Sunday 24 August 2014

ये खून बेकार नहीं जायेगा/अन्तरा घोष

जुलाई से इज़रायल ने गाज़ा पट्टी के निहत्थे नागरिकों, बच्चों, औरतों पर फिर से हमला बोल दिया है। यह पिछले छह वर्षों में गाज़ा पर इज़रायल का तीसरा बड़ा हमला है। यह टिप्पणी लिखे जाने तक गाज़ा में लगभग साढ़े पाँच सौ लोग मारे जा चुके हैं। इनमें से अधिकांश महिलाएँ, बच्चे और बूढ़े हैं। इज़रायल ने अपने तीन किशोरों के अपहरण और हत्या को गाज़ा पर हमले का कारण बताया था, जो कि ट्रेकिंग पर गये थे और लापता हो गये थे। बाद में उनकी लाशें बरामद हुई थीं। लेकिन गाज़ा पट्टी पर शासन कर रहे फिलिस्तीनी संगठन हमास ने इसकी ज़िम्मेदारी नहीं ली और अभी तक इसका कोई स्पष्ट प्रमाण भी नहीं है कि ये हत्याएँ हमास द्वारा की गयी हैं। लेकिन इसके बावजूद प्रमाणों की अवहेलना करते हुए इज़रायल ने 8 जुलाई को गाज़ा पट्टी पर भयंकर गोलाबारी और हवाई बमवर्षा शुरू कर दी। इस हमले में इज़रायल सफेद फास्फोरस का और साथ ही Shrinking-Palestineतमाम नये प्रयोगात्मक हथियारों का इस्तेमाल कर रहा है। ग़ौरतलब है कि 2004 में इज़रायल ने गाज़ा पट्टी से अपनी सेना और नागरिकों को हटा लिया था। बाद में, गाज़ा में फतह और हमास के बीच नियन्त्रण को लेकर संघर्ष हुआ जिसमें अन्ततः हमास ने विजय हासिल की। गाज़ा पट्टी के चुनावों में भी हमास को भारी समर्थन मिला और हमास ने जनवादी तरीके से चुनी हुई सरकार का गठन किया। इसके बाद से ही इज़रायल गाज़ा पट्टी पर हमले करता रहा है। 2006, 2008-09, 2012 और अब 2014। इज़रायल यह दलील देता रहा है कि गाज़ा पट्टी पर उसके हमलों का कारण हमास की आतंकवादी गतिविधियाँ हैं, जिसका निशाना इज़रायल है; इज़रायल के हुक्मरान गाज़ा पट्टी से किये जाने वाले रॉकेट हमलों और टनलों द्वारा की जाने वाली घुसपैठों को अपने बर्बर हमलों का कारण बताया है। लेकिन अगर यही कारण है तो फिलिस्तीनियों के दूसरे इलाके वेस्ट बैंक में इज़रायल के अत्याचारों का क्या कारण है? वहाँ से तो कोई रॉकेट नहीं दागे जाते? न ही वहाँ से कोई अन्य आक्रामक इज़रायल-विरोधी गतिविधियाँ चलती हैं? फिर वेस्ट बैंक के फिलिस्तीनी नागरिकों का अपहरण, हत्याएँ, उनका उत्पीड़न क्यों किया जाता है? उनकी ज़मीनें इज़रायल क्यों छीन रहा है? उन्हें विस्थापित करके इज़रायल अपनी यहूदी बस्तियाँ वहाँ क्यों बसा रहा है? वहाँ तो फिलिस्तीनी प्राधिकार और फतह का बोलबाला है? वहाँ तो हमास का शासन नहीं है?
वास्तव में, इज़रायल का असली मक़सद हमास का सफ़ाया करना नहीं है। इज़रायल भी जानता है कि ऐसे हमलों से न तो वह हमास को ख़त्म कर पाया है और न ही ख़त्म कर पायेगा। सच्चाई तो यह है कि 2004 से ऐसे हरेक हमले ने हमास को और अधिक ताक़तवर और लोकप्रिय बनाया है। इस हमले में भी इज़रायली हमास को कोई विशेष नुकसान नहीं पहुँचा पाये हैं और उनकी अन्धाधुन्ध गोलाबारी का निशाना गाज़ा के निर्दोष बच्चे, औरतें और अन्य नागरिक बने हैं। 18 जुलाई को इज़रायल ने जब ज़मीनी हमला शुरू किया तो उसके एक दिन बाद ही हमास ने इज़रायल के 13 सैनिकों को मार गिराया और एक को गिरफ्तार कर लिया। अब तक 19 इज़रायली भी मारे जा चुके हैं। इज़रायल की उस टुकड़ी के सैनिक ने बताया, “हमारे सामने कोई आदिम सेना नहीं थी। वे लोग बेहद उन्नत हथियारों से लैस थे, बहुत अच्छी तरह से प्रशिक्षित थे; वे भाग नहीं रहे थे। वे तो बस हमारा इन्तज़ार कर रहे थे।” इज़रायल और अमेरिका जैसे साम्राज्यवादी कभी इतिहास से सबक नहीं लेते हैं। वे लेबनॉन द्वारा मारकर भगाया जाना भूल चुके हैं और उसके पहले 2004 और 2006 में फिलिस्तीनी प्रतिरोध द्वारा नाकों चने चबवाया जाना भी भूल चुके हैं। यह सच है कि हर ऐसे हमले फिलिस्तीनी जनता का भारी कत्लेआम होता है। लेकिन फिलिस्तीनी जनता का इज़रायली कब्ज़े के विरुद्ध प्रतिरोध युद्ध इससे ख़त्म नहीं हो रहा बल्कि और मज़बूत हो रहा है और बढ़ रहा है। इज़रायली हमले के बाद से ही गाज़ा की मस्जिदें रोज़ घोषणा कर रही थीं, “हिम्मत मत हारो! धैर्य रखो! विजय आयेगी!” 18 जुलाई को इज़रायली सेना के 13 सैनिकों को मारकर और 1 सैनिक को गिरफ्तार करके हमास ने बता दिया कि वह किस ओर इशारा कर रहा था।
इज़रायल बार-बार कहता है कि वह आत्मरक्षा में यह हमले कर रहा है और उसे अस्तित्वमान रहने का हक़ है। वास्तव में, 1947 से ही जिस कौम के अस्तित्वमान रहने के हक़ पर लगातार हमला किया गया है, वे फिलिस्तीनी हैं। संयुक्त राष्ट्र ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यहूदियों को “राज्य से वंचित राष्ट्र” बताते हुए उनकी प्राचीन ज़मीन पर उनके लिए एक राज्य निर्माण की योजना बनायी। इस योजना पर अमल करते हुए 1947-48 में यूरोप व दुनिया के अन्य हिस्सों में यहूदी-विरोध से प्रताड़ित भारी यहूदी आबादी को तत्कालीन फिलिस्तीन की ज़मीन पर बसाया गया। इज़रायल की जो योजना बनायी गयी थी, धीरे-धीरे उस योजना से परे ज़ि‍यनवादियों ने फिलिस्तीनी अरब नागरिकों से ज़मीनें छीननी शुरू कीं, ब्रिटिश और अमेरिकी साम्राज्यवाद की मदद से लगातार फिलिस्तीनियों को विस्थापित किया और धीरे-धीरे फिलिस्तीनियों को गाज़ा पट्टी और वेस्ट बैंक के इलाके में सीमित करते गये। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक पश्चिमी एशिया के अधिकांश तेल क्षेत्र और प्राकृतिक गैस क्षेत्र मिल चुके थे। पश्चिमी साम्राज्यवादियों को पश्चिमी एशिया में अपनी एक चेक पोस्ट और अपना एक लठैत चाहिए था। इस मंसूबे के साथ पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने फिलिस्तीनी ज़मीन पर बसाये गये यहूदियों के बीच पनप रहे धुर दक्षिणपंथी ज़ि‍यनवादी गुटों को हथियार, पैसे और प्रशिक्षण देना शुरू किया। इन ज़ि‍यनवादियों ने 1950-60 के दशकों से ही तमाम जगहों पर फिलिस्तीनी अरब लोगों के गाँवों के गाँवों का नरसंहार, उन्हें उजाड़ना और उनके साथ भेदभाव की नीति पर अमल करना शुरू कर दिया। इसके साथ ही फिलिस्तीनी जनता का भी अपने राज्य के अधिकार के लिए संघर्ष भी शुरू हुआ। इस संघर्ष में पूरे अरब की जनता की भावना उजाड़े जा रहे फिलिस्तीनियों के साथ थी। दो बड़े और कुछ छोटे इज़रायल-अरब युद्ध भी हुए, जिसमें कि अमेरिकी और अन्य साम्राज्यवादी सहायता के बूते और अरब देशों के आपसी अन्तरविरोधों और कमज़ोर सैन्य तैयारी के कारण इज़रायल को ही विजय मिली। लेकिन इस बीच फिलिस्तीनियों के प्रतिरोध युद्ध की वजह से इज़रायलियों को भी कई बार अच्छा-ख़ासा नुकसान उठाना पड़ा। लेकिन 1947 से लेकर 2014 के पूरे इतिहास पर निगाह दौड़ाएँ तो यह इज़रायली ज़ि‍यनवादियों द्वारा फिलिस्तीन देश को ख़त्म करने की प्रक्रिया को दिखलाता है। इसी प्रक्रिया के ख़िलाफ़ फिलिस्तीनी लगातार लड़ रहे हैं और इसे कामयाब नहीं होने दे रहे हैं।
इज़रायल आज फिलिस्तीनी जनता के साथ वही सुलूक कर रहा है जो एक समय में नात्सियों ने यहूदियों के ख़िलाफ़ किया था। वास्तव में, एक प्रसिद्ध ज़ि‍यनवादी सैन्य कमाण्डर ने एक बार कहा भी था, “हिटलर चाहे हमारे साथ कितना भी बुरा क्यों न रहा हो, उसने दिखलाया है कि नरसंहार, नस्ली सफ़ाये और विस्थापन के ज़रिये क्या-कुछ हासिल किया जा सकता है।” आज के दौर में इज़रायली संसद नेसेट की एक महिला सांसद कहती है कि सारी फिलिस्तीनी माँओं की हत्या कर दी जानी चाहिए जो कि सपोलों को जन्म देती हैं। एक दूसरा सैन्य अधिकारी कहता है कि गाज़ा और वेस्ट बैंक से सारे अरब लोगों को खदेड़ दिया जाना चाहिए या उनकी हत्या कर दी जानी चाहिए और वहाँ यहूदियेां को बसा दिया जाना चाहिए। आज गाज़ा पट्टी के पास न तो कोई रक्षा तन्त्र है, न हवाई सेना है, न नौसेना है और न ही कोई स्थायी सेना है। उसे चारों ओर से घेरा हुआ है, मिस्र ने राफा क्रासिंग को सील कर रखा है, इज़रायल ने उसके हवाई क्षेत्र और समुद्री तट को बन्द कर रखा है और उस पर अपना कब्ज़ा जमाये हुए है। गाज़ा पट्टी को तमाम प्रेक्षकों ने दुनिया की सबसे बड़ी ‘ओपेन एयर’ जेल करार दिया है, जो कि बिल्कुल सही है। चारों तरफ़ से घिरे हुए गाज़ा पट्टी के नागरिकों, बच्चों और औरतों पर इज़रायल लगातार बम बरसाता है, उनका अपहरण करता है, उन्हें यातना देता है। हज़ारों निर्दोष फिलिस्तीनी इज़रायल की जेलों में बन्द हैं, बिना किसी मुकदमे या सुनवाई के। कुछ वर्ष पहले अपने एक गिरफ्तार सैनिक को छुड़ाने के लिए इज़रायल ने हज़ार फिलिस्तीनी कैदियों को रिहा किया था। लेकिन उस समझौते का कुछ समय पहले उल्लंघन करते हुए तमाम फिलिस्तीनियों को फिर से गिरफ्तार कर लिया। साथ ही, गाज़ा पट्टी का ब्लॉकेड कर इज़रायल योजनाबद्ध तरीके से गाज़ा के नागरिकों को उनकी बुनियादी ज़रूरत से महरूम कर रहा है। गाज़ा पट्टी की बिजली और पानी तक इज़रायल बन्द या बाधित करता रहा है, बाहर से कोई मानवीय सहायता नहीं आने देता और बार-बार गाज़ा पट्टी में घुसकर अपहरण और कत्ल करता है। इसके बाद, जब गाज़ा पट्टी के फिलिस्तीनी अपने इंसानी जीवन के हक़ के लिए प्रतिरोध करते हैं और इज़रायल के अमेरिका और यूरोपीय देशों द्वारा दिये गये अत्याधुनिक हथियारों के जवाब में रॉकेट हमले करते हैं, तो इज़रायल उसे अपने वजूद पर हमला करार देकर गाज़ा पट्टी में नरसंहार को अंजाम देता है। इज़रायल के पास जो तकनोलॉजी है उससे वह नागरिकों की मृत्यु को रोक सकता है। लेकिन इसके बावजूद वह ऐसा नहीं करता और निर्दोषों का कत्ले-आम करता है, क्योंकि उसका असली मक़सद है, गाज़ा पट्टी पर भी यहूदी बस्तियाँ बसाना, वहाँ के फिलिस्तीनियों को मार देना, विस्थापित कर देना या फिर उन्हें उसी तरह से दोयम दर्जे का नागरिक बनाकर, गुलाम बनाकर रखना जैसे कि हिटलर ने यहूदियों को बना कर रखा था। वास्तव में, इज़रायल दो देशों वाले समाधान को अपनाना ही नहीं चाहता है। वह फिलिस्तीनी अरब लोगों को वहाँ से पूरी तरह विस्थापित करके प्राचीन दैवीय यहूदी राज्य इज़रायल के अपने कट्टरपंथी ज़ि‍यनवादी सपने को साकार करना चाहता है। ये फिलिस्तीनी लोग हैं जो कि आत्मरक्षा के लिए लड़ रहे हैं, इज़रायल नहीं! ये फिलिस्तीनी लोग हैं जिनसे उनकी ज़िन्दगियाँ, ज़मीनें और देश छीना जा रहा है, इज़रायल नहीं!
इज़रायल बार-बार होलोकॉस्ट का हवाला देता है और अपने पीड़ित होने की बात करता है। इज़रायल बार-बार अपनी आत्मरक्षा और अस्तित्वमान रहने के हक़ की बात करता है। लेकिन जैसा कि नोम चॉम्स्की ने कहा है, इज़रायल वही आत्मरक्षा कर रहा है जो किसी भी औपनिवेशिक कब्ज़ा करने वाली ताक़त को प्रतिरोध कर रही जनता के सामने करनी पड़ती है। फिलिस्तीनी जनता को अपने देश, अपनी ज़मीन, अपनी ज़िन्दगी का हक़ है और अगर यह हक़ उससे छीना जाता है, तो उसे प्रतिरोध करने और संघर्ष करने का पूरा हक़ है। इस पूरी लड़ाई में तमाम अरब देशों के शासक चुप हैं, या दोनों पक्षों से शान्ति की मानवतावादी अपीलें कर रहे हैं। मिस्र के शासकों ने स्पष्टतः इज़रायल का पक्ष लिया है और गाज़ा पट्टी की सीमा को खोलने से यह कहकर इंकार कर दिया है कि यह “आतंकवादी” हमास के लिए प्रोत्साहन होगा! सऊदी अरब, कतर से लेकर इराक़ के आईएसआईएस के विद्रोही तक फिलिस्तीन के मसले पर चुप हैं, इज़रायल के हमले पर चुप हैं या फिर रस्म-अदायगी के लिए कोई बयान दे रहे हैं। लेकिन इन देशों की जनता के भीतर अपने शासक वर्ग की नपुंसकता को लेकर ज़बर्दस्त विद्रोह की भावना है। पूरी अरब जनता फिलिस्तीनियों के साथ खड़ी और उनकी हमदर्द है। कुछ वर्ष पहले जब अरब जनउभार ने कई अरब देशों में सत्ता परिवर्तन किया था, तो उन देशों में बढ़ती बेरोज़गारी, ग़रीबी और महँगाई के अतिरिक्त एक बहुत बड़ा मसला इन देशों के शासकों द्वारा इज़रायली ज़ि‍यनवादियों और अमेरिकी साम्राज्यवादियों के सामने घुटना टेकना और फिलिस्तीनी जनता को अकेला छोड़ देना व उनका साथ न देना भी था। इस हमले में इज़रायल गाज़ा पट्टी पर कब्जे़ के अपने मंसूबे में कामयाब नहीं होने वाला है, यह सभी जानते हैं। हम यह भी जानते हैं कि इज़रायल अपने तमाम हरबे-हथियारों के बावजूद हमास के हाथों पिटने वाला है और उसी तरीके से गाज़ा से भागने वाला है, जिस तरह से वह लेबनॉन में हिज़बुल्ला के हाथों पिटकर भागा था। लेकिन इज़रायल को अपने इस कायराना और बर्बर हमले और मानवता के विरुद्ध किये जा रहे अपराधों के लिए यह तात्कालिक कीमत ही नहीं चुकानी होगी। हर ऐसा इज़रायली हमला फिलिस्तीनियों को कई अन्य अरब देशों में विस्थापित कर देता है, जो कि इन सभी अरब देशों में बारूद की तरह इकट्ठा हो रहे हैं। इस विस्थापन के कारण तमाम अरब देशों की आम जनता और भी मज़बूती के साथ फिलिस्तीनी जनता के साथ जुड़ रही है और अपने शासक वर्ग के ख़िलाफ़ खड़ी हो रही है। समूचे अरब में अमेरिका और इज़रायल के ख़िलाफ़ जो नफ़रत भरी है, वह आने वाले समय में फूटेगी और इन देशों में सत्ता परिवर्तन की ओर ले जायेगी। लेकिन यह भी सच है कि जब तक सच्ची जनवादी और प्रगतिशील क्रान्तिकारी ताक़तें एक नये अरब जनउभार के नेतृत्व में नहीं होंगी, तब तक इस बात कोई गारण्टी नहीं होगी कि नयी अरब सत्ताएँ अमेरिकी साम्राज्यवाद और इज़रायली ज़ि‍यनवाद के विरुद्ध खड़ी होंगी। फिर भी, दो बातें स्पष्ट हैं। एक यह कि ऐसी क्रान्तिकारी ताक़तों के खड़े होने की प्रक्रिया साम्राज्यवाद और ज़ि‍यनवाद के हर आक्रमण के साथ बढ़ेंगी, क्योंकि अरब जनता भी देख रही है कि इस्लामिक कट्टरपंथी ताक़तें palestineनिरन्तरतापूर्ण तरीके से अमेरिकी साम्राज्यवाद और इज़रायली ज़ि‍यनवाद का विरोध नहीं कर रही हैं। तमाम वर्तमान उदाहरण मौजूद हैं जिसमें कि धार्मिक कट्टरपंथी ताक़तें साम्राज्यवादियों और ज़ि‍यनवादियों के साथ समझौते और सौदे कर रही हैं। ऐसे में, जनता के बीच नये क्रान्तिकारी विकल्पों के खड़े होने की सम्भावनाएँ पैदा हो सकती हैं, क्योंकि अरब जनता ने साम्राज्यवाद और ज़ि‍यनवाद के धार्मिक कट्टरपंथी विरोध की सीमा और असलियत देख ली है। दूसरी बात यह है कि पश्चिमी साम्राज्यवाद कोई नया अरब जनउभार नहीं चाहती हैं क्योंकि इससे अमेरिका और इज़रायल के सारे समीकरण पश्चिमी एशिया में गड़बड़ा सकते हैं। इसलिए मौजूदा हमले में भी अमेरिका की साँस हलक में अटकी हुई है और जिस दिन 13 इज़रायली सैनिक मारे गये उसी दिन अमेरिकी उपराष्ट्रपति जॉन केरी एक टीवी साक्षात्कार में ब्रेक के वक़्त ग़लती से माइक्रोफोन पर इज़रायली हमले के प्रति असन्तोष दिखाते हुए पाये गये। अमेरिकी साम्राज्यवादी समझ रहे हैं कि इज़रायल ने किस बारूद की ढेरी पर पाँव रख दिया है। पूरी दुनिया में इज़रायल के विरुद्ध हिंस्र प्रदर्शन हो रहे हैं। टर्की में इज़रायली दूतावास और कांसुलेट पर हमले किये गये और दूतावास पर कब्ज़ा करके फिलिस्तीनी झण्डा लहराया गया। टर्की के शासक एर्दोगान के लिए भी ऐसी मुश्किल खड़ी हो गयी कि उसने इज़रायल के विरुद्ध बयान दिया। विश्व भर में इज़रायली राजनयिक घबराये हुए हैं कि कब उन पर हमला होता है।
जो भी हो यह स्पष्ट है कि फिलिस्तीन का प्रश्न अरब विश्व के दिल के केन्द्र में है। फिलिस्तीनी जनता के विरुद्ध आज कायर इज़रायल जो अपराध कर रहा है, वह पूरे अरब विश्व में साम्राज्यवाद और ज़ि‍यनवाद के लिए आत्मघाती साबित होगा। इज़रायल के कायराना हमलों से गाज़ा के फिलिस्तीनी पहले भी डटकर लड़े हैं और अभी भी डटकर लड़ रहे हैं। मौत और दुख उनके जीवन का हिस्सा बन चुका है और वे डरते नहीं हैं। जैसा कि एक फिलिस्तीनी कवि ने कहा है, “फिलिस्तीनी होने का मतलब है, एक कभी न ठीक हो सकने वाली बीमारी का मरीज़ होना और उस बीमारी का नाम है उम्मीद!” फिलिस्तीनी जनता के प्रतिरोध संघर्ष ने 18 जुलाई से इज़रायलियों को अपनी भयंकर भूल का अहसास कराना शुरू कर दिया है। 20 जुलाई को 13 इज़रायली सैनिकों को मारे जाने और एक के कैद किये जाने के साथ यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। हवा से बम बरसाकर और मिसाइलें दागकर इज़रायल जो कर सकता था, उसने किया। लेकिन ज़मीन पर फिलिस्तीनियों का मुकाबला करना कायर ज़ि‍यनवादियों के बूते के बाहर है और आने वाले कुछ दिनों में यह साबित भी हो जायेगा। और कुछ दूर भविष्य में समूची इज़रायली जनता को अपने योजनाबद्ध फासीवादीकरण की ज़ि‍यनवादियों को इजाज़त देने की भी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। साथ ही, अरब शासकों को अपनी नपुंसकता और साम्राज्यवाद के समक्ष घुटने टेकने के लिए भी निकट भविष्य में ही भारी कीमत चुकानी होगी। फिलिस्तीन मरेगा नहीं! फिलिस्तीनी जनता मरेगी नहीं! अन्त होगा इज़रायली ज़ि‍यनवाद का और अमेरिकी साम्राज्यवाद का! अरब की धरती पर उनकी कब्र खुदने की तैयारी चल रही है।
('आह्वान' से साभार)

जागो मृतात्माओ! / कात्यायनी

जागो मृतात्माओ! बर्बर कभी भी तुम्हारे दरवाज़े पर दस्तक दे सकते हैं।
कायरो! सावधान!! भागकर अपने घर पहुँचो और देखो
तुम्हारी बेटी कॉलेज से लौट तो आयी है सलामत, बीवी घर में महफूज़ तो है।
बहन के घर फ़ोन लगाकर उसकी भी खोज-ख़बर ले लो!
कहीं कोई औरत कम तो नहीं हो गयी है तुम्हारे घर और कुनबे की?
मोहनलालगंज, लखनऊ के निर्जन स्कूल में जिस युवती को
शिकारियों ने निर्वस्त्र दौड़ा-दौड़ाकर मारा 17 जुलाई को,
उसके जिस्म को तार-तार किया और वह जूझती रही, जूझती रही, जूझती रही—
—अकेले, अन्तिम साँस तक और मदद को आवाज़ भी देती रही
पर कोई नहीं आया मुर्दों की उस बस्ती से जो दो सौ मीटर की दूरी पर थी।
उस स्त्री के क्षत-विक्षत निर्वस्त्र शव की शिनाख़्त नहीं हो सकी है।
पर कायरो! निश्चिन्त होकर बैठो और पालथी मारकर चाय-पकौड़ी खाओ
क्योंकि तुम्हारे घरों की स्त्रियाँ सलामत हैं, कुछ किस्से गढ़ो, कुछ कल्पना करो, बेशर्मो !
कल दफ्तर में इस घटना को एकदम नये ढंग से पेश करने के लिए।
बर्बर हमेशा कायरों के बीच रहते हैं, हर कायर के भीतर अक्सर एक बर्बर छिपा बैठा होता है।
चुप्पी भी उतनी ही बेरहम होती है
जितनी गोद-गोदकर, जिस्म में तलवार या रॉड भोंककर की जाने वाली हत्या।
हत्या और बलात्कार के दर्शक, स्त्री आखेट के तमाशाई
दुनिया के सबसे रुग्ण मानस लोगों में से एक होते हैं।
16 दिसम्बर 2012 को चुप रहे
उन्हें 17 जुलाई 2014 का इन्तज़ार था और इसके बीच के काले अँधेरे दिनों में भी
ऐसा ही बहुत कुछ घटता रहा।
कह दो मुलायम सिंह कि ‘लड़कों से तो ग़लती हो ही जाती है, इस बार कुछ बड़ी ग़लती हो गयी।’
धर्मध्वजाधारी कूपमण्डूको, भाजपाई फासिस्टो, विहिप, श्रीराम सेने के गुण्डो, नागपुर के हाफ़पैण्टियो,
डाँटो-फटकारो औरतों को दौड़ाओ डण्डे लेकर कि क्यों वे इतनी आज़ादी दिखलाती हैं सड़कों पर
कि मर्द जात को मजबूर हो जाना पड़ता है जंगली कुत्ता और भेड़िया बन जाने के लिए।
मुल्लाओ! कुछ और फ़तवे जारी करो औरतों को बाड़े में बन्द करने के लिए,
शरिया क़ानून लागू कर दो, “नये ख़लीफ़ा” अल बगदादी का फ़रमान भी ले आओ,
जल्दी करो, नहीं तो हर औरत लल द्यद बन जायेगी या तस्लीमा नसरीन की मुरीद हो जायेगी।
बहुत सारी औरतें बिगड़ चुकी हैं इन्हें संगसार करना है, चमड़ी उधेड़ देनी है इनकी,
ज़िन्दा दफ़न कर देना है त्रिशूल, तलवार, नैजे, खंजर तेज़ कर लो,
कोड़े उठा लो, बागों में पेड़ों की डालियों से फाँसी के फँदे लटका दो,
तुम्हारी कामाग्नि और प्रतिशोध को एक साथ भड़काती
कितनी सारी, कितनी सारी, मगरूर, बेशर्म औरतें
सड़कों पर निकल आयी हैं बेपर्दा, बदनदिखाऊ कपड़े पहने,
हँसती-खिलखिलाती, नज़रें मिलाकर बात करती,
अपनी ख़्वाहिशें बयान करती!
तुम्हें इस सभ्यता को बचाना है
तमाम बेशर्म-बेग़ैरत-आज़ादख़्याल औरतों को सबक़ सिखाना है।
हर 16 दिसम्बर, हर 17 जुलाई
देवताओं का कोप है
ख़ुदा का कहर है
बर्बर बलात्कारी हत्यारे हैं देवदूत
जो आज़ाद होने का पाप कर रही औरतों को
सज़ाएँ दे रहे हैं इसी धरती पर
और नर्क से भी भयंकर यन्त्रणा के नये-नये तरीके आज़माकर
देवताओं को ख़ुश कर रहे हैं।

बहनो! साथियो!!
डरना और दुबकना नहीं है किसी भी बर्बरता के आगे।
बकने दो मुलायम सिंह, बाबूलाल गौर और तमाम ऐसे
मानवद्रोहियों को, जो उसी पूँजी की सत्ता के
राजनीतिक चाकर हैं, जिसकी रुग्ण-बीमार संस्कृति
के बजबजाते गटर में बसते हैं वे सूअर
जो स्त्री को मात्र एक शरीर के रूप में देखते हैं।
इसी पूँजी के सामाजिक भीटों बाँबियों-झाड़ियों में
वे भेड़िये और लकड़बग्घे पलते हैं
जो पहले रात को, लेकिन अब दिन-दहाड़े
हमें अपना शिकार बनाते हैं।
क़ानून-व्यवस्था को चाक-चौबन्द करने से भला क्या होगा
जब खाकी वर्दी में भी भेड़िये घूमते हों
और लकड़बग्घे तरह-तरह की टोपियाँ पहनकर
संसद में बैठे हों?
मोमबत्तियाँ जलाने और सोग मनाने से भी कुछ नहीं होगा।
अपने हृदय की गहराइयों में धधकती आग को
ज्वालामुखी के लावे की तरह सड़कों पर बहने देना होगा।
निर्बन्ध कर देना होगा विद्रोह के प्रबल वेगवाही ज्वार को।
मुट्ठियाँ ताने एक साथ, हथौड़े और मूसल लिए हाथों में निकलना होगा
16 दिसम्बर और 17 जुलाई के ख़ून जिन जबड़ों पर दीखें,
उन पर सड़क पर ही फैसला सुनाकर
सड़क पर ही उसे तामील कर देना होगा।

बहनो! साथियो!!
मुट्ठियाँ तानकर अपनी आज़ादी और अधिकारों का
घोषणापत्र एक बार फिर जारी करो,
धर्मध्वजाधारी प्रेतों और पूँजी के पाण्डुर पिशाचों के खि़लाफ़।
मृत परम्पराओं की सड़ी-गली बास मारती लाशों के
अन्तिम संस्कार की घोषणा कर दो।
चुनौती दो ताकि बौखलाये बर्बर बाहर आयें खुले में।
जो शिकार करते थे, उनका शिकार करना होगा।

बहनो! साथियो!!
बस्तियों-मोहल्लों में चौकसी दस्ते बनाओ!
धावा मारो नशे और अपराध के अड्डों पर!
घेर लो स्त्री-विरोधी बकवास करने वाले नेताओं-धर्मगुरुओं को सड़कों पर
अपराधियों को लोक पंचायत बुलाकर दण्डित करो!
अगर तुम्हे बर्बर मर्दवाद का शिकार होने से बचना है
और बचाना है अपनी बच्चियों को
तो यही एक राह है, और कुछ नहीं, कोई भी नहीं।

बहनो! साथियो!!
सभी मर्द नहीं हैं मर्दवादी।
जिनके पास वास्तव में सपना है समतामूलक समाज का
वे स्त्रियों को मानते हैं बराबर का साथी,
जीवन और युद्ध में।
वे हमारे साथ होंगे हमारी बग़ावत में, यकीन करो!
श्रम-आखेटक समाज ही स्त्री आखेट का खेल रचता है।
हमारी मुक्ति की लड़ाई है उस पूँजीवादी बर्बरता से
मुक्ति की लड़ाई की ही कड़ी,
जो निचुड़ी हुई हड्डियों की बुनियाद पर खड़ा है।
इसलिए बहनो! साथियो!!
कड़ी से कड़ी जोड़ो! मुट्ठियों से मुट्ठियाँ!
सपनों से सपने! संकल्पों से संकल्प!
दस्तों से दस्ते!
और आगे बढ़ो बर्बरों के अड्डों की ओर!

'बेरोजगार की आखिरी रात'

'बेरोजगार की आखिरी रात' पुस्तक का जुलाई माह में अमेरिका के प्रतिष्ठित आथर हाउस में प्रकाशन हुआ है। यह किताब ई-बुक के रूप में अमेजॉन.इन पर उपलब्ध है। इसके लेखक दविंद्र सिंह गुलेरिया लगभग आठ साल तक अमर उजाला में रहे हैं। उन्होंने दिसंबर 2013 में चंडीगढ़ से अमर उजाला से इस्तीफा दिया था। उस समय वह पंजाब संस्करण के प्रभारी थे। कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश के रहने वाले गुलेरिया सात साल से अधिक समय तक अमर उजाला हिमाचल डेस्क के प्रभारी रहे। करीब दो माह तक वह हिमाचल अमर उजाला के संपादकीय विभाग के प्रभारी भी रहे। चूंकि वह ईमानदार आदमी हैं, चापलूसी न तो करते हैं और न ही करवाते हैं, बस काम से मतलब रखते हैं। उदय कुमार ने उनको अमर उजाला में बहुत परेशान किया।
उदय कुमार द्वारा गलत तबादले करने के कारण शिमला डेस्क पर चार पद एक साल से अधिक समय तक खाली रहे थे। गुलेरिया शिमला में अमर उजाला हिमाचल डेस्क के प्रभारी थे तो उन्होंने कई बार खाली पदों को लेकर अवगत करवाया, पर पद नहीं भरे गए। हर दिन तीन या चार एडिशन बिना सब एडिटर के होते थे। गुलेरिया ने जैसे-तैसे एक साल से अधिक समय तक काम चलाया। उन्होंने साल में लगभग 25 साप्ताहिक अवकाश लगाए, जिसका उन्हें कुछ नहीं मिला। इसका इनाम उन्हें
अप्रैल 2013 में चंडीगढ़ ट्रांसफर के रूप में मिला था। गुलेरिया की जगह उदय कुमार ने शिमला में अपना आदमी बैठाया था। साथ में डेस्क पर खाली पड़े सारे पद एकदम से भर दिए थे ताकि उनका आदमी डेस्क पर फेल न हो जाए।
जो काम गुलेरिया अकेले देखते थे, उसको देखने के लिए दो आदमी लगा दिए थे। पर फिर भी वे काम ढंग से नहीं कर पाते थे। यहां तक कि डेस्क के लोग भी इससे बहुत दुखी थे। उदय कुमार की इस टुच्ची राजनीति के कारण गुलेरिया ने अमर उजाला छोड़कर हमीरपुर से प्रकाशित हो रहे डीएनएस ज्वाइन कर लिया था। दविंद्र सिंह गुलेरिया छात्र समय से ही लिखते रहे हैं। उन्होंने पहली किताब 17 साल की आयु में लिखी थी। इसे प्रकाशित करने के लिए हिमाचल भाषा, कला एवं संस्कृति अकादमी शिमला ने अप्रैल, 1995 में दो हजार रुपए स्वीकृत किए थे। गुलेरिया को आज भी इस बात की टीस है कि उनके साथ इस तरह से अन्याय किया गया। पर उन्हें खुशी है कि अमेरिका के प्रकाशन हाउस ने उनकी किताब छापकर विरोधियों को इसका करारा जवाब दिया है। (भड़ास4मीडिया से साभार)