Wednesday 19 March 2014

ज्यों माँ मुस्कुराया करती थी / रति सक्सेना

वह मुस्काई
मैं उसके लिए उपमाएँ ढूंढ़ने लगी
खिली धूप, लिली का फूल
चमकती चांदनी...
सभी उपमाएँ बासी लगतीं हैं मुझे
सोचा कुछ नई उपमाएँ खोजूँ
रुकी हुई घड़ी का चल पड़ना
मेल बाक्स में किसी भूले बिसरे का ख़त
कस कर लगी भूख के सामने रोटी-चटनी
नहीं, मुझे कोई भी उपमान जमते नहीं
मैंने सभी शब्दों विचारों को सहेज कर रख दिया
रसोई में जाकर लगी दूध में चावल डालने
तभी चावल के बीच से माँ की मुस्कुराहट दिखाई दी
तानों, उलाहनों को पार कर
खिलती मुस्कुराहट, जो अमरूद के साथ
काली मिर्च-नमक देख कर भी खिल उठती
मैंने करछी को छोड़ शब्दों को उठा लिया--
"वह मुस्कुराती है, ज्यों माँ मुस्कुराया करती थी"

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मैं चाहती हूँ शब्द उगाऊं

मैं चाहती हूँ शब्द उगाऊं
फलों की तरह नहीं
सब्जी की तरह भी नहीं
फुलवारी की तरह भी नहीं
जंगल की तरह
कुछ लम्बे, कुछ टेड़े
कुछ तिरछे कुछ बाँके
कमजोर, मजबूत
शब्द खड़े हो दरख्तों की तरह
फैले घास की तरह
चढ़े लताओं की तरह
खिले फूलों की तरह
पके फलों की तरह
मैं चिड़िया, पीली चोंच वाली
उड़ूँ...फुदकूँ
गाऊं.. नाचूँ
जब तक मैं खुद
बन जाऊँ
शब्द
ना कि जंगल।

धूमिल की अन्तिम कविता / धूमिल

शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना कि यह
लोहे की आवाज़ है या
मिट्टी में गिरे हुए ख़ून
का रंग।
लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
घोड़े से पूछो
जिसके मुंह में लगाम है।

अधिनायक वंदना / गोरख पाण्डेय

जन गण मन अधिनायक जय हे  !
जय हे हरित क्रांति निर्माता
जय गेहूँ हथियार प्रदाता
जय हे भारत भाग्य विधाता
अंग्रेज़ी के गायक जय हे ! जन...
जय समाजवादी रंग वाली
जय हे शांतिसंधि विकराली
जय हे टैंक महाबलशाली
प्रभुता के परिचायक जय हे ! जन...
जय हे ज़मींदार पूंजीपति
जय दलाल शोषण में सन्मति
जय हे लोकतन्त्र की दुर्गति
भ्रष्टाचार विधायक जय हे ! जन...
जय पाखंड और बर्बरता
जय तानाशाही सुन्दरता
जय हे दमन भूख निर्भरता
सकल अमंगलदायक जय हे !

मुक्ति की आकांक्षा / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

चिड़िया को लाख समझाओ
कि पिंजड़े के बाहर
धरती बहुत बड़ी है, निर्मम है,
वहॉं हवा में उन्‍हें
अपने जिस्‍म की गंध तक नहीं मिलेगी।
यूँ तो बाहर समुद्र है, नदी है, झरना है,
पर पानी के लिए भटकना है,
यहॉं कटोरी में भरा जल गटकना है।
बाहर दाने का टोटा है,
यहॉं चुग्‍गा मोटा है।
बाहर बहेलिए का डर है,
यहॉं निर्द्वंद्व कंठ-स्‍वर है।
फिर भी चिड़िया
मुक्ति का गाना गाएगी,
मारे जाने की आशंका से भरे होने पर भी,
पिंजरे में जितना अंग निकल सकेगा, निकालेगी,
हरसूँ ज़ोर लगाएगी
और पिंजड़ा टूट जाने या खुल जाने पर उड़ जाएगी।

मंत्र...ॐ श‌ब्द ही ब्रह्म है.. ॐ श‌ब्द्, और श‌ब्द / नागार्जुन

ॐ श‌ब्द ही ब्रह्म है.. ॐ श‌ब्द्, और श‌ब्द, और श‌ब्द, और श‌ब्द
ॐ प्रण‌व‌, ॐ नाद, ॐ मुद्रायें, ॐ व‌क्तव्य‌, ॐ उद‌गार्, ॐ घोष‌णाएं
ॐ भाष‌ण‌... ॐ प्रव‌च‌न‌... ॐ हुंकार, ॐ फ‌टकार्, ॐ शीत्कार
ॐ फुस‌फुस‌, ॐ फुत्कार, ॐ चीत्कार ॐ आस्फाल‌न‌, ॐ इंगित,
ॐ इशारे, ॐ नारे, और नारे, और नारे, और नारे।
ॐ स‌ब कुछ, स‌ब कुछ, स‌ब कुछ, ॐ कुछ न‌हीं, कुछ न‌हीं,
कुछ न‌हीं, ॐ प‌त्थ‌र प‌र की दूब, ख‌रगोश के सींग
ॐ न‌म‌क-तेल-ह‌ल्दी-जीरा-हींग, ॐ मूस की लेड़ी,
क‌नेर के पात, ॐ डाय‌न की चीख‌, औघ‌ड़ की अट‌प‌ट बात
ॐ कोय‌ला-इस्पात-पेट्रोल‌, ॐ ह‌मी ह‌म ठोस‌, बाकी स‌ब फूटे ढोल‌
ॐ इद‌मान्नं, इमा आपः इद‌म‌ज्यं, इदं ह‌विः, ॐ य‌ज‌मान‌, ॐ पुरोहित,
ॐ राजा, ॐ क‌विः, ॐ क्रांतिः क्रांतिः स‌र्व‌ग्वंक्रांतिः,
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः स‌र्व‌ग्यं शांतिः, ॐ भ्रांतिः भ्रांतिः भ्रांतिः स‌र्व‌ग्वं भ्रांतिः
ॐ ब‌चाओ ब‌चाओ ब‌चाओ ब‌चाओ, ॐ ह‌टाओ ह‌टाओ ह‌टाओ ह‌टाओ
ॐ घेराओ घेराओ घेराओ घेराओ, ॐ निभाओ निभाओ निभाओ निभाओ
ॐ द‌लों में एक द‌ल अप‌ना द‌ल, ॐ, ॐ अंगीक‌रण, शुद्धीक‌रण,
राष्ट्रीक‌रण, ॐ मुष्टीक‌रण, तुष्टिक‌रण‌, पुष्टीक‌रण, ॐ ऎत‌राज़‌,
आक्षेप, अनुशास‌न, ॐ ग‌द्दी प‌र आज‌न्म व‌ज्रास‌न, ॐ ट्रिब्यून‌ल‌,
ॐ आश्वास‌न, ॐ गुट‌निरपेक्ष, स‌त्तासापेक्ष जोड़‌-तोड़‌
ॐ छ‌ल‌-छंद‌, ॐ मिथ्या, ॐ होड़‌म‌होड़
ॐ ब‌क‌वास‌, ॐ उद‌घाट‌न‌, ॐ मारण मोह‌न उच्चाट‌न‌
ॐ काली काली काली म‌हाकाली म‌हकाली
ॐ मार मार मार वार न जाय खाली, ॐ अप‌नी खुश‌हाली
ॐ दुश्म‌नों की पामाली, ॐ मार, मार, मार, मार, मार, मार, मार
ॐ अपोजीश‌न के मुंड ब‌ने तेरे ग‌ले का हार
ॐ ऎं ह्रीं क्लीं हूं आङ, ॐ ह‌म च‌बायेंगे तिल‌क और गाँधी की टाँग
ॐ बूढे की आँख, छोक‌री का काज‌ल,
ॐ तुल‌सीद‌ल, बिल्व‌प‌त्र, च‌न्द‌न, रोली, अक्ष‌त, गंगाज‌ल
ॐ शेर के दांत, भालू के नाखून‌, म‌र्क‌ट का फोता
ॐ ह‌मेशा ह‌मेशा राज क‌रेगा मेरा पोता
ॐ छूः छूः फूः फूः फ‌ट फिट फुट, ॐ श‌त्रुओं की छाती अर लोहा कुट
ॐ भैरों, भैरों, भैरों, ॐ ब‌ज‌रंग‌ब‌ली, ॐ बंदूक का टोटा, पिस्तौल की न‌ली
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भारतीय जनकवि का प्रणाम / नागार्जुन

गोर्की मखीम!
श्रमशील जागरूक जग के पक्षधर असीम!
घुल चुकी है तुम्हारी आशीष
एशियाई माहौल में
दहक उठा है तभी तो इस तरह वियतनाम ।
अग्रज, तुम्हारी सौवीं वर्षगांठ पर
करता है भारतीय जनकवि तुमको प्रणाम ।
गोर्की मखीम!
विपक्षों के लेखे कुलिश-कठोर, भीम
श्रमशील जागरूक जग के पक्षधर असीम!
गोर्की मखीम!
दर-असल'सर्वहारा-गल्प' का
तुम्हीं से हुआ था श्रीगणेश
निकला था वह आदि-काव्य
तुम्हारी ही लेखनी की नोंक से
जुझारू श्रमिकों के अभियान का...
देखे उसी बुढ़िया ने पहले-पहल
अपने आस-पास, नई पीढी के अन्दर
विश्व क्रान्ति,विश्व शान्ति, विश्व कल्याण ।
'मां' की प्रतिमा में तुम्ही ने तो भरे थे प्राण ।

गोर्की मखीम!
विपक्षों के लेखे कुलिश-कठोर, भीम
श्रमशील जागरूक जग के पक्षधर असीम!
गोर्की मखीम!


घिन तो नहीं आती है / नागार्जुन

पूरी स्पीड में है ट्राम
खाती है दचके पै दचके
सटता है बदन से बदन
पसीने से लथपथ ।
छूती है निगाहों को
कत्थई दांतों की मोटी मुस्कान
बेतरतीब मूँछों की थिरकन
सच सच बतलाओ
घिन तो नहीं आती है ?
जी तो नहीं कढता है ?
कुली मज़दूर हैं
बोझा ढोते हैं , खींचते हैं ठेला
धूल धुआँ भाप से पड़ता है साबका
थके मांदे जहाँ तहाँ हो जाते हैं ढेर
सपने में भी सुनते हैं धरती की धड़कन
आकर ट्राम के अन्दर पिछले डब्बे मैं
बैठ गए हैं इधर उधर तुमसे सट कर
आपस मैं उनकी बतकही
सच सच बतलाओ
जी तो नहीं कढ़ता है ?
घिन तो नहीं आती है ?
दूध-सा धुला सादा लिबास है तुम्हारा
निकले हो शायद चौरंगी की हवा खाने
बैठना है पंखे के नीचे , अगले डिब्बे मैं
ये तो बस इसी तरह
लगाएंगे ठहाके, सुरती फाँकेंगे
भरे मुँह बातें करेंगे अपने देस कोस की
सच सच बतलाओ
अखरती तो नहीं इनकी सोहबत ?

हँसो हँसो जल्दी हँसो / रघुवीर सहाय

हँसो हँसो जल्दी हँसो
हँसो, तुम पर निगाह रखी जा रही है
हँसो, अपने पर न हँसना क्योंकि उसकी कड़वाहट
पकड़ ली जाएगी और तुम मारे जाओगे
ऐसे हँसो कि बहुत खुश न मालूम हो
वरना शक होगा कि यह शख्स शर्म में शामिल नहीं
और मारे जाओगे,
हँसते हँसते किसी को जानने मत दो, किस पर हँसते हो
सब को मानने दो कि तुम सब की तरह परास्त हो कर
एक अपनापे की हँसी हँसते हो
जैसे सब हँसते है, बोलने के बजाय
जितनी देर ऊँचा गोल गुंबद गूँजता रहे, उतनी देर
तुम बोल सकते हो अपने से
गूँजते थमते-थमते फिर हँसना
क्योंकि तुम चुप मिले तो प्रतिवाद के जुर्म में फँसे
अंत में हँसे तो तुम पर सब हँसेंगे और तुम बच जाओगे
हँसो, पर चुटकुलों से बचो
उनमें शब्द हैं
कहीं उनमें अर्थ न हों जो किसी ने सौ साल पहले दिए हों
बेहतर है कि जब कोई बात करो तब हँसो
ताकि किसी बात का कोई मतलब न रहे
और ऐसे मौकों पर हँसो
जो कि अनिवार्य हों
जैसे गरीब पर किसी ताकतवर की मार
जहाँ कोई कुछ कर नहीं सकता
उस गरीब के सिवाय
और वह भी अक्सर हँसता है
हँसो हँसो जल्दी हँसो
इसके पहले कि वह चले जाएँ
उनसे हाथ मिलाते हुए
नजरें नीची किए
उनको याद दिलाते हुए हँसो
कि तुम कल भी हँसे थे।


अरे अब ऐसी कविता लिखो / रघुवीर सहाय

अरे अब ऐसी कविता लिखो
कि जिसमें छंद घूम कर आय
घुमड़ता जाय देह में दर्द
कहीं पर एक बार ठहराय,
कि जिसमें एक प्रतिज्ञा करूँ
वही दो बार शब्द बन जाय
बताऊँ बार-बार वह अर्थ
न भाषा अपने को दोहराय,
अरे अब ऐसी कविता लिखो
कि कोई मूड़ नहीं मटकाय
न कोई पुलक-पुलक रह जाय
न कोई बेमतलब अकुलाय,
छंद से जोड़ो अपना आप
कि कवि की व्यथा हृदय सह जाय
थाम कर हँसना-रोना आज
उदासी होनी की कह जाय।


औरत की जिंदगी / रघुवीर सहाय

कई कोठरियाँ थीं कतार में
उनमें किसी में एक औरत ले जाई गई
थोड़ी देर बाद उसका रोना सुनाई दिया
उसी रोने से हमें जाननी थी एक पूरी कथा
उसके बचपन से जवानी तक की कथा।


हमारी मुठभेड़ / रघुवीर सहाय

कितने अकेले तुम रह सकते हो
अपने जैसे कितनों को खोज सकते हो तुम
हम एक गरीब देश के रहने वाले हैं इसलिए
हमारी मुठभेड़ हर वक्त रहती है ताकत से
देश के गरीब रहने का मतलब है
अकड़ और अश्लीलता का हम पर हर वक्त हमला।




समकालीन शब्द-समय के जादूगर रामाज्ञा शशिधर की पंक्तियां...

इस बुरे समय में देर-अबेर आती है नींद
नींद के साथ ही शुरू होता है सपना
सपने में पृथ्वी आती है नाचती नहीं
कोयल आती है कूकती नहीं
गौरैया आती है, चुग्गा नहीं चुगती
बादल आते हैं बरसते नहीं
फूलों से नहीं बतियाती हैं तितलियां
हवा से दूर भागती है गंध।
सपने में गुर्राया है शैतान
जो नग्न मूर्तियों को
अक्षत और ऋचाओं से
जगाने की चेष्टा करता है
मूर्तियां सुगबुगाती हैं
फिर मूच्र्छित हो जाती हैं
सपने में एक सांड आता है
जो मेरी सब्जियों की बाड़ी चर जाता है।

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निकल रही निर्लज्ज वासना फाड़-चीरकर नया लंगोटा
संसद में सबसे ऊपर है किसका मोटा किसका छोटा
काशी के विधवा पल्लू में रामराज्य का चमके गोटा
कब तक पार्वती खाएगी, नोंच-नोंचकर तेलछन झोंटा।
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भूख
मेरे लिए उस प्रेमिका की तरह है
जो बिना मिले
किसी दिन रह नहीं पाती है
इतनी दिलकश है कि हर चौथे घंटे
तन बदन में आग लगा जाती है।
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खेत से आते हैं फांसी के धागे
खेत से आती है सल्फास की टिकिया
खेत से आते हैं श्रद्धांजलि के फूल
खेत से आता है सफेद कफन
खेत से सिर्फ रोटी नहीं आती।
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संसार का सबसे बड़ा श्मशान
धूसर सलेटी काला
संसार का सबसे बड़ा कफन
मुलायम सफेद आरामदेह
मणिकर्णिके
तुमने विदर्भ नहीं देखा है।
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यदि मैं रोटी हूं
किसी सर्वोदय, अंत्योदय लाल कार्ड की मार्फत
कभी नहीं पहुंचूंगी आपकी थाली-छिपली में
मुझे पाना है तो जमीन पर खींचिए
अपनी भूख की माप से विशाल वृत्त
उस पर लिखिए ‘व्यवस्था’
और एक अनंत छोर वाली मजबूत कील
ठोक दीजिए।
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एक बिल्ली आती है
जो मुंडेर पर सहमे
सारे कबूतरों को खा जाती है
एक पिशाच आता है
जो मेरे छप्पर पर
खोपडिय़ा और अस्थियां खाता है
रात चलती है चांद की लाश कंधे पर उठाए।
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हमारा समय नायक विहीन हो गया है
जिसमें कोई यह कहने वाला नहीं
कि जितना बड़ा है
उनके लालच और लालसा का संसार
उससे कहीं बड़ी है/हमारी भूख की दुनिया।
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मैं रेशम का कीड़ा होता
तो
पहले खाता फिर कमाता
आदमी होता
तो
पहले कमाता फिर खाता
आप ही बताइए
मैं कौन सी प्रजाति हूं
पहले और बाद में केवल कमाता हूं
कब्र की मिट्टी के अलावा
कुछ नहीं खाता हूं।
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‘तुम भाषा में
आग इस तरह लाओ
जैसे वे लाते हैं
संधिपत्र’
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वे बुद्धिजीवी हैं
इसलिए अपने परिवेश से नाराज हैं
वे जिस सड़क पर चलते हैं
उसे जी-भर गलियाते हैं।
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हम दिल्ली के सबल सिपाही
गीत गजल पर शासन अपना
आई टी ओं में भाषण अपना
अकादमियों से राशन
रामराज्य तक आवाजाही!
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यह सिद्धों का नहीं
सिद्धहस्तों की कला का समय है।
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घर में जंजीरें जगती थीं
भागे गाँव की ओर
गाँव में कुल्हाड़ियां रहती थीं
भागकर शहर गए
शहर में डंडे थे झंडे थे
शोर था जेल थी
अब हम किधर जाएं
साथी
जाना तो चांद पर चाहते थे
सपनों का चान्द
सपने जैसा चांद
आखिरी वह भी हो गया नीलाम

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सांडो भैंसों नीलगायों से बचते हुए
सियारों, लोमड़ियों, कीड़ों से छुपते हुए
सरपत के टाटों के बीच
रेत पर फैल रही है खरबूजों की लतर
फैलने दो अपना प्यार
जड़ों में नमी भरकर नदी सुख पाती है
फागुन में हम जितना करेंगे प्यार
चैत में उतने ही होंगे खरबूजे बेमिसाल
दुनिया को पता कहाँ
कि खरबूजे हमारे प्यार से रंग पाते हैं
वे हमीं से रंग चुराते हैं।