारी धधकती देह ने हमारे लिए छोड़ी
वो तो हरगिज़ नहीं जो कहती है-
'सारी आकृतियाँ परछाई हैं' वगैरह..।

-

'मुझे महसूस हुआ
मैं मार डाला गया हूँ।
उन्होंने चायघरों, क़ब्रों और गिरजाघरों की
तलाशी ली,
उन्होंने पीपों और आलमारियों को
खोल डाला।
सोने के दाँत निकालने के लिए
उन्होंने तीनों कंकालों को
खसोट डाला।
वे मुझे नहीं पा सके।
क्या वे मुझे कभी नहीं पा सके?
नहीं।
वे मुझे कभी नहीं पा सके ।

-

'मैं सोना चाहता हूँ।
मैं सो जाना चाहता हूँ ज़रा देर के लिए,
पल भर, एक मिनट, शायद
एक पूरी शताब्दी... लेकिन
लोग यह जान लें
कि मैं मरा नहीं हूँ...
कि मेरे होठों पर चाँद की अमरता है,
कि मैं पछुआ हवाओं का अजीज दोस्त हूँ...
...कि,
कि... मैं अपने ही आँसुओं की
घनी छाँह हूँ...।'

-

न चूम सकूँ, न प्यार कर सकूँ,
तुम्हारी तस्वीर को
पर मेरे उस शहर में तुम रहती हो
रक्त-माँस समेत
और तुम्हारा सुर्ख़ मूँ,
वो जो मुझे निषिद्ध शहद,
तुम्हारी वो बड़ी बड़ी आँखें सचमुच हैं
और बेताब भँवर जैसा तुम्हारा समर्पण,
तुम्हारा गोरापन मैं छू तक नहीं सकता!

-

एक दिन माँ कुदरत कहेगी,
"अब चलो ...
अब और न हँसी, न आँसू,
मेरे बच्चे ..."
और अन्तहीन एक बार
और ये शुरू होगी
ज़िन्दगी जो न देखे, न बोले,
और न सोचा करे।

-

मुझे बीते दिनों की याद नहीं आती
-सिवा गर्मी की वो रात.
और आख़िरी कौंध भी मेरी आंखों की
तुम को बतलाएगी
आने वाले दिनों की बात।

-

हल्‍की हरी हैं मेरी महबूबा की आँखें
हरी, जैसे अभी-अभी सींचा हुआ
तारपीन का रेश्‍मी दरख़्त
हरी, जैसे सोने के पत्‍तर पर
हरी मीनाकारी।
ये कैसा माजरा, बिरादरान,
कि नौ सालों के दौरान
एक बार भी उसके हाथ
मेरे हाथों से नहीं छुए।
मैं यहाँ बूढ़ा हुआ, वह वहाँ।
मेरी दुख़्तार-बीवी
तुम्‍हारी गर्दन पर अब सलवटें उभर रहीं हैं।
सलवटों का उभरना
इस तरह नामुमकिन है हमारे लिए
बूढ़ा होना।
जिस्‍म की बोटियों के ढीले पड़ने को
कोई और नाम दिया जाना चाहिए,
उम्र का बढ़ना बूढ़ा होना
उन लोगों का मर्ज़ है
जो इश्‍क नहीं कर सकते।

-

तुम्‍हारे हाथ
पत्‍थरों जैसे मज़बूत
जेलख़ाने की धुनों जैसे उदास
बोझा खींचने वाले जानवरों जैसे भारी-भरकम
तुम्‍हारे हाथ जैसे भूखे बच्‍चों के तमतमाए चेहरे
तुम्‍हारे हाथ
शहद की मक्खियों जैसे मेहनती और निपुण
दूध भरी छातियों जैसे भारी
कुदरत जैसे दिलेर तुम्‍हारे हाथ,
तुम्‍हारे हाथ खुरदरी चमड़ी के नीचे छिपाए अपनी
दोस्‍ताना कोमलता।
दुनिया गाय-बैलों के सींगों पर नहीं टिकी है
दुनिया को ढोते हैं तुम्‍हारे हाथ।

-

अगर मेरे दिल का आधा हिस्सा यहाँ है डाक्टर,
तो चीन में है बाक़ी का आधा
उस फौज के साथ
जो पीली नदी की तरफ बढ़ रही है..
और हर सुबह, डाक्टर
जब उगता है सूरज
यूनान में गोली मार दी जाती है मेरे दिल पर .
और हर रात को डाक्टर
जब नींद में होते हैं कैदी और सुनसान होता है अस्पताल,
रुक जाती है मेरे दिल की धड़कन
इस्ताम्बुल के एक उजड़े पुराने मकान में.
और फिर दस सालों के बाद
अपनी मुफलिस कौम को देने की खातिर
सिर्फ ये सेब बचा है मेरे हाथों में डाक्टर
एक सुर्ख़ सेब :
मेरा दिल.
और यही है वजह डाक्टर
दिल के इस नाकाबिलेबर्दाश्त दर्द की --
न तो निकोटीन, न तो कैद
और न ही नसों में कोई जमाव.
कैदखाने के सींखचों से देखता हूँ मैं रात को,
और छाती पर लदे इस बोझ के बावजूद
धड़कता है मेरा दिल सबसे दूर के सितारों के साथ.

-

चेरी की एक टहनी
एक ही तूफ़ान में दो बार नहीं हिलती
वृक्षों पर पक्षियों का मधुर कलरव है
टहनियाँ उड़ना चाहती हैं।
यह खिड़की बन्द है:
एक झटके में खोलनी होगी।
मैं बहुत चाहता हूँ तुम्हें
तुम्हारी तरह रमणीय हो यह जीवन
मेरे साथी, ठीक मेरी प्रियतमा की तरह ...
मैं जानता हूँ
दुःख की टहनी उजड़ी नहीं है आज भी --
एक दिन उजड़ेगी।

-

कल रात मैंने सपने में तुम्हें देखा
सिर ऊँचा किए
धूसर आँखों से तुम देख रही हो मुझे
तुम्हारे गीले होंठ काँप रहे हैं
लेकिन कहाँ! तुम्हारी आवाज़
तो मुझे सुनाई नहीं दी!
काली अँधेरी रात में
कहीं ख़ुशी की ख़बर-जैसी
घड़ी की टिकटिक आवाज़...
हवा में फुसफुसा रहा है महाकाल
मेरे कैनरी के लाल पिंजरे में
गीत की एक कली,
हल से जोती गई ज़मीन पर
मिट्टी का सीना फोड़कर निकलते अंकुर की
दूर से आती आवाज़,
और एक महिमान्वित जनता के
वज्रकंठ से उच्चरित
न्याय अधिकार।
तुम्हारी गीले होंठ काँप रहे हैं
लेकिन कहाँ! तुम्हारी आवाज़
तो मुझे सुनाई नहीं दी!
उम्मीदों के टूटने का अभिशाप लिए
मैं जाग उठा हूँ, सो गया था
किताब पर चेहरा रखकर।
इतनी सारी आवाज़ों के बीच
तुम्हारी आवाज़ भी क्या मुझे सुनाई नहीं दी?

-

दरवाज़े पर मैं आपके
दस्तक दे रही हूँ।
कितने ही द्वार खटखटाए हैं मैंने
किन्तु देख सकता है कौन मुझे
मरे हुओं को कोई कैसे देख सकता है।
मैं मरी हिरोशिमा में
दस वर्ष पहले
मैं थी सात बरस की
आज भी हूँ सात बरस की
मरे हुए बच्चों की आयु नहीं बढ़ती।
पहले मेरे बाल झुलसे
फिर मेरी आँखे भस्मीभूत हुईं
राख की ढेरी बन गई मैं
हवा जिसे फूँक मार उड़ा देती है।
अपने लिए मेरी कोई कामना नहीं
मैं जो राख हो चुकी हूँ
जो मीठा तक नहीं खा सकती।
मैं आपके दरवाज़ों पर
दस्तक दे रही हूँ
मुझे आपके हस्ताक्षर लेने हैं
ओ मेरे चाचा ! ताऊ!
ओ मेरी चाची ! ताई!
ताकि फिर बच्चे इस तरह न जलें
ताकि फिर वे कुछ मीठा खा सकें।

-

सबसे सुन्दर है जो समुद्र
हमने आज तक उसे नहीं देखा,
सबसे सुन्दर है जो शिशु
वह आज तक बड़ा नहीं हो सका है,
हमें आज तक नहीं मिल सके हैं
हमारे सबसे सुन्दर दिन,
मधुरतम जो बातें मैं कहना चाहता हूँ
आज तक नहीं कह सका हूँ।

-

फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का



हर गीत चुप्पी है प्रेम की, हर तारा चुप्पी है समय की,
समय की एक गठान, हर आह चुप्पी है चीख़ की!
-

जब चांद उगता है घंटियाँ मंद पड़कर ग़ायब हो जाती हैं
और दुर्गम रास्ते नज़र आते हैं।
जब चांद उगता है समन्दर पृथ्वी को ढक लेता है
और हृदय अनन्त में एक टापू की तरह लगता है।
पूरे चांद के नीचे कोई नारंगी नहीं खाता
वह वक़्त हरे और बर्फ़ीले फल खाने का होता है।
जब एक ही जैसे सौ चेहरों वाला चांद उगता है
तो जेब में पड़े चांदी के सिक्के सिसकते हैं!

--

गुलाब ने सुबह नहीं चाही
अपनी डाली पर चिरन्तन
उसने दूसरी चीज़ चाही,
गुलाब ने ज्ञान या छाया नहीं चाहे
साँप और स्वप्न की उस सीमा से
दूसरी चीज़ चाही।
गुलाब ने गुलाब नहीं चाहा
आकाश में अचल
उसने दूसरी चीज़ चाही !

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लकड़हारे मेरी छाया काट
मुझे ख़ुद को फलहीन देखने की यंत्रणा से
मुक्त कर!
मैं दर्पणों से घिरा हुआ क्यों पैदा हुआ?
दिन मेरी परिक्रमा करता है
और रात अपने हर सितारे में
मेरा अक्स फिर बनाती है।
मैं ख़ुद को देखे बग़ैर ज़िन्दा रहना चाहता हूँ।
और सपना देखूंगा
कि चींटियाँ और गिद्ध
मेरी पत्तियाँ और चिड़ियाँ हैं।
लकड़हारे मेरी छाया काट
मुझे ख़ुद को फलहीन देखने की यंत्रणा से
मुक्त कर!

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तालाब में नहा रही थी
सुनहरी लड़की
और तालान सोना हो गया,
कँपकँपी भर गए उसमें
छायादार शाख और शैवाल
और गाती थी कोयल
सफ़ेद पड़ गई लड़की के वास्ते।
आई उजली रात
बदलियाँ चांदी के गोटों वाली
खल्वाट पहाड़ियों और बदरंग हवा के बीच
लड़की थी भीगी हुई जल में सफ़ेद
और पानी था दहकता हुआ बेपनाह।
फिर आई ऊषा हज़ारों चेहरों में
सख़्त और लुके-छिपे
मुंजमिद गजरों के साथ
लड़की आँसू ही आँसू शोलों में नहाई
जबकि स्याह पंखों में रोती थी कोयल
सुनहरी लड़की थी सफ़ेद बगुली
और तालाब हो गया था सोना !

---

माँ, चांदी कर दो मुझे!
बेटे, बहुत सर्द हो जाओगे तुम!
माँ, पानी कर दो मुझे!
बेटे, जम जाओगे तुम बहुत!
माँ, काढ़ लो न मुझे तकिए पर
कशीदे की तरह! कशीदा?
हाँ, आओ!

--

रसूल हमजातोव

जब ज़िन्दा था, प्यार किया था
मर कर लेटा आज यहाँ।
कौन बगल में मेरी लेटी
मुझको कुछ भी नहीं पता।

कतील शिफाई


ओ बेरहम मुसाफिर, हँस कर साहिल की तौहीन न कर
हमने अपनी नाव डुबो कर, अभी तुझको पार उतारा है।

बशीर बद्र


उदास आँखों में आँसू नहीं निकलते हैं
ये मोतियों की तरह सीपियों में पलते हैं
ये एक पेड़ है, आ इसके नीचे रो लें हम
यहाँ से तेरे मेरे रास्ते बदलते हैं
-

रियाज़ खैराबादी


रिन्दाने बला-नोशों में गिनती है हमारी
हम खुम भी चढ़ा जाएँ तो नशा नहीं होता
आजारे-मुहब्बत नहीं जाता, नहीं जाता
बीमारे-मुहब्बत कभी अच्छा नहीं होता

गुलाम रब्बानी 'तांबा'

राहों के पेंचों-ख़म में, गुम हो गयी हैं सिम्तें
ये मरहला है नाज़ुक, 'तांबा' संभल संभल के
-

राज इलाहाबादी



मैं अपनी तलाश में हूँ, मेरा कोई रहनुमा नहीं है।
वो क्या दिखाएंगे राह मुझे, जिन्हें खुद अपना पता नहीं है।
अगर कभी मिल गए इत्तिफाक से तो 'राज' उनसे मैं ये ही कहूँगा
तेरे सितम तो भुला चुका हूँ, तेरा करम भूलता नहीं है।

कतील शिफाई


अब जिसके जी में आये, वो ही पाए रोशनी
हमने तो दिल जला के सरे-आम रख दिया
क्या मसलहत-शनास था वो आदमी 'कतील'
मजबूरियों का जिसने वफ़ा नाम रख दिया

शाकिब जलाली


आ कर पत्थर तो मेरे सहन में दो चार गिरे
जितने उस पेड़ पे फल थे, पसे-दीवार गिरे।

प्लैटो


'बुद्धिमान व्यक्ति बोलते हैं क्योंकि उनके पास बोलने के लिए कुछ होता है। मूर्ख व्यक्ति बोलते हैं क्योंकि उन्हें कुछ न कुछ बोलना होता है।' (यदि कहने के लिए कुछ अच्छा नहीं हो तो चुप रहना एक बेहतर विकल्प है।)

बहादुर शाह ज़फर



'ज़फर' आदमी उसको ना जानिये,
हो वो कैसा भी साहिबे-फहमो-ज़का
जिसे ऐश में यादे-खुदा ना रही
जिसे तैश में खौफे-खुदा ना रहा

लीना टिब्बी


काश ऐसा होता कि ईश्वर
मेरे बिस्तर के पास रखे पानी भरे गिलास के अन्दर से
बैंगनी प्रकाश पुंज-सा अचानक प्रकट हो जाता।
काश ऐसा होता कि ईश्वर शाम की अजान बन कर
हमारे ललाट से दिन भर की थकान पोंछ देता।
काश ऐसा होता कि ईश्वर आसूँ की एक बूंद बन जाता
जिसके लुढ़कने का अफ़सोस हम मनाते रहते पूरे-पूरे दिन।
काश ऐसा होता कि ईश्वर रूप धर लेता एक ऐसे पाप का
हम कभी न थकते जिसकी भूरी-भूरी प्रशंसा करते।
काश ऐसा होता कि ईश्वर शाम तक मुरझा जाने वाला
गुलाब होता तो हर नई सुबह हम
नया फूल ढूंढ कर ले आया करते।

सृष्टि में है और कोई, दृष्टि में है और कोई


भारत भूषण

ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई
राह में है और कोई चाह में है और कोई
साँप के आलिंगनों में मौन चन्दन तन पड़े हैं
सेज के सपनो भरे कुछ फूल मुर्दों पर चढ़े हैं
ये विषमता भावना ने सिसकियाँ भरते समोई
स्वप्न के शव पर खड़े हो मांग भरती हैं प्रथाएं
कंगनों से तोड़ हीरा खा रहीं कितनी व्यथाएं
ये कथाएं उग रही हैं नागफन जैसी अबोई
सृष्टि में है और कोई, दृष्टि में है और कोई।

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चक्की पर गेंहू लिए खड़ा मैं सोच रहा उखड़ा उखड़ा
क्यों दो पाटों वाली साखी बाबा कबीर को रुला गई।
लेखनी मिली थी गीतव्रता प्रार्थना- पत्र लिखते बीती
जर्जर उदासियों के कपड़े थक गई हँसी सीती- सीती
हर चाह देर में सोकर भी दिन से पहले कुलमुला गई।
कन्धों पर चढ़ अगली पीढ़ी ज़िद करती है गुब्बारों की
यत्नों से कई गुनी ऊँची डाली है लाल अनारों की
प्रत्येक किरण पल भर उजला काले कम्बल में सुला गई।
गीतों की जन्म-कुंडली में संभावित थी ये अनहोनी
मोमिया मूर्ति को पैदल ही मरुथल की दोपहरी ढोनी
खंडित भी जाना पड़ा वहाँ जिन्दगी जहाँ भी बुला गई।